तिर्यंच: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> तिर्यंच गति के दु:ख।–देखें [[ | <li class="HindiText"> तिर्यंच गति के दु:ख।–देखें [[ भगवती आराधना#1581 | भगवती आराधना - 1581]]-1587 ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, लेश्या व पर्याप्ति आदि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | <li class="HindiText"> तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, लेश्या व पर्याप्ति आदि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> तिर्यंच सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> तिर्यंच सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/4/27 <span class="SanskritText">औपपादिकमनुष्येंभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय:।27। </span>=<span class="HindiText">उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनि वाले हैं।27।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,24/ गा.129/202 <span class="PrakritGatha">तिरियंति कुडिल-भावं सुवियड-सण्णाणिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम। </span>=<span class="HindiText">जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएं सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जावे उनको तिर्यंच कहते हैं।129। (प.सं./प्रा./1/61); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/148 )।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/4/27/3/245 <span class="SanskritText">तिरोभावो न्यग्भाव: उपबाह्यत्वमित्यर्थ:, तत: कर्मोदयापादितभावा तिर्यग्योनिरित्याख्यायते। तिरञ्चियोनिर्येषां ते तिर्यग्योनय:। </span>=<span class="HindiText">तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोने के लायक। कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं।</span><br /> | |||
धवला/13/5,5,140/392/2 <span class="SanskritText"> तिर: अञ्चन्ति कौटिल्यमिति तिर्यञ्च:। ‘तिर:’</span> <span class="HindiText">अर्थात् कुटिलता को प्राप्त होते हैं वे तिर्यंच कहलाते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> जलचर आदि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> जलचर आदि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/3/39/5/209/30 <span class="SanskritText">पञ्चेन्द्रिया: तैर्यग्योनय: पञ्चविधा:–जलचरा:, परिसर्पा:, उरगा:, पक्षिण:, चतुष्पादश्चेति। </span>=<span class="HindiText">पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच पांच प्रकार के होते हैं–जलचर-(मछली आदि), परिसर्प (गोनकुलादि); उरग-सर्प; पक्षी, और चतुष्पद।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/118/181/11 <span class="SanskritText">पृथिव्याद्येकेन्द्रियभेदेन शम्बूकयूकोद्दंशकादिविकलेन्द्रियभेदेन जलचरस्थलचरखचरद्विपदचतु:पदादिपञ्चेन्द्रियभेदेन तिर्यञ्चो बहुप्रकारा:।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंचगति के जीव पृथिवी आदि एकेन्द्रिय के भेद से; शम्बूक, जूं व मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से; जलचर, स्थलचर, आकाशचर, द्विपद, चतुष्पदादि पञ्चेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.3" id="1.3"></a>गर्भजादि की अपेक्षा तिर्यचों के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.3" id="1.3"></a>गर्भजादि की अपेक्षा तिर्यचों के भेद</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> मार्गणा की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> मार्गणा की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,26/208/3 <span class="SanskritText">तिर्यञ्च: पञ्चविधा:, तिर्यञ्च: पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च:, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिरश्च्य:। पञ्चेन्द्रियापर्याप्ततिर्यञ्च इति।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंच पांच प्रकार के होते हैं–सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त-योनिमती, पंचेन्द्रिय-अपर्याप्त-तिर्यंच। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/150 )।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">तिर्यंच गति में सम्यक्तव का स्वामित्व</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">तिर्यंच गति में सम्यक्तव का स्वामित्व</strong></span><br /> | ||
षट्खण्डागम/1/1,1,/ सू.156-161/401 <span class="PrakritText">तिरिक्ख अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।156। एवं जाव सव्व दीव-समुद्देसु।157। तिरिक्खा असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।158। तिरिक्खा संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि।159। एवं पंचिंदियातिरिक्खा-पज्जत्ता।160। पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठी-संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि।161।</span>=<span class="HindiText">तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं।156। इस प्रकार समस्त द्वीप-समुद्रवर्ती तिर्यंचों में समझना चाहिए।157। तिर्यंच असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।158। तिर्यंच संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।159। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच भी होते हैं।160। योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतगुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।161।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> तिर्यचों में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> तिर्यचों में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम 1/1,1/ सू.84-88/325 <span class="PrakritText">तिरिक्खा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता।84। सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे-णियमा पज्जत्ता।85। एवं पंचिंदिय-तिरिक्खापज्जत्ता।86। पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिणीसु मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।87। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।88। </span>=<span class="HindiText">तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं अपर्याप्त भी होते हैं।84। तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।85। तिर्यंच सम्बन्धी सामान्य प्ररूपणा के समान पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी होते हैं।86। योनिमती-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।87। योनिमती तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।88।</span><br /> | |||
षट्खण्डागम 1/1,1/ सू.26/207 <span class="PrakritText">तिरिक्खा पंचसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।26।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पांच गुणस्थानों में तिर्यंच होते हैं।26।</span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/5/299-303 <span class="PrakritText">तेतीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सव्वकालम्मि। मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छं सण्णीण तं माणं।299। पणपणअज्जाखंडे भरहेरावदखिदिम्मि मिच्छत्तं। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइदीसंति।300। पंचविदेहे सट्ठिसमण्णिदसदअज्जवखंडए तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सयंपहगिरीदो।301। सासणमिस्सविहीणा तिगुणट्ठाणाणि थोवकालम्मि। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसंति।302। सव्वेसु वि भोगभुवे दो गुणठाणाणि थोवकालम्मि। दीसंति चउवियप्पं सव्व मिलिच्छम्मि मिच्छत्तं।303। </span>=<span class="HindiText">संज्ञी जीवों को छोड़ शेष तेतीस प्रकार के भेदों से युक्त तिर्यंच जीवों के सब काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है। संज्ञीजीव के गुणस्थान प्रमाण को कहते हैं।299। भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर पांच-पांच आर्यखण्डों में जघन्यरूप से एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूप से कदाचित् पांच गुणस्थान भी देखे जाते हैं।300। पांच विदेहों के भीतर एक सौ आठ आर्यखण्डों में विद्याधर श्रेणियों में और स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में सासादन एवं मिश्र गुणस्थान को छोड़ तीन गुणस्थान जघन्य रूप से स्तोक काल के लिए होते हैं। उत्कृष्ट रूप से पांच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं।301-302। सर्व भोगभूमियों में दो गुणस्थान और स्तोक काल के लिए चार गुणस्थान देखे जाते हैं। सर्वम्लेच्छखण्डों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।303।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,26/208/6 <span class="SanskritText">लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणासंभवात् ...शेषेषु पञ्चापि गुणस्थानानि सन्ति,...तिरश्चीप्वपर्याप्ताद्धायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव सन्ति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">लब्ध्यपर्याप्तकों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़कर शेष गुणस्थान असम्भव हैं...शेष चार प्रकार के तिर्यंचों में पांचों ही गुणस्थान होते हैं।...तिर्यंचयोनियों के अपर्याप्त काल में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थान वाले ही होते हैं, शेष तीन गुणस्थान वाले नहीं होते हैं। विशेष–देखें [[ सत् ]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिर्यंच नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिर्यंच नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 8/3,278/363/10 <span class="PrakritText">तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते।</span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/329/471/5 <span class="SanskritText">क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्देशसंयतो मनुष्य एव तत: कारणात्तत्र तिर्यगायुरुद्योतस्तिर्यग्गतिश्चेति त्रीण्युदये न सन्ति।</span> =<span class="HindiText">क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य ही होता है, इसलिए तिर्यगायु, उद्योत, तिर्यग्गति, पंचम गुणस्थान विषै नाहीं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,158/402/9 <span class="SanskritText">तिर्यक्षु क्षायिकसम्यग्दृष्टय: संयतासंयता: किमिति न सन्तीति चेन्न, क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां भोगभूमिमन्तरेणोत्पत्तेर भावात् । न च भोगभूमावुत्पन्नानामणुव्रतोपादानं संभवति तत्र तद्विरोधात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, तिर्यंचों में यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं दूसरी जगह नहीं। परन्तु भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रत की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वहां पर अणुव्रत के होने पर आगम से विरोध आता है। ( धवला 1/1,1,85/327/1 ) ( धवला 2/1,1/482/2 )।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> तिर्यंचिनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> तिर्यंचिनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/7/23/3 <span class="SanskritText"> तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। कृत इत्युक्ते मनुष्यकर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति। क्षपणाप्रारम्भकालात्पूर्बं तिर्यक्षु, बद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगभूमितिर्यक्पुरुषेष्वेवोत्पद्यते न तिर्यक्स्त्रीषु द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात् ।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंचनियों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है ? <strong>प्रश्न</strong>‒क्यों ? <strong>उत्तर</strong>‒कर्मभूमिज मनुष्य ही दर्शन मोह की क्षपणा प्रारम्भ करता है। क्षपणा काल के प्रारम्भ से पूर्व यदि कोई तिर्यंचायु बद्धायुष्क हो तो वह उत्कृष्ट भोगभूमि के पुरुषवेदी तिर्यंचों में ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यंचों में नहीं। क्योंकि द्रव्य स्त्री वेदी तिर्यंचों के क्षायिक सम्यक्त्व की असम्भावना है।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,161/403/5 <span class="SanskritText"> तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात्तत्र दर्शनमोहनीयस्य क्षपणाभावाच्च।</span> =<span class="HindiText">योनिमति पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते। तथा उनमें दर्शन मोहनीय की क्षपणा का अभाव है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,26/209/5 <span class="SanskritText">भवतु नामसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतानां तत्रासत्त्वं पर्याप्ताद्धायामेवेति नियमोपलम्भात् । कथं पुनरसंयतसम्यग्दृष्टीनामसत्त्वमिति न, तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒तिर्यंचनियों के अपर्याप्त काल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थानवालों का अभाव रहा आवे, क्योंकि ये दो गुणस्थान पर्याप्त काल में ही पाये जाते हैं, ऐसा नियम मिलता है। परन्तु उनके अपर्याप्त काल में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का अभाव कैसे माना जा सकता है ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचनियों में असंयत सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> अपर्याप्त तिर्यंच में सम्यक्त्व कैसे सम्भव है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> अपर्याप्त तिर्यंच में सम्यक्त्व कैसे सम्भव है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,84/325/4 <span class="SanskritText">भवतु नाम मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां तिर्यक्षु पर्याप्तापर्याप्तद्वयो: सत्त्वं तयोस्तत्रोत्पत्यविरोधात् । सम्यग्दृष्टयस्तु पुनर्नोत्पद्यन्ते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति। न विरोध:, अस्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टि: सेविततीर्थकर: क्षपितसप्तप्रकृति: कथं तिर्यक्षु दु:खभूयस्सूत्पद्यते इति चेन्न, तिरञ्चां नारकेभ्यो दु:खाधिक्याभावात् । नारकेष्वपि सम्यग्दृष्टयो नोत्पत्स्यन्त इति चेन्न, तेषां तत्रोत्पत्तिप्रतिपादकार्षोपलम्भात् । किमिति ते तत्रोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यग्दर्शनोपादानात् प्राङ्मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यङ्नरकायुष्कत्वात् । सम्यग्दर्शनेन तत् किमिति न छिद्यते। इति चेत् किमिति तन्न छिद्यते। अपि तु न तस्य निर्मूलच्छेद:। तदपि कुत:। स्वाभाव्यात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों की तिर्यंचों सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में भले ही सत्ता रही आवे, क्योंकि इन दो गुणस्थानों की तिर्यंच सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव तो तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि तिर्यंचों की अपर्याप्त पर्याय के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है। <strong>उत्तर</strong>‒विरोध नहीं हैं, फिर भी यदि विरोध माना जावे तो ऊपर का सूत्र अप्रमाण हो जायेगा। <strong>प्रश्न</strong>‒जिसने तीर्थंकर की सेवा की है और जिसने मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव दु:ख बहुल तिर्यंचों में कैसे उत्पन्न होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचों के नारकियों की अपेक्षा अधिक दुख नहीं पाये जाते हैं। <strong>प्रश्न</strong>‒तो फिर नारकियों में भी सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होंगे ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों की नारकियों में उत्पत्ति का प्रतिपादन करने वाला आगम प्रमाण पाया जाता है। <strong>प्रश्न</strong>‒सम्यग्दृष्टि जीव नारकियों में क्यों उत्पन्न होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि जिन्होंने सम्यग्दर्शन को ग्रहण करने के पहले मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु और नरकायु का बन्ध कर लिया है उनकी सम्यग्दर्शन के साथ वहां पर उत्पत्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। <strong>प्रश्न</strong>‒सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से उस आयु का छेद क्यों नहीं हो जाता है ? <strong>उत्तर</strong>‒उसका छेद क्यों नहीं होता है? अवश्य होता है। किन्तु उसका समूल नाश नहीं होता है। <strong>प्रश्न</strong>‒समूल नाश क्यों नहीं होता है? <strong>उत्तर</strong>‒आगे के भव के बांधे हुए आयुकर्म का समूल नाश नहीं होता है, इस प्रकार का स्वभाव ही है।</span><br /> | |||
