ध्यान: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 155: | Line 155: | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> ध्यान का निश्चय लक्षण-आत्मस्थित आत्मा</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> ध्यान का निश्चय लक्षण-आत्मस्थित आत्मा</strong></span><br /> | ||
पंचास्तिकाय/146 <span class="PrakritText">जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी।</span>=<span class="HindiText">जिसे मोह और रागद्वेष नहीं हैं तथा मन वचन कायरूप योगों के प्रति उपेक्षा है, उसे शुभाशुभ को जलाने वाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है।</span><br /> | पंचास्तिकाय/146 <span class="PrakritText">जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी।</span>=<span class="HindiText">जिसे मोह और रागद्वेष नहीं हैं तथा मन वचन कायरूप योगों के प्रति उपेक्षा है, उसे शुभाशुभ को जलाने वाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है।</span><br /> | ||
तत्त्वानुशासन/74 <span class="SanskritGatha">स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यत:। षट्कारकमयस्तस्माद्ध्यानमात्मैव निश्चयात् ।74।</span>=<span class="HindiText"> | तत्त्वानुशासन/74 <span class="SanskritGatha">स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यत:। षट्कारकमयस्तस्माद्ध्यानमात्मैव निश्चयात् ।74।</span>=<span class="HindiText">चूँकि आत्मा अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा, अपने आत्मा के लिए, अपने-अपने आत्महेतु से ध्याता है, इसलिए कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे षट्कारकरूप परिणत आत्मा ही निश्चयनय की दृष्टि से ध्यानस्वरूप है।</span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/1/114/117 <span class="SanskritGatha">इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेत: स्थिरं तत:। ध्यानं रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्तत: सुखम् ।114। </span>=<span class="HindiText">इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है। उस चित्त की स्थितता को ध्यान कहते हैं।<br /> | अनगारधर्मामृत/1/114/117 <span class="SanskritGatha">इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेत: स्थिरं तत:। ध्यानं रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्तत: सुखम् ।114। </span>=<span class="HindiText">इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है। उस चित्त की स्थितता को ध्यान कहते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
Line 167: | Line 167: | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> प्रशस्त व अप्रशस्त की अपेक्षा सामान्य भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1">प्रशस्त व अप्रशस्त की अपेक्षा सामान्य भेद</strong></span><br /> | ||
चारित्रसार/167/2 <span class="SanskritText">तदेतच्चतुरङ्गध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं।</span>=<span class="HindiText">वह (ध्याता, ध्यान, ध्येय व ध्यानफल रूप) चार अंगवाला ध्यान अप्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। ( महापुराण/21/27 ), ( ज्ञानार्णव/25/17 )</span><br /> | चारित्रसार/167/2 <span class="SanskritText">तदेतच्चतुरङ्गध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं।</span>=<span class="HindiText">वह (ध्याता, ध्यान, ध्येय व ध्यानफल रूप) चार अंगवाला ध्यान अप्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। ( महापुराण/21/27 ), ( ज्ञानार्णव/25/17 )</span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/3/27-28 <span class="SanskritText">संक्षेपरुचिभि: सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात् । त्रिधैवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशयस्त्रिधा।27। तत्र पुण्याशय: पूर्वस्तद्विपक्षोऽशुभाशय:। शुद्धोपयोगसंज्ञी य: स तृतीय: प्रकीर्तित:।28।</span>=<span class="HindiText">कितने ही संक्षेपरुचिवालों ने तीन प्रकार का ध्यान माना है, क्योंकि, जीव का आशय तीन प्रकार का ही होता है।27। उन तीनों में प्रथम तो पुण्यरूप शुभ आशय है और दूसरा उसका विपक्षी पापरूप आशय है और तीसरा शुद्धोपयोग नामा आशय है।<br /> | ज्ञानार्णव/3/27-28 <span class="SanskritText">संक्षेपरुचिभि: सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात् । त्रिधैवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशयस्त्रिधा।27। तत्र पुण्याशय: पूर्वस्तद्विपक्षोऽशुभाशय:। शुद्धोपयोगसंज्ञी य: स तृतीय: प्रकीर्तित:।28।</span>=<span class="HindiText">कितने ही संक्षेपरुचिवालों ने तीन प्रकार का ध्यान माना है, क्योंकि, जीव का आशय तीन प्रकार का ही होता है।27। उन तीनों में प्रथम तो पुण्यरूप शुभ आशय है और दूसरा उसका विपक्षी पापरूप आशय है और तीसरा शुद्धोपयोग नामा आशय है।<br /> | ||
Line 244: | Line 244: | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> ध्यान से अनेकों लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> ध्यान से अनेकों लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि</strong><br /> | ||
ज्ञानार्णव/38/ श्लो.सारार्थ‒अष्टपत्र कमल पर स्थापित स्फुरायमान आत्मा व णमो अर्हंताणं के आठ अक्षरों को प्रत्येक दिशा के सम्मुख होकर क्रम से आठ रात्रि पर्यन्त प्रतिदिन 1100 बार जपने से सिंह आदि क्रूर जन्तु भी अपना गर्व छोड़ देते हैं।95-99। आठ | ज्ञानार्णव/38/ श्लो.सारार्थ‒अष्टपत्र कमल पर स्थापित स्फुरायमान आत्मा व णमो अर्हंताणं के आठ अक्षरों को प्रत्येक दिशा के सम्मुख होकर क्रम से आठ रात्रि पर्यन्त प्रतिदिन 1100 बार जपने से सिंह आदि क्रूर जन्तु भी अपना गर्व छोड़ देते हैं।95-99। आठ रात्रियाँ व्यतीत हो जाने पर इस कमल के पत्रों पर वर्तने वाले अक्षरों को अनुक्रम से निरूपण करके देखैं। तत्पश्चात् यदि प्रणव सहित उसी मन्त्र को ध्यावै तो समस्त मनोवाञ्छित सिद्ध हों और यदि प्रणव (ॐ) से वर्जित ध्यावे तो मुक्ति प्राप्त करे।100-102। (इसी प्रकार अनेक प्रकार के मन्त्रों का ध्यान करने से, राजादि का विनाश, पाप का नाश, भोगों की प्राप्ति तथा मोक्ष प्राप्ति तक भी होती है।103-112।</span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/40/2 <span class="SanskritText">मन्त्रमण्डलमुद्रादिप्रयोगैर्ध्यातुमुद्यत: सुरासुरनरव्रातं क्षोभयत्यखिलं क्षणात् ।2।</span> =<span class="HindiText">यदि ध्यानी मुनि मन्त्र मण्डल मुद्रादि प्रयोगों से ध्यान करने में उद्यत हो तो समस्त सुर असुर और मनुष्यों के समूह को क्षणमात्र में क्षोभित कर सकता है।<br /> | ज्ञानार्णव/40/2 <span class="SanskritText">मन्त्रमण्डलमुद्रादिप्रयोगैर्ध्यातुमुद्यत: सुरासुरनरव्रातं क्षोभयत्यखिलं क्षणात् ।2।</span> =<span class="HindiText">यदि ध्यानी मुनि मन्त्र मण्डल मुद्रादि प्रयोगों से ध्यान करने में उद्यत हो तो समस्त सुर असुर और मनुष्यों के समूह को क्षणमात्र में क्षोभित कर सकता है।<br /> | ||
तत्त्वानुशासन/ श्लो.नं. का सारार्थ‒महामन्त्र महामण्डल व महामुद्रा का आश्रय लेकर धारणाओं द्वारा स्वयं पार्श्वनाथ होता हुआ ग्रहों के विघ्न दूर करता है।202। इसी प्रकार स्वयं इन्द्र होकर (देखें [[ ऊपर नं#4 | ऊपर नं - 4 ]]वाला शीर्षक) स्तम्भन कार्यों को करता है।203-204। गरुड होकर विष को दूर करता है, कामदेव होकर जगत् को वश करता है, अग्निरूप होकर शीतज्वर को हरता है, अमृतरूप होकर दाहज्वर को हरता है, क्षीरादधि होकर जग को पुष्ट करता है।205-208।</span><br /> | तत्त्वानुशासन/ श्लो.नं. का सारार्थ‒महामन्त्र महामण्डल व महामुद्रा का आश्रय लेकर धारणाओं द्वारा स्वयं पार्श्वनाथ होता हुआ ग्रहों के विघ्न दूर करता है।202। इसी प्रकार स्वयं इन्द्र होकर (देखें [[ ऊपर नं#4 | ऊपर नं - 4 ]]वाला शीर्षक) स्तम्भन कार्यों को करता है।203-204। गरुड होकर विष को दूर करता है, कामदेव होकर जगत् को वश करता है, अग्निरूप होकर शीतज्वर को हरता है, अमृतरूप होकर दाहज्वर को हरता है, क्षीरादधि होकर जग को पुष्ट करता है।205-208।</span><br /> | ||
Line 262: | Line 262: | ||
