आहार: Difference between revisions
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आहार अनेकों प्रकारका होता है। एक तो सर्व जगत् प्रसिद्ध मुख द्वारा किया जानेवाला खाने-पीने वा चाटनेकी वस्तुओंका है। उसे कवलाहार कहते हैं। जीवके परिणामों द्वार प्रतिक्षण कर्म वर्गणाओंका ग्रहण कर्माहार है। वायुमण्डलसे प्रतिक्षण स्वतः प्राप्त वर्गणाओँका ग्रहण नोकर्माहार है। गर्भस्थ बालक द्वारा ग्रहण किया गया माताका रजांश भी उसका आहार है। पक्षी अपने अण्डोंको सेते हैं वह ऊष्माहार है - इत्यादि। साधुजन इन्द्रियोंको वशमें रखनेके लिए दिनमें एक बार, खड़े होकर, यथालब्ध, गृद्धि व रस निरपेक्ष, तथा पुष्टिहीन आहार लेते हैं।<br> | |||
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Revision as of 02:13, 9 May 2009
आहार अनेकों प्रकारका होता है। एक तो सर्व जगत् प्रसिद्ध मुख द्वारा किया जानेवाला खाने-पीने वा चाटनेकी वस्तुओंका है। उसे कवलाहार कहते हैं। जीवके परिणामों द्वार प्रतिक्षण कर्म वर्गणाओंका ग्रहण कर्माहार है। वायुमण्डलसे प्रतिक्षण स्वतः प्राप्त वर्गणाओँका ग्रहण नोकर्माहार है। गर्भस्थ बालक द्वारा ग्रहण किया गया माताका रजांश भी उसका आहार है। पक्षी अपने अण्डोंको सेते हैं वह ऊष्माहार है - इत्यादि। साधुजन इन्द्रियोंको वशमें रखनेके लिए दिनमें एक बार, खड़े होकर, यथालब्ध, गृद्धि व रस निरपेक्ष, तथा पुष्टिहीन आहार लेते हैं।
I आहार सामान्य
- भेद व लक्षण
- आहार सामान्य का लक्षण
- आहार के भेद-प्रभेद
- नोकर्माहार व कवलाहारके लक्षण
- खाद्यस्वाद्यादि आहार - देखे [[वह वह नाम <]] /LI>
- पानक व कांजी आदिके लक्षण - देखे [[वह वह नाम <]] /LI>
- निर्विकृति आहार का लक्षण - देखे [[निर्विकृति <]] /LI>
- भोजन शुद्धि
- भोजन शुद्धि सामान्य
- भक्ष्याभक्ष्य विचार, जलगालन, रात्रि भोजन त्याग अन्तराय - देखे [[वह वह नाम <]] /LI>
- अन्न शोधन विधि
- आहार शुद्धिका लक्षण
- चौकेके बाहरसे लाये गये आहारकी ग्राह्यता - देखे आहार II/१
- मन, वचन, काय आदि शुद्धियाँ - देखे [[शुद्धि <]] /LI>
- आहार व आहार कालका प्रमाण
- कर्म भूमिया स्त्री, पुरुषका उत्कृष्ट आहार
- आहारके प्रमाण सम्बन्धी सामान्य नियम
- भोग भूमियोंके आहारका प्रमाण - देखे [[भूमि <]] /LI>
- भोजन मौनपूर्वक करना चाहिए
II आहार (साधुचर्या)
- साधुकी भोजन ग्रहण विधि
भिक्षा विधि - देखे भिक्षा
- दिनमें एकबार खड़े होकर भिक्षावृत्तिसे व पाणि पात्रमें लेते हैं
- भोजन करते समय खड़े होने की विधि व विवेक
- खड़े होकर भोजन करनेका तात्पर्य
- नवधा भक्ति पूर्वक लेते हैं
- एक चौकेमें एक साथ अनेक साधु भोजन कर सकते हैं
- चौकेसे बहारका लाया आहार भी कर लेते हैं
- पंक्तिबद्ध सात घरोंसे लाया आहार ले लेते हैं पर अन्यत्रका नहीं
- क्षपकको माँगकर लाया गया आहार ग्राह्य है - देखे सल्लेखना ४
- साधुके योग्य आहार शुद्धि
- छियालीस दोषोंसे रहित लेते हैं
- अधःकर्मादि दोषोंसे रहित लेते हैं
- अधःकर्मादि दोषोंका नियम केवल प्रथम व अन्तिम तीर्थमें ही है
- परिस्थिति वश नौकोटि शुद्धकी बजाय पाँच कोटी शुद्धका भी ग्रहण - दे.अपवाद ३
- दातार योग्य आहार शुद्धि - देखे [[शुद्धि <]] /LI>
- योग मात्रा व प्रमाणमें लेते हैं
- यथालब्ध व रस निरपेक्ष लेते हैं
- पौष्टिक भोजन नहीं लेते हैं
- भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी विचार - देखे [[भक्ष्याभक्ष्य <]] /LI>
- गृद्धता या स्वछन्दता सहित नहीं लेते
- दातार पर भार न पडे इस प्रकार लेते हैं
- भाव सहित दिया व लिया गया आहार ही वास्तवमें शुद्ध है
- आहार व आहार कालका प्रमाण
- स्वस्थ साधुके आहारका प्रमाण
- साधुके आहार ग्रहण करनेके कालकी मर्यादा
- साधुके आहार ग्रहणका काल - देखे भिक्षा १ व रात्रि भोजन १
