भव्य: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong> सम्यक्त्वादि गुणोंकी व्यक्ति की अपेक्षा भव्य-अभव्य व्यपदेश है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">सम्यक्त्वादि गुणोंकी व्यक्ति की अपेक्षा भव्य-अभव्य व्यपदेश है </strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/8/6/8-9/571/25 <span class="SanskritText">न सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रशक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वं कल्प्यते। कथं तर्हि।25। सम्यक्त्वादिव्यक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वमिति विकल्पः कनकेतरपाषाणवत्।9। यथा कनकभावव्यक्तियोगमवाप्स्यति इति कनकपाषाण इत्युच्यते तदभावादन्धपाषाण इति। तथा सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हो यः स भव्यतद्विपरीतोऽभव्यः इति चोच्यते।</span> = <span class="HindiText">भव्यत्व और अभव्यत्व विभाग ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शक्ति के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–तो किस आधार से यह विकल्प कहा गया है ? <strong>उत्तर</strong>–शक्ति को प्रगट होने की योग्यता और अयोग्यता की अपेक्षा है। जैसे जिसमें सुवर्णपर्याय के प्रगट होने की योग्यता है वह कनकपाषाण कहा जाता है और अन्य अन्धपाषाण। उसी तरह सम्यग्दर्शनादि पर्यायों की अभिव्यक्ति की योग्यता वाला भव्य तथा अन्य अभव्य है। ( सर्वार्थसिद्धि/8/6/382/6 )।<br /> | राजवार्तिक/8/6/8-9/571/25 <span class="SanskritText">न सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रशक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वं कल्प्यते। कथं तर्हि।25। सम्यक्त्वादिव्यक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वमिति विकल्पः कनकेतरपाषाणवत्।9। यथा कनकभावव्यक्तियोगमवाप्स्यति इति कनकपाषाण इत्युच्यते तदभावादन्धपाषाण इति। तथा सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हो यः स भव्यतद्विपरीतोऽभव्यः इति चोच्यते।</span> = <span class="HindiText">भव्यत्व और अभव्यत्व विभाग ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शक्ति के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–तो किस आधार से यह विकल्प कहा गया है ? <strong>उत्तर</strong>–शक्ति को प्रगट होने की योग्यता और अयोग्यता की अपेक्षा है। जैसे जिसमें सुवर्णपर्याय के प्रगट होने की योग्यता है वह कनकपाषाण कहा जाता है और अन्य अन्धपाषाण। उसी तरह सम्यग्दर्शनादि पर्यायों की अभिव्यक्ति की योग्यता वाला भव्य तथा अन्य अभव्य है। ( सर्वार्थसिद्धि/8/6/382/6 )।<br /> | ||
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Revision as of 14:26, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
संसार में मुक्त होने की योग्यता सहित संसारी जीवों को भव्य और वैसी योग्यता से रहित जीवों को अभव्य कहते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सारे भव्य जीव अवश्य ही मुक्त हो जायेंगे। यदि यह सम्यक् पुरुषार्थ करे तो मुक्त हो सकता है अन्यथा नहीं, ऐसा अभिप्राय है। भव्यों में भी कुछ ऐसे होते हैं जो कभी भी उस प्रकार का पुरुषार्थ नहीं करेंगे, ऐसे जीवों की अभव्य समान भव्य कहा जाता है। और जो अनन्तकाल जाने पर पुरुषार्थ करेंगे उन्हें दूरान्दूर भव्य कहा जाता है। मुक्त जीवों को न भव्य कह सकते हैं न अभव्य।
- भेद व लक्षण
- भव्य व अभव्य जीव का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/7/161/3 सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्यः। तद्विपरीतोऽभव्यः। = जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है वह भव्य कलहाता है। अभव्य इसका उलटा है ( राजवार्तिक/2/7/8/111/7 )।
