अग्नि: Difference between revisions
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[[ज्ञानसार]] श्लोक संख्या ५७ अग्निः त्रिकोणः रक्तः। <br><p class="HindiSentence">= अग्नि त्रिकोण व लाल होती है।</p> | [[ज्ञानसार]] श्लोक संख्या ५७ अग्निः त्रिकोणः रक्तः। <br> | ||
<p class="HindiSentence">= अग्नि त्रिकोण व लाल होती है।</p> | |||
१. अग्नि के अंगारादि भेद<br> | |||
[[मूलाचार]] गाथा संख्या २२१ इगालजालअच्ची मुम्मुरसुद्धागणी य अगणी य। ते जाण तेउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= धुआँ रहित अंगार, ज्वाला, दीपक की लौ, कंडाकी आग और वज्राग्नि, बिजली आदिसे उत्पन्न शुद्ध अग्नि, सामान्य अग्नि-ये तेजस्कायिक जीव हैं, इनको जानकर इनकी हिंसाका त्याग करना चाहिए </p> | |||
(आचारांग निर्युक्ति १६६) ([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/७९) ([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,४२/२७३/गा.१५१) ([[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ६०८/८०५) ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/६४)।<br> | |||
२. गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उपयोग<br> | |||
[[महापुराण]] सर्ग संख्या ४०/८२-९० त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारम्भे द्विजोत्तमैः। रत्नत्रितयसंकल्पादग्नीन्द्रमुकुटोद्भवाः ।।८२।। तीर्थकृद्गणभृच्छेषकेवल्यन्तमहोत्सवे। पूजाङ्गत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ।।८३।। कुण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निः प्रसिद्धयः ।।८४।। अस्मिन्नग्नित्रये पूजां मन्त्रैः कुर्वन्न द्विजोत्तमः। आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ।।८५।। हविष्याके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधौ। वह्नीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ।।८६।। प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे। नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ।।८७।। न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा। किन्त्वर्हद्दिव्यमूर्तीज्यासंबन्धात् पावनोऽनलः ।।८८।। ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजातो न दुष्यति ।।८९।। व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः। जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ।।९०।। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= क्रियाओं के प्रारंभ में उत्तम द्विजों को रत्नत्रय का संकल्प कर अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन प्रकारकी अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ।।८२।। ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के अन्तिम अर्थात् निर्वाणोत्सवमें पूजा का अंग होकर अत्यन्त पवित्रता को प्राप्त हुई मानी जाती है ।।८३।। गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नामसे प्रसिद्ध इन तीनों महाग्नियों को तीन कुण्डोंमें स्थापित करना चाहिए ।।८४।। इन तीनों प्रकार की अग्नियों में मन्त्रों के द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है। और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि व अग्निहोत्री कहलाता है ।।८५।। नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकारकी अग्नियों का विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप खेने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्निसे नैवेद्य पकाया जाता है, आहवनीय अग्निमें धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्नि से दीप जलाया जाता है ।।८६।। घरमें बड़े प्रयत्न से इन तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगों को कभी नहीं देनी चाहिए ।।८७।। अग्निमें स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवता रूप ही है किन्तु अर्हन्त देवकी दिव्य मूर्तिकी पूजा के सम्बन्ध से वह अग्नि पवित्र हो जाती है ।।८८।। इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतः निर्वाण क्षेत्रकी पूजा के समान अग्नि की पूजा करने में कोई दोष नहीं है ।।८९।। ब्राह्मणों को व्यवहार नय की अपेक्षा ही अग्निकी पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणों को भी आज यह व्यवहार नय उपयोग में लाना चाहिए ।।९०।। </p> | |||
