छेदोपस्थापना: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">यद्यपि दीक्षा धारण करते समय साधु पूर्णतया साम्य रहते की प्रतिज्ञा करता है, | <p class="HindiText">यद्यपि दीक्षा धारण करते समय साधु पूर्णतया साम्य रहते की प्रतिज्ञा करता है, परंतु पूर्ण निर्विकल्पता में अधिक देर टिकने में समर्थ न होने पर व्रत समिति गुप्ति आदि रूप व्यवहार चारित्र तथा क्रियानुष्ठानों में अपने को स्थापित करता है। पुन: कुछ समय पश्चात् अवकाश पाकर साम्यता में पहुंच जाता है और पुन: परिणामों के गिरने पर विकल्पों में स्थित होता है। जब तक चारित्रमोह का उपशम या क्षय नहीं करता तब तक इसी प्रकार झूले में झूलता रहता है। तहाँ निर्विकल्प व साम्य चारित्र का नाम सामायिक या निश्चय चारित्र है, और विकल्पात्मक चारित्र का नाम छेदोपस्थापना या व्यवहार चारित्र है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> छेदोपस्थापना चारित्र का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> छेदोपस्थापना चारित्र का लक्षण</strong></span><br /> | ||
प्रवचनसार/209 <span class="PrakritGatha"> एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।209।</span> =<span class="HindiText">ये (व्रत समिति आदि) वास्तव में श्रमणों के मूलगुण हैं, उनमें प्राप्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक है। (यो.सा./अ./8/8)</span><br /> | प्रवचनसार/209 <span class="PrakritGatha"> एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।209।</span> =<span class="HindiText">ये (व्रत समिति आदि) वास्तव में श्रमणों के मूलगुण हैं, उनमें प्राप्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक है। (यो.सा./अ./8/8)</span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/130 <span class="PrakritGatha">छेत्तूण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं। पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो।130।</span> =<span class="HindiText">सावद्य पर्यायरूप पुरानी पर्याय को छेदकर अहिंसादि पाँच प्रकार के यमरूप धर्म में अपनी आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापना संयम है। ( धवला 1/1/1/123/ गा.188/372); (पं.सं.सं.1/240); ( गोम्मटसार | पं.सं./प्रा./1/130 <span class="PrakritGatha">छेत्तूण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं। पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो।130।</span> =<span class="HindiText">सावद्य पर्यायरूप पुरानी पर्याय को छेदकर अहिंसादि पाँच प्रकार के यमरूप धर्म में अपनी आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापना संयम है। ( धवला 1/1/1/123/ गा.188/372); (पं.सं.सं.1/240); ( गोम्मटसार जीवकांड/471/880 )।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/7 <span class="SanskritText"> | सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/7 <span class="SanskritText"> प्रमादकृतानर्थप्रबंधविलोपे सम्यक्त्वप्रतिक्रिया छेदोपस्थापना विकल्पनिवृत्तिर्वा।</span> =<span class="HindiText">प्रमादकृत अनर्थप्रबंधका अर्थात् हिंसादि अव्रतों के अनुष्ठान का विलोप अर्थात् सर्वथा त्याग करने पर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात् पुन: व्रतों का ग्रहण होता है वह छेदोपस्थापना चारित्र है, अथवा विकल्पों की निवृत्ति का नाम छेदोपस्थापना चारित्र है। ( राजवार्तिक/9/18/6-7/617/11 ) ( चारित्रसार/83/4 ) ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/6 )।</span><br /> | ||
यो.सा./यो./101 <span class="PrakritGatha">हिंसादि उपरिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ। सो बिमयऊ चारित्तु मुणि जो पंचमगइ णेइ।101। </span>=<span class="HindiText">हिंसादिक का त्याग कर जो आत्मा को स्थिर करता है, उसे दूसरा (छेदोपस्थापना) समझो। यह पंचम गति को ले जाने वाला है।</span><br /> | यो.सा./यो./101 <span class="PrakritGatha">हिंसादि उपरिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ। सो बिमयऊ चारित्तु मुणि जो पंचमगइ णेइ।101। </span>=<span class="HindiText">हिंसादिक का त्याग कर जो आत्मा को स्थिर करता है, उसे दूसरा (छेदोपस्थापना) समझो। यह पंचम गति को ले जाने वाला है।</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,123/370/1 <span class="SanskritText">तस्यैकस्य व्रतस्य छेदेन द्विव्यादिभेदेनोपस्थापनं व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम:। </span><span class="HindiText">=उस एक (सामायिक) व्रत का छेद करने को अर्थात् दो तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के आरोपण करने को छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम कहते हैं।</span><br /> | धवला 1/1,1,123/370/1 <span class="SanskritText">तस्यैकस्य व्रतस्य छेदेन द्विव्यादिभेदेनोपस्थापनं व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम:। </span><span class="HindiText">=उस एक (सामायिक) व्रत का छेद करने को अर्थात् दो तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के आरोपण करने को छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम कहते हैं।</span><br /> | ||
