पुण्य की कथंचित् इष्टता: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong>पुण्य व पाप में महान् | <li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong>पुण्य व पाप में महान् अंतर है</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/61 <span class="PrakritGatha">जस्स पुण मिच्छदिट्ठिस्स णत्थि सीलं वदं गुणो चावि। सो मरणे अप्पाणं कह ण कुणइ दीहसंसारं। 61।</span> = <span class="HindiText">जब व्रतादि सहित भी मिथ्यादृष्टि संसार में भ्रमण करता है (देखें [[ पुण्य#3.8 | पुण्य - 3.8]]) तब व्रतादि से रहित होकर तो क्यों दीर्घसंसारी न होगा?</span><br /> | भगवती आराधना/61 <span class="PrakritGatha">जस्स पुण मिच्छदिट्ठिस्स णत्थि सीलं वदं गुणो चावि। सो मरणे अप्पाणं कह ण कुणइ दीहसंसारं। 61।</span> = <span class="HindiText">जब व्रतादि सहित भी मिथ्यादृष्टि संसार में भ्रमण करता है (देखें [[ पुण्य#3.8 | पुण्य - 3.8]]) तब व्रतादि से रहित होकर तो क्यों दीर्घसंसारी न होगा?</span><br /> | ||
मोक्षपाहुड़/25 <span class="PrakritGatha">वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं। 25।</span> <span class="HindiText">जिस प्रकार छाया और आतप में स्थित पथिकों के प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत, तप, आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अव्रत व अतप आदिरूप पाप श्रेष्ठ नहीं हैं, क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है। ( इष्टोपदेश/3 ); ( अनगारधर्मामृत/8/15/740 )। </span><br /> | मोक्षपाहुड़/25 <span class="PrakritGatha">वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं। 25।</span> <span class="HindiText">जिस प्रकार छाया और आतप में स्थित पथिकों के प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत, तप, आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अव्रत व अतप आदिरूप पाप श्रेष्ठ नहीं हैं, क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है। ( इष्टोपदेश/3 ); ( अनगारधर्मामृत/8/15/740 )। </span><br /> | ||
तत्त्वसार/4/103 <span class="SanskritGatha"> हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः। हेतू शुभाशुभौ भावौ कार्ये चैव सुखासुखे। 103।</span> =<span class="HindiText"> हेतु और कार्य की विशेषता होने से पुण्य और पाप में | तत्त्वसार/4/103 <span class="SanskritGatha"> हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः। हेतू शुभाशुभौ भावौ कार्ये चैव सुखासुखे। 103।</span> =<span class="HindiText"> हेतु और कार्य की विशेषता होने से पुण्य और पाप में अंतर है। पुण्य का हेतु शुभभाव है और पाप का अशुभभाव है। पुण्य का कार्य सुख है और पाप का दुःख है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong>इष्ट प्राप्ति में पुरुषार्थ से पुण्य प्रधान है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong>इष्ट प्राप्ति में पुरुषार्थ से पुण्य प्रधान है</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/1731/1562 <span class="PrakritGatha">पाओदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स। दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण। 1731।</span> = <span class="HindiText">पाप का उदय आने पर हस्तगत द्रव्य भी नष्ट हो जाता है और पुण्य का उदय आने पर प्रयत्न के बिना ही दूर देश से भी धन आदि इष्ट सामग्री की प्राप्ति हो जाती है। (कुरल काव्य/38/6); (पं.वि./1/188)। और भी नियति/3/5 (दैव ही इष्टानिष्ट को सिद्धि में प्रधान है। उसके सामने पुरुषार्थ निष्फल है।)</span><br /> | भगवती आराधना/1731/1562 <span class="PrakritGatha">पाओदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स। दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण। 1731।</span> = <span class="HindiText">पाप का उदय आने पर हस्तगत द्रव्य भी नष्ट हो जाता है और पुण्य का उदय आने पर प्रयत्न के बिना ही दूर देश से भी धन आदि इष्ट सामग्री की प्राप्ति हो जाती है। (कुरल काव्य/38/6); (पं.वि./1/188)। और भी नियति/3/5 (दैव ही इष्टानिष्ट को सिद्धि में प्रधान है। उसके सामने पुरुषार्थ निष्फल है।)</span><br /> | ||
