संशय: Difference between revisions
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<span class="HindiText">यह सीप है या चाँदी इस प्रकार के दो कोटि में झूलने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। देव व धर्म आदि के स्वरूप में यह ठीक है या नहीं ऐसी दोलायमान श्रद्धा संशय मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन में क्षयोपशम की हीनता के कारण संशय व संशयातिचार हो सकते हैं पर तत्त्वों पर दृढ़ प्रतीति निरन्तर बने रहने के कारण उसे संशय मिथ्यात्व नहीं होता।</span> | <span class="HindiText">यह सीप है या चाँदी इस प्रकार के दो कोटि में झूलने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। देव व धर्म आदि के स्वरूप में यह ठीक है या नहीं ऐसी दोलायमान श्रद्धा संशय मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन में क्षयोपशम की हीनता के कारण संशय व संशयातिचार हो सकते हैं पर तत्त्वों पर दृढ़ प्रतीति निरन्तर बने रहने के कारण उसे संशय मिथ्यात्व नहीं होता।</span> | ||
<p class="HindiText"><strong>1. संशय सामान्य का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>1. संशय सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> राजवार्तिक/1/6/9/36/11 सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशय:।</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/1/15/13/61/27 किं शुक्लमुत् कृष्णम् इत्यादि विशेषाप्रतिपत्ते: संशय:। | ||
</span>=<span class="HindiText">1. सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने पर और विशेष धर्म का प्रत्यक्ष न होने पर किन्तु उभय विशेषों का स्पर्श होने पर संशय होता है। (और भी | </span>=<span class="HindiText">1. सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने पर और विशेष धर्म का प्रत्यक्ष न होने पर किन्तु उभय विशेषों का स्पर्श होने पर संशय होता है। (और भी | ||
देखें [[ अवग्रह#2.1 | अवग्रह - 2.1]])। 2. 'यह शुक्ल है कि कृष्ण' इत्यादि में विशेषता का निश्चय न होना संशय है।</span></p> | देखें [[ अवग्रह#2.1 | अवग्रह - 2.1]])। 2. 'यह शुक्ल है कि कृष्ण' इत्यादि में विशेषता का निश्चय न होना संशय है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> न्यायदीपिका/1/9/9/5 विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशय:, यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति। स्थाणुपुरुषसाधारणोद्र्ध्वतादिधर्मदर्शनात्तद्विशेषस्य वक्रकोटरशिर:पाण्यादे: साधकप्रमाणाभावादनेककोट्यवलम्बित्वं ज्ञानस्य। | ||
</span>=<span class="HindiText">विरुद्ध अनेक पक्षों का अवगाहन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे - 'यह स्थाणु है या पुरुष है,' स्थाणु और पुरुष में सामान्य रूप से रहने वाले ऊँचाई आदि साधारण धर्मों के देखने और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर, पैर आदि विशेष धर्मों के साधक प्रमाणों का अभाव होने से नाना कोटियों को अवगाहन करने वाला यह संशय ज्ञान उत्पन्न होता है। ( | </span>=<span class="HindiText">विरुद्ध अनेक पक्षों का अवगाहन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे - 'यह स्थाणु है या पुरुष है,' स्थाणु और पुरुष में सामान्य रूप से रहने वाले ऊँचाई आदि साधारण धर्मों के देखने और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर, पैर आदि विशेष धर्मों के साधक प्रमाणों का अभाव होने से नाना कोटियों को अवगाहन करने वाला यह संशय ज्ञान उत्पन्न होता है। ( सप्तभङ्गीतरङ्गिणी/80/4 ), ( न्यायदर्शन सूत्र/ टी./1/1/23/28/25)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सं.भं.तं./80/4 एकवस्तुविशेष्यकविरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं हि संशय:। =</span><span class="HindiText">एक ही वस्तु विषयक, विरुद्ध नानाधर्म विशेषणक युक्त ज्ञान को संशय कहते हैं।