तत्त्वानुशासन/219 <span class="SanskritGatha">अत्रैव माग्रह कार्षुर्यद्ध्यानफलमैहिकम् । इदं हि ध्यानमाहात्म्यख्यापनाय प्रदर्शितम् ।219।</span>=<span class="HindiText">इस ध्यानफल के विषय में किसी को यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि ध्यान का फल ऐहिक ही होता है, क्योंकि यह ऐहिक फल तो ध्यान के माहात्म्य की प्रसिद्धि के लिए प्रदर्शित किया गया है।<br /> | तत्त्वानुशासन/219 <span class="SanskritGatha">अत्रैव माग्रह कार्षुर्यद्ध्यानफलमैहिकम् । इदं हि ध्यानमाहात्म्यख्यापनाय प्रदर्शितम् ।219।</span>=<span class="HindiText">इस ध्यानफल के विषय में किसी को यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि ध्यान का फल ऐहिक ही होता है, क्योंकि यह ऐहिक फल तो ध्यान के माहात्म्य की प्रसिद्धि के लिए प्रदर्शित किया गया है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">पारमार्थिक ध्यान का माहात्म्य </strong></span><br> भगवती आराधना/1891-1902 <span class="PrakritText">एवं कसायजुद्धंमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं।...।1892। रणभूमीए कवचं होदि ज्झाणं कसायजुद्धम्मि/...।1893। वइरं रदणेसु जहा गोसीसं चदणं व गंधेसु। वेरुलियं व मणीणं तह ज्झाणं होइ खंवयस्स।1896।</span>=<span class="HindiText">कषायों के साथ युद्ध करते समय ध्यान क्षपक के लिए आयुध व कवच के तुल्य है।1892-1893। जैसे रत्नों में वज्ररत्न श्रेष्ठ है, सुगन्धि पदार्थों में गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ है, मणियों में वैडूर्यमणि उत्तम है, वैसे ही ज्ञान दर्शन चारित्र और तप में ध्यान ही सारभूत व सर्वोत्कृष्ट है।1896। </span> ज्ञानसार/36 <span class="SanskritText">पाषाणेस्वर्णं काष्ठेऽग्नि: विनाप्रयोगै:। न यथा दृश्यन्ते इमानि ध्यानेन विना तथात्मा।36। </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण और काष्ठ में अग्नि बिना प्रयोग के दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ध्यान के बिना आत्मा दिखाई नहीं देता। </span><br> अमितगति श्रावकाचार/15/96 <span class="SanskritText">तपांसि रौद्राण्यनिशं विधत्तां, शास्त्राण्यधीतामखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिध्यति ध्यानमृते तथाऽपि।96।</span>=<span class="HindiText">निशदिन घोर तपश्चरण भले करो, नित्य ही सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन भले करो, प्रमाद रहित होकर चारित्र भले धारण करो, परन्तु ध्यान के बिना सिद्धि नहीं।</span> ज्ञानार्णव/40/3,5 <span class="SanskritText">क्रुद्धस्याप्यस्य सामर्थ्यमचिन्त्यं त्रिदशैरपि। अनेकविक्रियासारध्यानमार्गावलम्बित:।3। असावानन्तप्रथितप्रभव: स्वभावतो यद्यपि यन्त्रनाथ:। नियुज्यमान: स पुन: समाधौ करोति विश्वं चरणाग्रलीयम् ।5।</span>=<span class="HindiText">अनेक प्रकार की विक्रियारूप असार ध्यानमार्ग को अवलम्बन करने वाले क्रोधी के भी ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिसका देव भी चिन्तवन नहीं कर सकते।3। स्वभाव से ही अनन्त और जगत्प्रसिद्ध प्रभाव का धारक यह आत्मा यदि समाधि में जोड़ा जाये तो समस्त जगत् को अपने चरणों में लीन कर लेता है। (केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है)।5। (विशेष देखें [[ धर्म्यध्यान#4 | धर्म्यध्यान - 4]]) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10">सर्व प्रकार के धर्म एक ध्यान में अन्तर्भूत हैं</strong> </span><br> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/47 <span class="PrakritText">दुविहं पि मोक्खहेउं ज्झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह।47।</span>=<span class="HindiText">मुनिध्यान के करने से जो नियम से निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग को पाता है, इस कारण तुम चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का अभ्यास करो।( तत्त्वानुशासन/33 )</span><br>(और भी देखें [[ मोक्षमार्ग#25. | मोक्षमार्ग - 25.]];धर्म/3/3) नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/119 <span class="SanskritText">अत: पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति।</span>=<span class="HindiText">अत: पंच महाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सब ध्यान ही हैं।</span></li> | द्रव्यसंग्रह टीका/47 <span class="PrakritText">दुविहं पि मोक्खहेउं ज्झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह।47।</span>=<span class="HindiText">मुनिध्यान के करने से जो नियम से निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग को पाता है, इस कारण तुम चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का अभ्यास करो।( तत्त्वानुशासन/33 )</span><br>(और भी देखें [[ मोक्षमार्ग#25. | मोक्षमार्ग - 25.]];धर्म/3/3) नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/119 <span class="SanskritText">अत: पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति।</span>=<span class="HindiText">अत: पंच महाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सब ध्यान ही हैं।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 287: | Line 287: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">ध्यान की विधि सामान्य</strong> </span><br> धवला 13/5,4,26/28-29/68 <span class="PrakritGatha">किंचिद्दिट्ठिमुपावत्तइत्तु ज्झेये णिरुद्धट्ठोओ। अप्पाणम्मि सदिं संधित्तुं संसारमोक्खट्ठं।28। पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाणं मणं च तेहिंतो अप्पाणम्मि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि।29।</span>= | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> <span class="HindiText">जिसकी दृष्टि ध्येय (देखें [[ ध्येय ]]) में रुकी हुई है, वह बाह्य विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को अपनी आत्मा में लगावे।28। इन्द्रियों को विषयों से हटाकर और मन को भी विषयों से दूरकर, समाधिपूर्वक उस मन को अपनी आत्मा में लगावे।29।</span> ( तत्त्वानुशासन/94-95 ) ज्ञानार्णव/30/5 <span class="SanskritGatha">प्रत्याहृतं पुन: स्वस्थं सर्वोपाधिविवर्जितम् । चेत: समत्वमापन्नं स्वस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।5।</span>=</li> | <li> <span class="HindiText">जिसकी दृष्टि ध्येय (देखें [[ ध्येय ]]) में रुकी हुई है, वह बाह्य विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को अपनी आत्मा में लगावे।28। इन्द्रियों को विषयों से हटाकर और मन को भी विषयों से दूरकर, समाधिपूर्वक उस मन को अपनी आत्मा में लगावे।29।</span> ( तत्त्वानुशासन/94-95 ) ज्ञानार्णव/30/5 <span class="SanskritGatha">प्रत्याहृतं पुन: स्वस्थं सर्वोपाधिविवर्जितम् । चेत: समत्वमापन्नं स्वस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।5।</span>=</li> | ||
<li><span class="HindiText"> प्रत्याहार (विषयों से हटाकर मन को ललाट आदि पर धारण | <li><span class="HindiText"> प्रत्याहार (विषयों से हटाकर मन को ललाट आदि पर धारण करना‒दे.’प्रत्याहार’) से ठहराया हुआ मन समस्त उपाधि अर्थात् रागादिकरूप विकल्पों से रहित समभाव को प्राप्त होकर आत्मा में ही लय को प्राप्त होता है।</span><br> | ||
ज्ञानार्णव/31/37,39 <span class="SanskritGatha">अनन्यशरणीभूय स तस्मिल्लीयते तथा। ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ।37। अनन्यशरणस्तद्धि तत्संलीनैकमानस:। तद्गुणस्तत्स्वभावात्मा स तादात्म्याच्च संवसन् ।39। </span> ज्ञानार्णव/33/2-3 <span class="SanskritGatha">अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। साक्षात्कर्तुमत: क्षिप्रं विश्वतत्त्वं यथास्थितम् । विशुद्धिं चात्मन: शश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरीभवेत् ।3।</span> =</li> | ज्ञानार्णव/31/37,39 <span class="SanskritGatha">अनन्यशरणीभूय स तस्मिल्लीयते तथा। ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ।37। अनन्यशरणस्तद्धि तत्संलीनैकमानस:। तद्गुणस्तत्स्वभावात्मा स तादात्म्याच्च संवसन् ।39। </span> ज्ञानार्णव/33/2-3 <span class="SanskritGatha">अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। साक्षात्कर्तुमत: क्षिप्रं विश्वतत्त्वं यथास्थितम् । विशुद्धिं चात्मन: शश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरीभवेत् ।3।</span> =</li> | ||
