विग्रहगति: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> विग्रहगति सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> विग्रहगति सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/25/182/7 <span class="SanskritText"> विग्रहार्था गतिर्विग्रहगतिः।....विग्रहेण गतिर्विग्रहगतिः। </span>=<span class="HindiText"> विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है, वह विग्रहगति है। अथवा विग्रह अर्थात् नोकर्म पुद्गलों के ग्रहण के निरोध के साथ जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/25/1/136/30; 2/137/5 ); ( धवला 1/1, 1, 60/1/4 ); ( तत्त्वसार/2/96 )। </span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/2/25/182/7 <span class="SanskritText"> विग्रहार्था गतिर्विग्रहगतिः।....विग्रहेण गतिर्विग्रहगतिः। </span>=<span class="HindiText"> विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है, वह विग्रहगति है। अथवा विग्रह अर्थात् नोकर्म पुद्गलों के ग्रहण के निरोध के साथ जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/25/1/136/30; 2/137/5 ); ( धवला 1/1, 1, 60/1/4 ); ( तत्त्वसार/2/96 )। </span><br /> | ||
गोम्मटसार | गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/318/14 <span class="SanskritText">विग्रहगतौ.....तेन पूर्वभवशरीरं त्यक्त्वोत्तरभवग्रहणार्थ गच्छतां।</span> =<span class="HindiText"> विग्रहगति का अर्थ है पूर्वभव के शरीर को छोड़कर उत्तरभव ग्रहण करने के अर्थ गमन करना। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विग्रहगति के भेद, लक्षण व काल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विग्रहगति के भेद, लक्षण व काल</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/28/4/139/5 <span class="SanskritText">आसां चतसृणां गतीनामार्षोक्ताः संज्ञाः–इषुगतिः, पाणिमुक्ता, | राजवार्तिक/2/28/4/139/5 <span class="SanskritText">आसां चतसृणां गतीनामार्षोक्ताः संज्ञाः–इषुगतिः, पाणिमुक्ता, लांगलिका, गोमूत्रिका चेति। तत्राविग्रहा प्राथमिकी, शेषा विग्रहवत्यः। इषुगतिरिवेषुगतिः। क्क उपमार्थः। यथेषोर्गतिरालक्ष्य देशाद् ऋज्वी तथा संसारिणां सिद्धयतां च जीवानां ऋज्वी गतिरैकसमयिकी। पाणिमुक्तेव पाणिमुक्ता। क उपमार्थः। यथा पाणिना तिर्यक्प्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा तथा संसारिणामेकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ता द्वैसमयिकी। लांगलमिव लांगलिका। क उपमार्थः। यथा लांगलं द्विवक्रितं तथा द्विविग्रहा गतिलंंगिलिका त्रैसमयिकी। गोमूत्रिकेव गोमूत्रिका। क उपमार्थः। यथा गोमूत्रिका बहुवक्रा तथा त्रिविग्रहा गतिर्गोमूत्रिका चातुःसमयिकी। </span>= <span class="HindiText">ये (विग्रह) गतियाँ चार हैं–इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका। इषुगति विग्रहरहित है और शेष विग्रहसहित होती हैं। सरल अर्थात् धनुष से छूटे हुए बाण के समान मोड़ारहित गति को इषुगति कहते हैं। इस गति में एक समय लगता है। जैसे हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य की एक मोड़ेवाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीवों के एक मोड़ेवाली गति को पाणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समयवाली होती है। जैसे हल में दो मोड़े होते हैं, उसी प्रकार दो मोड़ेवाली गति को लांगलिका गति कहते हैं। यह गति तीन समयवाली होती है। जैसे गाय का चलते समय मूत्र का करना अनेक मोड़ों वाला होता है, उसी प्रकार तीन मोड़ेवाली गति को गोमूत्रिका गति कहते हैं। यह गति चार समयवाली होती है। ( धवला 1/1, 1, 60/299/9 ); ( धवला 4/1, 3, 2/29/7 ); ( तत्त्वसार/2/100-101 ), ( चारित्रसार/176/2 )। </span><br /> | ||