</span></p> | <p><span class="SanskritText">सं.भं.तं./80/4 एकवस्तुविशेष्यकविरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं हि संशय:। =</span><span class="HindiText">एक ही वस्तु विषयक, विरुद्ध नानाधर्म विशेषणक युक्त ज्ञान को संशय कहते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> श्लोकवार्तिक/4/1/33/ न्या.459/भाषाकार/551/14 भेदाभेदात्मकत्वे सदसदात्मकत्वे वा वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वं संशय:।</span> =<span class="HindiText">सम्पूर्ण पदार्थों को अस्ति-नास्तिरूप या भेद अभेदात्मक स्वीकार करने पर, वस्तु का असाधारण स्वरूप करके निश्चय नहीं किया जा सकता है, अत: संशय दोष आता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>2. संशय के भेद व उनके लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>2. संशय के भेद व उनके लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> न्यायदर्शन सूत्र व भाष्य का भावार्थ/1/1/23/28-30 समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्श: संशय:।</span> =<span class="HindiText">1. समान धर्म के ज्ञान से विशेष की अपेक्षा सहित अवमर्श को संशय कहते हैं जैसे - दूर स्थान से सूखा वृक्ष देखकर यह क्या वस्तु है ? स्थाणु है या पुरुष ? ऐसे अनिश्चित रूप ज्ञान को संशय कहते हैं। 2. अनेक धर्मों का ज्ञान होने पर यह धर्म किसका है ऐसा निश्चय न होना संशय है। जैसे - यह सत् नामक धर्म द्रव्य का है, गुण का है अथवा द्रव्य गुण दोनों का है। 3. विप्रतिपत्ति अर्थात् परस्पर विरोधी पदार्थों को साथ देखने से भी सन्देह होता है। जैसे - एक शास्त्र कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि नहीं, दो में से एक का निश्चय कराने वाला कोई हेतु मिलता नहीं, उसमें तत्त्व का निश्चय न होना संशय है। 4. उपलब्धि की अव्यवस्था से भी सन्देह होता है, जैसे सत्य, जल, तालाब आदि में और असत्य किरणों में। फिर कहीं प्राप्ति होने से यथार्थ के निश्चय कराने वाले प्रमाण के अभाव से क्या सत् का ज्ञान होता है या असत् का ? यह सन्देह वा संशय होना। 5. इसी प्रकार अनुपलब्धि की अव्यवस्था से भी संशय होता है। पहले लक्षण में तुल्य अनेक धर्म जानने योग्य वस्तु में है और उपलब्धि यह ज्ञाता में है। इतनी विशेषता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>3. संशय मिथ्यात्व का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"> <strong>3. संशय मिथ्यात्व का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/7 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि किं मोक्षमार्ग: स्याद्वा न वेत्यन्यतरपक्षापरिग्रह: संशय:।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है या नहीं, इस प्रकार किसी एक पक्ष को स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है। ( राजवार्तिक/8/1/28/564/21 ), ( तत्त्वसार/5/5 )।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/56/180/2 संसयिदं संशयितं किंचित्तत्त्वमिति। तत्त्वानवधारणात्मकं संशयज्ञानसहचारि अश्रद्धानं संशयितम् । न हि संदिहानस्य तत्त्वविषयं श्रद्धानमस्ति इदमित्थमेवेति। निश्चयप्रत्ययसहभावित्वात् श्रद्धानस्य।</span> =<span class="HindiText">जिसमें तत्त्वों का निश्चय नहीं है ऐसे संशयज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले श्रद्धान को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। जिसको पदार्थों के स्वरूप का निश्चय नहीं है उसको जीवादिकों के स्वरूप ऐसा ही है अन्य नहीं है ऐसी तत्त्व विषयक सच्ची श्रद्धा नहीं रहती है। जब सच्ची श्रद्धा होती है तब निश्चय ज्ञान होता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"> धवला 8/3,6/20/8 सव्वत्थ संदेहो चेव णिच्छओ णत्थि त्ति अहिणिवेसो संसयमिच्छत्तं।