व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> व्यक्ताव्यक्त राग का स्वरूप</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> व्यक्ताव्यक्त राग का स्वरूप</strong> <br /> | ||
राजवार्तिक/ हिं./9/44/757-758 जहाँ तांई अनुभव में मोह का उदय रहे तहाँ तांई तो व्यक्त रूप इच्छा है और जब मोह का उदय अति | राजवार्तिक/ हिं./9/44/757-758 जहाँ तांई अनुभव में मोह का उदय रहे तहाँ तांई तो व्यक्त रूप इच्छा है और जब मोह का उदय अति मंद हो जाय है, तब तहाँ इच्छा नाहीं दीखै है और मोह का जहाँ उपशम तथा क्षय होय जाय तहाँ इच्छा का अभाव है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है</strong> </span><br /> | ||
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धवला 1/1, 1, 112/351/7 <span class="SanskritText">यतीनामपूर्वकरणादीनां कथं कषायास्तित्वमिति चेन्न, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात्। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>अपूर्वकरण आदि गुणस्थान वाले साधुओं के कषाय का अस्तित्व कैसे पाया जाता है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषाय की अपेक्षा वहाँ पर कषायों के अस्तित्व का उपदेश दिया है। </span><br /> | धवला 1/1, 1, 112/351/7 <span class="SanskritText">यतीनामपूर्वकरणादीनां कथं कषायास्तित्वमिति चेन्न, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात्। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>अपूर्वकरण आदि गुणस्थान वाले साधुओं के कषाय का अस्तित्व कैसे पाया जाता है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषाय की अपेक्षा वहाँ पर कषायों के अस्तित्व का उपदेश दिया है। </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/911 <span class="SanskritText">अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मोरागश्चाबुद्धिपूर्वजः। अर्वाक् क्षीणकषायेभ्यः स्याद्विवक्षावशान्नवा। </span>= <span class="HindiText">ऊपर के गुणस्थानों में जो अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग होता है, यह अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग भी क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान से पहले होता है। अथवा 7वें से 10वें गुणस्थान तक होने वाला यह राग भाव सूक्ष्म होने से बुद्धिगम्य नहीं है।911। <br /> | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/911 <span class="SanskritText">अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मोरागश्चाबुद्धिपूर्वजः। अर्वाक् क्षीणकषायेभ्यः स्याद्विवक्षावशान्नवा। </span>= <span class="HindiText">ऊपर के गुणस्थानों में जो अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग होता है, यह अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग भी क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान से पहले होता है। अथवा 7वें से 10वें गुणस्थान तक होने वाला यह राग भाव सूक्ष्म होने से बुद्धिगम्य नहीं है।911। <br /> | ||
राजवार्तिक हिं./9/44/758 अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान हो है तहाँ मोह के | राजवार्तिक हिं./9/44/758 अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान हो है तहाँ मोह के अतिमंद होने तैं इच्छा भी अव्यक्त होय जाय है। तहाँ शुक्लध्यान का पहला भेद प्रवर्ते है। इच्छा के अव्यक्त होने तै कषाय का मल अनुभव में रहे नाहीं, उज्जवल होय। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> राग हेय है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> राग हेय है</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/10 <span class="SanskritText">रागादयः पुनः | सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/10 <span class="SanskritText">रागादयः पुनः कर्मोदयतंत्रा इति अनात्मस्वभावत्वाद्धेयाः। </span>=<span class="HindiText"> रागादि तो कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वे आत्मा का स्वभाव न होने से हेय हैं। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/147 <span class="SanskritText">कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ | समयसार / आत्मख्याति/147 <span class="SanskritText">कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ बंधहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत्।</span> = <span class="HindiText">जैसे−कुशील-मनोरम और अमनोरम हथिनी रूपी कुट्टनी के साथ (हाथी का) राग और संसर्ग बंध (बंधन) का कारण होता है, उसी प्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग बंध के कारण होने से, शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग का निषेध किया गया है। </span><br /> | ||
आत्मानुशासन/182 <span class="PrakritText"> मोहबीजाद्रतिद्वेषौ | आत्मानुशासन/182 <span class="PrakritText"> मोहबीजाद्रतिद्वेषौ बीजान्मूलांकुराविव। तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतौ निर्दिघिक्षुणा।182। </span>=<span class="HindiText"> जिस प्रकार बीज से जड़ और अंकुर उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार मोह रूपी बीज से राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं। इसलिए जो इन दोनों (राग-द्वेष) को जलाना चाहता है, उसे ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा उस मोह रूपी बीज को जला देना चाहिए।182। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> मोक्ष के प्रति का राग भी कथंचित् हेय है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> मोक्ष के प्रति का राग भी कथंचित् हेय है</strong> </span><br /> | ||
मोक्षपाहुड़/55 <span class="PrakritGatha">आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि। सो तेण हु अण्णाणी आदसहावाहु विवरीओ।55।</span> =<span class="HindiText"> रागभाव जो मोक्ष का निमित्त भी हो तो आस्रव का ही कारण है। जो मोक्ष को पर द्रव्य की भाँति इष्ट मानकर राग करता है सो जीव मुनि भी अज्ञानी है, आत्म स्वभाव से विपरीत है।55। </span><br /> | मोक्षपाहुड़/55 <span class="PrakritGatha">आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि। सो तेण हु अण्णाणी आदसहावाहु विवरीओ।55।</span> =<span class="HindiText"> रागभाव जो मोक्ष का निमित्त भी हो तो आस्रव का ही कारण है। जो मोक्ष को पर द्रव्य की भाँति इष्ट मानकर राग करता है सो जीव मुनि भी अज्ञानी है, आत्म स्वभाव से विपरीत है।55। </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/ मू./2/188 <span class="PrakritGatha">मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु चिंतिउ होइ। जेण णिबद्धउ जीवडउ मोक्खु करेसइ सोइ।188। </span>= <span class="HindiText">हे योगी ! अन्य | परमात्मप्रकाश/ मू./2/188 <span class="PrakritGatha">मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु चिंतिउ होइ। जेण णिबद्धउ जीवडउ मोक्खु करेसइ सोइ।188। </span>= <span class="HindiText">हे योगी ! अन्य चिंता की तो बात क्या मोक्ष की भी चिंता मत कर, क्योंकि मोक्ष चिंता करने से नहीं होता। जिन कर्मों से यह जीव बँधा हुआ है वे कर्म ही मोक्ष करेंगे।188। </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/167 <span class="SanskritText">ततः स्वसमयप्रसिद्धयर्थं......अर्हदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति ।</span> = <span class="HindiText">जीव को स्वसमय की प्रसिद्धि के हेतु अर्हतादि विषयक भी रागरेणु क्रमशः दूर करने योग्य है। </span><br /> | पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/167 <span class="SanskritText">ततः स्वसमयप्रसिद्धयर्थं......अर्हदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति ।</span> = <span class="HindiText">जीव को स्वसमय की प्रसिद्धि के हेतु अर्हतादि विषयक भी रागरेणु क्रमशः दूर करने योग्य है। </span><br /> | ||
पं. वि./1/55 <span class="SanskritText">मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी। </span>= <span class="HindiText">अज्ञानता से मोक्ष के विषय में भी की जाने वाली अभिलाषा दोष रूप होकर विशेष रूप से मोक्ष की निषेधक होती है। (पं. वि./23/18)। <br /> | पं. वि./1/55 <span class="SanskritText">मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी। </span>= <span class="HindiText">अज्ञानता से मोक्ष के विषय में भी की जाने वाली अभिलाषा दोष रूप होकर विशेष रूप से मोक्ष की निषेधक होती है। (पं. वि./23/18)। <br /> | ||
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कषायपाहुड़/1/1, 21/342/369/11 <span class="PrakritText"> तिरयणसाहणविसलोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्तिदंसणादो । </span>= <span class="HindiText">रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है । </span><br /> | कषायपाहुड़/1/1, 21/342/369/11 <span class="PrakritText"> तिरयणसाहणविसलोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्तिदंसणादो । </span>= <span class="HindiText">रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है । </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/254 <span class="SanskritText">रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः ।</span> = <span class="HindiText">गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और इसलिए क्रमशः परम निर्वाण सौख्य का कारण होता है । </span><br /> | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/254 <span class="SanskritText">रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः ।</span> = <span class="HindiText">गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और इसलिए क्रमशः परम निर्वाण सौख्य का कारण होता है । </span><br /> | ||