- आहारके ४६ दोष
- छियालीस दोषोंका नाम निर्देश
- चोदह मल दोष
- सात विशेष दोष
- उद्देशिक व अधःकर्म दोष - देखे [[वह वह नाम <]] /LI>
- छियालीस दोषों के लक्षण।
- आहारके अतिचार - देखे [[अतिचार <]] /LI>
- आहार सम्बन्धी अन्तराय - देखे अन्तराय २
- आहार छोड़ने योग्य व अन्यत्र उठ कर चले जाने योग्य अवसर - देखे अन्तराय २
- दातार सम्बन्धी विचार
- दातारके गुण व दोष
- दान देने योग्य अवस्थाएँ विशेष
६ भोजन ग्रहण करनेके कारण व प्रयोजन
- संयम रक्षार्थ कहते हैं शरीर रक्षार्थ नहीं
- शरीरके रक्षाणार्थ भी कथंचित् ग्रहण
- शरीरके रक्षाणार्थ औषध आदिकी भी इच्छा नहीं
- शरीर व संयमार्थ ग्रहणका समन्वय
- केवलीको कवलाहारका निषेध - देखे केवली ४
I आहार सामान्य
- भेद व लक्षण
- आहार सामान्यका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/३०/१८६/९ त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः।
= तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंके ग्रहण करनेको आहार कहते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/३०/४/१४०), (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,४/१५२/७)
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/७/११/६०४/१९ उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहार..तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति।
= उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण आहार है। वह आहार शरीर नामकर्मके उदय तथा विग्रह गति नामके उदयके अभावसे होता है।
- आहारके भेद-प्रभेद
नोट - आगममें चार प्रकारसे आहारके भेदोंका उल्लेख मिलता है। उन्हींकी अपेक्षासे नीचे सूची दी जाती है।
आहार
कर्माहारादि खाद्यादि कांजीआदि पानकादि
१ २ ३ ४
कर्माहार अशन कांजी स्वच्छ
नोकर्माहार पान आंवली या बहल
कवलाहार भक्ष्य या खाद्य आचाम्ल लेवड़
लेप्याहार लेह्य बेलड़ी अलेवड़
ओजाहर स्वाद्य एकलटाना ससिक्थ
मानसाहार - - असिक्थ
उपरोक्त सूचीके प्रमाण
- (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१७६/४०९/१०); (नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ६३ में उद्धृत) (प्र.सा./ता वृ.२०में उद्धृत प्रक्षेपक गाथा सं.२) (समयसार / समयसार तात्पर्यवृत्ति। तात्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ४०५)
- (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ६७६); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ७/२१/८/५४८/८); (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/१३/६६७); (लांटी संहिता अधिकार संख्या २/१६-१७)
- (व्रत विधान संग्रह पृ. २६)
- (भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या ७००); (सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ८/५६)
- नोकर्माहार व कवलाहारका लक्षण
बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ३४ समयं समयं प्रत्यनन्ताः परमाणवोऽनन्यजनासाधारणाः शरीरस्थितिहेतवः पुण्यरूपाः शरीरे संबन्धं यान्ति नोकर्मरूपा अर्हत आहार उच्यते न त्वितरमनुष्यवद्भगवति कवलाहारो भवति।
= अन्य जनोंको असाधारण ऐसे शरीरकी स्थितिके हेतु भूत तथा पुण्यरूप अनन्ते परमाणु समय-समय प्रति अर्हन्त भगवानके शरीरसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं। ऐसा नोकर्मरूप आहार ही भगवानका कहा गया है। इतर मनुष्योंकी भाँति कवलाहार भगवान्को नहीं होता।
- भोजन शुद्धि
- भोजन शुद्धि सामान्य
भोजन शुद्धिके चार प्रमुख अंग हैं - मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि व आहार शुद्धि। इनमें-से आहार शुद्धिके भी चार अंग हैं - द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, कालशुद्धि व भाव शुद्धि। इनमें-से भाव शुद्धि मन शुद्धिमें गर्भित हो जाती है। इस प्रकार भोजन शुद्धिके प्रकरणमें ६ बातें व्याख्यात हैं-मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि व कालशुद्धि।
