हिंसा
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
स्व व पर के अंतरंग व बाह्य प्राणों का हनन करना हिंसा है। जहाँ रागादि तो स्व-हिंसा है और षट् काय जीवों को मारना या कष्ट देना पर-हिंसा है। पर-हिंसा भी स्व हिंसा पूर्वक होने के कारण परमार्थ से स्व हिंसा ही है। पर निचली भूमिका की प्रत्येक प्रवृत्ति में पर-हिंसा न करने का विवेक रखना भी अत्यंत आवश्यक है।
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हिंसा के भेद व लक्षण
- हिंसा सामान्य के भेद।
- पारितापि आदि हिंसा निर्देश।
- संकल्पी आदि हिंसा निर्देश।
- असत्यादि सर्व अविरति भाव हिंसा रूप है।
- आखेट। देखें आखेट ।
- सावद्य योग। देखें सावद्य ।
- कर्मबंध के प्रत्ययों के रूप में हिंसा। देखें प्रत्यय - 1.2।
- निश्चय हिंसा की प्रधानता
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व्यवहार हिंसा की कथंचित् गौणता व मुख्यता
- कारणवश या निष्कारण भी जीवों का घात हिंसा है।
- वेद प्रणीत हिंसा भी हिंसा है।
- खिलौने तोड़ना भी हिंसा है।
- हिंसक आदि जीवों की हिंसा भी योग्य नहीं।
- धर्मार्थ भी हिंसा करनी योग्य नहीं।
- छोटे या बड़े किसी की भी हिंसा योग्य नहीं।
- सूक्ष्म भी त्रस जीवों का वध हिंसा है। देखें मांस - 5।
- निगोद जीव को तीव्र वेदना नहीं होती। देखें वेदना समुद्घात - 3।
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निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय
- निश्चय हिंसा को हिंसा कहने का कारण।
- निश्चय हिंसा को हिंसा कहने का प्रयोजन।
- व्यवहार हिंसा को हिंसा कहने का प्रयोजन।
- जीव से प्राण भिन्न है, उनके वियोग से हिंसा क्यों।
- व्यवहार हिंसा को न माने तो जीवों को भस्मवत् मल दिया जायेगा। देखें विभाव - 5.5।
- निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय। देखें हिंसा - 4.1।
1. हिंसा के भेद व लक्षण
1. हिंसा सामान्य के भेद
- निश्चय
कषायपाहुड़ 1/1,1/83/ गाथा 42/102 तेसिं (रागादीणं) चे उप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिद्दिट्ठा।42। =रागादिक की उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनदेव ने कहा है। ( सर्वार्थसिद्धि/7/22/363 पर उद्धृत) ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/801-802 ) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/44 ); ( अनगारधर्मामृत/4/26/308 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/216,217 अशुद्धोपयोगो हि छेद:...स एव च हिंसा।216। अशुद्धोपयोगो अंतरंगछेद:।217। =वास्वत में अशुद्धोपयोग छेद है और वही हिंसा है।216। अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है।
परमात्मप्रकाश टीका/2/125 रागाद्युत्पत्तिस्तु निश्चयो हिंसा। =रागादि की उत्पत्ति वह निश्चय हिंसा है।
अनगारधर्मामृत/4/26 परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् । हिंसा रागाद्युत्पत्तिरहिंसा तदनुद्भव:।26। =जिनागम के इस परमोत्कृष्ट रहस्य को ही हृदय में धारण करो कि रागादि परिणामों का प्रादुर्भाव होना हिंसा है।26।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/755 अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युति:।754। =रागादि का नाम ही हिंसा, अधर्म और अव्रत है।
- व्यवहार
तत्त्वार्थसूत्र/7/13 प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।13। = प्रमाद योग से किसी जीव के प्राणों का व्यपरोपण करना अर्थात् पीड़ा देना हिंसा है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/3/17 प्राणव्यपरोपो हि बहिरंगच्छेद:। = प्राणों का व्यपरोपण बहिरंग छेद है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/43 यत्खलु योगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा।43। =कषाय रूप परिणाम जो मन वचन काय योग तिसके हेतु है द्रव्य भाव स्वरूप दो प्रकार प्राणों का पीड़ना या घात करना, निश्चय करि वही हिंसा है।
2. पारितापि की आदि हिंसा निर्देश
भगवती आराधना/807 पादोसिय अधिकरणीय कायिय परिदावणादिवादाए। एदे पंचपंओगा किरियाओ होंति हिंसाओ। =द्वेषिकी, कायिकी, प्राणघातिकी, पारितापकी, क्रियाधिकरणी ऐसे पाँच प्रकार की क्रियाओं को हिंसा क्रिया कहते हैं।807।
3. संकल्पी आदि हिंसा निर्देश
नोट-हिंसा चार प्रकार की होती है - संकल्पी, उद्योगी, आरंभी व विरोधी है।
बिना किसी उद्देश्य के संकल्प प्रमाद से की जाने वाली हिंसा संकल्पी है।
भोजन आदि बनाने में, घर की सफाई आदि करने रूप घरेलू कार्यों में होने वाली हिंसा आरंभी है।
अर्थ कमाने रूप व्यापार धंधे में होने वाली हिंसा उद्योगी है।
तथा अपनी, अपने आश्रितों की अथवा अपने देश की रक्षा के लिए युद्धादि में की जाने वाली हिंसा विरोधी हैं।
4. असत्यादि सर्व अविरति भाव हिंसा रूप हैं
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/ उ./श्लोक सं.
सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत् । अनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति।99। अवतीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।102। अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चरा: पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् ये यस्य जनो हरत्यर्थान् ।103। यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म। अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ।107। हिंस्यंते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा यौनौ हिंस्यंते मैथुने तद्वत् ।108। हिंसा पर्यायत्वात्सिद्धा हिंसांतरंगसंगेषु। बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु मूर्छैव हिंसात्वम् ।119। रात्रौ भुंजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा। हिंसा विरतैस्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि।129।
- क्योंकि इस संपूर्ण असत्य वचन में एक प्रमाद योग ही कारण है इसलिए असत्य वचन बोलने वाले में अवश्य ही हिंसा होती है, क्योंकि हिंसा का कारण एक प्रमाद ही है। ( अनगारधर्मामृत/4/36 )
- प्रमाद के योग से बिना दिये हुए स्वर्ण वस्त्रादिक परिग्रह का ग्रहण करना चोरी कहते हैं वही चोरी हिंसा है, क्योंकि वह प्राणघात का कारण है।102। ये जितने भी स्वर्ण आदि पदार्थ हैं वे सब पुरुष के बाह्य प्राण हैं। इसलिए जो जिसके इन पदार्थों का हरण करता है वह उसके प्राणों को ही हरता है।103। ( ज्ञानार्णव/10/3 ) ( अनगारधर्मामृत/4/49 );
- स्त्री पुरुष आदि वेद भाव के परिणमन रूप राग से सहित योग को मैथुन कहते हैं। वही अब्रह्म है। तिस विषै हिंसा अवतार धरै है, क्योंकि कुशील करने तथा कराने वाले के सर्व हिंसा का सद्भाव है।107। जैसे तिलों से भरी हुई नली में तपे हुए लोहे की सलाई डालने पर उस नली के समस्त तिल जल जाते हैं; इसी प्रकार स्त्री अंग में पुरुष के अंग से मैथुन करने पर योनिगत समस्त जीव तत्काल मर जाते हैं।108।
- अंतरंग चौदह प्रकार परिग्रह के सभी भेद हिंसा के पर्यायवाची होने के कारण हिंसा रूप ही सिद्ध है। और बहिरंग परिग्रहविषै मूर्च्छा या ममत्व भाव ही निश्चय से हिंसापने को प्राप्त होता है।119।
- रात्रि में भोजन करने वालों को क्योंकि अनिवारित रूप से हिंसा होती है, इसलिए अहिंसा व्रतधारी जनों को रात्रि भोजन त्याग अवश्य करना चाहिए।129।
5. एक समय में छह काय की हिंसा संभव है
गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा/794/965/4
छह काय की हिंसा विषै एक जीवकै एकै काल एक काय की हिंसा होय, वा दो काय की हिंसा होय, वा तीन की वा चार की, वा पाँच की वा छह की हिंसा होय।
6. हिंसा अत्यंत निंद्य है
ज्ञानार्णव/8/19,58 हिंसैव दुर्गतेर्द्वारं हिंसैव दुरितार्णव:। हिंसैव नरकं घोरं हिंसैव गहनं तम:।19। यत्किंचित्संसारे शरीरिणां दु:खशोकभयबीजम् । दौर्भाग्यादि-समस्तं तद्धिंसासंभवं ज्ञेयम् ।58। =हिंसा ही दुर्गति का द्वार है, पाप का समुद्र है, तथा हिंसा ही घोर नरक और महांधकार है।19। संसार में जीवों के जो कुछ दु:ख-शोक व भय का बीज रूप कर्म है तथा दौर्भाग्यादिक हैं वे समस्त एकमात्र हिंसा से उत्पन्न हुए जानो।58।
7. हिंसक के तपादिक सब निरर्थक है
ज्ञानार्णव/8/20 नि:स्पृहत्वं महत्त्वं च नैराश्यं दुष्करं तप:। कायक्लेशश्च दानं च हिंसकानामपार्थकम् ।20। =जो हिंसक पुरुष हैं उनकी निस्पृहता, महत्ता, आशारहितता, दुष्कर तप करना, कायक्लेश और दान करना आदि समस्त धर्म कार्य व्यर्थ हैं अर्थात् निष्फल हैं।20।
2. निश्चय हिंसा की प्रधानता
1. स्वहिंसा ही हिंसा है
भगवती आराधना 803,1363 अत्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समये। जो होदि अप्पमत्तो अहिंसगो हिंसगो इदरो।803। तध रोसेण सयं पुव्वमेव उज्झदि हु कलकलेणेव। अण्णस्स पुणो दुक्खं करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्जा।1363। =आत्मा हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है ऐसा जिनागम में निश्चय किया है। अप्रमत्त को अहिंसक कहते हैं और प्रमत्त को हिंसक।803। तप्त लोहे के समान क्रोधी मनुष्य प्रथम स्वयं संतप्त होता है, तदनंतर वह अन्य पुरुष को संतप्त कर सकेगा अथवा नहीं भी, नियमपूर्वक दु:खी करना इसके हाथ में नहीं।1363।
सर्वार्थसिद्धि/7/13/352 पर उद् धृत - स्वयमेवात्मनात्मानं अहिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्वं प्राण्यंतराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वध:। =प्रमाद से युक्त आत्मा पहिले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियों का वध होवे या मत हो। ( राजवार्तिक/7/13/12/541 पर उद्धृत )।
