उपाध्याय: Difference between revisions
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[[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या . ७४ रयणत्तयसंजुता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ।७४।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या . ७४ रयणत्तयसंजुता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ।७४।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= रत्नत्रयसे संयुक्त जिनकथित् पदार्थोंके शूरवीर उपदेशक और निःकांक्षभाव सहित; ऐसे उपाध्याय होते हैं।</p> | |||
([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ५३)।<br> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या ५११ वारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधे। उवदेसइ सज्झायं तेणूवज्झाय उच्चदि ।५११।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= बारह अंग चौदहपूर्व जो जिनदेवने कहे हैं उनको पण्डित जन स्वाध्याय कहते हैं। उस स्वाध्यायका उपदेश करता है, इसलिए वह उपाध्याय कहलाता है।</p> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,१/३२/५० चोद्दस-पुव्व-महोपहिमहिगमम सिवत्थिओ सिवत्थीणं। सीलंधराणं वत्ता होइ मुणीसो उवज्झायो ।३२।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= जो साधु चौदह पूर्वरूपी समुद्रमें प्रवेश करके अर्थात् परमागमका अभ्यास करके मोक्षमार्गमें स्थित हैं, तथा मोक्षके इच्छुक शीलंधरों अर्थात् मुनियोंको उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरोंको उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं।</p> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२४/४/६२३/१३ विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रतशीलभावनाधिष्ठानादागमं श्रुताख्यमधीयते इत्युपध्यायः।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= जिन व्रतशील भावनाशाली महानुभावके पास जाकर भव्य जन विनयपूर्वक श्रुतका अध्ययन करते हैं वे उपाध्याय हैं।</p> | |||
([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/२४/४४२/७); ([[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ४६/१५४/२०)।<br> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,१/५०/१ चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= चौदह विद्या स्थानोंके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं, अथवा तत्कालीन परमागमके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं। वे संग्रह अनुग्रह आदि गुणोंको छोड़कर पहिले कहे गये आचार्यके समस्त गुणोंसे युक्त होते हैं।</p> | |||
([[परमात्मप्रकाश]] / मूल या टीका अधिकार संख्या ७)।<br> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ६५९-६६२ उपाध्यायः समाधीयान् वादी स्याद्वादकोविदः। वाग्मी वाग्ब्रह्मसर्वज्ञः सिद्धान्तागमपारगः ।६५९। कविर्व्रत्यग्रसूत्राणां शब्दार्थैः सिद्धसाधनात्। गमकोऽर्यस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्त्मनाम् ।६६०। उपाध्यायत्वमित्यत्र श्रुताभ्यासोऽस्ति कारणम्। यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद्गुरुः ।६६१। शेषस्तत्र व्रतादीनां सर्वसाधारणो विधिः... ।६६२।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= उपाध्याय-शंका समाधान करनेवाला, सुवक्ता, वाग्ब्रह्म, सर्वज्ञ अर्थात् सिद्धान्त शास्त्र और यावत् आगमों का पारगामी, वार्तिक तथा सूत्रोंको शब्द और अर्थके द्वारा सिद्ध करनेवाला होनेसे कवि, अर्थमें मधुरताका द्योतक तथा वक्तृत्वके मार्ग का अग्रणी होता है ।६५९-६६०। उपाध्यायपनेमें शास्त्रका विशेष अभ्यास ही कारण है, क्योंकि जो स्वयं अध्ययन करता है और शिष्योंको भी अध्ययन कराता है वही गुरु उपाध्याय है ।६६१। उपाध्यायमें व्रतादिकके पालन करनेकी शेष विधि सर्व मुनियोंके समान है ।६६२।</p> | |||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> उपाध्यायके २५ विशेष गुण </LI> </OL> | |||