</span> =<span class="HindiText">सर्वत्र सन्देह ही है, निश्चय नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को संशय मिथ्यात्व कहते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/51 संशय: तावत् जिनोवा शिवो वा देव इति।</span> =<span class="HindiText">जिनदेव होंगे या शिवदेव होंगे, यह संशय है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/16/41/4 इन्द्रो नाम श्वेताम्बरगुरु: तदादय: संशयमिथ्यादृष्टय:।</span> =<span class="HindiText">इन्द्र नामक श्वेताम्बरों के गुरु को आदि देकर संशय मिथ्यादृष्टि हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/180/6 शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं किं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति, संशय:। | ||
</span>=<span class="HindiText">शुद्ध आत्मतत्त्वादि का प्रतिपादक तत्त्वज्ञान, क्या वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है या अन्य मतियों द्वारा कहा हुआ सत्य है, यह संशय है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">शुद्ध आत्मतत्त्वादि का प्रतिपादक तत्त्वज्ञान, क्या वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है या अन्य मतियों द्वारा कहा हुआ सत्य है, यह संशय है।</span></p> | ||
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<strong>4. संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय में अन्तर</strong></p> | <strong>4. संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय में अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> न्यायदीपिका/1/9/11 इदं हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान्न संशय: विपरीतैककोटिनिश्चयाभावान्न विपर्यय इति पृथगेव।</span> =<span class="HindiText">यह (अनध्यवसाय) ज्ञान नाना पक्षों का अवगाहन न करने से न संशय है और विपरीत एक पक्ष का निश्चय न करने से न विपर्यय है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>5. शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अन्तर</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>5. शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/44/143/9 ननु सति सम्यक्त्वे तदतिचारो युज्यते। संशयश्च मिथ्यात्वमावहति। तथाहि मिथ्यात्वभेदेषु संशयोऽपि गणित:। ...सत्यपि संशये सम्यग्दर्शनमस्त्येवेति अतिचारता युक्ता। कथं। श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषाभावात् ...यदि नामनिर्णयो नोपजायते। तथापि तु इदं यथा सर्वविदा उपलब्धं तथैवेति श्रद्दधेहमिति भावयत: कथं सम्यक्त्वहानि:। एवं भूतश्रद्धानरहितस्य को वेति किमत्र तत्त्वमिति... 'तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होदि अत्थाण' मिति। ...किं च छद्मस्थानां रज्जूरगस्थाणुपुरुषादिषु किमियं रज्जूरग:, स्थाणु: पुरुषो वा किमित्यनेक: संशयप्रत्ययो जायते इति ते सम्यग्दृष्टय: स्यु:।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न - यदि सम्यग्दर्शन हो तो उसका शंका अतिचार मानना योग्य है परन्तु संशय मिथ्यापने को धारण करता है।...मिथ्यात्व के भेदों में आचार्य ने इसकी गणना भी की है ? उत्तर - आपका कहा ठीक है, संशय के सद्भाव में भी सम्यक्त्व रहता ही है। अत: संशय को अतिचारपना मानना युक्तियुक्त है इसका स्पष्टीकरण ऐसा करते हैं।...विशिष्ट क्षयोपशम न होना...इत्यादि कारणों से वस्तुस्वरूप का निर्णय नहीं होता, तो भी जैसा सर्वज्ञ जिनेश्वर ने वस्तु स्वरूप जाना है वह वैसी ही है ऐसी मैं श्रद्धा रखता हूँ, ऐसी भावना करने वाले भव्य के सम्यक्त्व की हानि कैसे होगी, उसका सम्यग्दर्शन समल होगा परन्तु नष्ट न होगा।...