धवला 14/5,6,93/ गाथा 6/90 वियोजयति चासुर्भिर्न च वधेन संयुज्यते शिवं च न परोपमर्दपरुषस्मृतेर्विद्यते। वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि त्वयायमतिदुर्गम: प्रशमहेतुरुद्योतित:।6। =कोई प्राणी दूसरों को प्राणों से वियुक्त करता है फिर भी वह बंध से संयुक्त नहीं होता। तथा परोपघात से जिसकी स्मृति कठोर हो गयी है, अर्थात् जो परोपघात का विचार करता है उसका कल्याण नहीं होता। तथा कोई दूसरे जीवों को नहीं मारता वह भी हिंसकपने को प्राप्त होता है। इस प्रकार हे जिन ! तुमने यह अति गहन प्रशम का हेतु प्रकाशित किया है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/46-47 व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा।46। यस्मात्सकषाय: सन् हंत्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यंतराणां तु।47। =रागादि प्रमाद भावों के वश से उठने-बैठने आदि क्रियाओं में, जीव मरो अथवा न मरो निश्चय से हिंसा है ही।46। क्योंकि कषाय युक्त आत्मा पहिले अपने द्वारा अपने को ही घातता है पीछे अन्य जीवों का घात हो अथवा न हो।47।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/149 कदाचित्परस्य द्रव्यप्राणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्य भावप्राणानुपरक्तत्वेन वाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बध्नाति। =कदाचित् पर द्रव्य के प्राणों को बाधा करके और कदाचित् बाधा नहीं करके अपने भाव प्राणों को तो उपरक्तपने के द्वारा बाधा करता हुआ ज्ञानावरणादि कर्मों को (राग-द्वेषादि के कारण) बाँधता ही है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/149/211/10 यथा कोऽपि तप्तलोहपिंडेन परं हंतुकाम: सन् पूर्वं तावदात्मानमेव हंति पश्चादन्यघाते नियमो नास्ति, तथा - यमज्ञानी जीवोऽपि...मोहादिपरिणामेन परिणत: सन् पूर्वं...स्वकायशुद्धप्राणं हंति पश्चादुत्तरकाले परप्राणघाते नियमो नास्ति। =जिस प्रकार कोई व्यक्ति तप्त लोहे के गोले द्वारा किसी को मारने की कामना रखता हुआ पहले तो अपने को ही मारता (हाथ जलाता) है, पीछे अन्य का घात होवे भी अथवा न भी होवे, कोई नियम नहीं। उसी प्रकार यह अज्ञानी जीव भी मोहादि परिणामों से परिणत होकर पहले तो स्वकीय शुद्ध प्राणों का घात करता है, पश्चात् उत्तर काल में अन्य के प्राण घात का नियम नहीं।
अनगारधर्मामृत/4/24 प्रमत्तो हि हिनस्ति स्वं प्रागात्मातंगतायनात् । परो नु म्रियतां मा वा रागाद्या ह्यरयोऽंगिन:।24। =दुष्कर्मों का संचय तथा व्याकुलता रूप दु:ख को उत्पन्न करने के कारण प्रमत्त जीव पहले तो अपना घात ही कर लेता है, दूसरा जीव मरो वा मत मरो। क्योंकि जीवों के वास्तविक वैरी तो कषाय ही है न कि दूसरों का प्राणवध।
2. अशुद्धोपयोग व कषाय ही हिंसा है
समयसार / आत्मख्याति/262 की उत्थानिका - हिंसाध्यवसाय एव हिंसा। =अध्यवसाय ही बंध का कारण है अत: यह हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/216 अशुद्धोपयोगो हि छेद: शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्, तस्य हिंसनात् स एव च हिंसा। =शुद्धोपयोग रूप श्रामण्य का छेद करने के कारण अशुद्धोपयोग ही छेद है और उस श्रामण्य का नाश करने के कारण वह ही हिंसा है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/318 ); ( योगसार (अमितगति)/8/28 ); ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/44 )।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/64 अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककामकोपाद्या:। हिंसाया: पर्याया सर्वेऽपि। =अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, शोक, काम, क्रोध आदि हिंसा की पर्यायें हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/217/ प्रक्षेपक/2/292/21 सूक्ष्मजंतुघातेऽपि यावतांशेन स्वस्वभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा तावतांशेन बंधो भवति, न च पादसंघट्टनमात्रेण...। =वीतरागी मुनियों को ईर्यासमिति पूर्वक चलते हुए, सूक्ष्म जंतुओं का घात होने पर भी जितने अंश में स्वस्वभाव से चलन रूप अर्थात् अशुद्धोपयोग रूप रागादि परिणति लक्षण वाली भाव हिंसा है, उतने अंश में ही बंध होता है, केवल पाद की रगड़ मात्र से नहीं...।
आचारसार/5/10 स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसक: प्रमादयुक्तस्तु तदैव हिंसक:।10। =निश्चय से जीव स्वयं हिंसा है और स्वयं ही हिंसन है। यह दोनों हिंसा व हिंसन व घात पराधीन नहीं है। प्रमाद रहित जीव अहिंसक होता है और प्रमाद युक्त सदैव हिंसक।
परमात्मप्रकाश टीका/2/125 रागाद्युत्पत्तिस्तु निश्चयहिंसा। तदपि कस्मात् । निश्चयशुद्धप्राणस्य हिंसाकारणात् । =रागादिक की उत्पत्ति ही निश्चय हिंसा है। क्योंकि वह निश्चय शुद्ध चैतन्य प्राणों की हिंसा का कारण है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/757 सत्सु रागादिभावेषु बंध: स्यात्कर्मणां बलात् । तत्पाकादात्मनो दु:खं तत्सिद्ध: स्वात्मनो वध:।757। =रागादि भावों के होने पर बलपूर्वक कर्मों का बंध होता है। और उन कर्मों के उदय से आत्मा को दु:ख होता है इसलिए रागादि भावों के द्वारा अपनी आत्मा का वध या हिंसा सिद्ध होती है।757।
3. निश्चय हिंसा ही प्रधान है व्यवहार नहीं
भगवती आराधना/मूल/806 जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरंगवत्थुजोगेण। णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेदु।806। =यदि रागद्वेष रहित आत्मा को भी बाह्य वस्तु के संबंध से बंध होगा तो जगत् में कोई भी अहिंसक नहीं है, ऐसा मानना पड़ेगा, क्योंकि शुद्ध मुनि भी वायुकायादि जीवों के वध का हेतु है।
