पुष्पदंत: Difference between revisions
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<li> यह एक कवि तथा काश्यप गोत्रीय ब्राह्माण थे। केशव उनके पिता और मुग्धा उनकी माता थीं। वे दोनों शिवभक्त थे। | <li> महापुराण/50/2-22 ‘पूर्व के दूसरे भव में पुष्कर द्वीप के पूर्व दिग्विभाग में विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा महापद्म थे। फिर प्राणत स्वर्ग में इंद्र हुए। वर्तमान भव में 9 वें तीथकर हुए। अपरनाम सुविधि था। विशेष परिचय - देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]। </li> | ||
<li> आप राजा जिनपालित के समकालीन तथा उनके मामा थे। इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि राजा जिनपालित की राजधानी वनवास ही आपका जन्म स्थान है। आप वहाँ से चलकर | <li> यह एक कवि तथा काश्यप गोत्रीय ब्राह्माण थे। केशव उनके पिता और मुग्धा उनकी माता थीं। वे दोनों शिवभक्त थे। उपरांत जैनी हो गये थे। पहले भैरव राजा के आश्रय थे, पीछे मान्यखेट आ गये। वहाँ के नरेश कृष्ण तृ. के भरत ने इन्हें अपने शुभतुंग भवन में रखा था। महापुराण ग्रंथ श. 965 (ई.1043) में समाप्त किया था। इसके अतिरिक्त यशोधर चरित्र व नागकुमार चरित्र की भी रचना की थी। यह तीनों ग्रंथ अपभ्रंश भाषा में थे। समय - ई.श. 11 (जै.हि.सा.इ./27 कामता) ई. 965 (जीवंधर चंपू/प्र. 8/A.N.Up.); ई. 959 (पउम चरिउ/प्र. देवेंद्रकुमार), ( महापुराण/ प्र.20/पं. पन्नालाल)। </li> | ||
<li> आप राजा जिनपालित के समकालीन तथा उनके मामा थे। इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि राजा जिनपालित की राजधानी वनवास ही आपका जन्म स्थान है। आप वहाँ से चलकर पुंड्रवर्धन अर्हद्बलि आचार्य के स्थान पर आये और उनसे दीक्षा लेकर तुरंत उनके साथ ही महिमानगर चले गये जहाँ अर्हद्बलि ने बृहद् यति सम्मेलन एकत्रित किया था। उनका आदेश पाकर ये वहाँ से ही एक अन्य साधु भूतबलि (आचार्य) के साथ धरसेनाचार्य की सेवार्थ गिरनार चले गये, जहाँ उन्होंने धरसेनाचार्य से षट्खंड का ज्ञान प्राप्त किया। इनकी साधना से प्रसन्न होकर भूत जाति के व्यंतर देवों ने इनकी अस्त-व्यस्त दंतपंक्ति को सुंदर कर दिया था। इसी से इनका नाम पुष्पदंत पड़ गया। विबुध श्रीधर के श्रुतावतार के अनुसार आप वसुंधरा नगरी के राजा नरवाहन थे। गुरु से ज्ञान प्राप्त करके अपने सहधर्मा भूतबलिजी के साथ आप गुरु से विदा लेकर आषाढ़ शु. 11 को पर्वत से नीचे आ गए और उसके निकट अंकलेश्वर में चातुर्मास कर लिया। इसकी समाप्ति के पश्चात् भूतबलि को वहाँ ही छोड़कर आप अपने स्थान ‘वनवास’ लौट आये, जहाँ अपने भानजे राजा जिनपालित को दीक्षा देकर आपने उन्हें सिद्धांत का अध्ययन कराया। उसके निमित्त से आपने ‘वीसदि सूत्र’ नामक एक ग्रंथ की रचना की जिसे अवलोकन के लिये आपने उन्हीं के द्वारा भूतबलि जी के पास भेज दिया। समय - वी. नि. 593-633 (ई. 66-106)। (विशेष देखें [[ कोश#1 | कोश - 1 ]]परिशिष्ट 2/11)। </li> | |||
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<p id="1"> (1) धातकीखंड में पूर्व भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी का चक्रवर्ती राजा । इसकी प्रीतिंकरी रानी और सुदत्त पुत्र था । <span class="GRef"> महापुराण 71.256-257 </span></p> | |||
<p id="2">(2) राजपुर नगर निवासी धनी मालाकार । <span class="GRef"> महापुराण 75.526-527 </span></p> | |||
<p id="3">(3) श्रुत को ग्रंथारूढ करने वाले एक आचार्य । तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् छ: सौ तिरासी वर्ष बीत जाने पर काल दोष से श्रुतज्ञान की हीनता होने लगी । तब इन्होंने आचार्य भूतबलि के साथ अवशिष्ट श्रुत को पुस्तकारूढ़ किया और सब संघों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उसकी महापूजा की । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 41-55 </span></p> | |||
<p id="4">(4) क्षीरवर द्वीप का एक रक्षक व्यंतर देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.641 </span></p> | |||
<p id="5">(5) एक क्षुल्लक । विष्णुकुमार मुनि के गुरु ने मुनियों पर हस्तिनापुर में बलि द्वारा किये जाते हुए उपसर्ग को जानकर दु:ख प्रकट किया था । क्षुल्लक ने उनसे यह जानकर कि विक्रिया ऋद्धि धारक विष्णुकुमार मुनि इस उपसर्ग को दूर कर सकते हैं ये उनके पास पहुँचे । इनके द्वारा प्राप्त संदेश से विष्णुकुमार ने गुरु की आज्ञा के अनुसार इस उपसर्ग का निवारण किया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 20. 25-60 </span></p> | |||