उपर्युक्त श्रद्धा से जो रहित है वह हमेशा संशयाकुलित ही रहता है, वास्तविक तत्त्वस्वरूप क्या है ? उसको कौन जानता है कुछ निर्णय कर नहीं सकते ऐसी उसकी मति रहती है...संशय मिथ्यात्व से सच्चे तत्त्व के प्रति अरुचि भाव रहता है।...छद्मस्थों को भी डोरी, सर्प, खूँट, मनुष्य इत्यादि पदार्थों में यह रज्जू है ? या सर्प है ? यह खूँट है या मनुष्य है इत्यादि अनेक प्रकार का संशय उत्पन्न होता है तो भी वे सम्यग्दृष्टि हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> अनगारधर्मामृत/2/71 विश्वं विश्वविदाज्ञयाभ्युपगत: शङ्कास्तमोहोदयाज्ज्ञानावृत्त्युदयान्मति: प्रवचने दोलायिता संशय:। दृष्टिं निश्चयमाश्रितां मलिनयेत्सा नाहिरज्ज्वादिगा-या मोहोदयसंशयात्त्दरुचि: स्यात्सा तु संशीतिदृक् ।71।</span> =<span class="HindiText">मोहोदय के उदय का अस्त होने से यथावत् विश्वास करने वाले जीव को ज्ञानावरण कर्म के उदय से तत्त्वों क विषय में दोलायमान बुद्धि को संशय कहते हैं। इस संशय को ही शंका नामक अतिचार कहते हैं वही निश्चय सम्यग्दर्शन को मलिन करती है। सर्प रज्जु आदि के विषय में उत्पन्न शंका उसको मलिन नहीं करती। अर्थात् जिस शंका से सम्यग्दर्शन मलिन हो उसे शंका अतिचार कहते हैं। जो शंका मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हो और जिससे सर्वज्ञोक्त तत्त्वों में अश्रद्धा हो उसको संशय मिथ्यात्व कहते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>* संशय मिथ्यात्व व मिश्र गुणस्थान में अन्तर</strong> - देखें [[ मिश्र#2 | मिश्र - 2]]।</p> | <p class="HindiText"> <strong>* संशय मिथ्यात्व व मिश्र गुणस्थान में अन्तर</strong> - देखें [[ मिश्र#2 | मिश्र - 2]]।</p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>* सम्यग्दृष्टि को भी कदाचित् पदार्थ के स्वरूप में संशय</strong> - देखें [[ नि:शंकित ]]।</p> | <p class="HindiText"> <strong>* सम्यग्दृष्टि को भी कदाचित् पदार्थ के स्वरूप में संशय</strong> - देखें [[ नि:शंकित ]]।</p> |
Revision as of 19:17, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से == यह सीप है या चाँदी इस प्रकार के दो कोटि में झूलने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। देव व धर्म आदि के स्वरूप में यह ठीक है या नहीं ऐसी दोलायमान श्रद्धा संशय मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन में क्षयोपशम की हीनता के कारण संशय व संशयातिचार हो सकते हैं पर तत्त्वों पर दृढ़ प्रतीति निरन्तर बने रहने के कारण उसे संशय मिथ्यात्व नहीं होता।
1. संशय सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/1/6/9/36/11 सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशय:।
राजवार्तिक/1/15/13/61/27 किं शुक्लमुत् कृष्णम् इत्यादि विशेषाप्रतिपत्ते: संशय:। =1. सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने पर और विशेष धर्म का प्रत्यक्ष न होने पर किन्तु उभय विशेषों का स्पर्श होने पर संशय होता है। (और भी देखें अवग्रह - 2.1)। 2. 'यह शुक्ल है कि कृष्ण' इत्यादि में विशेषता का निश्चय न होना संशय है।
न्यायदीपिका/1/9/9/5 विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशय:, यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति। स्थाणुपुरुषसाधारणोद्र्ध्वतादिधर्मदर्शनात्तद्विशेषस्य वक्रकोटरशिर:पाण्यादे: साधकप्रमाणाभावादनेककोट्यवलम्बित्वं ज्ञानस्य। =विरुद्ध अनेक पक्षों का अवगाहन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे - 'यह स्थाणु है या पुरुष है,' स्थाणु और पुरुष में सामान्य रूप से रहने वाले ऊँचाई आदि साधारण धर्मों के देखने और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर, पैर आदि विशेष धर्मों के साधक प्रमाणों का अभाव होने से नाना कोटियों को अवगाहन करने वाला यह संशय ज्ञान उत्पन्न होता है। ( सप्तभङ्गीतरङ्गिणी/80/4 ), ( न्यायदर्शन सूत्र/ टी./1/1/23/28/25)।