धवला 14/5,6,93/90/2 जेण विणा जं ण होदि चेवं तं तस्स कारणं। तम्हा अंतरंगहिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्धम् । =जिसके बिना जो नहीं होता वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नय से अंतरंग हिंसा ही हिंसा है बहिरंग नहीं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/217 अशुद्धोपयोगोऽंतरंगच्छेद:, परप्राणव्यपरोपो बहिरंग:।...अंतरंग एव छेदो बलीयान् न पुनर्बहिरंग:। =अशुद्धोपयोग तो अंतरंग छेद है और परप्राणों का घात बहिरंगछेद है।...तहाँ अंतरंग छेद ही बलवान् है बहिरंग नहीं।
अनगारधर्मामृत/4/23 रागाद्यसंगत: प्राणव्यपरोपेऽप्यहिंसक:। स्यात्तदव्यपरोपेऽपि हिंस्रो रागादिसंश्रित:। =यदि जीव रागादि से आविष्ट नहीं है तो प्राणों का व्यपरोपण हो जाने पर भी वह अहिंसक है और यदि रागद्वेषादि कषायों से युक्त है तो प्राणों का वियोग न होने पर भी हिंसक है।
4. मैं जीवों को मारता हूँ ऐसा कहने वाला अज्ञानी है
समयसार/247 जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।247।=जो पुरुष ऐसा मानता है कि मैं पर जीव को मारता हूँ और पर जीवों द्वारा मैं मारा जाता हूँ वह पुरुष मोही है, अज्ञानी है, और इससे विपरीत है वह ज्ञानी है।247। (योग सार/अमितगति/4/12 )।
समयसार / आत्मख्याति/256/ कलश 168 सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदु:खसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य कुर्यात् पुमान् मरणजीवितदु:खसौख्यम् । =इस लोक में जीवों के जो जीवन मरण दु:ख सुख हैं वे सभी सदा काल नियम से अपने-अपने कर्म के उदय से होते हैं। ऐसा होने पर पुरुष पर के जीवन मरण सुख दु:ख को करता है यह मानना अज्ञान है।
3. व्यवहार हिंसा की कथंचित् गौणता व मुख्यता
1. कारणवश वा निष्कारण भी जीवों का घात हिंसा है
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/80-89 धर्मो हि देवताभ्य:।80। पूज्यनिमित्तं घाते।81। बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वरमेकसत्त्वघातोत्थम् ।82। रक्षा भवति बहूनामेकैस्य वास्य जीवहरणेन।...हिंस्रसत्त्वानाम् ।83। शरीरिणो हिंस्रा।84। बहुदु:खासंज्ञपिता:...दु:खिणो।85। सुखिनो हता: सुखिन एव। इति तर्क...सुखिनां घाताय...।86। उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधि...स्वगुरो: शिष्येण शिरो न कर्त्तनीयम् ।87। मोक्षं श्रद्धेय नैव।88। परं पुरस्तादशनाय.....निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि।89। =देवता के अर्थ हिंसा करना धर्म है ऐसा मानकर।80। या पूज्य पुरुषों के सत्कारार्थ हिंसा करने में दोष नहीं है ऐसा मानकर।81। शाकाहार में अनेक जीवों की हिंसा होती है और मांसाहार में केवल एक की, इसलिए मांसाहार को भला जानकर।82। हिंसक जीवों को मार देने से अनेकों की रक्षा होती है ऐसा मानकर हिंसक जीवों की हिंसा।83। तथा इसी प्रकार हिंसक मनुष्यों की भी।84। दु:खी जीवों को दु:ख से छुड़ाने के लिए मार देना रूप हिंसा।85। सुखी को मार देने से पर भव में उसको सुख मिलता है, ऐसा समझकर सुखी जीव को मार देना।86। समाधि से सुगति की प्राप्ति होती है, ऐसा मानकर समाधिस्थ गुरु का शिष्य द्वारा सिर काट देना।87। या मोक्ष की श्रद्धा करके ऐसा करना।88। दूसरे को भोजन कराने के लिए अपना मांस देने को निज शरीर का घात करना।89। ये सभी हिंसाएँ करने योग्य नहीं हैं।
ज्ञानार्णव/8/18,27 शांत्यर्थं देवपूजार्थं यज्ञार्थमथवा नृभि:। कृत: प्राणभृतां घात: पातयत्यविलंबितं ।18। चरुमंत्रौषधानां वा हेतोरन्यस्य वा क्वचित् । कृत: सती नरैर्हिंसा पातयत्यविलंबितं ।27।=अपनी शांति के अर्थ अथवा देवपूजा के तथा यज्ञ के अर्थ जो मनुष्य जीवघात करते हैं वह घात भी जीवों को शीघ्र ही नरक में डालता है।18। देवता की पूजा के लिए रचे हुए नैवेद्य से तथा मंत्र और औषध के निमित्त अथवा अन्य किसी भी कार्य के लिए की हुई हिंसा जीवों को नरक में ले जाती है।27।
2. वेद प्रणीत हिंसा भी हिंसा है
राजवार्तिक/8/1/13-26/562-564 आगमप्रामाण्यात् प्राणिवधो धर्महेतुरिति चेत्; न; तस्यागमत्वासिद्धे:।13। सर्वेषामविशेषप्रसंगात् ।20। यदि हिंसा धर्मसाधनं मत्स्यबंध (वधक) शाकुनिकशौकरिकादीनां सर्वेषामविशिष्टाधर्मावाप्ति: स्यात् ।...यज्ञात्कर्मणोऽन्यत्र वध: पापायेति चेत्; न; उभयत्र तुल्यत्वात् ।21। ‘तादर्थ्यात् सर्गस्येति चेत्’ ।22। ‘यज्ञार्थं पशव: सृष्टा: स्वयमेव स्वयंभुवा (मनुस्मृति/5/19/इति) इति। अत: सर्गस्य यज्ञार्थत्वात् न तस्य विनियोक्तु: पापमिति तन्न; किं कारणम् । साध्यत्वात् । ‘मंत्रप्राधांयाददोष इति चेत्;।24। यथा विषं मंत्रप्राधांयादुपयुज्यमातं न मरणकारणम्, तथा पुशवधोऽपि मंत्रसंस्कारपूर्वक: क्रियमाणो न पापहेतुरिति। तन्न, किं कारणम् । प्रत्यक्षविरोधात् ।...यदि मंत्रेभ्यो एव केवलेभ्यो याज्ञे कर्मणि पशूंनिपातयंत: दृश्येरन् मंत्रबलं श्रद्धीयेत्, दृश्यते तु रज्ज्वादिभिर्मारणम् । तस्मात् प्रत्यक्षविरोधात् मन्यामहे न मंत्रसामर्थ्यमिति। - हिंसादोषाविनिवृत्ते:।25।...नियतपरिणाम:निमित्तस्यान्यथाविधिनिषेधासंभवात् ।26। =प्रश्न - आगम प्रमाण से प्राणी वध भी धर्म समझा जाता है ?