पं.सं./प्रा./155-156 संखेज्ज असंखेज्जा अणंतकालेण चावि ते णियमा। सिज्झंति भव्वजीवा अभव्वजीवा ण सिज्झंति।155। ...भविया सिद्धी जेसिं वीवाणं ते भवंति भवसिद्धा। तव्विवरीयाऽभव्वा संसाराओ ण सिज्झंति।156। = जो भव्य जीव हैं वे नियम से संख्यात, असंख्यात व अनन्तकाल के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं परन्तु अभव्य जीव कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते हैं। जो जीव सिद्ध पद की प्राप्ति के योग्य हैं उन्हें भवसिद्ध कहते हैं। और उनसे विपरीत जो जीव संसार से छूटकर सिद्ध नहीं होते वे अभव्य हैं।155-156। ( धवला 1/1,1,142/ गा.211/394); ( राजवार्तिक/9/7/11/604/14 ); ( धवला 7/2,1,3/7/5 ); ( नयचक्र बृहद्/127 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/557/987 )।
धवला 13/5,5,50/286/2 भवतीति भव्यम् = (आगम) वर्तमान काल में है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/156 भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीताह्यभव्याः। = भविष्यकाल में स्वभाव-अनन्त चतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादि गुणोंरूप से भवन (परिणमन) के योग्य (जीव) वे भव्य हैं, उनसे विपरीत (जीव) वे वास्तव में अभव्य हैं। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1145/8 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/29/84/4 की चूलिका–स्वशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपेण भविष्यतीति भव्यः। = निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरणरूप से जो होगा उसे भव्य कहते हैं। - भव्य अभव्य जीव की पहिचान
प्रवचनसार/62 णो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमंति विगदघादीणं। सूणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति। = ‘जिनके घातीकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका सुख (सर्व) सुखों में उत्कृष्ट है’ यह सुनकर जो श्रद्धा नहीं करते वे अभव्य हैं, और भव्य उसे स्वीकार (आदर) करते हैं श्रद्धा करते हैं।62।
पं.वि./4/23 तत्प्रतिप्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।23। = उस आत्मतेज के प्रति मन में प्रेम को धारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है वह निश्चय से भव्य है। वह भविष्य में प्राप्त होने वाली मुक्ति का पात्र है।23। - भव्य मार्गणा के भेद
षट्खण्डागम/1,1/ सू./141/392 भवियाणुंवादेण अत्थि भवसिद्धिया अभवसिद्धिया।141। = भव्यमार्गणा के अनुवाद से भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव होते हैं।141। ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/6 )।
धवला/2/1,1/419/9 भवसिद्धिया वि अत्थि, अभवसिद्धिया वि अत्थि, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया वि अत्थि। = भव्यसिद्धिक जीव होते हैं, अभव्यसिद्धिक जीव होते हैं और भव्यसिद्धिक तथा अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पों से रहित भी स्थान होता है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/9 भव्य ... स च आसन्नभव्यः दूरभव्यः अभव्यसमभव्यश्चेति त्रेधा। = भव्य तीन प्रकार हैं–आसन्न भव्य, दूर भव्य और अभव्यसम भव्य। - आसन्न व दूर भव्य जीव के लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/62 ये पुनरिदंमिदानीमेव वचः प्रतीच्छन्ति ते शिवश्रियो भाजनं समासन्नभव्याः भवन्ति। ये तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते दूरभव्या इति। = जो उस (केवली भगवान् का सुख सर्व सुखो में उत्कृष्ट है)। वचन को इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते हैं वे शिवश्री के भाजन आसन्न भव्य हैं। और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर भव्य हैं।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा/704/1144/2 जे थोरे काल में मुक्त होते होइ ते आसन्न भव्य हैं। जे बहुत काल में मुक्त होते होंइ ते दूर भव्य हैं।