आत्मानुशासन/123 <span class="SanskritText">विधूततमसो रागस्तपः | आत्मानुशासन/123 <span class="SanskritText">विधूततमसो रागस्तपः श्रुतनिबंधनः । संध्याराग इवार्कस्य जंतोरभ्युदयाय सः ।123। </span>= <span class="HindiText">अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट कर देने वाले प्राणी के जो तप और शास्त्र विषयक अनुराग होता है वह सूर्य की प्रभात कालीन लालिमा के समान उसके अभ्युदय के लिए होता है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> तृष्णा के निषेध का कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> तृष्णा के निषेध का कारण</strong> </span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/17/2, 3, 12 <span class="SanskritGatha"> यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति । तावत्तावन्मनुष्याणां | ज्ञानार्णव/17/2, 3, 12 <span class="SanskritGatha"> यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति । तावत्तावन्मनुष्याणां मोहग्रंथिर्दृढीभवेत् ।2। अनरिुद्धा सती शश्वदाशा विश्वं प्रसर्पति । ततो निबद्धमूलासौ पुनश्छेत्तुं न शक्यते ।3। यावदाशानलश्चित्ते जाज्वलीति विशृंखलः । तावत्तव महादुःखदाहशांतिः कुतस्तनी ।12। </span>= <ol> | ||
<li class="HindiText"> मनुष्यों के जैसे - जैसे शरीर और धन में आशा फैलती है, तैसे-तैसे मोहकर्म की गाँठ दृढ़ होती है ।2 । </li> | <li class="HindiText"> मनुष्यों के जैसे - जैसे शरीर और धन में आशा फैलती है, तैसे-तैसे मोहकर्म की गाँठ दृढ़ होती है ।2 । </li> | ||
<li class="HindiText"> इस आशा को रोका नहीं जाये तो यह | <li class="HindiText"> इस आशा को रोका नहीं जाये तो यह निरंतर समस्त लोकपर्यंत बिस्तरती रहती है और उससे इसका मूल दृढ़ होता है, फिर इसका काटना अशक्य हो जाता है ।3। ( ज्ञानार्णव/20/30 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> हे आत्मन् ! जब तक तेरे चित्त में आशारूपी अग्नि | <li class="HindiText"> हे आत्मन् ! जब तक तेरे चित्त में आशारूपी अग्नि स्वतंत्रता से नितांत प्रज्वलित हो रही है तब तक तेरे महादुःख रूपी दाह की शांति कहाँ से हो ।12। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> ख्याति लाभादि की भावना से सुकृत नष्ट हो जाते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> ख्याति लाभादि की भावना से सुकृत नष्ट हो जाते हैं</strong> </span><br /> | ||
आत्मानुशासन/189 <span class="SanskritText">अधीत्यसकलं श्रुतं चिरमुपास्यघोरं तपो यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः - कथं समुपलप्स्य से सुरसमस्य पक्वंफलम्।189।</span> = <span class="HindiText">समस्त आगम का अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि उन दोनों का फल तू यहाँ | आत्मानुशासन/189 <span class="SanskritText">अधीत्यसकलं श्रुतं चिरमुपास्यघोरं तपो यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः - कथं समुपलप्स्य से सुरसमस्य पक्वंफलम्।189।</span> = <span class="HindiText">समस्त आगम का अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि उन दोनों का फल तू यहाँ संपत्ति आदि का लाभ और प्रतिष्ठा आदि चाहता है, तो समझना चाहिए कि तू विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तप रूप वृक्ष के फूल को ही नष्ट करता है। फिर ऐसी अवस्था में तू उसके सुंदर व सुस्वादु पके हुए रसीले फल को कैसे प्राप्त कर सकेगा ? नहीं कर सकेगा। <br /> | ||
और भी दे.−ज्योतिष | और भी दे.−ज्योतिष मंत्र-तंत्र आदि कार्य लौकिक हैं (देखें [[ लौकिक ]]) मोक्षमार्ग में इनका अत्यंत निषेध−देखें [[ मंत्र#1.3 | मंत्र - 1.3]]-4। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">लोकैषणा रहित ही तप आदिक सार्थक हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">लोकैषणा रहित ही तप आदिक सार्थक हैं</strong> </span><br /> | ||
चारित्रसार/134/1 <span class="SanskritText"> यत्किंचिद्दृष्टफलं | चारित्रसार/134/1 <span class="SanskritText"> यत्किंचिद्दृष्टफलं मंत्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनमित्युच्यते। </span>= <span class="HindiText">किसी प्रत्यक्ष फल की अपेक्षा न रखकर और मंत्र साधनादि उपदेशों के बिना जो उपवास किया जाता है, उसे अनशन कहते हैं। </span><br /> | ||
चारित्रसार/150/1 <span class="SanskritText"> | चारित्रसार/150/1 <span class="SanskritText">मंत्रौषधोपकरणयशः सत्कारलाभाद्यनपेक्षितचित्तेन परमार्थनिस्पृहमतिनैहलौकिकफलनिरुत्सुकेन कर्मक्षयकांक्षिणा ज्ञानलाभाचारं....सिद्धयर्थं विनयभावनं कर्त्तव्यम्।</span> = <span class="HindiText">जिनके हृदय में मंत्र, औषधि, उपकरण, यश, सत्कार और लाभादि की अपेक्षा नहीं है, जिनकी बुद्धि वास्तव में निस्पृह है, जो केवल कर्मों का नाश करने की इच्छा करते हैं, जिनके इस लोक के फल की इच्छा बिलकुल नहीं है उन्हें ज्ञान का लाभ होने के लिए...विनय करने की भावना करनी चाहिए। </span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/274/353/12 <span class="SanskritText"> अभव्यजीवो यद्यपि ख्यातिपूजालाभार्थमेकादशांगश्रुताध्ययनं कुर्यात् तथापि तस्य शास्त्रपाठः शुद्धात्मपरिज्ञानरूपं गुणं न करोति।</span> = <span class="HindiText">अभव्य जीव यद्यपि ख्याति लाभ व पूजा के अर्थ ग्यारह अंग श्रुत का अध्ययन करे, तथापि उसका ज्ञान शुद्धात्म परिज्ञान रूप गुण को नहीं करता है। <br /> | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/274/353/12 <span class="SanskritText"> अभव्यजीवो यद्यपि ख्यातिपूजालाभार्थमेकादशांगश्रुताध्ययनं कुर्यात् तथापि तस्य शास्त्रपाठः शुद्धात्मपरिज्ञानरूपं गुणं न करोति।</span> = <span class="HindiText">अभव्य जीव यद्यपि ख्याति लाभ व पूजा के अर्थ ग्यारह अंग श्रुत का अध्ययन करे, तथापि उसका ज्ञान शुद्धात्म परिज्ञान रूप गुण को नहीं करता है। <br /> | ||
देखें [[ तप#2.6 | तप - 2.6 ]](तप दृष्टफल से निरपेक्ष होता है)। <br /> | देखें [[ तप#2.6 | तप - 2.6 ]](तप दृष्टफल से निरपेक्ष होता है)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> राग टालने का उपाय व महत्ता</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> राग टालने का उपाय व महत्ता</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> राग का अभाव | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> राग का अभाव संभव है</strong> </span><br /> | ||
धवला/9/4, 1, 44/117-118/1 <span class="PrakritText"> ण कसाया जीवगुणा,.....पमादासंजमा वि ण जीवगुणा,....ण अण्णाणं पि, ण मिच्छत्तं पि,.......तदो णाणदंसण-संजम-सम्मत्त खंति-मद्दवज्जव-संतोस-विरागादिसहावो जीवो त्ति सिद्धं। </span>=<span class="HindiText"> कषाय जीव के गुण नहीं हैं (विशेष देखें [[ कषाय#2.3 | कषाय - 2.3]]) प्रमाद व असंयम भी जीव के गुण नहीं हैं,.....अज्ञान भी जीव के गुण नहीं है,....मिथ्यात्व भी जीव के गुण नहीं हैं,....इस कारण ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, क्षमा, मृदुता, आर्जव, | धवला/9/4, 1, 44/117-118/1 <span class="PrakritText"> ण कसाया जीवगुणा,.....पमादासंजमा वि ण जीवगुणा,....ण अण्णाणं पि, ण मिच्छत्तं पि,.......तदो णाणदंसण-संजम-सम्मत्त खंति-मद्दवज्जव-संतोस-विरागादिसहावो जीवो त्ति सिद्धं। </span>=<span class="HindiText"> कषाय जीव के गुण नहीं हैं (विशेष देखें [[ कषाय#2.3 | कषाय - 2.3]]) प्रमाद व असंयम भी जीव के गुण नहीं हैं,.....अज्ञान भी जीव के गुण नहीं है,....मिथ्यात्व भी जीव के गुण नहीं हैं,....इस कारण ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, क्षमा, मृदुता, आर्जव, संतोष आदि विरागादि स्वभाव जीव है, यह सिद्ध हुआ। (और इसीलिए इनका अभाव भी किया जा सकता है। और भी देखें [[ मोक्ष#6.4 | मोक्ष - 6.4]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> राग टालने का निश्चय उपाय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> राग टालने का निश्चय उपाय</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार/80 <span class="PrakritText">जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।80। (उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात्)</span> = <span class="HindiText">जो अरहंत को द्रव्यपने गुणपने और पर्यायपने जानता है, वह (अपने) आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है।80। क्योंकि दोनों में निश्चय से | प्रवचनसार/80 <span class="PrakritText">जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।80। (उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात्)</span> = <span class="HindiText">जो अरहंत को द्रव्यपने गुणपने और पर्यायपने जानता है, वह (अपने) आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है।80। क्योंकि दोनों में निश्चय से अंतर नहीं है।80। </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय मू./104<span class="PrakritGatha"> मुणिऊण एतदट्ठं तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो। पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो जीवो।104।</span> = <span class="HindiText">जीव इस अर्थ को (इस शास्त्र के अर्थभूत शुद्ध आत्मा को) जानकर, उसके अनुसरण का उद्यम करता हुआ हत मोह होकर (जिसे दर्शनमोह का क्षय हुआ हो ऐसा होकर) राग-द्वेष की प्रशमित-निवृत करके, उत्तर और पूर्व | पंचास्तिकाय मू./104<span class="PrakritGatha"> मुणिऊण एतदट्ठं तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो। पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो जीवो।104।</span> = <span class="HindiText">जीव इस अर्थ को (इस शास्त्र के अर्थभूत शुद्ध आत्मा को) जानकर, उसके अनुसरण का उद्यम करता हुआ हत मोह होकर (जिसे दर्शनमोह का क्षय हुआ हो ऐसा होकर) राग-द्वेष की प्रशमित-निवृत करके, उत्तर और पूर्व बंध का जिसे नाश हुआ है ऐसा होता है। </span><br /> | ||
इष्टोपदेश/ मू./37 <span class="SanskritGatha">यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा तथा न | इष्टोपदेश/ मू./37 <span class="SanskritGatha">यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा तथा न रोचंते विषयाः सुलभा अपि।37।</span> =<span class="HindiText"> स्व पर पदार्थों के भेद ज्ञान से जैसा-जैसा आत्मा का स्वरूप विकसित होता जाता है वैसे-वैसे ही सहज प्राप्त रमणीय पंचेंद्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते जाते हैं।37। </span><br /> | ||