धवला 2/1,1/481/1 <span class="PrakritText">मणुस्सा पुव्वबद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण...खइयसम्माइट्ठी होदूण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जंति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिक्खेसुप्पज्जमाणं पेक्खिऊण असंजदसम्माइट्ठि-अप्पज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लब्भदि। तत्थ उप्पज्जमाण-कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि। </span>=<span class="HindiText">(इन क्षायिक व क्षायोपशमिक) दो सम्यक्त्वों के (वहां) होने का कारण यह है कि जिन मनुष्यों ने सम्यग्दर्शन होने के पहले तिर्यंच आयु को बांध लिया है वे पीछे सम्यक्त्व को ग्रहणकर...क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा से असंयत सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्त काल में क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्हीं भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों के कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,85/326/5 <span class="SanskritText">मनुष्या: मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यगायुष: पश्चात्सम्यग्दर्शनेन सहात्ताप्रत्याख्याना: क्षपितसप्तप्रकृतयस्तिर्यक्षु किन्नोत्पद्यन्ते। इति चेत् किंचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तेषु सत्त्वापत्ति:। न, देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसंबद्धायुषोपलक्षितानामणुव्रतोपादानबुद्धयनुत्पत्ते:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒जिन्होंने मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु का बन्ध करने के पश्चात् देशसंयम को ग्रहण कर लिया है और मोह की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसे मनुष्य तिर्यंचों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? यदि होते हैं तो इससे तिर्यंच अपर्याप्तों में देशसंयम के प्राप्त होने की क्या आपत्ति आती है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, देवगति को छोड़कर शेष तीन गति सम्बन्धी आयुबन्ध से युक्त जीवों के अणुव्रत को ग्रहण करने की बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,156/401/8 <span class="SanskritText"> संन्यस्तशरीरत्वात्त्यक्ताहाराणां तिरश्चां किमिति संयमो न भवेदिति चेन्न, अन्तरङ्गाया: सकलनिवृत्तेरभावात् । किमिति तदभावश्चेज्जातिविशेषात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒शरीर से संन्यास ग्रहण कर लेने के कारण जिन्होंने आहार का त्याग कर दिया है ऐसे तिर्यंचों के संयम क्यों नहीं होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, आभ्यन्तर सकल निवृत्ति का अभाव है। <strong>प्रश्न</strong>‒उसके आभ्यन्तर सकल निवृत्ति का अभाव क्यों है ? उत्तर‒जिस जाति में वे उत्पन्न हुए हैं उसमें संयम नहीं होता यह नियम है, इसलिए उनके संयम नहीं पाया जाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> सर्व द्वीपसमुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे सम्भव है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> सर्व द्वीपसमुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे सम्भव है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,157/402/1 <span class="SanskritText">स्वयंप्रभादारान्मानुषोत्तरात्परतो भोगभूमिसमानत्वान्न तत्र देशव्रतिन: सन्ति तत् एतत्सूत्रं न घटत इति न, वैरसंबन्धेन देवैर्दानवैर्वोत्क्षिप्य क्षिप्तानां सर्वत्र सत्त्वाविरोधात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒स्वयंभूरमण द्वीपवर्ती स्वयंप्रभ पर्वत के इस ओर और मानुषोत्तर पर्वत के उस ओर असंख्यात द्वीपों में भोगभूमि के समान रचना होने पर वहां पर देशव्रती नहीं पाये जाते हैं, इसलिए यह सूत्र घटित नहीं होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, वैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यंचों का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता, इसलिए वहां पर तिर्यंचों के पांचों गुणस्थान बन जाते हैं। ( धवला 4/1,4,8/169/7 ); ( धवला 6/1,9,9,20/426/10 )।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> ढाई द्वीप से बाहर क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> ढाई द्वीप से बाहर क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 6/1,9-8,11/244/2 <span class="PrakritText">अढाइज्जा...दीवेसु दंसणमोहणीयकम्मस्स खवणमाढवेदि त्ति, णो सेसदीवेसु। कुदो। सेसदीवट्ठिदजीवाणं तक्खवणसत्तीए अभावादो। लवण-कालोदइसण्णिदेसु दोसु समुद्देसु दंसणमोहणीयं कम्मं खवेंति, णो सेससमुद्देसु, तत्थ सहकारिकारणाभावा।...‘जम्हि जिणा तित्थयत’ त्ति विसेसणेण पडिसिद्धत्तादो।</span>=<span class="HindiText">अढाई द्वीपों में ही दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण को आरम्भ करता है, शेष द्वीपों में नहीं। इसका कारण यह है कि शेष द्वीपों में स्थित जीवों के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षपण की शक्ति का अभाव होता है। लवण और कालोदक संज्ञावाले दो समुद्रों में जीव दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण करते हैं, शेष समुद्रों में नहीं, क्योंकि उनमें दर्शनमोह के क्षपण करने के सहकारी कारणों का अभाव है।...‘जहां जिन तीर्थंकर सम्भव हैं’ इस विशेषण के द्वारा उसका प्रतिषेध कर दिया गया है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12"> कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12"> कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong></span><br /> | ||
धवला 6/1,9-8,11/245/1 <span class="PrakritText">कम्मभूमीसु टि्ठद-देव-मणुसतिरिक्खाणं सव्वेसिं पि गहणं किण्ण पावेदि त्ति भणिदे ण पावेदि, कम्मभूमीसुप्पण्णमणुस्साणमुवयारेण कम्मभूमीववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं गहणं पावेदि, तेसिं तत्थ वि उप्पत्तिसंभवादो। ण, जेसिं तत्थेव उप्पत्तो, ण अण्णत्थ संभवो अत्थि, तेसिं चेव मणुस्साणं पण्णारसकम्मभूमिववएसो, ण तिरिक्खाणं सयंपहपव्वदपरभागे उप्पज्जणेण सव्वहिचाराणं। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒(सूत्र में तो) ‘पन्द्रह ‘कर्मभूमियों में’ ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियों में स्थित, देव मनुष्य और तिर्यंच, इन सभी का ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए मुनष्यों की उपचार से ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा दी गयी है। <strong>प्रश्न</strong>‒यदि कर्मभूमि में उत्पन्न हुए जीवों को ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा है, तो भी तिर्यंचों का ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि, उनकी भी कर्मभूमि में उत्पत्ति सम्भव है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, जिनकी वहांपर ही उत्पत्ति होती है, और अन्यत्र उत्पत्ति सम्भव नहीं है, उनही मनुष्यों के पन्द्रह कर्मभूमियों का व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में उत्पन्न होने से व्यभिचार को प्राप्त तिर्यंचों के।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.1" id="3.1"></a>तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.1" id="3.1"></a>तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/4/19/250/12 <span class="SanskritText">बाहल्येन तत्प्रमाणस्तिर्यक्प्रसृतस्तिर्यग्लोक:।</span> =<span class="HindiText">मेरु पर्वत की जितनी ऊंचाई है, उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्लोक है।</span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/5/6-7 <span class="PrakritGatha">मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खं जोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिट्ठेदि तिरियतसलोओ।6। पणुवीसकोडाकोडीपमाण उद्धारपल्लरोमसमा। दिओवहीणसंखा तस्सद्धं दीवजलणिही कमसो।7।</span>=<span class="HindiText">मंदर पर्वत के मूल से एक लाख योजन बाहल्य रूप राजुप्रतर अर्थात् एक राजू लम्बे चौड़े क्षेत्र में तिर्यक्त्रस लोक स्थित है।6। पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों के रोमों के प्रमाण द्वीप व समुद्र दोनों की संख्या है। इसकी आधी क्रमश: द्वीपों की और आधी समुद्रों की संख्या है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा/543/945/18)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> तिर्यग्लोक के नाम का सार्थक्य</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> तिर्यग्लोक के नाम का सार्थक्य</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/3/7/ उत्थानिका/169/9 <span class="SanskritText">कुत: पुनरियं तिर्यग्लोकसंज्ञा प्रवृत्तेति। उच्यते‒यतोऽसंख्येया: स्वयंभूरमणपर्यन्तास्तिर्यक्प्रचयविशेषणावस्थिता द्वीपसमुद्रास्तत: तिर्यग्लोक इति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒इसको तिर्यक्लोक क्यों कहते हैं? <strong>उत्तर</strong>‒चूंकि स्वयम्भूरमण पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक्-समभूमि पर तिरछे व्यवस्थित हैं अत: इसको तिर्यक् लोक कहते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.3" id="3.3"></a>तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.3" id="3.3"></a>तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद</strong><br /> | ||