- अभव्यसम भव्य जीव का लक्षण
कषायपाहुड़/2/2,22/426/195/11 अभव्वेसु अभव्वसमाणभव्वेसु च णिच्चणिगोदभावमुवगएसु ...। = जो अभव्य है या अभव्यों के समान नित्य निगोद को प्राप्त हुए भव्य हैं।
गो.जो./भाषा/704/1144/3 जे त्रिकाल विषै मुक्त होने के नाहीं केवल मुक्त होने की योग्यता ही कौं धरें हैं ते अभव्य-सम भव्य हैं। - अतीत भव्य जीव का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/157 ण य जे भव्वाभव्वा मुक्तिसुहा होंति तीदसंसारा। ते जीवा णायव्वा णो भव्वा णो अभव्वा य।157। =जो न भव्य हैं और न अभव्य हैं, किन्तु जिन्होंने मुक्ति को प्राप्त कर लिया है, और अतीत संसार हैं। उन जीवों को नो भव्य नो अभव्य जानना चाहिए। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/559 ) (पं.सं./सं./1/285)। - भव्य व अभव्य स्वभाव का लक्षण
आलापपद्धति/6 भाविकाले परस्वरूपाकारभवनाद् भव्यस्वभावः। कालत्रयेऽपि परस्वरूपाकारा भवनादभव्यस्वभाव:। = भाविकाल में पर स्वरूप के (नवीन पर्याय के) आकार रूप से होने के कारण भव्यस्वभाव है। और तीनों काल में भी पर स्वरूप के (पर द्रव्य के) आकार रूप से नहीं होने के कारण अभव्य स्वभाव है।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/37 द्रव्यस्य सर्वदा अभूतपर्यायैः भाव्यमिति, द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/37/76/11 निर्विकारचिदानन्दैकस्वभावपरिणामेन भवनं परिणमनं भव्यत्वं अतीतिमिथ्यात्वरागादिभावपरिणामेनाभवनमपरिणमनमभव्यत्वं। = द्रव्य सर्वदा भूत पर्यायों रूप से भाव्य (परिणमित होने योग्य) है। द्रव्य सर्वदा भूत पर्यायों रूप से अभाव्य (न होने योग्य) है। (त.प्र.) निर्विकार चिदानन्द एक स्वभाव रूप से होना अर्थात् परिणमन करना सो भव्यत्व भाव है। और विनष्ट हुए विभाव रागादि विभाव परिणाम रूप से नहीं होना अर्थात् परिणमन नहीं करना अभव्यत्व भाव है।ता.वृ.।
- भव्य व अभव्य जीव का लक्षण
- भव्याभव्य निर्देश
- सम्यक्त्वादि गुणोंकी व्यक्ति की अपेक्षा भव्य-अभव्य व्यपदेश है
राजवार्तिक/8/6/8-9/571/25 न सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रशक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वं कल्प्यते। कथं तर्हि।25। सम्यक्त्वादिव्यक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वमिति विकल्पः कनकेतरपाषाणवत्।9। यथा कनकभावव्यक्तियोगमवाप्स्यति इति कनकपाषाण इत्युच्यते तदभावादन्धपाषाण इति। तथा सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हो यः स भव्यतद्विपरीतोऽभव्यः इति चोच्यते। = भव्यत्व और अभव्यत्व विभाग ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शक्ति के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा नहीं है। प्रश्न–तो किस आधार से यह विकल्प कहा गया है ? उत्तर–शक्ति को प्रगट होने की योग्यता और अयोग्यता की अपेक्षा है। जैसे जिसमें सुवर्णपर्याय के प्रगट होने की योग्यता है वह कनकपाषाण कहा जाता है और अन्य अन्धपाषाण। उसी तरह सम्यग्दर्शनादि पर्यायों की अभिव्यक्ति की योग्यता वाला भव्य तथा अन्य अभव्य है। ( सर्वार्थसिद्धि/8/6/382/6 )।
- भव्य मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व
षट्खण्डागम 1/,1/ सू.142-143/394 भवसिद्धियाएइंदिय-प्पहुडि जावअजोगिकेवलि त्ति।142। अभवसिद्धिया एइंदिय-प्पहुडि जाव सण्णिमिच्छाइट्ठि त्ति।143।=भव्य सिद्ध जीव एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं।142। अभव्यसिद्ध जीव एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक होते हैं।143।
