कौरव: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
पांडवपुराण/ सर्ग./श्लोक धृतराष्ट्र के दुर्योधनादि 100 पुत्र कौरव कहलाते थे (8/217) भीष्म व द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त कर (8/208) राज्य प्राप्त किया। (10/34)। अनेकों क्रिड़ाओं में इनको पांडवों द्वारा पराजित होना पडा था (10/40)। इससे यह पांडवों से क्रुद्ध हो गये। भरी सभा में एक दिन कहा कि हमें सौ को आधा राज्य और इन पाँचों को आधा राज्य दिया गया यह हमारे साथ अन्याय हुआ (12/25)। एक समय कपट से लाख का गृह बनाकर दिखावटी प्रेम से पांडवों को रहने के लिए प्रदान किया (12/0) और अकस्मात् मौका देख उसमें आग लगवा दी। (12/115)। परंतु सौभाग्य से पांडव वहाँ से गुप्त रूप से प्रवास में रहने लगे (12/235)। और ये भी दिखावटी शोक करके शांति पूर्वक रहने लगे (12/226)। द्रौपदी के स्वयंवर में पांडवों से मिलाप होने पर (15/143) आधा राज्य बाँटकर रहने लगे (16/2) दुर्योधन ने ईर्ष्यापूर्वक (16/14) युधिष्ठिर को जुएँ में हराकर 12 वर्ष का देश निकाला दिया (16/105)। सहायवन में पांडवों के आने पर अर्जुन के शिष्यों ने दुर्योधन को बाँध लिया (17/102–) परंतु अर्जुन ने दया से उसे छोड़ दिया (17/140)। इससे दुर्योधन का क्रोध अधिक प्रज्वलित हुआ। तब आधे राज्य के लालच में कनकध्वज नामक व्यक्ति ने दुर्योधन की आज्ञा से पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा की, परंतु एक देव ने उसका प्रयत्न निष्फल कर दिया (17/145–)। तत्पश्चात् विराट् नगर में इन्होंने गोकुल लूटा उसमें भी पांडवों द्वारा हराये गये (19/152)। इस प्रकार अनेकों बार पांडवों द्वारा इनको अपमानित होना पड़ा। अंत में कृष्ण व जरासंध के युद्ध में सब पांडवों के द्वारा मारे गये (20/266)। | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> राजा धृतराष्ट्र और | <p> राजा धृतराष्ट्र और गांधारी के दुर्योधन और दुःशासन आदि सौ पुत्र । पांडु और उनके पुत्र भी कुरुवंशी होने के कारण कौरव ही थे पर राज्य विभाजन के प्रसंग को लेकर पाएं पुत्र तो पांडव कहलाये और धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव । भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य ने इन्हें पांडवों के साथ शिक्षित और शस्त्र-विद्या में निष्णात किया था । ये आरंभ से ही पांडवों से उनकी वीरता, बुद्धिमत्ता और सौजन्य आदि गुणों के कारण ईर्षा करने लगे थे । खेलों में ये उनसे पराजित होते थे । राज्य-विभाजन के समय ये चाहते थे कि राज्य एक सौ पांच भागों में विभाजित हो जिसमें सौ भाग इन्हें मिले और केवल पांच भाग पांडवों को मिलें । पांडवों को मारने के लिए इन्होंने अनेक प्रयत्न किये । लाक्षागृह भी बनवाया पर ये उनको मारने में सफल नहीं हो सके । हरिवंश पुराण में कौरवों द्वारा लाक्षागृह के स्थान पर पांडवों के घर में आग लगाने की बात कही गयी है । द्रौपदी-स्वयंवर के पश्चात् राज्य-विभाजन हुआ जिसमें आधा राज्य पांडवों को और आधा राज्य इनको मिला । ये इसे सहन नहीं कर सके । दुर्योधन ने जुए में युधिष्ठिर को पराजित करके पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास दिया । वनवास के समय भी कौरवों ने पांडवों को मारने के अनेक प्रयास किये पर वे सफल नहीं हो सके । अंत में कृष्ण-जरासंध युद्ध में ये सब भीम के द्वारा मारे गये । हरिवंश पुराण में कुछ कौरवों को ही युद्ध में मारा गया बताया है । दुर्योधन और दुःशासन आदि को संसार से विरक्त होकर मुनिराज विदुर के पास दीक्षित हुए बताया गया है । <span class="GRef"> महापुराण 45.4, 56-58, 71.73-80, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 10. 17, 34, 44, 12.26-30, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 45. 36, 49-50, 46.3-6, 51. 32, 52, 88, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 6.208-212, 8. 178-205, 12. 144, 167-169, 16. 2, 17.209-219, 18.153-155, 20.266, 214-296, 348 </span></p> | ||