आ.अनु/37 <span class="SanskritText">आयु श्रीर्वपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं, स्यात् सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि। 37। </span>= <span class="HindiText">यदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीरादि भी यथेच्छित प्राप्त हो सकते हैं, | आ.अनु/37 <span class="SanskritText">आयु श्रीर्वपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं, स्यात् सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि। 37। </span>= <span class="HindiText">यदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीरादि भी यथेच्छित प्राप्त हो सकते हैं, परंतु यदि वह पुण्य नहीं है तो फिर अपने को क्लेशित करने पर भी वह सब बिलकुल भी प्राप्त नहीं हो सकता। (प.वि./1/184)। </span><br /> | ||
पं.वि./3/36<span class="SanskritText"> | पं.वि./3/36<span class="SanskritText"> वांछत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते।</span> =<span class="HindiText"> संसार में मनुष्य सुख की इच्छा करते हैं परंतु वह उन्हें विधि के द्वारा दिया गया प्राप्त होता है। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/428, 434 <span class="PrakritText">लच्छिं वंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ। बीएण विणा कत्थ वि किं दीसदि सस्स णिपत्ती। 428। ...उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती। धम्मपहावेण...। 434। </span>=<span class="HindiText">यह जीव लक्ष्मी तो चाहता है, | कार्तिकेयानुप्रेक्षा/428, 434 <span class="PrakritText">लच्छिं वंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ। बीएण विणा कत्थ वि किं दीसदि सस्स णिपत्ती। 428। ...उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती। धम्मपहावेण...। 434। </span>=<span class="HindiText">यह जीव लक्ष्मी तो चाहता है, किंतु सुधर्म से (पुण्यक्रियाओं से) प्रीति नहीं करता। क्या कहीं बिना बीज के भी धान्य की उत्पत्ति देखी जाती है?। 428। धर्म के प्रभाव से उद्यम न करनेवाले मनुष्य को भी लक्ष्मी की प्राप्ति हो जाती है। 434। (पं.वि./1/189)। </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/1/37, 60 <span class="SanskritGatha">विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या | अनगारधर्मामृत/1/37, 60 <span class="SanskritGatha">विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखंडसितामृतैः। स्पर्धमानाः फलिष्यंते भावाः स्वयमितस्ततः। 37। पुण्यं हि संमुखीनं चेत्सुखोपायाशतेन किम्। न पुण्यं संमुखीनं चेत्सुखोपायशतेन किम्। 60।</span> <span class="HindiText">हे पुण्यशालियो! तनिक विश्राम करो अर्थात् अधिक परिश्रम मत करो। गुड़, खांड, मिश्री और अमृत से स्पर्धा रखनेवाले पदार्थ तुमको स्वयं इधर उधर सेप्राप्त हो जायेंगे। 428। पुण्य यदि उदय के सम्मुख है तो तुम्हें दूसरे सुख के उपाय करने से क्या प्रयोजन हैं और वह सम्मुख नहीं है तो भी तुम्हें दूसरे सुख के उपाय करने से क्या प्रयोजन है?। 