शरीर व शरीर नामकर्म निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HeadingTitle"><strong class="HindiText" id="I.1" name="I.1">1. शरीर सामान्य का लक्षण</strong></p> | <p class="HeadingTitle"><strong class="HindiText" id="I.1" name="I.1">1. शरीर सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
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सर्वार्थसिद्धि/9/36/191/4 <span class="SanskritText">विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो विशेष नामकर्म के उदय से प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात् गलते हैं वे शरीर हैं।</span></p> | <span class="HindiText">=जो विशेष नामकर्म के उदय से प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात् गलते हैं वे शरीर हैं।</span></p> | ||
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धवला 14/5,6,512/434/13 <span class="SanskritText">सरीरं सहावो सीलमिदि एयट्ठा।...अणंताणंतपोग्गलसमवाओ सरीरं।</span> | |||
<span class="HindiText">=शरीर, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं।...अनन्तानन्त पुद्गलों के समवाय का नाम शरीर है।</span></p> | <span class="HindiText">=शरीर, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं।...अनन्तानन्त पुद्गलों के समवाय का नाम शरीर है।</span></p> | ||
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द्रव्यसंग्रह टीका/35/107/3 <span class="SanskritText">शरीरं कोऽर्थ: स्वरूपम् ।</span> | |||
<span class="HindiText">=शरीर शब्द का अर्थ स्वरूप है।</span></p> | <span class="HindiText">=शरीर शब्द का अर्थ स्वरूप है।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText HeadingTitle" id="I.2" name="I.2">2. शरीर नामकर्म का लक्षण</strong></p> | <strong class="HindiText HeadingTitle" id="I.2" name="I.2">2. शरीर नामकर्म का लक्षण</strong></p> | ||
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सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/6 <span class="SanskritText">यदुदयादात्मन: शरीरनिर्वृतिस्तच्छरीरनाम।</span> | |||
<span class="HindiText">=जिसके उदय से आत्मा के शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। ( | <span class="HindiText">=जिसके उदय से आत्मा के शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/3/576/14 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/20 )।</span></p> | ||
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धवला 6/1,9-1,28/52/6 <span class="SanskritText">जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाए पोग्गलखंधा तेजा-कम्मइयवग्गणपोग्गलखंधा च सरीरजोग्गपरिणामेहि परिणदा संता जीवेण संबज्झंति तस्स कम्मक्खंधस्स शरीरमिदि सण्णा।</span> | |||
<span class="HindiText">=जिस कर्म के उदय से आहार वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध तथा तैजस और कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध शरीर योग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं उस कर्म स्कन्ध की 'शरीर' यह संज्ञा है। ( | <span class="HindiText">=जिस कर्म के उदय से आहार वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध तथा तैजस और कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध शरीर योग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं उस कर्म स्कन्ध की 'शरीर' यह संज्ञा है। ( धवला 13/5,5,101/363/12 )</span></p> | ||
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<strong class="HindiText HeadingTitle" id="I.3" name="I.3">3. शरीर व शरीर नामकर्म के भेद</strong></p> | <strong class="HindiText HeadingTitle" id="I.3" name="I.3">3. शरीर व शरीर नामकर्म के भेद</strong></p> | ||
