योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 134: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- तत्त्वत: जीव-कर्मणो: स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं (विद्यते); ताभ्यां गुण: क्रियते (इति) हि व्यवहारेण गद्यते । </p> | <p><b> अन्वय </b>:- तत्त्वत: जीव-कर्मणो: स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं (विद्यते); ताभ्यां गुण: क्रियते (इति) हि व्यवहारेण गद्यते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- निश्चयनय से जीव और कर्म में अपने-अपने गुणों का कर्तापना विद्यमान है अर्थात् जीव अपने ज्ञानादि गुणों/पर्यायों का और कार्माणवर्गणारूप पुद्गल कर्म अपने ज्ञानावरणादि गुणों/पर्यायों का कर्ता है । एक के द्वारा दूसरे के गुणों/पर्यायों का किया जाना जो कहा जाता है, वह सर्व व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- निश्चयनय से जीव और कर्म में अपने-अपने गुणों का कर्तापना विद्यमान है अर्थात् जीव अपने ज्ञानादि गुणों/पर्यायों का और कार्माणवर्गणारूप पुद्गल कर्म अपने ज्ञानावरणादि गुणों/पर्यायों का कर्ता है । एक के द्वारा दूसरे के गुणों/पर्यायों का किया जाना जो कहा जाता है, वह सर्व व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है । </p> | ||
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Revision as of 09:00, 19 January 2009
जीव तथा कर्म के कर्तासंबंधी ही नयसापेक्ष कथन -
स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं तत्त्वतो जीव-कर्मणो: ।
क्रियते हि गुणस्ताभ्यां व्यवहारेण गद्यते ।।१३४।।
अन्वय :- तत्त्वत: जीव-कर्मणो: स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं (विद्यते); ताभ्यां गुण: क्रियते (इति) हि व्यवहारेण गद्यते ।
सरलार्थ :- निश्चयनय से जीव और कर्म में अपने-अपने गुणों का कर्तापना विद्यमान है अर्थात् जीव अपने ज्ञानादि गुणों/पर्यायों का और कार्माणवर्गणारूप पुद्गल कर्म अपने ज्ञानावरणादि गुणों/पर्यायों का कर्ता है । एक के द्वारा दूसरे के गुणों/पर्यायों का किया जाना जो कहा जाता है, वह सर्व व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है ।