भवन: Difference between revisions
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तिलोयपण्णत्ति/3/14-16 <span class="PrakritGatha"> पढमो हु चमरणामो इंदो वइरोयणो त्ति विदिओ य। भूदाणंदो धरणाणंदो वेणू य वेणुदारी य।14। पुण्वसिट्ठजलप्पहजलकंता तह य घोसमहघोसा। हरिसेणो हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाहणग्गिसिही।15। अग्गिवाहणणामो वेलंबपभंजणाभिधाणा य। एदे असुरप्पहुदिसु कुलेसु दोद्दो कमेण देविंदा।16।</span> = <span class="HindiText">असुरकुमारों में प्रथम चमर नामक और दूसरा वैरोचन इन्द्र, नागकुमारों में भूतानन्द और धरणानन्द, सुपर्णकुमारों में वेणु और वेणुधारी, द्वीप-कुमारों में पूर्ण और वशिष्ठ, उदधिकुमारों में जलप्रभ और जलकान्त, स्तनितकुमारों में घोष और महाघोष, विद्युत्कुमार में हरिषेण और अमितवाहन, अग्नि-कुमारों में अग्निशिखी और अग्निवाहन, वायुकुमारों में वेलम्ब और प्रभंजन नामक इस प्रकार दो-दो इन्द्र क्रम से उन असुरादि निकायों में होते हैं।14-16। (इनमें प्रथम नम्बर के इन्द्र दक्षिण इन्द्र हैं और द्वितीय नम्बर के इन्द्र उत्तर इन्द्र हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/17-19 )।<br /> | तिलोयपण्णत्ति/3/14-16 <span class="PrakritGatha"> पढमो हु चमरणामो इंदो वइरोयणो त्ति विदिओ य। भूदाणंदो धरणाणंदो वेणू य वेणुदारी य।14। पुण्वसिट्ठजलप्पहजलकंता तह य घोसमहघोसा। हरिसेणो हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाहणग्गिसिही।15। अग्गिवाहणणामो वेलंबपभंजणाभिधाणा य। एदे असुरप्पहुदिसु कुलेसु दोद्दो कमेण देविंदा।16।</span> = <span class="HindiText">असुरकुमारों में प्रथम चमर नामक और दूसरा वैरोचन इन्द्र, नागकुमारों में भूतानन्द और धरणानन्द, सुपर्णकुमारों में वेणु और वेणुधारी, द्वीप-कुमारों में पूर्ण और वशिष्ठ, उदधिकुमारों में जलप्रभ और जलकान्त, स्तनितकुमारों में घोष और महाघोष, विद्युत्कुमार में हरिषेण और अमितवाहन, अग्नि-कुमारों में अग्निशिखी और अग्निवाहन, वायुकुमारों में वेलम्ब और प्रभंजन नामक इस प्रकार दो-दो इन्द्र क्रम से उन असुरादि निकायों में होते हैं।14-16। (इनमें प्रथम नम्बर के इन्द्र दक्षिण इन्द्र हैं और द्वितीय नम्बर के इन्द्र उत्तर इन्द्र हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/17-19 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> भवनवासियों के वर्ण, आहार, श्वास आदि</strong> </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">भवनवासियों के वर्ण, आहार, श्वास आदि</strong> </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> भवनों की बनावट व विस्तार आदि</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> भवनों की बनावट व विस्तार आदि</strong> <br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/25-61 का भावार्थ ( ये सब देवों व इन्द्रों के भवन समचतुष्काण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान हैं।25। ये भवन बाहल्य में 300 योजन और विस्तार में संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण हैं।26-27। भवनों की चारों दिशाओं में ...उपदिष्ट योजन प्रमाण जाकर एक-एक दिव्यवेदी (परकोट) है।28। इन वेदियों की ऊँचाई दो कोस और विस्तार 500 धनुष प्रमाण है।29। गोपुर द्वारों से युक्त और उपरिम भाग में जिनमन्दिरों से सहित वे वेदियाँ हैं।