अनुप्रेक्षा: Difference between revisions
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<p>1. भेद व लक्षण</p> | <p>1. भेद व लक्षण</p> | ||
<p>1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण</p> | <p>1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण</p> | ||
<p> तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= बारह प्रकार से कहे गये तत्त्व का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।</p> | <p class="HindiText">= बारह प्रकार से कहे गये तत्त्व का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409 शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409 शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 8/2,4/591/34)</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 8/2,4/591/34)</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443 अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443 अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= जाने हुए अर्थ का मनमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जाने हुए अर्थ का मनमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/25,3/624) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/20) ( चारित्रसार पृष्ठ 153/3) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/86/715)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/25,3/624) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/20) ( चारित्रसार पृष्ठ 153/3) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/86/715)।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 9/4,1,55/263/1 कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 9/4,1,55/263/1 कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम। </p> | ||
<p>= कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूपसे हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।</p> | <p class="HindiText">= कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूपसे हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 14/5,6,14/9/5 सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहणं णाम। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 14/5,6,14/9/5 सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहणं णाम। </p> | ||
<p>= सुने हुए अर्थ का श्रुत के अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।</p> | <p class="HindiText">= सुने हुए अर्थ का श्रुत के अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।</p> | ||
<p>2. अनुप्रेक्षा के भेद</p> | <p>2. अनुप्रेक्षा के भेद</p> | ||
<p> तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 अनित्याशरणसंसारे कत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥7॥ </p> | <p class="SanskritText">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 अनित्याशरणसंसारे कत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥7॥ </p> | ||
<p>= अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं। </p> | <p class="HindiText">= अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं। </p> | ||
<p>( बारसाणुवेक्खा गाथा 2) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 692) (राजवार्तिक अध्याय 1,7/14/40/14) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/43-44) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/101)।</p> | <p>( बारसाणुवेक्खा गाथा 2) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 692) (राजवार्तिक अध्याय 1,7/14/40/14) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/43-44) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/101)।</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1715/1547 अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधि च चिंतिज्ज॥ </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1715/1547 अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधि च चिंतिज्ज॥ </p> | ||
<p>= अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाओं को भी चिन्तन करना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाओं को भी चिन्तन करना चाहिए।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धा व्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धा व्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन। </p> | ||
<p>= अन्यत्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आश्रय से चार प्रकार का है।</p> | <p class="HindiText">= अन्यत्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आश्रय से चार प्रकार का है।</p> | ||
<p>3. अनित्यानुप्रेक्षा – </p> | <p>3. अनित्यानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 7 परमट्ठेण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहिं। वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदभिदि चितये णिच्च ॥7॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 7 परमट्ठेण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहिं। वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदभिदि चितये णिच्च ॥7॥ </p> | ||
<p>= शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा का स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है। अर्थात् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं - ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है।</p> | <p class="HindiText">= शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा का स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है। अर्थात् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं - ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/7 उपात्तानुपात्तद्रव्यसंयोगव्यभिचारस्वाभावोऽनित्यत्वम्। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/7 उपात्तानुपात्तद्रव्यसंयोगव्यभिचारस्वाभावोऽनित्यत्वम्। </p> | ||
<p>= उपात्त और अनुपात्त द्रव्य संयोगों का व्यभिचारी स्वभाव अनित्य है।</p> | <p class="HindiText">= उपात्त और अनुपात्त द्रव्य संयोगों का व्यभिचारी स्वभाव अनित्य है।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102 तत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम्। तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति। इत्यध्रुवानुप्रेक्षा मता। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102 तत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम्। तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति। इत्यध्रुवानुप्रेक्षा मता। </p> | ||
<p>= (धन स्त्री आदि) सो सब अनित्य हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदि के वियोग होनेपर भी जूठे भोजनों के समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्व का अभाव होनेसे अविनाशी निज परमात्मा का ही भेद, अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है। जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय, अनन्त सुख स्वभाववाली मुक्त आत्मा कों प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अध्रुव भावना है।</p> | <p class="HindiText">= (धन स्त्री आदि) सो सब अनित्य हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदि के वियोग होनेपर भी जूठे भोजनों के समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्व का अभाव होनेसे अविनाशी निज परमात्मा का ही भेद, अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है। जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय, अनन्त सुख स्वभाववाली मुक्त आत्मा कों प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अध्रुव भावना है।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 6 जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घ। भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 6 जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घ। भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥ </p> | ||
<p>= जब क्षीरनीरक्त जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं। (भूधरकृत 12 भावनाएँ) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | <p class="HindiText">= जब क्षीरनीरक्त जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं। (भूधरकृत 12 भावनाएँ) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413 इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413 इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बुद्के समान अनवस्थित स्वभाववाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होनेवाले संयोगों से विपरीत स्वभाववाले होते हैं। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बुद्के समान अनवस्थित स्वभाववाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होनेवाले संयोगों से विपरीत स्वभाववाले होते हैं। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1716-1728/1543) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 693-694) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/9) (प.विं./3 सम्पूर्ण) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/45) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/1) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/58-59/609)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1716-1728/1543) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 693-694) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/9) (प.विं./3 सम्पूर्ण) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/45) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/1) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/58-59/609)।</p> | ||
<p>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा – </p> | <p>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 13 अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 13 अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥ </p> | ||
<p>= शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपनेसे जुदा हैं और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपनेसे जुदा हैं और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तवन करना चाहिए। </p> | ||
<p>( समयसार / मूल या टीका गाथा 27, 38) ( समयसार / क./5)।</p> | <p>( समयसार / मूल या टीका गाथा 27, 38) ( समयसार / क./5)।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमङ्ग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमङ्ग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। </p> | ||
<p>= शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बन्ध की अपेक्षा अभेद होनेपर भी लक्षण के भेदसे `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐन्द्रियक है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती। </p> | <p class="HindiText">= शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बन्ध की अपेक्षा अभेद होनेपर भी लक्षण के भेदसे `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐन्द्रियक है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1754) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 700/702) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/31) ( चारित्रसार पृष्ठ 170/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/49/210) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/66-67/6/9)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1754) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 700/702) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/31) ( चारित्रसार पृष्ठ 170/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/49/210) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/66-67/6/9)।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धाव्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन। आत्मा जीव इति नामभेदः, काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेदः, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति द्रव्यभेदः, एकस्मिन्नपि द्रव्यै बालो युवा मनुष्यो देव इति भावभेदः। तत्र बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वम्। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धाव्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन। आत्मा जीव इति नामभेदः, काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेदः, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति द्रव्यभेदः, एकस्मिन्नपि द्रव्यै बालो युवा मनुष्यो देव इति भावभेदः। तत्र बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वम्। </p> | ||
<p>= नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के अवलम्बन भेदसे अन्यत्व चार प्रकार का है। आत्मा जीव इत्यादि तो नाम भेद या नामों में अन्यत्व है, काष्ठ आदिकी प्रतिमाओं में भेद सो स्थापना अन्यत्व है, जीव-अजीव आदि सो द्रव्यों में अन्यत्व है और एक ही द्रव्य में बाल और युवा, मनुष्य या दैव आदिक भेद सो भावों से अन्यत्व है। बन्ध रूपसे एक होते हुए भी लक्षण रूपसे इन सबमें भेद होना सो अन्यत्व है।</p> | <p class="HindiText">= नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के अवलम्बन भेदसे अन्यत्व चार प्रकार का है। आत्मा जीव इत्यादि तो नाम भेद या नामों में अन्यत्व है, काष्ठ आदिकी प्रतिमाओं में भेद सो स्थापना अन्यत्व है, जीव-अजीव आदि सो द्रव्यों में अन्यत्व है और एक ही द्रव्य में बाल और युवा, मनुष्य या दैव आदिक भेद सो भावों से अन्यत्व है। बन्ध रूपसे एक होते हुए भी लक्षण रूपसे इन सबमें भेद होना सो अन्यत्व है।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 21 मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 21 मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥ </p> | ||
<p>= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बन्धुजनों का समूह अपने कार्यके वश सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थ में जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं।</p> | <p class="HindiText">= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बन्धुजनों का समूह अपने कार्यके वश सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थ में जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं।</p> | ||
<p>धम्मपद/5/3 पुत्ता मत्थि धन मत्थि इदि बालो विहञ्जति। अत्ता हि अत्तनो नत्थि कतो पुत्तो कतो धनं॥ </p> | <p class="SanskritText">धम्मपद/5/3 पुत्ता मत्थि धन मत्थि इदि बालो विहञ्जति। अत्ता हि अत्तनो नत्थि कतो पुत्तो कतो धनं॥ </p> | ||
<p>= मेरे पुत्र हैं, मेरा धन है ऐसा अज्ञानीजन कहते हैं। इस संसारमें जब शरीर ही अपना नहीं तब पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते हैं।</p> | <p class="HindiText">= मेरे पुत्र हैं, मेरा धन है ऐसा अज्ञानीजन कहते हैं। इस संसारमें जब शरीर ही अपना नहीं तब पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते हैं।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि....निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि। तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। ...इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा....॥ </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि....निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि। तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। ...इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा....॥ </p> | ||
<p>= देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि कर्मों के आधीन होनेसे विनश्वर है। निश्चय नयसे निज परमात्म पदार्थसे अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि कर्मों के आधीन होनेसे विनश्वर है। निश्चय नयसे निज परमात्म पदार्थसे अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1755-1767/1547) (भूधरकृत भावना सं. 4) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1755-1767/1547) (भूधरकृत भावना सं. 4) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | ||
<p>5. अशरणानुप्रेक्षा – </p> | <p>5. अशरणानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 11 जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 11 जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥ </p> | ||
<p>= जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तवमें जो कर्मों की बन्ध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है। अर्थात् संसारमें अपने आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादि के कष्टों से बच सकता है। </p> | <p class="HindiText">= जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तवमें जो कर्मों की बन्ध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है। अर्थात् संसारमें अपने आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादि के कष्टों से बच सकता है। </p> | ||
<p>( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 74)</p> | <p>( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 74)</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 30 दंसणणाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 30 दंसणणाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥ </p> | ||
<p>= हे भव्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धाके साथ उन्हीं का सेवन कर। संसारमें भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। </p> | <p class="HindiText">= हे भव्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धाके साथ उन्हीं का सेवन कर। संसारमें भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1746)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1746)।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102-103 अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भागाकांक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणगतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102-103 अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भागाकांक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणगतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता। </p> | ||
<p>= निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो शुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारो कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, यह दोनों शरण हैं। उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भहरा, मणि, मन्त्र-तन्त्र, आज्ञा, महल और औषध आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरणादि के समय शरणभूत नहीं होते जैसे महावनमें व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा समुद्रमें जहाज से छूटे पक्षी को कोई शरण नहीं है। अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर आगामी भोगों की आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभवसे उत्पन्न सुख रूप अमृत का धारक निज शुद्धात्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्धात्मा की भावना करता है। जैसी आत्मा को यह शरणभूत भाता है वैसे ही सदा शरणभूत, शरणमें आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज शुद्धात्मा को प्राप्त होता है। इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ।</p> | <p class="HindiText">= निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो शुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारो कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, यह दोनों शरण हैं। उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भहरा, मणि, मन्त्र-तन्त्र, आज्ञा, महल और औषध आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरणादि के समय शरणभूत नहीं होते जैसे महावनमें व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा समुद्रमें जहाज से छूटे पक्षी को कोई शरण नहीं है। अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर आगामी भोगों की आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभवसे उत्पन्न सुख रूप अमृत का धारक निज शुद्धात्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्धात्मा की भावना करता है। जैसी आत्मा को यह शरणभूत भाता है वैसे ही सदा शरणभूत, शरणमें आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज शुद्धात्मा को प्राप्त होता है। इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1729 णासदि मदि उदिण्णे कम्मेण य तस्स दीसदि उवाओ। अमदंपि विसं सच्छं तणं पि णीयं विहुंति अरी। </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1729 णासदि मदि उदिण्णे कम्मेण य तस्स दीसदि उवाओ। अमदंपि विसं सच्छं तणं पि णीयं विहुंति अरी। </p> | ||
<p>= कर्म का उदय आनेपर विचारयुक्त बुद्धि नष्ट होती है, अवग्रह इत्यादि रूप मतिज्ञान और आप्त के उपदेश से प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान इन दोनों से मनुष्य प्राणी हित और अहित का स्वरूप जान लेता है। अन्य उपायसे हिताहित नहीं जाना जाता है। असाता वेदनीय कर्म के उदयसे अमृत भी विष होता है और तृण भी छुरी का काम देता है, बन्धु भी शत्रु हो जाते हैं। </p> | <p class="HindiText">= कर्म का उदय आनेपर विचारयुक्त बुद्धि नष्ट होती है, अवग्रह इत्यादि रूप मतिज्ञान और आप्त के उपदेश से प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान इन दोनों से मनुष्य प्राणी हित और अहित का स्वरूप जान लेता है। अन्य उपायसे हिताहित नहीं जाना जाता है। असाता वेदनीय कर्म के उदयसे अमृत भी विष होता है और तृण भी छुरी का काम देता है, बन्धु भी शत्रु हो जाते हैं। </p> | ||
<p>(विस्तार देखें [[ भगवती आराधना ]]मुल या टीका गाथा 1729-1745)</p> | <p>(विस्तार देखें [[ भगवती आराधना ]]मुल या टीका गाथा 1729-1745)</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 8 मणिमतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥8॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 8 मणिमतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥8॥ </p> | ||