धवला 3/1,2,4/34/4 का विशेषार्थ-कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका पर जाकर रज्जू समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रों की चौड़ाई से रुके हुए क्षेत्र से संख्यात गुणे योजन जाकर रज्जू की समाप्ति होती है। स्वयं वीरसेन स्वामी ने इस मत को अधिक महत्त्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियों के प्रमाण को लाने के लिए 256 अंगुल के वर्ग प्रमाण जो भागाहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुद्र से संख्यातगुणे योजन जाकर मध्यलोक की समाप्ति होती है।</span><br /> | |||
धवला 4/1,3,3/41/8 <span class="PrakritText"> तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे तिरियलोगो होदि त्ति के वि आइरिया भणंति। तं ण घडदे।</span> =<span class="HindiText">तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में तिर्यक् लोक है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु उनका इस प्रकार कहना घटित नहीं होता।</span><br /> | |||
धवला 11/4,2,5,8/17/4 <span class="PrakritText"> सयंभूरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लतडो णाम तदवयवभूदबाहिरवेइयाए, तत्थ महामच्छो अच्छिदो त्ति के वि आइरिया भणंति। तण्ण घडदे, ‘कायलेस्सियाए लग्गो‘ त्ति उवरि भण्णमाणसुत्तेण सह विरोहादो। ण च सयंभूरमणसमुद्दबाहिरवेइयाए संबद्धा तिण्णि वि वादवलया, तिरियलोयविक्खंभस्स एगरज्जुपमाणादोऊणत्तप्पसंगादो।</span> =<span class="HindiText">स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट का अर्थ उसकी अंगभूत बाह्य वेदिका है, वहां स्थित महामत्स्य ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर ...तनुवातवलय से संलग्न हुआ’ इस सूत्र के साथ विरोध आता है। कारण कि स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से तीनों ही वातवलय सम्बद्ध नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर तिर्यग्लोक सम्बन्धी विस्तार प्रमाण के एक राजू से हीन होने का प्रसंग आता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> विकलेन्द्रिय जीवों का अवस्थान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> विकलेन्द्रिय जीवों का अवस्थान</strong> </span><br /> | ||
हरिवंशपुराण/5/633 <span class="SanskritGatha">मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रिया:। अन्त्यद्वीपर्द्धत: सन्ति परस्तात्ते यथा परे।633। </span>= <span class="HindiText">इस ओर विकलेन्द्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस ओर स्वयम्भूरमण द्वीप के अर्धभाग से लेकर अन्त तक पाये जाते हैं।633।</span><br /> | |||
धवला 4/1,3,2/33/2 <span class="PrakritText">भोगभूमीसु पुण विगलिंदिया णत्थि। पंचिंदिया वि तत्थ सुट्ठु थोवा, सुहकम्माइ जीवाणं बहुणामसंभवादो।</span> =<span class="HindiText">भोगभूमि में तो विकलत्रय जीव नहीं होते हैं, और वहां पर पंचेन्द्रिय जीव भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि शुभकर्म की अधिकता वाले बहुत जीवों का होना असम्भव है।</span><br /> | |||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/142 <span class="PrakritText"> वि-ति चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु। चरिमे दीवे अद्धो चरम-समुद्दे वि सव्वेसु।142।</span> =<span class="HindiText">दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं। तथा अन्त के आधे द्वीप में और अन्त के सारे समुद्र में होते हैं।142।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.5" id="3.5"></a>पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का अवस्थान</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.5" id="3.5"></a>पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का अवस्थान</strong></span><br /> | ||
धवला 7/2,7,19/379/3 <span class="PrakritText">अधवा सव्वेसु-दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति। कुदो। पुव्ववइरियदेवसंबंधेण कम्मभूमिपडिभागुप्पण्णपंचिंदियतिरिक्खाणं एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढ ओरालिय देहाणं सव्वदीवसमुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति।</span> =<span class="HindiText">अथवा सभी द्वीप समुद्रों में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के सम्बन्ध से एक बन्धन में बद्ध छह जीवनिकायों से व्याप्त औदारिक शरीर को धारण करने वाले कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न हुए पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का सर्व समुद्रों में अवस्थान देखा जाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> जलचर जीवों का अवस्थान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> जलचर जीवों का अवस्थान</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./1081<span class="PrakritGatha"> लवणु कालसमुद्दे सयंभूरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा।1081। </span>=<span class="HindiText">लवणसमुद्र और कालसमुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्र में तो जलचर आदि जीव रहते हैं, और शेष समुद्रों में मच्छ-मगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता है। ( | मू.आ./1081<span class="PrakritGatha"> लवणु कालसमुद्दे सयंभूरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा।1081। </span>=<span class="HindiText">लवणसमुद्र और कालसमुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्र में तो जलचर आदि जीव रहते हैं, और शेष समुद्रों में मच्छ-मगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/31 ); ( राजवार्तिक/3/32/8/194/18 ); ( हरिवंशपुराण/5/630 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/91 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 144 )</span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/1773 ...। <span class="PrakritText">भोगवणीण णदीओ सरपहुदी जलयरविहीणा। </span>=<span class="HindiText">भोगभूमियों की नदियां, तालाब आदिक जलचर जीवों से रहित हैं।1773।<br></span> धवला 6/1,9-9,20/426/10 <span class="PrakritText">णत्थि मच्छा वा मगरा वा त्ति जेण तसजीवपडिसेहो भोगभूमिपडिभागिएसु समुद्देसु कदो, तेण तत्थ पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती ण जुज्जुत्ति त्ति। ण एस दोसो, पुव्ववइरियदेवेहि खित्तपंचिंदियतिरिक्खाणं तत्थ संभवादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒चूंकि ‘भोगभूमि के प्रतिभागी समुद्रों में मत्स्य या मगर नहीं है’ ऐसा वहां त्रस जीवों का प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रों में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है? <strong>उत्तर</strong>‒यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के द्वारा उन समुद्रों में डाले गये पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की सम्भावना है।</span><br /> | |||
त्रिलोकसार/320 <span class="PrakritGatha">जलयरजीवा लवणे कालेयंतिमसयंभुरमणे य। कम्ममही पडिबद्धे ण हि सेसे जलयरा जीवा।320।</span> =<span class="HindiText">जलचर जीव लवण समुद्रविषै बहुरि कालोदक विषैं बहुरि अन्त का स्वयम्भूरमण विषैं पाइये हैं। जातै ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी हैं। बहुरि अवशेष सर्व समुद्र भोगभूमि सम्बन्धी हैं। भोगभूमि विषैं जलचर जीवों का अभाव है। तातै इन तीन बिना अन्य समुद्र विषै जलचर जीव नाहीं। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> वैरी जीवों के कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> वैरी जीवों के कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं</strong> </span><br /> | ||
धवला 4/1,4,59/243/8 <span class="PrakritText">सेसपदेहि वइरिसंबधेण विगलिंदिया सव्वत्थ तिरियपदरब्भंतरे होंति त्ति।</span> =<span class="HindiText">वैरी जीवों के सम्बन्ध से विकलेन्द्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक्प्रतर के भीतर ही होते हैं।</span><br /> | |||