समाधिशतक/ मू./40 <span class="SanskritGatha">यत्र काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम्। बुद्धया तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति।40।</span> =<span class="HindiText"> जिस शरीर में मुनि को | समाधिशतक/ मू./40 <span class="SanskritGatha">यत्र काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम्। बुद्धया तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति।40।</span> =<span class="HindiText"> जिस शरीर में मुनि को अंतरात्मा का प्रेम है, उससे भेद विज्ञान के आधार पर आत्मा को पृथक् करके उस उत्तम चिदानंदमय काय में लगावे। ऐसा करने से प्रेम नष्ट हो जाता है।40। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/86, 90 <span class="SanskritText">तत् | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/86, 90 <span class="SanskritText">तत् खलूपायांतरमिदमपेक्षते।...अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्द ब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टंभदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायांतरम्।86। निश्चितस्वपरविवेकस्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहांकुरस्य प्रादुर्भूतिः स्यात्।90।</span> = <ol> | ||
<li class="HindiText"> उपरोक्त उपाय (देखें [[ ऊपर प्रवचनसार ]]) वास्तव में इस | <li class="HindiText"> उपरोक्त उपाय (देखें [[ ऊपर प्रवचनसार ]]) वास्तव में इस उपायांतर की अपेक्षा रखता है।....मोह का क्षय करने में, परम शब्द ब्रह्म की उपासना का भाव ज्ञान के अवलंबन द्वारा दृढ़ किये गये परिणाम से सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायांतर है।86। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> जिसने स्वपर का विवेक निश्चित किया है ऐसे आत्मा के विकारकारी मोहांकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> जिसने स्वपर का विवेक निश्चित किया है ऐसे आत्मा के विकारकारी मोहांकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता। </span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/23/12 <span class="SanskritText">महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसंगमोत्सुकैः। योगिभिर्ज्ञानशस्त्रेण रागमल्लो निपातितः।12।</span><br /> | ज्ञानार्णव/23/12 <span class="SanskritText">महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसंगमोत्सुकैः। योगिभिर्ज्ञानशस्त्रेण रागमल्लो निपातितः।12।</span><br /> | ||
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प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/62/215/13 की उत्थानिका <span class="SanskritText">परमात्मद्रव्यं योऽसौ जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोति।</span> = <span class="HindiText">जो उस परमात्म द्रव्य को जानता है वह परद्रव्य में मोह नहीं करता है। </span><br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/62/215/13 की उत्थानिका <span class="SanskritText">परमात्मद्रव्यं योऽसौ जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोति।</span> = <span class="HindiText">जो उस परमात्म द्रव्य को जानता है वह परद्रव्य में मोह नहीं करता है। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/244/338/12 <span class="SanskritText">योऽसौ निजस्वरूपं भावयति तस्य चित्तं बहिः पदार्थेषु न गच्छति ततश्च....चिच्चमत्कारमात्राच्च्युतो न भवति। तदच्यवनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि विनाशयतीति। </span>= <span class="HindiText">जो निजस्वरूप को भाता है, उसका चित्त बाह्य पदार्थों में नहीं जाता है, फिर वह चित् चमत्कार मात्र आत्मा से च्युत नहीं होता। अपने स्वरूप में अच्युत रहने से रागादि के अभाव के कारण विविध प्रकार के कर्मों का विनाश करता है। </span><br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/244/338/12 <span class="SanskritText">योऽसौ निजस्वरूपं भावयति तस्य चित्तं बहिः पदार्थेषु न गच्छति ततश्च....चिच्चमत्कारमात्राच्च्युतो न भवति। तदच्यवनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि विनाशयतीति। </span>= <span class="HindiText">जो निजस्वरूप को भाता है, उसका चित्त बाह्य पदार्थों में नहीं जाता है, फिर वह चित् चमत्कार मात्र आत्मा से च्युत नहीं होता। अपने स्वरूप में अच्युत रहने से रागादि के अभाव के कारण विविध प्रकार के कर्मों का विनाश करता है। </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/371 <span class="SanskritGatha"> इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिर्निजात्मदृक्। वैषयिके सुखे ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत्।371।</span> = <span class="HindiText">इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/371 <span class="SanskritGatha"> इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिर्निजात्मदृक्। वैषयिके सुखे ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत्।371।</span> = <span class="HindiText">इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इंद्रियजंय सुख और ज्ञान में राग तथा द्वेष का परित्याग करे। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> राग टालने का व्यवहार उपाय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> राग टालने का व्यवहार उपाय</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/264 <span class="PrakritGatha">जावंति केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं। ते वज्जंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो।264।</span> <span class="HindiText">राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाला जो कोई परिग्रह है, उनका त्याग करने वाला मुनि निःसंग होकर राग द्वेषों को जीतता ही है।264। </span><br /> | भगवती आराधना/264 <span class="PrakritGatha">जावंति केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं। ते वज्जंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो।264।</span> <span class="HindiText">राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाला जो कोई परिग्रह है, उनका त्याग करने वाला मुनि निःसंग होकर राग द्वेषों को जीतता ही है।264। </span><br /> | ||
आत्मानुशासन/237 <span class="SanskritText"> रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम्। त्तौ च बाह्यार्थ संबद्धौ तस्मात्तान् सुपरित्यजेत्। </span>= <span class="HindiText">राग और द्वेष का नाम प्रवृत्ति तथा दोनों के अभाव का नाम ही निवृत्ति है। चूँकि वे दोनों बाह्य वस्तुओं से | आत्मानुशासन/237 <span class="SanskritText"> रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम्। त्तौ च बाह्यार्थ संबद्धौ तस्मात्तान् सुपरित्यजेत्। </span>= <span class="HindiText">राग और द्वेष का नाम प्रवृत्ति तथा दोनों के अभाव का नाम ही निवृत्ति है। चूँकि वे दोनों बाह्य वस्तुओं से संबंध रखते हैं, अतएव उन बाह्य वस्तुओं का ही परित्याग करना चाहिए। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> तृष्णा तोड़ने का उपाय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> तृष्णा तोड़ने का उपाय</strong> </span><br /> | ||
आत्मानुशासन/252 <span class="SanskritText">अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते, भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता। इति कृतधियः | आत्मानुशासन/252 <span class="SanskritText">अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते, भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता। इति कृतधियः कृच्छारंभैश्चरंति निरंतरं-चिरपरिचिते देहेऽप्यस्मिन्नतीव गतस्पृहा।252।</span> = <span class="HindiText">जब तक मन रूपी जड़ के भीतर ममत्व रूपी जल से निर्मित गीलापन रहता है, तब तक महातपस्वियों की भी आशा रूप बेल की शिखा जवान सी रहती है। इसलिए विवेकी जीव चिरकाल से परिचित इस शरीर में भी अत्यंत निःस्पृह होकर सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि में समान होकर निरंतर कष्टकारक आरंभों मेंग्रीष्मादि ऋतुओं के अनुसार पर्वत की शिला आदि पर स्थित होकर ध्यानादि कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं।252। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> तृष्णा को वश करने की महत्ता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> तृष्णा को वश करने की महत्ता</strong> </span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/17/10, 11, 16 <span class="SanskritGatha">सर्वाशां यो निराकृत्य | ज्ञानार्णव/17/10, 11, 16 <span class="SanskritGatha">सर्वाशां यो निराकृत्य नैराश्यमवलंबते। तस्य क्वचिदपि स्वांतं संगपंकैर्न लिप्यते।10। तस्य सत्यं श्रुतं वृत्तं विवेकस्तत्त्वनिश्चयः। निर्ममत्वं च यस्याशापिशाची निधनं गता।11। चरस्थिरार्थ जातेषु यस्याशा प्रलयं गता। किं किं न तस्य लोकेऽस्मिन्मन्ये सिद्धं समीहितम्।16। </span>= <span class="HindiText">जो पुरुष समस्त आशाओं का निराकरण करके निराशा अवलंबन करता है, उसका मन किसी काल में भी परिग्रहरूपी कर्दम से नहीं लिपता।10। जिस पुरुष के आशा रूपी पिशाची नष्टता को प्राप्त हुई उसका शास्त्राध्ययन करना, चारित्र पालना, विवेक, तत्त्वों का निश्चय और निर्ममता आदि सत्यार्थ हैं।11। चिरपुरुष की चराचर पदार्थों में आशा नष्ट हो गयी है, उसके इस लोक में क्या-क्या मनोवांछित सिद्ध नहीं हुए अर्थात् सर्वमनोवांछित सिद्ध हुए।16। </span><br /> | ||
बोधपाहुड़/ टी./49/114 पर उद्धृत <span class="SanskritText">आशादासीकृता येन तेन दासोकृतं जगत्। आशाया यो भवेद्दासः स दासः सर्वदेहिनाम्। </span>= <span class="HindiText">जिसने आशा को दासी बना लिया है उसने | बोधपाहुड़/ टी./49/114 पर उद्धृत <span class="SanskritText">आशादासीकृता येन तेन दासोकृतं जगत्। आशाया यो भवेद्दासः स दासः सर्वदेहिनाम्। </span>= <span class="HindiText">जिसने आशा को दासी बना लिया है उसने संपूर्ण जगत् को दास बना लया है। परंतु जो स्वयं आशा का दास है, वह सर्व जीवों का दास है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्संबंधी शंका समाधान</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | ||