पं.सं./प्रा./4/67 खीणंताभव्वम्मि य अभव्वे मिच्छमेयं तु। = भव्य मार्गणा की अपेक्षा भव्य जीवों के क्षीण कषायान्त बारह गुणस्थान होते हैं। (क्योंकि सयोगी व अयोगी के भव्य व्यपदेश नहीं होता (प.सं./प्रा.टी./4/67) अभव्य जीवों के तो एकमात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।67। - सभी भव्य सिद्ध नहीं होते
पं.सं./प्रा./1/154 सिद्धत्तणस्य जोग्गा जे जीवा ते भवंति भवसिद्धा। ण उ मलविगमे णियमा ताणं कणकोपलाणमिव।= जो जीव सिद्धत्व अवस्था पाने के योग्य हैं वे भव्यसिद्ध कहलाते हैं किन्तु उनके कनकोपल (स्वर्ण पाषाण) के समान मल का नाश होने में नियम नहीं है। (विशेषार्थ-जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण में स्वर्ण रहते हुए भी उसको पृथक् किया जाना निश्चित नहीं है उसी प्रकार सिद्धत्व की योग्यता रखते हुए भी कितने ही भव्य जीव अनुकूल सामग्री मिलने पर भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते)। ( धवला/1/1,1,4/ गा.95/150) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/558 ) (पं.सं./सं./1/283)।
राजवार्तिक/1/3/9/24/2 केचित् भव्याः संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति, केचिदसंख्येयेन केचिदनन्तेन अपरे अनन्तानन्तेन सेत्स्यन्ति।=कोई भव्य संख्यात, कोई असंख्यात और कोई अनन्तकाल में सिद्ध होंगे। और कुछ ऐसे हैं जो अनन्त काल में भी सिद्ध न होंगे।
धवला 4/1,5,310/478/4 ण च सत्तिमंताणं सव्वेसिं पि वत्तीए होदव्वमिदि णियमो अत्थि सव्वस्स वि हेमपासाणस्स हेमपज्जाएण परिणमणप्पसंगा। ण च एवं, अणुबलंभा।= यह कोई नियम नहीं है कि भव्यत्व की शक्ति रखनेवाले सभी जीवों के उसकी व्यक्ति होना ही चाहिए, अन्यथा सभी स्वर्ण-पाषाण के स्वर्ण पर्याय से परिणमन का प्रसंग प्राप्त होगा। किन्तु इस प्रकार से देखा नहीं जाता। - मिथ्यादृष्टि को कथंचिद् अभव्य कह सकते हैं
कषायपाहुड़ 4/3,22/615/325/2 अभवसिद्धियपाओगे त्ति भणिदे मिच्छाविट्ठिपाओग्गे त्ति घेत्तव्वं। उक्कस्सट्ठिदिअणुभागबंधे पडुच्च समाणत्तणेण अभव्वववएसं पडि विरोहाभावादो। = सूत्र में ‘अभवसिद्धिपाओग्गे’ ऐसा कहने पर उसका अर्थ मिथ्यादृष्टि के योग्य ऐसा लेना चाहिए।... क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभव की अपेक्षा समानता होने से मिथ्यादृष्टि को अभव्य कहने में कोई विरोध नहीं आता है। - शुद्ध नय से दोनों समान हैं और अशुद्ध नय से असमान
समाधिशतक/ मू./4 बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु।...।4।=बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन प्रकार के आत्मा सर्व प्राणियों में हैं...।4।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/48/1 त्रिविधात्मसु मध्ये मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण तिष्ठति, अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च। अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव च भाविनैगमनयेनेति। यद्यभव्यजीवे परमात्मा शक्तिरूपेण वर्त्तते तर्हि कथमभव्यत्वमिति चेत् परमात्मशक्तेः केवलज्ञानादिरूपेण व्यक्तिर्न भविष्यतीत्यभव्यत्वं, शक्ति: पुन: शुद्धनयेनोभयत्र समाना। यदि पुन: शक्तिरूपेणाप्यभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तदा केवलज्ञानावरणं न घटते भव्याभव्यद्वयं पुनरशुद्धनयेनेति भावार्थः। एवं यथा मिथ्यादृष्टिसंज्ञे बहिरात्मनि नयविभागेन दर्शितमात्मत्रयं तथा शेषगुणस्थानेष्वपि। तद्यथा– बहिरात्मावस्थायामन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम् अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत्, परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन, व्यक्तिरूपेण च। परमात्मावस्थायां पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वंय भूतपूर्वनयेनेति।