30। वेदियों के बाह्य भागों में चैत्य वृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोकवन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। इन वेदियों के बहुमध्य भाग में सर्वत्र 100 योजन ऊँचे वेत्रासन के आकार रत्नमय महाकूट स्थित हैं।40। प्रत्येक कूट पर एक-एक जिन भवन है।43। कूटों के चारों तरफ...भवनवासी देवों के प्रासाद हैं।56। सब भवन सात, आठ, नौ व दश इत्यादि भूमियों (मंजिलों) से भूषित... जन्मशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, ओलगशाला (परिचर्यागृह) और | तिलोयपण्णत्ति/3/25-61 का भावार्थ ( ये सब देवों व इन्द्रों के भवन समचतुष्काण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान हैं।25। ये भवन बाहल्य में 300 योजन और विस्तार में संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण हैं।26-27। भवनों की चारों दिशाओं में ...उपदिष्ट योजन प्रमाण जाकर एक-एक दिव्यवेदी (परकोट) है।28। इन वेदियों की ऊँचाई दो कोस और विस्तार 500 धनुष प्रमाण है।29। गोपुर द्वारों से युक्त और उपरिम भाग में जिनमन्दिरों से सहित वे वेदियाँ हैं।30। वेदियों के बाह्य भागों में चैत्य वृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोकवन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। इन वेदियों के बहुमध्य भाग में सर्वत्र 100 योजन ऊँचे वेत्रासन के आकार रत्नमय महाकूट स्थित हैं।40। प्रत्येक कूट पर एक-एक जिन भवन है।43। कूटों के चारों तरफ...भवनवासी देवों के प्रासाद हैं।56। सब भवन सात, आठ, नौ व दश इत्यादि भूमियों (मंजिलों) से भूषित... जन्मशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, ओलगशाला (परिचर्यागृह) और यन्त्रशाला (सहित)...सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह और लतागृह इत्यादि गृहविशेषों से सहित... पुष्करिणी, वापी और कूप इनके समूह से युक्त...गवाक्ष और कपाटों से सुशोभित नाना प्रकार की पुत्तलिकाओं से सहित...अनादिनिधन हैं।57-61।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> प्रत्येक भवन में देवों की बस्ती</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> प्रत्येक भवन में देवों की बस्ती</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/26-27 ...<span class="PrakritText"> संखेज्जरुंदभवणेसु भवणदेवा वसंति संखेज्जा।26। संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा।...।27।</span>= <span class="HindiText">संख्यात योजन विस्तारवाले भवनों में और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते हैं। </span></li> | तिलोयपण्णत्ति/3/26-27 ...<span class="PrakritText"> संखेज्जरुंदभवणेसु भवणदेवा वसंति संखेज्जा।26। संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा।...।27।</span>= <span class="HindiText">संख्यात योजन विस्तारवाले भवनों में और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते हैं। </span></li> |
Revision as of 14:26, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
भवनों में रहने वाले देवों को भवनवासी देव कहते हैं जो असुर आदि के भेद से 10 प्रकार के हैं। इस पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियों में से प्रथम रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। उनमें से खर व पंक भाग में भवनवासी देव रहते हैं, और अब्बहुल भाग में प्रथम नरक है। इसके अतिरिक्त मध्य लोक में भी यत्र-तत्र भवन व भवनपुरों में रहते हैं।