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पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/259 <span class="SanskritGatha">वैषयिकसुखेन स्याद्रागभावः सुदृष्टिनाम्। रागस्याज्ञानभावत्वादस्ति मिथ्यादृशः स्फुटम्।259। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टियों के वैषयिक सुख में ममता नहीं होती है क्योंकि वास्तव में वह आसक्ति रूप राग भाव अज्ञान रूप है, इसलिए विषयों की अभिलाषा मिथ्यादृष्टि की होती है।259। <br /> | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/259 <span class="SanskritGatha">वैषयिकसुखेन स्याद्रागभावः सुदृष्टिनाम्। रागस्याज्ञानभावत्वादस्ति मिथ्यादृशः स्फुटम्।259। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टियों के वैषयिक सुख में ममता नहीं होती है क्योंकि वास्तव में वह आसक्ति रूप राग भाव अज्ञान रूप है, इसलिए विषयों की अभिलाषा मिथ्यादृष्टि की होती है।259। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> निचली भूमिकाओं में राग का अभाव कैसे | <li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> निचली भूमिकाओं में राग का अभाव कैसे संभव है</strong> </span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/201, 202/279/5 <span class="SanskritText">रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतीति भणितं भवद्भिः। तर्हि चतुर्थपंचमगुणस्थानवर्तिनः........सम्यग्दृष्टयो न | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/201, 202/279/5 <span class="SanskritText">रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतीति भणितं भवद्भिः। तर्हि चतुर्थपंचमगुणस्थानवर्तिनः........सम्यग्दृष्टयो न भवंति। इति तन्न, मिथ्यादृष्टयपेक्षया त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनां बंधाभावात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवंति। कथं इति चेत्, चतुर्थगुणस्थानवर्तिनां अनंतानुबंधिक्रोध.....पाषाणरेखादिसमानानां रागादीनामभावात्।......पंचमगुणस्थानर्तिनां अप्रत्याख्यानक्रोध....भूमिरेखादि समानानां रागादीनामभावात्। अत्र तु ग्रंथे पंचमगुणस्थानादुपरितनगुणस्थानवर्तिनां वीतरागसम्यग्दृष्टीनां मुख्यवृत्याग्रहणं, सराग सम्यग्-दृष्टीनां गौणवृत्येति व्याख्यानं सम्यग्दृष्टि व्याख्यानकाले सर्वत्र तात्पर्येण ज्ञातव्यम्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होता, ऐसा आपने कहा है, तो चौथे व पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकेंगे। <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा 43 प्रकृतियों के बंध का अभाव होने से सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। वह ऐसे कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव के तो पाषाण रेखा सदृश अनंतानुबंधी चतुष्करूप रागादिकों का अभाव होता है और पंचम गुणस्थानवर्ती जीवों के भूमिरेखा सदृश अप्रत्याख्यान चतुष्क रूप रागादिकों का अभाव होता है। यहाँ इस ग्रंथ में पंचम गुणस्थान से ऊपर वाले गुणस्थानवर्ती वीतराग सम्यग्दृष्टियों का मुख्य रूप से ग्रहण किया गया है और सरागसम्यग्दृष्टियों का गौण रूप से। सम्यग्दृष्टि के व्याख्यानकाल में सर्वत्र यही जानना चाहिए । <br /> | ||
देखें [[ सम्यग्दृष्टि#3.3 | सम्यग्दृष्टि - 3.3 ]](ता. वृ./169) [सम्यग्दृष्टि का अर्थ वीतराग सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए]<br /> | देखें [[ सम्यग्दृष्टि#3.3 | सम्यग्दृष्टि - 3.3 ]](ता. वृ./169) [सम्यग्दृष्टि का अर्थ वीतराग सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए]<br /> | ||
समयसार/ पं. | समयसार/ पं. जयचंद/200 जब अपने को तो ज्ञायक भावरूप सुखमय जो और कर्मोदय से उत्पन्न हुए भावों को आकुलतारूप दुःखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावों से विरागता यह दोनों अवश्य ही होते हैं। यह बात प्रगट अनुभवगोचर है। यही सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। <br /> | ||
समयसार/ पं. | समयसार/ पं. जयचंद/200/137/307 = <strong>प्रश्न−</strong>परद्रव्य में जब तक राग रहे तब तक जीव को मिथ्यादृष्टि कहा है, सो यह बात हमारी समझ में नहीं आयी। अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादि के चारित्रमोह के उदय से रागादि भाव तो होते हैं, तब फिर उनके सम्यक्त्व कैसे? <strong>उत्तर−</strong>यहाँ मिथ्यात्वसहित अनंतानुबंधी राग प्रधानता से कहा है। जिसे ऐसा राग होता है अर्थात् जिसे परद्रव्य में तथा परद्रव्य से होने वाले भावों में आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति होती है, उसे स्व-पर का ज्ञान श्रद्धान नहीं है - भेदज्ञान नहीं है, ऐसा समझना चाहिए। (विशेष−देखें [[ सम्यग्दृष्टि#3.3 | सम्यग्दृष्टि - 3.3 ]]में ता. वृ.)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> सम्यग्दृष्टि को ही यथार्थ वैराग्य | <li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> सम्यग्दृष्टि को ही यथार्थ वैराग्य संभव है</strong> </span><br /> | ||
समाधिशतक/ मू./67 <span class="SanskritGatha">यस्य | समाधिशतक/ मू./67 <span class="SanskritGatha">यस्य सस्पंदमाभाति निःस्पंदेन समं जगत्। अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतरः।67।</span> = <span class="HindiText">जिसको चलता-फिरता भी यह जगत् स्थिर के समान दीखता है। प्रज्ञारहित तथा परिस्पंद रूप क्रिया तथा सुखादि के अनुभव से रहित दीखता है उसे वैराग्य आ जाता है अन्य को नहीं।67। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/200 <span class="SanskritText">तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावोपादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुंचति। ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति</span>= <span class="HindiText">तत्त्व को जानता हुआ, स्वभाव के ग्रहण और परभाव के त्याग से उत्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्व को विस्तरित करता हुआ कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न हुए समस्त भावों को छोड़ता है। इसलिए वह (सम्यग्दृष्टि) नियम से ज्ञान-वैराग्य | समयसार / आत्मख्याति/200 <span class="SanskritText">तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावोपादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुंचति। ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति</span>= <span class="HindiText">तत्त्व को जानता हुआ, स्वभाव के ग्रहण और परभाव के त्याग से उत्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्व को विस्तरित करता हुआ कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न हुए समस्त भावों को छोड़ता है। इसलिए वह (सम्यग्दृष्टि) नियम से ज्ञान-वैराग्य संपन्न होता है। </span><br /> | ||
मू. आ./टी./106 <span class="SanskritText">यद्यपि कदाचिद्रागःस्यात्तथापि | मू. आ./टी./106 <span class="SanskritText">यद्यपि कदाचिद्रागःस्यात्तथापि पुनरनुबंध न कुर्वंति, पश्चात्तापेन तत्क्षणादेव विनाशमुपयाति हरिद्रारक्तवस्त्रस्य पीतप्रभारविकिरणस्पृष्टेवेति। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि जीव के प्राथमिक अवस्था में यद्यपि कदाचित् राग होता है तथापि उसमें उसका अनुबंध न होने से वह उसका कर्ता नहीं है। इसलिए वह पश्चातापवश ऐसे नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य की किरणों का निमित्त पाकर हरिद्रा का रंग नष्ट हो जाता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4">सरागी भी सम्यग्दृष्टि विरागी है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4">सरागी भी सम्यग्दृष्टि विरागी है</strong> </span><br /> | ||
रयणसार/ मू./57<span class="PrakritGatha"> सम्माइट्ठीकालं बोलइ वेएगणाण भावेण। मिच्छाइट्ठी वांछा दुब्भावालस्सकलहेंहिं।57। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि पुरुष समय को वैराग्य और ज्ञान से व्यतीत करते हैं। | रयणसार/ मू./57<span class="PrakritGatha"> सम्माइट्ठीकालं बोलइ वेएगणाण भावेण। मिच्छाइट्ठी वांछा दुब्भावालस्सकलहेंहिं।57। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि पुरुष समय को वैराग्य और ज्ञान से व्यतीत करते हैं। परंतु मिथ्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव आलस और कलह से अपना समय व्यतीत करते हैं। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/197/ क. 136<span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैरागयशक्तिः। स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च-स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।136। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है, क्योंकि वह स्वरूप का ग्रहण और पर का त्याग करने की विधि के द्वारा अपने वस्तुत्व का अभ्यास करने के लिए, ‘यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है’ इस भेद को परमार्थ से जानकर स्व में स्थिर होता है और पर से - राग के योग से - सर्वतः विरमता है। </span><br /> | समयसार / आत्मख्याति/197/ क. 136<span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैरागयशक्तिः। स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च-स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।136। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है, क्योंकि वह स्वरूप का ग्रहण और पर का त्याग करने की विधि के द्वारा अपने वस्तुत्व का अभ्यास करने के लिए, ‘यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है’ इस भेद को परमार्थ से जानकर स्व में स्थिर होता है और पर से - राग के योग से - सर्वतः विरमता है। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/196/ क. 135 <span class="SanskritGatha">नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः।135।</span> = <span class="HindiText">यह (ज्ञानी) पुरुष विषयसेवन करता हुआ भी ज्ञान वैभव और विरागता के बल से विषयसेवन के निजफल को नहीं भोगता−प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह (पुरुष) सेवक होने पर भी असेवक है।135। </span><br /> | समयसार / आत्मख्याति/196/ क. 135 <span class="SanskritGatha">नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः।135।</span> = <span class="HindiText">यह (ज्ञानी) पुरुष विषयसेवन करता हुआ भी ज्ञान वैभव और विरागता के बल से विषयसेवन के निजफल को नहीं भोगता−प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह (पुरुष) सेवक होने पर भी असेवक है।135। </span><br /> | ||
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मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/497/17 क्षायिकसम्यग्दृष्टि....मिथ्यात्व रूप रंजना के अभावतैं वीतराग है। <br /> | मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/497/17 क्षायिकसम्यग्दृष्टि....मिथ्यात्व रूप रंजना के अभावतैं वीतराग है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.5" id="6.5">घर में वैराग्य व वन में राग | <li><span class="HindiText"><strong name="6.5" id="6.5">घर में वैराग्य व वन में राग संभव है</strong> </span><br /> | ||