Revision as of 16:21, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
पांडवपुराण/ सर्ग./श्लोक धृतराष्ट्र के दुर्योधनादि 100 पुत्र कौरव कहलाते थे (8/217) भीष्म व द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त कर (8/208) राज्य प्राप्त किया। (10/34)। अनेकों क्रिड़ाओं में इनको पांडवों द्वारा पराजित होना पडा था (10/40)। इससे यह पांडवों से क्रुद्ध हो गये। भरी सभा में एक दिन कहा कि हमें सौ को आधा राज्य और इन पाँचों को आधा राज्य दिया गया यह हमारे साथ अन्याय हुआ (12/25)। एक समय कपट से लाख का गृह बनाकर दिखावटी प्रेम से पांडवों को रहने के लिए प्रदान किया (12/0) और अकस्मात् मौका देख उसमें आग लगवा दी। (12/115)। परंतु सौभाग्य से पांडव वहाँ से गुप्त रूप से प्रवास में रहने लगे (12/235)। और ये भी दिखावटी शोक करके शांति पूर्वक रहने लगे (12/226)। द्रौपदी के स्वयंवर में पांडवों से मिलाप होने पर (15/143) आधा राज्य बाँटकर रहने लगे (16/2) दुर्योधन ने ईर्ष्यापूर्वक (16/14) युधिष्ठिर को जुएँ में हराकर 12 वर्ष का देश निकाला दिया (16/105)। सहायवन में पांडवों के आने पर अर्जुन के शिष्यों ने दुर्योधन को बाँध लिया (17/102–) परंतु अर्जुन ने दया से उसे छोड़ दिया (17/140)। इससे दुर्योधन का क्रोध अधिक प्रज्वलित हुआ। तब आधे राज्य के लालच में कनकध्वज नामक व्यक्ति ने दुर्योधन की आज्ञा से पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा की, परंतु एक देव ने उसका प्रयत्न निष्फल कर दिया (17/145–)। तत्पश्चात् विराट् नगर में इन्होंने गोकुल लूटा उसमें भी पांडवों द्वारा हराये गये (19/152)। इस प्रकार अनेकों बार पांडवों द्वारा इनको अपमानित होना पड़ा। अंत में कृष्ण व जरासंध के युद्ध में सब पांडवों के द्वारा मारे गये (20/266)।
पुराणकोष से
राजा धृतराष्ट्र और गांधारी के दुर्योधन और दुःशासन आदि सौ पुत्र । पांडु और उनके पुत्र भी कुरुवंशी होने के कारण कौरव ही थे पर राज्य विभाजन के प्रसंग को लेकर पाएं पुत्र तो पांडव कहलाये और धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव । भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य ने इन्हें पांडवों के साथ शिक्षित और शस्त्र-विद्या में निष्णात किया था । ये आरंभ से ही पांडवों से उनकी वीरता, बुद्धिमत्ता और सौजन्य आदि गुणों के कारण ईर्षा करने लगे थे । खेलों में ये उनसे पराजित होते थे । राज्य-विभाजन के समय ये चाहते थे कि राज्य एक सौ पांच भागों में विभाजित हो जिसमें सौ भाग इन्हें मिले और केवल पांच भाग पांडवों को मिलें । पांडवों को मारने के लिए इन्होंने अनेक प्रयत्न किये । लाक्षागृह भी बनवाया पर ये उनको मारने में सफल नहीं हो सके । हरिवंश पुराण में कौरवों द्वारा लाक्षागृह के स्थान पर पांडवों के घर में आग लगाने की बात कही गयी है । द्रौपदी-स्वयंवर के पश्चात् राज्य-विभाजन हुआ जिसमें आधा राज्य पांडवों को और आधा राज्य इनको मिला । ये इसे सहन नहीं कर सके । दुर्योधन ने जुए में युधिष्ठिर को पराजित करके पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास दिया । वनवास के समय भी कौरवों ने पांडवों को मारने के अनेक प्रयास किये पर वे सफल नहीं हो सके । अंत में कृष्ण-जरासंध युद्ध में ये सब भीम के द्वारा मारे गये । हरिवंश पुराण में कुछ कौरवों को ही युद्ध में मारा गया बताया है । दुर्योधन और दुःशासन आदि को संसार से विरक्त होकर मुनिराज विदुर के पास दीक्षित हुए बताया गया है । महापुराण 45.4, 56-58, 71.73-80, पद्मपुराण 10. 17, 34, 44, 12.26-30, हरिवंशपुराण 45. 36, 49-50, 46.3-6, 51. 32, 52, 88, पांडवपुराण 6.208-212, 8. 178-205, 12. 144, 167-169, 16. 2, 17.209-219, 18.153-155, 20.266, 214-296, 348