परिग्रह: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">परिग्रह के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">परिग्रह के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/17 <span class="SanskritText">मूर्च्छा परिग्रहः। 17। </span>= <span class="HindiText">मूर्च्छा परिग्रह है। 7। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/4/21/252/5 <span class="SanskritText">लोभकषायोदयाद्विषयेषु सङ्गः परिग्रहः। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/6/15/333/10 <span class="SanskritText">ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/10 <span class="SanskritText">रागादयः पुनः कर्मोदयतन्त्रा इति अनात्मस्वभावत्वाद्धेयाः। ततस्तेषु सङ्कल्पः परिग्रह इति युज्यते।</span> = | |||
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<li> <span class="HindiText">लोभ कषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं। ( | <li> <span class="HindiText">लोभ कषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं। ( राजवार्तिक/4/21/3/236/7 ); </span></li> | ||
<li class="HindiText">‘यह वस्तु मेरी है’, इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। ( | <li class="HindiText">‘यह वस्तु मेरी है’, इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। ( सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/6 ); ( राजवार्तिक/6/15/3/525/27 ) ( तत्त्वसार/4/77 ); ( सागार धर्मामृत/4/59 )। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> रागादि तो कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वह आत्मा का स्वभाव न होने से हेय है। इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है। यह बात बन जाती है। ( | <li><span class="HindiText"> रागादि तो कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वह आत्मा का स्वभाव न होने से हेय है। इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है। यह बात बन जाती है। ( राजवार्तिक/7/17/5/545/18 )। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/6/15/3/525/27 <span class="SanskritText"> ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते। </span>= <span class="HindiText">‘यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ’ इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है। </span><br /> | |||
धवला 12/4,2,8,6/282/9 <span class="SanskritText">परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थग्रहणहेतुरत्र परिणामः। </span>=<span class="SanskritText"> ‘परिगृह्यते इति परिग्रहः’ </span><span class="HindiText">अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है। इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है, तथा ‘परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः’ जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, इस निरुक्ति के अनुसार यहाँ बाह्य-पदार्थ के ग्रहण में कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है। </span><br /> | |||
समयसार / आत्मख्याति/210 <span class="SanskritText">इच्छा परिग्रहः। </span>- <span class="HindiText">इच्छा है, वही परिग्रह है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">निज गुणों का ग्रहण परिग्रह नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">निज गुणों का ग्रहण परिग्रह नहीं</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/6 <span class="SanskritText"> यदि ममेदमिति संकल्पः परिग्रहः; संज्ञानाद्यपि परिग्रहःप्राप्नोति तदपि हि ममेदमिति संकल्प्यते रागादिपरिणामवत्। नैष दोषः; ‘प्रमत्तयोगात्’ इत्यनुवर्तते। ततो ज्ञानदर्शनचारित्रवतोऽप्रमत्तस्य मोहाभावन्न मूर्च्छाऽस्तीति निष्परिग्रहत्वं सिद्धं। किंच तेषां ज्ञानादीनामहेयत्वादात्मस्वभावत्वादपरिग्रहत्वम्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं, क्योंकि रागादि परिणामों के समान ज्ञानादिक में भी ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का संकल्प होता है? <strong>उत्तर -</strong> यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि ‘प्रमत्तयोगात्’ इस पद की अनुवृत्ति होती है, इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रवाला होकर प्रमाद रहित है, उसके मोह का अभाव होने से मूर्च्छा नहीं है, अतएव परिग्रह रहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्मा के स्वभाव हैं इसलिए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता। ( राजवार्तिक/7/17/5/545/14 )। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>वातादि विकाररूप मूर्च्छा परिग्रह नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>वातादि विकाररूप मूर्च्छा परिग्रह नहीं</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/1 <span class="SanskritText">लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मूर्च्छेति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति। सत्यमेवमेतत्। मूर्च्छिरयं मोह सामान्ये वर्तते। ‘‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते’’ इत्युक्ते विशेष व्यवस्थितः परिगृह्यते। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> लोक में वातादि प्रकोप विशेष का नाम मूर्च्छा है ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूर्च्छा का ग्रहण क्यों नहीं किया जाता? <strong>उत्तर -</strong> यह कहना सत्य है, तथापि मूर्च्छि धातु का सामान्य मोह अर्थ है, और सामान्य शब्द तद्गत विशेषों में ही रहते हैं, ऐसा मान लेने पर यहाँ मूर्च्छा का विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रह का प्रकरण है। ( राजवार्तिक/7/17/2/545/3 )। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>परिग्रह की अत्यन्त निन्दा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>परिग्रह की अत्यन्त निन्दा</strong> </span><br /> | ||
सूत्रपाहुड़/19 <span class="PrakritGatha">जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स। सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो। 19।</span> =<span class="HindiText"> जिसके मत में लिंगधारी के परिग्रह का अल्प वा बहुत ग्रहणपना कहा है सो मत तथा उस मत का श्रद्धावान् पुरुष निन्दा योग्य है, जातै जिनमत विषैं परिग्रहण रहित है सो निरागार है निर्दोष है। </span><br /> | |||
मोक्षपाहुड़/ सू./79<span class="PrakritGatha"> जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि। 79।</span> = <span class="HindiText">जो पाँच प्रकार के (अण्डज, कर्पासज, वल्कल, रोमज, चर्मज) वस्त्र में आसक्त है, माँगने का जिनका स्वभाव है, बहुरि अधःकर्म अर्थात् पापकर्म विषै रत है, और सदोष आहार करते हैं ते मोक्षमार्गतैं च्युत हैं। 79। </span><br /> | |||
लिं.पा./मू./5 <span class="PrakritGatha">सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण। सो पावमोहिदमदो तिरिक्खजोणी ण सो समणो। 5।</span> = <span class="HindiText">जो निर्ग्रन्थ लिंगधारी परिग्रह कूं संग्रह करै है, अथवा ताका चिन्तवन करे है, बहुत प्रयत्न से उसकी रक्षा करै है, वह मुनि पाप से मोहित हुई है बुद्धि जिसकी ऐसा पशु है श्रमण नहीं। 5। ( | लिं.पा./मू./5 <span class="PrakritGatha">सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण। सो पावमोहिदमदो तिरिक्खजोणी ण सो समणो। 5।</span> = <span class="HindiText">जो निर्ग्रन्थ लिंगधारी परिग्रह कूं संग्रह करै है, अथवा ताका चिन्तवन करे है, बहुत प्रयत्न से उसकी रक्षा करै है, वह मुनि पाप से मोहित हुई है बुद्धि जिसकी ऐसा पशु है श्रमण नहीं। 5। ( भगवती आराधना/1126-1173 )। </span><br /> | ||
रयणसार/ मू./109 <span class="PrakritText">धणधण्ण पडिग्गहणं समणाणं दूसणं होइ। 109।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है, वह मुनि समस्त मुनियों को दूषित करनेवाला होता है। </span><br /> | |||