तत्त्वसार/5/46 <span class="SanskritGatha">यत्र हिंसादिभेदेन त्याग: सावद्यकर्मण:। व्रतलोपेविशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ।46। </span>=<span class="HindiText">जहाँ पर हिंसा चोरी इत्यादि विशेष रूप से भेदपूर्वक पाप क्रिया का त्याग किया जाता है और व्रत भंग हो जाने पर उसकी (प्रायश्चित्तादि से) शुद्धि की जाती है उसको छेदोपस्थापना कहते हैं।</span><br /> | तत्त्वसार/5/46 <span class="SanskritGatha">यत्र हिंसादिभेदेन त्याग: सावद्यकर्मण:। व्रतलोपेविशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ।46। </span>=<span class="HindiText">जहाँ पर हिंसा चोरी इत्यादि विशेष रूप से भेदपूर्वक पाप क्रिया का त्याग किया जाता है और व्रत भंग हो जाने पर उसकी (प्रायश्चित्तादि से) शुद्धि की जाती है उसको छेदोपस्थापना कहते हैं।</span><br /> | ||
प्रवचनसार/ त./प्र./209<span class="SanskritText"> तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिन: | प्रवचनसार/ त./प्र./209<span class="SanskritText"> तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिन: कुंडलवलयांगुलीयादिपरिग्रह: किल श्रेयान्, न पुन: सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थाप को भवति।</span> =<span class="HindiText">जब (श्रमण) निर्विकल्प सामायिक संयम में आरूढ़ता के कारण जिसमें विकल्पों का अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशा में से च्युत होता है, तब ‘केवल सुवर्णमात्र के अर्थी को कुंडल कंकण अंगूठी आदि को ग्रहण करना (भी) श्रेय है, किंतु ऐसा नहीं है कि (कुंडल इत्यादि का ग्रहण कभी न करके) सर्वथा सुवर्ण की ही प्राप्ति करना श्रेय है, ऐसा विचारे। इसी प्रकार वह श्रमण मूलगुणों में विकल्परूप से (भेदरूप से) अपने को स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है। ( अनगारधर्मामृत/4/176/509 )</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/35/147/8 <span class="SanskritText"> अथ छेदोपस्थापनं कथयति–यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं | द्रव्यसंग्रह टीका/35/147/8 <span class="SanskritText"> अथ छेदोपस्थापनं कथयति–यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा—पंचप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावद्येभ्यो विवर्त्य निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदे व्रतखंडे सति निर्विकारसंवित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरंगव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्युपस्थापनं छेदोपस्थानमिति।</span> =<span class="HindiText">अब छेदोपस्थापना का कथन करते हैं–जब एक समय समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में, स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब विकल्प भेद से पाँच व्रतों का छेदन होने से (अर्थात् एक सामायिक व्रत का पाँच व्रतरूप से भेद हो जाने के कारण) रागादि विकल्परूप सावद्यों से अपने आपको छुड़ाकर निज शुद्धात्मा में उपस्थान करना;–अथवा छेद यानी व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्त के बल से अथवा व्यवहार प्रायश्चित्त से जो निज आत्मा में स्थित होना सो छेदोपस्थापना है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">सामायिक व छेदोपस्थापना में कथंचित् भेद व अभेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">सामायिक व छेदोपस्थापना में कथंचित् भेद व अभेद</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,123/370/2 <span class="SanskritText">सकलव्रतानामेकत्वमापाद्य एकयमोपादानाद् द्रव्यार्थिकनय: सामायिकशुद्धिसंयम:। तदेवैकंव्रतं | धवला 1/1,1,123/370/2 <span class="SanskritText">सकलव्रतानामेकत्वमापाद्य एकयमोपादानाद् द्रव्यार्थिकनय: सामायिकशुद्धिसंयम:। तदेवैकंव्रतं पंचधा ब्रहुधा वा विपाटय धारणात् पर्यायार्थिकनय: छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम:। निशितबुद्धिजनानुग्रहार्थं द्रव्यार्थिकनयादेशना, मंदधियामनुग्रहार्थं पर्यायार्थिकनयादेशना। ततो नानयो: संयमयोरनुष्ठानकृतो विशेषोऽस्तीति द्वितयदेशेनानुगृहीत एक एव संयम इति चेन्नैष दोष:, इष्टत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करने वाला होने से