=तीन प्रकार के आत्माओं में जो मिथ्यादृष्टि भव्य जीव हैं, उसमें बहिरात्मा तो व्यक्तिरूप से रहता है और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं, एवं भावि नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरात्मा व्यक्तिरूप से और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं, भावि नैगमनय की अपेक्षा भी अभव्य में अन्तरात्मा तथा परमात्मा व्यक्तिरूप से नहीं रहते। प्रश्न–अभव्य जीव में परमात्मा शक्तिरूप से रहता है तो उसमें अभव्यत्व कैसे ? उत्तर–अभव्य जीव में परमात्मा शक्ति की केवलज्ञान आदि रूप से व्यक्ति न होगी इसलिए उसमें अभव्यत्व है। शुद्ध नय की अपेक्षा परमात्मा की शक्ति तो मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य इन दोनों में समान है। यदि अभव्य जीव में शक्तिरूप से भी केवलज्ञान न हो तो उसके केवलज्ञानावरण कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। सारांश यह है कि भव्य व अभव्य ये दोनों अशुद्ध नय से हैं। इस प्रकार जैसे मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा में नय विभाग से तीनों आत्माओं को बतलाया उसी प्रकार शेष तेरह गुणस्थानों में भी घटित करना चाहिए जैसे कि बहिरात्मा की दशा में अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं और भावि नैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहते हैं ऐसा समझना चाहिए। अन्तरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा भूतपूर्वन्याय से घृत के घट के समान और परमात्मा का स्वरूप शक्तिरूप से तथा भावि नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी जानना चाहिए। परमात्म अवस्था में अन्तरात्मा तथा बहिरात्मा भूतपूर्व नय की अपेक्षा जानने चाहिए। ( समाधिशतक/ टी./4)।
देखें पारिणामिक - 3 शुद्ध नयसे भव्य व अभव्य भेद भी नहीं किये जा सकते। सर्व जीव शुद्ध चैतन्य मात्र है।
- सम्यक्त्वादि गुणोंकी व्यक्ति की अपेक्षा भव्य-अभव्य व्यपदेश है
- शंका-समाधान
- मोक्ष की शक्ति है तो इन्हें अभव्य क्यों कहते हैं ?
सर्वार्थसिद्धि/8/6/382/2 अभव्यस्य मनःपर्ययज्ञानशक्तिः केवलज्ञानशक्तिश्च स्याद्वा न वा। यदि स्यात् तस्याभव्यत्वाभावः। अथ नास्ति तत्तावरणद्वयकल्पना व्यर्थेति। उच्यते–आदेशवचनान्न दोषः। द्रव्यार्थादेशान्मनःपर्ययकेवलज्ञानशक्तिसंभवः। पर्यायार्थादेशात्तच्छक्त्यभावः। यद्येवं भव्याभव्यविकल्पो नोपपद्यते उभयत्र तच्छक्तिसद्भावात्। न शक्तिभावाभावापेक्षया भव्याभव्यविकल्प इत्युच्यते। = प्रश्न–अभव्य जीव के मनःपर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति होती है या नहीं होती। यदि होती है तो उसके अभव्यपना नहीं बनता। यदि नहीं होती है तो उसके उक्त दो आवरण-कर्मों की कल्पना करना व्यर्थ है। उत्तर–आदेश वचन होने से कोई दोष नहीं है। अभव्य के द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति पायी जाती है पर पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा उसके उसका अभाव है। ...प्रश्न–यदि ऐसा है तो भव्याभव्य विकल्प नहीं बन सकता है क्योंकि दोनों के मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति पायी जाती है। उत्तर- शक्ति के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा भव्याभव्य विकल्प नहीं कहा गया है। (अपितु व्यक्ति के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा यह विकल्प कहा गया है।) (देखें भव्य - 2.1), ( राजवार्तिक/8/6/8-9/571/25 ), (गो.क./जो.प्र./33/27/8), (और भी दे./भव्य/2/5) - अभव्यसम भव्य को भी भव्य कैसे कहते हैं ?
