योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 104: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: इंद्रिय गोचर सब पुद्गल हैं - <p class="SanskritGatha"> दृश्यते ज्ञायते किंचिद् यदक्षै...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
रूप का पौद्गलिक स्वरूप - | |||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
न निर्वृतिं गतस्यास्ति तद्रूपं किंचिदात्मन: ।<br> | |||
अचेतनमिदं प्रोक्तं सर्वं पौद्गलिकं जिनै: ।।१०४।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p><b> अन्वय </b>:- अक्षै: यत् | <p><b> अन्वय </b>:- (अक्षै: यत् दृश्यते ज्ञायते अनुभूयते) तत् किंचित् (अपि) रूपं निर्वृतिं गतस्य आत्मन: न अस्ति । जिनै: इदं सर्वं (रूपं) अचेतनं पौद्गलिकं प्रोक्तं । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p><b> सरलार्थ </b>:- जो इंद्रियों से देखा जाता है, जाना जाता है, और अनुभव में लिया जाता है वह सभी रूप अर्थात् मूर्तिकपना मोक्ष-प्राप्त आत्मा में नहीं है; क्योंकि रूप को जिनेन्द्रदेव ने पुद्गलात्मक एवं अचेतन कहा है । </p> | ||
<p class="GathaLinks"> | <p class="GathaLinks"> | ||
[[योगसार - अजीव-अधिकार गाथा | [[योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 103 | पिछली गाथा]] | ||
[[योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 105 | अगली गाथा]]</p> | [[योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 105 | अगली गाथा]]</p> |
Revision as of 23:11, 19 January 2009
रूप का पौद्गलिक स्वरूप -
न निर्वृतिं गतस्यास्ति तद्रूपं किंचिदात्मन: ।
अचेतनमिदं प्रोक्तं सर्वं पौद्गलिकं जिनै: ।।१०४।।
अन्वय :- (अक्षै: यत् दृश्यते ज्ञायते अनुभूयते) तत् किंचित् (अपि) रूपं निर्वृतिं गतस्य आत्मन: न अस्ति । जिनै: इदं सर्वं (रूपं) अचेतनं पौद्गलिकं प्रोक्तं ।
सरलार्थ :- जो इंद्रियों से देखा जाता है, जाना जाता है, और अनुभव में लिया जाता है वह सभी रूप अर्थात् मूर्तिकपना मोक्ष-प्राप्त आत्मा में नहीं है; क्योंकि रूप को जिनेन्द्रदेव ने पुद्गलात्मक एवं अचेतन कहा है ।