भावपाहुड़ टीका/69/213 पर उद्धृत <span class="SanskritText">वनेऽपि दोषाः | भावपाहुड़ टीका/69/213 पर उद्धृत <span class="SanskritText">वनेऽपि दोषाः प्रभवंति रागिणां गृहेऽपि पंचेंद्रियनिग्रहस्तपः। अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते, विमुक्तरागस्य गृहं तपोवनं। </span>= <span class="HindiText">रागी जीवों को वन में रहते हुए भी दोष विद्यमान रहते हैं, परंतु जो राग से विमुक्त हैं उनके लिए घर भी तपोवन है, क्योंकि वे घर में पाँचों इंद्रियों के निग्रहरूप तप करते हैं और अकुत्सित भावनाओं में वर्तते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6"> सम्यग्दृष्टि को राग नहीं तो भोग क्यों भोगता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6"> सम्यग्दृष्टि को राग नहीं तो भोग क्यों भोगता है</strong> </span><br /> | ||
समयसार/ ता./वृ./194/268/14 <span class="SanskritText">उदयागते द्रव्यकर्मणि जीवेनोपभुज्यमाने सति नियमात्...सुखं दुःखं...जायते तावत्।.... सम्यग्दृष्टिर्जीवो रागद्वेषौ न कुर्वन् हेयबुद्धया वेदयति। न च तन्मयो भूत्वा, अहं सुखी दुःखीत्याद्यहमिति प्रत्ययेन नानुभवति।.....मिथ्यादृष्टेः पुनरुपादेय बुद्धया, सुख्यहं दुख्यहमिति प्रत्ययेन बंधकारणं भवति। किं च, यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरणं नेच्छति तथापि तलवरेण गृहीतः सन् मरणमनुभवति। तथा सम्यग्दृष्टिः यद्यप्यात्मोत्थसुखमुदपादेयं च जानाति, विषयसुखं च हेयं जानाति । तथापि चारित्रमोहोदयतलवरेण गृहीतः सन् तदनुभवति, तेन कारणेन निर्जरानिमित्तं स्यात् । </span>= <span class="HindiText">द्रव्यकर्मों के उदय में वे जीव के द्वारा उपभुक्त होते हैं और तब नियम से उसे | समयसार/ ता./वृ./194/268/14 <span class="SanskritText">उदयागते द्रव्यकर्मणि जीवेनोपभुज्यमाने सति नियमात्...सुखं दुःखं...जायते तावत्।.... सम्यग्दृष्टिर्जीवो रागद्वेषौ न कुर्वन् हेयबुद्धया वेदयति। न च तन्मयो भूत्वा, अहं सुखी दुःखीत्याद्यहमिति प्रत्ययेन नानुभवति।.....मिथ्यादृष्टेः पुनरुपादेय बुद्धया, सुख्यहं दुख्यहमिति प्रत्ययेन बंधकारणं भवति। किं च, यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरणं नेच्छति तथापि तलवरेण गृहीतः सन् मरणमनुभवति। तथा सम्यग्दृष्टिः यद्यप्यात्मोत्थसुखमुदपादेयं च जानाति, विषयसुखं च हेयं जानाति । तथापि चारित्रमोहोदयतलवरेण गृहीतः सन् तदनुभवति, तेन कारणेन निर्जरानिमित्तं स्यात् । </span>= <span class="HindiText">द्रव्यकर्मों के उदय में वे जीव के द्वारा उपभुक्त होते हैं और तब नियम से उसे उदयकालपर्यंत सुख-दुःख होते हैं।....तहाँ सम्यग्दृष्टि जीव उनमें राग-द्वेष न करता हुआ उन्हें हेय बुद्धि से अनुभव करता है। ‘मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ’ इस प्रकार के प्रत्यय सहित तन्मय होकर अनुभव नहीं करता। परंतु मिथ्यादृष्टि तो उन्हें उपादेय बुद्धि से ‘मैं सुखी, मैं दुःखी’ इस प्रकार के प्रत्ययसहित अनुभव करता है, इसलिए उसे वे बंध के कारण होते हैं। और भी−जिस प्रकार कोई चोर यदि मरना नहीं चाहता तो भी कोतवाल के द्वारा पकड़ा जाने पर मरण का अनुभव करता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि यद्यपि आत्मा से उत्पन्न सुख को ही उपादेय जानता है और विषय सुख को हेय जानता है तथा चारित्रमोह के उदयरूप कोतवाल के द्वारा पकड़ा हुआ उन वैषयिक सुख-दुःख को भोगता है। इस कारण उसके लिए वे निर्जरा के निमित्त ही हैं। </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/261 <span class="SanskritGatha">उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेर्दृष्टरोगवत्। अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गजः।261। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्द्ष्टि को सर्व प्रकार के भोग में रोग की तरह अरुचि होती है क्योंकि उस सम्यक्त्वरूप अवस्था का प्रत्यक्ष विषयों में अवश्य अरुचि का होना स्वतः सिद्ध स्वभाव है।261। <br /> | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/261 <span class="SanskritGatha">उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेर्दृष्टरोगवत्। अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गजः।261। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्द्ष्टि को सर्व प्रकार के भोग में रोग की तरह अरुचि होती है क्योंकि उस सम्यक्त्वरूप अवस्था का प्रत्यक्ष विषयों में अवश्य अरुचि का होना स्वतः सिद्ध स्वभाव है।261। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.7" id="6.7"> विषय सेवता भी असेवक है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.7" id="6.7"> विषय सेवता भी असेवक है</strong> </span><br /> | ||
समयसार/197 <span class="PrakritText">सेवंतो वि ण सेवइ असेवमाणे वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होई। </span>= <span class="HindiText">कोई तो विषय को सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करता हुआ भी सेवन करने वाला है−जैसे किसी पुरुष के प्रकरण की चेष्टा पायी जाती है तथापि वह प्राकरणिक नहीं होता। </span><br /> | समयसार/197 <span class="PrakritText">सेवंतो वि ण सेवइ असेवमाणे वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होई। </span>= <span class="HindiText">कोई तो विषय को सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करता हुआ भी सेवन करने वाला है−जैसे किसी पुरुष के प्रकरण की चेष्टा पायी जाती है तथापि वह प्राकरणिक नहीं होता। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/214/146 <span class="SanskritText"> पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिग्रहभावम्।146। </span>=<span class="HindiText"> पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, | समयसार / आत्मख्याति/214/146 <span class="SanskritText"> पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिग्रहभावम्।146। </span>=<span class="HindiText"> पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, परंतु राग के वियोग (अभाव) के कारण वास्तव में वह उपभोग परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता।146। </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/8/2-3 <span class="SanskritText"> | अनगारधर्मामृत/8/2-3 <span class="SanskritText"> मंत्रेणेव विषं मृत्य्वैमध्वरत्या मदायवा। न बंधाय हतं ज्ञप्त्या न विरक्त्यार्थसेवनम्।2। ज्ञो भुंजानोऽपि नो भुंक्ते विषयांस्तत्फलात्ययात्। यथा परप्रकरणे नृत्यन्नपि न नृत्यति।3। </span>= <span class="HindiText">मंत्र द्वारा जिसकी सामर्थ्य नष्ट कर दी गयी ऐसे विष का भक्षण करने पर भी जिस प्रकार मरण नहीं होता तथा जिस प्रकार बिना प्रीति के पिया हुआ भी मद्य नशा करने वाला नहीं होता, उसी प्रकार भेदज्ञान द्वारा उत्पन्न हुए वैराग्य के अंतरंग में रहने पर विषयोपभोग कर्मबंध नहीं करता।2। जिस प्रकार नृत्यकार अन्य पुरुष के विवाहादि में नृत्य करते हुए भी उपयोग की अपेक्षा नृत्य नहीं करता है, इसी प्रकार ज्ञानी आत्मस्वरूप में उपयुक्त है वह चेष्टामात्र से यद्यपि विषयों को भोगता है, फिर भी उसे अभोक्ता समझना चाहिए।3। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/270-274 )। </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/274 <span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टिरसौ भोगान् सेवमानोप्यसेवकः। नीरागस्य न रागाय कर्माकामकृतं यतः।274। </span>= <span class="HindiText">यह सम्यग्दृष्टि भोगों का सेवन करता हुआ भी वास्तव में भोगों का सेवन करने वाला नहीं कहलाता है, क्योंकि रागरहित जीव के बिना इच्छा के किये गये कर्म राग को उत्पन्न करने में असमर्थ हैं ।274। <br /> | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/274 <span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टिरसौ भोगान् सेवमानोप्यसेवकः। नीरागस्य न रागाय कर्माकामकृतं यतः।274। </span>= <span class="HindiText">यह सम्यग्दृष्टि भोगों का सेवन करता हुआ भी वास्तव में भोगों का सेवन करने वाला नहीं कहलाता है, क्योंकि रागरहित जीव के बिना इच्छा के किये गये कर्म राग को उत्पन्न करने में असमर्थ हैं ।274। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.8" id="6.8"> भोगों की आकांक्षा के अभाव में भी वह व्रतादि क्यों करता है ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.8" id="6.8"> भोगों की आकांक्षा के अभाव में भी वह व्रतादि क्यों करता है ?</strong></span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/554-571 <span class="PrakritGatha">ननु कार्यमनुद्दिश्य न | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/554-571 <span class="PrakritGatha">ननु कार्यमनुद्दिश्य न मंदोऽपि प्रवर्तते। भोगाकांक्षा बिना ज्ञानी तत्कथं व्रतमाचरेत्।554। नैवं यतः सुसिद्धं प्रागस्ति चानिच्छतः क्रिया। शुभायाश्चाऽशुभायाश्च कोऽवशेषो विशेषभाक्।561। पौरुषो न यथाकामं पुंसः कर्मोदितं प्रति। न परं पौरुषापेक्षो दैवापेक्षो हि पौरुषः।571।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>जब अज्ञानी पुरुष भी किसी कार्य के उद्देश्य के बिना प्रवृत्ति नहीं करता है, तो फिर ज्ञानी सम्यग्दृष्टि भोगों की आकांक्षा के बिना व्रतों का आचरण क्यों करेगा ? <strong>उत्तर−</strong>यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि बिना इच्छा के ही सम्यग्दृष्टि के सब क्रियाएँ होती हैं। इसलिए उसके शुभ और अशुभ क्रिया में विशेषता को बताने वाला क्या शेष रह जाता है।561। उदय में आने वाले कर्म के प्रति जीव का इच्छानुकूल पुरुषार्थ कारण नहीं है क्योंकि पुरुषार्थ केवल पौरुष की अपेक्षा नहीं रखता है, किंतु दैव की अपेक्षा रखता है।571। </span><br /> | ||
पंचाध्यायी x`/ उ/706-707 <span class="SanskritGatha">ननु नेहा बिना कर्म कर्म नेहां बिना क्कचित्। तस्मान्नानीहितं कर्म स्यादक्षार्थस्तु वा न वा।706। नैवं हेतोरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु। | पंचाध्यायी x`/ उ/706-707 <span class="SanskritGatha">ननु नेहा बिना कर्म कर्म नेहां बिना क्कचित्। तस्मान्नानीहितं कर्म स्यादक्षार्थस्तु वा न वा।706। नैवं हेतोरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु। बंधस्य नित्यतापत्तेर्भवेन्मुक्तेरसंभवः।707।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>कहीं भी क्रिया के बिना इच्छा और इच्छा के बिना क्रिया नहीं होती। इसलिए इंद्रियजंय स्वार्थ रहो या न रहो किंतु कोई भी क्रिया इच्छा के बिना नहीं हो सकती है ? <strong>उत्तर−</strong>यह ठीक नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त हेतु से क्षीणकषाय और उसके समीप के गुणस्थानों में उक्त लक्षण में अतिव्याप्त दोष आता है। यदि उक्त गुणस्थानों में भी क्रिया के सद्भाव से इच्छा का सद्भाव माना जायेगा तो बंध के नित्यत्व का प्रसंग आने से मुक्ति होना भी असंभव हो जायेगा। (और भी देखें [[ संवर#2.6 | संवर - 2.6]])। </span></li> | ||