426। </span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/ प्रक्षेपक 219-1/301/13 <span class="SanskritText">अनेन प्रकारेण पुण्योदये सति सुवर्णं भवति न च पुण्याभावे। </span>=<span class="HindiText"> इस प्रकार से (नागफणी की जड़, हथिनी का मूत, | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/ प्रक्षेपक 219-1/301/13 <span class="SanskritText">अनेन प्रकारेण पुण्योदये सति सुवर्णं भवति न च पुण्याभावे। </span>=<span class="HindiText"> इस प्रकार से (नागफणी की जड़, हथिनी का मूत, सिंदूर और सीसा इन्हें भट्टी में धौंकनी से धौंकने के द्वारा) सुवर्ण केवल तभी बन सकता है, जबकि पुण्य का उदय हो, पुण्य के अभाव में नहीं बन सकता। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">पुण्य की महिमा व उसका फल </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">पुण्य की महिमा व उसका फल </strong> </span><br /> | ||
कुरल काव्य/4/1-2 <span class="SanskritGatha">धर्मात् साधुतरः कोऽन्यो यतो | कुरल काव्य/4/1-2 <span class="SanskritGatha">धर्मात् साधुतरः कोऽन्यो यतो विंदंति मानवाः। पुण्यं स्वर्गप्रदं नित्यं निर्वाणं च सुदुर्लभम्। 1। धर्मान्नास्त्यपरा काचित् सुकृतिर्देहधारिणाम्। तत्त्यागान्न परा काचिद् दुष्कृतिर्देहभागिनाम्। 2। </span>= <span class="HindiText">धर्म से मनुष्य को स्वर्ग मिलता है और उसी से मोक्ष कीप्राप्ति भी होती है, फिर भला धर्म से बढ़कर लाभदायक वस्तु और क्या है?। 1। धर्म से बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देने से बढ़कर और कोई बुराई भी नहीं। 2। </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,2/105/4 <span class="PrakritText">काणि पुण्ण-फलाणि। तित्थयरगणहर-रिसि-चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहार-रिद्धीओ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> पुण्य के फल कौन से हैं? <strong>उत्तर -</strong> तीथकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। </span><br /> | धवला 1/1,1,2/105/4 <span class="PrakritText">काणि पुण्ण-फलाणि। तित्थयरगणहर-रिसि-चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहार-रिद्धीओ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> पुण्य के फल कौन से हैं? <strong>उत्तर -</strong> तीथकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। </span><br /> | ||
महापुराण/37/191-199 <span class="SanskritGatha">पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी। पुण्याद् विना कुतस्तादृग् | महापुराण/37/191-199 <span class="SanskritGatha">पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी। पुण्याद् विना कुतस्तादृग् अभेदद्यगात्रबंधनम्। 191। पुण्याद् विना कुतस्तादृङ्निधिरत्नर्द्धिरूर्जिता। पुण्याद् विना कुतस्तादृग्इभाश्वादिपरिच्छदः। 192। </span>=<span class="HindiText"> पुण्य के बिना चक्रवर्ती के समान अनुपम रूप, संपदा, अभेद्य शरीर का बंधन, अतिशय उत्कट निधि, रत्नों की ऋद्धि, हाथी घोड़े आदि का परिवार। 191-192। (तथा इसी प्रकार) अंतःपुर का वैभव, भोगोपभोग, द्वीप समुद्रों की विजय तथा सर्व आज्ञा व ऐश्वर्यता आदि। 193-199। ये सब कैसे प्राप्त हो सकते हैं। (पं.वि./1/188)। </span><br /> | ||
पं.वि./1/189 <span class="SanskritText"> | पं.वि./1/189 <span class="SanskritText">कोऽप्यंधोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान्, निःप्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्याद्युष्यते मन्मथः। उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिंग्यते च श्रिया, पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं जायेत् यद्दुर्घटनम्। 189।</span> =<span class="HindiText"> पुण्य के प्रभाव से कोई अंधा भी प्राणी निर्मल नेत्रों का धारक हो जाता है, वृद्ध भी लावण्ययुक्त हो जाता है, निर्बल भी सिंह जैसा बलिष्ठ हो जाता है, विकृत शरीरवाला भी कामदेव के समान सुंदर हो जाता है। जो भी प्रशंसनीय अन्य समस्त पदार्थ यहाँ दुर्लभ प्रतीत होते हैं, वे सब पुण्योदय से प्राप्त हो जाते हैं। 189। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/434 <span class="PrakritText">अलियवयणं पि सच्चं...। धम्मपहावेण णरो अणओ वि सुहंकरो होदि। 434। </span>= <span class="HindiText">धर्म के प्रभाव से जीव के झूठ वचन भी सच्चे हो जाते हैं, और अन्यान्य भी सब सुखकारी हो जाता है। <br /> | कार्तिकेयानुप्रेक्षा/434 <span class="PrakritText">अलियवयणं पि सच्चं...। धम्मपहावेण णरो अणओ वि सुहंकरो होदि। 434। </span>= <span class="HindiText">धर्म के प्रभाव से जीव के झूठ वचन भी सच्चे हो जाते हैं, और अन्यान्य भी सब सुखकारी हो जाता है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4.4" id="4.4"><strong>पुण्य करने की प्रेरणा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.4" id="4.4"><strong>पुण्य करने की प्रेरणा</strong> </span><br /> | ||
कुरल काव्य/4/3 <span class="SanskritGatha">सत्कृत्यं सर्वदा काय यदुदर्के सुखावहम्। पूर्णशक्तिं समाधाय महोत्साहेन धीमता। 3। </span>= <span class="HindiText">अपनी पूरी शक्ति और पूरे उत्साह के साथ सत्कर्म सदा करते रहो। </span><br /> | कुरल काव्य/4/3 <span class="SanskritGatha">सत्कृत्यं सर्वदा काय यदुदर्के सुखावहम्। पूर्णशक्तिं समाधाय महोत्साहेन धीमता। 3। </span>= <span class="HindiText">अपनी पूरी शक्ति और पूरे उत्साह के साथ सत्कर्म सदा करते रहो। </span><br /> | ||
महापुराण/37/200 <span class="SanskritGatha">ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम्। चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसंपदाम्। 200।</span> = <span class="HindiText">इसलिए हे | महापुराण/37/200 <span class="SanskritGatha">ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम्। चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसंपदाम्। 200।</span> = <span class="HindiText">इसलिए हे पंडित जनो! चक्रवर्ती की विभूति को पुण्य के उदय से उत्पन्न हुई मानकर, उस पुण्य का संचय करो, जो कि समस्त सुख और संपदाओं की दुकान के समान है। 200। </span><br /> | ||
आत्मानुशासन/23, 31, 37 <span class="SanskritText">परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः। तस्मात्पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः। 23। पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्य-मनीदृशोऽपि, नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै। | आत्मानुशासन/23, 31, 37 <span class="SanskritText">परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः। तस्मात्पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः। 23। पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्य-मनीदृशोऽपि, नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै। संतापयंजगद-शेषमशीतरश्मिः, पद्मेषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम्। 31। इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मंदोद्यमा द्रागागामि-भवार्थमेव सततं प्रीत्या यतंते तराम्। 37। </span>= <span class="HindiText">विद्वान् मनुष्य निश्चय से आत्मपरिणाम को ही पुण्य और पाप का कारण बतलाते हैं, इसलिए अपने निर्मल परिणाम के द्वारा पूर्वोपार्जित पाप की निर्जरा, नवीन पाप का निरोध और पुण्य का उपार्जन करना चाहिए। 23। हे भव्य जीव! तू पुण्य कार्य को कर, कयोंकि पुण्यवान् प्राणी के ऊपर असाधारण उपद्रव् भी कोई प्रभाव नहीं डाल सकता है। उलटा वह उपद्रव ही उसके लिए संपत्ति का साधन बन जाता है। 31। इसलिए योग्यायोग्य कार्य का विचार करनेवाले श्रेष्ठ जन भले प्रकार विचार करके इस लोकसंबंधी कार्य के विषय में विशेष प्रयत्न नहीं करते हैं, किंतु आगामी भवों को सुंदर बनाने के लिए ही वे निरंतर प्रीति पूर्वक अतिशय प्रयत्न करते हैं। 37। </span><br /> | ||