धवला 7/2,7,62/397/4 <span class="PrakritText"> अधवा पुव्ववेरियदेवपओगेण भोगभूमि पडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिक्खकलेवरेसु तस अपज्जत्ताणमुप्पत्ती अत्थि त्ति भणंताणमहिप्पाएण। </span>=<span class="HindiText">[विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों का अवस्थान क्षेत्र स्वयंप्रभपर्वत के परभाग में ही है क्योंकि भोगभूमि प्रतिभाग में उनकी उत्पत्ति का अभाव है] अथवा पूर्व वैरी के प्रयोग से भोगभूमि प्रतिभागरूप द्वीप समुद्रों में पड़े हुए तिर्यंच शरीरों में त्रस अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है ऐसा कहने वाले आचार्यों के अभिप्राय से...।</span></li> | |||
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Revision as of 19:11, 17 July 2020
पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहां तक कि वृक्ष, जल, पृथिवी, व निगोद जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त अनेक प्रकार के कुछ जलवासी कुछ थलवासी और कुछ आकाशचारी होते हैं। इनमें से असंज्ञी पर्यन्त सब सम्मूर्छिम व मिथ्यादृष्टि होते हैं। परन्तु संज्ञी तिर्यंच सम्यक्त्व व देशव्रत भी धारण कर सकते हैं। तिर्यंचों का निवास मध्य लोक के सभी असंख्यात द्वीप समुद्रों में है। इतना विशेष है कि अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते और उन द्वीपों में विकलत्रय नहीं पाये जाते। अन्तिम स्वयम्भूरमण सागर में अवश्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पाये जाते हैं। अत: यह सारा मध्यलोक तिर्यक लोक कहलाता है।
- भेद व लक्षण
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण।
- जलचरादि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद।
- गर्भजादि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद।
- मार्गणा की अपेक्षा तिर्यचों के भेद।
- जीव समासों की अपेक्षा तिर्यचों के भेद।–देखें जीव समास ।
- सम्मूर्च्छिम तिर्यंच।–देखें सम्मूर्च्छन ।
- महामत्स्य की विशाल काय।–देखें सम्मूर्च्छन ।
- भोगभूमिया तिर्यंच निर्देश।–देखें भूमि - 8।
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण।
- तिर्यंचों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएं
- तिर्यंचगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- औपशमिकादि सम्यक्त्व का स्वामित्व।–देखें सम्यग्दर्शन - IV।
- जन्म के पश्चात् सम्यक्त्वग्रहण की योग्यता।–देखें सम्यग्दर्शन - IV/2/5।
- जन्म के पश्चात् संयम ग्रहण की योग्यता–देखें संयम - 2।
- तिर्यंचों में गुणस्थानों का स्वामित्व।
- गति-अगति में समय सम्यक्त्व व गुणस्थान।–देखें जन्म - 6।
- स्त्री, पुरुष व नपुंसकवेदी तिर्यचों सम्बन्धी।–देखें वेद ।
- क्षायिक सम्यग्दृष्टिसंयतासंयत मनुष्य ही होय तिर्यच नहीं।
- तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- तिर्यंचनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- पर्याप्तापर्याप्त तिर्यंच।–देखें पर्याप्ति ।
- अपर्याप्त तिर्यंचों में सम्यक्त्व कैसे सम्भव है।
- अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं।
- तिर्यंचायु के बन्ध होने पर अणुव्रत नहीं होते।–देखें आयु - 6।
- तिर्यंचायु के बन्ध योग्य परिणाम।–देखें आयु - 3।
- तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते।
- सर्व द्वीप समुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे सम्भव हैं।
- ढाई द्वीप से बाहर सम्यक्तव की उत्पत्ति क्यों नहीं।
- कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- तिर्यंच गति के दु:ख।–देखें भगवती आराधना - 1581-1587 ।
- तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, लेश्या व पर्याप्ति आदि।–देखें वह वह नाम ।
- कौन तिर्यंच मरकर कहां उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे।–देखें जन्म - 6।
- तिर्यंच गति में 14 मार्गणाओं के अस्तित्व सम्बन्धी 20 प्ररूपणाएं।–देखें सत् ।
- तिर्यंच गति में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएं–देखें वह वह नाम ।
- तिर्यंच गति में कर्मों का बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएं व तत्सम्बन्धी नियमादि।–देखें वह वह नाम ।
- तिर्यंच गति व आयुकर्म की प्रकृतियों के बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएं व तत्सम्बन्धी नियमादि।–देखें वह वह नाम ।
- भाव मार्गणा की इष्टता तथा उसमें भी आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- तिर्यंचगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- तिर्यंच लोक निर्देश
- तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश।
- तिर्यंच लोक के नाम का सार्थक्य।
- तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद।
- विकलेन्द्रिय जीवों का अवस्थान।
- पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का अवस्थान।
- जलचर जीवों का अवस्थान।
- कर्म व भोग भूमियों में जीवों का अवस्थान–देखें भूमि ।
- तैजस कायिकों के अवस्थान सम्बन्धी दृष्टि भेद।–देखें काय - 2.5।
- मारणान्तिक समुद्घातगत महामत्स्य सम्बन्धी भेद दृष्टि।–देखें मरण - 5.6।
- वैरी जीवों के कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं।
- तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश।
- भेद व लक्षण
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/4/27 औपपादिकमनुष्येंभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय:।27। =उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनि वाले हैं।27।
धवला 1/1,1,24/ गा.129/202 तिरियंति कुडिल-भावं सुवियड-सण्णाणिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम। =जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएं सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जावे उनको तिर्यंच कहते हैं।129। (प.सं./प्रा./1/61); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/148 )।
राजवार्तिक/4/27/3/245 तिरोभावो न्यग्भाव: उपबाह्यत्वमित्यर्थ:, तत: कर्मोदयापादितभावा तिर्यग्योनिरित्याख्यायते। तिरञ्चियोनिर्येषां ते तिर्यग्योनय:। =तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोने के लायक। कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं।
धवला/13/5,5,140/392/2 तिर: अञ्चन्ति कौटिल्यमिति तिर्यञ्च:। ‘तिर:’ अर्थात् कुटिलता को प्राप्त होते हैं वे तिर्यंच कहलाते हैं।
- जलचर आदि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद
राजवार्तिक/3/39/5/209/30 पञ्चेन्द्रिया: तैर्यग्योनय: पञ्चविधा:–जलचरा:, परिसर्पा:, उरगा:, पक्षिण:, चतुष्पादश्चेति। =पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच पांच प्रकार के होते हैं–जलचर-(मछली आदि), परिसर्प (गोनकुलादि); उरग-सर्प; पक्षी, और चतुष्पद।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/118/181/11 पृथिव्याद्येकेन्द्रियभेदेन शम्बूकयूकोद्दंशकादिविकलेन्द्रियभेदेन जलचरस्थलचरखचरद्विपदचतु:पदादिपञ्चेन्द्रियभेदेन तिर्यञ्चो बहुप्रकारा:। =तिर्यंचगति के जीव पृथिवी आदि एकेन्द्रिय के भेद से; शम्बूक, जूं व मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से; जलचर, स्थलचर, आकाशचर, द्विपद, चतुष्पदादि पञ्चेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं।
- <a name="1.3" id="1.3"></a>गर्भजादि की अपेक्षा तिर्यचों के भेद
का.आ./129-130 पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयासगामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुविहा मगेण जुत्ता अजुत्ता या।129। ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भजजम्मा तहेव संमुच्छा। भोगभुवा गब्भ-भुवा थलयर-णह-गामिणो सण्णी।130।=पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के भी तीन भेद हैं–जलचर, थलचर और नभचर। इन तीनों में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–सैनी और असैनी।129। इन छह प्रकार के तिर्यंचों के भी दो भेद हैं–गर्भज, दूसरा सम्मूर्छिम जन्मवाले...।
- मार्गणा की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद
धवला 1/1,1,26/208/3 तिर्यञ्च: पञ्चविधा:, तिर्यञ्च: पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च:, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिरश्च्य:। पञ्चेन्द्रियापर्याप्ततिर्यञ्च इति। =तिर्यंच पांच प्रकार के होते हैं–सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त-योनिमती, पंचेन्द्रिय-अपर्याप्त-तिर्यंच। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/150 )।