<li class="HindiText"> वह ध्यान करने वाला मुनि अन्य सबका शरण छोड़कर उस परमात्मस्वरूप में ऐसा लीन होता है, कि ध्याता और ध्यान इन दोनों के भेद का अभाव होकर ध्येयस्वरूप से एकता को प्राप्त हो जाता है।37। जब आत्मा परमात्मा के ध्यान में लीन होता है, तब एकीकरण कहा है, सो यह एकीकरण अनन्यशरण है। वह तद्गुण है अर्थात् परमात्मा के ही अनन्त ज्ञानादि गुणरूप है, और स्वभाव से आत्मा है। इस प्रकार तादात्म्यरूप से स्थित होता है।39। </li> | <li class="HindiText"> वह ध्यान करने वाला मुनि अन्य सबका शरण छोड़कर उस परमात्मस्वरूप में ऐसा लीन होता है, कि ध्याता और ध्यान इन दोनों के भेद का अभाव होकर ध्येयस्वरूप से एकता को प्राप्त हो जाता है।37। जब आत्मा परमात्मा के ध्यान में लीन होता है, तब एकीकरण कहा है, सो यह एकीकरण अनन्यशरण है। वह तद्गुण है अर्थात् परमात्मा के ही अनन्त ज्ञानादि गुणरूप है, और स्वभाव से आत्मा है। इस प्रकार तादात्म्यरूप से स्थित होता है।39। </li> | ||
<li class="HindiText"> अपने में जोड़ता हुआ भी, अवद्यिावासना से विवश हुआ चित्त जब स्थिरता को धारणा नहीं करता।2। तो साक्षात् वस्तुओं के स्वरूप का यथास्थित तत्काल साक्षात् करने के लिए तथा आत्मा की विशुद्धि करने के लिए निरन्तर वस्तु के धर्म का चिन्तवन करता हुआ उसे स्थिर करता है। <br>विशेष देखें [[ ध्येय ]]‒अनेक प्रकार के ध्येयों का चिन्तवन करता है, अनेक प्रकार की | <li class="HindiText"> अपने में जोड़ता हुआ भी, अवद्यिावासना से विवश हुआ चित्त जब स्थिरता को धारणा नहीं करता।2। तो साक्षात् वस्तुओं के स्वरूप का यथास्थित तत्काल साक्षात् करने के लिए तथा आत्मा की विशुद्धि करने के लिए निरन्तर वस्तु के धर्म का चिन्तवन करता हुआ उसे स्थिर करता है। <br>विशेष देखें [[ ध्येय ]]‒अनेक प्रकार के ध्येयों का चिन्तवन करता है, अनेक प्रकार की भावनाएँ भाता है तथा धारणाएँ धारता है। </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> अर्हंतादि के चिन्तवन द्वारा ध्यान की विधि</strong></span><br> ज्ञानार्णव/40/17-20 <span class="SanskritText"> वदन्ति योगिनो ध्यानं चित्तमेवमनाकुलम् । कथं शिवत्वमापन्नमात्मानं संस्मरेन्मुनि:।17। विवेच्य तद्गुणग्रामं तत्स्वरूपं निरूप्य च। अनन्तशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।18। तद्गुणग्रामसंपूर्णं तत्स्वभावैकभावित:। कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि।19। | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> अर्हंतादि के चिन्तवन द्वारा ध्यान की विधि</strong></span><br> ज्ञानार्णव/40/17-20 <span class="SanskritText"> वदन्ति योगिनो ध्यानं चित्तमेवमनाकुलम् । कथं शिवत्वमापन्नमात्मानं संस्मरेन्मुनि:।17। विवेच्य तद्गुणग्रामं तत्स्वरूपं निरूप्य च। अनन्तशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।18। तद्गुणग्रामसंपूर्णं तत्स्वभावैकभावित:। कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि।19। द्वयोगुँणैर्मतं साम्यं व्यक्तिशक्तिव्यपेक्षया। विशुद्धेतरयो: स्वात्मतत्त्वयो: परमागमे।20।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒चित्त के क्षोभरहित होने को ध्यान कहते हैं, तो कोई मुनि मोक्ष प्राप्त आत्मा का स्मरण कैसे करे ?।17। <strong>उत्तर</strong>‒प्रथम तो उस परमात्मा के गुण समूहों को पृथक्-पृथक् विचारे और फिर उन गुणों के समुदायरूप परमात्मा को गुण गुणी का अभेद करके विचारै और फिर किसी अन्य की शरण से रहित होकर उसी परमात्मा में लीन हो जावे।18। परमात्मा के स्वरूप से भावित अर्थात् मिला हुआ ध्यानी मुनि उस परमात्मा के गुण समूहों से पूर्णरूप अपने आत्मा को करके फिर उसे परमात्मा में योजन करे।19। आगम में कर्म रहित व कर्म सहित दोनों आत्म–तत्त्वों में व्यक्ति व शक्ति की अपेक्षा समानता मानी गयी है।20।</span> तत्त्वानुशासन/189-193 <span class="SanskritGatha">तन्न चोद्यं यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पित:। स चार्हद्धयाननिष्ठात्मा ततस्तत्रैव तद्ग्रह:।189। अथवा भाविनो भृता: स्वपर्यायास्तदात्मिका:। आसते द्रव्यरूपेण सर्वद्रव्येषु सर्वदा।192। ततोऽयमर्हत्पर्यायो भावी द्रव्यात्मना सदा। भव्येष्वास्ते सतश्चास्य ध्याने को नाम विभ्रम:।193।</span>=<span class="HindiText">हमारी विवक्षा भाव अर्हंत से है और अर्हंत के ध्यान में लीन आत्मा ही है, अत: अर्हद्ध्यान लीन आत्मा में अर्हंत का ग्रहण है।189। अथवा सर्वद्रव्यों में भूत और भावी स्वपर्यायें तदात्मक हुई द्रव्यरूप से सदा विद्यमान रहती हैं। अत: यह भावी अर्हंत पर्याय भव्य जीवों में सदा विद्यमान है, तब इस सत् रूप से स्थिर अर्हत्पर्याय के ध्यान में विभ्रम का क्या काम है।192-193।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">ध्यान की तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">ध्याता अपने ध्यानभाव से तन्मय होता है</strong></span><br> प्रवचनसार/8 <span class="PrakritText">परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयति पण्णत्तं...।8।</span>=<span class="HindiText">जिस समय जिस भाव से द्रव्य परिणमन करता है, उस समय वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। </span>( तत्त्वानुशासन/191 ) तत्त्वानुशासन/191 <span class="SanskritGatha">येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधि: स्फटिको यथा।191।</span>=<span class="HindiText">आत्मज्ञानी आत्मा को जिस भाव से जिस रूप ध्याता है, उसके साथ वह उसी प्रकार तन्मय हो जाता है। जिस प्रकार कि उपाधि के साथ स्फटिक।191। ( ज्ञानार्णव/39/43 में उद्धृत)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही होता है</strong> </span><br> प्रवचनसार/8-9 ...। <span class="PrakritText">तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो।8। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तथा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो।9।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार वीतरागचारित्र रूप धर्म से परिणत आत्मा स्वयं धर्म होता है।8। जब वह जीव शुभ अथवा अशुभ परिणमोंरूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और अशुभ होता है और जब शुद्धरूप परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है।9।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही होता है</strong> </span><br> प्रवचनसार/8-9 ...। <span class="PrakritText">तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो।8। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तथा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो।9।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार वीतरागचारित्र रूप धर्म से परिणत आत्मा स्वयं धर्म होता है।8। जब वह जीव शुभ अथवा अशुभ परिणमोंरूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और अशुभ होता है और जब शुद्धरूप परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है।9।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> आत्मा अपने ध्येय के साथ समरस हो जाता है</strong></span><br> तत्त्वानुशासन/137 <span class="SanskritGatha">सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधि: स्याल्लोकद्वयफलप्रद:।137।</span>=<span class="HindiText">उन दोनों ध्येय और ध्याता का जो यह एकीकरण है, वह समरसीभाव माना गया है, यही एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो दोनों लोकों के फल को प्रदान करने वाला है। ( ज्ञानार्णव/31/38 )</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> आत्मा अपने ध्येय के साथ समरस हो जाता है</strong></span><br> तत्त्वानुशासन/137 <span class="SanskritGatha">सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधि: स्याल्लोकद्वयफलप्रद:।137।</span>=<span class="HindiText">उन दोनों ध्येय और ध्याता का जो यह एकीकरण है, वह समरसीभाव माना गया है, यही एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो दोनों लोकों के फल को प्रदान करने वाला है। ( ज्ञानार्णव/31/38 )</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> अर्हत को ध्याता हुआ स्वयं अर्हंत होता है</strong> </span><br> ज्ञानार्णव/39/41-43 <span class="SanskritGatha">तद्गुणग्रामसंलीनमानसस्तद्गताशय:। तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं प्रपद्यते।41। यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं प्रजायते। तदात्मानमसौ ज्ञानी सर्वज्ञीभूतमीक्षते।42। एष देव: स सर्वज्ञ: सोऽहं तद्रूपतां गत:। तस्मात्स एव नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते।43।</span>=<span class="HindiText">उस परमात्मा में मन लगाने से उसके ही गुणों में लीन होकर, उसमें ही चित्त को प्रवेश करके उसी भाव से भावित योगी उसी की तन्मयता को प्राप्त होता है।41। जब अभ्यास के वश से उस मुनि के उस सर्वज्ञ के स्वरूप से तन्मयता उत्पन्न होती है उस समय वह मुनि अपने असर्वज्ञ आत्मा को सर्वज्ञ स्वरूप देखता है।42। उस समय वह ऐसा मानता है, कि यह वही सर्वज्ञदेव है, वही तत्स्वरूपता को प्राप्त हुआ मैं | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> अर्हत को ध्याता हुआ स्वयं अर्हंत होता है</strong> </span><br> ज्ञानार्णव/39/41-43 <span class="SanskritGatha">तद्गुणग्रामसंलीनमानसस्तद्गताशय:। तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं प्रपद्यते।41। यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं प्रजायते। तदात्मानमसौ ज्ञानी सर्वज्ञीभूतमीक्षते।42। एष देव: स सर्वज्ञ: सोऽहं तद्रूपतां गत:। तस्मात्स एव नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते।43।</span>=<span class="HindiText">उस परमात्मा में मन लगाने से उसके ही गुणों में लीन होकर, उसमें ही चित्त को प्रवेश करके उसी भाव से भावित योगी उसी की तन्मयता को प्राप्त होता है।41। जब अभ्यास के वश से उस मुनि के उस सर्वज्ञ के स्वरूप से तन्मयता उत्पन्न होती है उस समय वह मुनि अपने असर्वज्ञ आत्मा को सर्वज्ञ स्वरूप देखता है।42। उस समय वह ऐसा मानता है, कि यह वही सर्वज्ञदेव है, वही तत्स्वरूपता को प्राप्त हुआ मैं हूँ, इस कारण वही विश्वदर्शी मैं हूँ, अन्य मैं नहीं हूँ।43।</span><br> | ||
तत्त्वानुशासन/190 <span class="SanskritText">परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति। अर्हद्ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात्स्वयं तस्मात् ।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है, वह उस भाव के साथ तन्मय होता है (और भी देखो शीर्षक नं.1), अत: अर्हद्ध्यान से व्याप्त आत्मा स्वयं भाव अर्हंत होता है।190। </span></li> | तत्त्वानुशासन/190 <span class="SanskritText">परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति। अर्हद्ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात्स्वयं तस्मात् ।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है, वह उस भाव के साथ तन्मय होता है (और भी देखो शीर्षक नं.1), अत: अर्हद्ध्यान से व्याप्त आत्मा स्वयं भाव अर्हंत होता है।190। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5">गरुड आदि तत्त्वों को ध्याता हुआ आत्मा ही स्वयं उन रूप होता है</strong> </span><br> ज्ञानार्णव/21/9-17 <span class="SanskritText">शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मैव कीर्तित:। अणिमादिगुणानर्घ्यरत्नवार्धिर्बुधैर्मत:।9। उक्तं च, ग्रन्थान्तरे-आत्यन्तिकस्वभावोत्थानन्तज्ञानसुख: पुमान् । परमात्मा विप: कन्तुरहो माहात्म्यमात्मन:।9।...तदेवं यदिह जगति शरीर विशेष समवेतं किमपि सामर्थ्यमुपलभामहे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चय:। आत्मप्रवृत्तिपरम्परोत्पादितत्वाद्विग्रहग्रहणस्येति।17।</span>=<span class="HindiText">विद्वानों ने इस आत्मा को ही शिव, गरुड व काम कहा है, क्योंकि यह आत्मा ही अणिमा महिमा आदि अमूल्य गुणरूपी रत्नों का समूह है।9। अन्य ग्रन्थ में भी कहा है‒अहो ! आत्मा का माहात्म्य कैसा है, अविनश्वर स्वभाव से उत्पन्न अनन्त ज्ञान व सुखस्वरूप यह आत्मा ही शिव, गरुड व काम है।‒(आत्मा ही निश्चय से परमात्म (शिव) व्यपदेश का धारक होता है।10। गारुडीविद्या को जानने के कारण गारुडगी नाम को अवगाहन करने वाला यह आत्मा ही गरुड नाम पाता है।15। आत्मा ही काम की संज्ञा को धारण करने वाला है।16। इस कारण शिव गरुड व कामरूप से इस जगत् में शरीर के साथ मिली हुई जो कुछ सामर्थ्य हम देखते हैं, वह सब आत्मा की ही है। क्योंकि शरीर को ग्रहण करने में आत्मा की प्रवृत्ति ही परम्परा हेतु है।17।</span> तत्त्वानुशासन/135-136 <span class="SanskritText"> यदा ध्यानबलाद्धयाता शून्यीकृतस्वविग्रहम् । ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्तादृक् संपद्यते स्वयम् ।135। तदा तथाविधध्यानसंवित्ति:‒ध्वस्तकल्पन:। स एव परमात्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथ:।136।</span>=<span class="HindiText">जिस समय ध्याता पुरुष ध्यान के बल से अपने शरीर को शून्य बनाकर ध्येयस्वरूप में आविष्ट या प्रविष्ट हो जाने से अपने को तत्सदृश बना लेता है, उस समय उस प्रकार की ध्यान संवित्ति से भेद विकल्प को नष्ट करता हुआ वह ही परमात्मा (शिव) गरुड अथवा कामदेव है।<br> | ||
<strong>नोट</strong>―(तीनों तत्त्वों के लक्षण‒देखो वह वह नाम।) </span></li> | <strong>नोट</strong>―(तीनों तत्त्वों के लक्षण‒देखो वह वह नाम।) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> अन्य ध्येय भी आत्मा में आलेखितवत् प्रतीत होते हैं</strong></span><br> तत्त्वानुशासन/133 <span class="PrakritGatha">ध्याने हि विभ्रति स्थैर्यं ध्येयरूपं परिस्फुटम् । आलेखितमिवाभाति ध्येयस्यासंनिधावपि।133।</span> <span class="HindiText">ध्यान में स्थिरता के परिपुष्ट हो जाने पर ध्येय का स्वरूप ध्येय के सन्निकट न होते हुए भी, स्पष्ट रूप से आलेखित जैसा प्रतिभासित होता है।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> अन्य ध्येय भी आत्मा में आलेखितवत् प्रतीत होते हैं</strong></span><br> तत्त्वानुशासन/133 <span class="PrakritGatha">ध्याने हि विभ्रति स्थैर्यं ध्येयरूपं परिस्फुटम् । आलेखितमिवाभाति ध्येयस्यासंनिधावपि।133।</span> <span class="HindiText">ध्यान में स्थिरता के परिपुष्ट हो जाने पर ध्येय का स्वरूप ध्येय के सन्निकट न होते हुए भी, स्पष्ट रूप से आलेखित जैसा प्रतिभासित होता है।</span></li> |
Revision as of 14:24, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
एकाग्रता का नाम ध्यान है। अर्थात् व्यक्ति जिस समय जिस भाव का चिन्तवन करता है, उस समय वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। इसलिए जिस किसी भी देवता या मन्त्र, या अर्हन्त आदि को ध्याता है, उस समय वह अपने को वह ही प्रतीत होता है। इसीलिए अनेक प्रकार के देवताओं को ध्याकर साधक जन अनेक प्रकार के ऐहिक फलों की प्राप्ति कर लेते हैं। परन्तु वे सब ध्यान आर्त व रौद्र होने के कारण अप्रशस्त हैं। धर्म शुक्ल ध्यान द्वारा शुद्धात्मा का ध्यान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, अत: वे प्रशस्त हैं। ध्यान के प्रकरण में चार अधिकार होते हैं‒ध्यान, ध्याता, ध्येय व ध्यानफल। चारों का पृथक्-पृथक् निर्देश किया गया है। ध्यान के अनेकों भेद हैं, सबका पृथक्-पृथक् निर्देश किया है।
- ध्यान के भेद व लक्षण
- ध्यान सामान्य का लक्षण।
- एकाग्र चिन्तानिरोध लक्षण के विषय में शंका।
- योगादि की संक्रान्ति में भी ध्यान कैसे? ‒देखें शुक्लध्यान - 4.1।
- एकाग्र चिन्तानिरोध का लक्षण।‒देखें एकाग्र ।
- ध्यान सम्बन्धी विकल्प का तात्पर्य।‒देखें विकल्प ।
- ध्यान के भेद।
- अप्रशस्त, प्रशस्त व शुद्ध ध्यानों के लक्षण।
- ध्यान सामान्य का लक्षण।
- आर्त रौद्रादि तथा पदस्थ पिंडस्थ आदि ध्यानों सम्बन्धी।‒देखें वह वह नाम ।
- ध्यान निर्देश
- ध्यान व योग के अंगों का नाम निर्देश।
- ध्याता, ध्येय, प्राणायाम आदि।‒देखें वह वह नाम ।
- ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं टिकता।
- ध्यान व ज्ञान आदि में कथंचित् भेदाभेद।
- ध्यान व अनुप्रेक्षा आदि में अन्तर।‒देखें धर्मध्यान - 3।
- ध्यान द्वारा कार्यसिद्धि का सिद्धान्त।
- ध्यान से अनेक लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि।
- ऐहिक फलवाले ये सब ध्यान अप्रशस्त हैं।
- मोक्षमार्ग में यन्त्र-मन्त्रादि की सिद्धि का निषेध।‒देखें मन्त्र ।
- ध्यान के लिए आवश्यक ज्ञान की सीमा।‒देखें ध्याता - 1।
- अप्रशस्त व प्रशस्त ध्यानों में हेयोपादेयता का विवेक।
- ऐहिक ध्यानों का निर्देश केवल ध्यान की शक्ति दर्शाने के लिए किया गया है।
- पारमार्थिक ध्यान का माहात्म्य।
- ध्यान फल।‒देखें वह वह ध्यान ।