पं.वि./1/183-188 <span class="SanskritText">नो धर्मादपरोऽस्ति तारक | पं.वि./1/183-188 <span class="SanskritText">नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रांतं यतघ्वं बुधाः। 183। निर्धूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम्। 186। अन्यतरं प्रभवतीह निमित्तमात्रं, पात्रं बुधा भवत निर्मल-पुण्यराशेः। 188। </span>=<span class="HindiText"> इस संसार में डूबते हुए प्राणियों का उद्धार करनेवाला धर्म को छोड़कर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिए हे विद्वज्जनो! आप निरंतर धर्म के विषय में प्रयत्न करें। 183। निश्चय से समस्त दुःखदायक आपत्तियों को नष्ट करनेवाले धर्म में अपनी बुद्धि को लगाओ। 186। (पुण्य व पाप ही वास्तव में इष्ट संयोग व वियोग के हेतु हैं) अन्य पदार्थ तो केवल निमित्त मात्र हैं। इसलिए हे पंडित जन! निर्मल पुण्यराशि के भाजन होओ अर्थात् पुण्य उपार्जन करो। 188। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/437 <span class="PrakritGatha">इय पच्चक्खं पेच्छइ धम्माहम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह। 437। </span>= <span class="HindiText">हे प्राणियों! इस प्रकार धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर सदा धर्म का आचरण करो, और पाप से दूर ही रहो। <br /> | कार्तिकेयानुप्रेक्षा/437 <span class="PrakritGatha">इय पच्चक्खं पेच्छइ धम्माहम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह। 437। </span>= <span class="HindiText">हे प्राणियों! इस प्रकार धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर सदा धर्म का आचरण करो, और पाप से दूर ही रहो। <br /> | ||
देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2 ]](सावद्य होते हुए भी पूजा आदि शुभ कार्य अवश्य करने कर्तव्य हैं)। </span></li> | देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2 ]](सावद्य होते हुए भी पूजा आदि शुभ कार्य अवश्य करने कर्तव्य हैं)। </span></li> |
Revision as of 16:28, 19 August 2020
- पुण्य की कथंचित् इष्टता
- पुण्य व पाप में महान् अंतर है
भगवती आराधना/61 जस्स पुण मिच्छदिट्ठिस्स णत्थि सीलं वदं गुणो चावि। सो मरणे अप्पाणं कह ण कुणइ दीहसंसारं। 61। = जब व्रतादि सहित भी मिथ्यादृष्टि संसार में भ्रमण करता है (देखें पुण्य - 3.8) तब व्रतादि से रहित होकर तो क्यों दीर्घसंसारी न होगा?
मोक्षपाहुड़/25 वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं। 25। जिस प्रकार छाया और आतप में स्थित पथिकों के प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत, तप, आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अव्रत व अतप आदिरूप पाप श्रेष्ठ नहीं हैं, क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है। ( इष्टोपदेश/3 ); ( अनगारधर्मामृत/8/15/740 )।
तत्त्वसार/4/103 हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः। हेतू शुभाशुभौ भावौ कार्ये चैव सुखासुखे। 103। = हेतु और कार्य की विशेषता होने से पुण्य और पाप में अंतर है। पुण्य का हेतु शुभभाव है और पाप का अशुभभाव है। पुण्य का कार्य सुख है और पाप का दुःख है।
- इष्ट प्राप्ति में पुरुषार्थ से पुण्य प्रधान है
भगवती आराधना/1731/1562 पाओदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स। दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण। 1731। = पाप का उदय आने पर हस्तगत द्रव्य भी नष्ट हो जाता है और पुण्य का उदय आने पर प्रयत्न के बिना ही दूर देश से भी धन आदि इष्ट सामग्री की प्राप्ति हो जाती है। (कुरल काव्य/38/6); (पं.वि./1/188)। और भी नियति/3/5 (दैव ही इष्टानिष्ट को सिद्धि में प्रधान है। उसके सामने पुरुषार्थ निष्फल है।)