मू.आ./918 <span class="PrakritGatha">मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादो य बाहिरं जोगं। बाहिरजोगो सव्वे मूलविहूणस्स कि करिस्संति। 918।</span> =<span class="HindiText"> जो साधु अहिंसादि मूलगुणों को छेद वृक्षमूलादि योगों को ग्रहण करता है, सो मूलगुण रहित है। उस साधु के सब बाहर के योग क्या कर सकते हैं, उनसे कर्मों का क्षय नहीं हो सकता। 918। </span><br /> | मू.आ./918 <span class="PrakritGatha">मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादो य बाहिरं जोगं। बाहिरजोगो सव्वे मूलविहूणस्स कि करिस्संति। 918।</span> =<span class="HindiText"> जो साधु अहिंसादि मूलगुणों को छेद वृक्षमूलादि योगों को ग्रहण करता है, सो मूलगुण रहित है। उस साधु के सब बाहर के योग क्या कर सकते हैं, उनसे कर्मों का क्षय नहीं हो सकता। 918। </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/11 <span class="SanskritText"> तन्मूलाः सर्वे दोषाः संरक्षणादयः संजायन्ते। तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमनृतं जल्पति। चौय वा आचरति मैथुने च कर्मणि प्रयतते। तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकाराः।</span> =<span class="HindiText"> सब दोष परिग्रह मूलक ही होते हैं। ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के संकल्प होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं। और इसमें हिंसा अवश्यम्भाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में रत होता है। नरकादिक में जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं। </span><br /> | |||
परमात्मप्रकाश/ मू./2/88-90<span class="PrakritGatha"> चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिं तूसइ मूढु णिभंतु। एयहिं लज्जइ णाणियउ बंधहं हेउ मुणंतु। 88। चट्टहिं पट्टहिं कुंडियहिं चेल्ला-चेल्लियएहिं। मोहु जणेविणु मुणिवरहं उप्पहि पाडिय तेहिं। 89। केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लंचिबि छारेण। सयल वि संग ण परिहरिय जिणवरलिंगधरेण। 90। </span>=<span class="HindiText"> अज्ञानी जन चेला चेली पुस्तकादिक से हर्षित होता है, इसमें कुछ सन्देह नहीं है, और ज्ञानीजन इन बाह्य पदार्थों से शरमाता है, क्योंकि इन सबों को बन्ध का कारण जानता है। 88। पीछी, कमण्डलु, पुस्तक और मुनि-श्रावक रूप चेला, अर्जिका, श्राविका इत्यादि चेली - ये संघ मुनिवरों को मोह उत्पन्न कराके वे उन्मार्ग में डाल देते हैं। 89। जिस किसी ने जिनवर का भेष धारण करके भस्म से सिर के केश लौंच किये हैं, लेकिन सब परिग्रह नहीं छोड़े, उसने अपनी आत्मा को ठग लिया। 90। </span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/213, 219 <span class="SanskritText">सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरञ्जकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदायतनानि तदभावादेवाच्छिन्नश्रामण्यम्। उपधेः... छेदत्वमैकान्तिकमेव।</span> =<span class="HindiText"> वास्तव में सर्व ही परद्रव्य प्रतिबन्धक उपयोग के उपरंजक होने से निरुपराग उपयोग रूप श्रामण्य के छेद के आयतन हैं; उनके अभाव से ही अच्छिन्न श्रामण्य होता है। 213। उपधि में एकान्त से सर्वथा श्रामण्य का छेद ही है। (और छेद हिंसा है)। </span><br /> | |||
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/119 <span class="SanskritGatha"> हिंसापर्य्यात्वात्सिद्धा हिंसान्तरङ्गसङ्गेषु। बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूर्च्छेव हिंसात्वम्। 119।</span> =<span class="HindiText"> हिंसा के पर्याय रूप होने के कारण अन्तरंग परिग्रह में हिंसा स्वयं सिद्ध है, और बहिरंग परिग्रह में ममत्व परिणाम ही हिंसा भाव को निश्चय से प्राप्त होते हैं। 119। </span><br /> | |||
ज्ञानार्णव/16/12/178 <span class="SanskritGatha">संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाशुभम्। तेन श्वाभ्री गतिसतस्यां दुःखं वाचामगोचरम्। 12। </span>= <span class="HindiText">परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप, और पाप से नरकगति होती है। उस नरकगति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है। 12। </span><br /> | |||