<p id="6">(6) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा-सुषमा काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं नौवें तीर्थंकर । अपरनाम सुविधिनाथ चंद्रप्रभ तीर्थंकर के पश्चात् नव्वे करोड़ सागर का समय निकल जाने पर ये फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन भरतक्षेत्र में स्थित काकंदी नगरी के स्वामी सुग्रीव की महारानी जयरामा के गर्भ में आये और मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन जैत्रयोग में इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इंद्र ने इन्हें यह नाम दिया । इनकी आयु दो लाख पूर्व की थी और शरीर सौ धनुष ऊँचा था । इनका पचास हजार पूर्व का समय कुमारावस्था में बीता । पचास हजार पूर्व अट्ठाईस पूर्वांग वर्ष इन्होंने राज्य किया । उल्कापात देखकर ये प्रबोध को प्राप्त हुए । तब इन्होंने अपने पुत्र सुमति को राज्य सौंप दिया और सूर्यप्रभा नाम की शिविका में बैठकर ये पुष्पक बन गये । वहाँ ये मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन अपराह्न में षष्ठोपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । दीक्षित होते ही इन्हें मन: पर्ययज्ञान हो गया शैलपुर नगर के राजा पुण्यमित्र के यहाँ प्रथम पारणा हुई । छद्मस्थ अवस्था में तप करते हुए चार वर्ष बीत जाने पर कार्तिक शुक्ला द्वितीया को सायं बेला में मूल नक्षत्र में दो दिन का उपवास लेकर नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए । वहाँ इन्होंने घातिया कर्मों का नाश करके अनंत चतुष्टय प्राप्त किया । इनके संघ में विदर्भ आदि अठासी गणधर, दो लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं । आर्य देशों में विहार करके भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि की अपराह्न बेला में, मूल नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । दूसरे पूर्वभव में थे पुंडरीकिणी नगरी के महापद्म नामक नृप थे, पहले पूर्वभव में ये प्राणत स्वर्ग में इंद्र हुए । वहीं से च्युत होकर इस भव में ये तीर्थंकर हुए । <span class="GRef"> महापुराण 2. 130, 50.2-22, 55.23-30, 36-38, 45-59, 62, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 5. 214, 20. 63, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1. 11, 60.156-190, 341-349, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1.19, 18.101-106 </span></p> | |||
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Revision as of 16:28, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- उत्तर क्षीरवर द्वीप का रक्षक व्यंतर देव। - देखें व्यंतर - 4।
- महापुराण/50/2-22 ‘पूर्व के दूसरे भव में पुष्कर द्वीप के पूर्व दिग्विभाग में विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा महापद्म थे। फिर प्राणत स्वर्ग में इंद्र हुए। वर्तमान भव में 9 वें तीथकर हुए। अपरनाम सुविधि था। विशेष परिचय - देखें तीर्थंकर - 5।
- यह एक कवि तथा काश्यप गोत्रीय ब्राह्माण थे। केशव उनके पिता और मुग्धा उनकी माता थीं। वे दोनों शिवभक्त थे। उपरांत जैनी हो गये थे। पहले भैरव राजा के आश्रय थे, पीछे मान्यखेट आ गये। वहाँ के नरेश कृष्ण तृ. के भरत ने इन्हें अपने शुभतुंग भवन में रखा था। महापुराण ग्रंथ श. 965 (ई.1043) में समाप्त किया था। इसके अतिरिक्त यशोधर चरित्र व नागकुमार चरित्र की भी रचना की थी। यह तीनों ग्रंथ अपभ्रंश भाषा में थे। समय - ई.श. 11 (जै.हि.सा.इ./27 कामता) ई. 965 (जीवंधर चंपू/प्र. 8/A.N.Up.); ई. 959 (पउम चरिउ/प्र. देवेंद्रकुमार), ( महापुराण/ प्र.20/पं. पन्नालाल)।