(और भी देखो यज्ञ में आर्ष यज्ञ) (<b>देखे </b>[[मोक्ष]] ५/१) ([[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ८/१८५६)।<br> | |||
• अर्हत्पूजा से ही अग्नि पवित्र है स्वयं नहीं – दे अग्नि २।<br> | |||
३. क्रोधादि तीन अग्नियों का निर्देश<br> | |||
[[महापुराण]] सर्ग संख्या ६७/२०२-२०३ त्रयोऽग्नयः समुद्दिष्टा क्रोधकामोदराग्नयः। तेषु क्षमाविरागत्वानशनाहुतिभिर्वने ।।२०२।। स्थित्वर्षियतिमुन्यस्तशरणाः परमद्विजाः। इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थमष्टमीमवनीं ययुः ।।२०३।। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= क्रोधाग्नि कामाग्नि और उदराग्नि ये तीन अग्नियाँ बतलायी गयी हैं। इनमें क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियाँ देनेवाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वनमें निवास करते हैं वे आत्मयज्ञ कर इष्ट अर्थ की देनेवाली अष्टम पृथिवी मोक्ष-स्थानको प्राप्त होते हैं।</p> | |||
४. पंचाग्नि का अर्थ पंचाचार<br> | |||
पंचमहागुरु भक्ति-पंचहाचार-पंचग्गिसंसाहया.....सूरिणो दिंतु मोक्खंगयासंगया। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= जो पंचाचार रूप पंचाग्नि के साधक हैं....वे आचार्य परमेष्ठी हमें उत्कृष्ट मोक्ष लक्ष्मी देवें। </p> | |||
(विशेष <b>देखे </b>[[पंचाचार)]] ।<br> | |||
५. प्राणायाम सम्बन्धी अग्निमण्डल<br> | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २९/२२,२७/२८८ स्फुलिङ्गपिङ्गलं भीममूर्ध्वज्वालाशतार्चितम्। त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं तद्बीजं वह्निमण्डलम् ।।२२।। बालार्कसंनि- <br> | |||
भश्चोर्ध्वं सावर्त्तश्चतुरङ्गुलः। अत्युष्णो ज्वलनाभिख्यः पवनः कीर्तितो बुधैः ।२७। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= अग्निके स्फुलिंग समान पिंगल वर्ण भीम रौद्र रूप ऊर्ध्वगमन स्वरूप सैकड़ों ज्वालाओं सहित त्रिकोणाकार स्वस्तिक (साथिये) सहित, वह्निबीज से मण्डित ऐसा वह्निमण्डल है ।२२। जो उगते हुए सूर्य के समान रक्त वर्ण हो तथा ऊँचा चलता हो, आवर्तों (चक्रों) सहित फिरता हुआ चले, चार अंगुल बाहर आवे और अति ऊष्ण हो ऐसा अग्निमण्डल का पवन पण्डितोंने कहा है।</p> | |||
६. आग्नेयी धारणा का लक्षण<br> | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या ३७/१०-१९/३८२ ततोअसौ निश्चलाभ्यासात्कमलं नाभिमण्डले। स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ।१०। प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम्। कर्णिकायां महामन्त्रं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ।११। रेफरुद्धं कलाबिन्दुलाञ्छितं शून्यमक्षरम्। लसदिन्दुच्छटाकोटिकान्तिव्याप्तहरिन्मुखम् ।१२। तस्य रेफाद्विनिर्यान्ती शनैर्धूमशिखां स्मरेत्। स्फुलिङ्गसंततिं पश्चाज्ज्वालालीं तदनन्तरम् ।१३। तेन ज्वालाकलापेन वर्धमानेन संततम्। दहत्यविरतं धीरः पुण्डरीकं हृदिस्थितम् ।१४। तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम्। दहत्येव महामन्त्रध्यानोत्थः प्रबलोअनलः ।१५। ततो बहिः शरीरस्य त्रिकोणं वह्निमण्डलम्। स्मरेज्ज्वालाकलापेन ज्वलन्तमिव वाडवम् ।१६। वह्निबीजसमाक्रान्तं पर्यन्ते स्वस्तिकाङ्कितम्। ऊर्ध्ववायुपुरोद्भूतं निर्धूमं काञ्चनप्रभम् ।१७। अन्तर्दहति मन्त्रार्चिर्बहिर्वह्निपुरं पुरम्। धगद्धगितिविस्फूर्जज्वालाप्रचयभासुरम् ।१८। भस्मभावमसौ नीत्वा शरीरं तच्च पङ्कजम्। दाह्याभावात्स्वयं शान्तिं याति वह्निः शनैः शनैः ।१९। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= तत्पश्चात् (पार्थिवी धारणा के) योगी (ध्यानी) निश्चल अभ्यास से अपने नाभिमण्डल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्रों के एक मनोहर कमल का ध्यान करै ।१०। तत्पश्चात् उस कमल की कर्णिका में महामन्त्र का (जो आगे कहा जाता है उसका) चिन्तवन करे और उस कमल के सोलह पत्रों पर `अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अं अः इन १६ अक्षरों का ध्यान करै ।११। रेफ से रुद्ध कहिए आवृत और कला तथा बिन्दु से चिह्नित और शून्य कहिए हकार ऐसा अक्षर लसत कहिए दैदीप्यमान होते हुए बिन्दु की छटाकोटिकी कान्ति से व्याप्त किया है दिशा का मुख जिसने ऐसा महामन्त्र "हं" उस कमल की कर्णिका में स्थापन कर, चिन्तवन करै ।१२। तत्पश्चात् उस महामन्त्र के रेफ से मन्द-मन्द निकलती हुई धूम (धुएँ) की शिखा का चिन्तवन करै। तत्पश्चात् उसमें से अनुक्रम से प्रवाह रूप निकलते हुए स्फुलिंगों की पंक्ति का चिन्तवन करै और पश्चात् उसमें से निकलती हुई ज्वाला की लपटों को विचारै ।१३। तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम से बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से अपने हृदयस्थ कमल को निरन्तर जलाता हुआ चिन्तवन करै ।१४। वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ पत्र का है। इन आठ पत्रों पर आठ कर्म स्थित हों। ऐसे नाभिस्थ कमल की कर्णिका में स्थित "र्हं" महामन्त्र के ध्यान से उठी हुई। प्रबल अग्नि निरन्तर दहती है, इस प्रकार चिन्तवन करै, तब अष्ट कर्म जल जाते हैं, यह चैतन्य परिणामों की सामर्थ्य है ।१५। उस कमल के दग्ध हुए पश्चात् शरीर के बाह्य त्रिकोण वह्नि का चिन्तवन करै, सो ज्वाला के समूह से जलते हुए बडवानल के समान ध्यान करै ।१६। तथा अग्नि बीजाक्षर `र' से व्याप्त और अन्त में साथिया के चिह्न से चिह्नित हो, ऊर्ध्व वायुमण्डल से उत्पन्न धूम रहित कांचन की-सी प्रभावाला चिन्तवन करै ।१७। इस प्रकार वह धगधगायमान फैलती हुई लपटों के समूहों से दैदीप्यमान बाहर का अग्निपुर (अग्निमण्डल) अन्तरंग की मन्त्राग्नि को दग्ध करता है ।१८। तत्पश्चात् यह अग्निमण्डल उस नाभिस्थ कमल और शरीरको भस्मीभूत करके दाह्य का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाता है ।१९। </p> | |||
([[तत्त्वानुशासन]] श्लोक संख्या १८४)<br> | |||
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Revision as of 12:17, 1 May 2009
ज्ञानसार श्लोक संख्या ५७ अग्निः त्रिकोणः रक्तः।
= अग्नि त्रिकोण व लाल होती है।
१. अग्नि के अंगारादि भेद
मूलाचार गाथा संख्या २२१ इगालजालअच्ची मुम्मुरसुद्धागणी य अगणी य। ते जाण तेउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा।
= धुआँ रहित अंगार, ज्वाला, दीपक की लौ, कंडाकी आग और वज्राग्नि, बिजली आदिसे उत्पन्न शुद्ध अग्नि, सामान्य अग्नि-ये तेजस्कायिक जीव हैं, इनको जानकर इनकी हिंसाका त्याग करना चाहिए
(आचारांग निर्युक्ति १६६) ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/७९) (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,४२/२७३/गा.१५१) (भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ६०८/८०५) (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या २/६४)।
२. गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उपयोग