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण
- तिर्यंचों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएं
- तिर्यंच गति में सम्यक्तव का स्वामित्व
षट्खण्डागम/1/1,1,/ सू.156-161/401 तिरिक्ख अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।156। एवं जाव सव्व दीव-समुद्देसु।157। तिरिक्खा असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।158। तिरिक्खा संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि।159। एवं पंचिंदियातिरिक्खा-पज्जत्ता।160। पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठी-संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि।161।=तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं।156। इस प्रकार समस्त द्वीप-समुद्रवर्ती तिर्यंचों में समझना चाहिए।157। तिर्यंच असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।158। तिर्यंच संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।159। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच भी होते हैं।160। योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतगुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।161।
- तिर्यचों में गुणस्थानों का स्वामित्व
षट्खण्डागम 1/1,1/ सू.84-88/325 तिरिक्खा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता।84। सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे-णियमा पज्जत्ता।85। एवं पंचिंदिय-तिरिक्खापज्जत्ता।86। पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिणीसु मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।87। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।88। =तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं अपर्याप्त भी होते हैं।84। तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।85। तिर्यंच सम्बन्धी सामान्य प्ररूपणा के समान पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी होते हैं।86। योनिमती-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।87। योनिमती तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।88।
षट्खण्डागम 1/1,1/ सू.26/207 तिरिक्खा पंचसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।26। =मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पांच गुणस्थानों में तिर्यंच होते हैं।26।
तिलोयपण्णत्ति/5/299-303 तेतीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सव्वकालम्मि। मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छं सण्णीण तं माणं।299। पणपणअज्जाखंडे भरहेरावदखिदिम्मि मिच्छत्तं। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइदीसंति।300। पंचविदेहे सट्ठिसमण्णिदसदअज्जवखंडए तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सयंपहगिरीदो।301। सासणमिस्सविहीणा तिगुणट्ठाणाणि थोवकालम्मि। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसंति।302। सव्वेसु वि भोगभुवे दो गुणठाणाणि थोवकालम्मि। दीसंति चउवियप्पं सव्व मिलिच्छम्मि मिच्छत्तं।303। =संज्ञी जीवों को छोड़ शेष तेतीस प्रकार के भेदों से युक्त तिर्यंच जीवों के सब काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है। संज्ञीजीव के गुणस्थान प्रमाण को कहते हैं।299। भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर पांच-पांच आर्यखण्डों में जघन्यरूप से एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूप से कदाचित् पांच गुणस्थान भी देखे जाते हैं।300। पांच विदेहों के भीतर एक सौ आठ आर्यखण्डों में विद्याधर श्रेणियों में और स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में सासादन एवं मिश्र गुणस्थान को छोड़ तीन गुणस्थान जघन्य रूप से स्तोक काल के लिए होते हैं। उत्कृष्ट रूप से पांच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं।301-302। सर्व भोगभूमियों में दो गुणस्थान और स्तोक काल के लिए चार गुणस्थान देखे जाते हैं। सर्वम्लेच्छखण्डों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।303।
धवला 1/1,1,26/208/6 लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणासंभवात् ...शेषेषु पञ्चापि गुणस्थानानि सन्ति,...तिरश्चीप्वपर्याप्ताद्धायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव सन्ति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात् ।=लब्ध्यपर्याप्तकों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़कर शेष गुणस्थान असम्भव हैं...शेष चार प्रकार के तिर्यंचों में पांचों ही गुणस्थान होते हैं।...तिर्यंचयोनियों के अपर्याप्त काल में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थान वाले ही होते हैं, शेष तीन गुणस्थान वाले नहीं होते हैं। विशेष–देखें सत् ।
- क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिर्यंच नहीं
धवला 8/3,278/363/10 तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो। =तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/329/471/5 क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्देशसंयतो मनुष्य एव तत: कारणात्तत्र तिर्यगायुरुद्योतस्तिर्यग्गतिश्चेति त्रीण्युदये न सन्ति। =क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य ही होता है, इसलिए तिर्यगायु, उद्योत, तिर्यग्गति, पंचम गुणस्थान विषै नाहीं।
- तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
धवला 1/1,1,158/402/9 तिर्यक्षु क्षायिकसम्यग्दृष्टय: संयतासंयता: किमिति न सन्तीति चेन्न, क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां भोगभूमिमन्तरेणोत्पत्तेर भावात् । न च भोगभूमावुत्पन्नानामणुव्रतोपादानं संभवति तत्र तद्विरोधात् ।=प्रश्न–तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, तिर्यंचों में यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं दूसरी जगह नहीं। परन्तु भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रत की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वहां पर अणुव्रत के होने पर आगम से विरोध आता है। ( धवला 1/1,1,85/327/1 ) ( धवला 2/1,1/482/2 )।
- तिर्यंचिनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
सर्वार्थसिद्धि/1/7/23/3 तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। कृत इत्युक्ते मनुष्यकर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति। क्षपणाप्रारम्भकालात्पूर्बं तिर्यक्षु, बद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगभूमितिर्यक्पुरुषेष्वेवोत्पद्यते न तिर्यक्स्त्रीषु द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात् । =तिर्यंचनियों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है ? प्रश्न‒क्यों ? उत्तर‒कर्मभूमिज मनुष्य ही दर्शन मोह की क्षपणा प्रारम्भ करता है। क्षपणा काल के प्रारम्भ से पूर्व यदि कोई तिर्यंचायु बद्धायुष्क हो तो वह उत्कृष्ट भोगभूमि के पुरुषवेदी तिर्यंचों में ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यंचों में नहीं। क्योंकि द्रव्य स्त्री वेदी तिर्यंचों के क्षायिक सम्यक्त्व की असम्भावना है।
धवला 1/1,1,161/403/5 तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात्तत्र दर्शनमोहनीयस्य क्षपणाभावाच्च। =योनिमति पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते। तथा उनमें दर्शन मोहनीय की क्षपणा का अभाव है।
- अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं
धवला 1/1,1,26/209/5 भवतु नामसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतानां तत्रासत्त्वं पर्याप्ताद्धायामेवेति नियमोपलम्भात् । कथं पुनरसंयतसम्यग्दृष्टीनामसत्त्वमिति न, तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात् ।=प्रश्न‒तिर्यंचनियों के अपर्याप्त काल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थानवालों का अभाव रहा आवे, क्योंकि ये दो गुणस्थान पर्याप्त काल में ही पाये जाते हैं, ऐसा नियम मिलता है। परन्तु उनके अपर्याप्त काल में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का अभाव कैसे माना जा सकता है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचनियों में असंयत सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है।
- अपर्याप्त तिर्यंच में सम्यक्त्व कैसे सम्भव है