- अन्न शोधन विधि
लांटी संहिता अधिकार संख्या २/१९-३२ विद्धं त्रसाश्रितं यावद्वर्जयेत्तभक्ष्यवत्। शतशः शोधितं चापि सावधानैर्दृगादिभिः ।।१९।। संदिग्धं च यदन्नादि श्रितं वा नाश्रितं त्रसैः। मन शुद्धिप्रसिद्ध्यर्थं श्रावकः क्वापि नाहरेत् ।।२०।। अविद्धमपि निर्दोषं योग्यं चानाश्रिते त्रसैः। आचरैच्छ्रावकः सम्यग्दृष्टं नादृष्टमीक्षणैः ।।२१।। ननु शुद्धं यदन्नादि कृतशोधनयानया। मैवं प्रमाददोषत्वात्कल्मषस्यास्रवो भवेत ।।२२।। गालितं दृढवस्त्रेण सर्पिस्तैलं पयो द्रवम्। तोयं जिनागमाम्नायादाहरेसत्स न चान्यथा ।।२३।। अन्यथा दोष एव स्यान्मांसातीचारसंज्ञकः। अस्ति तत्र त्रसादोनां मृतस्याङ्गस्य शेषता ।।२४।। दुरवधानता मोहात्प्रमादाद्वापि शोधितम्। दुःशोधितं तदेव स्याद्ज्ञेयं चाशोधिपं यथा ।।२५।। तस्मात्सद्व्रतरक्षार्थं पदलोषनिवृत्तये। आत्मदृग्भिः स्वहस्तैश्च सम्यगन्नादि शोधयेत् ।।२६।। यथात्मार्थं सुबर्णादिक्रियार्थी सम्यगीक्षयेत्। व्रतवानपि गृह्णीयादाहारं सुनिरीक्षितम् ।।२७।। सधर्मेणानभिज्ञेन साभिज्ञेन विधर्मिणा। शोधितं पाचितं चापि नाहरेद् व्रतरक्षतः ।।२८।। ननु केनापि स्वीयेन सधर्मेण विधर्मिणा। शोधितं पाचितं भोज्यं सुज्ञेन स्पष्टचक्षुषः ।।२९।। मैवं यथोदितस्योश्चैर्विश्वासो व्रतहानये। अनार्यस्याप्यनार्द्रस्य संयमे नाधिकारता ।।३०।। चलितत्वात्सीम्नश्चैव नूनं भाविव्रतक्षति। शैथिल्याद्धीयमानस्य संयमस्य कुतः स्थितिः ।।३१।। शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्यात् ग्रहणं कृती। कालस्यातिक्रमाद् भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत् ।।३२।।
= (केवल भावार्थ) घुने हुए वा बीधे अन्नमें भी अनेक त्रस जीव होते हैं, सैंकड़ो बार शोधा जाये तो भी उसमें से जीव निकलने असम्भव हैं। इसलिए वह अभक्ष्य है। जिसमें त्रस जीवका सन्देह हो `कि इसमें जीव हैं या नहीं' ऐसे अन्नका भी त्याग कर देना चाहिए। जो अन्नादि पदार्थ घुने हुए नहीं है, जिनमें त्रस जीव नहीं हैं, ऐसा पदार्थ अच्छी तरह देख शोधकर काममें लाने चाहिए। शोधा हुआ अन्न, यदि मनकी असावधानीसे शोधा गया है, होशहवाश रहित अवस्थामें शोधा गया है, प्रमाद पूर्वक शोधा गया है तो वह अन्न दुःशोधित कहलाता है। ऐसे अन्नको पुनः अपने हाथसे अच्छी तरह शोध लेना चाहिए। शोधनकी विधिका अजानकार साधर्मी, अथवा शोधन विधिके जानकार विधर्मीके द्वारा शोधा गया अन्न कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो पुरुष अनार्य है अथवा निर्दय है, उसको संयमके काममें संयकी रक्षा करनेमें कोई अधिकार नहीं है। जिस अन्नको शोधे हुए बहुत काल व्यतीत हो गया है, अथवा उनकी मर्यादासे अधिक काल हो गया है, ऐसे अन्नादिकको पुनः अच्छी तरह शोधकर काममें लेना चाहिए। ताकि हिंसाका अतिचार न लगे।
- आहार शुद्धिका लक्षण
वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा संख्या २३१ चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए। संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी ।।२३।।
= चौदह मल दोषोंसे रहित, यतनसे शोधकर संयमी जनको आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए।
- आहार व आहार कालका प्रमाण
- कर्म भूमिया स्त्री पुरुषका उत्कृष्ट आहार
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या २११ बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होई। पुरिसस्स महिलियाए अठ्ठावीसं हवे कवला ।।२११।।
= पुरुषके आहारका प्रमाण बत्तीस ग्रास है, इतने ग्रासोसे पुरुषका पेट पूर्ण भरता है। स्त्रियोंके आहारका प्रमाण अट्ठाईस ग्रास है।
(धवला पुस्तक संख्या १३/५,४,२६/७/५६)