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षट्खण्डागम 6/1,9-1/ सू.31/68 <span class="SanskritText">जं तं सरीरणामकम्मं तं पंचविहं ओरालियसरीरणामं वेउव्वियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेयासरीरणामं कम्मइयसरीरणामं चेदि।31।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो शरीर नामकर्म है वह पाँच प्रकार है-औदारिक शरीरनामकर्म, वैक्रियक शरीर नामकर्म, आहारकशरीर नामकर्म, तैजस शरीरनामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म।31। ( | <span class="HindiText">=जो शरीर नामकर्म है वह पाँच प्रकार है-औदारिक शरीरनामकर्म, वैक्रियक शरीर नामकर्म, आहारकशरीर नामकर्म, तैजस शरीरनामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म।31। ( षट्खण्डागम 13/5,5/ सू.104/367) ( षट्खण्डागम 14/5,6/ सू.44/46) ( प्रवचनसार/171 ) ( तत्त्वार्थसूत्र/2/36 ) ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/9 ) (पं.सं./2/4/47/6) ( राजवार्तिक/5/24/9/488/2 ) ( राजवार्तिक/8/11/3/576/15 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/20 )</span></p> | ||
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<strong class="HindiText HeadingTitle" id="I.4" name="I.4">4. शरीरों में प्रदेशों की उत्तरोत्तर तरतमता</strong></p> | <strong class="HindiText HeadingTitle" id="I.4" name="I.4">4. शरीरों में प्रदेशों की उत्तरोत्तर तरतमता</strong></p> | ||
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तत्त्वार्थसूत्र/2/38-39 प्रदेशोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसान् ।38। अनन्तगुणे परे।39।</p> | |||
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सर्वार्थसिद्धि/2/38-39/192-193/8,3 <span class="SanskritText">औदारिकादसंख्येयगुणप्रदेशं वैक्रियिकम् । वैक्रियिकादसंख्येयगुणप्रदेशमाहारकमिति। को गुणकार:। पल्योपमासंख्येय भाग:। (192/8) आहारकात्तैजसं प्रदेशतोऽनन्तगुणम्, तैजसात्कार्मणं प्रदेशतोऽनन्तगुणमिति। को गुणकार:। अभव्यानामनन्तागुण: सिद्धानामनन्तभाग:।</span> | |||
<span class="HindiText">=तैजस से पूर्व तीन-तीन शरीरों में आगे-आगे का शरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणा है।38। परवर्ती दो शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं।39। अर्थात् औदारिक से वैक्रियिक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेश वाला है, और वैक्रियिक से आहारक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेश वाला है। गुणकार का प्रमाण पल्य का असंख्यातवाँ भाग है (192/8) परन्तु आहारक शरीर से तैजस शरीर के प्रदेश अनन्तगुणे हैं, और तैजस शरीर से कार्मण शरीर के प्रदेश अनन्तगुणे अधिक हैं। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों का अनन्तवाँ भाग गुणकार है। ( | <span class="HindiText">=तैजस से पूर्व तीन-तीन शरीरों में आगे-आगे का शरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणा है।38। परवर्ती दो शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं।39। अर्थात् औदारिक से वैक्रियिक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेश वाला है, और वैक्रियिक से आहारक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेश वाला है। गुणकार का प्रमाण पल्य का असंख्यातवाँ भाग है (192/8) परन्तु आहारक शरीर से तैजस शरीर के प्रदेश अनन्तगुणे हैं, और तैजस शरीर से कार्मण शरीर के प्रदेश अनन्तगुणे अधिक हैं। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों का अनन्तवाँ भाग गुणकार है। ( राजवार्तिक/2/38-39/4,1/148/4,15 ) ( धवला 9/4,1,2/37/1 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/246/510/10 ) (और भी | ||
देखें [[ अल्पबहुत्व ]])</span></p> | देखें [[ अल्पबहुत्व ]])</span></p> | ||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.5" name="I.5">5. शरीरों में परस्पर उत्तरोत्तर सूक्ष्मता व तत्सम्बन्धी शंका समाधान</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.5" name="I.5">5. शरीरों में परस्पर उत्तरोत्तर सूक्ष्मता व तत्सम्बन्धी शंका समाधान</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> | <span class="SanskritText"> तत्त्वार्थसूत्र/2/37,40 परं परं सूक्ष्मम् ।37। अप्रतिघाते।40।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> | <span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि 2/37/192/1 औदारिकं स्थूलम्, तत: सूक्ष्मं वैक्रियिकम् तत: सूक्ष्मं आहारकम्, तत: सूक्ष्मं तैजसम्, तैजसात्कार्मणं सूक्ष्ममिति।</span> | ||