पं.विं./1/53 <span class="SanskritText">दुर्ध्यानार्थमवद्यकारणमहो निर्ग्रन्थताहानये, शय्याहेतु तृणाद्यपि प्रशमिनां लज्जाकरं स्वीकृतम्। यत्तत्किं न गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं सांप्रतं, निर्ग्रन्थेष्वपि चेत्तदस्ति नितरां प्रायः प्रविष्टः कलिः। 53।</span> =<span class="HindiText"> जब कि शय्या के निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण (प्याल) आदि भी मुनियों के लिए आर्त-रौद्र स्वरूप दुर्ध्यान एवं पाप के कारण होकर उनकी निर्ग्रन्थता को नष्ट करते हैं, तब फिर वे गृहस्थ के योग्य अन्य सुवर्णादि क्या उस निर्ग्रन्थता के घातक न होंगे? अवश्य होंगे। फिर यदि वर्तमान में निर्ग्रन्थ मुनि सुवर्णादि रखता है तो समझना चाहिए कि कलिकाल का प्रवेश हो चुका है। 53। <br /> | पं.विं./1/53 <span class="SanskritText">दुर्ध्यानार्थमवद्यकारणमहो निर्ग्रन्थताहानये, शय्याहेतु तृणाद्यपि प्रशमिनां लज्जाकरं स्वीकृतम्। यत्तत्किं न गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं सांप्रतं, निर्ग्रन्थेष्वपि चेत्तदस्ति नितरां प्रायः प्रविष्टः कलिः। 53।</span> =<span class="HindiText"> जब कि शय्या के निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण (प्याल) आदि भी मुनियों के लिए आर्त-रौद्र स्वरूप दुर्ध्यान एवं पाप के कारण होकर उनकी निर्ग्रन्थता को नष्ट करते हैं, तब फिर वे गृहस्थ के योग्य अन्य सुवर्णादि क्या उस निर्ग्रन्थता के घातक न होंगे? अवश्य होंगे। फिर यदि वर्तमान में निर्ग्रन्थ मुनि सुवर्णादि रखता है तो समझना चाहिए कि कलिकाल का प्रवेश हो चुका है। 53। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong>साधु के ग्रहण योग्य परिग्रह</strong></span><strong><br></strong> | <li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong>साधु के ग्रहण योग्य परिग्रह</strong></span><strong><br></strong> प्रवचनसार/222-225 <span class="PrakritGatha">छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स। समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता। 222। अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं। मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं। 223। उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिट्ठं। 225। </span>=<span class="HindiText"> जिस उपधि के (आहार-विहारादिक के) ग्रहण विसर्जन में सेवन करने में जिससे सेवन करने वाले के छेद नहीं होता उस उपधि युक्त काल क्षेत्र को जानकर इस लोक में श्रमण भले वर्ते। 222। भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असंयतजनों से अप्रार्थनीय हो, और जो मूर्च्छादि को जनन रहित हो, ऐसा ही उपधि श्रमण ग्रहण करो। 223। यथाजात रूप (जन्मजात-नग्न) लिंग जिनमार्ग में उपकरण कहा गया है, गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन, और विनय भी उपकरण कही गयी है। 225। (विशेष देखो उपरोक्त गाथाओं की टीका)। </span></li> | ||
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Revision as of 19:11, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
परिग्रह दो प्रकार का है - अन्तरंग व बाह्य। जीवों का राग अन्तरंग परिग्रह है और रागी जीवों को नित्य ही जो बाह्य पदार्थों का ग्रहण व संग्रह होता है, वह सब बाह्य परिग्रह कहलाता है। इसका मूल कारण होने से वास्तव में अन्तरंग परिग्रह ही प्रधान है। उसके न होने पर ये बाह्य पदार्थ परिग्रह संज्ञा को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि ये साधक को जबरदस्ती राग बुद्धि उत्पन्न कराने को समर्थ नहीं हैं। फिर भी अन्तरंग परिग्रह का निमित्त होने के कारण श्रेयोमार्ग में इनका त्याग करना इष्ट है।
- परिग्रह सामान्य निर्देश
- परिग्रह के लक्षण।
- परिग्रह के भेद- देखें ग्रंथ ।
- निज गुणों का ग्रहण परिग्रह नहीं।
- वातादिक विकाररूप (शारीरिक) मूर्च्छा परिग्रह नहीं।
- परिग्रह की अत्यन्त निन्दा।
- परिग्रह का हिंसा में अन्तर्भाव- देखें हिंसा - 1.4।
- कर्मों का उदय परिग्रह आदि की अपेक्षा होता है।- देखें उदय - 2।
- गृहस्थ के ग्रहण योग्य परिग्रह।- देखें परिग्रह - 2।
- साधु के ग्रहण योग्य परिग्रह।
- परिग्रह के लक्षण।
- परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण।
- परिग्रह त्याग महाव्रत का लक्षण।
- परिग्रह त्याग प्रतिमा का लक्षण।
- परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ।
- व्रत की भावनाओं सम्बन्धी विशेष विचार - देखें व्रत - 2।
- परिग्रह परिमाणाणुव्रत के पाँच अतिचार।
- परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमा में अन्तर।