हरिवंश पुराण सर्ग ११/१२५ सहस्रसिक्थः कवलो द्वात्रिंशत तेऽपि चक्रिणः। एकश्चासौ सुभद्रायाः एकोऽन्येषां तु तृप्तये ।।१२५।।
= एक हजार चावलोंका एक कवल होता है ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण चक्रवर्तीका आहार था, सुभद्राका आहार एक कवल था और वह एक कवल समस्त लोगोंकी तृप्तिके लिए पर्याप्त था।
धवला पुस्तक संख्या १३/५,४,२६/५६/६ साहितंदुलसहस्से ट्ठिदे जं क्रूरपमाणं त सव्वमेगो कवलो होदि। एसो पयडिपुरिसस्स कवलो परूविदो। एदे हि बत्तीसकवलेहि पयडिपुरिसस्स आहारो होदि, अट्ठावीसकवलेहि माहिलियाए। इमं कवलमेदमाहारं च मोत्तूण जो जस्स पयडकवलो पयडि आहारो सो च घेत्तव्वो। ण च सव्वेसिं कवलो आहारो वा अवट्ठिदो अत्थि एक्कुडव्तडुलकूरभुंजमाणपुरिसाणं एगगलत्थ कूराहार पुरिसाणं च उबलंभादो।
= शाली धान्यके एक हजार धान्यों का भात बनता है वह सब एक ग्रास होता है। यह प्रकृतिस्थ पुरुषका ग्रास कहा गया है। ऐसे बत्तीस ग्रासों द्वारा प्रकृतिस्थ पुरुषका आहार होता है और अट्ठाईस ग्रासों द्वारा महिलाका आहार होता है। प्रकृतमें (अवमौदर्य नामक तपके प्रकरणमें) इस ग्रास और इस आहारका ग्रहण न कर जो जिसका प्रकृतिस्थ ग्रास और प्रकृतिस्थ आहार है वह लेना चाहिए। कारण कि सबका ग्रास व आहार समान नहीं होता, क्योंकि कितने ही पुरुष एक कुडव प्रमाण चावलोंके भातका और कितने ही एक गलस्थ प्रमाण चावलोंके भातका आहरा करते हैं।
- आहारके प्रमाण सम्बन्धी सामान्य नियम
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ६/२४ में उद्धृत “सायं प्रातर्वा वह्निमनवसादयन् भुञ्जीत। गुरुणामर्धसौदृत्यं लघूनां नातितृप्तता। मात्रप्रमाणं निर्दिष्टं सुखं तावद्विजीर्यति।
= सुबह और शामको उतना ही खावे जीसको जठराग्नि सुगमतासे पचा सके। गरिष्ठ पदार्थोंको भूखसे आधा और हल्के पदार्थोंको तृप्ति पर्यन्त ही खावे। भूखसे अधिक न खावे। इस प्रकार खाया हुआ अन्न सुखसे पचता है। यह मात्राका प्रमाण है।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४९१ अर्धाशनेन सव्यञ्जनेनुदरस्य तृतीयमुदकेन। वायोः संचारणार्थँ चतुर्थमवशेषयत् भिक्षुः।
= भिक्षुके उदरका आधा भाग भोजनसे भरे, तृतीय भाग जलसे भरे, और चतुर्थ भाग वायुके संचरणार्थ अवशेष रखे।
- भोजन मौन पूर्वक करना चाहिए
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ८१७...। मोणव्वदेण मुणिणो चरंति भिक्खं अभासंता।
= वे मौन व्रत सहित भिक्षाके निमित्त विचरते हैं ।।८१७।।
पद्मपुराण सर्ग ४/९७ भिक्षां परगृहे लब्धां निर्दोषां मौनमास्थिताः ।।९७।।
= श्रावकोंके घर ही भोजनके लिए जाते हैं, और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षाको मौनसे खड़े रहकर ग्रहण करते हैं...।।९७।।
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/३४-३५ गृद्ध्यै हुङ्कारादिसंज्ञां, संक्लेशं च पुरोऽनु च। मुञ्चन्मौनमदन्कुर्यात्, तपः संयमबृंहणम् ।।३४।। अभिमानावनेगृद्धिरोधाद् वर्धयते तपः। मौनं तनोति श्रेयश्च, श्रुतप्रश्रयतायनात् ।।३५।।
= खाने योग्य पदार्थकी प्राप्तिके लिए अथवा भोजन विषयक इच्छाको प्रगट करनेके लिए हुङ्कारना और ललकारना आदि इशारोंको तथा भोजनके पीछे संक्लेशको छोड़ता हुआ, भोजन करनेवाला व्रती श्रावक तप और संयमको बढ़ानेवाले मौनको करे ।।३४।। मौन स्वाभिमानकी अयाचकत्वरूप व्रतकी रक्षा होनेपर तथा भोजन विषयक लोलुपताके निरोधसे तपको बढ़ाता है और श्रुतज्ञानकी विनयके सम्बन्धसे पुण्यको बढ़ाता है।
II आहार (साधुचर्या)
- साधुकी भोजन ग्रहण विधि
- दिनमें एक बार खड़े होकर भिक्षावृत्तिसे व पाणिपात्र में लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ३५,८११,९३७ उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हिमज्झम्हि। एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ।।३५।।...। भुंजंति पाणिपत्ते परेण दत्तं परघरम्मि ।।८११।। जोगेसु मूलजोगं भिक्खाचरियं च वण्णियं सुत्ते। अण्णे य पुणो जोगा विण्णाणविहीणएहिं कया ।।९३७।।