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Revision as of 16:37, 19 August 2020
- व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश
- व्यक्ताव्यक्त राग का स्वरूप
राजवार्तिक/ हिं./9/44/757-758 जहाँ तांई अनुभव में मोह का उदय रहे तहाँ तांई तो व्यक्त रूप इच्छा है और जब मोह का उदय अति मंद हो जाय है, तब तहाँ इच्छा नाहीं दीखै है और मोह का जहाँ उपशम तथा क्षय होय जाय तहाँ इच्छा का अभाव है।
- अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/910 अस्त्युक्तलक्षणोरागश्चारित्रावरणोदयात्। अप्रमत्तगुणस्थानादर्वाक् स्यान्नोर्ध्वमस्त्यसौ।910। = रागभाव चारित्रावरण कर्म के उदय से होता है तथा यह राग अप्रमत्त गुणस्थान के पहले पाया जाता है, अप्रमत्त गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में इसका सद्भाव नहीं पाया जाता है।910।
राजवार्तिक हिं./9/44/758 सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान विषै ध्यान होय है। ताकूँ धर्मध्यान कहा है। तामें इच्छा अनुभव रूप है। अपने स्वरूप में अनुभव होने की इच्छा है। तहाँ तईं सराग चारित्र व्यक्त रूप कहिये।
- ऊपर के गुणस्थानों में राग अव्यक्त है
धवला 1/1, 1, 112/351/7 यतीनामपूर्वकरणादीनां कथं कषायास्तित्वमिति चेन्न, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात्। = प्रश्न−अपूर्वकरण आदि गुणस्थान वाले साधुओं के कषाय का अस्तित्व कैसे पाया जाता है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषाय की अपेक्षा वहाँ पर कषायों के अस्तित्व का उपदेश दिया है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/911 अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मोरागश्चाबुद्धिपूर्वजः। अर्वाक् क्षीणकषायेभ्यः स्याद्विवक्षावशान्नवा। = ऊपर के गुणस्थानों में जो अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग होता है, यह अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग भी क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान से पहले होता है। अथवा 7वें से 10वें गुणस्थान तक होने वाला यह राग भाव सूक्ष्म होने से बुद्धिगम्य नहीं है।911।
राजवार्तिक हिं./9/44/758 अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान हो है तहाँ मोह के अतिमंद होने तैं इच्छा भी अव्यक्त होय जाय है। तहाँ शुक्लध्यान का पहला भेद प्रवर्ते है। इच्छा के अव्यक्त होने तै कषाय का मल अनुभव में रहे नाहीं, उज्जवल होय।
- व्यक्ताव्यक्त राग का स्वरूप
- राग में इष्टानिष्टता
- राग हेय है
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/10 रागादयः पुनः कर्मोदयतंत्रा इति अनात्मस्वभावत्वाद्धेयाः। = रागादि तो कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वे आत्मा का स्वभाव न होने से हेय हैं।
समयसार / आत्मख्याति/147 कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ बंधहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत्। = जैसे−कुशील-मनोरम और अमनोरम हथिनी रूपी कुट्टनी के साथ (हाथी का) राग और संसर्ग बंध (बंधन) का कारण होता है, उसी प्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग बंध के कारण होने से, शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग का निषेध किया गया है।
आत्मानुशासन/182 मोहबीजाद्रतिद्वेषौ बीजान्मूलांकुराविव। तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतौ निर्दिघिक्षुणा।182। = जिस प्रकार बीज से जड़ और अंकुर उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार मोह रूपी बीज से राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं। इसलिए जो इन दोनों (राग-द्वेष) को जलाना चाहता है, उसे ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा उस मोह रूपी बीज को जला देना चाहिए।182।
- मोक्ष के प्रति का राग भी कथंचित् हेय है
मोक्षपाहुड़/55 आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि। सो तेण हु अण्णाणी आदसहावाहु विवरीओ।55। = रागभाव जो मोक्ष का निमित्त भी हो तो आस्रव का ही कारण है। जो मोक्ष को पर द्रव्य की भाँति इष्ट मानकर राग करता है सो जीव मुनि भी अज्ञानी है, आत्म स्वभाव से विपरीत है।55।
परमात्मप्रकाश/ मू./2/188 मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु चिंतिउ होइ। जेण णिबद्धउ जीवडउ मोक्खु करेसइ सोइ।188। = हे योगी ! अन्य चिंता की तो बात क्या मोक्ष की भी चिंता मत कर, क्योंकि मोक्ष चिंता करने से नहीं होता। जिन कर्मों से यह जीव बँधा हुआ है वे कर्म ही मोक्ष करेंगे।188।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/167 ततः स्वसमयप्रसिद्धयर्थं......अर्हदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति । = जीव को स्वसमय की प्रसिद्धि के हेतु अर्हतादि विषयक भी रागरेणु क्रमशः दूर करने योग्य है।
पं. वि./1/55 मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी। = अज्ञानता से मोक्ष के विषय में भी की जाने वाली अभिलाषा दोष रूप होकर विशेष रूप से मोक्ष की निषेधक होती है। (पं. वि./23/18)।
- मोक्ष के प्रति का राग कथंचित् इष्ट है
परमात्मप्रकाश/ मू./2/128....सिव - पहि णिम्मलिकरहि रइ परियणु लहु छंडि ।128। = तू परम पवित्र मोक्षमार्ग में प्रीतिकर और घर आदि को शीघ्र ही छोड़ ।128।
कषायपाहुड़/1/1, 21/342/369/11 तिरयणसाहणविसलोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्तिदंसणादो । = रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/254 रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः । = गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और इसलिए क्रमशः परम निर्वाण सौख्य का कारण होता है ।
आत्मानुशासन/123 विधूततमसो रागस्तपः श्रुतनिबंधनः । संध्याराग इवार्कस्य जंतोरभ्युदयाय सः ।123। = अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट कर देने वाले प्राणी के जो तप और शास्त्र विषयक अनुराग होता है वह सूर्य की प्रभात कालीन लालिमा के समान उसके अभ्युदय के लिए होता है ।
- तृष्णा के निषेध का कारण
ज्ञानार्णव/17/2, 3, 12 यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति । तावत्तावन्मनुष्याणां मोहग्रंथिर्दृढीभवेत् ।2। अनरिुद्धा सती शश्वदाशा विश्वं प्रसर्पति । ततो निबद्धमूलासौ पुनश्छेत्तुं न शक्यते ।3। यावदाशानलश्चित्ते जाज्वलीति विशृंखलः । तावत्तव महादुःखदाहशांतिः कुतस्तनी ।12। =- मनुष्यों के जैसे - जैसे शरीर और धन में आशा फैलती है, तैसे-तैसे मोहकर्म की गाँठ दृढ़ होती है ।2 ।
- इस आशा को रोका नहीं जाये तो यह निरंतर समस्त लोकपर्यंत बिस्तरती रहती है और उससे इसका मूल दृढ़ होता है, फिर इसका काटना अशक्य हो जाता है ।3। ( ज्ञानार्णव/20/30 ) ।
- हे आत्मन् ! जब तक तेरे चित्त में आशारूपी अग्नि स्वतंत्रता से नितांत प्रज्वलित हो रही है तब तक तेरे महादुःख रूपी दाह की शांति कहाँ से हो ।12।
- ख्याति लाभादि की भावना से सुकृत नष्ट हो जाते हैं
आत्मानुशासन/189 अधीत्यसकलं श्रुतं चिरमुपास्यघोरं तपो यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः - कथं समुपलप्स्य से सुरसमस्य पक्वंफलम्।189। = समस्त आगम का अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि उन दोनों का फल तू यहाँ संपत्ति आदि का लाभ और प्रतिष्ठा आदि चाहता है, तो समझना चाहिए कि तू विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तप रूप वृक्ष के फूल को ही नष्ट करता है। फिर ऐसी अवस्था में तू उसके सुंदर व सुस्वादु पके हुए रसीले फल को कैसे प्राप्त कर सकेगा ? नहीं कर सकेगा।
और भी दे.−ज्योतिष मंत्र-तंत्र आदि कार्य लौकिक हैं (देखें लौकिक ) मोक्षमार्ग में इनका अत्यंत निषेध−देखें मंत्र - 1.3-4।
- लोकैषणा रहित ही तप आदिक सार्थक हैं
चारित्रसार/134/1 यत्किंचिद्दृष्टफलं मंत्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनमित्युच्यते। = किसी प्रत्यक्ष फल की अपेक्षा न रखकर और मंत्र साधनादि उपदेशों के बिना जो उपवास किया जाता है, उसे अनशन कहते हैं।
चारित्रसार/150/1 मंत्रौषधोपकरणयशः सत्कारलाभाद्यनपेक्षितचित्तेन परमार्थनिस्पृहमतिनैहलौकिकफलनिरुत्सुकेन कर्मक्षयकांक्षिणा ज्ञानलाभाचारं....सिद्धयर्थं विनयभावनं कर्त्तव्यम्। = जिनके हृदय में मंत्र, औषधि, उपकरण, यश, सत्कार और लाभादि की अपेक्षा नहीं है, जिनकी बुद्धि वास्तव में निस्पृह है, जो केवल कर्मों का नाश करने की इच्छा करते हैं, जिनके इस लोक के फल की इच्छा बिलकुल नहीं है उन्हें ज्ञान का लाभ होने के लिए...विनय करने की भावना करनी चाहिए।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/274/353/12 अभव्यजीवो यद्यपि ख्यातिपूजालाभार्थमेकादशांगश्रुताध्ययनं कुर्यात् तथापि तस्य शास्त्रपाठः शुद्धात्मपरिज्ञानरूपं गुणं न करोति। = अभव्य जीव यद्यपि ख्याति लाभ व पूजा के अर्थ ग्यारह अंग श्रुत का अध्ययन करे, तथापि उसका ज्ञान शुद्धात्म परिज्ञान रूप गुण को नहीं करता है।
देखें तप - 2.6 (तप दृष्टफल से निरपेक्ष होता है)।
- राग हेय है
- राग टालने का उपाय व महत्ता
- राग का अभाव संभव है
धवला/9/4, 1, 44/117-118/1 ण कसाया जीवगुणा,.....पमादासंजमा वि ण जीवगुणा,....ण अण्णाणं पि, ण मिच्छत्तं पि,.......तदो णाणदंसण-संजम-सम्मत्त खंति-मद्दवज्जव-संतोस-विरागादिसहावो जीवो त्ति सिद्धं। = कषाय जीव के गुण नहीं हैं (विशेष देखें कषाय - 2.3) प्रमाद व असंयम भी जीव के गुण नहीं हैं,.....अज्ञान भी जीव के गुण नहीं है,....मिथ्यात्व भी जीव के गुण नहीं हैं,....इस कारण ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, क्षमा, मृदुता, आर्जव, संतोष आदि विरागादि स्वभाव जीव है, यह सिद्ध हुआ। (और इसीलिए इनका अभाव भी किया जा सकता है। और भी देखें मोक्ष - 6.4)।
- राग टालने का निश्चय उपाय
प्रवचनसार/80 जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।80। (उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात्) = जो अरहंत को द्रव्यपने गुणपने और पर्यायपने जानता है, वह (अपने) आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है।80। क्योंकि दोनों में निश्चय से अंतर नहीं है।80।