- भवन व भवनवासी देव निर्देश
- भवन का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति 3/22 ... रयणप्पहाए भवणा ...।22। = रत्नप्रभा पृथिवी पर स्थित (भवनवासी देवों के) निवास स्थानों को भवन कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/7 ); ( त्रिलोकसार/294 )।
धवला 14/5,6,641/495/5 वलहि-कूडविवज्जिया सुरणरावासा भवणाणि णाम। = वलभि और कूट से रहित देवों और मनुष्यों के आवास भवन कहलाते हैं। - भवनपुर का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/3/22 दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। = द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित भवनवासी देवों के निवास स्थानों को भवनपुर कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/7 ), ( त्रिलोकसार/294 )। - भवनवासी देव का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/2 भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिन:। = जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। ( राजवार्तिक/2/10/1/216/3 )। - भवनवासी देवों के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/2/10 भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि- द्वीपदिक्कुमाराः।10। = भवनवासी देव दस प्रकार हैं–असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। ( तिलोयपण्णत्ति/3/9 ); ( त्रिलोकसार/209 )। - भवनवासी देवों के नाम के साथ ‘कुमार’ शब्द का तात्पर्य
सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/3 सर्वेषां देवानामवस्थितवयःस्वभावत्वेऽपि वेषाभूषायुधयानवाहनक्रीडनादि कुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः। = यद्यपि इन सब देवों का वय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनका वेष, भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है, इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्द रूढ है। ( राजवार्तिक/4/10/7/216/20 ); ( तिलोयपण्णत्ति/3/125/-126 )। - अन्य सम्बन्धित विषय
- असुर आदि भेद विशेष।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासी देवों के गुणस्थान, जीव समास, मार्गणास्थान के स्वामित्व सम्बन्धी 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- भवनवासी देवों के सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासियों में कर्म-प्रकृतियों का बन्ध, उदय व सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासियों में सुख-दुःख तथा सम्यक्त्व व गुणस्थानों आदि सम्बन्ध।–देखें देव - II.3।
- भवनवासियों में सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति आदि।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासी देव मरकर कहाँ उत्पन्न हों और कौन-सा गुणस्थान या पद प्राप्त करें।–देखें जन्म - 6।
- भवनत्रिक देवों की अवगाहना।–देखें अवगाहना - 2.4
- असुर आदि भेद विशेष।–देखें वह वह नाम ।
- भवन का लक्षण
- भवनवासी इन्द्रों का वैभव
- भवनवासी देवों के इन्द्रों की संख्या
