हित संभाषण
From जैनकोष
कुरल काव्य/10/3,5 स्नेहपूर्णा, दयादृष्टिर्हार्दिकी या च वाक्सुधा। एतयोरेव मध्ये तु धर्मो वसति सर्वदा।3। भूषणे द्वे मनुष्यस्य नम्रताप्रियभाषणे। अन्यद्धि भूषणं शिष्टैर्नादृतं सभ्यसंसदि।5।
कुरल काव्य/30/7 न वक्तव्यं न वक्तव्यं मृषावाक्यं कदाचन। सत्यमेव परो धर्म: किं परैर्धंर्मसाधनै:।7।
=हृदय से निकली हुई मधुर वाणी और ममतामयी स्निग्ध दृष्टि में ही धर्म का निवासस्थान है।3। नम्रता और प्रिय-संभाषण, बस ये ही मनुष्य के आभूषण हैं अन्य नहीं।5। असत्य भाषण मत करो यदि मनुष्य इस आदेश का पालन कर सके तो उसे दूसरे धर्म को पालन करने की आवश्यकता नहीं है।7।
संभाषण को विस्तार से जानने के लिये देंखे सत्य ।