राजवार्तिक/2/7/9/111/9 योऽनन्तेनापि कालेन न सेत्स्यत्यस्रावभव्य एवेति चेत; न; भव्यराश्यन्तर्भावात्।9। ... यथा योऽनन्तकालेनापि कनकपाषाणो न कनकी भविष्यति न तस्यान्धपाषाणत्वं कनकपाषाणशक्तियोगात्, यथा वा आगामिकालो योऽनन्तेनापि कालेन नागमिष्यति न तस्यागामित्वं हीयते, तथा भव्यस्यापि स्वशक्तियोगाद् असत्यामपि व्यक्तौ न भव्यत्वहानिः। = प्रश्न–जो भव्य अनन्त काल में भी सिद्ध न होगा वह तो अभव्य के तुल्य ही है। उत्तर–नहीं, वह अभव्य नहीं है, क्योंकि उस में भव्यत्व शक्ति है। जैसे कि कनक पाषाण को जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अन्धपाषाण नहीं कह सकते अथवा उस आगामी काल को जो अनन्त काल में भी नहीं आयेगा अनागामी नहीं कह सकते उसी तरह सिद्धि न होने पर भी भव्यत्व शक्ति होने के कारण उसे अभव्य नहीं कह सकते। वह भव्य राशि में ही शामिल है।
धवला/1,1,141/393/7 मुक्तिमनुपगच्छतां कथं पुनर्भव्यत्वमिति चेन्न, मुक्तिगमनयोग्यापेक्षया तेषां भव्यव्यपदेशात्। न च योग्याः सर्वेऽपि नियमेन निष्कलङ्का भवन्ति सुवर्ण पाषाणेन व्यभिचारात्। = प्रश्न–मुक्ति नहीं जाने वाले जीवोंके भव्यपना कैसे बन सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, मुक्ति जाने की योग्यता की अपेक्षा उनके भव्य संज्ञा बन जाती है। जितने भी जीव मुक्ति जाने के योग्य होते हैं वे सब नियम से कलंक रहित होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, सर्वथा ऐसा मान लेने पर स्वर्णपाषाण में व्यभिचार आ जायेगा। ( धवला 4/1,5,310/478/3 )। - भव्यत्व में कथंचित् अनादि सान्तपना
षट्खण्डागम 7/2,2/ सू.183-184/176 भवियाणुवादेण भवसिद्धिया केवचिरं कालादो होंति।183। अणादिओ सपज्जवसिदो।184।
धवला 7/2,2,184/176/8 कुदो। अणाइसरूवेणागयस्स भवियभावस्स अजोगिचरिमसमए विणासुवलंभादो। अभवियसमाणो वि भवियजीवो अत्थि त्ति अणादिओ अपज्जवसिदो भवियभावो किण्ण परूविदो। ण, तत्थ अविणाससत्तीए अभावादो। सत्तीए चेव एत्थ अहियारोव, वत्तीए णत्थि ति कधं णव्वदे। अणादि-सपज्जवसिदसुत्तण्ण-हाणुववत्तीदो। =प्रश्न–भव्यमार्गणा के अनुसार जीव भव्यसिद्धिक कितने काल तक रहते हैं?183। उत्तर- जीव अनादि सान्त भव्य-सिद्धिक होता है।184। क्योंकि अनादि स्वरूप से आये हुए भव्यभाव का अयोगिकेवली के अन्तिम समय में विनाश पाया जाता है। प्रश्न–अभव्य के समान भी तो भव्य जीव होता है, तब फिर भव्य भाव को अनादि और अनन्त क्यों नहीं प्ररूपण किया। उत्तर–नहीं, क्योंकि भव्यत्व में अविनाश-शक्ति का अभाव है, अर्थात् यद्यपि अनादि से अनन्त काल तक रहने वाले भव्य जीव हैं तो सही, पर उनमें शक्तिरूप से संसार विनाश की सम्भावना है, अविनाशित्व की नहीं। प्रश्न–यहाँ, भव्यत्व-शक्ति का अधिकार है, उसकी व्यक्ति का नहीं, यह कैसे जाना जाता है। उत्तर–भव्यत्व को अनादि सपर्यवसित कहने वाले सूत्र की अन्यथा उपपत्ति बन नहीं सकती, इसी से जाना जाता है कि यहाँ भव्यत्व शक्ति से अभिप्राय है। - भव्यत्व में कथंचित् सादि-सान्तपना
षट्खण्डागम 7/2,2/ सू.185/177 (भवियाणुवादेण) सादिओ सपज्जवसिदो।185।