तत्त्वसार/2/99 <span class="SanskritText">सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिद्विधा।</span> =<span class="HindiText"> विग्रह या मोड़ेसहित और विग्रहरहित के भेद से वह विग्रहगति दो प्रकार की है। <br /> | तत्त्वसार/2/99 <span class="SanskritText">सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिद्विधा।</span> =<span class="HindiText"> विग्रह या मोड़ेसहित और विग्रहरहित के भेद से वह विग्रहगति दो प्रकार की है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> विग्रहगति | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> विग्रहगति संबंधी कुछ नियम</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/2/25-29 <span class="SanskritText">विग्रहगतौ कर्मयोगः।25। अनुश्रेणि गतिः।26।विग्रहवती..प्राक् चतुर्भ्यः।28। एक समयाविग्रहा।29। एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः।30। </span>=<span class="HindiText">विग्रहगति में कर्म (कार्मण) योग होता है (विशेष देखें [[ कार्मण#2 | कार्मण - 2]])।25। गति श्रेणी के अनुसार होती है (विशेष देखें [[ शीर्षक नं#5 | शीर्षक नं - 5]])।26। विग्रह या मोड़ेवाली गति चार समयों से पहले होती है; अर्थात् अधिक से अधिक तीन समय तक होती है (विशेष देखें [[ शीर्षक नं#5 | शीर्षक नं - 5]])।28। एक समयवाली गति विग्रह या मोड़ेरहित होती है। (विशेष देखें [[ शीर्षक नं#2 | शीर्षक नं - 2 ]]में इषुगति का लक्षण)।29। एक, दो या तीन समय तक (विग्रह गति में) जीव अनाहारक रहता है (विशेष देखें [[ आहारक ]])। </span><br /> | तत्त्वार्थसूत्र/2/25-29 <span class="SanskritText">विग्रहगतौ कर्मयोगः।25। अनुश्रेणि गतिः।26।विग्रहवती..प्राक् चतुर्भ्यः।28। एक समयाविग्रहा।29। एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः।30। </span>=<span class="HindiText">विग्रहगति में कर्म (कार्मण) योग होता है (विशेष देखें [[ कार्मण#2 | कार्मण - 2]])।25। गति श्रेणी के अनुसार होती है (विशेष देखें [[ शीर्षक नं#5 | शीर्षक नं - 5]])।26। विग्रह या मोड़ेवाली गति चार समयों से पहले होती है; अर्थात् अधिक से अधिक तीन समय तक होती है (विशेष देखें [[ शीर्षक नं#5 | शीर्षक नं - 5]])।28। एक समयवाली गति विग्रह या मोड़ेरहित होती है। (विशेष देखें [[ शीर्षक नं#2 | शीर्षक नं - 2 ]]में इषुगति का लक्षण)।29। एक, दो या तीन समय तक (विग्रह गति में) जीव अनाहारक रहता है (विशेष देखें [[ आहारक ]])। </span><br /> | ||
धवला 13/5, 5, 120/378/4 <span class="PrakritText">आणुपुव्विउदयाभावेण उजुगदीए गमणाभावप्पसंगादो।</span> = <span class="HindiText">ऋजुगति में आनुपूर्वी का उदय नहीं होता। <br /> | धवला 13/5, 5, 120/378/4 <span class="PrakritText">आणुपुव्विउदयाभावेण उजुगदीए गमणाभावप्पसंगादो।</span> = <span class="HindiText">ऋजुगति में आनुपूर्वी का उदय नहीं होता। <br /> | ||
देखें [[ कार्मण#2 | कार्मण - 2]] (विग्रहगति में नियम से कार्मणयोग होता है, पर ऋजुगति में कार्मणयोग न होकर औदारिकमिश्र और वैक्रियकमिश्र काय योग होता है।) <br /> | देखें [[ कार्मण#2 | कार्मण - 2]] (विग्रहगति में नियम से कार्मणयोग होता है, पर ऋजुगति में कार्मणयोग न होकर औदारिकमिश्र और वैक्रियकमिश्र काय योग होता है।) <br /> | ||