<span class="HindiText">=आगे-आगे का शरीर सूक्ष्म है।37। कार्मण व तैजस शरीर प्रतीघात रहित हैं।40। अर्थात् औदारिक शरीर स्थूल है, इससे वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म है। इससे आहारक शरीर सूक्ष्म है, इससे तैजस शरीर सूक्ष्म है और इससे कार्मण शरीर सूक्ष्म है।</span></p> | <span class="HindiText">=आगे-आगे का शरीर सूक्ष्म है।37। कार्मण व तैजस शरीर प्रतीघात रहित हैं।40। अर्थात् औदारिक शरीर स्थूल है, इससे वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म है। इससे आहारक शरीर सूक्ष्म है, इससे तैजस शरीर सूक्ष्म है और इससे कार्मण शरीर सूक्ष्म है।</span></p> | ||
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गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/246/510/15 <span class="SanskritText">यद्येवं तर्हि वैक्रियिकादिशरीराणां उत्तरोत्तरं प्रदेशाधिक्येन स्थूलत्वं प्रसज्यते इत्याशङ्क्य परं परं सूक्ष्मं भवतीत्युक्तं। यद्यपि वैक्रियिकाद्युत्तरोत्तरशरीराणां बहुपरमाणुसंचयत्वं तथापि बन्धपरिणतिविशेषेण सूक्ष्मसूक्ष्मावगाहनसंभव: कार्पसपिण्डाय:पिण्डवन्न विरुध्यते खल्विति निश्चेतव्यं।</span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>-यदि औदारिकादि शरीरों में उत्तरोत्तर प्रदेश अधिक हैं तो उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्थूलता हो जायेगी। <strong>उत्तर</strong>-ऐसी आशंका अयुक्त है, क्योंकि वे सब उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। यद्यपि वैक्रियिक आदि शरीरों में परमाणुओं का संचय तो अधिक-अधिक है तथापि स्कन्ध बन्धन में विशेष है। जैसे-कपास के पिण्ड से लोहे के पिण्ड में प्रदेशपना अधिक होने पर भी क्षेत्र थोड़ा रोकता है तैसे जानना।</span></p> | <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>-यदि औदारिकादि शरीरों में उत्तरोत्तर प्रदेश अधिक हैं तो उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्थूलता हो जायेगी। <strong>उत्तर</strong>-ऐसी आशंका अयुक्त है, क्योंकि वे सब उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। यद्यपि वैक्रियिक आदि शरीरों में परमाणुओं का संचय तो अधिक-अधिक है तथापि स्कन्ध बन्धन में विशेष है। जैसे-कपास के पिण्ड से लोहे के पिण्ड में प्रदेशपना अधिक होने पर भी क्षेत्र थोड़ा रोकता है तैसे जानना।</span></p> | ||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.6" name="I.6">6. शरीर के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.6" name="I.6">6. शरीर के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान</strong></p> | ||
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राजवार्तिक/2/36/2-3/145/25 <span class="SanskritText">यदि शीर्यन्त इति शरीराणि घटादीनामपि विशरणमस्तीति शरीरत्वमतिप्रसज्येत; तन्न; किं कारणम् । नामकर्मनिमित्तत्वाभावात् ।2। विग्रहाभाव इति चेत्; न; रूढिशब्देष्वपि व्युत्पत्तौ क्रियाश्रयात् ।3।</span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>-यदि जो शीर्ण हों वे शरीर हैं, तो घटादि पदार्थ भी विशरणशील हैं, उनको भी शरीरपना प्राप्त हो जायेगा। <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि उनमें नामकर्मोदय निमित्त नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>-इस लक्षण से तो विग्रहगति में शरीर के अभाव का प्रसंग आता है ? <strong>उत्तर</strong>-रूढि से वहाँ पर भी कहा जाता है।