तिलोयपण्णत्ति/3/13 दससु कुलेसु पुह पुह दो दो इंदा हवंति णियमेण। ते एक्कस्सिं मिलिदा वीस विराजंति भूदीहिं।13। = दश भवनवासियों के कुलों में नियम से पृथक्-पृथक् दो-दो इन्द्र होते हैं। वे सब मिलकर 20 इन्द्र होते हैं, जो अपनी-अपनी विभूति से शोभायमान हैं। - भवनवासी इन्द्रों के नाम निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/3/14-16 पढमो हु चमरणामो इंदो वइरोयणो त्ति विदिओ य। भूदाणंदो धरणाणंदो वेणू य वेणुदारी य।14। पुण्वसिट्ठजलप्पहजलकंता तह य घोसमहघोसा। हरिसेणो हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाहणग्गिसिही।15। अग्गिवाहणणामो वेलंबपभंजणाभिधाणा य। एदे असुरप्पहुदिसु कुलेसु दोद्दो कमेण देविंदा।16। = असुरकुमारों में प्रथम चमर नामक और दूसरा वैरोचन इन्द्र, नागकुमारों में भूतानन्द और धरणानन्द, सुपर्णकुमारों में वेणु और वेणुधारी, द्वीप-कुमारों में पूर्ण और वशिष्ठ, उदधिकुमारों में जलप्रभ और जलकान्त, स्तनितकुमारों में घोष और महाघोष, विद्युत्कुमार में हरिषेण और अमितवाहन, अग्नि-कुमारों में अग्निशिखी और अग्निवाहन, वायुकुमारों में वेलम्ब और प्रभंजन नामक इस प्रकार दो-दो इन्द्र क्रम से उन असुरादि निकायों में होते हैं।14-16। (इनमें प्रथम नम्बर के इन्द्र दक्षिण इन्द्र हैं और द्वितीय नम्बर के इन्द्र उत्तर इन्द्र हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/17-19 )।
- भवनवासियों के वर्ण, आहार, श्वास आदि
- भवनवासी देवों के इन्द्रों की संख्या
देव का नाम |
वर्ण तिलोयपण्णत्ति/3/ 119-120 |
मुकुट चिह्न तिलोयपण्णत्ति/3/10 त्रिलोकसार/213 |
चैत्यवृक्ष तिलोयपण्णत्ति/3/136 |
प्रविचार ( तिलोयपण्णत्ति/3/130 ) |
आहार का अन्तराल मू.आ./1146 तिलोयपण्णत्ति/3/ 111-116 त्रिलोकसार/248 |
श्वासोच्छ्वास का अन्तराल तिलोयपण्णत्ति/3/114-116 |
असुरकुमार |
कृष्ण |
चूड़ामणि |
अश्वत्थ |
काय प्रविचार |
1500 (मू.आ.) 1000 वर्ष |
15 दिन |
नागकुमार |
काल श्याम |
सर्प |
सप्तवर्ण |
12 दिन |
1 मुहूर्त |
|
सुपर्णकुमार |
श्याम |
गरुड़ |
शाल्मली |
12 दिन |
1 मुहूर्त |
|
द्वीपकुमार |
श्याम |
हाथी |
जामुन |
12 दिन |
1 मुहूर्त |
|
उदधिकुमार |
काल श्याम |
मगर |
वेतस |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
|
स्तनित कुमार |
काल श्याम |
स्वस्तिक |
कदंब |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
|
विद्युत कुमार |
बिजलीवत् |
वज्र |
प्रियंगु |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
|
दिक्कुमार |
श्यामल |
सिंह |
शिरीष |
7 दिन |
7 मुहूर्त |
|
अग्निकुमार |
अग्निज्वालावातवत् |
कलश |
पलाश |
7 दिन |
7 मुहूर्त |
|
वायुकुमार |
नीलकमल |
तुरग |
राजद्रुम |
7 दिन |
7 मुहूर्त |
|
इनके सामानिक, त्रायस्त्रिंश पारिषद व प्रतीन्द्र |
|
स्वइन्द्रवत् |
स्वइन्द्रवत् |
|||
1000 वर्ष की आयुवाले देव |
|
2 दिन |
7 श्वासो. |
|||
1 पल्य की आयु वाले देव |
|
5 दिन |
5 मुहूर्त |
- भवनवासियों के शरीर सुख-दु:ख आदि–देखें देव - II.2।
- भवनवासियों की शक्ति व विक्रिया
तिलोयपण्णत्ति/3/162-169 का भाषार्थ-दश हजार वर्ष की आयुवाला देव 100 मनुष्यों को मारने व पोसने में तथा डेढ़ सौ धनुषप्रमाण लम्बे चौड़े क्षेत्र को बाहुओं से वेष्टित करने व उखाड़ने में समर्थ है। एक पल्य की आयुवाला देव छह खण्ड की पृथिवी को उखाड़ने तथा वहाँ रहने वाले मनुष्य व तिर्यञ्चों को मारने वा पोसने में समर्थ है। एक सागर की आयुवाला देव जम्बूद्वीप को समुद्र में फेंकने और उसमें स्थित मनुष्य व तिर्यंचों को पोसणे में समर्थ है। दश हजार वर्ष की आयुवाला देव उत्कृष्टरूप से सौ, जघन्यरूप से सात, मध्यरूप से सौ से कम सात से अधिक रूपों की विक्रिया करता है। शेष सब देव अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रों के प्रमाण विक्रिया को पूरित करते हैं। संख्यात व असंख्यात वर्ष की आयुवाला देव क्रम से संख्यात व असंख्यात योजन जाता व उतने ही योजन आता है। - भवनवासी इन्द्रों का परिवार