उत्तर - नहीं, क्योंकि ऐसे आगम को आगमपना ही सिद्ध नहीं है।13। यदि हिंसा को धर्म का साधन माना जायेगा तो मछियारे भील आदि सर्व हिंसक मनुष्य जातियों में अविरोधरूप से धर्म की व्याप्ति चली आयेगी।20।
प्रश्न - ऐसा नहीं होता, क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त अन्य कार्यों में किया जाने वाला वध पाप माना गया है ?
उत्तर - ऐसा भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि हिंसा की दृष्टि से दोनों तुल्य हैं।22।
प्रश्न - यज्ञ के अर्थ ही स्वयंभू ने पशुओं की सृष्टि की है, अत: यज्ञ के अर्थ वध पाप का हेतु नहीं हो सकता ?
उत्तर - यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि पशुओं की सृष्टि ब्रह्मा ने की है, यह बात अभी तक सिद्ध नहीं हो सकी है।22।
प्रश्न - मंत्र की प्रधानता के कारण यह हिंसा निर्दोष है। जिस प्रकार मंत्र की प्रधानता से प्रयोग किया विष मृत्यु का कारण नहीं उसी प्रकार मंत्र संस्कार पूर्वक किया पशुवध भी पाप का हेतु नहीं हो सकता ?
उत्तर - नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष विरोध आता है - यदि केवल मंत्र बल से ही यज्ञवेदी पर पशुओं का घात देखा जाता तो यहाँ मंत्र बल पर विश्वास किया जाता। परंतु वह वध तो रस्सी आदि बाँधकर करते हुए देखा जाता है। इसलिए प्रत्यक्ष में विरोध होने के कारण मंत्र सामर्थ्य की कल्पना उचित नहीं है।24। अत: मंत्रों से पशुवध करने वाले भी हिंसा दोष से निवृत्त नहीं हो सकते।25। शुभ परिणामों से पुण्य और अशुभ परिणामों से पाप बंध नियत है, उसमें हेर-फेर नहीं हो सकता।26।
3. खिलौने तोड़ना भी हिंसा है
सागार धर्मामृत/3/22 वस्त्रनाणकपुस्तादि न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्यात्त्यक्तपापर्द्धिस्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ।22। =शिकार व्यसन का त्याग करने वाला श्रावक वस्त्र शिक्का और काष्ठ पाषाणादि शिल्प में निकाले गये या बनाये गये जीवों का छेदनादिक को नहीं करे, क्योंकि वस्त्रादिक में स्थापित किये गये जीवों का छेदन भेदन केवल शास्त्र में ही नहीं किंतु लोक में भी निंदित है।
4. हिंसक आदि जीवों की हिंसा भी योग्य नहीं
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/83-85 रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन। इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ।83। बहुसत्त्वघातिनोऽमी जीवंत उपार्जयंति गुरु पापम् । इत्यनुकंपां कृत्वा न हिंसनीया: शरीरिणो हिंस्रा:।84। बहुदु:खासंज्ञपिता: प्रयांति त्वचिरेण दु:खविच्छित्तिम् । इति वासनाकृपाणीमादाय न दु:खिनोऽपि हंतव्या:।85। =एक जीव को मारने से बहुत से जीवों की रक्षा होती है, ऐसा मानकर हिंसक जीवों का भी घात न करना।83। बहुत जीवों के मारने वाले यह प्राणी जीता रहेगा तो बहुत पाप उपजायेगा इस प्रकार दया करके भी हिंसक जीवों को मारना नहीं चाहिए।84। यह प्राणी बहुत दु:ख करि पीड़ित है यदि इसको मारिये तो इसके सब दु:ख नष्ट हो जायेंगे ऐसी खोटी वासना रूप तलवार को अंगीकार कर दु:खी जीव भी न मारना।85।
सागार धर्मामृत/2/81,83 न हिंस्यात्सर्वभूतानीत्यार्ष धर्मे प्रमाणयन् । सागसोऽपि सदा रक्षेच्छवत्या किं नु निरागस:।81। हिंस्रदु:खिसुखिप्राणि-घातं कुर्यान्न जातुचित् । अतिप्रसंगश्वभ्रार्ति-सुखोच्छेदसमीक्षणात् ।83।=संपूर्ण त्रस स्थावर जीवों में से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार के ऋषि प्रणीत शास्त्र को श्रद्धा पूर्वक मानने वाला धार्मिक गृहस्थ धर्म के निमित्त सदा अपनी शक्ति के अनुसार अपराधी जीवों की रक्षा करे और निरपराधी जीवों का तो कहना ही क्या है।81। कल्याणार्थी गृहस्थ अति-प्रसंग रूप दोष नरक संबंधी दु:ख सुख का कारण होने से हिंसक दु:खी और सुखी प्राणियों के घात को कभी न करे।83।
5. धर्मार्थ भी हिंसा करनी योग्य नहीं
प्रवचनसार/250 जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयणं।250। =यदि (श्रमण) वैयावृत्ति के लिए उद्यमी वर्तता हुआ काय को पीड़ित करे तो वह श्रमण नहीं है। गृहस्थ है, (क्योंकि) वह छह काय की विराधना सहित वैयावृत्त्य है।250।
इष्टोपदेश/16 त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्त: संचिनोति य:। स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामीति विलिंपति।16। =जो निर्धन मनुष्य पात्रदान आदि प्रशस्त कार्यों के लिए पुण्य प्राप्ति तथा पाप विनाश के अनेक सावद्यों द्वारा धन उपार्जन करता है, वह मनुष्य निर्मल शरीर में पीछे स्नान करके निर्मल होने की आशा से कीचड़ लपेटता है।16।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/80-81 धर्मो हि देवताभ्य: प्रभवति ताभ्य: प्रदेयमिति सर्वम् । इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिंस्या:।80। पूज्यनिमित्तघाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति। इति संप्रधार्य कार्यं घातिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ।81। =देवता को प्रसन्न करने से धर्म होता है इसलिए इस लोक में उस देवता के सब कुछ देने योग्य है। जीव को उनके लिए बलि कर देना धर्म है। ऐसी अविवेक बुद्धि से प्राणी घात योग्य नहीं।80। अपने गुरु के वास्ते बकरा आदि मारने में कोई दोष नहीं ऐसा मानकर अतिथि के अर्थ जीव वध करना योग्य नहीं।81।