</span></p> | <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>-यदि जो शीर्ण हों वे शरीर हैं, तो घटादि पदार्थ भी विशरणशील हैं, उनको भी शरीरपना प्राप्त हो जायेगा। <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि उनमें नामकर्मोदय निमित्त नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>-इस लक्षण से तो विग्रहगति में शरीर के अभाव का प्रसंग आता है ? <strong>उत्तर</strong>-रूढि से वहाँ पर भी कहा जाता है।</span></p> | ||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.7" name="I.7">7. शरीर में करण (कारण) पना कैसे सम्भव है</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.7" name="I.7">7. शरीर में करण (कारण) पना कैसे सम्भव है</strong></p> | ||
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धवला 9/4,1,68/325/1 <span class="SanskritText">करणेसु जं पढमं करणं पंचसरीरप्ययं तं मूलकरणं। कधं सरीरस्स मूलत्तं। ण, सेसकरणाणमेदम्हादो पउत्तीए शरीरस्स मूलत्तं पडिविरोहाभावादो। जीवादो कत्तारादो अभिण्णत्तणेण कत्तारत्तमुपगयस्स कधं करणत्तं। ण जीवादो सरीरस्स कधंचि भेदुवलंभादो। अभेदे वा चेयणत्त-णिच्चत्तादिजीवगुणा सरीरे वि होंति। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तदो सरीरस्स करणत्तं ण विरुज्झदे। सेसकारयभावे सरीरम्मि संते सरीरं करणमेवेत्ति किमिदि उच्चदे। ण एस दोसो, सुत्ते करणमेवे त्ति अवहारणाभावादो।</span> | |||
<span class="HindiText">=करणों में जो पाँच शरीररूप प्रथम करण है वह मूल करण है। <strong>प्रश्न</strong>-शरीर के मूलपना कैसे सम्भव है। <strong>उत्तर</strong>-चूँकि शेष करणों की प्रवृत्ति इस शरीर से होती है अत: शरीर को मूल करण मानने में कोई विरोध नहीं आता। <strong>प्रश्न</strong>-कर्ता रूप जीव से शरीर अभिन्न है, अत: कर्तापने को प्राप्त हुए शरीर के करणपना कैसे सम्भव है। <strong>उत्तर</strong>-यह कहना ठीक नहीं है। जीव से शरीर का कथंचित् भेद पाया जाता है। यदि जीव से शरीर को सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया जावे तो चेतनता और नित्यत्व आदि जीव के गुण शरीर में भी होने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीर में इन गुणों की उपलब्धि नहीं होती। इस कारण शरीर के करणपना विरुद्ध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>-शरीर में शेष कारक भी सम्भव हैं। ऐसी अवस्था में शरीर करण ही है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? <strong>उत्तर</strong>-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्र में 'शरीर करण ही है' ऐसा नियत नहीं किया गया है।</span></p> | <span class="HindiText">=करणों में जो पाँच शरीररूप प्रथम करण है वह मूल करण है। <strong>प्रश्न</strong>-शरीर के मूलपना कैसे सम्भव है। <strong>उत्तर</strong>-चूँकि शेष करणों की प्रवृत्ति इस शरीर से होती है अत: शरीर को मूल करण मानने में कोई विरोध नहीं आता। <strong>प्रश्न</strong>-कर्ता रूप जीव से शरीर अभिन्न है, अत: कर्तापने को प्राप्त हुए शरीर के करणपना कैसे सम्भव है। <strong>उत्तर</strong>-यह कहना ठीक नहीं है। जीव से शरीर का कथंचित् भेद पाया जाता है। यदि जीव से शरीर को सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया जावे तो चेतनता और नित्यत्व आदि जीव के गुण शरीर में भी होने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीर में इन गुणों की उपलब्धि नहीं होती। इस कारण शरीर के करणपना विरुद्ध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>-शरीर में शेष कारक भी सम्भव हैं। ऐसी अवस्था में शरीर करण ही है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? <strong>उत्तर</strong>-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्र में 'शरीर करण ही है' ऐसा नियत नहीं किया गया है।</span></p> | ||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.8" name="I.8">8. देह प्रमाणत्व शक्ति का लक्षण</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="I.8" name="I.8">8. देह प्रमाणत्व शक्ति का लक्षण</strong></p> | ||