पंचास्तिकाय मू./104 मुणिऊण एतदट्ठं तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो। पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो जीवो।104। = जीव इस अर्थ को (इस शास्त्र के अर्थभूत शुद्ध आत्मा को) जानकर, उसके अनुसरण का उद्यम करता हुआ हत मोह होकर (जिसे दर्शनमोह का क्षय हुआ हो ऐसा होकर) राग-द्वेष की प्रशमित-निवृत करके, उत्तर और पूर्व बंध का जिसे नाश हुआ है ऐसा होता है।
इष्टोपदेश/ मू./37 यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा तथा न रोचंते विषयाः सुलभा अपि।37। = स्व पर पदार्थों के भेद ज्ञान से जैसा-जैसा आत्मा का स्वरूप विकसित होता जाता है वैसे-वैसे ही सहज प्राप्त रमणीय पंचेंद्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते जाते हैं।37।
समाधिशतक/ मू./40 यत्र काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम्। बुद्धया तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति।40। = जिस शरीर में मुनि को अंतरात्मा का प्रेम है, उससे भेद विज्ञान के आधार पर आत्मा को पृथक् करके उस उत्तम चिदानंदमय काय में लगावे। ऐसा करने से प्रेम नष्ट हो जाता है।40।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/86, 90 तत् खलूपायांतरमिदमपेक्षते।...अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्द ब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टंभदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायांतरम्।86। निश्चितस्वपरविवेकस्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहांकुरस्य प्रादुर्भूतिः स्यात्।90। =- उपरोक्त उपाय (देखें ऊपर प्रवचनसार ) वास्तव में इस उपायांतर की अपेक्षा रखता है।....मोह का क्षय करने में, परम शब्द ब्रह्म की उपासना का भाव ज्ञान के अवलंबन द्वारा दृढ़ किये गये परिणाम से सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायांतर है।86।
- जिसने स्वपर का विवेक निश्चित किया है ऐसे आत्मा के विकारकारी मोहांकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता।
ज्ञानार्णव/23/12 महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसंगमोत्सुकैः। योगिभिर्ज्ञानशस्त्रेण रागमल्लो निपातितः।12।
ज्ञानार्णव/32/52 मुनेर्यदि मनो मोहाद्रागाद्यैरभिभूयते। तन्नियोज्यात्मनस्तत्त्वे तान्येव क्षिप्यते क्षणात्।52। = मुक्तिरूपी लक्ष्मी के संग की वांछा करने वाले योगीश्वरों ने महाप्रशमरूपी संग्राम में ज्ञानरूपी शस्त्र से रागरूपी मल्ल को निपातन किया। क्योंकि इसके हते बिना मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं है।12। मुनि का मन यदि मोह के उदय रागादिक से पीड़ित हो तो मुनि उस मन को आत्मस्वरूप में लगाकर, उन रागादिकों को क्षणमात्र में क्षेपण करता है।52।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/62/215/13 की उत्थानिका परमात्मद्रव्यं योऽसौ जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोति। = जो उस परमात्म द्रव्य को जानता है वह परद्रव्य में मोह नहीं करता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/244/338/12 योऽसौ निजस्वरूपं भावयति तस्य चित्तं बहिः पदार्थेषु न गच्छति ततश्च....चिच्चमत्कारमात्राच्च्युतो न भवति। तदच्यवनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि विनाशयतीति। = जो निजस्वरूप को भाता है, उसका चित्त बाह्य पदार्थों में नहीं जाता है, फिर वह चित् चमत्कार मात्र आत्मा से च्युत नहीं होता। अपने स्वरूप में अच्युत रहने से रागादि के अभाव के कारण विविध प्रकार के कर्मों का विनाश करता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/371 इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिर्निजात्मदृक्। वैषयिके सुखे ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत्।371। = इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इंद्रियजंय सुख और ज्ञान में राग तथा द्वेष का परित्याग करे।
- राग टालने का व्यवहार उपाय
भगवती आराधना/264 जावंति केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं। ते वज्जंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो।264। राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाला जो कोई परिग्रह है, उनका त्याग करने वाला मुनि निःसंग होकर राग द्वेषों को जीतता ही है।264।
आत्मानुशासन/237 रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम्। त्तौ च बाह्यार्थ संबद्धौ तस्मात्तान् सुपरित्यजेत्। = राग और द्वेष का नाम प्रवृत्ति तथा दोनों के अभाव का नाम ही निवृत्ति है। चूँकि वे दोनों बाह्य वस्तुओं से संबंध रखते हैं, अतएव उन बाह्य वस्तुओं का ही परित्याग करना चाहिए।
- तृष्णा तोड़ने का उपाय
आत्मानुशासन/252 अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते, भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता। इति कृतधियः कृच्छारंभैश्चरंति निरंतरं-चिरपरिचिते देहेऽप्यस्मिन्नतीव गतस्पृहा।252। = जब तक मन रूपी जड़ के भीतर ममत्व रूपी जल से निर्मित गीलापन रहता है, तब तक महातपस्वियों की भी आशा रूप बेल की शिखा जवान सी रहती है। इसलिए विवेकी जीव चिरकाल से परिचित इस शरीर में भी अत्यंत निःस्पृह होकर सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि में समान होकर निरंतर कष्टकारक आरंभों मेंग्रीष्मादि ऋतुओं के अनुसार पर्वत की शिला आदि पर स्थित होकर ध्यानादि कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं।252।
- तृष्णा को वश करने की महत्ता
ज्ञानार्णव/17/10, 11, 16 सर्वाशां यो निराकृत्य नैराश्यमवलंबते। तस्य क्वचिदपि स्वांतं संगपंकैर्न लिप्यते।10। तस्य सत्यं श्रुतं वृत्तं विवेकस्तत्त्वनिश्चयः। निर्ममत्वं च यस्याशापिशाची निधनं गता।11। चरस्थिरार्थ जातेषु यस्याशा प्रलयं गता। किं किं न तस्य लोकेऽस्मिन्मन्ये सिद्धं समीहितम्।16। = जो पुरुष समस्त आशाओं का निराकरण करके निराशा अवलंबन करता है, उसका मन किसी काल में भी परिग्रहरूपी कर्दम से नहीं लिपता।10। जिस पुरुष के आशा रूपी पिशाची नष्टता को प्राप्त हुई उसका शास्त्राध्ययन करना, चारित्र पालना, विवेक, तत्त्वों का निश्चय और निर्ममता आदि सत्यार्थ हैं।11। चिरपुरुष की चराचर पदार्थों में आशा नष्ट हो गयी है, उसके इस लोक में क्या-क्या मनोवांछित सिद्ध नहीं हुए अर्थात् सर्वमनोवांछित सिद्ध हुए।16।
बोधपाहुड़/ टी./49/114 पर उद्धृत आशादासीकृता येन तेन दासोकृतं जगत्। आशाया यो भवेद्दासः स दासः सर्वदेहिनाम्। = जिसने आशा को दासी बना लिया है उसने संपूर्ण जगत् को दास बना लया है। परंतु जो स्वयं आशा का दास है, वह सर्व जीवों का दास है।
- राग का अभाव संभव है
- सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्संबंधी शंका समाधान
- सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव तथा उसका कारण
समयसार/201-202 परमाणुमित्तयं पि हु रायदीणं तु विज्जदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि।201। अप्पाणमयाणंतो अणप्ययं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो।202। = वास्तव में जिस जीव के परमाणुमात्र लेशमात्र भी रागादिक वर्तता है, वह जीव भले ही सर्व आगम का धारी हो तथापि आत्मा को नहीं जानता।201। ( प्रवचनसार/239 ); (सं. का./मू./167); ( तिलोयपण्णत्ति/9/37 ) और आत्मा को न जानता हुआ वह अनात्मा (पर) को भी नहीं जानता। इस प्रकार जो जीव और अजीव को नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है।
मोक्षपाहुड़/69 परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो। सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ।69। = जो पुरुष पर द्रव्य में लेशमात्र भी मोह से राग करता है, वह मूढ है, अज्ञानी है और आत्मस्वभाव से विपरीत है।69।
परमात्मप्रकाश/ मू./2/81 जो अणु-मेत्तु वि राउ मणि जामण मिल्लइ एत्थु। सासो णवि मुच्च ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु।81। = जो जीव थोड़ा भी राग मन में से जब तक इस संसार में नहीं छोड़ देता है, तब तक हे जीव ! निज शुद्धात्म तत्त्व को शब्द से केवल जानता हुआ भी नहीं मुक्त होता।81। (यो. सा./अ./1/47)।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/259 वैषयिकसुखेन स्याद्रागभावः सुदृष्टिनाम्। रागस्याज्ञानभावत्वादस्ति मिथ्यादृशः स्फुटम्।259। = सम्यग्दृष्टियों के वैषयिक सुख में ममता नहीं होती है क्योंकि वास्तव में वह आसक्ति रूप राग भाव अज्ञान रूप है, इसलिए विषयों की अभिलाषा मिथ्यादृष्टि की होती है।259।
- निचली भूमिकाओं में राग का अभाव कैसे संभव है
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/201, 202/279/5 रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतीति भणितं भवद्भिः। तर्हि चतुर्थपंचमगुणस्थानवर्तिनः........सम्यग्दृष्टयो न भवंति। इति तन्न, मिथ्यादृष्टयपेक्षया त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनां बंधाभावात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवंति। कथं इति चेत्, चतुर्थगुणस्थानवर्तिनां अनंतानुबंधिक्रोध.....पाषाणरेखादिसमानानां रागादीनामभावात्।......पंचमगुणस्थानर्तिनां अप्रत्याख्यानक्रोध....भूमिरेखादि समानानां रागादीनामभावात्। अत्र तु ग्रंथे पंचमगुणस्थानादुपरितनगुणस्थानवर्तिनां वीतरागसम्यग्दृष्टीनां मुख्यवृत्याग्रहणं, सराग सम्यग्-दृष्टीनां गौणवृत्येति व्याख्यानं सम्यग्दृष्टि व्याख्यानकाले सर्वत्र तात्पर्येण ज्ञातव्यम्। = प्रश्न−रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होता, ऐसा आपने कहा है, तो चौथे व पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकेंगे। उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा 43 प्रकृतियों के बंध का अभाव होने से सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। वह ऐसे कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव के तो पाषाण रेखा सदृश अनंतानुबंधी चतुष्करूप रागादिकों का अभाव होता है और पंचम गुणस्थानवर्ती जीवों के भूमिरेखा सदृश अप्रत्याख्यान चतुष्क रूप रागादिकों का अभाव होता है। यहाँ इस ग्रंथ में पंचम गुणस्थान से ऊपर वाले गुणस्थानवर्ती वीतराग सम्यग्दृष्टियों का मुख्य रूप से ग्रहण किया गया है और सरागसम्यग्दृष्टियों का गौण रूप से। सम्यग्दृष्टि के व्याख्यानकाल में सर्वत्र यही जानना चाहिए ।
देखें सम्यग्दृष्टि - 3.3 (ता. वृ./169) [सम्यग्दृष्टि का अर्थ वीतराग सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए]