= सूर्यके उदय और अस्तकालकी तीन घड़ी छोड़कर वा, मध्यकालमें एक मुहूर्त, दो मुहूर्त, तीन मुहूर्त कालमें एक बार भोजन करना वह एक भक्त मूलगुण है ।।३५।। ...पर घरमें परकर दिये हुए ऐसे आहारको हाथरूप पात्र पर रखकर वे मुनि खाते हैं ।।८११।। आगममें सब मूल उत्तरगुणोंके मध्यमें भिक्षाचर्या ही प्रधान व्रत कहा गया है और अन्य जे योग हैं वे सब अज्ञानी चारित्र हीन साधुओंके कियए हुए जानना ।।९३७।।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा संख्या २२९ एकं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जधा लद्धं। चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ।।२२९।।
= भूखसे कम, यथा लब्ध तथा भिक्षा वृत्तिसे, रस निरपेक्ष तथा मधुमांसादि रहित, ऐसा शुद्ध अल्प आहार दिनके समय केवल एक बार ग्रहण करते हैं ।।२२९।।
पद्मपुराण सर्ग ४/९७ भिक्षां परगृहे लब्ध्वा निर्दोषं मौनमास्थिताः। भुंजते...।।९७।।
= श्रावकोंके घर ही भोजनके लिए जाते हैं। वहाँ प्राप्त हुई भिक्षाको मौनसे खड़े होकर ग्रहण करते हैं।
आचार सार १/४९ ...एकद्वित्रिमुहूर्तं स्यादेकभक्तं दिने मुनेः ।।४९।।
= एक, दो व तीन मुहूर्ततक एकबार दिनके समय मुनि आहार लेवे।
- भोजन करते समय खड़े होनेकी विधि व विवेक
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ३४ अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डादि विवज्जणेण समपायं। पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम ।।३४।।
= अपने हाथ रूप भाजन कर भीत आदिके आश्रय रहित चार अंगुलके अन्तरसे समपाद खडे रह कर अपने चरणकी भूमि, जूठन पड़नेकी भूमि, जिमाने वालेके प्रदेशकी भूमि-ऐसी तीन भूमियोंकी शुद्धतासे आहार ग्रहण करना वह स्थिति भोजन नाम मूल गुण है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या १२०६/१२०४/१५ समे विच्छिद्रे, भूभागे चतुरङ्गुलपादान्तरो निश्चला कुड्यस्तम्भादिकमनवलम्ब्य तिष्ठेत्।
= समान व छिद्र रहित ऐसी जमीन पर अपने दोनों पाँवमें चार अंगुल अन्तर रहे इस तरह निश्चल खडे रहना चाहिए। भीत (दीवार) खम्बा वगैरहका आश्रय न लेकर स्थिर खड़े रहना चाहिए।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ९/९४..। चतुरङ्गुलान्तरसमक्रम...।।९४।।
= जिस समय ऋषि अनगार भोजन करे उसी समय उनको अपने दोनों पैर उनमें चार अंगुलका अन्तर रखकर समरूप से स्थापित करने चाहिए।
- खड़े होकर भोजन करनेका तात्पर्य
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ९/९३ यावत्करौ पुटीकृत्य भोक्तुमुद्भः क्षमेऽद्म्यम्। तावन्नैवान्यथेत्यागूसंयमार्थं स्थिताशनम् ।।९३।।
= जबतक खड़े होकर और अपने हाथको जोड़कर या उनको ही पात्र बनाकर उन्हींके द्वारा भोजन करनेकी समार्थ्य रखता हूँ, तभी तक भोजन करनेमें प्रवृत्ति करूँगा, अन्यथा नहीं। इस प्रतिज्ञाका निर्वाह और इन्द्रिय-संयम तथा प्राणि-संयम साधन करनेके लिए मुनियोंको खड़े होकर भोजन का विधान किया है।
- नवधा भक्ति पूर्वक लेते है
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४८२..।..विहिसु दिण्णं ।।४८२।।
= विधिसे अर्थात् नवधा भक्ति दाताके सात गुण सहित क्रियासे दिया गया हो। (ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें)।
- एक चौकेमें एक साथ अनेक साधु भोजन कर सकते हैं
यो.सा.आ.८/६४ पिण्डः पाणिगतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते। दीयते चेन्न भोक्तव्यं भुङ्क्ते चेच्छेदभाग्यतिः ।।६४।।