- परिग्रह त्याग की महिमा।
- परिग्रह त्याग व व्युत्सर्ग तप में अन्तर - देखें व्युत्सर्ग - 2।
- परिग्रह परिमाण व क्षेत्र वृद्धि अतिचार में अन्तर- देखें दिग्व्रत ।
- परिग्रह व्रत में कदाचित् किंचित् अपवाद का ग्रहण व समन्वय- देखें अपवाद ।
- दानार्थ भी धन संग्रह की इच्छा का विधिनिषेध- देखें दान - 6।
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण।
- अंतरंग परिग्रह की प्रधानता
- बाह्य परिग्रह नहीं अन्तरंग ही है।
- तीनों काल सम्बन्धी परिग्रह में इच्छा की प्रधानता।
- अभ्यन्तर के कारण बाह्य है, बाह्य के कारण अभ्यन्तर नहीं।
- अन्तरंग त्याग ही वास्तव में व्रत है।
- अन्तरंग त्याग के बिना बाह्य त्याग अकिंचित्कर है।
- बाह्य त्याग में अन्तरंग की ही प्रधानता है।
- बाह्य परिग्रह नहीं अन्तरंग ही है।
- बाह्य परिग्रह की कथंचित् मुख्यता व गौणता
- बाह्य परिग्रह को परिग्रह कहना उपचार है।
- बाह्य त्याग के बिना अन्तरंग त्याग अशक्य है।
- बाह्य पदार्थों का आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न होते हैं।
- बाह्य परिग्रह सर्वदा बन्ध का कारण है।
- बाह्य परिग्रह को परिग्रह कहना उपचार है।
- बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना।
- बाह्य परिग्रह के ग्रहण में इच्छा का सद्भाव सिद्ध है।
- बाह्य परिग्रह दुःख व इच्छा का कारण है।
- इच्छा ही परिग्रह ग्रहण का कारण है।
- आकिंचन्य भावना से परिग्रह का त्याग होता है।
- अभ्यन्तर त्याग में सर्वबाह्य त्याग अन्तर्भूत है।
- परिग्रह त्यागव्रत का प्रयोजन।
- निश्चय व्यवहार परिग्रह का नयार्थ।
- अचेलकत्व के कारण व प्रयोजन- देखें [[ ]]‘अचेलकत्व’।
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना।
- परिग्रह सामान्य निर्देश
- परिग्रह के लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/7/17 मूर्च्छा परिग्रहः। 17। = मूर्च्छा परिग्रह है। 7।
सर्वार्थसिद्धि/4/21/252/5 लोभकषायोदयाद्विषयेषु सङ्गः परिग्रहः।
सर्वार्थसिद्धि/6/15/333/10 ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः।
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/10 रागादयः पुनः कर्मोदयतन्त्रा इति अनात्मस्वभावत्वाद्धेयाः। ततस्तेषु सङ्कल्पः परिग्रह इति युज्यते। =- लोभ कषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं। ( राजवार्तिक/4/21/3/236/7 );
- ‘यह वस्तु मेरी है’, इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। ( सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/6 ); ( राजवार्तिक/6/15/3/525/27 ) ( तत्त्वसार/4/77 ); ( सागार धर्मामृत/4/59 )।
- रागादि तो कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वह आत्मा का स्वभाव न होने से हेय है। इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है। यह बात बन जाती है। ( राजवार्तिक/7/17/5/545/18 )।
राजवार्तिक/6/15/3/525/27 ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते। = ‘यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ’ इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है।
धवला 12/4,2,8,6/282/9 परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थग्रहणहेतुरत्र परिणामः। = ‘परिगृह्यते इति परिग्रहः’ अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है। इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है, तथा ‘परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः’ जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, इस निरुक्ति के अनुसार यहाँ बाह्य-पदार्थ के ग्रहण में कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है।
समयसार / आत्मख्याति/210 इच्छा परिग्रहः। - इच्छा है, वही परिग्रह है।
- निज गुणों का ग्रहण परिग्रह नहीं