- सर्व प्रकार के धर्म एक ध्यान में अन्तर्भूत है।
- ध्यान व योग के अंगों का नाम निर्देश।
- ध्यान की सामग्री व विधि
- द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादि के विकल्प।
- ध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र व दिशा।‒देखें कृतिकर्म - 3।
- ध्यान का कोई निश्चित काल नहीं है।
- ध्यान योग्य भाव।‒देखें ध्येय ।
- उपयोग के आलम्बनभूत स्थान।
- ध्यान की विधि सामान्य।
- अर्हंतादि के चिन्तवन द्वारा ध्यान की विधि।
- द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादि के विकल्प।
- ध्यान की तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त
- ध्याता अपने ध्यानभाव से तन्मय होता है।
- जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही होता है।
- आत्मा अपने ध्येय के साथ समरस हो जाता है।
- अर्हन्त को ध्याता हुआ स्वयं अर्हंत होता है।
- गरुड आदि तत्त्वों को ध्याता हुआ स्वयं गरुड आदि रूप होता है।
- गरुड आदि तत्त्वों का स्वरूप।‒देखें वह वह नाम ।
- जिस देव या शक्ति को ध्याता है उसी रूप हो जाता है।‒देखें ध्यान - 2.4,5।
- अन्य ध्येय भी आत्मा में आलेखितवत् प्रतीत होते हैं।
- ध्याता अपने ध्यानभाव से तन्मय होता है।
- ध्यान के भेद व लक्षण
- ध्यान सामान्य का लक्षण
- ध्यान का लक्षण-एकाग्र चिन्ता निरोध
तत्त्वार्थसूत्र/9/27 उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमाऽन्तर्मुहूर्तात् ।27।=उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। ( महापुराण/21/8 ), ( चारित्रसार/166/6 ), ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/102 ), ( तत्त्वानुशासन/56 )
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/8 चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् ।=चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है।
तत्त्वानुशासन/59 एकाग्रग्रहणं चात्र वैयग्र्यविनिवृत्तये। व्यग्रं हि ज्ञानमेव स्याद् ध्यानमेकाग्रमुच्यते।59।=इस ध्यान के लक्षण में जो एकाग्र का ग्रहण है वह व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिए है। ज्ञान ही वस्तुत: व्यग्र होता है, ध्यान नहीं। ध्यान को तो एकाग्र कहा जाता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/842 यत्पुनर्ज्ञानमेकत्र नैरन्तर्येण कुत्रचित् । अस्ति तद्ध्यानमात्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थत: ।842।=किसी एक विषय में निरन्तर रूप से ज्ञान का रहना ध्यान है, और वह वास्तव में क्रमरूप ही है अक्रम नहीं।
- ध्यान का निश्चय लक्षण-आत्मस्थित आत्मा
पंचास्तिकाय/146 जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी।=जिसे मोह और रागद्वेष नहीं हैं तथा मन वचन कायरूप योगों के प्रति उपेक्षा है, उसे शुभाशुभ को जलाने वाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है।
तत्त्वानुशासन/74 स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यत:। षट्कारकमयस्तस्माद्ध्यानमात्मैव निश्चयात् ।74।=चूँकि आत्मा अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा, अपने आत्मा के लिए, अपने-अपने आत्महेतु से ध्याता है, इसलिए कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे षट्कारकरूप परिणत आत्मा ही निश्चयनय की दृष्टि से ध्यानस्वरूप है।
अनगारधर्मामृत/1/114/117 इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेत: स्थिरं तत:। ध्यानं रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्तत: सुखम् ।114। =इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है। उस चित्त की स्थितता को ध्यान कहते हैं।
- ध्यान का लक्षण-एकाग्र चिन्ता निरोध
- एकाग्र चिन्ता निरोध लक्षण के विषय में शंका
सर्वार्थसिद्धि/9/27/445/1 चिन्ताया निरोधो यदि ध्यानं, निरोधश्चाभाव:, तेन ध्यानमसत्खरविषाणवत्स्यात् । नैष दोष: अन्यचिन्तानिवृत्त्यपेक्षयाऽसदिति चोच्यते, स्वविषयाकारप्रवृत्ते: सदिति च; अभावस्य भावान्तरत्वाद्धेत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्तुधर्मत्वसिद्धेश्च। अथवा नायं भावसाधन:, निरोधनं निरोध इति। किं तर्हि। कर्मसाधन: ‘निरुध्यत इति निरोध:’। चिन्ता चासौ निरोधश्च चिन्तानिरोध इति। एतदुक्तं भवति‒ज्ञानमेवापरिस्पन्दाग्निशिखावदवभासमानं ध्यानमिति। =प्रश्न‒यदि चिन्ता के निरोध का नाम ध्यान है और निरोध अभावस्वरूप होता है, इसलिए गधे के सींग के समान ध्यान असत् ठहरता है ? उत्तर‒यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्य चिन्ता की निवृत्ति की अपेक्षा वह असत् कहा जाता है और अपने विषयरूप प्रवृत्ति होने के कारण वह सत् कहा जाता है। क्योंकि अभाव भावान्तर स्वभाव होता है। (तुच्छाभाव नहीं)। अभाव वस्तु का धर्म है यह बात सपक्ष सत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति इत्यादि हेतु के अंग आदि के द्वारा सिद्ध होती है (देखें सप्तभंगी )। अथवा यह निरोध शब्द ‘निरोधनं निरोध:’ इस प्रकार भावसाधन नहीं है, तो क्या है? ‘निरुध्यत निरोध:’‒जो रोका जाता है, इस प्रकार कर्मसाधन है। चिन्ता का जो निरोध वह चिन्तानिरोध है। आशय यह है कि निश्चल अग्निशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है। ( राजवार्तिक/9/27/16-17/626/24 ), (विशेष देखें एकाग्र चिन्ता निरोध)
देखें अनुभव - 2.3 अन्य ध्येयों से शून्य होता हुआ भी स्वसंवेदन की अपेक्षा शून्य नहीं है।
- ध्यान के भेद
- प्रशस्त व अप्रशस्त की अपेक्षा सामान्य भेद
चारित्रसार/167/2 तदेतच्चतुरङ्गध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं।=वह (ध्याता, ध्यान, ध्येय व ध्यानफल रूप) चार अंगवाला ध्यान अप्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। ( महापुराण/21/27 ), ( ज्ञानार्णव/25/17 )
ज्ञानार्णव/3/27-28 संक्षेपरुचिभि: सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात् । त्रिधैवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशयस्त्रिधा।27। तत्र पुण्याशय: पूर्वस्तद्विपक्षोऽशुभाशय:। शुद्धोपयोगसंज्ञी य: स तृतीय: प्रकीर्तित:।28।=कितने ही संक्षेपरुचिवालों ने तीन प्रकार का ध्यान माना है, क्योंकि, जीव का आशय तीन प्रकार का ही होता है।27। उन तीनों में प्रथम तो पुण्यरूप शुभ आशय है और दूसरा उसका विपक्षी पापरूप आशय है और तीसरा शुद्धोपयोग नामा आशय है।
- आर्त रौद्रादि चार भेद तथा इनका अप्रशस्त व प्रशस्त में अन्तर्भाव‒
तत्त्वार्थसूत्र/9/28 आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि।28।=ध्यान चार प्रकार का है‒आर्त रौद्र धर्म्य और शुक्ल। ( भगवती आराधना मू./1699-1700) ( महापुराण/21/28 ); ( ज्ञानसार/10 ); ( तत्त्वानुशासन/34 ); ( अनगारधर्मामृत/7/103/727 )।
मू.आ./394 अट्टं च रुद्दसहियं दोण्णिवि झाणाणि अप्पसत्थाणि। धम्मं सुक्कं च दुवे पसत्थझाणाणि णेयाणि।394।=आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दो तो अप्रशस्त हैं और धर्म्यशुक्ल ये दो ध्यान प्रशस्त हैं। ( राजवार्तिक/9/28/4/627/33 ); ( धवला 13/5,4,26/70/11 में केवल प्रशस्तध्यान के ही दो भेदों का निर्देश है); ( महापुराण/21/27 ); ( चारित्रसार/167/3 तथा 172/2) ( ज्ञानसार/25/20 ) ( ज्ञानार्णव/25/20 )
- प्रशस्त व अप्रशस्त की अपेक्षा सामान्य भेद
- अप्रशस्त प्रशस्त व शुद्ध ध्यानों के लक्षण
मू.आ./681-682 परिवारइडि्ढसक्कारपूयणं असणपाण हेऊ वा। लयणसयणासणं भत्तपाणकामट्ठहेऊ वा।681। आज्ञाणिद्देसमाणकित्तीवण्णणपहावणगुणट्ठं। झाणमिणघसत्थं मणसंकप्पो दु विसत्थो।682।
ज्ञानार्णव/3/29-31 पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात् । चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते।29। पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वाद्वस्तुविभ्रमात् । कषायाज्जायतेऽजस्रमसद्धयानं शरीरिणाम् ।30। क्षीणे रागादिसंताने प्रसन्ने चान्तरात्मनि। य: स्वरूपोलम्भ: स्यात्सशुद्धाख्य: प्रकीर्तित:।31।=- पुत्रशिष्यादि के लिए, हाथी घोड़े के लिए, आदरपूजन के लिए, भोजनपान के लिए, खुदी हुई पर्वत की जगह के लिए, शयन-आसन-भक्ति व प्राणों के लिए, मैथुन की इच्छा के लिए, आज्ञानिर्देश प्रामाणिकता-कीर्ति प्रभावना व गुणविस्तार के लिए‒इन सभी अभिप्रायों के लिए यदि कायोत्सर्ग करे तो मन का वह संकल्प अशुभ ध्यान है/मू.आ./जीवों के पापरूप आशय के वश से तथा मोह मिथ्यात्वकषाय और तत्त्वों के अयथार्थ रूप विभ्रम से उत्पन्न हुआ ध्यान अप्रशस्त व असमीचीन है।30। ( ज्ञानार्णव/25/19 ) (और भी देखें अपध्यान )।