देखें [[ अवगाहना#1.3 | अवगाहना - 1.3 ]]( | देखें [[ अवगाहना#1.3 | अवगाहना - 1.3 ]](मारणांतिक समुद्धात के बिना विग्रह व अविग्रह गति से उत्पन्न होने वाले जीवों के प्रथम समय में होने वाली अवगाहना के समान ही अवगाहना होती है। परंतु दोनों अवगाहना के आकारों में समानता का नियम नहीं है।) <br /> | ||
देखें [[ आनुपूर्वी ]]–(विग्रहगति में जीवों का आकार व संस्थान आनुपूर्वी नामकर्म के उदय से होता है, | देखें [[ आनुपूर्वी ]]–(विग्रहगति में जीवों का आकार व संस्थान आनुपूर्वी नामकर्म के उदय से होता है, परंतु ऋजुगति में उसके आकार का कारण उत्तरभव की आयु का सत्त्व माना जाता है।) <br /> | ||
देखें [[ जन्म#1.2 | जन्म - 1.2 ]](विग्रहगति में जीवों के प्रदेशों का संकोच हो जाता है।) <br /> | देखें [[ जन्म#1.2 | जन्म - 1.2 ]](विग्रहगति में जीवों के प्रदेशों का संकोच हो जाता है।) <br /> | ||
धवला 6/1, 9-1, 28/64/7 सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवट्ठाणादो। = सयोगिकेवली को परघात प्रकृति के समान विग्रहगति में उन (अन्य) प्रकृतियों का अव्यक्तउदय रूप से अवस्थान देखा जाता है। <br /> | धवला 6/1, 9-1, 28/64/7 सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवट्ठाणादो। = सयोगिकेवली को परघात प्रकृति के समान विग्रहगति में उन (अन्य) प्रकृतियों का अव्यक्तउदय रूप से अवस्थान देखा जाता है। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> विग्रहगति में जीव का जन्म मान लें तो–देखें [[ जन्म#1 | जन्म - 1]]। <br /> | <li class="HindiText"> विग्रहगति में जीव का जन्म मान लें तो–देखें [[ जन्म#1 | जन्म - 1]]। <br /> | ||
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तत्त्वार्थसूत्र/2/26 <span class="SanskritText">अनुश्रेणी गतिः।26। </span>= <span class="HindiText">गति श्रेणी के अनुसार होती है। ( तत्त्वसार/2/98 )। <br /> | तत्त्वार्थसूत्र/2/26 <span class="SanskritText">अनुश्रेणी गतिः।26। </span>= <span class="HindiText">गति श्रेणी के अनुसार होती है। ( तत्त्वसार/2/98 )। <br /> | ||
देखें [[ गति#1.7 | गति - 1.7 ]](गति ऊपर-नीचे व तिरछे अर्थात् सीधी दिशाओं को छोड़कर विदिशाओं में गमन नहीं करती)। </span><br /> | देखें [[ गति#1.7 | गति - 1.7 ]](गति ऊपर-नीचे व तिरछे अर्थात् सीधी दिशाओं को छोड़कर विदिशाओं में गमन नहीं करती)। </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/26/183/7 <span class="SanskritText">लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशप्रवेशानां क्रमंनिविष्टानां | सर्वार्थसिद्धि/2/26/183/7 <span class="SanskritText">लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशप्रवेशानां क्रमंनिविष्टानां पंक्तिः श्रेणिः इत्युच्यते। ‘अनु’ शब्दस्यानुपूर्व्येण वृत्तिः । श्रेणेरानुपूर्व्येण्यनुश्रेणीति जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवतीत्यर्थः।......ननु चंद्रादीनां ज्योतिष्काणां मेरुप्रदक्षिणाकाले विद्याधरादीनां च विश्रेणिगतिरपि दृश्यते, तत्र किमुच्यते अनुश्रेणि गतिः इति। कालदेशनियमोऽत्र वेदितव्यः। तत्र कालनियमस्तावज्जीवानां मरणकाले भवांतरसंक्रममुक्तानां चोर्ध्वगमनकाले अनुश्रेण्येव गतिः। देशनियमोऽपि ऊर्ध्वलोकादधोगतिः, अधोलोकादूर्ध्वगतिः, तिर्यग्लोकादधोगतिरूर्ध्वा वा तत्रानुश्रेण्येव। पुद्गलानां च या लोकांतप्रापिणी सा नियमादनुश्रेण्येव। इतरा गतिर्भजनीया। </span>= <span class="HindiText">लोक के मध्य से लेकर ऊपर-नीचे और तिरछे क्रम से स्थित आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। ‘अनु’ शब्द आनुपूर्वी अर्थ में समसित है। इसलिए अनुश्रेणी का अर्थ श्रेणी की आनुपूर्वी से होता है। इस प्रकार