११ अंग व १४ पूर्वका ज्ञान होनेसे उपाध्यायके २५ विशेष गुण कहे जाते हैं। शेष २८ मूलगुण आदि समान रूपसे सभी साधुओंमें पाये जानेके कारण सामान्य गुण हैं।<br> | |||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> अन्य सम्बन्धित विषय </LI> </OL> | |||
<UL start=0 class="BulletedList"> <LI> उपाध्यायमें कथंचित् देवत्व - <b>देखे </b>[[देव]] I/१ </LI> | |||
<LI> आचार्य उपाध्याय साधुमें कथंचित् भेदाभेद - <b>देखे </b>[[साधु]] ६ </LI> | |||
<LI> श्रेणी आरोहणके समय उपाध्याय पदका त्याग - <b>देखे </b>[[साधु]] ६ </LI> </UL> | |||
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Revision as of 07:09, 26 May 2009
नियमसार / मूल या टीका गाथा संख्या . ७४ रयणत्तयसंजुता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ।७४।
= रत्नत्रयसे संयुक्त जिनकथित् पदार्थोंके शूरवीर उपदेशक और निःकांक्षभाव सहित; ऐसे उपाध्याय होते हैं।
(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ५३)।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ५११ वारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधे। उवदेसइ सज्झायं तेणूवज्झाय उच्चदि ।५११।
= बारह अंग चौदहपूर्व जो जिनदेवने कहे हैं उनको पण्डित जन स्वाध्याय कहते हैं। उस स्वाध्यायका उपदेश करता है, इसलिए वह उपाध्याय कहलाता है।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१/३२/५० चोद्दस-पुव्व-महोपहिमहिगमम सिवत्थिओ सिवत्थीणं। सीलंधराणं वत्ता होइ मुणीसो उवज्झायो ।३२।
= जो साधु चौदह पूर्वरूपी समुद्रमें प्रवेश करके अर्थात् परमागमका अभ्यास करके मोक्षमार्गमें स्थित हैं, तथा मोक्षके इच्छुक शीलंधरों अर्थात् मुनियोंको उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरोंको उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/२४/४/६२३/१३ विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रतशीलभावनाधिष्ठानादागमं श्रुताख्यमधीयते इत्युपध्यायः।
= जिन व्रतशील भावनाशाली महानुभावके पास जाकर भव्य जन विनयपूर्वक श्रुतका अध्ययन करते हैं वे उपाध्याय हैं।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/२४/४४२/७); (भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४६/१५४/२०)।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१/५०/१ चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः।
= चौदह विद्या स्थानोंके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं, अथवा तत्कालीन परमागमके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं। वे संग्रह अनुग्रह आदि गुणोंको छोड़कर पहिले कहे गये आचार्यके समस्त गुणोंसे युक्त होते हैं।
(परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार संख्या ७)।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ६५९-६६२ उपाध्यायः समाधीयान् वादी स्याद्वादकोविदः। वाग्मी वाग्ब्रह्मसर्वज्ञः सिद्धान्तागमपारगः ।६५९। कविर्व्रत्यग्रसूत्राणां शब्दार्थैः सिद्धसाधनात्। गमकोऽर्यस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्त्मनाम् ।६६०। उपाध्यायत्वमित्यत्र श्रुताभ्यासोऽस्ति कारणम्। यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद्गुरुः ।६६१। शेषस्तत्र व्रतादीनां सर्वसाधारणो विधिः... ।६६२।
= उपाध्याय-शंका समाधान करनेवाला, सुवक्ता, वाग्ब्रह्म, सर्वज्ञ अर्थात् सिद्धान्त शास्त्र और यावत् आगमों का पारगामी, वार्तिक तथा सूत्रोंको शब्द और अर्थके द्वारा सिद्ध करनेवाला होनेसे कवि, अर्थमें मधुरताका द्योतक तथा वक्तृत्वके मार्ग का अग्रणी होता है ।६५९-६६०। उपाध्यायपनेमें शास्त्रका विशेष अभ्यास ही कारण है, क्योंकि जो स्वयं अध्ययन करता है और शिष्योंको भी अध्ययन कराता है वही गुरु उपाध्याय है ।६६१। उपाध्यायमें व्रतादिकके पालन करनेकी शेष विधि सर्व मुनियोंके समान है ।६६२।
- उपाध्यायके २५ विशेष गुण
११ अंग व १४ पूर्वका ज्ञान होनेसे उपाध्यायके २५ विशेष गुण कहे जाते हैं। शेष २८ मूलगुण आदि समान रूपसे सभी साधुओंमें पाये जानेके कारण सामान्य गुण हैं।
- अन्य सम्बन्धित विषय