- पुण्यरूप आशय के वश से तथा शुद्धलेश्या के आलम्बन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप चिन्तवन से उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त है।29। (विशेष देखें धर्मध्यान - 1.1)।
- रागादि की सन्तान के क्षीण होने पर, अन्तरंग आत्मा के प्रसन्न होने से जो अपने स्वरूप का अवलम्बन है, वह शुद्धध्यान है।31। (देखें अनुभव )।
- ध्यान सामान्य का लक्षण
- ध्यान निर्देश
- ध्यान व योग के अंगों का नाम निर्देश
धवला 13/5,4,26/64/5 तत्थज्झाणे चत्तारि अहियारा होंति ध्याता, ध्येयं, ध्यानं, ध्यानफलमिति।=ध्यान के विषय में चार अधिकार हैं‒ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल। ( चारित्रसार/167/1 ) ( महापुराण/21/84 ) ( ज्ञानार्णव/4/5 ) ( तत्त्वानुशासन/37 )।
महापुराण/21/223-224 षड्भेद:योगवादी य: सोऽनुयोज्य: समाहितै:। योग: क: किं समाधानं प्राणायामश्च कीदृश:।223। का धारणा किमाध्यानं किं ध्येयं कीदृशी स्मृति:। किं फलं कानि बीजानि प्रत्याहारोऽस्य कीदृश:।224। =जो छह प्रकार से योगों का वर्णन करता है, उस योगवादी से विद्वान् पुरुषों को पूछना चाहिए कि योग क्या है ? समाधान क्या है? प्राणायाम कैसा है? धारणा क्या है? आध्यान (चिन्तवन) क्या है? ध्येय क्या है? स्मृति कैसी है ? ध्यान का फल क्या है? ध्यान का बीज क्या है? और इसका प्रत्याहार कैसा है।223-224।
ज्ञानार्णव/22/1 अथ कैश्चिद्यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधय इत्यष्टावङ्गानि योगस्य स्थानानि।1। तथान्यैर्यमनियमावपास्यासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधय इति षट् ।2। उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात्संतोषात्तत्त्वदर्शनात् । मुनेर्जनपदत्यागात् षडि्भर्योग: प्रसिद्धयति।1।=कई अन्यमती ‘आठ अंग योग के स्थान हैं’ ऐसा कहते हैं‒- यम,
- नियम,
- आसन,
- प्राणायाम,
- प्रत्याहार,
- धारणा,
- ध्यान और
- समाधि।
- आसन,
- प्राणायाम,
- प्रत्याहार,
- धारणा,
- ध्यान,
- समाधि।
- उत्साह से,
- निश्चय से,
- धैर्य से,
- सन्तोष से,
- तत्त्वदर्शन से, और देश के त्याग से योग की सिद्धि होती है।
- ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं टिक सकता
धवला 13/5,4,26/51/76 अंतोमुहुत्तमेत्तं चिंतावत्थाणमेगवत्थुम्हि। छदुमत्थाणं ज्झाणं जोगणिरोहो जिणाणं तु।51।=एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्तकाल तक चिन्ता का अवस्थान होना छद्मस्थों का ध्यान है और योग निरोध जिन भगवान् का ध्यान है।51।
तत्त्वार्थसूत्र/9/27 ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ।27।
सर्वार्थसिद्धि/9/27/445/1 इत्यनेन कालावधि: कृत:। तत: परं दुर्धरत्वादेकाग्रचिन्ताया:।
राजवार्तिक/9/27/22/627/5 स्यादेतत् ध्यानोपयोगेन दिवसमासाद्यावस्थान नान्तर्मुहूर्तादिति: तन्न; किं कारणम् । इन्द्रियोपघातप्रसंगात् ।=ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक होता है। इससे काल की अवधि कर दी गयी। इससे ऊपर एकाग्रचिन्ता दुर्धर है। प्रश्न‒एक दिन या महीने भर तक भी तो ध्यान रहने की बात सुनी जाती है ? उत्तर‒यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि, इतने काल तक एक ही ध्यान रहने में इन्द्रियों का उपघात ही हो जायेगा।
- ध्यान व ज्ञान आदि में कथंचित् भेदाभेद
महापुराण/21/15-16 यद्यपि ज्ञानपर्यायो ध्यानाख्यो ध्येयगोचर:। तथाप्येकाग्रसंदष्टो धत्ते बोधादि वान्यताम् ।15। हर्षामर्षादिवत् सोऽयं चिद्धर्मोऽप्यवबोधित:। प्रकाशते विभिन्नात्मा कथंचित् स्तिमितात्मक:।16।=यद्यपि ध्यान ज्ञान की पर्याय है और वह ध्येय को विषय करने वाला होता है। तथापि सहवर्ती होने के कारण वह ध्यान-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप व्यवहार को भी धारण कर लेता है।15। परन्तु जिस प्रकार चित्त धर्मरूप से जाने गये हर्ष व क्रोधादि भिन्न-भिन्न रूप से प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार अन्त:करण का संकोच करने रूप ध्यान भी चैतन्य के धर्मों से कथंचित् भिन्न है।16।
- ध्यान द्वारा कार्य सिद्धि का सिद्धान्त
तत्त्वानुशासन/200 यो यत्कर्मप्रभुर्देवस्तद्ध्यानाविष्टमानस:। ध्याता तदात्मको भूत्वा साधयत्यात्म वाञ्छितम् ।200।=जो जिस कर्म का स्वामी अथवा जिस कर्म के करने में समर्थ देव है उसके ध्यान से व्याप्त चित्त हुआ ध्याता उस देवतारूप होकर अपना वांछित अर्थ सिद्ध करता है।
देखें धर्मध्यान - 6.8 (एकाग्रतारूप तन्मयता के कारण जिस-जिस पदार्थ का चिन्तवन जीव करता है, उस समय वह अर्थात् उसका ज्ञान तदाकार हो जाता है।‒(देखें आगे ध्यान - 4)।
- ध्यान से अनेकों लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि
ज्ञानार्णव/38/ श्लो.सारार्थ‒अष्टपत्र कमल पर स्थापित स्फुरायमान आत्मा व णमो अर्हंताणं के आठ अक्षरों को प्रत्येक दिशा के सम्मुख होकर क्रम से आठ रात्रि पर्यन्त प्रतिदिन 1100 बार जपने से सिंह आदि क्रूर जन्तु भी अपना गर्व छोड़ देते हैं।95-99। आठ रात्रियाँ व्यतीत हो जाने पर इस कमल के पत्रों पर वर्तने वाले अक्षरों को अनुक्रम से निरूपण करके देखैं। तत्पश्चात् यदि प्रणव सहित उसी मन्त्र को ध्यावै तो समस्त मनोवाञ्छित सिद्ध हों और यदि प्रणव (ॐ) से वर्जित ध्यावे तो मुक्ति प्राप्त करे।100-102। (इसी प्रकार अनेक प्रकार के मन्त्रों का ध्यान करने से, राजादि का विनाश, पाप का नाश, भोगों की प्राप्ति तथा मोक्ष प्राप्ति तक भी होती है।103-112।
ज्ञानार्णव/40/2 मन्त्रमण्डलमुद्रादिप्रयोगैर्ध्यातुमुद्यत: सुरासुरनरव्रातं क्षोभयत्यखिलं क्षणात् ।2। =यदि ध्यानी मुनि मन्त्र मण्डल मुद्रादि प्रयोगों से ध्यान करने में उद्यत हो तो समस्त सुर असुर और मनुष्यों के समूह को क्षणमात्र में क्षोभित कर सकता है।
तत्त्वानुशासन/ श्लो.नं. का सारार्थ‒महामन्त्र महामण्डल व महामुद्रा का आश्रय लेकर धारणाओं द्वारा स्वयं पार्श्वनाथ होता हुआ ग्रहों के विघ्न दूर करता है।202। इसी प्रकार स्वयं इन्द्र होकर (देखें ऊपर नं - 4 वाला शीर्षक) स्तम्भन कार्यों को करता है।203-204। गरुड होकर विष को दूर करता है, कामदेव होकर जगत् को वश करता है, अग्निरूप होकर शीतज्वर को हरता है, अमृतरूप होकर दाहज्वर को हरता है, क्षीरादधि होकर जग को पुष्ट करता है।205-208।
तत्त्वानुशासन/209 किमत्र बहुनोक्तेन यद्यत्कर्मं चिकीर्षति। तद्देवतामयो भूत्वा तत्तन्निर्वर्तयत्ययम् ।209।=इस विषय में बहुत कहने से क्या, यह योगी जो भी काम करना चाहता है, उस उस कर्म के देवतारूप स्वयं होकर उस उस कार्य को सिद्ध कर लेता है।209।
तत्त्वानुशासन/ श्लो.का सारार्थ-शान्तात्मा होकर शान्तिकर्मों को और क्रूरात्मा होकर क्रूरकर्मों को करता है।210। आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन आदि अनेक प्रकार के चित्र विचित्र कार्य कर सकता है।211-216।
- परन्तु ऐहिक फलवाले ये सब ध्यान अप्रशस्त हैं
ज्ञानार्णव/40/4 बहूनि कर्माणि मुनिप्रवीरैर्विद्यानुवादात्प्रकटीकृतानि। असंख्यभेदानि कुतूहलार्थं कुमार्गकुध्यानगतानि सन्ति।4।=ज्ञानी मुनियों ने विद्यानुवाद पूर्व से असंख्य भेदवाले अनेक प्रकार के विद्वेषण उच्चाटन आदि कर्म कौतूहल के लिए प्रगट किये हैं, परन्तु वे सब कुमार्ग व कुध्यान के अन्तर्गत हैं।4।
तत्त्वानुशासन/220 तद्ध्यानं रौद्रमार्तं वा यदैहिकफलार्थिनाम् ।=ऐहिक फल को चाहने वालों के जो ध्यान होता है, वह या तो आर्तध्यान है या रौद्रध्यान।
- अप्रशस्त व प्रशस्त ध्यानों में हेयोपादेयता का विवेक
महापुराण/21/29 हेयमाद्यं द्वयं विद्धि दुर्ध्यानं भववर्धनम् । उत्तरं द्वितयं ध्यानम् उपादेयन्तु योगिनाम् ।29।=इन चारों ध्यानों में से पहले के दो अर्थात् आर्त रौद्रध्यान छोड़ने के योग्य हैं, क्योंकि वे खोटे ध्यान हैं और संसार को बढ़ाने वाले हैं, तथा आगे के दो अर्थात् धर्म्य और शुक्लध्यान मुनियों को ग्रहण करने योग्य हैं।29। ( भगवती आराधना/1699-1700/1520 ), ( ज्ञानार्णव/25/21 ); ( तत्त्वानुशासन/34,220 )
ज्ञानार्णव/40/6 स्वप्नेऽपि कौतुकेनापि नासद्धयानानि योगिभि:। सेव्यानि यान्ति बीजत्वं यत: सन्मार्गहानये।6।=योगी मुनियों को चाहिए कि (उपरोक्त ऐहिक फलवाले) असमीचीन ध्यानों को कौतुक से स्वप्न में भी न विचारें, क्योंकि वे सन्मार्ग की हानि के लिए बीजस्वरूप हैं।
- ऐहिक ध्यानों का निर्देश केवल ध्यान की शक्ति दर्शाने के लिए किया गया है
ज्ञानार्णव/40/4 प्रकटीकृतानि असंख्येयभेदानि कुतूहलार्थम् ।=ध्यान के ये असंख्यात भेद कुतूहल मात्र के लिए मुनियों ने प्रगट किये हैं। ( ज्ञानार्णव/28/100 )।