धवला 1/1,1,84/325/4 भवतु नाम मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां तिर्यक्षु पर्याप्तापर्याप्तद्वयो: सत्त्वं तयोस्तत्रोत्पत्यविरोधात् । सम्यग्दृष्टयस्तु पुनर्नोत्पद्यन्ते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति। न विरोध:, अस्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टि: सेविततीर्थकर: क्षपितसप्तप्रकृति: कथं तिर्यक्षु दु:खभूयस्सूत्पद्यते इति चेन्न, तिरञ्चां नारकेभ्यो दु:खाधिक्याभावात् । नारकेष्वपि सम्यग्दृष्टयो नोत्पत्स्यन्त इति चेन्न, तेषां तत्रोत्पत्तिप्रतिपादकार्षोपलम्भात् । किमिति ते तत्रोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यग्दर्शनोपादानात् प्राङ्मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यङ्नरकायुष्कत्वात् । सम्यग्दर्शनेन तत् किमिति न छिद्यते। इति चेत् किमिति तन्न छिद्यते। अपि तु न तस्य निर्मूलच्छेद:। तदपि कुत:। स्वाभाव्यात् ।=प्रश्न‒मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों की तिर्यंचों सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में भले ही सत्ता रही आवे, क्योंकि इन दो गुणस्थानों की तिर्यंच सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव तो तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि तिर्यंचों की अपर्याप्त पर्याय के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है। उत्तर‒विरोध नहीं हैं, फिर भी यदि विरोध माना जावे तो ऊपर का सूत्र अप्रमाण हो जायेगा। प्रश्न‒जिसने तीर्थंकर की सेवा की है और जिसने मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव दु:ख बहुल तिर्यंचों में कैसे उत्पन्न होता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचों के नारकियों की अपेक्षा अधिक दुख नहीं पाये जाते हैं। प्रश्न‒तो फिर नारकियों में भी सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होंगे ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों की नारकियों में उत्पत्ति का प्रतिपादन करने वाला आगम प्रमाण पाया जाता है। प्रश्न‒सम्यग्दृष्टि जीव नारकियों में क्यों उत्पन्न होते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि जिन्होंने सम्यग्दर्शन को ग्रहण करने के पहले मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु और नरकायु का बन्ध कर लिया है उनकी सम्यग्दर्शन के साथ वहां पर उत्पत्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। प्रश्न‒सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से उस आयु का छेद क्यों नहीं हो जाता है ? उत्तर‒उसका छेद क्यों नहीं होता है? अवश्य होता है। किन्तु उसका समूल नाश नहीं होता है। प्रश्न‒समूल नाश क्यों नहीं होता है? उत्तर‒आगे के भव के बांधे हुए आयुकर्म का समूल नाश नहीं होता है, इस प्रकार का स्वभाव ही है।
धवला 2/1,1/481/1 मणुस्सा पुव्वबद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण...खइयसम्माइट्ठी होदूण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जंति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिक्खेसुप्पज्जमाणं पेक्खिऊण असंजदसम्माइट्ठि-अप्पज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लब्भदि। तत्थ उप्पज्जमाण-कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि। =(इन क्षायिक व क्षायोपशमिक) दो सम्यक्त्वों के (वहां) होने का कारण यह है कि जिन मनुष्यों ने सम्यग्दर्शन होने के पहले तिर्यंच आयु को बांध लिया है वे पीछे सम्यक्त्व को ग्रहणकर...क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा से असंयत सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्त काल में क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्हीं भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों के कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है।
- अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं
धवला 1/1,1,85/326/5 मनुष्या: मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यगायुष: पश्चात्सम्यग्दर्शनेन सहात्ताप्रत्याख्याना: क्षपितसप्तप्रकृतयस्तिर्यक्षु किन्नोत्पद्यन्ते। इति चेत् किंचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तेषु सत्त्वापत्ति:। न, देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसंबद्धायुषोपलक्षितानामणुव्रतोपादानबुद्धयनुत्पत्ते:। =प्रश्न‒जिन्होंने मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु का बन्ध करने के पश्चात् देशसंयम को ग्रहण कर लिया है और मोह की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसे मनुष्य तिर्यंचों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? यदि होते हैं तो इससे तिर्यंच अपर्याप्तों में देशसंयम के प्राप्त होने की क्या आपत्ति आती है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, देवगति को छोड़कर शेष तीन गति सम्बन्धी आयुबन्ध से युक्त जीवों के अणुव्रत को ग्रहण करने की बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है।
- तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते
धवला 1/1,1,156/401/8 संन्यस्तशरीरत्वात्त्यक्ताहाराणां तिरश्चां किमिति संयमो न भवेदिति चेन्न, अन्तरङ्गाया: सकलनिवृत्तेरभावात् । किमिति तदभावश्चेज्जातिविशेषात् । =प्रश्न‒शरीर से संन्यास ग्रहण कर लेने के कारण जिन्होंने आहार का त्याग कर दिया है ऐसे तिर्यंचों के संयम क्यों नहीं होता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, आभ्यन्तर सकल निवृत्ति का अभाव है। प्रश्न‒उसके आभ्यन्तर सकल निवृत्ति का अभाव क्यों है ? उत्तर‒जिस जाति में वे उत्पन्न हुए हैं उसमें संयम नहीं होता यह नियम है, इसलिए उनके संयम नहीं पाया जाता है।
- सर्व द्वीपसमुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे सम्भव है
धवला 1/1,1,157/402/1 स्वयंप्रभादारान्मानुषोत्तरात्परतो भोगभूमिसमानत्वान्न तत्र देशव्रतिन: सन्ति तत् एतत्सूत्रं न घटत इति न, वैरसंबन्धेन देवैर्दानवैर्वोत्क्षिप्य क्षिप्तानां सर्वत्र सत्त्वाविरोधात् । =प्रश्न‒स्वयंभूरमण द्वीपवर्ती स्वयंप्रभ पर्वत के इस ओर और मानुषोत्तर पर्वत के उस ओर असंख्यात द्वीपों में भोगभूमि के समान रचना होने पर वहां पर देशव्रती नहीं पाये जाते हैं, इसलिए यह सूत्र घटित नहीं होता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, वैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यंचों का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता, इसलिए वहां पर तिर्यंचों के पांचों गुणस्थान बन जाते हैं। ( धवला 4/1,4,8/169/7 ); ( धवला 6/1,9,9,20/426/10 )।
- ढाई द्वीप से बाहर क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नहीं
धवला 6/1,9-8,11/244/2 अढाइज्जा...दीवेसु दंसणमोहणीयकम्मस्स खवणमाढवेदि त्ति, णो सेसदीवेसु। कुदो। सेसदीवट्ठिदजीवाणं तक्खवणसत्तीए अभावादो। लवण-कालोदइसण्णिदेसु दोसु समुद्देसु दंसणमोहणीयं कम्मं खवेंति, णो सेससमुद्देसु, तत्थ सहकारिकारणाभावा।...‘जम्हि जिणा तित्थयत’ त्ति विसेसणेण पडिसिद्धत्तादो।=अढाई द्वीपों में ही दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण को आरम्भ करता है, शेष द्वीपों में नहीं। इसका कारण यह है कि शेष द्वीपों में स्थित जीवों के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षपण की शक्ति का अभाव होता है। लवण और कालोदक संज्ञावाले दो समुद्रों में जीव दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण करते हैं, शेष समुद्रों में नहीं, क्योंकि उनमें दर्शनमोह के क्षपण करने के सहकारी कारणों का अभाव है।...‘जहां जिन तीर्थंकर सम्भव हैं’ इस विशेषण के द्वारा उसका प्रतिषेध कर दिया गया है।
- कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
धवला 6/1,9-8,11/245/1 कम्मभूमीसु टि्ठद-देव-मणुसतिरिक्खाणं सव्वेसिं पि गहणं किण्ण पावेदि त्ति भणिदे ण पावेदि, कम्मभूमीसुप्पण्णमणुस्साणमुवयारेण कम्मभूमीववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं गहणं पावेदि, तेसिं तत्थ वि उप्पत्तिसंभवादो। ण, जेसिं तत्थेव उप्पत्तो, ण अण्णत्थ संभवो अत्थि, तेसिं चेव मणुस्साणं पण्णारसकम्मभूमिववएसो, ण तिरिक्खाणं सयंपहपव्वदपरभागे उप्पज्जणेण सव्वहिचाराणं। =प्रश्न‒(सूत्र में तो) ‘पन्द्रह ‘कर्मभूमियों में’ ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियों में स्थित, देव मनुष्य और तिर्यंच, इन सभी का ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है? उत्तर‒नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए मुनष्यों की उपचार से ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा दी गयी है। प्रश्न‒यदि कर्मभूमि में उत्पन्न हुए जीवों को ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा है, तो भी तिर्यंचों का ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि, उनकी भी कर्मभूमि में उत्पत्ति सम्भव है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, जिनकी वहांपर ही उत्पत्ति होती है, और अन्यत्र उत्पत्ति सम्भव नहीं है, उनही मनुष्यों के पन्द्रह कर्मभूमियों का व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में उत्पन्न होने से व्यभिचार को प्राप्त तिर्यंचों के।