= आहार देते समय गृहस्थको चाहिए कि वह जिस मुनिको देनेके लिए हाथमें आहार ले उसे उसी मुनिको देना योग्य नहीं यदि कदाचित् अन्यको भी दे दिया जाये तो मुनिको खाना न चाहिए क्योंकि यदि मुनि उसे खा लेगा तो वह छेद प्रायश्चित्तका भागी गिना जायेगा ।।६४।।
- चौकेसे बाहरका लाया आहार भी कर लेते हैं
अनेक गृह भोजी क्षुल्लक अनेक घरोंमें से अपने पात्रमें भोजन लाकर, अन्य किसी श्रावकके घर जहाँ पानी मिल जाये, वहाँ पर गृहस्थकी भाँति मुनिको आहार देकर पीछे स्वयं करता है। देखे क्षुल्लक १ तथा सल्लेखना गत साधुको कदाचित् क्षुधाकी वेदना बढ़ जानेपर गृहस्थोंके घरसे मंगाकर आहार जिमा दिया जाता है। - दे. सल्लेखना ५। उपरोक्त विषय परसे सिद्ध होता है कि साधु कदाचित् चौकेसे बाहरका भी आहार ग्रहण कर लेते हैं।
जम्बू स्वामी चरित्र १६३ प्रासुकं शुद्धमाहारं कृतकारितवर्जितं। आदत्तं भिक्षयानीतं मित्रेण दृढधर्मणा ।।१६३।।
= दृढधर्म नामके मित्र द्वारा भिक्षासे लाया हुआ, कृत, कारित, दोषोंसे वर्जित शुद्ध प्रासुक आहार विरक्त शिवकुमार (श्रावक) घर बैठकर कर लेता था।
- पंक्तिबद्ध सात घरोंसे लाया हुआ आहार ले लेते हैं। पर अन्यत्रका नहीं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४३८-४४० देसत्तिय सव्वत्तियदुविहं पुण अभिहडं वियाणाहि। आचिण्णमणाचिण्णं देसाविहडं हवे दुविहं ।।४३८।। उज्जु तिहिं सत्तहिं वा घरेहिं आगदं दु आचिण्णं। परदो वा तेहिं भवे तव्विवरीदं अणाचिण्णं ।।४३९।। सव्वाभिघडं चदुधा समपरगामे सदेसपरदेसे पुव्वपरपाडणयडं पढमं संसपि णापव्वं ।।४४०।।
= अभिघट दोषके दो भेद हैं - एक देश व सर्व। देशाभिघटके दो भेद हैं - आचिन्न व अनाचिन्न ।।४३९।। पंक्ति बद्ध सीधे तीन अथवा सात घरोंसे लाया भात आदि अन्न आचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य है। और इससे उलटे-सीधे घर न हों ऐसे सात घरोंसे भी लाया अन्न अथवा आठवाँ आदि घरसे आया ओदनादि भोजन अनाचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है। सर्वाभिघट दोषके चार भेद हैं - स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश, परदेश। पूर्वदिशाके मोहल्लेसे पश्चिम दिशाके मोहल्लेमें भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है।
- साधु के योग्य आहार शुद्धि
- छियालीस दोषों से रहित लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४२१,४८२,४८३,८१२ उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च। गालधूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धीहु ।।४२१।। णवकोडीपरिसुद्धं असणं बादालदोसपरिहीणं। संजोजणायहीणं पमाणसहियं विहिसु दिण्णं ।।४८२।। विगदिंगाल विधूमं छक्कारणसंजुदं कमविसुद्धं। जत्तासाधणमत्तं चोद्दसमलवज्जिदं भंजे ।।४८३।। उद्देसिय कोदयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च। सुत्तप्पडिकुट्टाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जेंति ।।८१२।।
= उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित जो भोजन लेना वह आठ प्रकारकी पिण्डशुद्धि कही है ।।४२१।। ऐसे आहारको लेना चाहिए-जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदनासे शुद्ध हो, ब्यालीस दोषों कर रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, संयोजन दोषसे रहित हो, विधिसे अर्थात् नवधा भक्ति दाताके सात गुणसहित क्रियासे दिया गया हो। अंगार दोष, धूमदोष, इन दोनोंसे रहित हो, छह कारणोंसे सहित हो, क्रम विशुद्ध हो, प्राणोंके धारणके लिए हो, अथवा मोक्ष यात्राके साधनके लिए हो, चौदह मलोंसे रहित हो, ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें ।।४८२-४८३।। (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ८११) औद्देशिक क्रीततर, अज्ञात, शंकित, अन्यास्थानसे आया सूत्रसे विरुद्ध और सूत्रसे निषद्ध ऐसे आहरको मुनि त्याग देते हैं।