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/6 यदि ममेदमिति संकल्पः परिग्रहः; संज्ञानाद्यपि परिग्रहःप्राप्नोति तदपि हि ममेदमिति संकल्प्यते रागादिपरिणामवत्। नैष दोषः; ‘प्रमत्तयोगात्’ इत्यनुवर्तते। ततो ज्ञानदर्शनचारित्रवतोऽप्रमत्तस्य मोहाभावन्न मूर्च्छाऽस्तीति निष्परिग्रहत्वं सिद्धं। किंच तेषां ज्ञानादीनामहेयत्वादात्मस्वभावत्वादपरिग्रहत्वम्। = प्रश्न - ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं, क्योंकि रागादि परिणामों के समान ज्ञानादिक में भी ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का संकल्प होता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि ‘प्रमत्तयोगात्’ इस पद की अनुवृत्ति होती है, इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रवाला होकर प्रमाद रहित है, उसके मोह का अभाव होने से मूर्च्छा नहीं है, अतएव परिग्रह रहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्मा के स्वभाव हैं इसलिए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता। ( राजवार्तिक/7/17/5/545/14 )।
- वातादि विकाररूप मूर्च्छा परिग्रह नहीं
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/1 लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मूर्च्छेति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति। सत्यमेवमेतत्। मूर्च्छिरयं मोह सामान्ये वर्तते। ‘‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते’’ इत्युक्ते विशेष व्यवस्थितः परिगृह्यते। = प्रश्न - लोक में वातादि प्रकोप विशेष का नाम मूर्च्छा है ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूर्च्छा का ग्रहण क्यों नहीं किया जाता? उत्तर - यह कहना सत्य है, तथापि मूर्च्छि धातु का सामान्य मोह अर्थ है, और सामान्य शब्द तद्गत विशेषों में ही रहते हैं, ऐसा मान लेने पर यहाँ मूर्च्छा का विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रह का प्रकरण है। ( राजवार्तिक/7/17/2/545/3 )।
- परिग्रह की अत्यन्त निन्दा
सूत्रपाहुड़/19 जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स। सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो। 19। = जिसके मत में लिंगधारी के परिग्रह का अल्प वा बहुत ग्रहणपना कहा है सो मत तथा उस मत का श्रद्धावान् पुरुष निन्दा योग्य है, जातै जिनमत विषैं परिग्रहण रहित है सो निरागार है निर्दोष है।
मोक्षपाहुड़/ सू./79 जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि। 79। = जो पाँच प्रकार के (अण्डज, कर्पासज, वल्कल, रोमज, चर्मज) वस्त्र में आसक्त है, माँगने का जिनका स्वभाव है, बहुरि अधःकर्म अर्थात् पापकर्म विषै रत है, और सदोष आहार करते हैं ते मोक्षमार्गतैं च्युत हैं। 79।
लिं.पा./मू./5 सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण। सो पावमोहिदमदो तिरिक्खजोणी ण सो समणो। 5। = जो निर्ग्रन्थ लिंगधारी परिग्रह कूं संग्रह करै है, अथवा ताका चिन्तवन करे है, बहुत प्रयत्न से उसकी रक्षा करै है, वह मुनि पाप से मोहित हुई है बुद्धि जिसकी ऐसा पशु है श्रमण नहीं। 5। ( भगवती आराधना/1126-1173 )।
रयणसार/ मू./109 धणधण्ण पडिग्गहणं समणाणं दूसणं होइ। 109। = जो मुनि धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है, वह मुनि समस्त मुनियों को दूषित करनेवाला होता है।
मू.आ./918 मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादो य बाहिरं जोगं। बाहिरजोगो सव्वे मूलविहूणस्स कि करिस्संति। 918। = जो साधु अहिंसादि मूलगुणों को छेद वृक्षमूलादि योगों को ग्रहण करता है, सो मूलगुण रहित है। उस साधु के सब बाहर के योग क्या कर सकते हैं, उनसे कर्मों का क्षय नहीं हो सकता। 918।
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/11 तन्मूलाः सर्वे दोषाः संरक्षणादयः संजायन्ते। तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमनृतं जल्पति। चौय वा आचरति मैथुने च कर्मणि प्रयतते। तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकाराः। = सब दोष परिग्रह मूलक ही होते हैं। ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के संकल्प होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं। और इसमें हिंसा अवश्यम्भाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में रत होता है। नरकादिक में जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं।