स = सहस्र
तिलोयपण्णत्ति/3/79-99 ( त्रिलोकसार/226-235 )
इन्द्रों के नाम |
देवियों का परिवार |
प्रतीन्द्र |
सामानिक |
त्रायस्त्रिंशत |
पारिषद |
आत्मरक्ष |
लोकपाल |
7 अनीक में से प्रत्येक |
प्रकीर्णक |
|||||
पटदेवी |
परिवार देवी |
वल्लभा देवी |
योग |
अभ्यं. समित |
मध्य चन्द्रा |
बाह्य युक्त |
||||||||
चमरेन्द्र |
5 |
40 स. |
16 स. |
56 स. |
1 |
64 स. |
33 |
28 स. |
30 स. |
32 स. |
256 स. |
4 |
सहस्र |
à असंख्यात ß |
वैरोचन |
5 |
40 स . |
16 स. |
56 स. |
1 |
60 स. |
33 |
26 स. |
28 स. |
30 स. |
240 स. |
4 |
7650 स. |
|
भूतानन्द |
5 |
40 स . |
10 स. |
50 स. |
1 |
56 स. |
33 |
6 स. |
8 स. |
10 स. |
224 स. |
4 |
7112 स. |
|
धरणानन्द |
5 |
40 स . |
10 स. |
50 स. |
1 |
50 स. |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स. |
200 स. |
4 |
6350 स. |
|
वेणु |
5 |
40 स . |
40 स. |
44 स. |
1 |
50 स . |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स . |
200 स . |
4 |
6350 स. |
|
वेणुधारी |
5 |
40 स . |
40 स. |
44 स. |
1 |
50 स . |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स . |
200 स . |
4 |
6350 स. |
|
पूर्ण |
5 |
40 स . |
20 स. |
32 स. |
1 |
50 स . |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स . |
200 स . |
4 |
6350 स. |
|
शेष सर्व |
à उपरोक्त पूर्ण इन्द्रवत् ß |
- भवनवासी देवियों का निर्देश
- इन्द्रों की प्रधान देवियों का नाम निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/3/90,94 किण्हा रयणसुमेघा देवीणामा सुकंदअभिधाणा। णिरुवमरूवधराओ चमरे पंचग्गमहिसीओ।90। पउमापउमसिरीओ कणयसिरी कणयमालमहपउमा। अग्गमहिसीउ बिदिए ...।94। = चमरेन्द्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा देवी नामक और सुकंदा या सुकान्ता (शुकाढ्या) नाम की अनुपम रूप को धारण करने वाली पाँच अग्रमहिषियाँ हैं।90। ( त्रिलोकसार/236 ) द्वितीय इन्द्र के पद्मा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला और महापद्मा, ये पाँच अग्रदेवियाँ हैं। - प्रधान देवियों की विक्रिया का प्रमाण
तिलोयपण्णत्ति/3/92,98 चमरग्गिममहिसीणं अट्ठसहस्सविकुव्वणा संति। पत्तेक्कं अप्पसमं णिरुवमलावण्णरूवेहिं।92। दीविंदप्पहुदीणं देवीणं वरविउव्वणा संति। छस्सहस्सं च समं पत्तेक्कं विविहरूवेहिं।98। = चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों में से प्रत्येक अपने साथ अर्थात् मूल शरीर सहित, अनुपम रूप लावण्य से युक्त आठ हजार प्रमाण विक्रिया निर्मित रूपों को धारण कर सकती हैं।92। (द्वितीय इन्द्र की देवियाँ तथा नागेन्द्रों व गरुड़ेन्द्रों (सुपर्ण) की अग्र देवियों की विक्रिया का प्रमाण भी आठ हजार है। ( तिलोयपण्णत्ति/3/94-96 )। द्वीपेन्द्रादिकों की देवियों में से प्रत्येक मूल शरीर के साथ विविध प्रकार के रूपों से छह हजार प्रमाण विक्रिया होती है।98। - इन्द्रों व उनके परिवार देवों की देवियाँ
तिलोयपण्णत्ति/3/102-106 ( त्रिलोकसार/237-239 )
- इन्द्रों की प्रधान देवियों का नाम निर्देश
इन्द्र का नाम |
इन्द्र |
प्रतीन्द्र |
सामानिक |
त्रायस्त्रिंश |
पारिषद |
आत्मरक्ष |
लोकपाल |
सैनासुर |
महत्तर |
आभियोग्य |
||
अभ्य. |
मध्य. |
बाह्य |
||||||||||
चमरेन्द्र |
देखें भवनवासी - 2.5 |
स्व इन्द्रवत् |
स्व इन्द्रवत् |
स्व इन्द्रवत् |