<p>= मरते समय प्राणियों को तीनों लोकों में मणि, मन्त्र, औषध, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हें मरने से नहीं बचा सकते।</p> | <p class="HindiText">= मरते समय प्राणियों को तीनों लोकों में मणि, मन्त्र, औषध, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हें मरने से नहीं बचा सकते।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 यथा-मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति। संविभक्तसुखदुःखा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयन्ति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 यथा-मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति। संविभक्तसुखदुःखा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयन्ति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीचमें भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करनेवाला होता है न कि कष्ट आनेपर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःखमें भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुम्बी रोगग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्रमें तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इन्द्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्तिमें वा कष्टमें धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीचमें भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करनेवाला होता है न कि कष्ट आनेपर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःखमें भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुम्बी रोगग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्रमें तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इन्द्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्तिमें वा कष्टमें धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 695-697) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,2/600/15) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/46) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/60-61/612) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा /35/103)।</p> | <p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 695-697) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,2/600/15) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/46) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/60-61/612) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा /35/103)।</p> | ||
<p>6. अशुचित्वानुप्रेक्षा – </p> | <p>6. अशुचित्वानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 46 देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 46 देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥ </p> | ||
<p>= वास्तवमें आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनन्त सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इस प्रकार निरन्तर भावना करते रहना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= वास्तवमें आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनन्त सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इस प्रकार निरन्तर भावना करते रहना चाहिए। </p> | ||
<p>( मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 18) (श्रीमद् कृत 12 भावनाएँ)।</p> | <p>( मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 18) (श्रीमद् कृत 12 भावनाएँ)।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109 सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109 सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p>= अपवित्र होनेसे, सात धातुमय होनेसे, नाकादि नौ छिद्र द्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होनेसे ही यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदि का उत्पादक होनेसे अशुचि है.....निश्चय से अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है।....`ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करनेवाले मुनि) के हा पवित्रता है। जो काम क्रोधादि में लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करनेपर भी पवित्रता नहीं है।....आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।....इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का कथन हुआ।</p> | <p class="HindiText">= अपवित्र होनेसे, सात धातुमय होनेसे, नाकादि नौ छिद्र द्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होनेसे ही यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदि का उत्पादक होनेसे अशुचि है.....निश्चय से अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है।....`ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करनेवाले मुनि) के हा पवित्रता है। जो काम क्रोधादि में लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करनेपर भी पवित्रता नहीं है।....आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।....इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का कथन हुआ।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1813-1815 असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं। एओ चेव सुभी णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥1813॥ इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं सुत्तिपडिपंथो ॥1814॥ कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उबधो लोए दुक्खावहा य ण य हुंति ते सुलहा ॥1815॥ </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1813-1815 असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं। एओ चेव सुभी णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥1813॥ इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं सुत्तिपडिपंथो ॥1814॥ कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उबधो लोए दुक्खावहा य ण य हुंति ते सुलहा ॥1815॥ </p> | ||
<p>= अर्थ व काम पुरुषार्थ तथा सर्व मनुष्यों का देह अशुभ है। एक धर्म ही शुभ है और सर्व सौख्यों का दाता है ॥1813॥ इस लोक और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। अर्थ पुरुषार्थ के वश होकर पुरुष अन्याय करता है, चोरी करता है और राजासे दण्डित होता है और परलोक में नरक में नाना दुःखों का अनुभव लेता है, इसलिए अर्थ अर्थात् धन अनर्थ का कारण है। महाभय का कारण है, मोक्ष प्राप्ति के लिए यह अर्गला के समान प्रतिबन्ध करता है ॥1814॥ यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीरसे उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हल्की होती है, इसकी सेवासे आत्मा दुर्गति में दुःख पाती है, यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है। और प्राप्त होनेमें कठिन है।</p> | <p class="HindiText">= अर्थ व काम पुरुषार्थ तथा सर्व मनुष्यों का देह अशुभ है। एक धर्म ही शुभ है और सर्व सौख्यों का दाता है ॥1813॥ इस लोक और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। अर्थ पुरुषार्थ के वश होकर पुरुष अन्याय करता है, चोरी करता है और राजासे दण्डित होता है और परलोक में नरक में नाना दुःखों का अनुभव लेता है, इसलिए अर्थ अर्थात् धन अनर्थ का कारण है। महाभय का कारण है, मोक्ष प्राप्ति के लिए यह अर्गला के समान प्रतिबन्ध करता है ॥1814॥ यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीरसे उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हल्की होती है, इसकी सेवासे आत्मा दुर्गति में दुःख पाती है, यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है। और प्राप्त होनेमें कठिन है।</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 44 दुग्गंध वीभत्वं कलिमलभरिवं अचेयणा सुत्तं। सडणपडणसहावं देह इदि चिंतये णिच्चं ॥4॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 44 दुग्गंध वीभत्वं कलिमलभरिवं अचेयणा सुत्तं। सडणपडणसहावं देह इदि चिंतये णिच्चं ॥4॥ </p> | ||
<p>= यह देह दुर्गन्धमय है, डरावनी है, मलमूत्र से भरी हुई है, जड़ है, मूर्तीक है और क्षीण होनेवाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= यह देह दुर्गन्धमय है, डरावनी है, मलमूत्र से भरी हुई है, जड़ है, मूर्तीक है और क्षीण होनेवाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिए।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/16 शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनिशुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वङ्मात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतोबिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/16 शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनिशुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वङ्मात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतोबिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्रसे आच्छादित है। अति दुर्गन्धित रसको बहानेवाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप का मालिश और सुगन्धित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि के जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूपसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्रसे आच्छादित है। अति दुर्गन्धित रसको बहानेवाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप का मालिश और सुगन्धित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि के जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूपसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1816-1820) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 37-42) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 720-723) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/6) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/50) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/68-69) स.सा.नाटक 4 (भूधरकृत भावना सं. 6) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ) (और भी देखो अशुचि के भेद)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1816-1820) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 37-42) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 720-723) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/6) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/50) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/68-69) स.सा.नाटक 4 (भूधरकृत भावना सं. 6) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ) (और भी देखो अशुचि के भेद)।</p> | ||
<p>7. आस्रवानुप्रेक्षा – </p> | <p>7. आस्रवानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 60 पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मक्कं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥60॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 60 पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मक्कं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥60॥ </p> | ||
<p>= पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नयसे जीव के नहीं होते हैं। इसलिए निरन्तर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिन्तवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नयसे जीव के नहीं होते हैं। इसलिए निरन्तर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिन्तवन करना चाहिए। </p> | ||
<p>( समयसार / मूल या टीका गाथा 51) ( समयसार / आत्मख्याति गाथा 178/क.120)।</p> | <p>( समयसार / मूल या टीका गाथा 51) ( समयसार / आत्मख्याति गाथा 178/क.120)।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 59 पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 59 पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥ </p> | ||
<p>= कर्मों का आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भी निर्माण नहीं हो सकता है। इसलिए संसारमें भटकनेवाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= कर्मों का आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भी निर्माण नहीं हो सकता है। इसलिए संसारमें भटकनेवाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।</p> | ||
<p> मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 730 धिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गं ॥730॥ </p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 730 धिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गं ॥730॥ </p> | ||
<p>= मोहको सदा काल धिक्कार हो, धिक्कार हो; क्योंकि हृदयमें रहनेवाले जिस मोहसे मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्ष सुख का कारण ऐसे जिन वचन को नहीं पहचानता।</p> | <p class="HindiText">= मोहको सदा काल धिक्कार हो, धिक्कार हो; क्योंकि हृदयमें रहनेवाले जिस मोहसे मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्ष सुख का कारण ऐसे जिन वचन को नहीं पहचानता।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रीतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायाव्रतादयः तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतङ्गहरिणादीन् व्यसनार्णवमगाहयन्ति तथा कषायोदयोऽपीह वधबन्धापयशःपरिक्लेशादीन् जनयन्ति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमास्रवदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रीतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायाव्रतादयः तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतङ्गहरिणादीन् व्यसनार्णवमगाहयन्ति तथा कषायोदयोऽपीह वधबन्धापयशःपरिक्लेशादीन् जनयन्ति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमास्रवदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा </p> | ||
<p>= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतङ्ग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोकमें, वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करते हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिन्तवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतङ्ग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोकमें, वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करते हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिन्तवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1821-1835) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 193/2) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/51) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71) (भूधरकृत भावना सं. 7)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1821-1835) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 193/2) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/51) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71) (भूधरकृत भावना सं. 7)।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110 इन्द्रियाणि....कषाया....पञ्चाव्रतानि....पञ्चविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110 इन्द्रियाणि....कषाया....पञ्चाव्रतानि....पञ्चविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति। </p> | ||
<p>= पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्मजल के प्रवेश हो जानेपर संसारसमुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिन्तवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्मजल के प्रवेश हो जानेपर संसारसमुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिन्तवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।</p> | ||
<p>8. एकत्वानुप्रेक्षा – </p> | <p>8. एकत्वानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1752-1753 जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइयो। सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ ॥1752॥ बद्धस्स बंधणे व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स। धिससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु तहा ॥1753॥ </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1752-1753 जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइयो। सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ ॥1752॥ बद्धस्स बंधणे व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स। धिससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु तहा ॥1753॥ </p> | ||
<p>= सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात् रत्नत्रय रूप धर्म जो इस जीवने धारण किया था वही लोकमें इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है ॥1752॥ रज्जू आदिसे बन्धा हुआ पुरुष जिस प्रकार उन रज्जू आदि बन्धनों में राग नहीं करता है, वैसे ही ज्ञानी जनों के शरीरमें स्नेह नहीं होता है। तथा इसी प्रकार विष के समान दुःखद व महाभय प्रदायी अर्थमें अर्थात् धनमें भी राग नहीं होता है ॥1753॥</p> | <p class="HindiText">= सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात् रत्नत्रय रूप धर्म जो इस जीवने धारण किया था वही लोकमें इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है ॥1752॥ रज्जू आदिसे बन्धा हुआ पुरुष जिस प्रकार उन रज्जू आदि बन्धनों में राग नहीं करता है, वैसे ही ज्ञानी जनों के शरीरमें स्नेह नहीं होता है। तथा इसी प्रकार विष के समान दुःखद व महाभय प्रदायी अर्थमें अर्थात् धनमें भी राग नहीं होता है ॥1753॥</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 20 एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥20॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 20 एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥20॥ </p> | ||
<p>= मैं अकेला हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ, और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= मैं अकेला हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ, और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए। </p> | ||
<p>( समयसार / मूल या टीका गाथा 73) (सामायिक पाठ अमितगति 27) (स.सा.ना./33)।</p> | <p>( समयसार / मूल या टीका गाथा 73) (सामायिक पाठ अमितगति 27) (स.सा.ना./33)।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 43/107 निश्चयेन.....केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्।....न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम्।....निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी न च पुत्रकलत्रादि। ....स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थ न च सुवर्णाद्यर्थाः.....स्वभावात्मसुखमेवैक सुखं न चाकुलत्वोत्पादेन्द्रियसुखमिति। ......स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति।....एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 43/107 निश्चयेन.....केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्।....न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम्।....निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी न च पुत्रकलत्रादि। ....स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थ न च सुवर्णाद्यर्थाः.....स्वभावात्मसुखमेवैक सुखं न चाकुलत्वोत्पादेन्द्रियसुखमिति। ......स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति।....एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p>= निश्चय से केवलज्ञान ही एक सहज या स्वाभाविक शरीर है, सप्तधातुमयी यह औदारिक शरीर नहीं। निजात्म तत्त्व ही एक सदा शाश्वत व परम हितकारी है, पुत्र कलत्रादि नहीं। स्वशुद्धात्म पदार्थ ही एक अविनश्वर व परम हितकारी परम धन है, सुवर्णादि रूप धन नहीं। स्वभावात्म सुख ही एक सुख है, आकुलता उत्पादक इन्द्रिय सुख नहीं। स्वशुद्धात्मा ही एक सहायी है। इस प्रकार एकत्व भावना का फल जानकर निरन्तर शुद्धात्मा में एकत्व भावना करनी चाहिए। इस प्रकार एकत्व भावना कही गयी।</p> | <p class="HindiText">= निश्चय से केवलज्ञान ही एक सहज या स्वाभाविक शरीर है, सप्तधातुमयी यह औदारिक शरीर नहीं। निजात्म तत्त्व ही एक सदा शाश्वत व परम हितकारी है, पुत्र कलत्रादि नहीं। स्वशुद्धात्म पदार्थ ही एक अविनश्वर व परम हितकारी परम धन है, सुवर्णादि रूप धन नहीं। स्वभावात्म सुख ही एक सुख है, आकुलता उत्पादक इन्द्रिय सुख नहीं। स्वशुद्धात्मा ही एक सहायी है। इस प्रकार एकत्व भावना का फल जानकर निरन्तर शुद्धात्मा में एकत्व भावना करनी चाहिए। इस प्रकार एकत्व भावना कही गयी।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 14 एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दोहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥14॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 14 एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दोहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥14॥ </p> | ||
<p>= यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बान्धता है, अकेला ही अनादि संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है। </p> | <p class="HindiText">= यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बान्धता है, अकेला ही अनादि संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है। </p> | ||
<p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 699)।</p> | <p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 699)।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वःपरो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति। बन्धुमित्राणि श्मशानं नातिवर्तन्ते धर्म एव मे सहायः सदा अनपायीति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वःपरो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति। बन्धुमित्राणि श्मशानं नातिवर्तन्ते धर्म एव मे सहायः सदा अनपायीति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बन्धु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बन्धु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना 1747-1751) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 698) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601) ( चारित्रसार पृष्ठ 187/2) (पं.विं./6/48 तथा सम्पूर्ण अधिकार स. 4, श्लोक सं. 29) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/64-65) (भूधरकृत भावना सं. 3) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | <p>( भगवती आराधना 1747-1751) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 698) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601) ( चारित्रसार पृष्ठ 187/2) (पं.विं./6/48 तथा सम्पूर्ण अधिकार स. 4, श्लोक सं. 29) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/64-65) (भूधरकृत भावना सं. 3) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | ||