की गति जीव और पुद्गलों की होती है, यह इसका भाव है। <strong>प्रश्न–</strong>चंद्रमा आदि ज्योतिषियों की और मेरु की प्रदक्षिणा करते समय विद्याधरों की विश्रेणी गति देखी जाती है, इसलिए जीव और पुद्गलों की अनुश्रेणी गति होती है, यह किसलिए कहा? <strong>उत्तर–</strong>यहाँ कालनियम और देशनियम जानना चाहिए। कालनियम यथा–मरण के समय जब जीव एक भव को छोड़कर दूसरे भव के लिए गमन करते हैं और मुक्तजीव जब ऊर्ध्वगमन करते हैं, तब उनकी गति अनुश्रेणि ही होती है। देशनियम यथा–जब कोई जीव ऊर्ध्वलोक से अधोलोक के प्रति या अधोलोक से ऊर्ध्वलोक के प्रति आता-जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्लोक से अधोलोक के प्रति या ऊर्ध्वलोक के प्रति जाता है तब उस अवस्था में गति अनुश्रेणि ही होती है। इस प्रकार पुद्गलों की जो लोक के अंत को प्राप्त कराने वाली गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। हाँ, इसके अतिरिक्त जो गति होती है वह अनुश्रेणि भी होती है। और विश्रेणि भी। किसी एक प्रकार की होने का नियम नहीं है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> तीन मोड़ों तक के नियम में हेतु</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> तीन मोड़ों तक के नियम में हेतु</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/28/185/5 <span class="SanskritText">चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवती गतिर्भवति न चतुर्थे इति। कुत इति चेत्। सर्वोत्कृष्टविग्रहनि-मित्तनिष्कुटक्षेत्रे उत्पित्सुः प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषुगत्यभावे निष्कुटक्षेत्रप्रापणनिमित्तं त्रिविग्रहां गतिमारभते नोर्ध्वाम्; तथाविधोपपादक्षेत्राभावात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>मोड़े वाली गति चार समय से पूर्व अर्थात् तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समय में क्यों नहीं होती? <strong>उत्तर–</strong>निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जीव को सबसे अधिक मोड़े लेने पड़ते हैं, क्योंकि वहाँ आनुपूर्वी से अनुश्रेणी का अभाव होने से इषुगति नहीं हो पाती। अतः यह जीव निष्कुट क्षेत्र को प्राप्त करने के लिए तीन मोड़े वाली गति का | सर्वार्थसिद्धि/2/28/185/5 <span class="SanskritText">चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवती गतिर्भवति न चतुर्थे इति। कुत इति चेत्। सर्वोत्कृष्टविग्रहनि-मित्तनिष्कुटक्षेत्रे उत्पित्सुः प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषुगत्यभावे निष्कुटक्षेत्रप्रापणनिमित्तं त्रिविग्रहां गतिमारभते नोर्ध्वाम्; तथाविधोपपादक्षेत्राभावात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>मोड़े वाली गति चार समय से पूर्व अर्थात् तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समय में क्यों नहीं होती? <strong>उत्तर–</strong>निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जीव को सबसे अधिक मोड़े लेने पड़ते हैं, क्योंकि वहाँ आनुपूर्वी से अनुश्रेणी का अभाव होने से इषुगति नहीं हो पाती। अतः यह जीव निष्कुट क्षेत्र को प्राप्त करने के लिए तीन मोड़े वाली गति का आरंभ करता है। यहाँ इससे अधिक मोड़ों की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि इस प्रकार का कोई उपपाद क्षेत्र नहीं पाया जाता है, अतः मोड़ेवाली गति तीन समय तक ही होती है, चौथे समय में नहीं होती। ( राजवार्तिक/2/28/4/139/5 )। </span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 60/300/4 <span class="SanskritText">स्वस्थितप्रदेशादारभ्योर्ध्वाधस्तिर्यगाकाशप्रदेशानां