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पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/28 <span class="SanskritText">अतीतानन्तशरीरमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं।</span><span class="HindiText">=अतीत अनन्तर (अन्तिम) शरीरानुसार अवगाह परिणामरूप देहप्रमाणपना होता है।</span></p> | |||
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Revision as of 19:15, 17 July 2020
1. शरीर व शरीर नामकर्म निर्देश
1. शरीर सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/36/191/4 विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि। =जो विशेष नामकर्म के उदय से प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात् गलते हैं वे शरीर हैं।
धवला 14/5,6,512/434/13 सरीरं सहावो सीलमिदि एयट्ठा।...अणंताणंतपोग्गलसमवाओ सरीरं। =शरीर, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं।...अनन्तानन्त पुद्गलों के समवाय का नाम शरीर है।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/107/3 शरीरं कोऽर्थ: स्वरूपम् । =शरीर शब्द का अर्थ स्वरूप है।
2. शरीर नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/6 यदुदयादात्मन: शरीरनिर्वृतिस्तच्छरीरनाम। =जिसके उदय से आत्मा के शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/3/576/14 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/20 )।
धवला 6/1,9-1,28/52/6 जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाए पोग्गलखंधा तेजा-कम्मइयवग्गणपोग्गलखंधा च सरीरजोग्गपरिणामेहि परिणदा संता जीवेण संबज्झंति तस्स कम्मक्खंधस्स शरीरमिदि सण्णा। =जिस कर्म के उदय से आहार वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध तथा तैजस और कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध शरीर योग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं उस कर्म स्कन्ध की 'शरीर' यह संज्ञा है। ( धवला 13/5,5,101/363/12 )
3. शरीर व शरीर नामकर्म के भेद
षट्खण्डागम 6/1,9-1/ सू.31/68 जं तं सरीरणामकम्मं तं पंचविहं ओरालियसरीरणामं वेउव्वियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेयासरीरणामं कम्मइयसरीरणामं चेदि।31। =जो शरीर नामकर्म है वह पाँच प्रकार है-औदारिक शरीरनामकर्म, वैक्रियक शरीर नामकर्म, आहारकशरीर नामकर्म, तैजस शरीरनामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म।31। ( षट्खण्डागम 13/5,5/ सू.104/367) ( षट्खण्डागम 14/5,6/ सू.44/46) ( प्रवचनसार/171 ) ( तत्त्वार्थसूत्र/2/36 ) ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/9 ) (पं.सं./2/4/47/6) ( राजवार्तिक/5/24/9/488/2 ) ( राजवार्तिक/8/11/3/576/15 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/20 )
4. शरीरों में प्रदेशों की उत्तरोत्तर तरतमता
तत्त्वार्थसूत्र/2/38-39 प्रदेशोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसान् ।38। अनन्तगुणे परे।39।
सर्वार्थसिद्धि/2/38-39/192-193/8,3 औदारिकादसंख्येयगुणप्रदेशं वैक्रियिकम् । वैक्रियिकादसंख्येयगुणप्रदेशमाहारकमिति। को गुणकार:। पल्योपमासंख्येय भाग:। (192/8) आहारकात्तैजसं प्रदेशतोऽनन्तगुणम्, तैजसात्कार्मणं प्रदेशतोऽनन्तगुणमिति। को गुणकार:। अभव्यानामनन्तागुण: सिद्धानामनन्तभाग:। =तैजस से पूर्व तीन-तीन शरीरों में आगे-आगे का शरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणा है।38। परवर्ती दो शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं।39। अर्थात् औदारिक से वैक्रियिक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेश वाला है, और वैक्रियिक से आहारक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेश वाला है। गुणकार का प्रमाण पल्य का असंख्यातवाँ भाग है (192/8) परन्तु आहारक शरीर से तैजस शरीर के प्रदेश अनन्तगुणे हैं, और तैजस शरीर से कार्मण शरीर के प्रदेश अनन्तगुणे अधिक हैं। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों का अनन्तवाँ भाग गुणकार है। ( राजवार्तिक/2/38-39/4,1/148/4,15 ) ( धवला 9/4,1,2/37/1 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/246/510/10 ) (और भी देखें अल्पबहुत्व )