सं.भं.तं./80/4 एकवस्तुविशेष्यकविरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं हि संशय:। =एक ही वस्तु विषयक, विरुद्ध नानाधर्म विशेषणक युक्त ज्ञान को संशय कहते हैं।
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ न्या.459/भाषाकार/551/14 भेदाभेदात्मकत्वे सदसदात्मकत्वे वा वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वं संशय:। =सम्पूर्ण पदार्थों को अस्ति-नास्तिरूप या भेद अभेदात्मक स्वीकार करने पर, वस्तु का असाधारण स्वरूप करके निश्चय नहीं किया जा सकता है, अत: संशय दोष आता है।
2. संशय के भेद व उनके लक्षण
न्यायदर्शन सूत्र व भाष्य का भावार्थ/1/1/23/28-30 समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्श: संशय:। =1. समान धर्म के ज्ञान से विशेष की अपेक्षा सहित अवमर्श को संशय कहते हैं जैसे - दूर स्थान से सूखा वृक्ष देखकर यह क्या वस्तु है ? स्थाणु है या पुरुष ? ऐसे अनिश्चित रूप ज्ञान को संशय कहते हैं। 2. अनेक धर्मों का ज्ञान होने पर यह धर्म किसका है ऐसा निश्चय न होना संशय है। जैसे - यह सत् नामक धर्म द्रव्य का है, गुण का है अथवा द्रव्य गुण दोनों का है। 3. विप्रतिपत्ति अर्थात् परस्पर विरोधी पदार्थों को साथ देखने से भी सन्देह होता है। जैसे - एक शास्त्र कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि नहीं, दो में से एक का निश्चय कराने वाला कोई हेतु मिलता नहीं, उसमें तत्त्व का निश्चय न होना संशय है। 4. उपलब्धि की अव्यवस्था से भी सन्देह होता है, जैसे सत्य, जल, तालाब आदि में और असत्य किरणों में। फिर कहीं प्राप्ति होने से यथार्थ के निश्चय कराने वाले प्रमाण के अभाव से क्या सत् का ज्ञान होता है या असत् का ? यह सन्देह वा संशय होना। 5. इसी प्रकार अनुपलब्धि की अव्यवस्था से भी संशय होता है। पहले लक्षण में तुल्य अनेक धर्म जानने योग्य वस्तु में है और उपलब्धि यह ज्ञाता में है। इतनी विशेषता है।
3. संशय मिथ्यात्व का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/7 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि किं मोक्षमार्ग: स्याद्वा न वेत्यन्यतरपक्षापरिग्रह: संशय:। =सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है या नहीं, इस प्रकार किसी एक पक्ष को स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है। ( राजवार्तिक/8/1/28/564/21 ), ( तत्त्वसार/5/5 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/56/180/2 संसयिदं संशयितं किंचित्तत्त्वमिति। तत्त्वानवधारणात्मकं संशयज्ञानसहचारि अश्रद्धानं संशयितम् । न हि संदिहानस्य तत्त्वविषयं श्रद्धानमस्ति इदमित्थमेवेति। निश्चयप्रत्ययसहभावित्वात् श्रद्धानस्य। =जिसमें तत्त्वों का निश्चय नहीं है ऐसे संशयज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले श्रद्धान को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। जिसको पदार्थों के स्वरूप का निश्चय नहीं है उसको जीवादिकों के स्वरूप ऐसा ही है अन्य नहीं है ऐसी तत्त्व विषयक सच्ची श्रद्धा नहीं रहती है। जब सच्ची श्रद्धा होती है तब निश्चय ज्ञान होता है।
धवला 8/3,6/20/8 सव्वत्थ संदेहो चेव णिच्छओ णत्थि त्ति अहिणिवेसो संसयमिच्छत्तं। =सर्वत्र सन्देह ही है, निश्चय नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को संशय मिथ्यात्व कहते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/51 संशय: तावत् जिनोवा शिवो वा देव इति। =जिनदेव होंगे या शिवदेव होंगे, यह संशय है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/16/41/4 इन्द्रो नाम श्वेताम्बरगुरु: तदादय: संशयमिथ्यादृष्टय:। =इन्द्र नामक श्वेताम्बरों के गुरु को आदि देकर संशय मिथ्यादृष्टि हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/180/6 शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं किं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति, संशय:। =शुद्ध आत्मतत्त्वादि का प्रतिपादक तत्त्वज्ञान, क्या वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है या अन्य मतियों द्वारा कहा हुआ सत्य है, यह संशय है।
4. संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय में अन्तर
न्यायदीपिका/1/9/11 इदं हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान्न संशय: विपरीतैककोटिनिश्चयाभावान्न विपर्यय इति पृथगेव। =यह (अनध्यवसाय) ज्ञान नाना पक्षों का अवगाहन न करने से न संशय है और विपरीत एक पक्ष का निश्चय न करने से न विपर्यय है।
5. शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अन्तर
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/44/143/9 ननु सति सम्यक्त्वे तदतिचारो युज्यते। संशयश्च मिथ्यात्वमावहति। तथाहि मिथ्यात्वभेदेषु संशयोऽपि गणित:। ...सत्यपि संशये सम्यग्दर्शनमस्त्येवेति अतिचारता युक्ता। कथं। श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषाभावात् ...यदि नामनिर्णयो नोपजायते। तथापि तु इदं यथा सर्वविदा उपलब्धं तथैवेति श्रद्दधेहमिति भावयत: कथं सम्यक्त्वहानि:। एवं भूतश्रद्धानरहितस्य को वेति किमत्र तत्त्वमिति... 'तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होदि अत्थाण' मिति। ...किं च छद्मस्थानां रज्जूरगस्थाणुपुरुषादिषु किमियं रज्जूरग:, स्थाणु: पुरुषो वा किमित्यनेक: संशयप्रत्ययो जायते इति ते सम्यग्दृष्टय: स्यु:। =प्रश्न - यदि सम्यग्दर्शन हो तो उसका शंका अतिचार मानना योग्य है परन्तु संशय मिथ्यापने को धारण करता है।...मिथ्यात्व के भेदों में आचार्य ने इसकी गणना भी की है ? उत्तर - आपका कहा ठीक है, संशय के सद्भाव में भी सम्यक्त्व रहता ही है। अत: संशय को अतिचारपना मानना युक्तियुक्त है इसका स्पष्टीकरण ऐसा करते हैं।...विशिष्ट क्षयोपशम न होना...इत्यादि कारणों से वस्तुस्वरूप का निर्णय नहीं होता, तो भी जैसा सर्वज्ञ जिनेश्वर ने वस्तु स्वरूप जाना है वह वैसी ही है ऐसी मैं श्रद्धा रखता हूँ, ऐसी भावना करने वाले भव्य के सम्यक्त्व की हानि कैसे होगी, उसका सम्यग्दर्शन समल होगा परन्तु नष्ट न होगा।...उपर्युक्त श्रद्धा से जो रहित है वह हमेशा संशयाकुलित ही रहता है, वास्तविक तत्त्वस्वरूप क्या है ? उसको कौन जानता है कुछ निर्णय कर नहीं सकते ऐसी उसकी मति रहती है...संशय मिथ्यात्व से सच्चे तत्त्व के प्रति अरुचि भाव रहता है।...छद्मस्थों को भी डोरी, सर्प, खूँट, मनुष्य इत्यादि पदार्थों में यह रज्जू है ? या सर्प है ? यह खूँट है या मनुष्य है इत्यादि अनेक प्रकार का संशय उत्पन्न होता है तो भी वे सम्यग्दृष्टि हैं।
अनगारधर्मामृत/2/71 विश्वं विश्वविदाज्ञयाभ्युपगत: शङ्कास्तमोहोदयाज्ज्ञानावृत्त्युदयान्मति: प्रवचने दोलायिता संशय:। दृष्टिं निश्चयमाश्रितां मलिनयेत्सा नाहिरज्ज्वादिगा-या मोहोदयसंशयात्त्दरुचि: स्यात्सा तु संशीतिदृक् ।71। =मोहोदय के उदय का अस्त होने से यथावत् विश्वास करने वाले जीव को ज्ञानावरण कर्म के उदय से तत्त्वों क विषय में दोलायमान बुद्धि को संशय कहते हैं। इस संशय को ही शंका नामक अतिचार कहते हैं वही निश्चय सम्यग्दर्शन को मलिन करती है। सर्प रज्जु आदि के विषय में उत्पन्न शंका उसको मलिन नहीं करती। अर्थात् जिस शंका से सम्यग्दर्शन मलिन हो उसे शंका अतिचार कहते हैं। जो शंका मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हो और जिससे सर्वज्ञोक्त तत्त्वों में अश्रद्धा हो उसको संशय मिथ्यात्व कहते हैं।
* संशय मिथ्यात्व व मिश्र गुणस्थान में अन्तर - देखें मिश्र - 2।
* सम्यग्दृष्टि को भी कदाचित् पदार्थ के स्वरूप में संशय - देखें नि:शंकित ।
* सम्यग्दृष्टि को संशय के समय कथंचित् अन्धश्रद्धान या अश्रद्धान - देखें श्रद्धान - 3।
पुराणकोष से
सन्धि, विग्रह आदि राजा के छ: गुणों में पाँचवाँ गुण । अशरण को शरण देना संश्रय कहलाता है । महापुराण 68.66 ,71