क्रमसंनिविष्टानां | धवला 1/1, 1, 60/300/4 <span class="SanskritText">स्वस्थितप्रदेशादारभ्योर्ध्वाधस्तिर्यगाकाशप्रदेशानां क्रमसंनिविष्टानां पंक्तिः श्रेणिरित्युच्यते। तयैव जीवानां गमनं नोच्छन्णिरूपेण। ततस्रिविग्रहा गतिर्न विरुद्धा जीवस्येति। </span>=<span class="HindiText"> जो प्रदेश जहाँ स्थित हैं वहाँ से लेकर ऊपर, नीचे और तिरछे क्रम से विद्यमान आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी के द्वारा ही जीवों का गमन होता है, श्रेणी को उल्लंघन करके नहीं होता है। इसलिए विग्रहगति वाले जीव के तीन मोड़े वाली गति विरोध को प्राप्त नहीं होती है। अर्थात् ऐसा कोई स्थान ही नहीं है, जहाँ पर पहुँचने के लिए चार मोड़े लग सकें। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> उपपाद स्थान को अतिक्रमण करके गमन होने व न होने | <li class="HindiText"> उपपाद स्थान को अतिक्रमण करके गमन होने व न होने संबंधी दृष्टिभेद–देखें [[ क्षेत्र#3.4 | क्षेत्र - 3.4]]। </li> | ||
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Revision as of 16:35, 19 August 2020
एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करने के लिए जो जीव का गमन होता है, उसे विग्रहगति कहते हैं। वह दो प्रकार की है मोड़ेवाली और बिना मोड़ेवाली, क्योंकि गति के अनुश्रेणी ही होने का नियम है।
- विग्रहगति सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/25/182/7 विग्रहार्था गतिर्विग्रहगतिः।....विग्रहेण गतिर्विग्रहगतिः। = विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है, वह विग्रहगति है। अथवा विग्रह अर्थात् नोकर्म पुद्गलों के ग्रहण के निरोध के साथ जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/25/1/136/30; 2/137/5 ); ( धवला 1/1, 1, 60/1/4 ); ( तत्त्वसार/2/96 )।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/318/14 विग्रहगतौ.....तेन पूर्वभवशरीरं त्यक्त्वोत्तरभवग्रहणार्थ गच्छतां। = विग्रहगति का अर्थ है पूर्वभव के शरीर को छोड़कर उत्तरभव ग्रहण करने के अर्थ गमन करना।
- विग्रहगति के भेद, लक्षण व काल
राजवार्तिक/2/28/4/139/5 आसां चतसृणां गतीनामार्षोक्ताः संज्ञाः–इषुगतिः, पाणिमुक्ता, लांगलिका, गोमूत्रिका चेति। तत्राविग्रहा प्राथमिकी, शेषा विग्रहवत्यः। इषुगतिरिवेषुगतिः। क्क उपमार्थः। यथेषोर्गतिरालक्ष्य देशाद् ऋज्वी तथा संसारिणां सिद्धयतां च जीवानां ऋज्वी गतिरैकसमयिकी। पाणिमुक्तेव पाणिमुक्ता। क उपमार्थः। यथा पाणिना तिर्यक्प्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा तथा संसारिणामेकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ता द्वैसमयिकी। लांगलमिव लांगलिका। क उपमार्थः। यथा लांगलं द्विवक्रितं तथा द्विविग्रहा गतिलंंगिलिका त्रैसमयिकी। गोमूत्रिकेव गोमूत्रिका। क उपमार्थः। यथा गोमूत्रिका बहुवक्रा तथा त्रिविग्रहा गतिर्गोमूत्रिका चातुःसमयिकी। = ये (विग्रह) गतियाँ चार हैं–इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका। इषुगति विग्रहरहित है और शेष विग्रहसहित होती हैं। सरल अर्थात् धनुष से छूटे हुए बाण के समान मोड़ारहित गति को इषुगति कहते हैं। इस गति में एक समय लगता है। जैसे हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य की एक मोड़ेवाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीवों के एक मोड़ेवाली गति को पाणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समयवाली होती है। जैसे हल में दो मोड़े होते हैं, उसी प्रकार दो मोड़ेवाली गति को लांगलिका गति कहते हैं। यह गति तीन समयवाली होती है। जैसे गाय का चलते समय मूत्र का करना अनेक मोड़ों वाला होता है, उसी प्रकार तीन मोड़ेवाली गति को गोमूत्रिका गति कहते हैं। यह गति चार समयवाली होती है। ( धवला 1/1, 1, 60/299/9 ); ( धवला 4/1, 3, 2/29/7 ); ( तत्त्वसार/2/100-101 ), ( चारित्रसार/176/2 )।