आ.पा./मू.१०१ छायीसदोस दूसियमसणं गसिउ उसुद्धभावेण। पत्तोसिं महावसणं तिरयगईए अणप्पवसो ।।१०१।।
= हे मुने! तैं अशुद्ध भावकरि छियालीस दोष करि दूषित अशुद्ध अशन कहिए आहार ग्रस्या खाया ताकारण करि तिर्यञ्च गति विषें पराधीन भया संता महान् बड़ा व्यसन कहिए कष्ट ताकूं प्राप्त भया ।।१०१।।
मोक्षपाहुड़ / प्रस्तावना ६/२७०/९ बहुरि जहाँ मुनिकै धात्रीदूत आदि छ्यालीस दोष आहारादिविषैं कहै हैं तहाँ गृहस्थनिकैं बालकनिकौं प्रसन्न करना...इत्यादि क्रियाका निषेध किया है। और भी - देखे आहार I/२।
- अधःकर्मादि दोषोंसे रहित लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ९२२-९३४ जो ठाणमोणवीरासणेहिं अत्थदि चउत्थछट्ठेहिं। भुंजदि आधाकम्मं सव्वेवि णिरत्था जोगा ।।९२२।। जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाणं घायणं किच्चा। अबुद्धो लोल सजिब्भो णवि समणो सावओ होज्जं ।।९३७।। आधाकम्म परिणदो पासुगदव्वेदि बंधगोभणिदो। सुद्धं गवेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो ।।९३४।।
= जो साधुस्थान मौन और वीरासनसे उपवास वाले तेला आदि कर तिष्ठता है और अधःकर्म सहित भोजन करता है उसके सभी योग निरर्थक हैं ।।९२२।। जो मूढ़ मुनि छह कायके जीवोंका घात करके अधःकर्म सहित भोजन करता है वह लोलुपी जिह्वाके वश हुआ मुनि नहीं है श्रावक है ।।९२७।। प्रासुक द्रवन्य होनेपर भी जो साधु अधःकर्म कर परिणत है वह आगममें बन्धका कर्ता है, और जो शुद्ध भोजन देखकर ग्रहण करता है वह अधःकर्म दोषके परिणाम शुद्धिसे शुद्ध है ।।९३८।।
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ७९...। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।
= अधःकर्म जे पापकर्म ताविषैं रत हैं, सदोष आहरा करैं हैं ते मोक्ष मार्ग तैं च्युत हैं।
र.वा.९/६/१६/५९७/१९ भिक्षा शुद्धि...प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना।
= प्रासुक आहार ढूँढना ही मुख्य लक्ष्य है ऐसी भिक्षा-शुद्धि है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४२१/६१३/९ श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकं उद्देशिगमित्युच्यते। तच्च षोडशविधं आधाकर्मादि विकल्पेन। तत्परिहारो द्वितीयः स्थितिकल्पः।
= मुनिके उद्देश्यसे किया हुआ आहार, वसतिका वगैरहको उद्देशिक कहते हैं। उसके आधाकर्मादि विकल्पसे सोलह प्रकार हैं। उसका त्याग करना। यही द्वितीय स्थिति कल्प है।
स.सा/आ.२८६-२८७ अधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे। तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे।
= अधःकर्मसे तथा उद्देशसे उत्पन्न निमित्त भूत पुद्गल द्रव्य न त्यागता हुआ नैमित्तक भूत बन्द साधक भावोंको भी वास्तवमें नहीं त्यागता है, ऐसा ही द्रव्य व भावका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है।
प्र.सा/त.प्र.२२९ समस्तहिंसायतनशून्य एवाहारो युक्ताहारः।
= समस्त हिंसाके निमित्तोंसे रहित आहार ही योग्य है।
चारित्रसार पृष्ठ संख्या ६८/२ उपद्रवणविद्रावणपरितापनारम्भक्रियया निष्पन्न मन्नंस्वेन कृतं परेण कारितं वानुमानितं वाधःकर्म (जनितं) तत्सेविनोऽनशनादितपस्यभ्रावनकाशादियोगविशेषाश्च भिन्नभाजनभरितामृतवत्प्ररक्षन्ति, ततश्च तदभक्ष्यमिव परिहरतो भिक्षोः।
= उपद्रवण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप क्रियाओंके द्वारा जो आहरा तैयार किया गया है-वह चाहे अपने हाथसे किया है अथवा दूसरेसे कराया है अथवा करते हुएकी अनुमोदना की है अथवा जो नीच कर्मसे बनया गया है ऐसे अधःकर्मयुक्त आहारको ग्रहण करनेवाले मुनियोंके उपवासादि तपश्चरण, अभ्रावकाशादि योग और वीरासनादि विशेष योग सब फूटे बर्तनमें भरे हुऐ अमृतके समान नष्ट हो जाते हैं।