आ.अनु/37 आयु श्रीर्वपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं, स्यात् सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि। 37। = यदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीरादि भी यथेच्छित प्राप्त हो सकते हैं, परंतु यदि वह पुण्य नहीं है तो फिर अपने को क्लेशित करने पर भी वह सब बिलकुल भी प्राप्त नहीं हो सकता। (प.वि./1/184)।
पं.वि./3/36 वांछत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते। = संसार में मनुष्य सुख की इच्छा करते हैं परंतु वह उन्हें विधि के द्वारा दिया गया प्राप्त होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/428, 434 लच्छिं वंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ। बीएण विणा कत्थ वि किं दीसदि सस्स णिपत्ती। 428। ...उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती। धम्मपहावेण...। 434। =यह जीव लक्ष्मी तो चाहता है, किंतु सुधर्म से (पुण्यक्रियाओं से) प्रीति नहीं करता। क्या कहीं बिना बीज के भी धान्य की उत्पत्ति देखी जाती है?। 428। धर्म के प्रभाव से उद्यम न करनेवाले मनुष्य को भी लक्ष्मी की प्राप्ति हो जाती है। 434। (पं.वि./1/189)।
अनगारधर्मामृत/1/37, 60 विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखंडसितामृतैः। स्पर्धमानाः फलिष्यंते भावाः स्वयमितस्ततः। 37। पुण्यं हि संमुखीनं चेत्सुखोपायाशतेन किम्। न पुण्यं संमुखीनं चेत्सुखोपायशतेन किम्। 60। हे पुण्यशालियो! तनिक विश्राम करो अर्थात् अधिक परिश्रम मत करो। गुड़, खांड, मिश्री और अमृत से स्पर्धा रखनेवाले पदार्थ तुमको स्वयं इधर उधर सेप्राप्त हो जायेंगे। 428। पुण्य यदि उदय के सम्मुख है तो तुम्हें दूसरे सुख के उपाय करने से क्या प्रयोजन हैं और वह सम्मुख नहीं है तो भी तुम्हें दूसरे सुख के उपाय करने से क्या प्रयोजन है?। 426।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/ प्रक्षेपक 219-1/301/13 अनेन प्रकारेण पुण्योदये सति सुवर्णं भवति न च पुण्याभावे। = इस प्रकार से (नागफणी की जड़, हथिनी का मूत, सिंदूर और सीसा इन्हें भट्टी में धौंकनी से धौंकने के द्वारा) सुवर्ण केवल तभी बन सकता है, जबकि पुण्य का उदय हो, पुण्य के अभाव में नहीं बन सकता।
पृष्ठ 64 से
- पुण्य की महिमा व उसका फल
कुरल काव्य/4/1-2 धर्मात् साधुतरः कोऽन्यो यतो विंदंति मानवाः। पुण्यं स्वर्गप्रदं नित्यं निर्वाणं च सुदुर्लभम्। 1। धर्मान्नास्त्यपरा काचित् सुकृतिर्देहधारिणाम्। तत्त्यागान्न परा काचिद् दुष्कृतिर्देहभागिनाम्। 2। = धर्म से मनुष्य को स्वर्ग मिलता है और उसी से मोक्ष कीप्राप्ति भी होती है, फिर भला धर्म से बढ़कर लाभदायक वस्तु और क्या है?। 1। धर्म से बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देने से बढ़कर और कोई बुराई भी नहीं। 2।
धवला 1/1,1,2/105/4 काणि पुण्ण-फलाणि। तित्थयरगणहर-रिसि-चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहार-रिद्धीओ। = प्रश्न - पुण्य के फल कौन से हैं? उत्तर - तीथकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।
महापुराण/37/191-199 पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी। पुण्याद् विना कुतस्तादृग् अभेदद्यगात्रबंधनम्। 191। पुण्याद् विना कुतस्तादृङ्निधिरत्नर्द्धिरूर्जिता। पुण्याद् विना कुतस्तादृग्इभाश्वादिपरिच्छदः। 192। = पुण्य के बिना चक्रवर्ती के समान अनुपम रूप, संपदा, अभेद्य शरीर का बंधन, अतिशय उत्कट निधि, रत्नों की ऋद्धि, हाथी घोड़े आदि का परिवार। 191-192। (तथा इसी प्रकार) अंतःपुर का वैभव, भोगोपभोग, द्वीप समुद्रों की विजय तथा सर्व आज्ञा व ऐश्वर्यता आदि। 193-199। ये सब कैसे प्राप्त हो सकते हैं। (पं.वि./1/188)।
पं.वि./1/189 कोऽप्यंधोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान्, निःप्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्याद्युष्यते मन्मथः। उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिंग्यते च श्रिया, पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं जायेत् यद्दुर्घटनम्। 189। = पुण्य के प्रभाव से कोई अंधा भी प्राणी निर्मल नेत्रों का धारक हो जाता है, वृद्ध भी लावण्ययुक्त हो जाता है, निर्बल भी सिंह जैसा बलिष्ठ हो जाता है, विकृत शरीरवाला भी कामदेव के समान सुंदर हो जाता है। जो भी प्रशंसनीय अन्य समस्त पदार्थ यहाँ दुर्लभ प्रतीत होते हैं, वे सब पुण्योदय से प्राप्त हो जाते हैं। 189।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/434 अलियवयणं पि सच्चं...। धम्मपहावेण णरो अणओ वि सुहंकरो होदि। 434। = धर्म के प्रभाव से जीव के झूठ वचन भी सच्चे हो जाते हैं, और अन्यान्य भी सब सुखकारी हो जाता है।
- पुण्य करने की प्रेरणा
कुरल काव्य/4/3 सत्कृत्यं सर्वदा काय यदुदर्के सुखावहम्। पूर्णशक्तिं समाधाय महोत्साहेन धीमता। 3। = अपनी पूरी शक्ति और पूरे उत्साह के साथ सत्कर्म सदा करते रहो।
महापुराण/37/200 ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम्। चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसंपदाम्। 200। = इसलिए हे पंडित जनो! चक्रवर्ती की विभूति को पुण्य के उदय से उत्पन्न हुई मानकर, उस पुण्य का संचय करो, जो कि समस्त सुख और संपदाओं की दुकान के समान है। 200।
आत्मानुशासन/23, 31, 37 परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः। तस्मात्पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः। 23। पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्य-मनीदृशोऽपि, नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै। संतापयंजगद-शेषमशीतरश्मिः, पद्मेषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम्। 31। इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मंदोद्यमा द्रागागामि-भवार्थमेव सततं प्रीत्या यतंते तराम्। 37। = विद्वान् मनुष्य निश्चय से आत्मपरिणाम को ही पुण्य और पाप का कारण बतलाते हैं, इसलिए अपने निर्मल परिणाम के द्वारा पूर्वोपार्जित पाप की निर्जरा, नवीन पाप का निरोध और पुण्य का उपार्जन करना चाहिए। 23। हे भव्य जीव! तू पुण्य कार्य को कर, कयोंकि पुण्यवान् प्राणी के ऊपर असाधारण उपद्रव् भी कोई प्रभाव नहीं डाल सकता है। उलटा वह उपद्रव ही उसके लिए संपत्ति का साधन बन जाता है। 31। इसलिए योग्यायोग्य कार्य का विचार करनेवाले श्रेष्ठ जन भले प्रकार विचार करके इस लोकसंबंधी कार्य के विषय में विशेष प्रयत्न नहीं करते हैं, किंतु आगामी भवों को सुंदर बनाने के लिए ही वे निरंतर प्रीति पूर्वक अतिशय प्रयत्न करते हैं। 37।
पं.वि./1/183-188 नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रांतं यतघ्वं बुधाः। 183। निर्धूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम्। 186। अन्यतरं प्रभवतीह निमित्तमात्रं, पात्रं बुधा भवत निर्मल-पुण्यराशेः। 188। = इस संसार में डूबते हुए प्राणियों का उद्धार करनेवाला धर्म को छोड़कर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिए हे विद्वज्जनो! आप निरंतर धर्म के विषय में प्रयत्न करें। 183। निश्चय से समस्त दुःखदायक आपत्तियों को नष्ट करनेवाले धर्म में अपनी बुद्धि को लगाओ। 186। (पुण्य व पाप ही वास्तव में इष्ट संयोग व वियोग के हेतु हैं) अन्य पदार्थ तो केवल निमित्त मात्र हैं। इसलिए हे पंडित जन! निर्मल पुण्यराशि के भाजन होओ अर्थात् पुण्य उपार्जन करो। 188।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/437 इय पच्चक्खं पेच्छइ धम्माहम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह। 437। = हे प्राणियों! इस प्रकार धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर सदा धर्म का आचरण करो, और पाप से दूर ही रहो।
देखें धर्म - 5.2 (सावद्य होते हुए भी पूजा आदि शुभ कार्य अवश्य करने कर्तव्य हैं)।
- पुण्य व पाप में महान् अंतर है