तत्त्वसार/2/99 सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिद्विधा। = विग्रह या मोड़ेसहित और विग्रहरहित के भेद से वह विग्रहगति दो प्रकार की है।
- विग्रहगति संबंधी कुछ नियम
तत्त्वार्थसूत्र/2/25-29 विग्रहगतौ कर्मयोगः।25। अनुश्रेणि गतिः।26।विग्रहवती..प्राक् चतुर्भ्यः।28। एक समयाविग्रहा।29। एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः।30। =विग्रहगति में कर्म (कार्मण) योग होता है (विशेष देखें कार्मण - 2)।25। गति श्रेणी के अनुसार होती है (विशेष देखें शीर्षक नं - 5)।26। विग्रह या मोड़ेवाली गति चार समयों से पहले होती है; अर्थात् अधिक से अधिक तीन समय तक होती है (विशेष देखें शीर्षक नं - 5)।28। एक समयवाली गति विग्रह या मोड़ेरहित होती है। (विशेष देखें शीर्षक नं - 2 में इषुगति का लक्षण)।29। एक, दो या तीन समय तक (विग्रह गति में) जीव अनाहारक रहता है (विशेष देखें आहारक )।
धवला 13/5, 5, 120/378/4 आणुपुव्विउदयाभावेण उजुगदीए गमणाभावप्पसंगादो। = ऋजुगति में आनुपूर्वी का उदय नहीं होता।
देखें कार्मण - 2 (विग्रहगति में नियम से कार्मणयोग होता है, पर ऋजुगति में कार्मणयोग न होकर औदारिकमिश्र और वैक्रियकमिश्र काय योग होता है।)
देखें अवगाहना - 1.3 (मारणांतिक समुद्धात के बिना विग्रह व अविग्रह गति से उत्पन्न होने वाले जीवों के प्रथम समय में होने वाली अवगाहना के समान ही अवगाहना होती है। परंतु दोनों अवगाहना के आकारों में समानता का नियम नहीं है।)
देखें आनुपूर्वी –(विग्रहगति में जीवों का आकार व संस्थान आनुपूर्वी नामकर्म के उदय से होता है, परंतु ऋजुगति में उसके आकार का कारण उत्तरभव की आयु का सत्त्व माना जाता है।)
देखें जन्म - 1.2 (विग्रहगति में जीवों के प्रदेशों का संकोच हो जाता है।)
धवला 6/1, 9-1, 28/64/7 सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवट्ठाणादो। = सयोगिकेवली को परघात प्रकृति के समान विग्रहगति में उन (अन्य) प्रकृतियों का अव्यक्तउदय रूप से अवस्थान देखा जाता है।
- विग्रहगति में जीव का जन्म मान लें तो–देखें जन्म - 1।
- विग्रहगति में संज्ञी को भुजगार स्थिति कैसे संभव है–देखें स्थिति - 5।
- विग्रहगति में जीव का जन्म मान लें तो–देखें जन्म - 1।
- विग्रह-अविग्रहगति का स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र/2/27-28 अविग्रहाः जीवस्स।27। विग्रहवती च संसारिणः।28। = मुक्त जीव की गति विग्रहरहित होती है। और संसारी जीवों की गति विग्रहरहित व विग्रहसहित दोनों प्रकार की होती है। ( तत्त्वसार/2/98 )।
धवला 11/4, 2, 5, 11/20/10 तसेसु दो विग्गहे मोत्तूण तिण्णि विग्गहाणमभावादो। = त्रसों में दो विग्रहों को छोड़कर तीन विग्रह नहीं होते।
- जीव व पुद्गलों की गति अनुश्रेणी ही होती है
तत्त्वार्थसूत्र/2/26 अनुश्रेणी गतिः।26। = गति श्रेणी के अनुसार होती है। ( तत्त्वसार/2/98 )।
देखें गति - 1.7 (गति ऊपर-नीचे व तिरछे अर्थात् सीधी दिशाओं को छोड़कर विदिशाओं में गमन नहीं करती)।