समयसार/ पं. जयचंद/200 जब अपने को तो ज्ञायक भावरूप सुखमय जो और कर्मोदय से उत्पन्न हुए भावों को आकुलतारूप दुःखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावों से विरागता यह दोनों अवश्य ही होते हैं। यह बात प्रगट अनुभवगोचर है। यही सम्यग्दृष्टि का लक्षण है।
समयसार/ पं. जयचंद/200/137/307 = प्रश्न−परद्रव्य में जब तक राग रहे तब तक जीव को मिथ्यादृष्टि कहा है, सो यह बात हमारी समझ में नहीं आयी। अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादि के चारित्रमोह के उदय से रागादि भाव तो होते हैं, तब फिर उनके सम्यक्त्व कैसे? उत्तर−यहाँ मिथ्यात्वसहित अनंतानुबंधी राग प्रधानता से कहा है। जिसे ऐसा राग होता है अर्थात् जिसे परद्रव्य में तथा परद्रव्य से होने वाले भावों में आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति होती है, उसे स्व-पर का ज्ञान श्रद्धान नहीं है - भेदज्ञान नहीं है, ऐसा समझना चाहिए। (विशेष−देखें सम्यग्दृष्टि - 3.3 में ता. वृ.)।
- सम्यग्दृष्टि को ही यथार्थ वैराग्य संभव है
समाधिशतक/ मू./67 यस्य सस्पंदमाभाति निःस्पंदेन समं जगत्। अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतरः।67। = जिसको चलता-फिरता भी यह जगत् स्थिर के समान दीखता है। प्रज्ञारहित तथा परिस्पंद रूप क्रिया तथा सुखादि के अनुभव से रहित दीखता है उसे वैराग्य आ जाता है अन्य को नहीं।67।
समयसार / आत्मख्याति/200 तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावोपादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुंचति। ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति= तत्त्व को जानता हुआ, स्वभाव के ग्रहण और परभाव के त्याग से उत्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्व को विस्तरित करता हुआ कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न हुए समस्त भावों को छोड़ता है। इसलिए वह (सम्यग्दृष्टि) नियम से ज्ञान-वैराग्य संपन्न होता है।
मू. आ./टी./106 यद्यपि कदाचिद्रागःस्यात्तथापि पुनरनुबंध न कुर्वंति, पश्चात्तापेन तत्क्षणादेव विनाशमुपयाति हरिद्रारक्तवस्त्रस्य पीतप्रभारविकिरणस्पृष्टेवेति। = सम्यग्दृष्टि जीव के प्राथमिक अवस्था में यद्यपि कदाचित् राग होता है तथापि उसमें उसका अनुबंध न होने से वह उसका कर्ता नहीं है। इसलिए वह पश्चातापवश ऐसे नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य की किरणों का निमित्त पाकर हरिद्रा का रंग नष्ट हो जाता है।
- सरागी भी सम्यग्दृष्टि विरागी है
रयणसार/ मू./57 सम्माइट्ठीकालं बोलइ वेएगणाण भावेण। मिच्छाइट्ठी वांछा दुब्भावालस्सकलहेंहिं।57। = सम्यग्दृष्टि पुरुष समय को वैराग्य और ज्ञान से व्यतीत करते हैं। परंतु मिथ्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव आलस और कलह से अपना समय व्यतीत करते हैं।
समयसार / आत्मख्याति/197/ क. 136 सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैरागयशक्तिः। स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च-स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।136। = सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है, क्योंकि वह स्वरूप का ग्रहण और पर का त्याग करने की विधि के द्वारा अपने वस्तुत्व का अभ्यास करने के लिए, ‘यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है’ इस भेद को परमार्थ से जानकर स्व में स्थिर होता है और पर से - राग के योग से - सर्वतः विरमता है।
समयसार / आत्मख्याति/196/ क. 135 नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः।135। = यह (ज्ञानी) पुरुष विषयसेवन करता हुआ भी ज्ञान वैभव और विरागता के बल से विषयसेवन के निजफल को नहीं भोगता−प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह (पुरुष) सेवक होने पर भी असेवक है।135।
द्रव्यसंग्रह टीका/1/5/11 जितमिथ्यात्वरागादित्वेन एकदेशजिनाः असंयतसम्यग्दृष्टयः। = मिथ्यात्व तथा राग आदि को जीतने के कारण असंयत सम्यग्दृष्टि आदि एकदेशी जिन हैं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/497/17 क्षायिकसम्यग्दृष्टि....मिथ्यात्व रूप रंजना के अभावतैं वीतराग है।
- घर में वैराग्य व वन में राग संभव है
भावपाहुड़ टीका/69/213 पर उद्धृत वनेऽपि दोषाः प्रभवंति रागिणां गृहेऽपि पंचेंद्रियनिग्रहस्तपः। अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते, विमुक्तरागस्य गृहं तपोवनं। = रागी जीवों को वन में रहते हुए भी दोष विद्यमान रहते हैं, परंतु जो राग से विमुक्त हैं उनके लिए घर भी तपोवन है, क्योंकि वे घर में पाँचों इंद्रियों के निग्रहरूप तप करते हैं और अकुत्सित भावनाओं में वर्तते हैं।
- सम्यग्दृष्टि को राग नहीं तो भोग क्यों भोगता है
समयसार/ ता./वृ./194/268/14 उदयागते द्रव्यकर्मणि जीवेनोपभुज्यमाने सति नियमात्...सुखं दुःखं...जायते तावत्।.... सम्यग्दृष्टिर्जीवो रागद्वेषौ न कुर्वन् हेयबुद्धया वेदयति। न च तन्मयो भूत्वा, अहं सुखी दुःखीत्याद्यहमिति प्रत्ययेन नानुभवति।.....मिथ्यादृष्टेः पुनरुपादेय बुद्धया, सुख्यहं दुख्यहमिति प्रत्ययेन बंधकारणं भवति। किं च, यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरणं नेच्छति तथापि तलवरेण गृहीतः सन् मरणमनुभवति। तथा सम्यग्दृष्टिः यद्यप्यात्मोत्थसुखमुदपादेयं च जानाति, विषयसुखं च हेयं जानाति । तथापि चारित्रमोहोदयतलवरेण गृहीतः सन् तदनुभवति, तेन कारणेन निर्जरानिमित्तं स्यात् । = द्रव्यकर्मों के उदय में वे जीव के द्वारा उपभुक्त होते हैं और तब नियम से उसे उदयकालपर्यंत सुख-दुःख होते हैं।....तहाँ सम्यग्दृष्टि जीव उनमें राग-द्वेष न करता हुआ उन्हें हेय बुद्धि से अनुभव करता है। ‘मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ’ इस प्रकार के प्रत्यय सहित तन्मय होकर अनुभव नहीं करता। परंतु मिथ्यादृष्टि तो उन्हें उपादेय बुद्धि से ‘मैं सुखी, मैं दुःखी’ इस प्रकार के प्रत्ययसहित अनुभव करता है, इसलिए उसे वे बंध के कारण होते हैं। और भी−जिस प्रकार कोई चोर यदि मरना नहीं चाहता तो भी कोतवाल के द्वारा पकड़ा जाने पर मरण का अनुभव करता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि यद्यपि आत्मा से उत्पन्न सुख को ही उपादेय जानता है और विषय सुख को हेय जानता है तथा चारित्रमोह के उदयरूप कोतवाल के द्वारा पकड़ा हुआ उन वैषयिक सुख-दुःख को भोगता है। इस कारण उसके लिए वे निर्जरा के निमित्त ही हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/261 उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेर्दृष्टरोगवत्। अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गजः।261। = सम्यग्द्ष्टि को सर्व प्रकार के भोग में रोग की तरह अरुचि होती है क्योंकि उस सम्यक्त्वरूप अवस्था का प्रत्यक्ष विषयों में अवश्य अरुचि का होना स्वतः सिद्ध स्वभाव है।261।
- विषय सेवता भी असेवक है
समयसार/197 सेवंतो वि ण सेवइ असेवमाणे वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होई। = कोई तो विषय को सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करता हुआ भी सेवन करने वाला है−जैसे किसी पुरुष के प्रकरण की चेष्टा पायी जाती है तथापि वह प्राकरणिक नहीं होता।
समयसार / आत्मख्याति/214/146 पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिग्रहभावम्।146। = पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, परंतु राग के वियोग (अभाव) के कारण वास्तव में वह उपभोग परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता।146।
अनगारधर्मामृत/8/2-3 मंत्रेणेव विषं मृत्य्वैमध्वरत्या मदायवा। न बंधाय हतं ज्ञप्त्या न विरक्त्यार्थसेवनम्।2। ज्ञो भुंजानोऽपि नो भुंक्ते विषयांस्तत्फलात्ययात्। यथा परप्रकरणे नृत्यन्नपि न नृत्यति।3। = मंत्र द्वारा जिसकी सामर्थ्य नष्ट कर दी गयी ऐसे विष का भक्षण करने पर भी जिस प्रकार मरण नहीं होता तथा जिस प्रकार बिना प्रीति के पिया हुआ भी मद्य नशा करने वाला नहीं होता, उसी प्रकार भेदज्ञान द्वारा उत्पन्न हुए वैराग्य के अंतरंग में रहने पर विषयोपभोग कर्मबंध नहीं करता।2। जिस प्रकार नृत्यकार अन्य पुरुष के विवाहादि में नृत्य करते हुए भी उपयोग की अपेक्षा नृत्य नहीं करता है, इसी प्रकार ज्ञानी आत्मस्वरूप में उपयुक्त है वह चेष्टामात्र से यद्यपि विषयों को भोगता है, फिर भी उसे अभोक्ता समझना चाहिए।3। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/270-274 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/274 सम्यग्दृष्टिरसौ भोगान् सेवमानोप्यसेवकः। नीरागस्य न रागाय कर्माकामकृतं यतः।274। = यह सम्यग्दृष्टि भोगों का सेवन करता हुआ भी वास्तव में भोगों का सेवन करने वाला नहीं कहलाता है, क्योंकि रागरहित जीव के बिना इच्छा के किये गये कर्म राग को उत्पन्न करने में असमर्थ हैं ।274।
- भोगों की आकांक्षा के अभाव में भी वह व्रतादि क्यों करता है ?
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/554-571 ननु कार्यमनुद्दिश्य न मंदोऽपि प्रवर्तते। भोगाकांक्षा बिना ज्ञानी तत्कथं व्रतमाचरेत्।554। नैवं यतः सुसिद्धं प्रागस्ति चानिच्छतः क्रिया। शुभायाश्चाऽशुभायाश्च कोऽवशेषो विशेषभाक्।561। पौरुषो न यथाकामं पुंसः कर्मोदितं प्रति। न परं पौरुषापेक्षो दैवापेक्षो हि पौरुषः।571। = प्रश्न−जब अज्ञानी पुरुष भी किसी कार्य के उद्देश्य के बिना प्रवृत्ति नहीं करता है, तो फिर ज्ञानी सम्यग्दृष्टि भोगों की आकांक्षा के बिना व्रतों का आचरण क्यों करेगा ? उत्तर−यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि बिना इच्छा के ही सम्यग्दृष्टि के सब क्रियाएँ होती हैं। इसलिए उसके शुभ और अशुभ क्रिया में विशेषता को बताने वाला क्या शेष रह जाता है।561। उदय में आने वाले कर्म के प्रति जीव का इच्छानुकूल पुरुषार्थ कारण नहीं है क्योंकि पुरुषार्थ केवल पौरुष की अपेक्षा नहीं रखता है, किंतु दैव की अपेक्षा रखता है।571।
पंचाध्यायी x`/ उ/706-707 ननु नेहा बिना कर्म कर्म नेहां बिना क्कचित्। तस्मान्नानीहितं कर्म स्यादक्षार्थस्तु वा न वा।706। नैवं हेतोरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु। बंधस्य नित्यतापत्तेर्भवेन्मुक्तेरसंभवः।707। प्रश्न−कहीं भी क्रिया के बिना इच्छा और इच्छा के बिना क्रिया नहीं होती। इसलिए इंद्रियजंय स्वार्थ रहो या न रहो किंतु कोई भी क्रिया इच्छा के बिना नहीं हो सकती है ? उत्तर−यह ठीक नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त हेतु से क्षीणकषाय और उसके समीप के गुणस्थानों में उक्त लक्षण में अतिव्याप्त दोष आता है। यदि उक्त गुणस्थानों में भी क्रिया के सद्भाव से इच्छा का सद्भाव माना जायेगा तो बंध के नित्यत्व का प्रसंग आने से मुक्ति होना भी असंभव हो जायेगा। (और भी देखें संवर - 2.6)।
- सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव तथा उसका कारण