देखें हिंसा - 3.1 देवता की पूजा के लिए जीवघात करना नरक में डालता है।
6. छोटे या बड़े किसी की भी हिंसा योग्य नहीं
मूलाचार/798,801 वसुधम्मिवि विहरंता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु।798। तणरुक्खहरिच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाइं। फलपुप्फबीयघादं ण करिंति मुणी ण कारेंति।801। =सब जीवों के प्रति दया को प्राप्त सब साधु पृथिवी पर विहार करते हुए भी किसी जीव को कभी भी पीड़ा नहीं करते। जैसे माता पुत्र का हित ही करती है उसी तरह सबका हित चाहते हैं।798। मुनिराज तृण, वृक्ष, हरित इनका छेदन, बकुल, पत्ता, कोंपल, कंदमूल, इनका छेदन, तथा फल, पुष्प बीज इनका घात न तो आप करते हैं, न दूसरों से कराते हैं।801।
7. संकल्पी हिंसा का निषेध
सागार धर्मामृत/2/82 आरंभेऽपि सदा हिंसां, सुधी: सांकल्पिकीं त्यजेत् । घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चै:, पापोऽध्नन्नपि धीवर:।82। =बुद्धमान् मनुष्य खेती आदि कार्यों में भी संकल्पी हिंसा को सदैव छोड़ देवें, क्योंकि असंकल्प पूर्वक बहुत से जीवों का घात करने वाला किसान से जीवों को मारने का संकल्प करके उनको नहीं मारने वाला भी धीवर विशेष पापी होता है।82।
8. विरोधी हिंसा की कथंचित् आज्ञा
सागार धर्मामृत/4/5 की टीका में उद्धृत - दंडो हि केवलो लोकमिमं चामुं च रक्षति। राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथा दोषसमं धृत:। =पुत्र व शत्रु में समता रूप से क्षत्रियों द्वारा किया गया दंड इस लोक और परलोक की रक्षा करता है, यह शास्त्र वचन है।
9. बाह्य हिंसा, हिंसा नहीं
भगवती आराधना/806 जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरगवत्थुजोगेण। णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेदु।806। =यदि रागद्वेष रहित आत्मा को भी मात्र बाह्य वस्तु के संबंध से बंध होगा तो जगत् में कोई भी अहिंसक नहीं, ऐसा मानना पड़ेगा। क्योंकि मुनि भी वायुकायादि जीवों के वध का हेतु हैं।806।
प्रवचनसार/217 मरदु वा जियदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स।217। =जीव मरे या जीये, अप्रयत आचार वाले के हिंसा निश्चित है, प्रयत के समितिवान् के (बहिरंग) हिंसामात्र से बंध नहीं है।217। ( सर्वार्थसिद्धि/7/13/351 पर उद्धृत); ( धवला 14/5,6,93/ गाथा 2/90); ( राजवार्तिक/7/13/12/540 पर उद्धृत)।
प्रवचनसार/17/ प्रक्षेपक 1-2/292 उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज।1। ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये। मुच्छापरिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो।2। =ईर्यासमिति से युक्त साधु के अपने पैर के उठाने पर चलने के स्थान में यदि कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैर से दब जाये और उसके संबंध से मर जाये तो भी उस निमित्त से थोड़ा भी बंध आगम में नहीं कहा है क्योंकि जैसे अध्यात्म दृष्टि से मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणामों की हिंसा कहा है। ( सर्वार्थसिद्धि/7/13/351/ पर उद्धृत); ( राजवार्तिक 7/13/12/540 पर उद्धृत)।
सर्वार्थसिद्धि/7/13/351/4 'प्रमत्तयोगात्' इति विशेषणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाधर्मायेति ज्ञापनार्थम् । =केवल प्राणों का वियोग करने से अधर्म नहीं होता, यह बतलाने के लिए सूत्र में ‘प्रमत्तयोग से’ यह पद दिया है।
धवला 14/5,6,92/89/12 हिंसा णाम पाण-पाणिवियोगो। तं करेंताणं कथमहिंसालक्खणपंचमहव्वयसंभवो। ण, बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावादो। =प्रश्न - प्राण और प्राणियों के वियोग का नाम हिंसा है। उसे करने वाले जीवों के अहिंसा लक्षण पाँच महाव्रत कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर - नहीं, क्योंकि बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/45 युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमंतरेणापि। न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।45। =युक्ताचारी सत्पुरुष के रागादि भावों के प्रवेश बिना केवल पर जीवों के प्राण पीड़ते ही तैं कदाचित् हिंसा नहीं होती है।45।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/56 तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममंतरेण सावद्यपरिहारो न भवति। =उन (जीवों का) मरण हो अथवा न हो, प्रयत्न रूप परिणाम के बिना सावद्य का परिहार नहीं होता।