सर्वार्थसिद्धि/2/26/183/7 लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशप्रवेशानां क्रमंनिविष्टानां पंक्तिः श्रेणिः इत्युच्यते। ‘अनु’ शब्दस्यानुपूर्व्येण वृत्तिः । श्रेणेरानुपूर्व्येण्यनुश्रेणीति जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवतीत्यर्थः।......ननु चंद्रादीनां ज्योतिष्काणां मेरुप्रदक्षिणाकाले विद्याधरादीनां च विश्रेणिगतिरपि दृश्यते, तत्र किमुच्यते अनुश्रेणि गतिः इति। कालदेशनियमोऽत्र वेदितव्यः। तत्र कालनियमस्तावज्जीवानां मरणकाले भवांतरसंक्रममुक्तानां चोर्ध्वगमनकाले अनुश्रेण्येव गतिः। देशनियमोऽपि ऊर्ध्वलोकादधोगतिः, अधोलोकादूर्ध्वगतिः, तिर्यग्लोकादधोगतिरूर्ध्वा वा तत्रानुश्रेण्येव। पुद्गलानां च या लोकांतप्रापिणी सा नियमादनुश्रेण्येव। इतरा गतिर्भजनीया। = लोक के मध्य से लेकर ऊपर-नीचे और तिरछे क्रम से स्थित आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। ‘अनु’ शब्द आनुपूर्वी अर्थ में समसित है। इसलिए अनुश्रेणी का अर्थ श्रेणी की आनुपूर्वी से होता है। इस प्रकार की गति जीव और पुद्गलों की होती है, यह इसका भाव है। प्रश्न–चंद्रमा आदि ज्योतिषियों की और मेरु की प्रदक्षिणा करते समय विद्याधरों की विश्रेणी गति देखी जाती है, इसलिए जीव और पुद्गलों की अनुश्रेणी गति होती है, यह किसलिए कहा? उत्तर–यहाँ कालनियम और देशनियम जानना चाहिए। कालनियम यथा–मरण के समय जब जीव एक भव को छोड़कर दूसरे भव के लिए गमन करते हैं और मुक्तजीव जब ऊर्ध्वगमन करते हैं, तब उनकी गति अनुश्रेणि ही होती है। देशनियम यथा–जब कोई जीव ऊर्ध्वलोक से अधोलोक के प्रति या अधोलोक से ऊर्ध्वलोक के प्रति आता-जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्लोक से अधोलोक के प्रति या ऊर्ध्वलोक के प्रति जाता है तब उस अवस्था में गति अनुश्रेणि ही होती है। इस प्रकार पुद्गलों की जो लोक के अंत को प्राप्त कराने वाली गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। हाँ, इसके अतिरिक्त जो गति होती है वह अनुश्रेणि भी होती है। और विश्रेणि भी। किसी एक प्रकार की होने का नियम नहीं है।
- तीन मोड़ों तक के नियम में हेतु
सर्वार्थसिद्धि/2/28/185/5 चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवती गतिर्भवति न चतुर्थे इति। कुत इति चेत्। सर्वोत्कृष्टविग्रहनि-मित्तनिष्कुटक्षेत्रे उत्पित्सुः प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषुगत्यभावे निष्कुटक्षेत्रप्रापणनिमित्तं त्रिविग्रहां गतिमारभते नोर्ध्वाम्; तथाविधोपपादक्षेत्राभावात्। = प्रश्न–मोड़े वाली गति चार समय से पूर्व अर्थात् तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समय में क्यों नहीं होती? उत्तर–निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जीव को सबसे अधिक मोड़े लेने पड़ते हैं, क्योंकि वहाँ आनुपूर्वी से अनुश्रेणी का अभाव होने से इषुगति नहीं हो पाती। अतः यह जीव निष्कुट क्षेत्र को प्राप्त करने के लिए तीन मोड़े वाली गति का आरंभ करता है। यहाँ इससे अधिक मोड़ों की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि इस प्रकार का कोई उपपाद क्षेत्र नहीं पाया जाता है, अतः मोड़ेवाली गति तीन समय तक ही होती है, चौथे समय में नहीं होती। ( राजवार्तिक/2/28/4/139/5 )।
धवला 1/1, 1, 60/300/4 स्वस्थितप्रदेशादारभ्योर्ध्वाधस्तिर्यगाकाशप्रदेशानां क्रमसंनिविष्टानां पंक्तिः श्रेणिरित्युच्यते। तयैव जीवानां गमनं नोच्छन्णिरूपेण। ततस्रिविग्रहा गतिर्न विरुद्धा जीवस्येति। = जो प्रदेश जहाँ स्थित हैं वहाँ से लेकर ऊपर, नीचे और तिरछे क्रम से विद्यमान आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी के द्वारा ही जीवों का गमन होता है, श्रेणी को उल्लंघन करके नहीं होता है। इसलिए विग्रहगति वाले जीव के तीन मोड़े वाली गति विरोध को प्राप्त नहीं होती है। अर्थात् ऐसा कोई स्थान ही नहीं है, जहाँ पर पहुँचने के लिए चार मोड़े लग सकें।
- उपपाद स्थान को अतिक्रमण करके गमन होने व न होने संबंधी दृष्टिभेद–देखें क्षेत्र - 3.4।