250 |
200 |
150 |
100 |
स्व इन्द्रवत् |
50 |
100 |
32 |
वैरोचन |
300 |
250 |
200 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
भूतानन्द |
200 |
160 |
140 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
धरणानन्द |
200 |
160 |
140 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
वेणु |
160 |
140 |
120 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
वेणुधारी |
160 |
140 |
120 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
शेष सर्व इन्द्र |
140 |
120 |
100 |
100 |
50 |
100 |
32 |
- भावन लोक
- भावन लोक निर्देश
देखें रत्नप्रभा (मध्य लोक की इस चित्रा पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा पृथिवी है। उसके तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग, अब्बहुलभाग।)
तिलोयपण्णत्ति/3/7 रयणप्पहपुढवीए खरभाए पंकबहुलभागम्मि। भवणसुराणं भवणइं होंति वररयणसोहाणि।7। = रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग और पंकबहुल भाग में उत्कृष्ट रत्नों से शोभायमान भवनवासी देवों के भवन हैं।7।
राजवार्तिक/3/1/8/160/22 तत्र खरपृथिवीभागस्योपर्यधश्चैकैकं योजनसहस्रं परित्यज्य मध्यमभागेषु चतुर्दशसु योजनसहस्रेषु किंनरकिंपुरुष ... सप्तानां व्यन्तराणां नागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराणां नवानां भवनवासिनां चावासा:। पङ्कबहुलभागे असुरराक्षसानामावासा:। = खर पृथिवी भाग के ऊपर और नीचे की ओर एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्य के 14 हजार योजन में किन्नर, किम्पुरुष... आदि सात व्यन्तरों के तथा नाग, विद्युत, सुपर्ण, अग्नि, वात, स्तनित, उदधि, द्वीप और दिक्कुमार इन नव भवनवासियों के निवास हैं। पंकबहुल भाग में असुर और राक्षसों के आवास हैं। ( हरिवंशपुराण/4/50-51;59-65 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/123-127 )।
देखें व्यंतर - 4.1,5 (खरभाग, पंकभाग और तिर्यक् लोक में भी भवनवासियों के निवास हैं )। - भावन लोक में बादर अप् व तेज कायिकों का अस्तित्व–देखें काय - 2.5।
- भवनवासी देवों के निवास स्थानों के भेद व लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/3/22-23 भवणा भवणपुराणिं आवासा अ सुराण होदि तिविहा णं। रयणप्पहाए भवणा दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। दहसेलदुमादीणं रम्माणं उवरि होंति आवासा। णागादीणं केसिं तियणिलया भवणमेक्कमसुराणं।23। = भवनवासी देवों के निवास-स्थान भवन, भवनपुर और आवास के भेद से ये तीन प्रकार होते हैं। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप समुद्रों में ऊपर स्थित निवासस्थानों को भवनपुर, और तालाब, पर्वत और वृक्षादि के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते हैं। नागकुमारादिक देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवास तीनों ही तरह के निवास स्थान होते हैं, परन्तु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान होते हैं। - मध्य लोक में भवनवासियों का निवास
तिलोयपण्णत्ति/4/2092,2126 का भावार्थ–(जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में देवकुरु व उत्तरकुल में स्थित दो यमक पर्वतों के उत्तर भाग में सीता नदी के दोनों ओर स्थित निषध, देवकुरु, सूर, सुलस, विद्युत् इन पाँचों नामों के युगलोंरूप 10 द्रहों में उन-उन नामवाले नागकुमार देवों के निवास्थान (आवास) हैं।2092-2126।