5. शरीरों में परस्पर उत्तरोत्तर सूक्ष्मता व तत्सम्बन्धी शंका समाधान
तत्त्वार्थसूत्र/2/37,40 परं परं सूक्ष्मम् ।37। अप्रतिघाते।40।
सर्वार्थसिद्धि 2/37/192/1 औदारिकं स्थूलम्, तत: सूक्ष्मं वैक्रियिकम् तत: सूक्ष्मं आहारकम्, तत: सूक्ष्मं तैजसम्, तैजसात्कार्मणं सूक्ष्ममिति। =आगे-आगे का शरीर सूक्ष्म है।37। कार्मण व तैजस शरीर प्रतीघात रहित हैं।40। अर्थात् औदारिक शरीर स्थूल है, इससे वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म है। इससे आहारक शरीर सूक्ष्म है, इससे तैजस शरीर सूक्ष्म है और इससे कार्मण शरीर सूक्ष्म है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/246/510/15 यद्येवं तर्हि वैक्रियिकादिशरीराणां उत्तरोत्तरं प्रदेशाधिक्येन स्थूलत्वं प्रसज्यते इत्याशङ्क्य परं परं सूक्ष्मं भवतीत्युक्तं। यद्यपि वैक्रियिकाद्युत्तरोत्तरशरीराणां बहुपरमाणुसंचयत्वं तथापि बन्धपरिणतिविशेषेण सूक्ष्मसूक्ष्मावगाहनसंभव: कार्पसपिण्डाय:पिण्डवन्न विरुध्यते खल्विति निश्चेतव्यं। =प्रश्न-यदि औदारिकादि शरीरों में उत्तरोत्तर प्रदेश अधिक हैं तो उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्थूलता हो जायेगी। उत्तर-ऐसी आशंका अयुक्त है, क्योंकि वे सब उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। यद्यपि वैक्रियिक आदि शरीरों में परमाणुओं का संचय तो अधिक-अधिक है तथापि स्कन्ध बन्धन में विशेष है। जैसे-कपास के पिण्ड से लोहे के पिण्ड में प्रदेशपना अधिक होने पर भी क्षेत्र थोड़ा रोकता है तैसे जानना।
6. शरीर के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान
राजवार्तिक/2/36/2-3/145/25 यदि शीर्यन्त इति शरीराणि घटादीनामपि विशरणमस्तीति शरीरत्वमतिप्रसज्येत; तन्न; किं कारणम् । नामकर्मनिमित्तत्वाभावात् ।2। विग्रहाभाव इति चेत्; न; रूढिशब्देष्वपि व्युत्पत्तौ क्रियाश्रयात् ।3। =प्रश्न-यदि जो शीर्ण हों वे शरीर हैं, तो घटादि पदार्थ भी विशरणशील हैं, उनको भी शरीरपना प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि उनमें नामकर्मोदय निमित्त नहीं है। प्रश्न-इस लक्षण से तो विग्रहगति में शरीर के अभाव का प्रसंग आता है ? उत्तर-रूढि से वहाँ पर भी कहा जाता है।
7. शरीर में करण (कारण) पना कैसे सम्भव है
धवला 9/4,1,68/325/1 करणेसु जं पढमं करणं पंचसरीरप्ययं तं मूलकरणं। कधं सरीरस्स मूलत्तं। ण, सेसकरणाणमेदम्हादो पउत्तीए शरीरस्स मूलत्तं पडिविरोहाभावादो। जीवादो कत्तारादो अभिण्णत्तणेण कत्तारत्तमुपगयस्स कधं करणत्तं। ण जीवादो सरीरस्स कधंचि भेदुवलंभादो। अभेदे वा चेयणत्त-णिच्चत्तादिजीवगुणा सरीरे वि होंति। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तदो सरीरस्स करणत्तं ण विरुज्झदे। सेसकारयभावे सरीरम्मि संते सरीरं करणमेवेत्ति किमिदि उच्चदे। ण एस दोसो, सुत्ते करणमेवे त्ति अवहारणाभावादो। =करणों में जो पाँच शरीररूप प्रथम करण है वह मूल करण है। प्रश्न-शरीर के मूलपना कैसे सम्भव है। उत्तर-चूँकि शेष करणों की प्रवृत्ति इस शरीर से होती है अत: शरीर को मूल करण मानने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-कर्ता रूप जीव से शरीर अभिन्न है, अत: कर्तापने को प्राप्त हुए शरीर के करणपना कैसे सम्भव है। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है। जीव से शरीर का कथंचित् भेद पाया जाता है। यदि जीव से शरीर को सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया जावे तो चेतनता और नित्यत्व आदि जीव के गुण शरीर में भी होने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीर में इन गुणों की उपलब्धि नहीं होती। इस कारण शरीर के करणपना विरुद्ध नहीं है। प्रश्न-शरीर में शेष कारक भी सम्भव हैं। ऐसी अवस्था में शरीर करण ही है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्र में 'शरीर करण ही है' ऐसा नियत नहीं किया गया है।
8. देह प्रमाणत्व शक्ति का लक्षण
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/28 अतीतानन्तशरीरमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं।=अतीत अनन्तर (अन्तिम) शरीरानुसार अवगाह परिणामरूप देहप्रमाणपना होता है।