सामायिक-शुद्धिसंयम द्रव्यार्थिकनयरूप है, और उसी व्रत के पाँच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके धारण करने वाला होने से छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम पर्यायार्थिकनयरूप है। यहाँ पर तीक्ष्ण बुद्धि मनुष्यों के लिए द्रव्यार्थिक नय का उपदेश दिया गया है और मंदबुद्धि प्राणियों का अनुग्रह करने के लिए पर्यायार्थिक नय का उपदेश दिया गया है। इसलिए इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–तब तो उपदेश की अपेक्षा संयम को भले ही दो प्रकार का कह लिया जावे पर वास्तव में तो वह एक ही है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह कथन हमें इष्ठ ही हे। (देखो आगे नं.4 भी); ( सर्वार्थसिद्धि/7/1/343/5 ); ( राजवार्तिक/7/1/9/534/12 ) ( धवला 3/1,2,149/447/7 )।</span><br /> | ||
धवला 3/1,2,149/449/1 <span class="PrakritText">तदो जे सामाइयसुद्धिसंजदा ते चेय छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होंति। जे छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा ते चेय सामाइयसुद्धिसंजदा होंति त्ति। </span>=<span class="HindiText">इसलिए जो सामायिकशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं। तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं।<br /> | धवला 3/1,2,149/449/1 <span class="PrakritText">तदो जे सामाइयसुद्धिसंजदा ते चेय छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होंति। जे छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा ते चेय सामाइयसुद्धिसंजदा होंति त्ति। </span>=<span class="HindiText">इसलिए जो सामायिकशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं। तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> सामायिक व छेदोपस्थापना का परिहारविशुद्धि से कथंचित् भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> सामायिक व छेदोपस्थापना का परिहारविशुद्धि से कथंचित् भेद</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,126/375/7 <span class="SanskritText">परिहारशुद्धिसंयत: किमु एकयम उत | धवला 1/1,1,126/375/7 <span class="SanskritText">परिहारशुद्धिसंयत: किमु एकयम उत पंचयम इति। किंचातो यद्येकयम: सामायिकेऽंतर्भवति। अथ यदि पंचयम: छेदोपस्थापनेऽंतर्भवति। न च संयममादधानस्य पुरुषस्य द्रव्यपर्यायार्थिकाभ्यां व्यतिरिक्तस्यास्ति संभवस्ततो न परिहारसंयमोऽस्तीति न, परिहारर्द्धयतिशयोत्पत्त्यपेक्षया ताभ्यामस्य कथंचिद्भेदात् । तद्रूपापरित्यागेनैव परिहारर्द्धिपर्यायेण परिणतत्वान्न ताभ्यामन्योऽन्यं संयम इति चेन्न, प्रागविद्यमानपरिहारर्द्धयपेक्षया ताभ्यामस्य भेदात् । तत: स्थितमेतत्ताभ्यामन्य: परिहारसंयम: इति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–परिहारशुद्धि संयम क्या एक यमरूप है या पाँच यमरूप? इनमें से यदि एक यमरूप है तो उसका सामायिक में अंतर्भाव होना चाहिए और यदि पाँच यमरूप है तो छेदोपस्थापना में अंतर्भाव होना चाहिए। संयम को धारण करने वाले पुरुष के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा इन दोनों संयमों से भिन्न तीसरे संयम की संभावना तो है नहीं, इसलिए परिहार शुद्धि संयम नहीं बन सकता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, परिहार ऋद्धि रूप अतिशय की उत्पत्ति की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहारविशुद्धि संयम का कथंचित् भेद है। <strong>प्रश्न</strong>–सामायिक और छेदोपस्थापनारूप अवस्था का त्याग न करते हुए ही परिहारशुद्धिरूप पर्याय से यह जीव परिणत होता है, इसलिए सामायिक और छेदोपस्थापना से भिन्न यह संयम नहीं हो सकता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, पहिले अविद्यमान परंतु पीछे से उत्पन्न हुई परिहार ऋद्धि की अपेक्षा उन दोनों संयमों से इसका भेद है, अत: यह बात निश्चित हो जाती है कि सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहारशुद्धि संयम भिन्न है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> सामायिक छेदोपस्थापना व | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> सामायिक छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसांपराय में कथंचित् भेद व अभेद</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,127/376/7 <span class="SanskritText">सूक्ष्मसांपराय: किमु एकयम उत | धवला 1/1,1,127/376/7 <span class="SanskritText">सूक्ष्मसांपराय: किमु एकयम उत पंचयम इति। किंचातो यद्येकयम: पंचयमान्न मुक्तिरुपशमश्रेण्यारोहणं वा सूक्ष्मसांपरायगुणप्राप्तिमंतरेण तदुदयाभावात् । अथ पंचयम: एकयमानां पूर्वोक्तदोषौ समाढौकेते। अथोभययम: एकयमपंचयमभेदेन सूक्ष्मसांपरायाणां द्वैविध्यमापतेदिति। नाद्यौ विकल्पावनभ्युपगमात् । न तृतीयविकल्पोक्तदोष: संभवति पंचैकयमभेदेन संयमभेदामावात् । यद्येकयमपंचयमौ संयमस्य न्यूनाधिकभावस्य निबंधनावेवाभविष्यतां संयमभेदोऽप्यभविष्यत् । न चैवं संयमं प्रति द्वयोरविशेषात् । ततो न सूक्ष्मसांपरायसंयमस्य तद्द्वारेण द्वैविध्यमिति। तद्द्वारेण संयमस्य द्वैविध्याभावे पंचविधसंयमोपदेश: कथं घटत इति चेन्माघटिष्ट। तर्हि कतिविध: संयम:। चतुर्विध: पंचमस्य संयमस्यानुपलंभात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सूक्ष्मसांपरायसंयम क्या एक यमरूप् (सामायिक रूप) है अथवा पंचयमरूप (छेदोपस्थापनारूप)? इनमें से यदि एकयमरूप है तो पंचयमरूप छेदोपस्थापना से मुक्ति अथवा उपशमश्रेणी का आरोहण नहीं बन सकता है, क्योंकि, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान की प्राप्ति के बिना से दोनों ही बातें नहीं बन सकेंगी ? यदि यह पंचमरूप है तो एकयमरूप सामायिकसंयम को धारण करने वाले जीवों के पूर्वोक्त दोनों दोष प्राप्त होते हैं। यदि इसे उभय यमरूप मानते हैं तो एक यम और पंचयम के भेद से इसके दो भेद हो जायेंगे ? <strong>उत्तर</strong>–आदि के दो विकल्प तो ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा हमने माना नहीं है (अर्थात् वह केवल एक यमरूप या केवल पंचयमरूप नहीं है)। इसी प्रकार तीसरे विकल्प में दिया गया दोष भी संभव नहीं, क्योंकि, पंचयम और एकयम के भेद से संयम में कोई भेद ही संभव नहीं है। यदि एकयम और पंचयम, संयम के न्यूनाधिकभाव के कारण होते तो संयम में भेद भी हो जाता। परंतु ऐसा तो है, नहीं, क्योंकि, संयम के प्रति दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अत: सूक्ष्मसांपराय संयम के उन दोनों (एकयमरूप सामायिक तथा पंचयमरूप छेदोपस्थापना) की अपेक्षा दो भेद नहीं हो सकते। <strong>प्रश्न</strong>–तो पाँच प्रकार के संयम का उपदेश कैसे बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–यदि पाँच प्रकार का संयम घटित नहीं होता है तो मत होओ। <strong>प्रश्न</strong>–तो संयम कितने प्रकार का है? <strong>उत्तर</strong>–संयम चार प्रकार का है, क्योंकि पाँचवाँ संयम पाया ही नहीं जाता है। <strong>विशेषार्थ</strong>–सामायिक और छेदोपस्थापना संयम में विवक्षा भेद से ही भेद है, वास्तव में नहीं, अत: वे दोनों मिलकर एक और शेष तीन (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात) इस प्रकार संयम चार प्रकार के होते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व सामान्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व सामान्य</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 125/374 <span class="SanskritText">सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धि-संजदापमत्त-संजद-प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति। </span>=<span class="HindiText">सामायिक और छेदोपस्थापना रूप शुद्धि को प्राप्त संयत जीव प्रमत्तसंयत से लेकर निवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/467/878;689/1128 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/9 )।</span><br /> | |||
महापुराण/74/314 <span class="SanskritGatha"> चतुर्थज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिन:। तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ।314।</span> =<span class="HindiText">मन:पर्ययज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले और बल से सुशोभित उन भगवान् के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवों के ही होता है। ( महापुराण/20/170-172 )।<br /> | महापुराण/74/314 <span class="SanskritGatha"> चतुर्थज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिन:। तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ।314।</span> =<span class="HindiText">मन:पर्ययज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले और बल से सुशोभित उन भगवान् के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवों के ही होता है। ( महापुराण/20/170-172 )।<br /> | ||
(देखो अगला शीर्षक) (उत्तम संहननधारी जिनकल्पी मुनियों को सामायिक चारित्र होता है तथा हीनसंहनन वाले स्थविरकल्पी मुनियों को छेदोपस्थापना)।<br /> | (देखो अगला शीर्षक) (उत्तम संहननधारी जिनकल्पी मुनियों को सामायिक चारित्र होता है तथा हीनसंहनन वाले स्थविरकल्पी मुनियों को छेदोपस्थापना)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> काल की अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> काल की अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व </strong> </span><br /> | ||
मू.आ./533-535<span class="SanskritGatha"> बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति। छेदुवठ्ठावणियं पुणभयवं उसहो य वीरो य।533। आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुट्ठु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति।535।</span>=<span class="HindiText">अजितनाथ को आदि लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यंत बावीस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश करते हैं और भगवान् ऋषभदेव तथा महावीर स्वामी छेदोपस्थापना संयम का उपदेश करते हैं।533। आदि तीर्थ में शिष्य सरलस्वभावी होने से दु:खकर शुद्ध किये जा सकते हैं। इसी तरह | मू.आ./533-535<span class="SanskritGatha"> बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति। छेदुवठ्ठावणियं पुणभयवं उसहो य वीरो य।533। आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुट्ठु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति।535।</span>=<span class="HindiText">अजितनाथ को आदि लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यंत बावीस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश करते हैं और भगवान् ऋषभदेव तथा महावीर स्वामी छेदोपस्थापना संयम का उपदेश करते हैं।533। आदि तीर्थ में शिष्य सरलस्वभावी होने से दु:खकर शुद्ध किये जा सकते हैं। इसी तरह अंत के तीर्थ में शिष्य कुटिल स्वभावी होने दु:खकर पालन कर सकते हैं। जिस कारण पूर्वकाल के शिष्य और पिछले काल के शिष्य प्रगटरीति से योग्य अयोग्य नहीं जानते इसी कारण अंत तीर्थ में छेदोपस्थापना का उपदेश हैं।535। ( अनगारधर्मामृत/9/87/917 ) (और भी देखें [[ प्रतिक्रमण#2 | प्रतिक्रमण - 2]])</span><br /> | ||
गोम्मटसार | गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/5 <span class="SanskritText">तत एव श्रीवर्द्धमानस्वामिना प्रोक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पाचरणपरिणोषु तदेकधा चारित्रं। पंचमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं</span>=<span class="HindiText">ताहीतै श्रीवर्द्धमान स्वामीकरि पूर्व ले उत्तम संहनन के धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणए मुनि तिनके सो सामायिकरूप एक प्रकार की चारित्र कहा है। बहुरि पंचमकाल विषै स्थविरकल्पी हीनसंहनन के धारी तिनिको सो चारित्र तेहर प्रकार कह्या है।<br /> | ||
देखें [[ निर्यापक#1 | निर्यापक - 1 ]]में भगवती आराधना/671 कालानुसार चारित्र में हीनाधिकता आती रहती है।<br /> | देखें [[ निर्यापक#1 | निर्यापक - 1 ]]में भगवती आराधना/671 कालानुसार चारित्र में हीनाधिकता आती रहती है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> जघन्य व उत्कृष्ट लब्धि की अपेक्षा सामायिक छेदोपस्थापना का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> जघन्य व उत्कृष्ट लब्धि की अपेक्षा सामायिक छेदोपस्थापना का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
धवला 7/2,11,168/564/3 <span class="PrakritText">एवं सव्वजहण्णं सामाइयच्छेदोवठ्ठावणसुद्धिसंजमस्स लद्धिट्ठाणं कस्स होदि मिच्छत्तंपडिवज्जमाणसंजदस्स चरिमसमए।</span><br /> | धवला 7/2,11,168/564/3 <span class="PrakritText">एवं सव्वजहण्णं सामाइयच्छेदोवठ्ठावणसुद्धिसंजमस्स लद्धिट्ठाणं कस्स होदि मिच्छत्तंपडिवज्जमाणसंजदस्स चरिमसमए।</span><br /> | ||
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Revision as of 16:22, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
यद्यपि दीक्षा धारण करते समय साधु पूर्णतया साम्य रहते की प्रतिज्ञा करता है, परंतु पूर्ण निर्विकल्पता में अधिक देर टिकने में समर्थ न होने पर व्रत समिति गुप्ति आदि रूप व्यवहार चारित्र तथा क्रियानुष्ठानों में अपने को स्थापित करता है। पुन: कुछ समय पश्चात् अवकाश पाकर साम्यता में पहुंच जाता है और पुन: परिणामों के गिरने पर विकल्पों में स्थित होता है। जब तक चारित्रमोह का उपशम या क्षय नहीं करता तब तक इसी प्रकार झूले में झूलता रहता है। तहाँ निर्विकल्प व साम्य चारित्र का नाम सामायिक या निश्चय चारित्र है, और विकल्पात्मक चारित्र का नाम छेदोपस्थापना या व्यवहार चारित्र है।
- छेदोपस्थापना चारित्र का लक्षण
प्रवचनसार/209 एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।209। =ये (व्रत समिति आदि) वास्तव में श्रमणों के मूलगुण हैं, उनमें प्राप्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक है। (यो.सा./अ./8/8)
पं.सं./प्रा./1/130 छेत्तूण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं। पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो।130। =सावद्य पर्यायरूप पुरानी पर्याय को छेदकर अहिंसादि पाँच प्रकार के यमरूप धर्म में अपनी आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापना संयम है। ( धवला 1/1/1/123/ गा.188/372); (पं.सं.सं.1/240); ( गोम्मटसार जीवकांड/471/880 )।
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/7 प्रमादकृतानर्थप्रबंधविलोपे सम्यक्त्वप्रतिक्रिया छेदोपस्थापना विकल्पनिवृत्तिर्वा। =प्रमादकृत अनर्थप्रबंधका अर्थात् हिंसादि अव्रतों के अनुष्ठान का विलोप अर्थात् सर्वथा त्याग करने पर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात् पुन: व्रतों का ग्रहण होता है वह छेदोपस्थापना चारित्र है, अथवा विकल्पों की निवृत्ति का नाम छेदोपस्थापना चारित्र है। ( राजवार्तिक/9/18/6-7/617/11 ) ( चारित्रसार/83/4 ) ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/6 )।
यो.सा./यो./101 हिंसादि उपरिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ। सो बिमयऊ चारित्तु मुणि जो पंचमगइ णेइ।101। =हिंसादिक का त्याग कर जो आत्मा को स्थिर करता है, उसे दूसरा (छेदोपस्थापना) समझो। यह पंचम गति को ले जाने वाला है।
धवला 1/1,1,123/370/1 तस्यैकस्य व्रतस्य छेदेन द्विव्यादिभेदेनोपस्थापनं व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम:। =उस एक (सामायिक) व्रत का छेद करने को अर्थात् दो तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के आरोपण करने को छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम कहते हैं।
तत्त्वसार/5/46 यत्र हिंसादिभेदेन त्याग: सावद्यकर्मण:। व्रतलोपेविशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ।46। =जहाँ पर हिंसा चोरी इत्यादि विशेष रूप से भेदपूर्वक पाप क्रिया का त्याग किया जाता है और व्रत भंग हो जाने पर उसकी (प्रायश्चित्तादि से) शुद्धि की जाती है उसको छेदोपस्थापना कहते हैं।
प्रवचनसार/ त./प्र./209 तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिन: कुंडलवलयांगुलीयादिपरिग्रह: किल श्रेयान्, न पुन: सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थाप को भवति। =जब (श्रमण) निर्विकल्प सामायिक संयम में आरूढ़ता के कारण जिसमें विकल्पों का अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशा में से च्युत होता है, तब ‘केवल सुवर्णमात्र के अर्थी को कुंडल कंकण अंगूठी आदि को ग्रहण करना (भी) श्रेय है, किंतु ऐसा नहीं है कि (कुंडल इत्यादि का ग्रहण कभी न करके) सर्वथा सुवर्ण की ही प्राप्ति करना श्रेय है, ऐसा विचारे। इसी प्रकार वह श्रमण मूलगुणों में विकल्परूप से (भेदरूप से) अपने को स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है। ( अनगारधर्मामृत/4/176/509 )
द्रव्यसंग्रह टीका/35/147/8 अथ छेदोपस्थापनं कथयति–यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा—पंचप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावद्येभ्यो विवर्त्य निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदे व्रतखंडे सति निर्विकारसंवित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरंगव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्युपस्थापनं छेदोपस्थानमिति। =अब छेदोपस्थापना का कथन करते हैं–जब एक समय समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में, स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब विकल्प भेद से पाँच व्रतों का छेदन होने से (अर्थात् एक सामायिक व्रत का पाँच व्रतरूप से भेद हो जाने के कारण) रागादि विकल्परूप सावद्यों से अपने आपको छुड़ाकर निज शुद्धात्मा में उपस्थान करना;–अथवा छेद यानी व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्त के बल से अथवा व्यवहार प्रायश्चित्त से जो निज आत्मा में स्थित होना सो छेदोपस्थापना है।
- सामायिक व छेदोपस्थापना में कथंचित् भेद व अभेद
धवला 1/1,1,123/370/2 सकलव्रतानामेकत्वमापाद्य एकयमोपादानाद् द्रव्यार्थिकनय: सामायिकशुद्धिसंयम:। तदेवैकंव्रतं पंचधा ब्रहुधा वा विपाटय धारणात् पर्यायार्थिकनय: छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम:। निशितबुद्धिजनानुग्रहार्थं द्रव्यार्थिकनयादेशना, मंदधियामनुग्रहार्थं पर्यायार्थिकनयादेशना। ततो नानयो: संयमयोरनुष्ठानकृतो विशेषोऽस्तीति द्वितयदेशेनानुगृहीत एक एव संयम इति चेन्नैष दोष:, इष्टत्वात् ।=संपूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करने वाला होने से सामायिक-शुद्धिसंयम द्रव्यार्थिकनयरूप है, और उसी व्रत के पाँच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके धारण करने वाला होने से छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम पर्यायार्थिकनयरूप है। यहाँ पर तीक्ष्ण बुद्धि मनुष्यों के लिए द्रव्यार्थिक नय का उपदेश दिया गया है और मंदबुद्धि प्राणियों का अनुग्रह करने के लिए पर्यायार्थिक नय का उपदेश दिया गया है। इसलिए इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। प्रश्न–तब तो उपदेश की अपेक्षा संयम को भले ही दो प्रकार का कह लिया जावे पर वास्तव में तो वह एक ही है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह कथन हमें इष्ठ ही हे। (देखो आगे नं.4 भी); ( सर्वार्थसिद्धि/7/1/343/5 ); ( राजवार्तिक/7/1/9/534/12 ) ( धवला 3/1,2,149/447/7 )।
धवला 3/1,2,149/449/1 तदो जे सामाइयसुद्धिसंजदा ते चेय छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होंति। जे छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा ते चेय सामाइयसुद्धिसंजदा होंति त्ति। =इसलिए जो सामायिकशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं। तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं।
- सामायिक व छेदोपस्थापना का परिहारविशुद्धि से कथंचित् भेद
धवला 1/1,1,126/375/7 परिहारशुद्धिसंयत: किमु एकयम उत पंचयम इति। किंचातो यद्येकयम: सामायिकेऽंतर्भवति। अथ यदि पंचयम: छेदोपस्थापनेऽंतर्भवति। न च संयममादधानस्य पुरुषस्य द्रव्यपर्यायार्थिकाभ्यां व्यतिरिक्तस्यास्ति संभवस्ततो न परिहारसंयमोऽस्तीति न, परिहारर्द्धयतिशयोत्पत्त्यपेक्षया ताभ्यामस्य कथंचिद्भेदात् । तद्रूपापरित्यागेनैव परिहारर्द्धिपर्यायेण परिणतत्वान्न ताभ्यामन्योऽन्यं संयम इति चेन्न, प्रागविद्यमानपरिहारर्द्धयपेक्षया ताभ्यामस्य भेदात् । तत: स्थितमेतत्ताभ्यामन्य: परिहारसंयम: इति। =प्रश्न–परिहारशुद्धि संयम क्या एक यमरूप है या पाँच यमरूप? इनमें से यदि एक यमरूप है तो उसका सामायिक में अंतर्भाव होना चाहिए और यदि पाँच यमरूप है तो छेदोपस्थापना में अंतर्भाव होना चाहिए। संयम को धारण करने वाले पुरुष के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा इन दोनों संयमों से भिन्न तीसरे संयम की संभावना तो है नहीं, इसलिए परिहार शुद्धि संयम नहीं बन सकता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, परिहार ऋद्धि रूप अतिशय की उत्पत्ति की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहारविशुद्धि संयम का कथंचित् भेद है। प्रश्न–सामायिक और छेदोपस्थापनारूप अवस्था का त्याग न करते हुए ही परिहारशुद्धिरूप पर्याय से यह जीव परिणत होता है, इसलिए सामायिक और छेदोपस्थापना से भिन्न यह संयम नहीं हो सकता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, पहिले अविद्यमान परंतु पीछे से उत्पन्न हुई परिहार ऋद्धि की अपेक्षा उन दोनों संयमों से इसका भेद है, अत: यह बात निश्चित हो जाती है कि सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहारशुद्धि संयम भिन्न है।
- सामायिक छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसांपराय में कथंचित् भेद व अभेद
धवला 1/1,1,127/376/7 सूक्ष्मसांपराय: किमु एकयम उत पंचयम इति। किंचातो यद्येकयम: पंचयमान्न मुक्तिरुपशमश्रेण्यारोहणं वा सूक्ष्मसांपरायगुणप्राप्तिमंतरेण तदुदयाभावात् । अथ पंचयम: एकयमानां पूर्वोक्तदोषौ समाढौकेते। अथोभययम: एकयमपंचयमभेदेन सूक्ष्मसांपरायाणां द्वैविध्यमापतेदिति। नाद्यौ विकल्पावनभ्युपगमात् । न तृतीयविकल्पोक्तदोष: संभवति पंचैकयमभेदेन संयमभेदामावात् । यद्येकयमपंचयमौ संयमस्य न्यूनाधिकभावस्य निबंधनावेवाभविष्यतां संयमभेदोऽप्यभविष्यत् । न चैवं संयमं प्रति द्वयोरविशेषात् । ततो न सूक्ष्मसांपरायसंयमस्य तद्द्वारेण द्वैविध्यमिति। तद्द्वारेण संयमस्य द्वैविध्याभावे पंचविधसंयमोपदेश: कथं घटत इति चेन्माघटिष्ट। तर्हि कतिविध: संयम:। चतुर्विध: पंचमस्य संयमस्यानुपलंभात् । =प्रश्न–सूक्ष्मसांपरायसंयम क्या एक यमरूप् (सामायिक रूप) है अथवा पंचयमरूप (छेदोपस्थापनारूप)? इनमें से यदि एकयमरूप है तो पंचयमरूप छेदोपस्थापना से मुक्ति अथवा उपशमश्रेणी का आरोहण नहीं बन सकता है, क्योंकि, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान की प्राप्ति के बिना से दोनों ही बातें नहीं बन सकेंगी ? यदि यह पंचमरूप है तो एकयमरूप सामायिकसंयम को धारण करने वाले जीवों के पूर्वोक्त दोनों दोष प्राप्त होते हैं। यदि इसे उभय यमरूप मानते हैं तो एक यम और पंचयम के भेद से इसके दो भेद हो जायेंगे ? उत्तर–आदि के दो विकल्प तो ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा हमने माना नहीं है (अर्थात् वह केवल एक यमरूप या केवल पंचयमरूप नहीं है)। इसी प्रकार तीसरे विकल्प में दिया गया दोष भी संभव नहीं, क्योंकि, पंचयम और एकयम के भेद से संयम में कोई भेद ही संभव नहीं है। यदि एकयम और पंचयम, संयम के न्यूनाधिकभाव के कारण होते तो संयम में भेद भी हो जाता। परंतु ऐसा तो है, नहीं, क्योंकि, संयम के प्रति दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अत: सूक्ष्मसांपराय संयम के उन दोनों (एकयमरूप सामायिक तथा पंचयमरूप छेदोपस्थापना) की अपेक्षा दो भेद नहीं हो सकते। प्रश्न–तो पाँच प्रकार के संयम का उपदेश कैसे बन सकता है ? उत्तर–यदि पाँच प्रकार का संयम घटित नहीं होता है तो मत होओ। प्रश्न–तो संयम कितने प्रकार का है? उत्तर–संयम चार प्रकार का है, क्योंकि पाँचवाँ संयम पाया ही नहीं जाता है। विशेषार्थ–सामायिक और छेदोपस्थापना संयम में विवक्षा भेद से ही भेद है, वास्तव में नहीं, अत: वे दोनों मिलकर एक और शेष तीन (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात) इस प्रकार संयम चार प्रकार के होते हैं।
- सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व सामान्य
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 125/374 सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धि-संजदापमत्त-संजद-प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति। =सामायिक और छेदोपस्थापना रूप शुद्धि को प्राप्त संयत जीव प्रमत्तसंयत से लेकर निवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/467/878;689/1128 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/9 )।
महापुराण/74/314 चतुर्थज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिन:। तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ।314। =मन:पर्ययज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले और बल से सुशोभित उन भगवान् के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवों के ही होता है। ( महापुराण/20/170-172 )।
(देखो अगला शीर्षक) (उत्तम संहननधारी जिनकल्पी मुनियों को सामायिक चारित्र होता है तथा हीनसंहनन वाले स्थविरकल्पी मुनियों को छेदोपस्थापना)।
- काल की अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व
मू.आ./533-535 बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति। छेदुवठ्ठावणियं पुणभयवं उसहो य वीरो य।533। आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुट्ठु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति।535।=अजितनाथ को आदि लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यंत बावीस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश करते हैं और भगवान् ऋषभदेव तथा महावीर स्वामी छेदोपस्थापना संयम का उपदेश करते हैं।533। आदि तीर्थ में शिष्य सरलस्वभावी होने से दु:खकर शुद्ध किये जा सकते हैं। इसी तरह अंत के तीर्थ में शिष्य कुटिल स्वभावी होने दु:खकर पालन कर सकते हैं। जिस कारण पूर्वकाल के शिष्य और पिछले काल के शिष्य प्रगटरीति से योग्य अयोग्य नहीं जानते इसी कारण अंत तीर्थ में छेदोपस्थापना का उपदेश हैं।535। ( अनगारधर्मामृत/9/87/917 ) (और भी देखें प्रतिक्रमण - 2)
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/5 तत एव श्रीवर्द्धमानस्वामिना प्रोक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पाचरणपरिणोषु तदेकधा चारित्रं। पंचमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं=ताहीतै श्रीवर्द्धमान स्वामीकरि पूर्व ले उत्तम संहनन के धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणए मुनि तिनके सो सामायिकरूप एक प्रकार की चारित्र कहा है। बहुरि पंचमकाल विषै स्थविरकल्पी हीनसंहनन के धारी तिनिको सो चारित्र तेहर प्रकार कह्या है।
देखें निर्यापक - 1 में भगवती आराधना/671 कालानुसार चारित्र में हीनाधिकता आती रहती है।
- जघन्य व उत्कृष्ट लब्धि की अपेक्षा सामायिक छेदोपस्थापना का स्वामित्व
धवला 7/2,11,168/564/3 एवं सव्वजहण्णं सामाइयच्छेदोवठ्ठावणसुद्धिसंजमस्स लद्धिट्ठाणं कस्स होदि मिच्छत्तंपडिवज्जमाणसंजदस्स चरिमसमए।
धवला 7/2,11,171,/566/8 एसा कस्स होदि। चरिमसमयअणियट्टिस्स।=प्रश्न–सामायिक-छेदोपस्थापना-शुद्धिसंयम का यह सर्व जघन्य लब्धिस्थान किसके होता है? उत्तर–यह स्थान मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले संयत के अंतिम समय में होता है। प्रश्न–(सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धिसयम की) यह (उत्कृष्ट) लब्धि किसके होती है ? उत्तर–अंतिम समयवर्ती अनिवृत्तिकरण के होती है।
- अन्य संबंधित विषय
- दोनों में क्षयोपशम व उपशम भाव के अस्तित्व संबंधी शंका।–(देखें संयत - 2)।
- इस संयम में आय के अनुसार ही व्यय होता है।–(देखें मार्गणा )।
- छेदोपस्थापना में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि के अस्तित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।–(देखें सत् )।
- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–(देखें वह वह नाम )।
- इस संयम में कर्मों के बंध उदय सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ।–(देखें वह वह नाम )।
- दोनों में क्षयोपशम व उपशम भाव के अस्तित्व संबंधी शंका।–(देखें संयत - 2)।
पुराणकोष से
चारित्र का एक भेद- अपने प्रमाद द्वारा हुए अनर्थ को दूर करने के लिए की हुई समीचीन प्रतिक्रिया । इसके पाँच भेद होते हैं― ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । तीर्थंकरों को छेदोपस्थापना की आवश्यकता नहीं होती । महापुराण 20. 172-173, हरिवंशपुराण 64.16
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