तत्त्वानुशासन/219 अत्रैव माग्रह कार्षुर्यद्ध्यानफलमैहिकम् । इदं हि ध्यानमाहात्म्यख्यापनाय प्रदर्शितम् ।219।=इस ध्यानफल के विषय में किसी को यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि ध्यान का फल ऐहिक ही होता है, क्योंकि यह ऐहिक फल तो ध्यान के माहात्म्य की प्रसिद्धि के लिए प्रदर्शित किया गया है।
- पारमार्थिक ध्यान का माहात्म्य
भगवती आराधना/1891-1902 एवं कसायजुद्धंमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं।...।1892। रणभूमीए कवचं होदि ज्झाणं कसायजुद्धम्मि/...।1893। वइरं रदणेसु जहा गोसीसं चदणं व गंधेसु। वेरुलियं व मणीणं तह ज्झाणं होइ खंवयस्स।1896।=कषायों के साथ युद्ध करते समय ध्यान क्षपक के लिए आयुध व कवच के तुल्य है।1892-1893। जैसे रत्नों में वज्ररत्न श्रेष्ठ है, सुगन्धि पदार्थों में गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ है, मणियों में वैडूर्यमणि उत्तम है, वैसे ही ज्ञान दर्शन चारित्र और तप में ध्यान ही सारभूत व सर्वोत्कृष्ट है।1896। ज्ञानसार/36 पाषाणेस्वर्णं काष्ठेऽग्नि: विनाप्रयोगै:। न यथा दृश्यन्ते इमानि ध्यानेन विना तथात्मा।36। =जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण और काष्ठ में अग्नि बिना प्रयोग के दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ध्यान के बिना आत्मा दिखाई नहीं देता।
अमितगति श्रावकाचार/15/96 तपांसि रौद्राण्यनिशं विधत्तां, शास्त्राण्यधीतामखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिध्यति ध्यानमृते तथाऽपि।96।=निशदिन घोर तपश्चरण भले करो, नित्य ही सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन भले करो, प्रमाद रहित होकर चारित्र भले धारण करो, परन्तु ध्यान के बिना सिद्धि नहीं। ज्ञानार्णव/40/3,5 क्रुद्धस्याप्यस्य सामर्थ्यमचिन्त्यं त्रिदशैरपि। अनेकविक्रियासारध्यानमार्गावलम्बित:।3। असावानन्तप्रथितप्रभव: स्वभावतो यद्यपि यन्त्रनाथ:। नियुज्यमान: स पुन: समाधौ करोति विश्वं चरणाग्रलीयम् ।5।=अनेक प्रकार की विक्रियारूप असार ध्यानमार्ग को अवलम्बन करने वाले क्रोधी के भी ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिसका देव भी चिन्तवन नहीं कर सकते।3। स्वभाव से ही अनन्त और जगत्प्रसिद्ध प्रभाव का धारक यह आत्मा यदि समाधि में जोड़ा जाये तो समस्त जगत् को अपने चरणों में लीन कर लेता है। (केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है)।5। (विशेष देखें धर्म्यध्यान - 4) - सर्व प्रकार के धर्म एक ध्यान में अन्तर्भूत हैं
द्रव्यसंग्रह टीका/47 दुविहं पि मोक्खहेउं ज्झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह।47।=मुनिध्यान के करने से जो नियम से निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग को पाता है, इस कारण तुम चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का अभ्यास करो।( तत्त्वानुशासन/33 )
(और भी देखें मोक्षमार्ग - 25.;धर्म/3/3) नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/119 अत: पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति।=अत: पंच महाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सब ध्यान ही हैं।
किन्हीं अन्यमतियों ने यम नियम को छोड़कर छह कहे हैं‒
किसी अन्य ने अन्य प्रकार कहा है‒
- ध्यान व योग के अंगों का नाम निर्देश
- ध्यान की सामग्री व विधि
- ध्यान की द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादि विकल्प
तत्त्वानुशासन/48 ‒-49 द्रव्यक्षेत्रादिसामग्री ध्यानोत्पत्तौ यतस्त्रिधा। ध्यातारस्त्रिविधास्तस्मात्तेषां ध्यानान्यपि त्रिधा।48। सामग्रीत: प्रकृष्टाया ध्यातरि ध्यानमुत्तमम् । स्याज्जघन्यं जघन्याया मध्यमायास्तु मध्यमम् ।49।=ध्यान की उत्पत्ति के कारणभूत द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि सामग्री क्योंकि तीन प्रकार की है, इसलिए ध्याता व ध्यान भी तीन प्रकार के हैं।48। उत्तम सामग्री से ध्यान उत्तम होता है, मध्यम-से मध्यम और जघन्य से जघन्य।49। (ध्याता/6) - ध्यान का कोई निश्चित काल नहीं है
धवला 13/5,4,26/19/67 व टीका पृ.66/6 अणियदकालो‒सव्वकालेसु सुहपरिणामसंभवादो। एत्थ गाहाओ‒’कालो वि सो च्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ। ण हु दिवसणिसावेलादिणियमणं ज्झाइणो समए।19।=उस (ध्याता) के ध्यान करने का कोई नियत काल नहीं होता, क्योंकि सर्वदा शुभ परिणामों का होना सम्भव है। इस विषय में गाथा है ‘काल भी वही योग्य है जिसमें उत्तम रीति से योग का समाधान प्राप्त होता हो। ध्यान करने वालों के लिए दिन रात्रि और बेला आदि रूप से समय में किसी प्रकार का नियमन नहीं किया जा सकता है। ( महापुराण/21/81 ) और भी देखें कृतिकर्म - 3/8 (देश काल आसन आदि का कोई अटल नियम नहीं है।) - उपयोग के आलम्बनभूत स्थान
राजवार्तिक/9/44/1/634/24 इत्येवमादिकृतपरिकर्मा साधु:, नाभेरूर्ध्वं हृदये मस्तकेऽन्यत्र वा मनोवृत्तिं यथापरिचयं प्रणिधाय मुमुक्षु: प्रशस्तध्यानं ध्यायेत् ।=इस प्रकार (आसन, मुद्रा, क्षेत्रादि द्वारा देखें कृतिकर्म - 3) ध्यान की तैयारी करने वाला साधु नाभि के ऊपर, हृदय में, मस्तक में या और कहीं अभ्यासानुसार चित्त वृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है। ( महापुराण/21/63 )
ज्ञानार्णव/30/13 नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे, वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भ्रूयुगान्ते। ध्यानस्थानान्यमलमतिभि: कीर्तिताऽन्यत्र देहे, तेष्वेकस्मिन्विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ।13।=निर्मल बुद्धि आचार्यों ने ध्यान करने के लिए‒- नेत्रयुगल,
- दोनों कान,
- नासिका का अग्रभाग,
- ललाट,
- मुख,
- नाभि,
- मस्तक,
- हृदय,
- तालु,
- दोनों भौंहों का मध्यभाग, इन दश स्थानों में से किसी एक स्थान में अपने मन को विषयों से रहित करके आलम्बित करना कहा है। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/468 ); (गु.श्रा./236)
- ध्यान की विधि सामान्य
धवला 13/5,4,26/28-29/68 किंचिद्दिट्ठिमुपावत्तइत्तु ज्झेये णिरुद्धट्ठोओ। अप्पाणम्मि सदिं संधित्तुं संसारमोक्खट्ठं।28। पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाणं मणं च तेहिंतो अप्पाणम्मि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि।29।=- जिसकी दृष्टि ध्येय (देखें ध्येय ) में रुकी हुई है, वह बाह्य विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को अपनी आत्मा में लगावे।28। इन्द्रियों को विषयों से हटाकर और मन को भी विषयों से दूरकर, समाधिपूर्वक उस मन को अपनी आत्मा में लगावे।29। ( तत्त्वानुशासन/94-95 ) ज्ञानार्णव/30/5 प्रत्याहृतं पुन: स्वस्थं सर्वोपाधिविवर्जितम् । चेत: समत्वमापन्नं स्वस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।5।=
- प्रत्याहार (विषयों से हटाकर मन को ललाट आदि पर धारण करना‒दे.’प्रत्याहार’) से ठहराया हुआ मन समस्त उपाधि अर्थात् रागादिकरूप विकल्पों से रहित समभाव को प्राप्त होकर आत्मा में ही लय को प्राप्त होता है।
ज्ञानार्णव/31/37,39 अनन्यशरणीभूय स तस्मिल्लीयते तथा। ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ।37। अनन्यशरणस्तद्धि तत्संलीनैकमानस:। तद्गुणस्तत्स्वभावात्मा स तादात्म्याच्च संवसन् ।39। ज्ञानार्णव/33/2-3 अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। साक्षात्कर्तुमत: क्षिप्रं विश्वतत्त्वं यथास्थितम् । विशुद्धिं चात्मन: शश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरीभवेत् ।3। = - वह ध्यान करने वाला मुनि अन्य सबका शरण छोड़कर उस परमात्मस्वरूप में ऐसा लीन होता है, कि ध्याता और ध्यान इन दोनों के भेद का अभाव होकर ध्येयस्वरूप से एकता को प्राप्त हो जाता है।37। जब आत्मा परमात्मा के ध्यान में लीन होता है, तब एकीकरण कहा है, सो यह एकीकरण अनन्यशरण है। वह तद्गुण है अर्थात् परमात्मा के ही अनन्त ज्ञानादि गुणरूप है, और स्वभाव से आत्मा है। इस प्रकार तादात्म्यरूप से स्थित होता है।39।
- अपने में जोड़ता हुआ भी, अवद्यिावासना से विवश हुआ चित्त जब स्थिरता को धारणा नहीं करता।2। तो साक्षात् वस्तुओं के स्वरूप का यथास्थित तत्काल साक्षात् करने के लिए तथा आत्मा की विशुद्धि करने के लिए निरन्तर वस्तु के धर्म का चिन्तवन करता हुआ उसे स्थिर करता है।
विशेष देखें ध्येय ‒अनेक प्रकार के ध्येयों का चिन्तवन करता है, अनेक प्रकार की भावनाएँ भाता है तथा धारणाएँ धारता है।