अनगारधर्मामृत/4/23 रागाद्यसंगत: प्राणव्यपरोपेऽप्यहिंसक:। स्यात्तदव्यपरोपेऽपि हिंस्रो रागादिसंश्रित:।23। =जीव यदि राग द्वेष मोह रूप परिणामों से आविष्ट नहीं है तो प्राणों का व्यपरोपण हो जाने पर भी अहिंसक है। और यदि रागादि कषायों से युक्त है तो प्राणों का वियोग न होने पर भी हिंसक है।23।
4. निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय
1. निश्चय हिंसा को हिंसा कहने का कारण
राजवार्तिक/7/13/12/540/33 ननु च प्राणव्यपरोपणाभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव हिंसेष्यते। उक्तं च -।... (प्राणव्यपरोपणनिर्देश अनर्थकम्)। नैष दोष:, तत्रापि प्राणव्यपरोपणमस्ति भावलक्षणम् । तथा चोक्तम् - स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्वं प्राण्यंतराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वध:।1।इति। एवं कृत्वा यैरुपालंभ: क्रियते - सोऽत्रावकाशं न लभते। भिक्षोर्ज्ञानध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाभावात् । =प्रश्न - प्राणव्यपरोपण के अभाव में भी केवल प्रमत्त योग से ही हिंसा स्वीकारी गयी है। कहा भी है कि - [जीव मरो या जीओ अयत्नाचारी के निश्चित रूप से हिंसा है। बाह्य हिंसा मात्र से बंध नहीं होता (देखें हिंसा - 3.9) अत: सूत्र में ‘प्राणव्यपरोपण’ शब्द व्यर्थ है।]?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भावलक्षण वाला अंतरंग प्राणव्यपरोपण अर्थात् स्वहिंसा वहाँ भी (प्रमत्तयोग में भी) है ही। कहा भी है - ‘प्रमाद से युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है, इसके बाद दूसरे का घात होवे अथवा न होवे।‘ ऐसा मानने पर यह दोष भी नहीं आता है कि - ‘जल में, थल में, आकाश में सब जगह जंतु ही जंतु हैं। इस जंतुमय जगत् में भिक्षुक अहिंसक कैसे रह सकता है ? क्योंकि ज्ञान ध्यान परायण अप्रमत्त भिक्षुक को मात्र प्राणि वियोग से हिंसा नहीं होती।
धवला 14/5,6,93/1 तदभावे (बहिरंगहिंसाभावेऽपि) वि अंतरंग हिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलंभादो। जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं। तम्हा अंतरंगहिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्धम् । =क्योंकि बहिरंग हिंसा का अभाव होने पर भी केवल अंतरंग हिंसा से सिक्थ मत्स्य के बंध की उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्धनय से अंतरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं; यह बात सिद्ध होती है।
देखें हिंसा - 2.2; हिंसा 2.3 चैतन्य परिणामों की घातक होने से अंतरंग हिंसा ही हिंसा है।
2. निश्चय हिंसा को हिंसा कहने का प्रयोजन
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/218/293/13 शुद्धोपयोगपरिणतपुरुष: षड्जीवकुले लोके विचरन्नपि यद्यपि बहिरंगद्रव्यहिंसामात्रमस्ति तथापि निश्चयहिंसा नास्ति। तत: कारणाच्छुद्वपरमात्मभावनाबलेन निश्चयहिंसैव सर्वतात्पर्येण परिहर्त्तव्येति। =शुद्धोपयोग रूप परिणत जीव को इस जीवों से भरे हुए लोक में विचरण करते हुए यद्यपि बहिरंग हिंसा मात्र होती है। अंतरंग नहीं इस कारण से शुद्ध परमात्म भावना के बल द्वारा निश्चय हिंसा ही सर्व प्रकार त्यागने योग्य है।
3. बहिरंग हिंसा को हिंसा कहने का प्रयोजन
अनगारधर्मामृत/4/28 हिंसा यद्यपि पुंस: स्यान्न स्वल्पाप्यन्यवस्तुत:। तथापि हिंसायतनाद्विरमेद्भावशुद्धये।28। =यद्यपि पर वस्तु के संबंध से प्रमत्त परिणामों के बिना केवल बाह्य द्रव्य के ही निमित्त से जीव को जरा भी हिंसा को दोष नहीं लगता, तो भी भावविशुद्धि के लिए भावहिंसा के निमित्तभूत बाह्य पदार्थ से मुमुक्षुओं को विरत होना चाहिए।28।
4. जीवों से प्राण भिन्न हैं, उनके वियोग से हिंसा क्यों हो ?
सा./तात्पर्य वृत्ति/333-444/423/22 कश्चिदाह जीवात्प्राणा भिन्ना अभिन्ना वा। यद्यभिन्नास्तदा यथा जीवस्य विनाशो नास्ति तथा प्राणानामपि विनाशो नास्ति कथं हिंसा। अथ भिन्नास्तर्हि जीवस्य प्राणघातेऽपि किमायातम् । तत्रापि हिंसा नास्तीति। तन्न [देखें प्राण - 2.3]=प्रश्न - कोई कहता है कि जीव से प्राण भिन्न है कि अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो जीव का विनाश ही नहीं हो सकता, तब प्राणों का भी विनाश नहीं हो सकता। फिर हिंसा कैसे हो सकती है ? यदि प्राण जीव से भिन्न है तो जीव का प्राण घात होना ही कैसे प्राप्त होता है ? इसलिए ऐसा मानने पर भी हिंसा सिद्ध नहीं होती ?