महापुराण सर्ग संख्या ४०/८२-९० त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारम्भे द्विजोत्तमैः। रत्नत्रितयसंकल्पादग्नीन्द्रमुकुटोद्भवाः ।।८२।। तीर्थकृद्गणभृच्छेषकेवल्यन्तमहोत्सवे। पूजाङ्गत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ।।८३।। कुण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निः प्रसिद्धयः ।।८४।। अस्मिन्नग्नित्रये पूजां मन्त्रैः कुर्वन्न द्विजोत्तमः। आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ।।८५।। हविष्याके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधौ। वह्नीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ।।८६।। प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे। नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ।।८७।। न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा। किन्त्वर्हद्दिव्यमूर्तीज्यासंबन्धात् पावनोऽनलः ।।८८।। ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजातो न दुष्यति ।।८९।। व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः। जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ।।९०।।
= क्रियाओं के प्रारंभ में उत्तम द्विजों को रत्नत्रय का संकल्प कर अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन प्रकारकी अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ।।८२।। ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के अन्तिम अर्थात् निर्वाणोत्सवमें पूजा का अंग होकर अत्यन्त पवित्रता को प्राप्त हुई मानी जाती है ।।८३।। गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नामसे प्रसिद्ध इन तीनों महाग्नियों को तीन कुण्डोंमें स्थापित करना चाहिए ।।८४।। इन तीनों प्रकार की अग्नियों में मन्त्रों के द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है। और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि व अग्निहोत्री कहलाता है ।।८५।। नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकारकी अग्नियों का विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप खेने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्निसे नैवेद्य पकाया जाता है, आहवनीय अग्निमें धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्नि से दीप जलाया जाता है ।।८६।। घरमें बड़े प्रयत्न से इन तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगों को कभी नहीं देनी चाहिए ।।८७।। अग्निमें स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवता रूप ही है किन्तु अर्हन्त देवकी दिव्य मूर्तिकी पूजा के सम्बन्ध से वह अग्नि पवित्र हो जाती है ।।८८।। इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतः निर्वाण क्षेत्रकी पूजा के समान अग्नि की पूजा करने में कोई दोष नहीं है ।।८९।। ब्राह्मणों को व्यवहार नय की अपेक्षा ही अग्निकी पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणों को भी आज यह व्यवहार नय उपयोग में लाना चाहिए ।।९०।।
(और भी देखो यज्ञ में आर्ष यज्ञ) (देखे मोक्ष ५/१) (भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ८/१८५६)।
• अर्हत्पूजा से ही अग्नि पवित्र है स्वयं नहीं – दे अग्नि २।
३. क्रोधादि तीन अग्नियों का निर्देश
महापुराण सर्ग संख्या ६७/२०२-२०३ त्रयोऽग्नयः समुद्दिष्टा क्रोधकामोदराग्नयः। तेषु क्षमाविरागत्वानशनाहुतिभिर्वने ।।२०२।। स्थित्वर्षियतिमुन्यस्तशरणाः परमद्विजाः। इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थमष्टमीमवनीं ययुः ।।२०३।।
= क्रोधाग्नि कामाग्नि और उदराग्नि ये तीन अग्नियाँ बतलायी गयी हैं। इनमें क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियाँ देनेवाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वनमें निवास करते हैं वे आत्मयज्ञ कर इष्ट अर्थ की देनेवाली अष्टम पृथिवी मोक्ष-स्थानको प्राप्त होते हैं।
४. पंचाग्नि का अर्थ पंचाचार
पंचमहागुरु भक्ति-पंचहाचार-पंचग्गिसंसाहया.....सूरिणो दिंतु मोक्खंगयासंगया।
= जो पंचाचार रूप पंचाग्नि के साधक हैं....वे आचार्य परमेष्ठी हमें उत्कृष्ट मोक्ष लक्ष्मी देवें।
(विशेष देखे पंचाचार) ।
५. प्राणायाम सम्बन्धी अग्निमण्डल
ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २९/२२,२७/२८८ स्फुलिङ्गपिङ्गलं भीममूर्ध्वज्वालाशतार्चितम्। त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं तद्बीजं वह्निमण्डलम् ।।२२।। बालार्कसंनि-