- आप राजा जिनपालित के समकालीन तथा उनके मामा थे। इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि राजा जिनपालित की राजधानी वनवास ही आपका जन्म स्थान है। आप वहाँ से चलकर पुंड्रवर्धन अर्हद्बलि आचार्य के स्थान पर आये और उनसे दीक्षा लेकर तुरंत उनके साथ ही महिमानगर चले गये जहाँ अर्हद्बलि ने बृहद् यति सम्मेलन एकत्रित किया था। उनका आदेश पाकर ये वहाँ से ही एक अन्य साधु भूतबलि (आचार्य) के साथ धरसेनाचार्य की सेवार्थ गिरनार चले गये, जहाँ उन्होंने धरसेनाचार्य से षट्खंड का ज्ञान प्राप्त किया। इनकी साधना से प्रसन्न होकर भूत जाति के व्यंतर देवों ने इनकी अस्त-व्यस्त दंतपंक्ति को सुंदर कर दिया था। इसी से इनका नाम पुष्पदंत पड़ गया। विबुध श्रीधर के श्रुतावतार के अनुसार आप वसुंधरा नगरी के राजा नरवाहन थे। गुरु से ज्ञान प्राप्त करके अपने सहधर्मा भूतबलिजी के साथ आप गुरु से विदा लेकर आषाढ़ शु. 11 को पर्वत से नीचे आ गए और उसके निकट अंकलेश्वर में चातुर्मास कर लिया। इसकी समाप्ति के पश्चात् भूतबलि को वहाँ ही छोड़कर आप अपने स्थान ‘वनवास’ लौट आये, जहाँ अपने भानजे राजा जिनपालित को दीक्षा देकर आपने उन्हें सिद्धांत का अध्ययन कराया। उसके निमित्त से आपने ‘वीसदि सूत्र’ नामक एक ग्रंथ की रचना की जिसे अवलोकन के लिये आपने उन्हीं के द्वारा भूतबलि जी के पास भेज दिया। समय - वी. नि. 593-633 (ई. 66-106)। (विशेष देखें कोश - 1 परिशिष्ट 2/11)।
पुराणकोष से
(1) धातकीखंड में पूर्व भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी का चक्रवर्ती राजा । इसकी प्रीतिंकरी रानी और सुदत्त पुत्र था । महापुराण 71.256-257
(2) राजपुर नगर निवासी धनी मालाकार । महापुराण 75.526-527
(3) श्रुत को ग्रंथारूढ करने वाले एक आचार्य । तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् छ: सौ तिरासी वर्ष बीत जाने पर काल दोष से श्रुतज्ञान की हीनता होने लगी । तब इन्होंने आचार्य भूतबलि के साथ अवशिष्ट श्रुत को पुस्तकारूढ़ किया और सब संघों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उसकी महापूजा की । वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 41-55
(4) क्षीरवर द्वीप का एक रक्षक व्यंतर देव । हरिवंशपुराण 5.641
(5) एक क्षुल्लक । विष्णुकुमार मुनि के गुरु ने मुनियों पर हस्तिनापुर में बलि द्वारा किये जाते हुए उपसर्ग को जानकर दु:ख प्रकट किया था । क्षुल्लक ने उनसे यह जानकर कि विक्रिया ऋद्धि धारक विष्णुकुमार मुनि इस उपसर्ग को दूर कर सकते हैं ये उनके पास पहुँचे । इनके द्वारा प्राप्त संदेश से विष्णुकुमार ने गुरु की आज्ञा के अनुसार इस उपसर्ग का निवारण किया । हरिवंशपुराण 20. 25-60
(6) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा-सुषमा काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं नौवें तीर्थंकर । अपरनाम सुविधिनाथ चंद्रप्रभ तीर्थंकर के पश्चात् नव्वे करोड़ सागर का समय निकल जाने पर ये फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन भरतक्षेत्र में स्थित काकंदी नगरी के स्वामी सुग्रीव की महारानी जयरामा के गर्भ में आये और मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन जैत्रयोग में इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इंद्र ने इन्हें यह नाम दिया । इनकी आयु दो लाख पूर्व की थी और शरीर सौ धनुष ऊँचा था । इनका पचास हजार पूर्व का समय कुमारावस्था में बीता । पचास हजार पूर्व अट्ठाईस पूर्वांग वर्ष इन्होंने राज्य किया । उल्कापात देखकर ये प्रबोध को प्राप्त हुए । तब इन्होंने अपने पुत्र सुमति को राज्य सौंप दिया और सूर्यप्रभा नाम की शिविका में बैठकर ये पुष्पक बन गये । वहाँ ये मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन अपराह्न में षष्ठोपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । दीक्षित होते ही इन्हें मन: पर्ययज्ञान हो गया शैलपुर नगर के राजा पुण्यमित्र के यहाँ प्रथम पारणा हुई । छद्मस्थ अवस्था में तप करते हुए चार वर्ष बीत जाने पर कार्तिक शुक्ला द्वितीया को सायं बेला में मूल नक्षत्र में दो दिन का उपवास लेकर नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए । वहाँ इन्होंने घातिया कर्मों का नाश करके अनंत चतुष्टय प्राप्त किया । इनके संघ में विदर्भ आदि अठासी गणधर, दो लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं । आर्य देशों में विहार करके भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि की अपराह्न बेला में, मूल नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । दूसरे पूर्वभव में थे पुंडरीकिणी नगरी के महापद्म नामक नृप थे, पहले पूर्वभव में ये प्राणत स्वर्ग में इंद्र हुए । वहीं से च्युत होकर इस भव में ये तीर्थंकर हुए । महापुराण 2. 130, 50.2-22, 55.23-30, 36-38, 45-59, 62, पद्मपुराण 5. 214, 20. 63, हरिवंशपुराण 1. 11, 60.156-190, 341-349, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.19, 18.101-106