धवला 7/2,2,/185/177/3 अभविओ भवियभावं ण गच्छदि भवियाभवियभावाणमच्चंताभावपडिग्गहियाणमेयाहियरणतविरोहादो। ण सिद्धो भविओ होदि, णट्ठासेसावरणं पुणरुप्पत्तिविरोहादो। तम्हा भवियभावो ण सादि त्ति। ण एस दोसो, पज्जवट्ठियणयावलंबणादो अप्पडिवण्णे सम्मत्ते अणादि-अणंतो भवियभावो अंतादीदसंसारादो, पडिवण्णे सम्मत्ते अण्णो भवियभावो उप्पज्जइ, पोग्गलपरियट्टस्स अद्धमेत्तसंसारावट्ठाणादो। एवं समऊण-दुसमऊणादिउवड्ढपोग्गल- परियट्टसंसाराणं जीवाणं पुध-पुध भवियभावो वत्तव्वो। तदो सिद्धं भवियाणं सादि-सांतत्तमिदि। = (भव्यमार्गणानुसार) जीव सादि सान्त भव्यसिद्धिक भी होता है।185। प्रश्न–अभव्य भव्यत्व को प्राप्त हो नहीं सकता, क्योंकि भव्य और अभव्य भाव एक दूसरे के अत्यन्ताभाव को धारण करने वाले होने से एक ही जीव में क्रम से भी उनका अस्तित्व मानने में विरोध आता है। सिद्ध भी भव्य होता नहीं है, क्योंकि जिन जीवों के समस्त कर्मास्रव नष्ट हो गये हैं उनके पुनः उन कर्मास्रवों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। अतः भव्यत्वसादि नहीं हो सकता ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय के अवलम्बन से जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीव का भव्यत्व अनादि-अनन्त रूप है, क्योंकि, तब तक उसका संसार अन्तरहित है। किन्तु सम्यक्त्व के ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि, सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर फिर केवल अर्धपुद्गल परिवर्तनमात्र काल तक संसार में स्थिति रहती है। इसी प्रकार एक समय कम उपार्धपुद्गल परिवर्तन संसारवाले, दो समय कम उपार्धपुद्गलपरिवर्तन संसारवाले आदि जीवों के पृथक्-पृथक् भव्यभाव का कथन करना चाहिए। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भव्य जीव सादि-सन्त होते हैं। - भव्याभव्यत्व में पारिणामिकपना कैसे है ?
षट्खण्डागम 5/1,7/263/230 अभवसिद्धिय त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो।63।
धवला/ प्र.5/1,7,63/230/9 कुदो। कम्माणमुदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा अभवियत्ताणुप्पत्तीदो। भवियत्तस्स वि पारिणामिओ चेय भावो, कम्माणमुदयउवसम-खय-खओवसमेहि भवियत्ताणुप्पत्तीदो। प्रश्न–अभव्य-सिद्धिक यह कौन-सा भाव है? उत्तर–पारिणामिक भाव है क्योंकि कर्मों के उदय से, उपशम से, क्षय से अथवा क्षायोपशम से अभव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता है। इसी प्रकार भव्यत्व भी पारिणामिक भाव ही है, क्योंकि, कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षायोपशम से भव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता। ( राजवार्तिक/2/7/2/110/21 )।
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पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष पाने की योग्यता रखने वाला जीव । यह देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंग कारण तथा करणलब्धि रूप अन्तरंग कारण पाकर प्रयत्न करने पर सिद्ध हो जाता है । जो प्रयत्न करने पर भी सिद्ध नहीं हो पाते वे अभव्य कहलाते हैं । महापुराण 4.88, 9.116, 24. 128, 71.196-197, पद्मपुराण 2, 155-157, हरिवंशपुराण 3.101