- अर्हंतादि के चिन्तवन द्वारा ध्यान की विधि
ज्ञानार्णव/40/17-20 वदन्ति योगिनो ध्यानं चित्तमेवमनाकुलम् । कथं शिवत्वमापन्नमात्मानं संस्मरेन्मुनि:।17। विवेच्य तद्गुणग्रामं तत्स्वरूपं निरूप्य च। अनन्तशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।18। तद्गुणग्रामसंपूर्णं तत्स्वभावैकभावित:। कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि।19। द्वयोगुँणैर्मतं साम्यं व्यक्तिशक्तिव्यपेक्षया। विशुद्धेतरयो: स्वात्मतत्त्वयो: परमागमे।20।=प्रश्न‒चित्त के क्षोभरहित होने को ध्यान कहते हैं, तो कोई मुनि मोक्ष प्राप्त आत्मा का स्मरण कैसे करे ?।17। उत्तर‒प्रथम तो उस परमात्मा के गुण समूहों को पृथक्-पृथक् विचारे और फिर उन गुणों के समुदायरूप परमात्मा को गुण गुणी का अभेद करके विचारै और फिर किसी अन्य की शरण से रहित होकर उसी परमात्मा में लीन हो जावे।18। परमात्मा के स्वरूप से भावित अर्थात् मिला हुआ ध्यानी मुनि उस परमात्मा के गुण समूहों से पूर्णरूप अपने आत्मा को करके फिर उसे परमात्मा में योजन करे।19। आगम में कर्म रहित व कर्म सहित दोनों आत्म–तत्त्वों में व्यक्ति व शक्ति की अपेक्षा समानता मानी गयी है।20। तत्त्वानुशासन/189-193 तन्न चोद्यं यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पित:। स चार्हद्धयाननिष्ठात्मा ततस्तत्रैव तद्ग्रह:।189। अथवा भाविनो भृता: स्वपर्यायास्तदात्मिका:। आसते द्रव्यरूपेण सर्वद्रव्येषु सर्वदा।192। ततोऽयमर्हत्पर्यायो भावी द्रव्यात्मना सदा। भव्येष्वास्ते सतश्चास्य ध्याने को नाम विभ्रम:।193।=हमारी विवक्षा भाव अर्हंत से है और अर्हंत के ध्यान में लीन आत्मा ही है, अत: अर्हद्ध्यान लीन आत्मा में अर्हंत का ग्रहण है।189। अथवा सर्वद्रव्यों में भूत और भावी स्वपर्यायें तदात्मक हुई द्रव्यरूप से सदा विद्यमान रहती हैं। अत: यह भावी अर्हंत पर्याय भव्य जीवों में सदा विद्यमान है, तब इस सत् रूप से स्थिर अर्हत्पर्याय के ध्यान में विभ्रम का क्या काम है।192-193।
- ध्यान की द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादि विकल्प
- ध्यान की तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त
- ध्याता अपने ध्यानभाव से तन्मय होता है
प्रवचनसार/8 परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयति पण्णत्तं...।8।=जिस समय जिस भाव से द्रव्य परिणमन करता है, उस समय वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। ( तत्त्वानुशासन/191 ) तत्त्वानुशासन/191 येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधि: स्फटिको यथा।191।=आत्मज्ञानी आत्मा को जिस भाव से जिस रूप ध्याता है, उसके साथ वह उसी प्रकार तन्मय हो जाता है। जिस प्रकार कि उपाधि के साथ स्फटिक।191। ( ज्ञानार्णव/39/43 में उद्धृत)। - जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही होता है
प्रवचनसार/8-9 ...। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो।8। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तथा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो।9।=इस प्रकार वीतरागचारित्र रूप धर्म से परिणत आत्मा स्वयं धर्म होता है।8। जब वह जीव शुभ अथवा अशुभ परिणमोंरूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और अशुभ होता है और जब शुद्धरूप परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है।9। - आत्मा अपने ध्येय के साथ समरस हो जाता है
तत्त्वानुशासन/137 सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधि: स्याल्लोकद्वयफलप्रद:।137।=उन दोनों ध्येय और ध्याता का जो यह एकीकरण है, वह समरसीभाव माना गया है, यही एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो दोनों लोकों के फल को प्रदान करने वाला है। ( ज्ञानार्णव/31/38 ) - अर्हत को ध्याता हुआ स्वयं अर्हंत होता है
ज्ञानार्णव/39/41-43 तद्गुणग्रामसंलीनमानसस्तद्गताशय:। तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं प्रपद्यते।41। यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं प्रजायते। तदात्मानमसौ ज्ञानी सर्वज्ञीभूतमीक्षते।42। एष देव: स सर्वज्ञ: सोऽहं तद्रूपतां गत:। तस्मात्स एव नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते।43।=उस परमात्मा में मन लगाने से उसके ही गुणों में लीन होकर, उसमें ही चित्त को प्रवेश करके उसी भाव से भावित योगी उसी की तन्मयता को प्राप्त होता है।41। जब अभ्यास के वश से उस मुनि के उस सर्वज्ञ के स्वरूप से तन्मयता उत्पन्न होती है उस समय वह मुनि अपने असर्वज्ञ आत्मा को सर्वज्ञ स्वरूप देखता है।42। उस समय वह ऐसा मानता है, कि यह वही सर्वज्ञदेव है, वही तत्स्वरूपता को प्राप्त हुआ मैं हूँ, इस कारण वही विश्वदर्शी मैं हूँ, अन्य मैं नहीं हूँ।43।
तत्त्वानुशासन/190 परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति। अर्हद्ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात्स्वयं तस्मात् ।=जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है, वह उस भाव के साथ तन्मय होता है (और भी देखो शीर्षक नं.1), अत: अर्हद्ध्यान से व्याप्त आत्मा स्वयं भाव अर्हंत होता है।190। - गरुड आदि तत्त्वों को ध्याता हुआ आत्मा ही स्वयं उन रूप होता है
ज्ञानार्णव/21/9-17 शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मैव कीर्तित:। अणिमादिगुणानर्घ्यरत्नवार्धिर्बुधैर्मत:।9। उक्तं च, ग्रन्थान्तरे-आत्यन्तिकस्वभावोत्थानन्तज्ञानसुख: पुमान् । परमात्मा विप: कन्तुरहो माहात्म्यमात्मन:।9।...तदेवं यदिह जगति शरीर विशेष समवेतं किमपि सामर्थ्यमुपलभामहे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चय:। आत्मप्रवृत्तिपरम्परोत्पादितत्वाद्विग्रहग्रहणस्येति।17।=विद्वानों ने इस आत्मा को ही शिव, गरुड व काम कहा है, क्योंकि यह आत्मा ही अणिमा महिमा आदि अमूल्य गुणरूपी रत्नों का समूह है।9। अन्य ग्रन्थ में भी कहा है‒अहो ! आत्मा का माहात्म्य कैसा है, अविनश्वर स्वभाव से उत्पन्न अनन्त ज्ञान व सुखस्वरूप यह आत्मा ही शिव, गरुड व काम है।‒(आत्मा ही निश्चय से परमात्म (शिव) व्यपदेश का धारक होता है।10। गारुडीविद्या को जानने के कारण गारुडगी नाम को अवगाहन करने वाला यह आत्मा ही गरुड नाम पाता है।15। आत्मा ही काम की संज्ञा को धारण करने वाला है।16। इस कारण शिव गरुड व कामरूप से इस जगत् में शरीर के साथ मिली हुई जो कुछ सामर्थ्य हम देखते हैं, वह सब आत्मा की ही है। क्योंकि शरीर को ग्रहण करने में आत्मा की प्रवृत्ति ही परम्परा हेतु है।17। तत्त्वानुशासन/135-136 यदा ध्यानबलाद्धयाता शून्यीकृतस्वविग्रहम् । ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्तादृक् संपद्यते स्वयम् ।135। तदा तथाविधध्यानसंवित्ति:‒ध्वस्तकल्पन:। स एव परमात्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथ:।136।=जिस समय ध्याता पुरुष ध्यान के बल से अपने शरीर को शून्य बनाकर ध्येयस्वरूप में आविष्ट या प्रविष्ट हो जाने से अपने को तत्सदृश बना लेता है, उस समय उस प्रकार की ध्यान संवित्ति से भेद विकल्प को नष्ट करता हुआ वह ही परमात्मा (शिव) गरुड अथवा कामदेव है।
नोट―(तीनों तत्त्वों के लक्षण‒देखो वह वह नाम।) - अन्य ध्येय भी आत्मा में आलेखितवत् प्रतीत होते हैं
तत्त्वानुशासन/133 ध्याने हि विभ्रति स्थैर्यं ध्येयरूपं परिस्फुटम् । आलेखितमिवाभाति ध्येयस्यासंनिधावपि।133। ध्यान में स्थिरता के परिपुष्ट हो जाने पर ध्येय का स्वरूप ध्येय के सन्निकट न होते हुए भी, स्पष्ट रूप से आलेखित जैसा प्रतिभासित होता है।
- ध्याता अपने ध्यानभाव से तन्मय होता है
पुराणकोष से
शारीरिक निस्पृहतापूर्वक किया गया अन्तिम आभ्यंतर तप । इसमें तन्मय होकर चित्त को एकाग्र किया जाता है । यह वज्रवृषभनाराचसंहनन वालों के भी अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है । योग, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तःसंलीनता इसके पर्यायवाची नाम है । शुभाशुभ परिणामों के कारण इसके प्रशस्त और अप्रशस्त दो भेद हैं । इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं । इनमें प्रशस्त ध्यान के भेद हैं― धर्म और शुक्लध्यान तथा अप्रशस्त ध्यान के भेद हैं—आर्त और रौद्र ध्यान । इन चारों में आर्त और रौद्र हेय हैं क्योंकि वे खोटे ध्यान है, संसार के बहाने वाले हैं तपा धर्म और शुक्लध्यान उपादेय है । वे मुक्ति के साधन है । महापुराण 5.153, 20.189, 202-203, 21.8,12, 27.29, पद्मपुराण 14.116 हरिवंशपुराण 56.2-3