उत्तर - ऐसा नहीं है; कायादि प्राणों के साथ कथंचित् जीव का भेद भी है और अभेद भी। वह कैसे सो बताते हैं [तप्त लोह पिंड से जैसे अग्नि पृथक् नहीं की जा सकती वैसे ही वर्तमान में शरीर आदि से जीव को पृथक् नहीं किया जा सकता, इस कारण से व्यवहार से दोनों में अभेद है। परंतु निश्चय से भेद है क्योंकि मरणकाल में शरीरादिक प्राण जीव के साथ नहीं जाते। [देखें प्राण - 2.3]
परमात्मप्रकाश टीका/2/127 प्राणा जीवादभिन्ना भिन्ना वा, यद्यभिन्ना: तर्हि जीववत्प्राणानां विनाशो नास्ति, अथ भिन्नास्तर्हि प्राणवधेऽपि जीवस्य वधो नास्त्यनेन प्रकारेण जीवहिंसैव नास्ति कथं जीववधे पापबंधो भविष्यतीति। परिहारमाह। कथंचिद्भेदाभेद:। तथाहि स्वकीयप्राणे हृते सति दु:खोत्पत्तिदर्शनाद्व्यवहारेणाभेद: सैव दु:खोत्पत्तिस्तु हिंसा भण्यते ततश्च पापबंध:। =प्रश्न - प्राण जीव से भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो जीव की भाँति प्राणों का भी विनाश नहीं हो सकता। यदि भिन्न है तो प्राण वध होने पर भी जीववध नहीं हो सकता और इस प्रकार जीव हिंसा ही नहीं होती फिर जीव वध से पाप का बंध कैसे हो सकेगा ?
उत्तर - ऐसा न कहो क्योंकि जीव और प्राणों में कथंचित् भेदाभेद है। वह इस प्रकार कि अपने प्राणों के हरण होने पर दु:ख की उत्पत्ति देखी जाती है, इस कारण व्यवहार से इनमें अभेद है। वह दु:खोत्पत्ति ही वास्तव में हिंसा कहलाती है और उससे पाप बंध होता है।
देखें विभाव - 5.5/1 यदि निश्चय की भाँति व्यवहार से भी हिंसा न हो तो जीवों को भस्मवत् मलने से भी हिंसा न होगी। और इस प्रकार मोक्षमार्ग के ग्रहण का अभाव हो जाने से मोक्षमार्ग का ही अभाव होगा।
5. हिंसा व्यवहार मात्र से है निश्चय से तो नहीं
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/50 निश्चयमबुद्धयमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते। नाशयति कारणचरणं स बहि:करणालसो बाल:। =जो जीव निश्चय के स्वरूप को न जानकर उसको ही निश्चय के श्रद्धान से अंगीकार करता है, याने अंतरंग हिंसा को ही हिंसा मानता है वह मूर्ख बाह्य क्रिया में आलसी है और बाह्य क्रिया रूप आचरण को नष्ट करता है।
परमात्मप्रकाश टीका/2/127 ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता पापबंधोऽपि न च निश्चयेन इति। सत्यमुक्तं त्वया, व्यवहारेण पापं तथैव नारकादिदु:खमपि व्यवहारेणेति। तदिष्टं भवतां चेत्तर्हि हिंसां कुरुत यूयमिति।=प्रश्न - फिर भी यह प्राणघात रूप हिंसा व्यवहारमात्र से है और इसी प्रकार पापबंध भी निश्चय से तो नहीं है ?
उत्तर - तुम्हारी यह बात बिलकुल सत्य है, परंतु जिस प्रकार पापबंध व्यवहार से है, उसी प्रकार नरकादि दु:ख भी व्यवहार से ही हैं, यदि वे दु:ख तुम्हें अच्छे लगते हैं तो हिंसा खूब करो।
6. भिन्न प्राणों के घात से न दु:ख है न हिंसा
राजवार्तिक/7/13/8-11/540/13 अन्यत्वादधर्माभाव: इति चेत्; न; तद्दु:खोत्पादकत्वात् ।8। शरीरिणोऽन्यत्वात् दु:खाभाव इति चेत्; न; पुत्रकलत्रादिवियोगे तापदर्शनात् ।9। बंधं प्रत्येकत्वाच्च।10। यद्यपि शरीरिशरीरयो: लक्षणभेदान्नानात्वम्, तथापि बंधं प्रत्येकत्वात् तद्वियोगपूर्वकदु:खोपपत्तेरधर्माभाव इत्यनुपालंभ:। एकांतवादिनां तदनुपपत्तिर्बंधाभावात् ।11। =प्रश्न - प्राण आत्मा से भिन्न हैं अत: उनके वियोग से अधर्म नहीं हो सकता।
उत्तर - नहीं, क्योंकि प्राणों का वियोग होने पर जीव को ही दु:ख होता है।
=प्रश्न - शरीरी आत्मा प्राणों से भिन्न है अत: उनके वियोग से उसे दु:ख भी नहीं होना चाहिए।
उत्तर - नहीं, क्योंकि पुत्र-कलत्रादि सर्वथा भिन्न पदार्थों के वियोग होने पर भी ताप देखा जाता है।9। दूसरे, यद्यपि शरीर शरीरी में लक्षण भेद से नानात्व है फिर भी बंध के प्रति दोनों एक हैं अत: शरीर वियोगपूर्वक होने वाला दु:ख आत्मा को ही होता है। अत: हिंसा और अधर्म का अभाव हो ऐसा नहीं कहा जा सकता।10। आत्मा को नित्य शुद्ध मानने वाले एकांतवादियों के मत में ठीक है कि प्राण वियोग से दु:खोत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वह आत्मा और शरीर का बंध स्वीकार नहीं करते। परंतु अनेकांतमत में ऐसा मान्य नहीं हो सकता।11।
पुराणकोष से
पांच पापों में प्रथम पाप-प्राणियों के प्राणों का प्रमादी होकर व्यवरोपण करना, कराना या करते हुए की अनुमोदना करना । महापुराण 2.23, पद्मपुराण -5. 341, हरिवंशपुराण - 58.127-129