द्वीप: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 3: | Line 3: | ||
<li><span class="HindiText"><strong>लक्षण</strong><br>मध्य लोक में स्थित तथा समुद्रों से वेष्टित जम्बू द्वीपादि भूखण्डों को द्वीप कहते हैं। एक के पश्चात् एक के क्रम से ये असंख्यात हैं। इनके अतिरिक्त सागरों में स्थित छोटे-छोटे भूखण्ड अन्तर्द्वीप कहलाते हैं, जिनमें कुभोगभूमि की रचना है। लवण सागर में ये 48 हैं। अन्य सागरों में ये नहीं हैं।<br /> | <li><span class="HindiText"><strong>लक्षण</strong><br>मध्य लोक में स्थित तथा समुद्रों से वेष्टित जम्बू द्वीपादि भूखण्डों को द्वीप कहते हैं। एक के पश्चात् एक के क्रम से ये असंख्यात हैं। इनके अतिरिक्त सागरों में स्थित छोटे-छोटे भूखण्ड अन्तर्द्वीप कहलाते हैं, जिनमें कुभोगभूमि की रचना है। लवण सागर में ये 48 हैं। अन्य सागरों में ये नहीं हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> द्वीपों में कालवर्तन आदि सम्बन्धी | <li><span class="HindiText"><strong> द्वीपों में कालवर्तन आदि सम्बन्धी विशेषताएँ</strong> <br>असंख्यात द्वीपों में से मध्य के अढ़ाई द्वीपों में भरत ऐरावत आदि क्षेत्र व कुलाचल पर्वत आदि हैं। तहाँ सभी भरत व ऐरावत क्षेत्रों में षट्काल वर्तन होता है (देखें [[ भरतक्षेत्र ]])। हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि; हरि व रम्यक क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि तथा विदेह क्षेत्र के मध्य उत्तर व देवकुरू में उत्तम भोगभूमियों की रचना है। विदेह के 32,33 क्षेत्रों में तथा सर्व विद्याधर श्रेणियों में दुषमासुषमा नामक एक ही काल होता है। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में एक-एक आर्य खण्ड और पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। तहाँ सर्व ही आर्य खण्डों में तो षट्कालवर्तन है, परन्तु सभी म्लेच्छखण्डों में केवल एक दुषमासुषमाकाल रहता है। (देखें [[ वह वह नाम ]]) सभी अन्तर्द्वीपों में कुभोगभूमि अर्थात् जघन्य भोगभूमि की रचना है। (देखें [[ भूमि#5 | भूमि - 5]]) अढ़ाई द्वीपों से आगे नागेन्द्र पर्वत तक के असंख्यात द्वीप में एकमात्र जघन्य भोगभूमि की रचना है तथा नागेन्द्र पर्वत से आगे अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीप में एकमात्र दु:खमा काल अवस्थित रहता है (देखें [[ भूमि#5 | भूमि - 5]])।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> |
Revision as of 14:23, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- लक्षण
मध्य लोक में स्थित तथा समुद्रों से वेष्टित जम्बू द्वीपादि भूखण्डों को द्वीप कहते हैं। एक के पश्चात् एक के क्रम से ये असंख्यात हैं। इनके अतिरिक्त सागरों में स्थित छोटे-छोटे भूखण्ड अन्तर्द्वीप कहलाते हैं, जिनमें कुभोगभूमि की रचना है। लवण सागर में ये 48 हैं। अन्य सागरों में ये नहीं हैं।
- द्वीपों में कालवर्तन आदि सम्बन्धी विशेषताएँ
असंख्यात द्वीपों में से मध्य के अढ़ाई द्वीपों में भरत ऐरावत आदि क्षेत्र व कुलाचल पर्वत आदि हैं। तहाँ सभी भरत व ऐरावत क्षेत्रों में षट्काल वर्तन होता है (देखें भरतक्षेत्र )। हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि; हरि व रम्यक क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि तथा विदेह क्षेत्र के मध्य उत्तर व देवकुरू में उत्तम भोगभूमियों की रचना है। विदेह के 32,33 क्षेत्रों में तथा सर्व विद्याधर श्रेणियों में दुषमासुषमा नामक एक ही काल होता है। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में एक-एक आर्य खण्ड और पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। तहाँ सर्व ही आर्य खण्डों में तो षट्कालवर्तन है, परन्तु सभी म्लेच्छखण्डों में केवल एक दुषमासुषमाकाल रहता है। (देखें वह वह नाम ) सभी अन्तर्द्वीपों में कुभोगभूमि अर्थात् जघन्य भोगभूमि की रचना है। (देखें भूमि - 5) अढ़ाई द्वीपों से आगे नागेन्द्र पर्वत तक के असंख्यात द्वीप में एकमात्र जघन्य भोगभूमि की रचना है तथा नागेन्द्र पर्वत से आगे अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीप में एकमात्र दु:खमा काल अवस्थित रहता है (देखें भूमि - 5)।
- द्वीपों का अवस्थान व विस्तार आदि–देखें लोक ।
पुराणकोष से
(1) कुरुवंशी एक राजा । हरिवंशपुराण 45.30
(2) जल का मध्यमवर्ती भूखण्ड । मध्यलोक में अनन्त द्वीप हैं । इनमें आरम्भिक द्वीप सोलह हैं । इनके नाम हैं― जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करवर, वारुणीवर, क्षीरवर, धृतवर, इक्षुवर, नन्दीश्वर, अरुणीवर, अरुणाभास, कुण्डलवर, शंखवर, रुचकवर, भुजंगवर, कुशवर और क्रौंचवर । इनमें जम्बूद्वीप तो लवणसमुद्र से घिरा हुआ है और शेष द्वीप उन द्वीपों के नाम के सागरों से घिरे हुए है । इन द्वीप सागरों के आगे असंख्य द्वीप हैं । पश्चात् ये सोलह द्वीप हैं― -मन:शिल, हरिताल, सिन्दुर, श्यामक, अंजन, हिंगुलक, रूपवर, सुवर्णवर, वज्रकर, वैडूर्यवर, नागवर, भूतवर, यक्षविर, देववर, इन्दुवर और स्वयंभूरमण । ये द्वीप भी अपने-अपने नाम के सागरों से वेष्टित है । हरिवंशपुराण 5.613-626