तिलोयपण्णत्ति/4/2780-2782 का भावार्थ (मानुषोत्तर पर्वत पर ईशान दिशा के वज्रनाभि कूट पर हनुमान् नामक देव और प्रभंजनकूट पर वेणुधारी भवनेन्द्र रहता है।2781। वायव्व दिशा के वेलम्ब नामक और नैऋत्य दिशा के सर्वरत्न कूट पर वेणुधारी भवनेन्द्र रहता है।2782। अग्नि दिशा के तपनीय नामक कूट पर स्वातिदेव और रत्नकूट पर वेणु नामक भवनेन्द्र रहता है।2780।)
तिलोयपण्णत्ति/5/131-133 का भावार्थ (लोक विनिश्चय के अनुसार कुण्डवर द्वीप के कुण्ड पर्वत पर के पूर्वादि दिशाओं में 16 कूटों पर 16 नागेन्द्रदेव रहते हैं।131-133)। - खर पंक भाग में स्थित भवनों की संख्या
( तिलोयपण्णत्ति/3/11-12; 20-21 ); ( राजवार्तिक/4/10/8/216/26 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/124-127 )।
ल = लाख
- भावन लोक निर्देश
देवों के नाम |
भवनों की संख्या |
||
|
उत्तरेन्द्र |
दक्षिणेन्द्र |
कुल योग |
असुरकुमार |
34 ल |
30 ल |
64 ल |
नागकुमार |
44 ल |
40 ल |
84 ल |
सुपर्णकुमार |
38 ल |
34 ल |
72 ल |
द्वीपकुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
उदधिकुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
स्तनित कुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
विद्युत कुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
दिक्कुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
अग्निकुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
वायुकुमार |
50 ल |
46 ल |
96 ल |
772 ल |
- भवनों की बनावट व विस्तार आदि
तिलोयपण्णत्ति/3/25-61 का भावार्थ ( ये सब देवों व इन्द्रों के भवन समचतुष्काण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान हैं।25। ये भवन बाहल्य में 300 योजन और विस्तार में संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण हैं।26-27। भवनों की चारों दिशाओं में ...उपदिष्ट योजन प्रमाण जाकर एक-एक दिव्यवेदी (परकोट) है।28। इन वेदियों की ऊँचाई दो कोस और विस्तार 500 धनुष प्रमाण है।29। गोपुर द्वारों से युक्त और उपरिम भाग में जिनमन्दिरों से सहित वे वेदियाँ हैं।30। वेदियों के बाह्य भागों में चैत्य वृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोकवन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। इन वेदियों के बहुमध्य भाग में सर्वत्र 100 योजन ऊँचे वेत्रासन के आकार रत्नमय महाकूट स्थित हैं।40। प्रत्येक कूट पर एक-एक जिन भवन है।43। कूटों के चारों तरफ...भवनवासी देवों के प्रासाद हैं।56। सब भवन सात, आठ, नौ व दश इत्यादि भूमियों (मंजिलों) से भूषित... जन्मशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, ओलगशाला (परिचर्यागृह) और यन्त्रशाला (सहित)...सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह और लतागृह इत्यादि गृहविशेषों से सहित... पुष्करिणी, वापी और कूप इनके समूह से युक्त...गवाक्ष और कपाटों से सुशोभित नाना प्रकार की पुत्तलिकाओं से सहित...अनादिनिधन हैं।57-61। - प्रत्येक भवन में देवों की बस्ती
तिलोयपण्णत्ति/3/26-27 ... संखेज्जरुंदभवणेसु भवणदेवा वसंति संखेज्जा।26। संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा।...।27।= संख्यात योजन विस्तारवाले भवनों में और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते हैं।
पुराणकोष से
तीर्थंकरों के गर्भ में आने पर तीर्थंकर-जननी द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों में चौदहवाँ स्वप्न । पद्मपुराण 21.12-15