- तिर्यंच गति में सम्यक्तव का स्वामित्व
- तिर्यंच लोक निर्देश
- <a name="3.1" id="3.1"></a>तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/4/19/250/12 बाहल्येन तत्प्रमाणस्तिर्यक्प्रसृतस्तिर्यग्लोक:। =मेरु पर्वत की जितनी ऊंचाई है, उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्लोक है।
तिलोयपण्णत्ति/5/6-7 मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खं जोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिट्ठेदि तिरियतसलोओ।6। पणुवीसकोडाकोडीपमाण उद्धारपल्लरोमसमा। दिओवहीणसंखा तस्सद्धं दीवजलणिही कमसो।7।=मंदर पर्वत के मूल से एक लाख योजन बाहल्य रूप राजुप्रतर अर्थात् एक राजू लम्बे चौड़े क्षेत्र में तिर्यक्त्रस लोक स्थित है।6। पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों के रोमों के प्रमाण द्वीप व समुद्र दोनों की संख्या है। इसकी आधी क्रमश: द्वीपों की और आधी समुद्रों की संख्या है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा/543/945/18)।
- तिर्यग्लोक के नाम का सार्थक्य
राजवार्तिक/3/7/ उत्थानिका/169/9 कुत: पुनरियं तिर्यग्लोकसंज्ञा प्रवृत्तेति। उच्यते‒यतोऽसंख्येया: स्वयंभूरमणपर्यन्तास्तिर्यक्प्रचयविशेषणावस्थिता द्वीपसमुद्रास्तत: तिर्यग्लोक इति। =प्रश्न‒इसको तिर्यक्लोक क्यों कहते हैं? उत्तर‒चूंकि स्वयम्भूरमण पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक्-समभूमि पर तिरछे व्यवस्थित हैं अत: इसको तिर्यक् लोक कहते हैं।
- <a name="3.3" id="3.3"></a>तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद
धवला 3/1,2,4/34/4 का विशेषार्थ-कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका पर जाकर रज्जू समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रों की चौड़ाई से रुके हुए क्षेत्र से संख्यात गुणे योजन जाकर रज्जू की समाप्ति होती है। स्वयं वीरसेन स्वामी ने इस मत को अधिक महत्त्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियों के प्रमाण को लाने के लिए 256 अंगुल के वर्ग प्रमाण जो भागाहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुद्र से संख्यातगुणे योजन जाकर मध्यलोक की समाप्ति होती है।
धवला 4/1,3,3/41/8 तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे तिरियलोगो होदि त्ति के वि आइरिया भणंति। तं ण घडदे। =तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में तिर्यक् लोक है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु उनका इस प्रकार कहना घटित नहीं होता।
धवला 11/4,2,5,8/17/4 सयंभूरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लतडो णाम तदवयवभूदबाहिरवेइयाए, तत्थ महामच्छो अच्छिदो त्ति के वि आइरिया भणंति। तण्ण घडदे, ‘कायलेस्सियाए लग्गो‘ त्ति उवरि भण्णमाणसुत्तेण सह विरोहादो। ण च सयंभूरमणसमुद्दबाहिरवेइयाए संबद्धा तिण्णि वि वादवलया, तिरियलोयविक्खंभस्स एगरज्जुपमाणादोऊणत्तप्पसंगादो। =स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट का अर्थ उसकी अंगभूत बाह्य वेदिका है, वहां स्थित महामत्स्य ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर ...तनुवातवलय से संलग्न हुआ’ इस सूत्र के साथ विरोध आता है। कारण कि स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से तीनों ही वातवलय सम्बद्ध नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर तिर्यग्लोक सम्बन्धी विस्तार प्रमाण के एक राजू से हीन होने का प्रसंग आता है।
- विकलेन्द्रिय जीवों का अवस्थान
हरिवंशपुराण/5/633 मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रिया:। अन्त्यद्वीपर्द्धत: सन्ति परस्तात्ते यथा परे।633। = इस ओर विकलेन्द्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस ओर स्वयम्भूरमण द्वीप के अर्धभाग से लेकर अन्त तक पाये जाते हैं।633।
धवला 4/1,3,2/33/2 भोगभूमीसु पुण विगलिंदिया णत्थि। पंचिंदिया वि तत्थ सुट्ठु थोवा, सुहकम्माइ जीवाणं बहुणामसंभवादो। =भोगभूमि में तो विकलत्रय जीव नहीं होते हैं, और वहां पर पंचेन्द्रिय जीव भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि शुभकर्म की अधिकता वाले बहुत जीवों का होना असम्भव है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/142 वि-ति चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु। चरिमे दीवे अद्धो चरम-समुद्दे वि सव्वेसु।142। =दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं। तथा अन्त के आधे द्वीप में और अन्त के सारे समुद्र में होते हैं।142।
- <a name="3.5" id="3.5"></a>पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का अवस्थान
धवला 7/2,7,19/379/3 अधवा सव्वेसु-दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति। कुदो। पुव्ववइरियदेवसंबंधेण कम्मभूमिपडिभागुप्पण्णपंचिंदियतिरिक्खाणं एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढ ओरालिय देहाणं सव्वदीवसमुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति। =अथवा सभी द्वीप समुद्रों में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के सम्बन्ध से एक बन्धन में बद्ध छह जीवनिकायों से व्याप्त औदारिक शरीर को धारण करने वाले कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न हुए पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का सर्व समुद्रों में अवस्थान देखा जाता है।
- जलचर जीवों का अवस्थान
मू.आ./1081 लवणु कालसमुद्दे सयंभूरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा।1081। =लवणसमुद्र और कालसमुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्र में तो जलचर आदि जीव रहते हैं, और शेष समुद्रों में मच्छ-मगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/31 ); ( राजवार्तिक/3/32/8/194/18 ); ( हरिवंशपुराण/5/630 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/91 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 144 )
तिलोयपण्णत्ति/4/1773 ...। भोगवणीण णदीओ सरपहुदी जलयरविहीणा। =भोगभूमियों की नदियां, तालाब आदिक जलचर जीवों से रहित हैं।1773।
धवला 6/1,9-9,20/426/10 णत्थि मच्छा वा मगरा वा त्ति जेण तसजीवपडिसेहो भोगभूमिपडिभागिएसु समुद्देसु कदो, तेण तत्थ पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती ण जुज्जुत्ति त्ति। ण एस दोसो, पुव्ववइरियदेवेहि खित्तपंचिंदियतिरिक्खाणं तत्थ संभवादो। =प्रश्न‒चूंकि ‘भोगभूमि के प्रतिभागी समुद्रों में मत्स्य या मगर नहीं है’ ऐसा वहां त्रस जीवों का प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रों में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है? उत्तर‒यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के द्वारा उन समुद्रों में डाले गये पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की सम्भावना है।
त्रिलोकसार/320 जलयरजीवा लवणे कालेयंतिमसयंभुरमणे य। कम्ममही पडिबद्धे ण हि सेसे जलयरा जीवा।320। =जलचर जीव लवण समुद्रविषै बहुरि कालोदक विषैं बहुरि अन्त का स्वयम्भूरमण विषैं पाइये हैं। जातै ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी हैं। बहुरि अवशेष सर्व समुद्र भोगभूमि सम्बन्धी हैं। भोगभूमि विषैं जलचर जीवों का अभाव है। तातै इन तीन बिना अन्य समुद्र विषै जलचर जीव नाहीं। - वैरी जीवों के कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं
धवला 4/1,4,59/243/8 सेसपदेहि वइरिसंबधेण विगलिंदिया सव्वत्थ तिरियपदरब्भंतरे होंति त्ति। =वैरी जीवों के सम्बन्ध से विकलेन्द्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक्प्रतर के भीतर ही होते हैं।
धवला 7/2,7,62/397/4 अधवा पुव्ववेरियदेवपओगेण भोगभूमि पडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिक्खकलेवरेसु तस अपज्जत्ताणमुप्पत्ती अत्थि त्ति भणंताणमहिप्पाएण। =[विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों का अवस्थान क्षेत्र स्वयंप्रभपर्वत के परभाग में ही है क्योंकि भोगभूमि प्रतिभाग में उनकी उत्पत्ति का अभाव है] अथवा पूर्व वैरी के प्रयोग से भोगभूमि प्रतिभागरूप द्वीप समुद्रों में पड़े हुए तिर्यंच शरीरों में त्रस अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है ऐसा कहने वाले आचार्यों के अभिप्राय से...।
- <a name="3.1" id="3.1"></a>तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश