भवन: Difference between revisions
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तिलोयपण्णत्ति/3/22 <span class="PrakritText">दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। </span>=<span class="HindiText"> द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित भवनवासी देवों के निवास स्थानों को भवनपुर कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/7 ), ( त्रिलोकसार/294 )।</span></li> | तिलोयपण्णत्ति/3/22 <span class="PrakritText">दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। </span>=<span class="HindiText"> द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित भवनवासी देवों के निवास स्थानों को भवनपुर कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/7 ), ( त्रिलोकसार/294 )।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> भवनवासी देव का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> भवनवासी देव का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/2 <span class="SanskritText">भवनेषु | सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/2 <span class="SanskritText">भवनेषु वसंतीत्येवंशीला भवनवासिन:। </span>= <span class="HindiText">जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। ( राजवार्तिक/2/10/1/216/3 )। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> भवनवासी देवों के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> भवनवासी देवों के भेद</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/2/10 <span class="SanskritText"> भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि- द्वीपदिक्कुमाराः।10। </span>=<span class="HindiText"> भवनवासी देव दस प्रकार हैं–असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। ( तिलोयपण्णत्ति/3/9 ); ( त्रिलोकसार/209 )।</span></li> | तत्त्वार्थसूत्र/2/10 <span class="SanskritText"> भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि- द्वीपदिक्कुमाराः।10। </span>=<span class="HindiText"> भवनवासी देव दस प्रकार हैं–असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। ( तिलोयपण्णत्ति/3/9 ); ( त्रिलोकसार/209 )।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> भवनवासी देवों के नाम के साथ ‘कुमार’ शब्द का तात्पर्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> भवनवासी देवों के नाम के साथ ‘कुमार’ शब्द का तात्पर्य</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/3 <span class="SanskritText">सर्वेषां देवानामवस्थितवयःस्वभावत्वेऽपि वेषाभूषायुधयानवाहनक्रीडनादि कुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः। </span>= <span class="HindiText">यद्यपि इन सब देवों का वय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनका वेष, भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है, इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्द रूढ है। ( राजवार्तिक/4/10/7/216/20 ); ( तिलोयपण्णत्ति/3/125/-126 )।</span></li> | सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/3 <span class="SanskritText">सर्वेषां देवानामवस्थितवयःस्वभावत्वेऽपि वेषाभूषायुधयानवाहनक्रीडनादि कुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः। </span>= <span class="HindiText">यद्यपि इन सब देवों का वय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनका वेष, भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है, इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्द रूढ है। ( राजवार्तिक/4/10/7/216/20 ); ( तिलोयपण्णत्ति/3/125/-126 )।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> अन्य | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> अन्य संबंधित विषय</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> असुर आदि भेद विशेष।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | <li><span class="HindiText"> असुर आदि भेद विशेष।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> भवनवासी देवों के गुणस्थान, जीव समास, मार्गणास्थान के स्वामित्व | <li><span class="HindiText"> भवनवासी देवों के गुणस्थान, जीव समास, मार्गणास्थान के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> भवनवासी देवों के सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, | <li><span class="HindiText"> भवनवासी देवों के सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> भवनवासियों में कर्म-प्रकृतियों का | <li><span class="HindiText"> भवनवासियों में कर्म-प्रकृतियों का बंध, उदय व सत्त्व।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> भवनवासियों में सुख-दुःख तथा सम्यक्त्व व गुणस्थानों आदि | <li><span class="HindiText"> भवनवासियों में सुख-दुःख तथा सम्यक्त्व व गुणस्थानों आदि संबंध।–देखें [[ देव#II.3 | देव - II.3]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> भवनवासियों में | <li><span class="HindiText"> भवनवासियों में संभव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति आदि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> भवनवासी देव मरकर कहाँ उत्पन्न हों और कौन-सा गुणस्थान या पद प्राप्त करें।–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।<br /> | <li><span class="HindiText"> भवनवासी देव मरकर कहाँ उत्पन्न हों और कौन-सा गुणस्थान या पद प्राप्त करें।–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> भवनवासी | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> भवनवासी इंद्रों का वैभव</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> भवनवासी देवों के | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> भवनवासी देवों के इंद्रों की संख्या</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/13 <span class="PrakritGatha">दससु कुलेसु पुह पुह दो दो इंदा हवंति णियमेण। ते एक्कस्सिं मिलिदा वीस विराजंति भूदीहिं।13। </span>= <span class="HindiText">दश भवनवासियों के कुलों में नियम से पृथक्-पृथक् दो-दो | तिलोयपण्णत्ति/3/13 <span class="PrakritGatha">दससु कुलेसु पुह पुह दो दो इंदा हवंति णियमेण। ते एक्कस्सिं मिलिदा वीस विराजंति भूदीहिं।13। </span>= <span class="HindiText">दश भवनवासियों के कुलों में नियम से पृथक्-पृथक् दो-दो इंद्र होते हैं। वे सब मिलकर 20 इंद्र होते हैं, जो अपनी-अपनी विभूति से शोभायमान हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> भवनवासी | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> भवनवासी इंद्रों के नाम निर्देश</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/14-16 <span class="PrakritGatha"> पढमो हु चमरणामो इंदो वइरोयणो त्ति विदिओ य। भूदाणंदो धरणाणंदो वेणू य वेणुदारी य।14। पुण्वसिट्ठजलप्पहजलकंता तह य घोसमहघोसा। हरिसेणो हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाहणग्गिसिही।15। अग्गिवाहणणामो वेलंबपभंजणाभिधाणा य। एदे असुरप्पहुदिसु कुलेसु दोद्दो कमेण देविंदा।16।</span> = <span class="HindiText">असुरकुमारों में प्रथम चमर नामक और दूसरा वैरोचन | तिलोयपण्णत्ति/3/14-16 <span class="PrakritGatha"> पढमो हु चमरणामो इंदो वइरोयणो त्ति विदिओ य। भूदाणंदो धरणाणंदो वेणू य वेणुदारी य।14। पुण्वसिट्ठजलप्पहजलकंता तह य घोसमहघोसा। हरिसेणो हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाहणग्गिसिही।15। अग्गिवाहणणामो वेलंबपभंजणाभिधाणा य। एदे असुरप्पहुदिसु कुलेसु दोद्दो कमेण देविंदा।16।</span> = <span class="HindiText">असुरकुमारों में प्रथम चमर नामक और दूसरा वैरोचन इंद्र, नागकुमारों में भूतानंद और धरणानंद, सुपर्णकुमारों में वेणु और वेणुधारी, द्वीप-कुमारों में पूर्ण और वशिष्ठ, उदधिकुमारों में जलप्रभ और जलकांत, स्तनितकुमारों में घोष और महाघोष, विद्युत्कुमार में हरिषेण और अमितवाहन, अग्नि-कुमारों में अग्निशिखी और अग्निवाहन, वायुकुमारों में वेलंब और प्रभंजन नामक इस प्रकार दो-दो इंद्र क्रम से उन असुरादि निकायों में होते हैं।14-16। (इनमें प्रथम नंबर के इंद्र दक्षिण इंद्र हैं और द्वितीय नंबर के इंद्र उत्तर इंद्र हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/17-19 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">भवनवासियों के वर्ण, आहार, श्वास आदि</strong> </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">भवनवासियों के वर्ण, आहार, श्वास आदि</strong> </span></li> | ||
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<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>चैत्यवृक्ष तिलोयपण्णत्ति/3/136 </strong> </span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>चैत्यवृक्ष तिलोयपण्णत्ति/3/136 </strong> </span></p></td> | ||
<td width="79" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रविचार ( तिलोयपण्णत्ति/3/130 )</strong> </span></p></td> | <td width="79" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रविचार ( तिलोयपण्णत्ति/3/130 )</strong> </span></p></td> | ||
<td width="123" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>आहार का | <td width="123" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>आहार का अंतराल मू.आ./1146 तिलोयपण्णत्ति/3/ 111-116 त्रिलोकसार/248 </strong> </span></p></td> | ||
<td width="100" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>श्वासोच्छ्वास का | <td width="100" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>श्वासोच्छ्वास का अंतराल तिलोयपण्णत्ति/3/114-116 </strong> <br /> | ||
<strong> त्रिलोकसार/248 </strong> </span></p></td> | <strong> त्रिलोकसार/248 </strong> </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
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</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="281" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">इनके सामानिक, त्रायस्त्रिंश पारिषद व | <td width="281" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">इनके सामानिक, त्रायस्त्रिंश पारिषद व प्रतींद्र </span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p> </p></td> | <td width="96" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="123" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="123" valign="top"><p><span class="HindiText">स्वइंद्रवत् </span></p></td> | ||
<td width="100" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="100" valign="top"><p><span class="HindiText">स्वइंद्रवत्</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
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<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> भवनवासियों की शक्ति व विक्रिया</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> भवनवासियों की शक्ति व विक्रिया</strong> <br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/162-169 का भाषार्थ-दश हजार वर्ष की आयुवाला देव 100 मनुष्यों को मारने व पोसने में तथा डेढ़ सौ धनुषप्रमाण | तिलोयपण्णत्ति/3/162-169 का भाषार्थ-दश हजार वर्ष की आयुवाला देव 100 मनुष्यों को मारने व पोसने में तथा डेढ़ सौ धनुषप्रमाण लंबे चौड़े क्षेत्र को बाहुओं से वेष्टित करने व उखाड़ने में समर्थ है। एक पल्य की आयुवाला देव छह खंड की पृथिवी को उखाड़ने तथा वहाँ रहने वाले मनुष्य व तिर्यंचों को मारने वा पोसने में समर्थ है। एक सागर की आयुवाला देव जंबूद्वीप को समुद्र में फेंकने और उसमें स्थित मनुष्य व तिर्यंचों को पोसणे में समर्थ है। दश हजार वर्ष की आयुवाला देव उत्कृष्टरूप से सौ, जघन्यरूप से सात, मध्यरूप से सौ से कम सात से अधिक रूपों की विक्रिया करता है। शेष सब देव अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रों के प्रमाण विक्रिया को पूरित करते हैं। संख्यात व असंख्यात वर्ष की आयुवाला देव क्रम से संख्यात व असंख्यात योजन जाता व उतने ही योजन आता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> भवनवासी | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> भवनवासी इंद्रों का परिवार</strong> <br /> | ||
स = सहस्र <br /> | स = सहस्र <br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/79-99 ( त्रिलोकसार/226-235 ) </span></li> | तिलोयपण्णत्ति/3/79-99 ( त्रिलोकसार/226-235 ) </span></li> | ||
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<tr> | <tr> | ||
<td width="65" rowspan="2" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | <td width="65" rowspan="2" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | ||
<strong> | <strong>इंद्रों के नाम</strong> </span></td> | ||
<td width="198" colspan="4" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong>देवियों का परिवार</strong> </span></p></td> | <td width="198" colspan="4" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong>देवियों का परिवार</strong> </span></p></td> | ||
<td width="48" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong> | <td width="48" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रतींद्र</strong> </span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>सामानिक</strong> </span></p></td> | <td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>सामानिक</strong> </span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>त्रायस्त्रिंशत</strong> </span></p></td> | <td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>त्रायस्त्रिंशत</strong> </span></p></td> | ||
Line 195: | Line 195: | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">योग </span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">योग </span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>अभ्यं. समित</strong> </span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>अभ्यं. समित</strong> </span></p></td> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मध्य | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मध्य चंद्रा</strong> </span></p></td> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>बाह्य युक्त</strong> </span></p></td> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>बाह्य युक्त</strong> </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText">चमरेंद्र </span></p></td> | ||
<td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | <td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | ||
<td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">40 स. </span></p></td> | <td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">40 स. </span></p></td> | ||
Line 233: | Line 233: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText">भूतानंद</span></p></td> | ||
<td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | <td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | ||
<td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">40 स <span dir="rtl"> .</span></span></p></td> | <td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">40 स <span dir="rtl"> .</span></span></p></td> | ||
Line 249: | Line 249: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText">धरणानंद</span></p></td> | ||
<td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | <td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | ||
<td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">40 स <span dir="rtl"> .</span></span></p></td> | <td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">40 स <span dir="rtl"> .</span></span></p></td> | ||
Line 314: | Line 314: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText">शेष सर्व<br /> | <td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText">शेष सर्व<br /> | ||
इंद्र</span></p></td> | |||
<td width="675" colspan="13" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">à उपरोक्त पूर्ण | <td width="675" colspan="13" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">à उपरोक्त पूर्ण इंद्रवत् ß </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
Line 322: | Line 322: | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> इंद्रों की प्रधान देवियों का नाम निर्देश</strong></span><strong><br> | ||
</strong> तिलोयपण्णत्ति/3/90,94 <span class="PrakritText"> किण्हा रयणसुमेघा देवीणामा सुकंदअभिधाणा। णिरुवमरूवधराओ चमरे पंचग्गमहिसीओ।90। पउमापउमसिरीओ कणयसिरी कणयमालमहपउमा। अग्गमहिसीउ बिदिए ...।94। </span>= <span class="HindiText"> | </strong> तिलोयपण्णत्ति/3/90,94 <span class="PrakritText"> किण्हा रयणसुमेघा देवीणामा सुकंदअभिधाणा। णिरुवमरूवधराओ चमरे पंचग्गमहिसीओ।90। पउमापउमसिरीओ कणयसिरी कणयमालमहपउमा। अग्गमहिसीउ बिदिए ...।94। </span>= <span class="HindiText">चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा देवी नामक और सुकंदा या सुकांता (शुकाढ्या) नाम की अनुपम रूप को धारण करने वाली पाँच अग्रमहिषियाँ हैं।90। ( त्रिलोकसार/236 ) द्वितीय इंद्र के पद्मा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला और महापद्मा, ये पाँच अग्रदेवियाँ हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> प्रधान देवियों की विक्रिया का प्रमाण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> प्रधान देवियों की विक्रिया का प्रमाण</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/92,98 <span class="PrakritGatha">चमरग्गिममहिसीणं अट्ठसहस्सविकुव्वणा संति। पत्तेक्कं अप्पसमं णिरुवमलावण्णरूवेहिं।92। दीविंदप्पहुदीणं देवीणं वरविउव्वणा संति। छस्सहस्सं च समं पत्तेक्कं विविहरूवेहिं।98।</span> = <span class="HindiText"> | तिलोयपण्णत्ति/3/92,98 <span class="PrakritGatha">चमरग्गिममहिसीणं अट्ठसहस्सविकुव्वणा संति। पत्तेक्कं अप्पसमं णिरुवमलावण्णरूवेहिं।92। दीविंदप्पहुदीणं देवीणं वरविउव्वणा संति। छस्सहस्सं च समं पत्तेक्कं विविहरूवेहिं।98।</span> = <span class="HindiText">चमरेंद्र की अग्रमहिषियों में से प्रत्येक अपने साथ अर्थात् मूल शरीर सहित, अनुपम रूप लावण्य से युक्त आठ हजार प्रमाण विक्रिया निर्मित रूपों को धारण कर सकती हैं।92। (द्वितीय इंद्र की देवियाँ तथा नागेंद्रों व गरुड़ेंद्रों (सुपर्ण) की अग्र देवियों की विक्रिया का प्रमाण भी आठ हजार है। ( तिलोयपण्णत्ति/3/94-96 )। द्वीपेंद्रादिकों की देवियों में से प्रत्येक मूल शरीर के साथ विविध प्रकार के रूपों से छह हजार प्रमाण विक्रिया होती है।98।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> इंद्रों व उनके परिवार देवों की देवियाँ</strong> <br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/102-106 ( त्रिलोकसार/237-239 ) </span></li> | तिलोयपण्णत्ति/3/102-106 ( त्रिलोकसार/237-239 ) </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 334: | Line 334: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="96" rowspan="2" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | <td width="96" rowspan="2" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | ||
इंद्र का नाम </span></td> | |||
<td width="48" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="48" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">इंद्र </span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रतींद्र </span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">सामानिक </span></p></td> | <td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">सामानिक </span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">त्रायस्त्रिंश </span></p></td> | <td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">त्रायस्त्रिंश </span></p></td> | ||
Line 352: | Line 352: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">चमरेंद्र</span></p></td> | ||
<td width="48" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">देखें [[ भवनवासी#2.5 | भवनवासी - 2.5]]</span></p></td> | <td width="48" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">देखें [[ भवनवासी#2.5 | भवनवासी - 2.5]]</span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व | <td width="54" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व इंद्रवत्</span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व | <td width="54" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व इंद्रवत्</span></p></td> | ||
<td width="54" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व | <td width="54" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व इंद्रवत्</span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">250</span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">250</span></p></td> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">200</span></p></td> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">200</span></p></td> | ||
<td width="66" valign="top"><p><span class="HindiText">150</span></p></td> | <td width="66" valign="top"><p><span class="HindiText">150</span></p></td> | ||
<td width="66" valign="top"><p><span class="HindiText">100</span></p></td> | <td width="66" valign="top"><p><span class="HindiText">100</span></p></td> | ||
<td width="60" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व | <td width="60" rowspan="7" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">स्व इंद्रवत्</span></p></td> | ||
<td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | <td width="48" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
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<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">भूतानंद</span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">200</span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">200</span></p></td> | ||
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<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">धरणानंद</span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">200</span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">200</span></p></td> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">160 </span></p></td> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">160 </span></p></td> | ||
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<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">शेष सर्व | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">शेष सर्व इंद्र</span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">140</span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">140</span></p></td> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> भावन लोक निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> भावन लोक निर्देश</strong> <br /> | ||
देखें [[ रत्नप्रभा ]](मध्य लोक की इस चित्रा पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा पृथिवी है। उसके तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग, अब्बहुलभाग।)</span><br> | देखें [[ रत्नप्रभा ]](मध्य लोक की इस चित्रा पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा पृथिवी है। उसके तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग, अब्बहुलभाग।)</span><br> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/7 <span class="PrakritGatha">रयणप्पहपुढवीए खरभाए पंकबहुलभागम्मि। भवणसुराणं भवणइं होंति वररयणसोहाणि।7।</span> =<span class="HindiText"> रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग और पंकबहुल भाग में उत्कृष्ट रत्नों से शोभायमान भवनवासी देवों के भवन हैं।7। </span><br> राजवार्तिक/3/1/8/160/22 <span class="SanskritText">तत्र खरपृथिवीभागस्योपर्यधश्चैकैकं योजनसहस्रं परित्यज्य मध्यमभागेषु चतुर्दशसु योजनसहस्रेषु किंनरकिंपुरुष ... सप्तानां | तिलोयपण्णत्ति/3/7 <span class="PrakritGatha">रयणप्पहपुढवीए खरभाए पंकबहुलभागम्मि। भवणसुराणं भवणइं होंति वररयणसोहाणि।7।</span> =<span class="HindiText"> रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग और पंकबहुल भाग में उत्कृष्ट रत्नों से शोभायमान भवनवासी देवों के भवन हैं।7। </span><br> राजवार्तिक/3/1/8/160/22 <span class="SanskritText">तत्र खरपृथिवीभागस्योपर्यधश्चैकैकं योजनसहस्रं परित्यज्य मध्यमभागेषु चतुर्दशसु योजनसहस्रेषु किंनरकिंपुरुष ... सप्तानां व्यंतराणां नागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराणां नवानां भवनवासिनां चावासा:। पंकबहुलभागे असुरराक्षसानामावासा:।</span> = <span class="HindiText">खर पृथिवी भाग के ऊपर और नीचे की ओर एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्य के 14 हजार योजन में किन्नर, किंपुरुष... आदि सात व्यंतरों के तथा नाग, विद्युत, सुपर्ण, अग्नि, वात, स्तनित, उदधि, द्वीप और दिक्कुमार इन नव भवनवासियों के निवास हैं। पंकबहुल भाग में असुर और राक्षसों के आवास हैं। ( हरिवंशपुराण/4/50-51;59-65 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/123-127 )।<br /> | ||
देखें [[ व्यंतर#4.1 | व्यंतर - 4.1]],5 (खरभाग, पंकभाग और तिर्यक् लोक में भी भवनवासियों के निवास हैं )। </span></li> | देखें [[ व्यंतर#4.1 | व्यंतर - 4.1]],5 (खरभाग, पंकभाग और तिर्यक् लोक में भी भवनवासियों के निवास हैं )। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> भवनवासी देवों के निवास स्थानों के भेद व लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> भवनवासी देवों के निवास स्थानों के भेद व लक्षण</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/22-23 <span class="PrakritGatha">भवणा भवणपुराणिं आवासा अ सुराण होदि तिविहा णं। रयणप्पहाए भवणा दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। दहसेलदुमादीणं रम्माणं उवरि होंति आवासा। णागादीणं केसिं तियणिलया भवणमेक्कमसुराणं।23।</span> = <span class="HindiText">भवनवासी देवों के निवास-स्थान भवन, भवनपुर और आवास के भेद से ये तीन प्रकार होते हैं। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप समुद्रों में ऊपर स्थित निवासस्थानों को भवनपुर, और तालाब, पर्वत और वृक्षादि के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते हैं। नागकुमारादिक देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवास तीनों ही तरह के निवास स्थान होते हैं, | तिलोयपण्णत्ति/3/22-23 <span class="PrakritGatha">भवणा भवणपुराणिं आवासा अ सुराण होदि तिविहा णं। रयणप्पहाए भवणा दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। दहसेलदुमादीणं रम्माणं उवरि होंति आवासा। णागादीणं केसिं तियणिलया भवणमेक्कमसुराणं।23।</span> = <span class="HindiText">भवनवासी देवों के निवास-स्थान भवन, भवनपुर और आवास के भेद से ये तीन प्रकार होते हैं। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप समुद्रों में ऊपर स्थित निवासस्थानों को भवनपुर, और तालाब, पर्वत और वृक्षादि के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते हैं। नागकुमारादिक देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवास तीनों ही तरह के निवास स्थान होते हैं, परंतु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान होते हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> मध्य लोक में भवनवासियों का निवास</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> मध्य लोक में भवनवासियों का निवास</strong> <br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/2092,2126 का भावार्थ–( | तिलोयपण्णत्ति/4/2092,2126 का भावार्थ–(जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में देवकुरु व उत्तरकुल में स्थित दो यमक पर्वतों के उत्तर भाग में सीता नदी के दोनों ओर स्थित निषध, देवकुरु, सूर, सुलस, विद्युत् इन पाँचों नामों के युगलोंरूप 10 द्रहों में उन-उन नामवाले नागकुमार देवों के निवास्थान (आवास) हैं।2092-2126।<br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/2780-2782 का भावार्थ (मानुषोत्तर पर्वत पर ईशान दिशा के वज्रनाभि कूट पर हनुमान् नामक देव और प्रभंजनकूट पर वेणुधारी | तिलोयपण्णत्ति/4/2780-2782 का भावार्थ (मानुषोत्तर पर्वत पर ईशान दिशा के वज्रनाभि कूट पर हनुमान् नामक देव और प्रभंजनकूट पर वेणुधारी भवनेंद्र रहता है।2781। वायव्व दिशा के वेलंब नामक और नैऋत्य दिशा के सर्वरत्न कूट पर वेणुधारी भवनेंद्र रहता है।2782। अग्नि दिशा के तपनीय नामक कूट पर स्वातिदेव और रत्नकूट पर वेणु नामक भवनेंद्र रहता है।2780।) <br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/5/131-133 का भावार्थ (लोक विनिश्चय के अनुसार | तिलोयपण्णत्ति/5/131-133 का भावार्थ (लोक विनिश्चय के अनुसार कुंडवर द्वीप के कुंड पर्वत पर के पूर्वादि दिशाओं में 16 कूटों पर 16 नागेंद्रदेव रहते हैं।131-133)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> खर पंक भाग में स्थित भवनों की संख्या</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> खर पंक भाग में स्थित भवनों की संख्या</strong> <br /> | ||
( तिलोयपण्णत्ति/3/11-12; 20-21 ); ( राजवार्तिक/4/10/8/216/26 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/124-127 )।<br /> | ( तिलोयपण्णत्ति/3/11-12; 20-21 ); ( राजवार्तिक/4/10/8/216/26 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/124-127 )।<br /> | ||
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<td width="160" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong> </strong></span></p></td> | <td width="160" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong> </strong></span></p></td> | ||
<td width="160" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong> | <td width="160" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong>उत्तरेंद्र</strong> </span></p></td> | ||
<td width="160" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong> | <td width="160" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong>दक्षिणेंद्र</strong> </span></p></td> | ||
<td width="160" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong>कुल योग</strong> </span></p></td> | <td width="160" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"><strong>कुल योग</strong> </span></p></td> | ||
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<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> भवनों की बनावट व विस्तार आदि</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> भवनों की बनावट व विस्तार आदि</strong> <br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/25-61 का भावार्थ ( ये सब देवों व | तिलोयपण्णत्ति/3/25-61 का भावार्थ ( ये सब देवों व इंद्रों के भवन समचतुष्काण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान हैं।25। ये भवन बाहल्य में 300 योजन और विस्तार में संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण हैं।26-27। भवनों की चारों दिशाओं में ...उपदिष्ट योजन प्रमाण जाकर एक-एक दिव्यवेदी (परकोट) है।28। इन वेदियों की ऊँचाई दो कोस और विस्तार 500 धनुष प्रमाण है।29। गोपुर द्वारों से युक्त और उपरिम भाग में जिनमंदिरों से सहित वे वेदियाँ हैं।30। वेदियों के बाह्य भागों में चैत्य वृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोकवन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। इन वेदियों के बहुमध्य भाग में सर्वत्र 100 योजन ऊँचे वेत्रासन के आकार रत्नमय महाकूट स्थित हैं।40। प्रत्येक कूट पर एक-एक जिन भवन है।43। कूटों के चारों तरफ...भवनवासी देवों के प्रासाद हैं।56। सब भवन सात, आठ, नौ व दश इत्यादि भूमियों (मंजिलों) से भूषित... जन्मशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, ओलगशाला (परिचर्यागृह) और यंत्रशाला (सहित)...सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह और लतागृह इत्यादि गृहविशेषों से सहित... पुष्करिणी, वापी और कूप इनके समूह से युक्त...गवाक्ष और कपाटों से सुशोभित नाना प्रकार की पुत्तलिकाओं से सहित...अनादिनिधन हैं।57-61।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> प्रत्येक भवन में देवों की बस्ती</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> प्रत्येक भवन में देवों की बस्ती</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/3/26-27 ...<span class="PrakritText"> संखेज्जरुंदभवणेसु भवणदेवा वसंति संखेज्जा।26। संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा।...।27।</span>= <span class="HindiText">संख्यात योजन विस्तारवाले भवनों में और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते हैं। </span></li> | तिलोयपण्णत्ति/3/26-27 ...<span class="PrakritText"> संखेज्जरुंदभवणेसु भवणदेवा वसंति संखेज्जा।26। संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा।...।27।</span>= <span class="HindiText">संख्यात योजन विस्तारवाले भवनों में और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते हैं। </span></li> |
Revision as of 16:29, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
भवनों में रहने वाले देवों को भवनवासी देव कहते हैं जो असुर आदि के भेद से 10 प्रकार के हैं। इस पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियों में से प्रथम रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। उनमें से खर व पंक भाग में भवनवासी देव रहते हैं, और अब्बहुल भाग में प्रथम नरक है। इसके अतिरिक्त मध्य लोक में भी यत्र-तत्र भवन व भवनपुरों में रहते हैं।
- भवन व भवनवासी देव निर्देश
- भवन का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति 3/22 ... रयणप्पहाए भवणा ...।22। = रत्नप्रभा पृथिवी पर स्थित (भवनवासी देवों के) निवास स्थानों को भवन कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/7 ); ( त्रिलोकसार/294 )।
धवला 14/5,6,641/495/5 वलहि-कूडविवज्जिया सुरणरावासा भवणाणि णाम। = वलभि और कूट से रहित देवों और मनुष्यों के आवास भवन कहलाते हैं। - भवनपुर का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/3/22 दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। = द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित भवनवासी देवों के निवास स्थानों को भवनपुर कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/7 ), ( त्रिलोकसार/294 )। - भवनवासी देव का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/2 भवनेषु वसंतीत्येवंशीला भवनवासिन:। = जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। ( राजवार्तिक/2/10/1/216/3 )। - भवनवासी देवों के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/2/10 भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि- द्वीपदिक्कुमाराः।10। = भवनवासी देव दस प्रकार हैं–असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। ( तिलोयपण्णत्ति/3/9 ); ( त्रिलोकसार/209 )। - भवनवासी देवों के नाम के साथ ‘कुमार’ शब्द का तात्पर्य
सर्वार्थसिद्धि/4/10/243/3 सर्वेषां देवानामवस्थितवयःस्वभावत्वेऽपि वेषाभूषायुधयानवाहनक्रीडनादि कुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः। = यद्यपि इन सब देवों का वय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनका वेष, भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है, इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्द रूढ है। ( राजवार्तिक/4/10/7/216/20 ); ( तिलोयपण्णत्ति/3/125/-126 )। - अन्य संबंधित विषय
- असुर आदि भेद विशेष।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासी देवों के गुणस्थान, जीव समास, मार्गणास्थान के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- भवनवासी देवों के सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासियों में कर्म-प्रकृतियों का बंध, उदय व सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासियों में सुख-दुःख तथा सम्यक्त्व व गुणस्थानों आदि संबंध।–देखें देव - II.3।
- भवनवासियों में संभव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति आदि।–देखें वह वह नाम ।
- भवनवासी देव मरकर कहाँ उत्पन्न हों और कौन-सा गुणस्थान या पद प्राप्त करें।–देखें जन्म - 6।
- भवनत्रिक देवों की अवगाहना।–देखें अवगाहना - 2.4
- असुर आदि भेद विशेष।–देखें वह वह नाम ।
- भवन का लक्षण
- भवनवासी इंद्रों का वैभव
- भवनवासी देवों के इंद्रों की संख्या
तिलोयपण्णत्ति/3/13 दससु कुलेसु पुह पुह दो दो इंदा हवंति णियमेण। ते एक्कस्सिं मिलिदा वीस विराजंति भूदीहिं।13। = दश भवनवासियों के कुलों में नियम से पृथक्-पृथक् दो-दो इंद्र होते हैं। वे सब मिलकर 20 इंद्र होते हैं, जो अपनी-अपनी विभूति से शोभायमान हैं। - भवनवासी इंद्रों के नाम निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/3/14-16 पढमो हु चमरणामो इंदो वइरोयणो त्ति विदिओ य। भूदाणंदो धरणाणंदो वेणू य वेणुदारी य।14। पुण्वसिट्ठजलप्पहजलकंता तह य घोसमहघोसा। हरिसेणो हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाहणग्गिसिही।15। अग्गिवाहणणामो वेलंबपभंजणाभिधाणा य। एदे असुरप्पहुदिसु कुलेसु दोद्दो कमेण देविंदा।16। = असुरकुमारों में प्रथम चमर नामक और दूसरा वैरोचन इंद्र, नागकुमारों में भूतानंद और धरणानंद, सुपर्णकुमारों में वेणु और वेणुधारी, द्वीप-कुमारों में पूर्ण और वशिष्ठ, उदधिकुमारों में जलप्रभ और जलकांत, स्तनितकुमारों में घोष और महाघोष, विद्युत्कुमार में हरिषेण और अमितवाहन, अग्नि-कुमारों में अग्निशिखी और अग्निवाहन, वायुकुमारों में वेलंब और प्रभंजन नामक इस प्रकार दो-दो इंद्र क्रम से उन असुरादि निकायों में होते हैं।14-16। (इनमें प्रथम नंबर के इंद्र दक्षिण इंद्र हैं और द्वितीय नंबर के इंद्र उत्तर इंद्र हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/6/17-19 )।
- भवनवासियों के वर्ण, आहार, श्वास आदि
- भवनवासी देवों के इंद्रों की संख्या
देव का नाम |
वर्ण तिलोयपण्णत्ति/3/ 119-120 |
मुकुट चिह्न तिलोयपण्णत्ति/3/10 त्रिलोकसार/213 |
चैत्यवृक्ष तिलोयपण्णत्ति/3/136 |
प्रविचार ( तिलोयपण्णत्ति/3/130 ) |
आहार का अंतराल मू.आ./1146 तिलोयपण्णत्ति/3/ 111-116 त्रिलोकसार/248 |
श्वासोच्छ्वास का अंतराल तिलोयपण्णत्ति/3/114-116 |
असुरकुमार |
कृष्ण |
चूड़ामणि |
अश्वत्थ |
काय प्रविचार |
1500 (मू.आ.) 1000 वर्ष |
15 दिन |
नागकुमार |
काल श्याम |
सर्प |
सप्तवर्ण |
12 दिन |
1 मुहूर्त |
|
सुपर्णकुमार |
श्याम |
गरुड़ |
शाल्मली |
12 दिन |
1 मुहूर्त |
|
द्वीपकुमार |
श्याम |
हाथी |
जामुन |
12 दिन |
1 मुहूर्त |
|
उदधिकुमार |
काल श्याम |
मगर |
वेतस |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
|
स्तनित कुमार |
काल श्याम |
स्वस्तिक |
कदंब |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
|
विद्युत कुमार |
बिजलीवत् |
वज्र |
प्रियंगु |
12 दिन |
12 मुहूर्त |
|
दिक्कुमार |
श्यामल |
सिंह |
शिरीष |
7 दिन |
7 मुहूर्त |
|
अग्निकुमार |
अग्निज्वालावातवत् |
कलश |
पलाश |
7 दिन |
7 मुहूर्त |
|
वायुकुमार |
नीलकमल |
तुरग |
राजद्रुम |
7 दिन |
7 मुहूर्त |
|
इनके सामानिक, त्रायस्त्रिंश पारिषद व प्रतींद्र |
|
स्वइंद्रवत् |
स्वइंद्रवत् |
|||
1000 वर्ष की आयुवाले देव |
|
2 दिन |
7 श्वासो. |
|||
1 पल्य की आयु वाले देव |
|
5 दिन |
5 मुहूर्त |
- भवनवासियों के शरीर सुख-दु:ख आदि–देखें देव - II.2।
- भवनवासियों की शक्ति व विक्रिया
तिलोयपण्णत्ति/3/162-169 का भाषार्थ-दश हजार वर्ष की आयुवाला देव 100 मनुष्यों को मारने व पोसने में तथा डेढ़ सौ धनुषप्रमाण लंबे चौड़े क्षेत्र को बाहुओं से वेष्टित करने व उखाड़ने में समर्थ है। एक पल्य की आयुवाला देव छह खंड की पृथिवी को उखाड़ने तथा वहाँ रहने वाले मनुष्य व तिर्यंचों को मारने वा पोसने में समर्थ है। एक सागर की आयुवाला देव जंबूद्वीप को समुद्र में फेंकने और उसमें स्थित मनुष्य व तिर्यंचों को पोसणे में समर्थ है। दश हजार वर्ष की आयुवाला देव उत्कृष्टरूप से सौ, जघन्यरूप से सात, मध्यरूप से सौ से कम सात से अधिक रूपों की विक्रिया करता है। शेष सब देव अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रों के प्रमाण विक्रिया को पूरित करते हैं। संख्यात व असंख्यात वर्ष की आयुवाला देव क्रम से संख्यात व असंख्यात योजन जाता व उतने ही योजन आता है। - भवनवासी इंद्रों का परिवार
स = सहस्र
तिलोयपण्णत्ति/3/79-99 ( त्रिलोकसार/226-235 )
इंद्रों के नाम |
देवियों का परिवार |
प्रतींद्र |
सामानिक |
त्रायस्त्रिंशत |
पारिषद |
आत्मरक्ष |
लोकपाल |
7 अनीक में से प्रत्येक |
प्रकीर्णक |
|||||
पटदेवी |
परिवार देवी |
वल्लभा देवी |
योग |
अभ्यं. समित |
मध्य चंद्रा |
बाह्य युक्त |
||||||||
चमरेंद्र |
5 |
40 स. |
16 स. |
56 स. |
1 |
64 स. |
33 |
28 स. |
30 स. |
32 स. |
256 स. |
4 |
सहस्र |
à असंख्यात ß |
वैरोचन |
5 |
40 स . |
16 स. |
56 स. |
1 |
60 स. |
33 |
26 स. |
28 स. |
30 स. |
240 स. |
4 |
7650 स. |
|
भूतानंद |
5 |
40 स . |
10 स. |
50 स. |
1 |
56 स. |
33 |
6 स. |
8 स. |
10 स. |
224 स. |
4 |
7112 स. |
|
धरणानंद |
5 |
40 स . |
10 स. |
50 स. |
1 |
50 स. |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स. |
200 स. |
4 |
6350 स. |
|
वेणु |
5 |
40 स . |
40 स. |
44 स. |
1 |
50 स . |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स . |
200 स . |
4 |
6350 स. |
|
वेणुधारी |
5 |
40 स . |
40 स. |
44 स. |
1 |
50 स . |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स . |
200 स . |
4 |
6350 स. |
|
पूर्ण |
5 |
40 स . |
20 स. |
32 स. |
1 |
50 स . |
33 |
4 स. |
6 स. |
8 स . |
200 स . |
4 |
6350 स. |
|
शेष सर्व |
à उपरोक्त पूर्ण इंद्रवत् ß |
- भवनवासी देवियों का निर्देश
- इंद्रों की प्रधान देवियों का नाम निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/3/90,94 किण्हा रयणसुमेघा देवीणामा सुकंदअभिधाणा। णिरुवमरूवधराओ चमरे पंचग्गमहिसीओ।90। पउमापउमसिरीओ कणयसिरी कणयमालमहपउमा। अग्गमहिसीउ बिदिए ...।94। = चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा देवी नामक और सुकंदा या सुकांता (शुकाढ्या) नाम की अनुपम रूप को धारण करने वाली पाँच अग्रमहिषियाँ हैं।90। ( त्रिलोकसार/236 ) द्वितीय इंद्र के पद्मा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला और महापद्मा, ये पाँच अग्रदेवियाँ हैं। - प्रधान देवियों की विक्रिया का प्रमाण
तिलोयपण्णत्ति/3/92,98 चमरग्गिममहिसीणं अट्ठसहस्सविकुव्वणा संति। पत्तेक्कं अप्पसमं णिरुवमलावण्णरूवेहिं।92। दीविंदप्पहुदीणं देवीणं वरविउव्वणा संति। छस्सहस्सं च समं पत्तेक्कं विविहरूवेहिं।98। = चमरेंद्र की अग्रमहिषियों में से प्रत्येक अपने साथ अर्थात् मूल शरीर सहित, अनुपम रूप लावण्य से युक्त आठ हजार प्रमाण विक्रिया निर्मित रूपों को धारण कर सकती हैं।92। (द्वितीय इंद्र की देवियाँ तथा नागेंद्रों व गरुड़ेंद्रों (सुपर्ण) की अग्र देवियों की विक्रिया का प्रमाण भी आठ हजार है। ( तिलोयपण्णत्ति/3/94-96 )। द्वीपेंद्रादिकों की देवियों में से प्रत्येक मूल शरीर के साथ विविध प्रकार के रूपों से छह हजार प्रमाण विक्रिया होती है।98। - इंद्रों व उनके परिवार देवों की देवियाँ
तिलोयपण्णत्ति/3/102-106 ( त्रिलोकसार/237-239 )
- इंद्रों की प्रधान देवियों का नाम निर्देश
इंद्र का नाम |
इंद्र |
प्रतींद्र |
सामानिक |
त्रायस्त्रिंश |
पारिषद |
आत्मरक्ष |
लोकपाल |
सैनासुर |
महत्तर |
आभियोग्य |
||
अभ्य. |
मध्य. |
बाह्य |
||||||||||
चमरेंद्र |
देखें भवनवासी - 2.5 |
स्व इंद्रवत् |
स्व इंद्रवत् |
स्व इंद्रवत् |
250 |
200 |
150 |
100 |
स्व इंद्रवत् |
50 |
100 |
32 |
वैरोचन |
300 |
250 |
200 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
भूतानंद |
200 |
160 |
140 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
धरणानंद |
200 |
160 |
140 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
वेणु |
160 |
140 |
120 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
वेणुधारी |
160 |
140 |
120 |
100 |
50 |
100 |
32 |
|||||
शेष सर्व इंद्र |
140 |
120 |
100 |
100 |
50 |
100 |
32 |
- भावन लोक
- भावन लोक निर्देश
देखें रत्नप्रभा (मध्य लोक की इस चित्रा पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा पृथिवी है। उसके तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग, अब्बहुलभाग।)
तिलोयपण्णत्ति/3/7 रयणप्पहपुढवीए खरभाए पंकबहुलभागम्मि। भवणसुराणं भवणइं होंति वररयणसोहाणि।7। = रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग और पंकबहुल भाग में उत्कृष्ट रत्नों से शोभायमान भवनवासी देवों के भवन हैं।7।
राजवार्तिक/3/1/8/160/22 तत्र खरपृथिवीभागस्योपर्यधश्चैकैकं योजनसहस्रं परित्यज्य मध्यमभागेषु चतुर्दशसु योजनसहस्रेषु किंनरकिंपुरुष ... सप्तानां व्यंतराणां नागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराणां नवानां भवनवासिनां चावासा:। पंकबहुलभागे असुरराक्षसानामावासा:। = खर पृथिवी भाग के ऊपर और नीचे की ओर एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्य के 14 हजार योजन में किन्नर, किंपुरुष... आदि सात व्यंतरों के तथा नाग, विद्युत, सुपर्ण, अग्नि, वात, स्तनित, उदधि, द्वीप और दिक्कुमार इन नव भवनवासियों के निवास हैं। पंकबहुल भाग में असुर और राक्षसों के आवास हैं। ( हरिवंशपुराण/4/50-51;59-65 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/123-127 )।
देखें व्यंतर - 4.1,5 (खरभाग, पंकभाग और तिर्यक् लोक में भी भवनवासियों के निवास हैं )। - भावन लोक में बादर अप् व तेज कायिकों का अस्तित्व–देखें काय - 2.5।
- भवनवासी देवों के निवास स्थानों के भेद व लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/3/22-23 भवणा भवणपुराणिं आवासा अ सुराण होदि तिविहा णं। रयणप्पहाए भवणा दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।22। दहसेलदुमादीणं रम्माणं उवरि होंति आवासा। णागादीणं केसिं तियणिलया भवणमेक्कमसुराणं।23। = भवनवासी देवों के निवास-स्थान भवन, भवनपुर और आवास के भेद से ये तीन प्रकार होते हैं। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप समुद्रों में ऊपर स्थित निवासस्थानों को भवनपुर, और तालाब, पर्वत और वृक्षादि के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते हैं। नागकुमारादिक देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवास तीनों ही तरह के निवास स्थान होते हैं, परंतु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान होते हैं। - मध्य लोक में भवनवासियों का निवास
तिलोयपण्णत्ति/4/2092,2126 का भावार्थ–(जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में देवकुरु व उत्तरकुल में स्थित दो यमक पर्वतों के उत्तर भाग में सीता नदी के दोनों ओर स्थित निषध, देवकुरु, सूर, सुलस, विद्युत् इन पाँचों नामों के युगलोंरूप 10 द्रहों में उन-उन नामवाले नागकुमार देवों के निवास्थान (आवास) हैं।2092-2126।
तिलोयपण्णत्ति/4/2780-2782 का भावार्थ (मानुषोत्तर पर्वत पर ईशान दिशा के वज्रनाभि कूट पर हनुमान् नामक देव और प्रभंजनकूट पर वेणुधारी भवनेंद्र रहता है।2781। वायव्व दिशा के वेलंब नामक और नैऋत्य दिशा के सर्वरत्न कूट पर वेणुधारी भवनेंद्र रहता है।2782। अग्नि दिशा के तपनीय नामक कूट पर स्वातिदेव और रत्नकूट पर वेणु नामक भवनेंद्र रहता है।2780।)
तिलोयपण्णत्ति/5/131-133 का भावार्थ (लोक विनिश्चय के अनुसार कुंडवर द्वीप के कुंड पर्वत पर के पूर्वादि दिशाओं में 16 कूटों पर 16 नागेंद्रदेव रहते हैं।131-133)। - खर पंक भाग में स्थित भवनों की संख्या
( तिलोयपण्णत्ति/3/11-12; 20-21 ); ( राजवार्तिक/4/10/8/216/26 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/124-127 )।
ल = लाख
- भावन लोक निर्देश
देवों के नाम |
भवनों की संख्या |
||
|
उत्तरेंद्र |
दक्षिणेंद्र |
कुल योग |
असुरकुमार |
34 ल |
30 ल |
64 ल |
नागकुमार |
44 ल |
40 ल |
84 ल |
सुपर्णकुमार |
38 ल |
34 ल |
72 ल |
द्वीपकुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
उदधिकुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
स्तनित कुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
विद्युत कुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
दिक्कुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
अग्निकुमार |
40 ल |
36 ल |
76 ल |
वायुकुमार |
50 ल |
46 ल |
96 ल |
772 ल |
- भवनों की बनावट व विस्तार आदि
तिलोयपण्णत्ति/3/25-61 का भावार्थ ( ये सब देवों व इंद्रों के भवन समचतुष्काण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान हैं।25। ये भवन बाहल्य में 300 योजन और विस्तार में संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण हैं।26-27। भवनों की चारों दिशाओं में ...उपदिष्ट योजन प्रमाण जाकर एक-एक दिव्यवेदी (परकोट) है।28। इन वेदियों की ऊँचाई दो कोस और विस्तार 500 धनुष प्रमाण है।29। गोपुर द्वारों से युक्त और उपरिम भाग में जिनमंदिरों से सहित वे वेदियाँ हैं।30। वेदियों के बाह्य भागों में चैत्य वृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोकवन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। इन वेदियों के बहुमध्य भाग में सर्वत्र 100 योजन ऊँचे वेत्रासन के आकार रत्नमय महाकूट स्थित हैं।40। प्रत्येक कूट पर एक-एक जिन भवन है।43। कूटों के चारों तरफ...भवनवासी देवों के प्रासाद हैं।56। सब भवन सात, आठ, नौ व दश इत्यादि भूमियों (मंजिलों) से भूषित... जन्मशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, ओलगशाला (परिचर्यागृह) और यंत्रशाला (सहित)...सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह और लतागृह इत्यादि गृहविशेषों से सहित... पुष्करिणी, वापी और कूप इनके समूह से युक्त...गवाक्ष और कपाटों से सुशोभित नाना प्रकार की पुत्तलिकाओं से सहित...अनादिनिधन हैं।57-61। - प्रत्येक भवन में देवों की बस्ती
तिलोयपण्णत्ति/3/26-27 ... संखेज्जरुंदभवणेसु भवणदेवा वसंति संखेज्जा।26। संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा।...।27।= संख्यात योजन विस्तारवाले भवनों में और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते हैं।
पुराणकोष से
तीर्थंकरों के गर्भ में आने पर तीर्थंकर-जननी द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों में चौदहवाँ स्वप्न । पद्मपुराण 21.12-15