<p>9. धर्मानुप्रेक्षा – </p> | <p>9. धर्मानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 82 णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झस्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिच्चं ॥82॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 82 णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झस्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिच्चं ॥82॥ </p> | ||
<p>= जीव निश्चय नयसे सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और सुनि धर्मसे बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेष रहित परिणामों से शुद्ध स्वरूप आत्मा ही सदा ध्यान करना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= जीव निश्चय नयसे सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और सुनि धर्मसे बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेष रहित परिणामों से शुद्ध स्वरूप आत्मा ही सदा ध्यान करना चाहिए।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/7,10/603/23 उक्तानि जीवस्थानानि गुणस्थानानि च, तेषां गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वतत्त्वविचारणालक्षणो धर्मः जिनशासने स्वाख्यातः॥ </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/7,10/603/23 उक्तानि जीवस्थानानि गुणस्थानानि च, तेषां गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वतत्त्वविचारणालक्षणो धर्मः जिनशासने स्वाख्यातः॥ </p> | ||
<p>= पूर्वोक्त जीवस्थानों व गुणस्थानों का उन गति आदि मार्गणास्थानों में अन्वेषण करते हुए स्वतत्त्व को विचारणालक्षणवाला धर्म जिनशासन में भली प्रकार कहा गया है।</p> | <p class="HindiText">= पूर्वोक्त जीवस्थानों व गुणस्थानों का उन गति आदि मार्गणास्थानों में अन्वेषण करते हुए स्वतत्त्व को विचारणालक्षणवाला धर्म जिनशासन में भली प्रकार कहा गया है।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 68,81 एयारसदसभेय धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥68॥ सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जोवो। सो ण य वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतये णिच्चं ॥81॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 68,81 एयारसदसभेय धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥68॥ सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जोवो। सो ण य वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतये णिच्चं ॥81॥ </p> | ||
<p>= उत्तम सुखमें लीन जिनदेवने कहा है कि श्रावकों और मुनियों का धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकार का और दस प्रकार का है ॥68॥ जो जीव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनियों के धर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावना का नित्य ही चिन्तन करते रहना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= उत्तम सुखमें लीन जिनदेवने कहा है कि श्रावकों और मुनियों का धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकार का और दस प्रकार का है ॥68॥ जो जीव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनियों के धर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावना का नित्य ही चिन्तन करते रहना चाहिए।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालम्बनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमन्ति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवन्तः। अस्य पुनः प्रतिलम्भे विविधभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालम्बनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमन्ति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवन्तः। अस्य पुनः प्रतिलम्भे विविधभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं। परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं। परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1857-1865) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 750-754) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/2) (पं.विं.6/56) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/80/633) (भूधरकृत भावना सं. 12)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1857-1865) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 750-754) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/2) (पं.विं.6/56) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/80/633) (भूधरकृत भावना सं. 12)।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/145 चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये....दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा....विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्तामणिरिति।....इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा गता। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/145 चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये....दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा....विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्तामणिरिति।....इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p>= चौरासी लाख योनियों में दुःखों को सहते हुए भ्रमण करते इस जीव को जब इस प्रकार के पूर्वोक्त धर्मकी प्राप्ति होती है तब वह विविध प्रकार के अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बलसे अक्षयानन्त सुखादि गुणों का स्थानभूत अर्हन्तपद और सिद्ध पदको प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियों का भण्डार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म ही चिन्तामणि है....इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | <p class="HindiText">= चौरासी लाख योनियों में दुःखों को सहते हुए भ्रमण करते इस जीव को जब इस प्रकार के पूर्वोक्त धर्मकी प्राप्ति होती है तब वह विविध प्रकार के अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बलसे अक्षयानन्त सुखादि गुणों का स्थानभूत अर्हन्तपद और सिद्ध पदको प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियों का भण्डार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म ही चिन्तामणि है....इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | ||
<p>(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | <p>(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | ||
<p>10. निर्जरानुप्रेक्षा – </p> | <p>10. निर्जरानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> समयसार / मूल या टीका गाथा 198 उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥198॥ </p> | <p class="SanskritText">समयसार / मूल या टीका गाथा 198 उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥198॥ </p> | ||
<p>= कर्मों के उदय का रस जिनेश्वर देवने अनेक प्रकार का कहा है। वे कर्म विपाक से हुए भाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो एक ज्ञायक भाव स्वरूप हूँ।</p> | <p class="HindiText">= कर्मों के उदय का रस जिनेश्वर देवने अनेक प्रकार का कहा है। वे कर्म विपाक से हुए भाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो एक ज्ञायक भाव स्वरूप हूँ।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/112 निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैर्वर्त्तत इति। ....इति निर्जरानुप्रेक्षा गता। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/112 निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैर्वर्त्तत इति। ....इति निर्जरानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p>= निजपरमात्मानुभूति के बलसे निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादिरूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | <p class="HindiText">= निजपरमात्मानुभूति के बलसे निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादिरूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | ||
<p>( समयसार / आत्मख्याति गाथा 193 उत्थानिका रूप कलश, 133)</p> | <p>( समयसार / आत्मख्याति गाथा 193 उत्थानिका रूप कलश, 133)</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 67 सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चादुगदीण पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 67 सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चादुगदीण पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥ </p> | ||
<p>= उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है। </p> | <p class="HindiText">= उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है। </p> | ||
<p>(भूधरकृत भावना सं. 10)।</p> | <p>(भूधरकृत भावना सं. 10)।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/417 निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुपेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/417 निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुपेक्षा। </p> | ||
<p>= वेदनाविपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परिषह के जीतनेपर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= वेदनाविपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परिषह के जीतनेपर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1845-1856) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 744-749) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/11) (प.विं./6/53) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/74-75/627)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1845-1856) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 744-749) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/11) (प.विं./6/53) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/74-75/627)।</p> | ||
<p>11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा – </p> | <p>11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 83-84 उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स। चिंता हवेइ बोही अच्चंतं दुल्लहं होदि ॥83॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं खु। सगदव्वमुवादेयं णिच्छयदो होदि सण्णाणं ॥84॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 83-84 उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स। चिंता हवेइ बोही अच्चंतं दुल्लहं होदि ॥83॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं खु। सगदव्वमुवादेयं णिच्छयदो होदि सण्णाणं ॥84॥ </p> | ||
<p>= जिस उपायसे सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय की चिन्ता करने को अत्यन्त दुर्लभबोधि भावना कहते हैं, क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञान का पाना अत्यन्त कठिन है ॥83॥ अशुद्ध निश्चयनयसे क्षायोपशमिक ज्ञानकर्मों के उदय से, जो कि परद्रव्य है, उत्पन्न होता है, इसलिए हेय अर्थात् त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य है, अर्थात् आत्मा का निज स्वभाव है, इसलिए उपादेय है ॥84॥</p> | <p class="HindiText">= जिस उपायसे सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय की चिन्ता करने को अत्यन्त दुर्लभबोधि भावना कहते हैं, क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञान का पाना अत्यन्त कठिन है ॥83॥ अशुद्ध निश्चयनयसे क्षायोपशमिक ज्ञानकर्मों के उदय से, जो कि परद्रव्य है, उत्पन्न होता है, इसलिए हेय अर्थात् त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य है, अर्थात् आत्मा का निज स्वभाव है, इसलिए उपादेय है ॥84॥</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418 एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा सिद्धानामनन्तगुणाः। एवं सर्वलोको निरन्तरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेन्द्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नोरोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छुलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रञ्जनं भस्मार्थं चन्दनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधिर्दुरवापः। तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418 एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा सिद्धानामनन्तगुणाः। एवं सर्वलोको निरन्तरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेन्द्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नोरोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छुलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रञ्जनं भस्मार्थं चन्दनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधिर्दुरवापः। तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= एक निगोद शरीरमें सिद्धों से अनन्त गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरन्तर भरा हुआ है। अतः इस लोकमें त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्रमें पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेन्द्रिय जीवों की बहुलता होनेके कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जानेपर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रिय, सम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपकी भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= एक निगोद शरीरमें सिद्धों से अनन्त गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरन्तर भरा हुआ है। अतः इस लोकमें त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्रमें पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेन्द्रिय जीवों की बहुलता होनेके कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जानेपर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रिय, सम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपकी भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1866-1873) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 755-762) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/4) (पं.विं./6/55) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/78-79/631) (भूधरकृत भावना सं. 11)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1866-1873) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 755-762) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/4) (पं.विं./6/55) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/78-79/631) (भूधरकृत भावना सं. 11)।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/144 कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्त्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिर्दुर्लभः। तस्मात्स एव निरन्तरं भावनीयः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति। एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता॥ </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/144 कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्त्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिर्दुर्लभः। तस्मात्स एव निरन्तरं भावनीयः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति। एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता॥ </p> | ||
<p>= यदि काकतालीयन्यायसे इन मनुष्य गति, आर्यत्व, तत्त्वश्रवणादि सबकी लब्धि हो जाये तो भी इनकी प्राप्ति रूप जो ज्ञान है, उसमें फलभूत जो शुद्धात्मा के ज्ञान स्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परमसमाधि है, वह दुर्लभ है। ....इसलिए उसको ही निरन्तर भावना करनी चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकों को निर्विघ्न अन्य भवमें साथ ले जाना सो समाधि है। ऐसा संक्षेप से बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ।</p> | <p class="HindiText">= यदि काकतालीयन्यायसे इन मनुष्य गति, आर्यत्व, तत्त्वश्रवणादि सबकी लब्धि हो जाये तो भी इनकी प्राप्ति रूप जो ज्ञान है, उसमें फलभूत जो शुद्धात्मा के ज्ञान स्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परमसमाधि है, वह दुर्लभ है। ....इसलिए उसको ही निरन्तर भावना करनी चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकों को निर्विघ्न अन्य भवमें साथ ले जाना सो समाधि है। ऐसा संक्षेप से बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ।</p> | ||
<p>12. लोकानुप्रेक्षा – </p> | <p>12. लोकानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 42 असुहेण णिरयतिरियं सुहउपजोगेग दिविजणरसोक्ख। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 42 असुहेण णिरयतिरियं सुहउपजोगेग दिविजणरसोक्ख। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥ </p> | ||
<p>= यह जीव अशुभ विचारों से नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभविचारों से देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध विचारों से मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावना का चिन्तन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= यह जीव अशुभ विचारों से नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभविचारों से देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध विचारों से मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावना का चिन्तन करना चाहिए। </p> | ||
<p>( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76, 77, 88) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | <p>( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76, 77, 88) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।</p> | ||
<p> भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1798/1614/18 यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते।...सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्। </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1798/1614/18 यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते।...सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्। </p> | ||
<p>= यद्यपि (नाम, स्थापनादि विकल्पों से) लोक के अनेक भेद हैं तथापि यहाँ लोक शब्दसे जीव द्रव्य लोक ही ग्राह्य है क्योंकि जीव के धर्म प्रवृत्ति का यहाँ क्रम कहा गया है।</p> | <p class="HindiText">= यद्यपि (नाम, स्थापनादि विकल्पों से) लोक के अनेक भेद हैं तथापि यहाँ लोक शब्दसे जीव द्रव्य लोक ही ग्राह्य है क्योंकि जीव के धर्म प्रवृत्ति का यहाँ क्रम कहा गया है।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/143 आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुद्धैकस्वभावे परमात्मनि सकलविमलकेवलज्ञानलोचनादर्शे बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्थां लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः। ....इति....निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकसुखामृतस्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/143 आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुद्धैकस्वभावे परमात्मनि सकलविमलकेवलज्ञानलोचनादर्शे बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्थां लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः। ....इति....निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकसुखामृतस्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= आदि, मध्य तथा अन्त रहित शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव तथा परमात्ममें पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्धात्मादि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं। इस कारण वह शुद्धात्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोकवाले निज शुद्धपरमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है।...इस प्रकार....निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमाह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है।</p> | <p class="HindiText">= आदि, मध्य तथा अन्त रहित शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव तथा परमात्ममें पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्धात्मादि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं। इस कारण वह शुद्धात्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोकवाले निज शुद्धपरमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है।...इस प्रकार....निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमाह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 715-719 तत्थणुवहंति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं सुहं दुक्खं। जम्मणमरणपुणव्भवमणतभवसायरे भीमे ॥715॥ आदा य होदि धूदा धूदा मादूत्तणं पुण उवेदि। पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे ॥716॥ होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो। जादो बच्चवरे किमिधिगत्थु संसारवासस्स ॥717॥ घिब्भक्दु लोगधम्मं देवाविय सूरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होंति ॥718॥ णाऊण लोगसारं णिस्सारं दीहगमणसंसारं। लोगग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥719॥ </p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 715-719 तत्थणुवहंति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं सुहं दुक्खं। जम्मणमरणपुणव्भवमणतभवसायरे भीमे ॥715॥ आदा य होदि धूदा धूदा मादूत्तणं पुण उवेदि। पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे ॥716॥ होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो। जादो बच्चवरे किमिधिगत्थु संसारवासस्स ॥717॥ घिब्भक्दु लोगधम्मं देवाविय सूरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होंति ॥718॥ णाऊण लोगसारं णिस्सारं दीहगमणसंसारं। लोगग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥719॥ </p> | ||
<p>= इस लोकमें ये जीव अपने कर्मों से उपार्जन किये सुख-दुःख को भोगते हैं और भयंकर इस भवसागरमें जन्म-मरण को बारम्बार अनुभव करते हैं ॥715॥ इस संसारमें माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥716॥ प्रताप सुन्दरता से अधिक बल वीर्ययुक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्मवश अशुचि (मैले) स्थान में लट होता है। इसलिए ऐसे संसारमें रहने को धिक्कार हो ॥717॥ इस प्रकार लोक के स्वभाव को धिक्कार हो जिससे कि देव और महान् ऋद्धिवाले इन्द्र अनुपम सुख को भोग कर पश्चात् दुख भोगनेवाले होते हैं ॥718॥ इस प्रकार लोक को निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसार को अनन्त जानकर अनन्त सुख का स्थान ऐसे मोक्ष का यत्न से ध्यान कर ॥719॥</p> | <p class="HindiText">= इस लोकमें ये जीव अपने कर्मों से उपार्जन किये सुख-दुःख को भोगते हैं और भयंकर इस भवसागरमें जन्म-मरण को बारम्बार अनुभव करते हैं ॥715॥ इस संसारमें माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥716॥ प्रताप सुन्दरता से अधिक बल वीर्ययुक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्मवश अशुचि (मैले) स्थान में लट होता है। इसलिए ऐसे संसारमें रहने को धिक्कार हो ॥717॥ इस प्रकार लोक के स्वभाव को धिक्कार हो जिससे कि देव और महान् ऋद्धिवाले इन्द्र अनुपम सुख को भोग कर पश्चात् दुख भोगनेवाले होते हैं ॥718॥ इस प्रकार लोक को निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसार को अनन्त जानकर अनन्त सुख का स्थान ऐसे मोक्ष का यत्न से ध्यान कर ॥719॥</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1798, 1812 आहिंडय पुरिसस्स व इमस्स णीया तहिं होंति। सव्वे वि इमो पत्तो संबंधे सव्वजीवेहिं ॥1798॥ विज्जू वि चंचलं फेणदुव्वलं बाधिमहियमच्चुहदं। णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खुद्धुदं लोगं ॥1812॥ </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1798, 1812 आहिंडय पुरिसस्स व इमस्स णीया तहिं होंति। सव्वे वि इमो पत्तो संबंधे सव्वजीवेहिं ॥1798॥ विज्जू वि चंचलं फेणदुव्वलं बाधिमहियमच्चुहदं। णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खुद्धुदं लोगं ॥1812॥ </p> | ||
<p>= एक देशसे दूसरे देश को जानेवाले पुरुष के समान इस जीव को सर्व जगमें बन्धु लाभ होता है, अमुक जीव के साथ इसका पिता पुत्र वगैरह रूपसे सम्बन्ध नहीं हुआ ऐसा काल ही नहीं था, अतः सर्व जीव इसके सम्बन्धी हैं ॥1798॥ यह जगत् बिजली के समान चंचल है, समुद्र के फेन के समान बलहीन है, व्याधि और मृत्यु से पीड़ित हुआ है। ज्ञानी पुरुष इसे दुःखों से भरा हुआ देखकर उसमें कैसी प्रीति करते हैं अर्थात् ज्ञानी इस लोक से प्रेम नहीं करते। इसके ऊपर माध्यस्थभाव रखते हैं।</p> | <p class="HindiText">= एक देशसे दूसरे देश को जानेवाले पुरुष के समान इस जीव को सर्व जगमें बन्धु लाभ होता है, अमुक जीव के साथ इसका पिता पुत्र वगैरह रूपसे सम्बन्ध नहीं हुआ ऐसा काल ही नहीं था, अतः सर्व जीव इसके सम्बन्धी हैं ॥1798॥ यह जगत् बिजली के समान चंचल है, समुद्र के फेन के समान बलहीन है, व्याधि और मृत्यु से पीड़ित हुआ है। ज्ञानी पुरुष इसे दुःखों से भरा हुआ देखकर उसमें कैसी प्रीति करते हैं अर्थात् ज्ञानी इस लोक से प्रेम नहीं करते। इसके ऊपर माध्यस्थभाव रखते हैं।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्य देशमें स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्य देशमें स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 711-714) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/4) (पं.विं./6/54) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/76-77) (भूधरकृत भावना सं. 5)।</p> | <p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 711-714) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/4) (पं.विं./6/54) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/76-77) (भूधरकृत भावना सं. 5)।</p> | ||
<p>13. संवरानुप्रेक्षा – </p> | <p>13. संवरानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 65 जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥65॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 65 जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥65॥ </p> | ||
<p>= शुद्ध निश्चय नयसे जीव के संवर ही नहीं है इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= शुद्ध निश्चय नयसे जीव के संवर ही नहीं है इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए। </p> | ||
<p>( समयसार / 181/क.127)</p> | <p>( समयसार / 181/क.127)</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/111 अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते-यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति। तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इन्द्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झम्पने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति। एवं संवरगतगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/111 अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते-यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति। तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इन्द्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झम्पने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति। एवं संवरगतगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या। </p> | ||
<p>= अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं। वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बन्द हो जानेसे जलके न घुसने से निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार जीवरूपी जहाज़ अपने शुद्ध आत्म ज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आस्रवछिद्रों के मुँह बन्द हो जानेपर कर्मरूपी जल न घुसने से केवलज्ञानादि अनन्त गुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। ऐसे संवर के गुणों के चिन्तवन रूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं। वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बन्द हो जानेसे जलके न घुसने से निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार जीवरूपी जहाज़ अपने शुद्ध आत्म ज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आस्रवछिद्रों के मुँह बन्द हो जानेपर कर्मरूपी जल न घुसने से केवलज्ञानादि अनन्त गुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। ऐसे संवर के गुणों के चिन्तवन रूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 63,64 सुहजोगेण पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥ सुद्धुपजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणो ति विचिंतये णिच्चं ॥64॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 63,64 सुहजोगेण पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥ सुद्धुपजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणो ति विचिंतये णिच्चं ॥64॥ </p> | ||
<p>= मन, वचन, काय को शुभ प्रवृत्तियों से अशुभोपयोग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है ॥63॥ इसके पश्चात् शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए ॥64॥</p> | <p class="HindiText">= मन, वचन, काय को शुभ प्रवृत्तियों से अशुभोपयोग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है ॥63॥ इसके पश्चात् शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए ॥64॥</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात्स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबन्धः इति सवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात्स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबन्धः इति सवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p>= जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे उसके व्याप्त होनेपर उसके आश्रयपर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के रुके रहनेपर निरुपद्रव रूपसे अभिलषित देशान्तर का प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। उसी प्रकार कर्मागमद्वार के रुके होनेपर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तवन करना संवरानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे उसके व्याप्त होनेपर उसके आश्रयपर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के रुके रहनेपर निरुपद्रव रूपसे अभिलषित देशान्तर का प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। उसी प्रकार कर्मागमद्वार के रुके होनेपर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तवन करना संवरानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1836-1844) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 738-743) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/32) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/2) (पं.विं./6/52) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/72-73) (भूधरकृत 12 भावनाएँ)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1836-1844) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 738-743) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/32) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/2) (पं.विं./6/52) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/72-73) (भूधरकृत 12 भावनाएँ)।</p> | ||
<p>14. संसारानुप्रेक्षा – </p> | <p>14. संसारानुप्रेक्षा – </p> | ||
<p>1. निश्चय</p> | <p>1. निश्चय</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 37 कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे। जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मणिम्मुक्को ॥37॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 37 कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे। जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मणिम्मुक्को ॥37॥ </p> | ||
<p>= यद्यपि यह जीव कर्म के निमित्त से संसार रूपी बड़े भारी वनमें भटकता रहता है, परन्तु निश्चय नयसे यह कर्मसे रहित है और इसीलिए इसका भ्रमण रूप संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= यद्यपि यह जीव कर्म के निमित्त से संसार रूपी बड़े भारी वनमें भटकता रहता है, परन्तु निश्चय नयसे यह कर्मसे रहित है और इसीलिए इसका भ्रमण रूप संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं है।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/105 एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किन्तु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिवशेन संसारविनाशकनिजनिरञ्जनपरमात्मनि एव भावनां करोति। ततश्च यादृशमेव परमात्मनं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति। ....इति संसारानुप्रेक्षा गता। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/105 एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किन्तु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिवशेन संसारविनाशकनिजनिरञ्जनपरमात्मनि एव भावनां करोति। ततश्च यादृशमेव परमात्मनं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति। ....इति संसारानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p>= इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को चिन्तवन करते हुए इस जीवके, संसार रहित निज शुद्धात्म ज्ञान का नाश करनेवाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं जाता, किन्तु वह संसारातीत सुख के अनुभवमें लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञान के बलसे संसार को नष्ट करनेवाले निज निरंजन परमात्मा में भावना करता है। तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्षमें अनन्त काल तक रहता है। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा समाप्त हुई।</p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को चिन्तवन करते हुए इस जीवके, संसार रहित निज शुद्धात्म ज्ञान का नाश करनेवाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं जाता, किन्तु वह संसारातीत सुख के अनुभवमें लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञान के बलसे संसार को नष्ट करनेवाले निज निरंजन परमात्मा में भावना करता है। तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्षमें अनन्त काल तक रहता है। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा समाप्त हुई।</p> | ||
<p>2. व्यवहार</p> | <p>2. व्यवहार</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 24 पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। जिणमग्गमपेछंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥25॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 24 पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। जिणमग्गमपेछंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥25॥ </p> | ||
<p>= यह जीव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पाँच प्रकार के संसारमें अनादि कालसे भटक रहा है।</p> | <p class="HindiText">= यह जीव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पाँच प्रकार के संसारमें अनादि कालसे भटक रहा है।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयन्त्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रङ्गे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिन्तनमनुप्रेक्षा </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयन्त्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रङ्गे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिन्तनमनुप्रेक्षा </p> | ||
<p>= कर्म विपाक के वशसे आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूपसे व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थलमें नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूपसे संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= कर्म विपाक के वशसे आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूपसे व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थलमें नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूपसे संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1768-1797) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 703-710) (राजवार्तिक अध्याय 9/7, 3/600-601) ( चारित्रसार पृष्ठ /186/5) (पं.विं./6/47) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/62-65)।</p> | <p>( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1768-1797) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 703-710) (राजवार्तिक अध्याय 9/7, 3/600-601) ( चारित्रसार पृष्ठ /186/5) (पं.विं./6/47) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/62-65)।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/600/28 चतुर्विधात्मावस्था:-संसारः असंसारः नोसंसारः तत्त्रितयव्यपायश्चेति। तत्र संसारश्चतमृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम्। अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारः सयोगकेवलिनः चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसारः इति। अयोगकेवलिनः तत्त्रितयव्यपायः। अभव्यत्वसामान्यापेक्षया संसारोऽनाद्यनन्तः, भव्यविशेषापेक्षया अनादिपर्यवसानः। (नोसंसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिलक्षः सादिः सपर्यवसानः संसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः उत्कृष्टेनार्धपुद्गलपरावर्तनकालः स च संसारो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् पञ्चविधो॥ ( चारित्रसार पृष्ठ )। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/600/28 चतुर्विधात्मावस्था:-संसारः असंसारः नोसंसारः तत्त्रितयव्यपायश्चेति। तत्र संसारश्चतमृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम्। अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारः सयोगकेवलिनः चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसारः इति। अयोगकेवलिनः तत्त्रितयव्यपायः। अभव्यत्वसामान्यापेक्षया संसारोऽनाद्यनन्तः, भव्यविशेषापेक्षया अनादिपर्यवसानः। (नोसंसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिलक्षः सादिः सपर्यवसानः संसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः उत्कृष्टेनार्धपुद्गलपरावर्तनकालः स च संसारो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् पञ्चविधो॥ ( चारित्रसार पृष्ठ )। </p> | ||
<p>= आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और तीनों से विलक्षण। अनेक योनि वाली चार गतियों में भ्रमण करना संसार है। शिवपद के परमामृत सुखमें प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिमें भ्रमण न होनेसे और मोक्ष की प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवली की जीवनमुक्ति अवस्था ईषत् संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण हैं। अभव्य तता भव्य सामान्य की दृष्टि से संसार अनादि-अनन्त है। भव्य विशेष की अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नोसंसार सादि और सान्त है। असंसार सादि अनन्त है। त्रितय विलक्षण का काल अन्तर्मुहूर्त है। नोसंसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन एक लाख क्रोड़ पूर्व है। सादि सान्त संसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल है। ऐसा वह संसार, द्रव्य, क्षेत्र काल, भव व भाव के भेद से पाँच प्रकार का है।</p> | <p class="HindiText">= आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और तीनों से विलक्षण। अनेक योनि वाली चार गतियों में भ्रमण करना संसार है। शिवपद के परमामृत सुखमें प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिमें भ्रमण न होनेसे और मोक्ष की प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवली की जीवनमुक्ति अवस्था ईषत् संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण हैं। अभव्य तता भव्य सामान्य की दृष्टि से संसार अनादि-अनन्त है। भव्य विशेष की अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नोसंसार सादि और सान्त है। असंसार सादि अनन्त है। त्रितय विलक्षण का काल अन्तर्मुहूर्त है। नोसंसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन एक लाख क्रोड़ पूर्व है। सादि सान्त संसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल है। ऐसा वह संसार, द्रव्य, क्षेत्र काल, भव व भाव के भेद से पाँच प्रकार का है।</p> | ||
<p>श्रीमद्राजचन्द्र - बहु पुण्य केरा पुञ्ज पी शुभ देह मानव नो मल्यो। तोये अरे भव चक्रनो आंटो नहीं एके टलो।...रे आत्म तारो। आत्म तारो॥ शीघ्र एने ओणखो। सर्वात्म मां समदृष्टि द्यों आ वचनने हृदय लखो। = बहुत पुण्य के उदय से यह मानव की उत्तम देह मिली, परन्तु फिर भी भवचक्र में किंचित् हानि न कर सका। अरे! अब शीघ्र अपनी आत्मा को पहिचानकर सर्व आत्माओं को समदृष्टि से देख, इस वचन को हृदयमें रख। </p> | <p>श्रीमद्राजचन्द्र - बहु पुण्य केरा पुञ्ज पी शुभ देह मानव नो मल्यो। तोये अरे भव चक्रनो आंटो नहीं एके टलो।...रे आत्म तारो। आत्म तारो॥ शीघ्र एने ओणखो। सर्वात्म मां समदृष्टि द्यों आ वचनने हृदय लखो। = बहुत पुण्य के उदय से यह मानव की उत्तम देह मिली, परन्तु फिर भी भवचक्र में किंचित् हानि न कर सका। अरे! अब शीघ्र अपनी आत्मा को पहिचानकर सर्व आत्माओं को समदृष्टि से देख, इस वचन को हृदयमें रख। </p> | ||
<p>(विशेष दे.- संसार 3 में पंच परिवर्तन)</p> | <p>(विशेष दे.- संसार 3 में पंच परिवर्तन)</p> | ||
<p>2. अनुप्रेक्षा निर्देश</p> | <p>2. अनुप्रेक्षा निर्देश</p> | ||
<p>1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं </p> | <p>1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं </p> | ||
<p> अनगार धर्मामृत अधिकार 6/82/634 इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽध्रुवादिष्वद्धा यत्किंचिदन्तःकरणकरणजिद्वेत्ति यः स्वं स्वयं स्वे। उच्चैरुच्चैः यदाशाधरभवविधुराम्भोधिपाराप्तिराजत्कार्तार्थ्यः पूतकीर्तिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूर्ध्नि॥ </p> | <p class="SanskritText">अनगार धर्मामृत अधिकार 6/82/634 इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽध्रुवादिष्वद्धा यत्किंचिदन्तःकरणकरणजिद्वेत्ति यः स्वं स्वयं स्वे। उच्चैरुच्चैः यदाशाधरभवविधुराम्भोधिपाराप्तिराजत्कार्तार्थ्यः पूतकीर्तिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूर्ध्नि॥ </p> | ||
<p>= परमागम ही हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अध्रुवादि बारह अनुप्रेक्षाओं में-से यथा रुचि एक अनेक अथवा सभी का तत्त्वतः हृदय में ध्यान करता है वह मन और इन्द्रिय दोनों पर विजय प्राप्त करके आत्मा ही में स्वयं अनुभव करने लगता है। तथा जहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थंकरादि उन्नतोन्नत पदों को प्राप्त करने की अभिलाषा लगी हुई है ऐसे संसार के दुःख समुद्रसे पार पहुँच कर कृतकृत्यता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनों को धारण करके जीवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट गुणों द्वारा तीन लोक के ऊपर प्रदीप्त होता है।</p> | <p class="HindiText">= परमागम ही हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अध्रुवादि बारह अनुप्रेक्षाओं में-से यथा रुचि एक अनेक अथवा सभी का तत्त्वतः हृदय में ध्यान करता है वह मन और इन्द्रिय दोनों पर विजय प्राप्त करके आत्मा ही में स्वयं अनुभव करने लगता है। तथा जहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थंकरादि उन्नतोन्नत पदों को प्राप्त करने की अभिलाषा लगी हुई है ऐसे संसार के दुःख समुद्रसे पार पहुँच कर कृतकृत्यता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनों को धारण करके जीवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट गुणों द्वारा तीन लोक के ऊपर प्रदीप्त होता है।</p> | ||
<p>2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षामें अन्तर</p> | <p>2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षामें अन्तर</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण। इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण। इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव। </p> | ||
<p>= एकत्व अनुप्रेक्षामें तो `मैं अकेला हूँ' इत्यादि प्रकार से विधिरूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में `देह आदि पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेध रूपसे वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओंमें विधि-निषेध रूप का ही अन्तर है। तात्पर्य दोनों का एक ही है।</p> | <p class="HindiText">= एकत्व अनुप्रेक्षामें तो `मैं अकेला हूँ' इत्यादि प्रकार से विधिरूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में `देह आदि पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेध रूपसे वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओंमें विधि-निषेध रूप का ही अन्तर है। तात्पर्य दोनों का एक ही है।</p> | ||
<p>3. आस्रव, संवर, निर्जरा इन भावनाओं की सार्थकता</p> | <p>3. आस्रव, संवर, निर्जरा इन भावनाओं की सार्थकता</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602 आस्रवसंवरनिर्जराग्रहणमनर्थकमुक्तत्वादिति चेत्, नतद्गुणदोषान्वेषणपरत्वात् ॥7॥ </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602 आस्रवसंवरनिर्जराग्रहणमनर्थकमुक्तत्वादिति चेत्, नतद्गुणदोषान्वेषणपरत्वात् ॥7॥ </p> | ||
<p>= <b>प्रश्न</b> - आस्रव संवर और निर्जरा का कथन पहले प्रकरणों में हो चुका है अतः यहाँ अनुप्रेक्षा प्रकरण में इनका ग्रहण करना निरर्थक है? <b>उत्तर</b> - नहीं, उनके दोष विचार ने के लिए यहाँ उनका ग्रहण किया है।</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - आस्रव संवर और निर्जरा का कथन पहले प्रकरणों में हो चुका है अतः यहाँ अनुप्रेक्षा प्रकरण में इनका ग्रहण करना निरर्थक है? <b>उत्तर</b> - नहीं, उनके दोष विचार ने के लिए यहाँ उनका ग्रहण किया है।</p> | ||
<p>4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ</p> | <p>4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ</p> | ||
<p> तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/12 जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥ </p> | <p class="SanskritText">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/12 जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥ </p> | ||
<p>= संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए। </p> | ||
<p>( ज्ञानार्णव अधिकार 27/4)।</p> | <p>( ज्ञानार्णव अधिकार 27/4)।</p> | ||
<p | <p class="SanskritText">महापुराण सर्ग संख्या 21/99 विषयेष्वनभिष्वङ्गः कायतत्त्वानुचिन्तनम्। जगत्स्वभावचिन्त्येति वैराग्यस्थैर्यभावनाः ॥99॥ </p> | ||
<p>= विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिन्तवन करना और जगत् के स्वभाव का चिन्तवन करना ये वैराग्य को स्थिर रखनेवाली भावनाएँ हैं।</p> | <p class="HindiText">= विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिन्तवन करना और जगत् के स्वभाव का चिन्तवन करना ये वैराग्य को स्थिर रखनेवाली भावनाएँ हैं।</p> | ||
<p>3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार</p> | <p>3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार</p> | ||
<p>1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व</p> | <p>1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्यावाप्तिर्भवति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्यावाप्तिर्भवति। </p> | ||
<p>= इससे (अर्थात् शरीर व आत्मा के भिन्न रूप समाधान से) तत्त्वज्ञान की भावना पूर्वक आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।</p> | <p class="HindiText">= इससे (अर्थात् शरीर व आत्मा के भिन्न रूप समाधान से) तत्त्वज्ञान की भावना पूर्वक आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।</p> | ||
<p>2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभ भाव है</p> | <p>2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभ भाव है</p> | ||
<p> रयणसार गाथा 64-65 दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु। बंधणमुक्खे तक्कारणरूपे बारसणुवेक्खे ॥46॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाइसद्धम्मे। इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुभभावो ॥65॥ </p> | <p class="SanskritText">रयणसार गाथा 64-65 दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु। बंधणमुक्खे तक्कारणरूपे बारसणुवेक्खे ॥46॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाइसद्धम्मे। इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुभभावो ॥65॥ </p> | ||
<p>= पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नवपदार्थ, बंधमोक्ष के कारण बारह भावना, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवों के भाव हैं वे शुभ भाव हैं।</p> | <p class="HindiText">= पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नवपदार्थ, बंधमोक्ष के कारण बारह भावना, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवों के भाव हैं वे शुभ भाव हैं।</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 63 सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजं गस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 63 सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजं गस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥ </p> | ||
<p>= मन, वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियों से अशुभ योग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है।</p> | <p class="HindiText">= मन, वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियों से अशुभ योग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है।</p> | ||
<p> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 149 एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि। यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम्। </p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 149 एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि। यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम्। </p> | ||
<p>= इस प्रकार भाव संवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के वर्णन करनेवाले जो वाक्य हैं वे पापास्रव के संवरमें कारण जानने चाहिए। जो व्यवहार रत्नत्रय के साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार भाव संवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के वर्णन करनेवाले जो वाक्य हैं वे पापास्रव के संवरमें कारण जानने चाहिए। जो व्यवहार रत्नत्रय के साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए।</p> | ||
<p>3. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है</p> | <p>3. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है</p> | ||
<p> तत्त्वार्थसार अधिकार 6/43/351 एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥43॥ </p> | <p class="SanskritText">तत्त्वार्थसार अधिकार 6/43/351 एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥43॥ </p> | ||
<p>= इस प्रकार (अन्तरंग सापेक्ष) बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से साधु के धर्म का महान् उद्योत होता है। उससे वह निष्प्रमाद होता है, जिससे कि महान् संवर होता है।</p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार (अन्तरंग सापेक्ष) बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से साधु के धर्म का महान् उद्योत होता है। उससे वह निष्प्रमाद होता है, जिससे कि महान् संवर होता है।</p> | ||
<p>4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन</p> | <p>4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन</p> | ||
<p>1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल</p> | <p>1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 89,90 मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेक्खं। परिभविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥89॥ किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सेझंति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥90॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 89,90 मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेक्खं। परिभविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥89॥ किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सेझंति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥90॥ </p> | ||
<p>= जो पुरुष इन बारह भावनाओं का चिन्तन करके अनादि कालसे आज तक मोक्ष को गये हैं उनको मैं मन, वचन, काय पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ ॥89॥ इस विषय में अधिक कहने की जरूरत नहीं है इतना ही बहुत है कि भूतकालमें जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए और जो आगे होंगे वे सब इन्हीं भावनाओं का चिन्तवन करके ही हुए हैं। इसे भावनाओं का ही महत्त्व समझना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= जो पुरुष इन बारह भावनाओं का चिन्तन करके अनादि कालसे आज तक मोक्ष को गये हैं उनको मैं मन, वचन, काय पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ ॥89॥ इस विषय में अधिक कहने की जरूरत नहीं है इतना ही बहुत है कि भूतकालमें जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए और जो आगे होंगे वे सब इन्हीं भावनाओं का चिन्तवन करके ही हुए हैं। इसे भावनाओं का ही महत्त्व समझना चाहिए।</p> | ||
<p> ज्ञानार्णव अधिकार 13/2/59 विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तम्। उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात्। </p> | <p class="SanskritText">ज्ञानार्णव अधिकार 13/2/59 विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तम्। उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात्। </p> | ||
<p>= इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदयमें कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर द्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीप का प्रकाश होता है।</p> | <p class="HindiText">= इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदयमें कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर द्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीप का प्रकाश होता है।</p> | ||
<p>पं./विं./6/42 द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः। तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ॥42॥ </p> | <p class="SanskritText">पं./विं./6/42 द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः। तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ॥42॥ </p> | ||
<p>= महात्मा पुरुषों को निरन्तर बारहों अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए। कारण यह है कि उनकी भावना (चिन्तन) कर्म के क्षय का कारण होती है।</p> | <p class="HindiText">= महात्मा पुरुषों को निरन्तर बारहों अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए। कारण यह है कि उनकी भावना (चिन्तन) कर्म के क्षय का कारण होती है।</p> | ||
<p>2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन</p> | <p>2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1874/1679 इय आलंबणमणुपेहाओ धमस्स होंति ज्झाणस्स। ज्झायंताणविणस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी ॥1874॥ </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1874/1679 इय आलंबणमणुपेहाओ धमस्स होंति ज्झाणस्स। ज्झायंताणविणस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी ॥1874॥ </p> | ||
<p>= धर्मध्यान में जो प्रवृत्ति करता है उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधार रूप हैं, अनुप्रेक्षा के बलपर ध्याता धर्मध्यान में स्थिर रहता है, जो जिस वस्तु स्वरूप में एकाग्रचित्त होता है वह विस्मरण होने पर उससे चिगता है, परन्तु बार-बार उसको एकाग्रता के लिए आलंबन मिल जावेगा तो वह नहीं चिगेगा।</p> | <p class="HindiText">= धर्मध्यान में जो प्रवृत्ति करता है उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधार रूप हैं, अनुप्रेक्षा के बलपर ध्याता धर्मध्यान में स्थिर रहता है, जो जिस वस्तु स्वरूप में एकाग्रचित्त होता है वह विस्मरण होने पर उससे चिगता है, परन्तु बार-बार उसको एकाग्रता के लिए आलंबन मिल जावेगा तो वह नहीं चिगेगा।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/6/413 कस्मात्क्षमादीनयममलम्बते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते यस्मात्तप्तायःपिण्डवत्क्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्याः।</p> | <p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/6/413 कस्मात्क्षमादीनयममलम्बते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते यस्मात्तप्तायःपिण्डवत्क्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्याः।</p> | ||
<p>स./सि./9/7/419 मध्ये अनुप्रेक्षावचनमुभयार्थम्। अनुप्रेक्षा हि भावयन्नुत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति परीषहांश्च जेतुमुत्सहते। </p> | <p class="SanskritText">स./सि./9/7/419 मध्ये अनुप्रेक्षावचनमुभयार्थम्। अनुप्रेक्षा हि भावयन्नुत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति परीषहांश्च जेतुमुत्सहते। </p> | ||
<p>= तपाये हुए लोहे के गोले के समान क्षमादि रूपसे परिणत हुए आत्महित की इच्छा करने वालों को ये निम्न द्वादश अनुप्रेक्षा भानी चाहिए। बीचमें अनुप्रेक्षाओं का कथन दोनों अर्थ के लिए हैं। क्योंकि अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करता हुआ यह जीव उत्तम क्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परिषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है।</p> | <p class="HindiText">= तपाये हुए लोहे के गोले के समान क्षमादि रूपसे परिणत हुए आत्महित की इच्छा करने वालों को ये निम्न द्वादश अनुप्रेक्षा भानी चाहिए। बीचमें अनुप्रेक्षाओं का कथन दोनों अर्थ के लिए हैं। क्योंकि अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करता हुआ यह जीव उत्तम क्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परिषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है।</p> | ||
<p>3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वङ्गाभावाद् भुक्तोज्झितगन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वङ्गाभावाद् भुक्तोज्झितगन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते। </p> | ||
<p>= इस प्रकार विचार करनेवाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोग कर छोड़े हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग कालमें भी सन्ताप नहीं होता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करनेवाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोग कर छोड़े हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग कालमें भी सन्ताप नहीं होता है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/600/12)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/600/12)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 22 चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥22॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 22 चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥22॥ </p> | ||
<p>= हे भव्य जीवो! समस्त विषयों को क्षणभंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मनको विषयों के सुख से रहित करो, जिससे उत्तम सुख की प्राप्ति हो। </p> | <p class="HindiText">= हे भव्य जीवो! समस्त विषयों को क्षणभंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मनको विषयों के सुख से रहित करो, जिससे उत्तम सुख की प्राप्ति हो। </p> | ||
<p>( चारित्रसार पृष्ठ 178/2)</p> | <p>( चारित्रसार पृष्ठ 178/2)</p> | ||
<p>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 इत्येवं ह्यस्य मनःसमादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वकवैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखवस्यावाप्तिर्भवति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 इत्येवं ह्यस्य मनःसमादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वकवैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखवस्यावाप्तिर्भवति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान को भावनापूर्वक वैराग्य की वृद्धि होनेपर आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान को भावनापूर्वक वैराग्य की वृद्धि होनेपर आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/602/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/4)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/602/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/4)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 82 जो जाणिऊण देह जोव-सरूवाद दु, तच्चदोभिण्णं। अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं। </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 82 जो जाणिऊण देह जोव-सरूवाद दु, तच्चदोभिण्णं। अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं। </p> | ||
<p>= जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है। </p> | <p class="HindiText">= जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है। </p> | ||
<p>( चारित्रसार पृष्ठ 18/2)।</p> | <p>( चारित्रसार पृष्ठ 18/2)।</p> | ||
<p>5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीतिभृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीतिभृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारण भूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारण भूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/25)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/25)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31 अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31 अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥ </p> | ||
<p>= आत्मा को उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र कषाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है। </p> | <p class="HindiText">= आत्मा को उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र कषाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है। </p> | ||
<p>( चारित्रसार पृष्ठ 180/2)।</p> | <p>( चारित्रसार पृष्ठ 180/2)।</p> | ||
<p>6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते। </p> | ||
<p>= इस प्रकार चिन्तवन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिन्तवन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 192/6)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 192/6)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 87 जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स। </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 87 जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स। </p> | ||
<p>= जो दूसरों के शरीर से विरक्त है और अपने शरीर से अनुराग नहीं करता है तथा आत्मध्यान में लीन रहता है उसके अशुचि भावना सफल है।</p> | <p class="HindiText">= जो दूसरों के शरीर से विरक्त है और अपने शरीर से अनुराग नहीं करता है तथा आत्मध्यान में लीन रहता है उसके अशुचि भावना सफल है।</p> | ||
<p>7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्सवृतात्मनो न भवन्ति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्सवृतात्मनो न भवन्ति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याण रूप बुद्धि का त्याग नहीं होता तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याण रूप बुद्धि का त्याग नहीं होता तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602/30) ( चारित्रसार पृष्ठ 195/5)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602/30) ( चारित्रसार पृष्ठ 195/5)।</p> | ||
<p>का.अ/.मू./94 एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥94॥ </p> | <p class="SanskritText">का.अ/.मू./94 एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥94॥ </p> | ||
<p>= जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्म के उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भावों को त्यागने के योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आस्रवानुप्रेक्षा है।</p> | <p class="HindiText">= जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्म के उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भावों को त्यागने के योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आस्रवानुप्रेक्षा है।</p> | ||
<p>8. एकत्वानुप्रेक्ष का प्रयोजन</p> | <p>8. एकत्वानुप्रेक्ष का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति। परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते। ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति। परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते। ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते। </p> | ||
<p>= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता इसलिए निःसङ्गता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता इसलिए निःसङ्गता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601/27) ( चारित्रसार पृष्ठ 188/3)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601/27) ( चारित्रसार पृष्ठ 188/3)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 79 सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिन्नं। जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 79 सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिन्नं। जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥ </p> | ||
<p>= पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीवके जान लेनेपर क्षण भरमें ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।</p> | <p class="HindiText">= पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीवके जान लेनेपर क्षण भरमें ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।</p> | ||
<p>9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यन्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यन्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/4) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/4) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 437 इय पच्चक्खं पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥437॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 437 इय पच्चक्खं पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥437॥ </p> | ||
<p>= हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करो और पापसे दूर हो रहो।</p> | <p class="HindiText">= हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करो और पापसे दूर हो रहो।</p> | ||
<p>10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्यानुस्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्यानुस्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इसकी कर्म निर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इसकी कर्म निर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/603/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 197/2)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/603/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 197/2)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 114 जो समसोक्ख-णिलीणो बारंबारं सरेइ अप्पाणं। इदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 114 जो समसोक्ख-णिलीणो बारंबारं सरेइ अप्पाणं। इदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥ </p> | ||
<p>= जो मुनि समता-रसमें लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इन्द्रिय और कषाय जीतनेवाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है।</p> | <p class="HindiText">= जो मुनि समता-रसमें लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इन्द्रिय और कषाय जीतनेवाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है।</p> | ||
<p>11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यस्य भावयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यस्य भावयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी प्रमाद नहीं होता। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी प्रमाद नहीं होता। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 301 इय सव्व-दुलह दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च। मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 301 इय सव्व-दुलह दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च। मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥ </p> | ||
<p>= इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को संसार की समस्त दुर्लभ वस्तुओं में भी दुर्लभ जानकर इन तीनों का अत्यन्त आदर करो।</p> | <p class="HindiText">= इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को संसार की समस्त दुर्लभ वस्तुओं में भी दुर्लभ जानकर इन तीनों का अत्यन्त आदर करो।</p> | ||
<p>12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार लोकस्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार लोकस्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603/6) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/3)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603/6) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/3)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 283 एवं लोयसहां जो झायदि उवसमेक्क-सब्भावो। सो खविय कम्म पंजं तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥283॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 283 एवं लोयसहां जो झायदि उवसमेक्क-सब्भावो। सो खविय कम्म पंजं तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥283॥ </p> | ||
<p>= जो पुरुष उपशम परिणामस्वरूप परिमत होकर इस प्रकार लोक के स्वरूप का ध्यान करता है वह कर्मपुंज को नष्ट करके उसी लोक का शिखामणि होता है।</p> | <p class="HindiText">= जो पुरुष उपशम परिणामस्वरूप परिमत होकर इस प्रकार लोक के स्वरूप का ध्यान करता है वह कर्मपुंज को नष्ट करके उसी लोक का शिखामणि होता है।</p> | ||
<p>13. संवारानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>13. संवारानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः संवरे नित्योद्यक्तता भवति। ततश्च निःश्रेयसपदप्राप्तिरिति। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः संवरे नित्योद्यक्तता भवति। ततश्च निःश्रेयसपदप्राप्तिरिति। </p> | ||
<p>= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के संवरमें निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।</p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के संवरमें निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।</p> | ||
<p>14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | <p>14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन</p> | ||
<p> बारसाणुवेक्खा गाथा 38 संसारमदिक्कंतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो। संसारदुहक्कंतो जीवो सो हेयमिदि विचितिज्जो ॥38॥ </p> | <p class="SanskritText">बारसाणुवेक्खा गाथा 38 संसारमदिक्कंतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो। संसारदुहक्कंतो जीवो सो हेयमिदि विचितिज्जो ॥38॥ </p> | ||
<p>= जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिए और जो संसाररूपी दुःखों से घिरा हुआ है वह हेय है ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिए और जो संसाररूपी दुःखों से घिरा हुआ है वह हेय है ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःखभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःखभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते। </p> | ||
<p>= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए संसार के दुःख के भयसे उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए संसार के दुःख के भयसे उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/601/17)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/601/17)।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 73 इय संसारं जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊणं। तं झायह स-सरूवं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 73 इय संसारं जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊणं। तं झायह स-सरूवं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥ </p> | ||
<p>= इस प्रकार संसार को जानकर और सम्यक् व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायों से मोहको त्याग कर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकार के संसार-परिभ्रमण का नाश होता है।</p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार संसार को जानकर और सम्यक् व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायों से मोहको त्याग कर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकार के संसार-परिभ्रमण का नाश होता है।</p> | ||
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Revision as of 13:46, 10 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
किसी बात को पुनः-पुनः चिन्तवन करते रहना अनुप्रेक्षा है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की वृद्धि के अर्थ बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का कथन जैनागम में प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते हैं। इनके भाने से व्यक्ति शरीर व भोगों से निर्विण्ण होकर साम्य भावमें स्थिति पा सकता है।
1. भेद व लक्षण
1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण
2. अनुप्रेक्षा के भेद
3. अनित्यानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
5. अशरणानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
6. अशुचित्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
7. आस्रवानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
8. एकत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
9. धर्मानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
10. निर्जरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
12. लोकानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
13. संवरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
14. संसारानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
2. अनुप्रेक्षा निर्देश
1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं
2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षा में अन्तर
• धर्म ध्यान व अनुप्रेक्षा में अन्तर - देखें धर्मध्यान - 3।
3. आस्रव, संवर, निर्जरा-इन भावनाओं की सार्थकता
4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ
• ध्यानमें भाने योग्य कुछ भावनाएँ - देखें ध्येय ।
3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व
2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभभाव है।
3. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है।
4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन
1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल
2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन
3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन
6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन
8. एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन
10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन
13. संवरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
1. भेद व लक्षण
1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।
= बारह प्रकार से कहे गये तत्त्व का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409 शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।
= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/2,4/591/34)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443 अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा।
= जाने हुए अर्थ का मनमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/25,3/624) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/20) ( चारित्रसार पृष्ठ 153/3) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/86/715)।
धवला पुस्तक 9/4,1,55/263/1 कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम।
= कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूपसे हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।
धवला पुस्तक 14/5,6,14/9/5 सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहणं णाम।
= सुने हुए अर्थ का श्रुत के अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
2. अनुप्रेक्षा के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7 अनित्याशरणसंसारे कत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥7॥
= अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं।
( बारसाणुवेक्खा गाथा 2) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 692) (राजवार्तिक अध्याय 1,7/14/40/14) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/43-44) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/101)।
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1715/1547 अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधि च चिंतिज्ज॥
= अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाओं को भी चिन्तन करना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धा व्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन।
= अन्यत्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आश्रय से चार प्रकार का है।
3. अनित्यानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 7 परमट्ठेण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहिं। वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदभिदि चितये णिच्च ॥7॥
= शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा का स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है। अर्थात् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं - ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/7 उपात्तानुपात्तद्रव्यसंयोगव्यभिचारस्वाभावोऽनित्यत्वम्।
= उपात्त और अनुपात्त द्रव्य संयोगों का व्यभिचारी स्वभाव अनित्य है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102 तत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम्। तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति। इत्यध्रुवानुप्रेक्षा मता।
= (धन स्त्री आदि) सो सब अनित्य हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदि के वियोग होनेपर भी जूठे भोजनों के समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्व का अभाव होनेसे अविनाशी निज परमात्मा का ही भेद, अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है। जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय, अनन्त सुख स्वभाववाली मुक्त आत्मा कों प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अध्रुव भावना है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 6 जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घ। भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥
= जब क्षीरनीरक्त जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं। (भूधरकृत 12 भावनाएँ) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413 इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनुप्रेक्षा।
= ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बुद्के समान अनवस्थित स्वभाववाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होनेवाले संयोगों से विपरीत स्वभाववाले होते हैं। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1716-1728/1543) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 693-694) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/9) (प.विं./3 सम्पूर्ण) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/45) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/1) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/58-59/609)।
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 13 अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥
= शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपनेसे जुदा हैं और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / मूल या टीका गाथा 27, 38) ( समयसार / क./5)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमङ्ग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते।
= शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बन्ध की अपेक्षा अभेद होनेपर भी लक्षण के भेदसे `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐन्द्रियक है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1754) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 700/702) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/31) ( चारित्रसार पृष्ठ 170/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/49/210) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/66-67/6/9)।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29 अन्यत्वं चतुर्धाव्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन। आत्मा जीव इति नामभेदः, काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेदः, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति द्रव्यभेदः, एकस्मिन्नपि द्रव्यै बालो युवा मनुष्यो देव इति भावभेदः। तत्र बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वम्।
= नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के अवलम्बन भेदसे अन्यत्व चार प्रकार का है। आत्मा जीव इत्यादि तो नाम भेद या नामों में अन्यत्व है, काष्ठ आदिकी प्रतिमाओं में भेद सो स्थापना अन्यत्व है, जीव-अजीव आदि सो द्रव्यों में अन्यत्व है और एक ही द्रव्य में बाल और युवा, मनुष्य या दैव आदिक भेद सो भावों से अन्यत्व है। बन्ध रूपसे एक होते हुए भी लक्षण रूपसे इन सबमें भेद होना सो अन्यत्व है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 21 मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥
= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बन्धुजनों का समूह अपने कार्यके वश सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थ में जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं।
धम्मपद/5/3 पुत्ता मत्थि धन मत्थि इदि बालो विहञ्जति। अत्ता हि अत्तनो नत्थि कतो पुत्तो कतो धनं॥
= मेरे पुत्र हैं, मेरा धन है ऐसा अज्ञानीजन कहते हैं। इस संसारमें जब शरीर ही अपना नहीं तब पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि....निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि। तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। ...इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा....॥
= देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि कर्मों के आधीन होनेसे विनश्वर है। निश्चय नयसे निज परमात्म पदार्थसे अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1755-1767/1547) (भूधरकृत भावना सं. 4) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
5. अशरणानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 11 जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥
= जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तवमें जो कर्मों की बन्ध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है। अर्थात् संसारमें अपने आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादि के कष्टों से बच सकता है।
( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 74)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 30 दंसणणाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥
= हे भव्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धाके साथ उन्हीं का सेवन कर। संसारमें भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1746)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102-103 अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भागाकांक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणगतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता।
= निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो शुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारो कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, यह दोनों शरण हैं। उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भहरा, मणि, मन्त्र-तन्त्र, आज्ञा, महल और औषध आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरणादि के समय शरणभूत नहीं होते जैसे महावनमें व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा समुद्रमें जहाज से छूटे पक्षी को कोई शरण नहीं है। अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर आगामी भोगों की आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभवसे उत्पन्न सुख रूप अमृत का धारक निज शुद्धात्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्धात्मा की भावना करता है। जैसी आत्मा को यह शरणभूत भाता है वैसे ही सदा शरणभूत, शरणमें आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज शुद्धात्मा को प्राप्त होता है। इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ।
2. व्यवहार
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1729 णासदि मदि उदिण्णे कम्मेण य तस्स दीसदि उवाओ। अमदंपि विसं सच्छं तणं पि णीयं विहुंति अरी।
= कर्म का उदय आनेपर विचारयुक्त बुद्धि नष्ट होती है, अवग्रह इत्यादि रूप मतिज्ञान और आप्त के उपदेश से प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान इन दोनों से मनुष्य प्राणी हित और अहित का स्वरूप जान लेता है। अन्य उपायसे हिताहित नहीं जाना जाता है। असाता वेदनीय कर्म के उदयसे अमृत भी विष होता है और तृण भी छुरी का काम देता है, बन्धु भी शत्रु हो जाते हैं।
(विस्तार देखें भगवती आराधना मुल या टीका गाथा 1729-1745)
बारसाणुवेक्खा गाथा 8 मणिमतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥8॥
= मरते समय प्राणियों को तीनों लोकों में मणि, मन्त्र, औषध, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हें मरने से नहीं बचा सकते।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 यथा-मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति। संविभक्तसुखदुःखा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयन्ति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा।
= जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीचमें भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करनेवाला होता है न कि कष्ट आनेपर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःखमें भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुम्बी रोगग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्रमें तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इन्द्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्तिमें वा कष्टमें धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 695-697) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,2/600/15) ( चारित्रसार पृष्ठ 178/4) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/46) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/60-61/612) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा /35/103)।
6. अशुचित्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 46 देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥
= वास्तवमें आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनन्त सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इस प्रकार निरन्तर भावना करते रहना चाहिए।
( मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 18) (श्रीमद् कृत 12 भावनाएँ)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109 सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता।
= अपवित्र होनेसे, सात धातुमय होनेसे, नाकादि नौ छिद्र द्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होनेसे ही यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदि का उत्पादक होनेसे अशुचि है.....निश्चय से अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है।....`ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करनेवाले मुनि) के हा पवित्रता है। जो काम क्रोधादि में लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करनेपर भी पवित्रता नहीं है।....आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।....इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का कथन हुआ।
2. व्यवहार
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1813-1815 असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं। एओ चेव सुभी णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥1813॥ इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं सुत्तिपडिपंथो ॥1814॥ कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उबधो लोए दुक्खावहा य ण य हुंति ते सुलहा ॥1815॥
= अर्थ व काम पुरुषार्थ तथा सर्व मनुष्यों का देह अशुभ है। एक धर्म ही शुभ है और सर्व सौख्यों का दाता है ॥1813॥ इस लोक और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। अर्थ पुरुषार्थ के वश होकर पुरुष अन्याय करता है, चोरी करता है और राजासे दण्डित होता है और परलोक में नरक में नाना दुःखों का अनुभव लेता है, इसलिए अर्थ अर्थात् धन अनर्थ का कारण है। महाभय का कारण है, मोक्ष प्राप्ति के लिए यह अर्गला के समान प्रतिबन्ध करता है ॥1814॥ यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीरसे उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हल्की होती है, इसकी सेवासे आत्मा दुर्गति में दुःख पाती है, यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है। और प्राप्त होनेमें कठिन है।
बारसाणुवेक्खा गाथा 44 दुग्गंध वीभत्वं कलिमलभरिवं अचेयणा सुत्तं। सडणपडणसहावं देह इदि चिंतये णिच्चं ॥4॥
= यह देह दुर्गन्धमय है, डरावनी है, मलमूत्र से भरी हुई है, जड़ है, मूर्तीक है और क्षीण होनेवाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/16 शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनिशुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वङ्मात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतोबिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा।
= यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्रसे आच्छादित है। अति दुर्गन्धित रसको बहानेवाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप का मालिश और सुगन्धित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि के जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूपसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1816-1820) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 37-42) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 720-723) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/6) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/50) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/68-69) स.सा.नाटक 4 (भूधरकृत भावना सं. 6) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ) (और भी देखो अशुचि के भेद)।
7. आस्रवानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 60 पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मक्कं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥60॥
= पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नयसे जीव के नहीं होते हैं। इसलिए निरन्तर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / मूल या टीका गाथा 51) ( समयसार / आत्मख्याति गाथा 178/क.120)।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 59 पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥
= कर्मों का आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भी निर्माण नहीं हो सकता है। इसलिए संसारमें भटकनेवाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 730 धिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गं ॥730॥
= मोहको सदा काल धिक्कार हो, धिक्कार हो; क्योंकि हृदयमें रहनेवाले जिस मोहसे मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्ष सुख का कारण ऐसे जिन वचन को नहीं पहचानता।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रीतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायाव्रतादयः तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतङ्गहरिणादीन् व्यसनार्णवमगाहयन्ति तथा कषायोदयोऽपीह वधबन्धापयशःपरिक्लेशादीन् जनयन्ति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमास्रवदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा
= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतङ्ग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोकमें, वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करते हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिन्तवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1821-1835) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 193/2) ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार 6/51) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71) (भूधरकृत भावना सं. 7)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110 इन्द्रियाणि....कषाया....पञ्चाव्रतानि....पञ्चविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति।
= पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्मजल के प्रवेश हो जानेपर संसारसमुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिन्तवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।
8. एकत्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1752-1753 जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइयो। सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ ॥1752॥ बद्धस्स बंधणे व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स। धिससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु तहा ॥1753॥
= सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात् रत्नत्रय रूप धर्म जो इस जीवने धारण किया था वही लोकमें इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है ॥1752॥ रज्जू आदिसे बन्धा हुआ पुरुष जिस प्रकार उन रज्जू आदि बन्धनों में राग नहीं करता है, वैसे ही ज्ञानी जनों के शरीरमें स्नेह नहीं होता है। तथा इसी प्रकार विष के समान दुःखद व महाभय प्रदायी अर्थमें अर्थात् धनमें भी राग नहीं होता है ॥1753॥
बारसाणुवेक्खा गाथा 20 एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥20॥
= मैं अकेला हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ, और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / मूल या टीका गाथा 73) (सामायिक पाठ अमितगति 27) (स.सा.ना./33)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 43/107 निश्चयेन.....केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्।....न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम्।....निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी न च पुत्रकलत्रादि। ....स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थ न च सुवर्णाद्यर्थाः.....स्वभावात्मसुखमेवैक सुखं न चाकुलत्वोत्पादेन्द्रियसुखमिति। ......स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति।....एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता।
= निश्चय से केवलज्ञान ही एक सहज या स्वाभाविक शरीर है, सप्तधातुमयी यह औदारिक शरीर नहीं। निजात्म तत्त्व ही एक सदा शाश्वत व परम हितकारी है, पुत्र कलत्रादि नहीं। स्वशुद्धात्म पदार्थ ही एक अविनश्वर व परम हितकारी परम धन है, सुवर्णादि रूप धन नहीं। स्वभावात्म सुख ही एक सुख है, आकुलता उत्पादक इन्द्रिय सुख नहीं। स्वशुद्धात्मा ही एक सहायी है। इस प्रकार एकत्व भावना का फल जानकर निरन्तर शुद्धात्मा में एकत्व भावना करनी चाहिए। इस प्रकार एकत्व भावना कही गयी।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 14 एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दोहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥14॥
= यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बान्धता है, अकेला ही अनादि संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 699)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वःपरो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति। बन्धुमित्राणि श्मशानं नातिवर्तन्ते धर्म एव मे सहायः सदा अनपायीति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा।
= जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बन्धु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना 1747-1751) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 698) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601) ( चारित्रसार पृष्ठ 187/2) (पं.विं./6/48 तथा सम्पूर्ण अधिकार स. 4, श्लोक सं. 29) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/64-65) (भूधरकृत भावना सं. 3) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
9. धर्मानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 82 णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झस्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिच्चं ॥82॥
= जीव निश्चय नयसे सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और सुनि धर्मसे बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेष रहित परिणामों से शुद्ध स्वरूप आत्मा ही सदा ध्यान करना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,10/603/23 उक्तानि जीवस्थानानि गुणस्थानानि च, तेषां गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वतत्त्वविचारणालक्षणो धर्मः जिनशासने स्वाख्यातः॥
= पूर्वोक्त जीवस्थानों व गुणस्थानों का उन गति आदि मार्गणास्थानों में अन्वेषण करते हुए स्वतत्त्व को विचारणालक्षणवाला धर्म जिनशासन में भली प्रकार कहा गया है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 68,81 एयारसदसभेय धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥68॥ सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जोवो। सो ण य वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतये णिच्चं ॥81॥
= उत्तम सुखमें लीन जिनदेवने कहा है कि श्रावकों और मुनियों का धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकार का और दस प्रकार का है ॥68॥ जो जीव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनियों के धर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावना का नित्य ही चिन्तन करते रहना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालम्बनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमन्ति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवन्तः। अस्य पुनः प्रतिलम्भे विविधभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा।
= जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं। परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1857-1865) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 750-754) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/2) (पं.विं.6/56) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/80/633) (भूधरकृत भावना सं. 12)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/145 चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये....दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा....विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्तामणिरिति।....इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा गता।
= चौरासी लाख योनियों में दुःखों को सहते हुए भ्रमण करते इस जीव को जब इस प्रकार के पूर्वोक्त धर्मकी प्राप्ति होती है तब वह विविध प्रकार के अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बलसे अक्षयानन्त सुखादि गुणों का स्थानभूत अर्हन्तपद और सिद्ध पदको प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियों का भण्डार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म ही चिन्तामणि है....इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
10. निर्जरानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
समयसार / मूल या टीका गाथा 198 उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥198॥
= कर्मों के उदय का रस जिनेश्वर देवने अनेक प्रकार का कहा है। वे कर्म विपाक से हुए भाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो एक ज्ञायक भाव स्वरूप हूँ।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/112 निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैर्वर्त्तत इति। ....इति निर्जरानुप्रेक्षा गता।
= निजपरमात्मानुभूति के बलसे निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादिरूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
( समयसार / आत्मख्याति गाथा 193 उत्थानिका रूप कलश, 133)
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 67 सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चादुगदीण पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥
= उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है।
(भूधरकृत भावना सं. 10)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/417 निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुपेक्षा।
= वेदनाविपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परिषह के जीतनेपर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1845-1856) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 744-749) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/11) (प.विं./6/53) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/74-75/627)।
11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 83-84 उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स। चिंता हवेइ बोही अच्चंतं दुल्लहं होदि ॥83॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं खु। सगदव्वमुवादेयं णिच्छयदो होदि सण्णाणं ॥84॥
= जिस उपायसे सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय की चिन्ता करने को अत्यन्त दुर्लभबोधि भावना कहते हैं, क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञान का पाना अत्यन्त कठिन है ॥83॥ अशुद्ध निश्चयनयसे क्षायोपशमिक ज्ञानकर्मों के उदय से, जो कि परद्रव्य है, उत्पन्न होता है, इसलिए हेय अर्थात् त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य है, अर्थात् आत्मा का निज स्वभाव है, इसलिए उपादेय है ॥84॥
2. व्यवहार
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418 एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा सिद्धानामनन्तगुणाः। एवं सर्वलोको निरन्तरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेन्द्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नोरोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छुलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रञ्जनं भस्मार्थं चन्दनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधिर्दुरवापः। तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा।
= एक निगोद शरीरमें सिद्धों से अनन्त गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरन्तर भरा हुआ है। अतः इस लोकमें त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्रमें पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेन्द्रिय जीवों की बहुलता होनेके कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जानेपर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रिय, सम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपकी भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1866-1873) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 755-762) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/4) (पं.विं./6/55) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/78-79/631) (भूधरकृत भावना सं. 11)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/144 कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्त्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिर्दुर्लभः। तस्मात्स एव निरन्तरं भावनीयः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति। एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता॥
= यदि काकतालीयन्यायसे इन मनुष्य गति, आर्यत्व, तत्त्वश्रवणादि सबकी लब्धि हो जाये तो भी इनकी प्राप्ति रूप जो ज्ञान है, उसमें फलभूत जो शुद्धात्मा के ज्ञान स्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परमसमाधि है, वह दुर्लभ है। ....इसलिए उसको ही निरन्तर भावना करनी चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकों को निर्विघ्न अन्य भवमें साथ ले जाना सो समाधि है। ऐसा संक्षेप से बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ।
12. लोकानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 42 असुहेण णिरयतिरियं सुहउपजोगेग दिविजणरसोक्ख। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥
= यह जीव अशुभ विचारों से नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभविचारों से देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध विचारों से मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावना का चिन्तन करना चाहिए।
( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76, 77, 88) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1798/1614/18 यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते।...सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्।
= यद्यपि (नाम, स्थापनादि विकल्पों से) लोक के अनेक भेद हैं तथापि यहाँ लोक शब्दसे जीव द्रव्य लोक ही ग्राह्य है क्योंकि जीव के धर्म प्रवृत्ति का यहाँ क्रम कहा गया है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/143 आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुद्धैकस्वभावे परमात्मनि सकलविमलकेवलज्ञानलोचनादर्शे बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्थां लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः। ....इति....निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकसुखामृतस्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा।
= आदि, मध्य तथा अन्त रहित शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव तथा परमात्ममें पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्धात्मादि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं। इस कारण वह शुद्धात्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोकवाले निज शुद्धपरमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है।...इस प्रकार....निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमाह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है।
2. व्यवहार
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 715-719 तत्थणुवहंति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं सुहं दुक्खं। जम्मणमरणपुणव्भवमणतभवसायरे भीमे ॥715॥ आदा य होदि धूदा धूदा मादूत्तणं पुण उवेदि। पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे ॥716॥ होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो। जादो बच्चवरे किमिधिगत्थु संसारवासस्स ॥717॥ घिब्भक्दु लोगधम्मं देवाविय सूरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होंति ॥718॥ णाऊण लोगसारं णिस्सारं दीहगमणसंसारं। लोगग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥719॥
= इस लोकमें ये जीव अपने कर्मों से उपार्जन किये सुख-दुःख को भोगते हैं और भयंकर इस भवसागरमें जन्म-मरण को बारम्बार अनुभव करते हैं ॥715॥ इस संसारमें माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥716॥ प्रताप सुन्दरता से अधिक बल वीर्ययुक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्मवश अशुचि (मैले) स्थान में लट होता है। इसलिए ऐसे संसारमें रहने को धिक्कार हो ॥717॥ इस प्रकार लोक के स्वभाव को धिक्कार हो जिससे कि देव और महान् ऋद्धिवाले इन्द्र अनुपम सुख को भोग कर पश्चात् दुख भोगनेवाले होते हैं ॥718॥ इस प्रकार लोक को निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसार को अनन्त जानकर अनन्त सुख का स्थान ऐसे मोक्ष का यत्न से ध्यान कर ॥719॥
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1798, 1812 आहिंडय पुरिसस्स व इमस्स णीया तहिं होंति। सव्वे वि इमो पत्तो संबंधे सव्वजीवेहिं ॥1798॥ विज्जू वि चंचलं फेणदुव्वलं बाधिमहियमच्चुहदं। णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खुद्धुदं लोगं ॥1812॥
= एक देशसे दूसरे देश को जानेवाले पुरुष के समान इस जीव को सर्व जगमें बन्धु लाभ होता है, अमुक जीव के साथ इसका पिता पुत्र वगैरह रूपसे सम्बन्ध नहीं हुआ ऐसा काल ही नहीं था, अतः सर्व जीव इसके सम्बन्धी हैं ॥1798॥ यह जगत् बिजली के समान चंचल है, समुद्र के फेन के समान बलहीन है, व्याधि और मृत्यु से पीड़ित हुआ है। ज्ञानी पुरुष इसे दुःखों से भरा हुआ देखकर उसमें कैसी प्रीति करते हैं अर्थात् ज्ञानी इस लोक से प्रेम नहीं करते। इसके ऊपर माध्यस्थभाव रखते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा।
= लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्य देशमें स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 711-714) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/4) (पं.विं./6/54) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/76-77) (भूधरकृत भावना सं. 5)।
13. संवरानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 65 जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥65॥
= शुद्ध निश्चय नयसे जीव के संवर ही नहीं है इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए।
( समयसार / 181/क.127)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/111 अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते-यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति। तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इन्द्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झम्पने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति। एवं संवरगतगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या।
= अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं। वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बन्द हो जानेसे जलके न घुसने से निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार जीवरूपी जहाज़ अपने शुद्ध आत्म ज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आस्रवछिद्रों के मुँह बन्द हो जानेपर कर्मरूपी जल न घुसने से केवलज्ञानादि अनन्त गुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। ऐसे संवर के गुणों के चिन्तवन रूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 63,64 सुहजोगेण पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥ सुद्धुपजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणो ति विचिंतये णिच्चं ॥64॥
= मन, वचन, काय को शुभ प्रवृत्तियों से अशुभोपयोग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है ॥63॥ इसके पश्चात् शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए ॥64॥
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात्स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबन्धः इति सवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा।
= जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे उसके व्याप्त होनेपर उसके आश्रयपर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के रुके रहनेपर निरुपद्रव रूपसे अभिलषित देशान्तर का प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। उसी प्रकार कर्मागमद्वार के रुके होनेपर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तवन करना संवरानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1836-1844) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 738-743) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/32) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/2) (पं.विं./6/52) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/72-73) (भूधरकृत 12 भावनाएँ)।
14. संसारानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 37 कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे। जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मणिम्मुक्को ॥37॥
= यद्यपि यह जीव कर्म के निमित्त से संसार रूपी बड़े भारी वनमें भटकता रहता है, परन्तु निश्चय नयसे यह कर्मसे रहित है और इसीलिए इसका भ्रमण रूप संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/105 एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किन्तु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिवशेन संसारविनाशकनिजनिरञ्जनपरमात्मनि एव भावनां करोति। ततश्च यादृशमेव परमात्मनं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति। ....इति संसारानुप्रेक्षा गता।
= इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को चिन्तवन करते हुए इस जीवके, संसार रहित निज शुद्धात्म ज्ञान का नाश करनेवाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं जाता, किन्तु वह संसारातीत सुख के अनुभवमें लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञान के बलसे संसार को नष्ट करनेवाले निज निरंजन परमात्मा में भावना करता है। तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्षमें अनन्त काल तक रहता है। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 24 पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। जिणमग्गमपेछंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥25॥
= यह जीव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पाँच प्रकार के संसारमें अनादि कालसे भटक रहा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयन्त्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रङ्गे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिन्तनमनुप्रेक्षा
= कर्म विपाक के वशसे आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूपसे व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थलमें नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूपसे संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1768-1797) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 703-710) (राजवार्तिक अध्याय 9/7, 3/600-601) ( चारित्रसार पृष्ठ /186/5) (पं.विं./6/47) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/62-65)।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/600/28 चतुर्विधात्मावस्था:-संसारः असंसारः नोसंसारः तत्त्रितयव्यपायश्चेति। तत्र संसारश्चतमृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम्। अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारः सयोगकेवलिनः चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसारः इति। अयोगकेवलिनः तत्त्रितयव्यपायः। अभव्यत्वसामान्यापेक्षया संसारोऽनाद्यनन्तः, भव्यविशेषापेक्षया अनादिपर्यवसानः। (नोसंसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिलक्षः सादिः सपर्यवसानः संसारो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः उत्कृष्टेनार्धपुद्गलपरावर्तनकालः स च संसारो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् पञ्चविधो॥ ( चारित्रसार पृष्ठ )।
= आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और तीनों से विलक्षण। अनेक योनि वाली चार गतियों में भ्रमण करना संसार है। शिवपद के परमामृत सुखमें प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिमें भ्रमण न होनेसे और मोक्ष की प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवली की जीवनमुक्ति अवस्था ईषत् संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण हैं। अभव्य तता भव्य सामान्य की दृष्टि से संसार अनादि-अनन्त है। भव्य विशेष की अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नोसंसार सादि और सान्त है। असंसार सादि अनन्त है। त्रितय विलक्षण का काल अन्तर्मुहूर्त है। नोसंसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन एक लाख क्रोड़ पूर्व है। सादि सान्त संसार का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल है। ऐसा वह संसार, द्रव्य, क्षेत्र काल, भव व भाव के भेद से पाँच प्रकार का है।
श्रीमद्राजचन्द्र - बहु पुण्य केरा पुञ्ज पी शुभ देह मानव नो मल्यो। तोये अरे भव चक्रनो आंटो नहीं एके टलो।...रे आत्म तारो। आत्म तारो॥ शीघ्र एने ओणखो। सर्वात्म मां समदृष्टि द्यों आ वचनने हृदय लखो। = बहुत पुण्य के उदय से यह मानव की उत्तम देह मिली, परन्तु फिर भी भवचक्र में किंचित् हानि न कर सका। अरे! अब शीघ्र अपनी आत्मा को पहिचानकर सर्व आत्माओं को समदृष्टि से देख, इस वचन को हृदयमें रख।
(विशेष दे.- संसार 3 में पंच परिवर्तन)
2. अनुप्रेक्षा निर्देश
1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं
अनगार धर्मामृत अधिकार 6/82/634 इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽध्रुवादिष्वद्धा यत्किंचिदन्तःकरणकरणजिद्वेत्ति यः स्वं स्वयं स्वे। उच्चैरुच्चैः यदाशाधरभवविधुराम्भोधिपाराप्तिराजत्कार्तार्थ्यः पूतकीर्तिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूर्ध्नि॥
= परमागम ही हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अध्रुवादि बारह अनुप्रेक्षाओं में-से यथा रुचि एक अनेक अथवा सभी का तत्त्वतः हृदय में ध्यान करता है वह मन और इन्द्रिय दोनों पर विजय प्राप्त करके आत्मा ही में स्वयं अनुभव करने लगता है। तथा जहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थंकरादि उन्नतोन्नत पदों को प्राप्त करने की अभिलाषा लगी हुई है ऐसे संसार के दुःख समुद्रसे पार पहुँच कर कृतकृत्यता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनों को धारण करके जीवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट गुणों द्वारा तीन लोक के ऊपर प्रदीप्त होता है।
2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षामें अन्तर
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108 एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण। इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव।
= एकत्व अनुप्रेक्षामें तो `मैं अकेला हूँ' इत्यादि प्रकार से विधिरूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में `देह आदि पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेध रूपसे वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओंमें विधि-निषेध रूप का ही अन्तर है। तात्पर्य दोनों का एक ही है।
3. आस्रव, संवर, निर्जरा इन भावनाओं की सार्थकता
राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602 आस्रवसंवरनिर्जराग्रहणमनर्थकमुक्तत्वादिति चेत्, नतद्गुणदोषान्वेषणपरत्वात् ॥7॥
= प्रश्न - आस्रव संवर और निर्जरा का कथन पहले प्रकरणों में हो चुका है अतः यहाँ अनुप्रेक्षा प्रकरण में इनका ग्रहण करना निरर्थक है? उत्तर - नहीं, उनके दोष विचार ने के लिए यहाँ उनका ग्रहण किया है।
4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/12 जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥
= संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।
( ज्ञानार्णव अधिकार 27/4)।
महापुराण सर्ग संख्या 21/99 विषयेष्वनभिष्वङ्गः कायतत्त्वानुचिन्तनम्। जगत्स्वभावचिन्त्येति वैराग्यस्थैर्यभावनाः ॥99॥
= विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिन्तवन करना और जगत् के स्वभाव का चिन्तवन करना ये वैराग्य को स्थिर रखनेवाली भावनाएँ हैं।
3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्यावाप्तिर्भवति।
= इससे (अर्थात् शरीर व आत्मा के भिन्न रूप समाधान से) तत्त्वज्ञान की भावना पूर्वक आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभ भाव है
रयणसार गाथा 64-65 दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु। बंधणमुक्खे तक्कारणरूपे बारसणुवेक्खे ॥46॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाइसद्धम्मे। इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुभभावो ॥65॥
= पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नवपदार्थ, बंधमोक्ष के कारण बारह भावना, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवों के भाव हैं वे शुभ भाव हैं।
बारसाणुवेक्खा गाथा 63 सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजं गस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥
= मन, वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियों से अशुभ योग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 149 एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि। यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम्।
= इस प्रकार भाव संवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के वर्णन करनेवाले जो वाक्य हैं वे पापास्रव के संवरमें कारण जानने चाहिए। जो व्यवहार रत्नत्रय के साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
3. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है
तत्त्वार्थसार अधिकार 6/43/351 एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥43॥
= इस प्रकार (अन्तरंग सापेक्ष) बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से साधु के धर्म का महान् उद्योत होता है। उससे वह निष्प्रमाद होता है, जिससे कि महान् संवर होता है।
4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन
1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल
बारसाणुवेक्खा गाथा 89,90 मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेक्खं। परिभविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥89॥ किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सेझंति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥90॥
= जो पुरुष इन बारह भावनाओं का चिन्तन करके अनादि कालसे आज तक मोक्ष को गये हैं उनको मैं मन, वचन, काय पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ ॥89॥ इस विषय में अधिक कहने की जरूरत नहीं है इतना ही बहुत है कि भूतकालमें जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए और जो आगे होंगे वे सब इन्हीं भावनाओं का चिन्तवन करके ही हुए हैं। इसे भावनाओं का ही महत्त्व समझना चाहिए।
ज्ञानार्णव अधिकार 13/2/59 विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तम्। उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात्।
= इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदयमें कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर द्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीप का प्रकाश होता है।
पं./विं./6/42 द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः। तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ॥42॥
= महात्मा पुरुषों को निरन्तर बारहों अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए। कारण यह है कि उनकी भावना (चिन्तन) कर्म के क्षय का कारण होती है।
2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1874/1679 इय आलंबणमणुपेहाओ धमस्स होंति ज्झाणस्स। ज्झायंताणविणस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी ॥1874॥
= धर्मध्यान में जो प्रवृत्ति करता है उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधार रूप हैं, अनुप्रेक्षा के बलपर ध्याता धर्मध्यान में स्थिर रहता है, जो जिस वस्तु स्वरूप में एकाग्रचित्त होता है वह विस्मरण होने पर उससे चिगता है, परन्तु बार-बार उसको एकाग्रता के लिए आलंबन मिल जावेगा तो वह नहीं चिगेगा।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/6/413 कस्मात्क्षमादीनयममलम्बते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते यस्मात्तप्तायःपिण्डवत्क्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्याः।
स./सि./9/7/419 मध्ये अनुप्रेक्षावचनमुभयार्थम्। अनुप्रेक्षा हि भावयन्नुत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति परीषहांश्च जेतुमुत्सहते।
= तपाये हुए लोहे के गोले के समान क्षमादि रूपसे परिणत हुए आत्महित की इच्छा करने वालों को ये निम्न द्वादश अनुप्रेक्षा भानी चाहिए। बीचमें अनुप्रेक्षाओं का कथन दोनों अर्थ के लिए हैं। क्योंकि अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करता हुआ यह जीव उत्तम क्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परिषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है।
3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वङ्गाभावाद् भुक्तोज्झितगन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते।
= इस प्रकार विचार करनेवाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोग कर छोड़े हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग कालमें भी सन्ताप नहीं होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/600/12)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 22 चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥22॥
= हे भव्य जीवो! समस्त विषयों को क्षणभंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मनको विषयों के सुख से रहित करो, जिससे उत्तम सुख की प्राप्ति हो।
( चारित्रसार पृष्ठ 178/2)
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 इत्येवं ह्यस्य मनःसमादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वकवैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखवस्यावाप्तिर्भवति।
= इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान को भावनापूर्वक वैराग्य की वृद्धि होनेपर आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/602/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/4)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 82 जो जाणिऊण देह जोव-सरूवाद दु, तच्चदोभिण्णं। अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं।
= जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है।
( चारित्रसार पृष्ठ 18/2)।
5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 एवं ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीतिभृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति।
= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारण भूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/25)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31 अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥
= आत्मा को उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र कषाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है।
( चारित्रसार पृष्ठ 180/2)।
6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416 एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते।
= इस प्रकार चिन्तवन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 192/6)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 87 जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स।
= जो दूसरों के शरीर से विरक्त है और अपने शरीर से अनुराग नहीं करता है तथा आत्मध्यान में लीन रहता है उसके अशुचि भावना सफल है।
7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्सवृतात्मनो न भवन्ति।
= इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याण रूप बुद्धि का त्याग नहीं होता तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602/30) ( चारित्रसार पृष्ठ 195/5)।
का.अ/.मू./94 एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥94॥
= जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्म के उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भावों को त्यागने के योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आस्रवानुप्रेक्षा है।
8. एकत्वानुप्रेक्ष का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति। परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते। ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।
= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता इसलिए निःसङ्गता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601/27) ( चारित्रसार पृष्ठ 188/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 79 सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिन्नं। जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥
= पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीवके जान लेनेपर क्षण भरमें ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।
9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यन्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति।
= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/4) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 437 इय पच्चक्खं पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥437॥
= हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करो और पापसे दूर हो रहो।
10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्यानुस्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति।
= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इसकी कर्म निर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/603/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 197/2)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 114 जो समसोक्ख-णिलीणो बारंबारं सरेइ अप्पाणं। इदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥
= जो मुनि समता-रसमें लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इन्द्रिय और कषाय जीतनेवाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है।
11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419 एवं ह्यस्य भावयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवति।
= इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी प्रमाद नहीं होता।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 301 इय सव्व-दुलह दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च। मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥
= इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को संसार की समस्त दुर्लभ वस्तुओं में भी दुर्लभ जानकर इन तीनों का अत्यन्त आदर करो।
12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवति।
= इस प्रकार लोकस्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603/6) ( चारित्रसार पृष्ठ 198/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 283 एवं लोयसहां जो झायदि उवसमेक्क-सब्भावो। सो खविय कम्म पंजं तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥283॥
= जो पुरुष उपशम परिणामस्वरूप परिमत होकर इस प्रकार लोक के स्वरूप का ध्यान करता है वह कर्मपुंज को नष्ट करके उसी लोक का शिखामणि होता है।
13. संवारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417 एवं ह्यस्य चिन्तयतः संवरे नित्योद्यक्तता भवति। ततश्च निःश्रेयसपदप्राप्तिरिति।
= इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जीव के संवरमें निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
बारसाणुवेक्खा गाथा 38 संसारमदिक्कंतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो। संसारदुहक्कंतो जीवो सो हेयमिदि विचितिज्जो ॥38॥
= जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिए और जो संसाररूपी दुःखों से घिरा हुआ है वह हेय है ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःखभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते।
= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए संसार के दुःख के भयसे उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/601/17)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 73 इय संसारं जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊणं। तं झायह स-सरूवं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥
= इस प्रकार संसार को जानकर और सम्यक् व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायों से मोहको त्याग कर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकार के संसार-परिभ्रमण का नाश होता है।
पुराणकोष से
(1) वैराग्य वृद्धि में सहायक बारह भावनाएँ । वे ये हैं—अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । महापुराण 36.159-160, पद्मपुराण 14.237-239, हरिवंशपुराण 2.130, पांडवपुराण 25.74-123, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.2-4
(2) स्वाध्याय तप का तीसरा भेद-ज्ञान का मन से अभ्यास अथवा चिन्तन करना । देखें स्वाध्याय