हित: Difference between revisions
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<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/5/5/594/17 मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्‌द्विविधम् स्वहितं परहितं चेति।</span> =<span class="HindiText">मोक्षपद की प्राप्ति रूप प्रधान वा मुख्य फल मिलता है, उसको हित कहते हैं। वह दो प्रकार का है, एक स्वहित दूसरा परहित। ( चारित्रसार/66/5 )</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> कषायपाहुड़/1/1,13-14/219/271/6 व्याध्युपशमनहेतुर्द्रव्यं हितम् । यथा पित्तज्वराभिभूतस्य तदुपशमनहेतुकटुकरोहिण्यादि:।</span> =<span class="HindiText">व्याधि के उपशमन का कारणभूत द्रव्य हित कहलाता है। जैसे, पित्त ज्वर से पीड़ित पुरुष के पित्त ज्वर की शान्ति का कारण कड़वी कुटकी तुंबड़ी आदिक द्रव्य हितरूप हैं।</span></p> | ||
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<ul class="HindiText"><li><strong>ज्ञानी व अज्ञानी की हिताहित बुद्धि में अन्तर</strong> - देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li><strong>ज्ञानी व अज्ञानी की हिताहित बुद्धि में अन्तर</strong> - देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]।</li></ul> | ||
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<li><strong class="HindiText" name="2" id="2">2. हिताहित जानने का प्रयोजन</strong> | <li><strong class="HindiText" name="2" id="2">2. हिताहित जानने का प्रयोजन</strong> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"> भगवती आराधना/103 जाणं तस्सादहिदं अहिदणियत्तीय हिदपवत्तीय। होदि य तो से तम्हा आदहिदं आगमे दव्वं।103।</span> =<span class="HindiText">जो जीव आत्मा के हित को पहिचानता है वह अहित से परावृत होकर हित में प्रवृत्ति करता है। इस वास्ते हे भव्यजन ! आत्महित का आप परिज्ञान कर लो।103।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"> मोक्षपाहुड़/102 गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेय णिच्छिओ साहू। झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं।102।</span> =<span class="HindiText">जो मूल व उत्तर गुणों से विभूषित है, और हेयोपादेय तत्त्व का जिसको निश्चय है, तथा ध्यान और अध्ययन में जो भले प्रकार लीन है, ऐसा साधु उत्तम स्थान मोक्ष को प्राप्त करता है।102।</span></p> | ||
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Revision as of 19:17, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- हित का लक्षण
राजवार्तिक/9/5/5/594/17 मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्द्विविधम् स्वहितं परहितं चेति। =मोक्षपद की प्राप्ति रूप प्रधान वा मुख्य फल मिलता है, उसको हित कहते हैं। वह दो प्रकार का है, एक स्वहित दूसरा परहित। ( चारित्रसार/66/5 )
कषायपाहुड़/1/1,13-14/219/271/6 व्याध्युपशमनहेतुर्द्रव्यं हितम् । यथा पित्तज्वराभिभूतस्य तदुपशमनहेतुकटुकरोहिण्यादि:। =व्याधि के उपशमन का कारणभूत द्रव्य हित कहलाता है। जैसे, पित्त ज्वर से पीड़ित पुरुष के पित्त ज्वर की शान्ति का कारण कड़वी कुटकी तुंबड़ी आदिक द्रव्य हितरूप हैं।
- ज्ञानी व अज्ञानी की हिताहित बुद्धि में अन्तर - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- 2. हिताहित जानने का प्रयोजन
भगवती आराधना/103 जाणं तस्सादहिदं अहिदणियत्तीय हिदपवत्तीय। होदि य तो से तम्हा आदहिदं आगमे दव्वं।103। =जो जीव आत्मा के हित को पहिचानता है वह अहित से परावृत होकर हित में प्रवृत्ति करता है। इस वास्ते हे भव्यजन ! आत्महित का आप परिज्ञान कर लो।103।
मोक्षपाहुड़/102 गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेय णिच्छिओ साहू। झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं।102। =जो मूल व उत्तर गुणों से विभूषित है, और हेयोपादेय तत्त्व का जिसको निश्चय है, तथा ध्यान और अध्ययन में जो भले प्रकार लीन है, ऐसा साधु उत्तम स्थान मोक्ष को प्राप्त करता है।102।
- स्व पर हित सम्बन्धी - देखें उपकार ।
पुराणकोष से
महारक्ष विद्याधर के पूर्वभव का जीव-पोदनपुर नगर का एक सामान्य नागरिक । इसकी स्त्री माधवी और पुत्र प्रीति था । यह मरकर यक्ष हुआ । पद्मपुराण 5.345, 350