भश्चोर्ध्वं सावर्त्तश्चतुरङ्गुलः। अत्युष्णो ज्वलनाभिख्यः पवनः कीर्तितो बुधैः ।२७।
= अग्निके स्फुलिंग समान पिंगल वर्ण भीम रौद्र रूप ऊर्ध्वगमन स्वरूप सैकड़ों ज्वालाओं सहित त्रिकोणाकार स्वस्तिक (साथिये) सहित, वह्निबीज से मण्डित ऐसा वह्निमण्डल है ।२२। जो उगते हुए सूर्य के समान रक्त वर्ण हो तथा ऊँचा चलता हो, आवर्तों (चक्रों) सहित फिरता हुआ चले, चार अंगुल बाहर आवे और अति ऊष्ण हो ऐसा अग्निमण्डल का पवन पण्डितोंने कहा है।
६. आग्नेयी धारणा का लक्षण
ज्ञानार्णव अधिकार संख्या ३७/१०-१९/३८२ ततोअसौ निश्चलाभ्यासात्कमलं नाभिमण्डले। स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ।१०। प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम्। कर्णिकायां महामन्त्रं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ।११। रेफरुद्धं कलाबिन्दुलाञ्छितं शून्यमक्षरम्। लसदिन्दुच्छटाकोटिकान्तिव्याप्तहरिन्मुखम् ।१२। तस्य रेफाद्विनिर्यान्ती शनैर्धूमशिखां स्मरेत्। स्फुलिङ्गसंततिं पश्चाज्ज्वालालीं तदनन्तरम् ।१३। तेन ज्वालाकलापेन वर्धमानेन संततम्। दहत्यविरतं धीरः पुण्डरीकं हृदिस्थितम् ।१४। तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम्। दहत्येव महामन्त्रध्यानोत्थः प्रबलोअनलः ।१५। ततो बहिः शरीरस्य त्रिकोणं वह्निमण्डलम्। स्मरेज्ज्वालाकलापेन ज्वलन्तमिव वाडवम् ।१६। वह्निबीजसमाक्रान्तं पर्यन्ते स्वस्तिकाङ्कितम्। ऊर्ध्ववायुपुरोद्भूतं निर्धूमं काञ्चनप्रभम् ।१७। अन्तर्दहति मन्त्रार्चिर्बहिर्वह्निपुरं पुरम्। धगद्धगितिविस्फूर्जज्वालाप्रचयभासुरम् ।१८। भस्मभावमसौ नीत्वा शरीरं तच्च पङ्कजम्। दाह्याभावात्स्वयं शान्तिं याति वह्निः शनैः शनैः ।१९।
= तत्पश्चात् (पार्थिवी धारणा के) योगी (ध्यानी) निश्चल अभ्यास से अपने नाभिमण्डल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्रों के एक मनोहर कमल का ध्यान करै ।१०। तत्पश्चात् उस कमल की कर्णिका में महामन्त्र का (जो आगे कहा जाता है उसका) चिन्तवन करे और उस कमल के सोलह पत्रों पर `अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अं अः इन १६ अक्षरों का ध्यान करै ।११। रेफ से रुद्ध कहिए आवृत और कला तथा बिन्दु से चिह्नित और शून्य कहिए हकार ऐसा अक्षर लसत कहिए दैदीप्यमान होते हुए बिन्दु की छटाकोटिकी कान्ति से व्याप्त किया है दिशा का मुख जिसने ऐसा महामन्त्र "हं" उस कमल की कर्णिका में स्थापन कर, चिन्तवन करै ।१२। तत्पश्चात् उस महामन्त्र के रेफ से मन्द-मन्द निकलती हुई धूम (धुएँ) की शिखा का चिन्तवन करै। तत्पश्चात् उसमें से अनुक्रम से प्रवाह रूप निकलते हुए स्फुलिंगों की पंक्ति का चिन्तवन करै और पश्चात् उसमें से निकलती हुई ज्वाला की लपटों को विचारै ।१३। तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम से बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से अपने हृदयस्थ कमल को निरन्तर जलाता हुआ चिन्तवन करै ।१४। वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ पत्र का है। इन आठ पत्रों पर आठ कर्म स्थित हों। ऐसे नाभिस्थ कमल की कर्णिका में स्थित "र्हं" महामन्त्र के ध्यान से उठी हुई। प्रबल अग्नि निरन्तर दहती है, इस प्रकार चिन्तवन करै, तब अष्ट कर्म जल जाते हैं, यह चैतन्य परिणामों की सामर्थ्य है ।१५। उस कमल के दग्ध हुए पश्चात् शरीर के बाह्य त्रिकोण वह्नि का चिन्तवन करै, सो ज्वाला के समूह से जलते हुए बडवानल के समान ध्यान करै ।१६। तथा अग्नि बीजाक्षर `र' से व्याप्त और अन्त में साथिया के चिह्न से चिह्नित हो, ऊर्ध्व वायुमण्डल से उत्पन्न धूम रहित कांचन की-सी प्रभावाला चिन्तवन करै ।१७। इस प्रकार वह धगधगायमान फैलती हुई लपटों के समूहों से दैदीप्यमान बाहर का अग्निपुर (अग्निमण्डल) अन्तरंग की मन्त्राग्नि को दग्ध करता है ।१८। तत्पश्चात् यह अग्निमण्डल उस नाभिस्थ कमल और शरीरको भस्मीभूत करके दाह्य का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाता है ।१९।
(तत्त्वानुशासन श्लोक संख्या १८४)