योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 77: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- परमार्थत: स्वरूपं निमग्नानां पदार्थानां क: अपि कस्य अपि कदाचन किंचन (अपि) न करोति । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- परमार्थत: स्वरूपं निमग्नानां पदार्थानां क: अपि कस्य अपि कदाचन किंचन (अपि) न करोति । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में मग्न/लीन हैं; इसकारण निश्चयनय से कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कुछ भी कार्य कभी भी नहीं कर सकता । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में मग्न/लीन हैं; इसकारण निश्चयनय से कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कुछ भी कार्य कभी भी नहीं कर सकता । </p> | ||
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Latest revision as of 10:16, 15 May 2009
कोई किसी का कभी कोई कार्य करता ही नहीं -
पदार्थानां निमग्नानां स्वरूपं परमार्थत: ।
करोति कोsपि कस्यापि न किंचन कदाचन ।।७७।।
अन्वय :- परमार्थत: स्वरूपं निमग्नानां पदार्थानां क: अपि कस्य अपि कदाचन किंचन (अपि) न करोति ।
सरलार्थ :- सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में मग्न/लीन हैं; इसकारण निश्चयनय से कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कुछ भी कार्य कभी भी नहीं कर सकता ।