परमात्मप्रकाश/ मू./2/88-90 चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिं तूसइ मूढु णिभंतु। एयहिं लज्जइ णाणियउ बंधहं हेउ मुणंतु। 88। चट्टहिं पट्टहिं कुंडियहिं चेल्ला-चेल्लियएहिं। मोहु जणेविणु मुणिवरहं उप्पहि पाडिय तेहिं। 89। केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लंचिबि छारेण। सयल वि संग ण परिहरिय जिणवरलिंगधरेण। 90। = अज्ञानी जन चेला चेली पुस्तकादिक से हर्षित होता है, इसमें कुछ सन्देह नहीं है, और ज्ञानीजन इन बाह्य पदार्थों से शरमाता है, क्योंकि इन सबों को बन्ध का कारण जानता है। 88। पीछी, कमण्डलु, पुस्तक और मुनि-श्रावक रूप चेला, अर्जिका, श्राविका इत्यादि चेली - ये संघ मुनिवरों को मोह उत्पन्न कराके वे उन्मार्ग में डाल देते हैं। 89। जिस किसी ने जिनवर का भेष धारण करके भस्म से सिर के केश लौंच किये हैं, लेकिन सब परिग्रह नहीं छोड़े, उसने अपनी आत्मा को ठग लिया। 90।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/213, 219 सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरञ्जकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदायतनानि तदभावादेवाच्छिन्नश्रामण्यम्। उपधेः... छेदत्वमैकान्तिकमेव। = वास्तव में सर्व ही परद्रव्य प्रतिबन्धक उपयोग के उपरंजक होने से निरुपराग उपयोग रूप श्रामण्य के छेद के आयतन हैं; उनके अभाव से ही अच्छिन्न श्रामण्य होता है। 213। उपधि में एकान्त से सर्वथा श्रामण्य का छेद ही है। (और छेद हिंसा है)।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/119 हिंसापर्य्यात्वात्सिद्धा हिंसान्तरङ्गसङ्गेषु। बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूर्च्छेव हिंसात्वम्। 119। = हिंसा के पर्याय रूप होने के कारण अन्तरंग परिग्रह में हिंसा स्वयं सिद्ध है, और बहिरंग परिग्रह में ममत्व परिणाम ही हिंसा भाव को निश्चय से प्राप्त होते हैं। 119।
ज्ञानार्णव/16/12/178 संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाशुभम्। तेन श्वाभ्री गतिसतस्यां दुःखं वाचामगोचरम्। 12। = परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप, और पाप से नरकगति होती है। उस नरकगति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है। 12।
पं.विं./1/53 दुर्ध्यानार्थमवद्यकारणमहो निर्ग्रन्थताहानये, शय्याहेतु तृणाद्यपि प्रशमिनां लज्जाकरं स्वीकृतम्। यत्तत्किं न गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं सांप्रतं, निर्ग्रन्थेष्वपि चेत्तदस्ति नितरां प्रायः प्रविष्टः कलिः। 53। = जब कि शय्या के निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण (प्याल) आदि भी मुनियों के लिए आर्त-रौद्र स्वरूप दुर्ध्यान एवं पाप के कारण होकर उनकी निर्ग्रन्थता को नष्ट करते हैं, तब फिर वे गृहस्थ के योग्य अन्य सुवर्णादि क्या उस निर्ग्रन्थता के घातक न होंगे? अवश्य होंगे। फिर यदि वर्तमान में निर्ग्रन्थ मुनि सुवर्णादि रखता है तो समझना चाहिए कि कलिकाल का प्रवेश हो चुका है। 53।
- साधु के ग्रहण योग्य परिग्रह
प्रवचनसार/222-225 छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स। समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता। 222। अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं। मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं। 223। उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिट्ठं। 225। = जिस उपधि के (आहार-विहारादिक के) ग्रहण विसर्जन में सेवन करने में जिससे सेवन करने वाले के छेद नहीं होता उस उपधि युक्त काल क्षेत्र को जानकर इस लोक में श्रमण भले वर्ते। 222। भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असंयतजनों से अप्रार्थनीय हो, और जो मूर्च्छादि को जनन रहित हो, ऐसा ही उपधि श्रमण ग्रहण करो। 223। यथाजात रूप (जन्मजात-नग्न) लिंग जिनमार्ग में उपकरण कहा गया है, गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन, और विनय भी उपकरण कही गयी है। 225। (विशेष देखो उपरोक्त गाथाओं की टीका)।
- परिग्रह के लक्षण
पुराणकोष से
चेतन और अचेतन रूप बाह्य सम्पत्ति में तथा रागादि रूप अन्तरंग विकार में ममताभाव रखना । यह बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है । इसकी बहुलता नरक का कारण है । इससे चारों प्रकार का बन्ध होता है । परिग्रही मनुष्यों के चित्तविशुद्धि नहीं होती, जिससे धर्म की स्थिति उनमें नहीं हो पाती । इसकी आसक्ति से जीववध सुनिश्चित रूप से होता है और राग-द्वेष जन्मते हैं जिससे जीव सदैव संसार के दुःख पाता रहता है । महापुराण 5.232, 10. 21-23, 17.196, 59.35, पद्मपुराण 2.180-182, हरिवंशपुराण 58.133