- अधःकर्मादि दोषोंका नियम केवल प्रथम व अन्तिम तीर्थमें ही है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४२१/६१३/९ तथा चोक्तं कल्पे-सोहलविधमुद्देसं वज्जेदव्वंति पुरिमचरिमाणं। तित्थगराणं तित्थे ठिदिकप्पो होदि विदिओ हु।
= कल्प नामक ग्रन्थ (कल्पसूत्र) में ऐसा वर्णन है - श्री आदिनाथ तीर्थंकर और श्री महावीर स्वामी इनके तीर्थमें सोलह प्रकारके उद्देशका परिहार करते आहारादिक ग्रहण करना चाहिए, यह दूसरा स्थिति कल्प है।
- योग्य मात्रा व प्रमाणमें लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४८२...।...पमाण सहियं... ।।४८२।।
= जो मात्रा प्रमाण हो ऐसा आहार साधु ग्रहण करते हैं।
- यथा लब्ध व रस निरपेक्ष लेते हैं
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा संख्या २२९...जधा लद्धं।...ण रसावेक्खं ण मधुरमंसं ।।२२९।।
= वह शुद्ध आहार यथालब्ध तथा रससे निरपेक्ष तथा मधु मांसादि अभक्ष्योंसे रहित किया जाता है।
लिं./पा./मू.१२ कंदप्प (प्पा) इय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं। माई लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।१२।।
= जो लिंग धार कर भी भोजनमें रसकी गृद्धि करता है, सो कन्दर्पादि विषै वर्ते है। उसको काम सेवनकी इच्छा तथा प्रमाद निद्रादि प्रचुर रूपसे बढ़ते हैं तब वह लिंग व्यापादी अर्थात् व्यभिचारी कहलाता है। मायाचोरी होता है, इसलिए वह तिर्यञ्च योनि है मनुष्य नाहीं। इसलिए वह श्रमण नहीं।
रयणसार गाथा संख्या ११३ भुंजेइ जहालाहं लहेइ जइ णाणसंजमणिमित्तं। झाणज्झयणणिमित्तं अणियारो मोक्खमग्गरओ ।।११३।।
= जो मुनि केवल संयम ज्ञानकी वृद्धिके लिए तथा ध्यान अध्ययन करनेके लिए जो मिल गया भक्ति पूर्वक, जिसने जो शुद्ध आहार दे दिया उसीको ग्रहण कर लते हैं। वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्गमें लीन रहते हैं।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४८१,८१४,९२८...साउ अट्ठं ण..।..भुंजेज्जो ।।४८१।। सीदलमसीदलं वा सुक्कं लुक्खं सुणिद्ध सुद्धं वा। लोणिदमलोणिदं वा भुंजंति मुणी अणासादं ।।८१४।। पयणं वा पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बीहेदि। जेमंतो वि संघादी णवि समणो दिट्ठिसंपण्णो ।।९२८।।
= साधु स्वादके लिए भोजन नहीं करते हैं ।।४८१।। शीतल गरम अथवा सूखा, रूखा चिकना विकार रहित लोंन सहित अथवा लोंन रहित ऐसे भोजनको वे मुनि स्वाद रहित जीमते हैं ।।८१४।। पाच करनमें अथवा पाक करानेमें पाँच उपकरणोंसे अधःकर्ममें प्रवृत्त हुआ और अनुमोदना प्रसन्न जो मुनि उस पचनादिसे नहीं डरता वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है। न तो मुनि है और न सम्यग्दृष्टि है।
प्र.प्र/मू.१११/२,४ प्रक्षेपक गाथा “काऊणं णग्गरूवं बीभस्तं दड्ढमडयसारिच्छं। अहिलससि किं ण लज्जसि भक्खाए भोयणं मिट्ठं ।।१११*२।। जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति। ते मुणि भोयणधार गणि णवि परमत्थु मुणंति ।।१११*४।।
= भयानक देहके मैलसे युक्त जले हुए मुरदेके समान रूप सहित ऐसे वस्त्र रहित नग्न रूपको धारण करके हे साधि, तु परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें स्वाद युक्त आहारकी इच्छा करता है, तो तू क्यों नहीं शरमाता? यह बड़ा आश्चर्य है ।।१११*२।। जो योगी स्वादिष्ट आहारसे हर्षित होते हैं और नीरस आहारमें क्रोधादि कषाय करते हैं वे मुनि भोजनके विषयमें गृद्ध पक्षीके समान हैं, ऐसा तू समझ। वे परम तत्त्वको नहीं समझते हैं ।।१११*४।।
आचारसार ४/६४ रोगोंका कारण होनेसे लाडू, पेड़ा, चावलके बने पदार्थ वा चिकने द्रव्यका त्याग द्रव्य शुद्धि है।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/१० इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारैरूद्भरीकृताः। यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयंति बहिर्मनः ।।१०।।
= इन इन्द्रियरूपी सुभटोंको यदि अभीष्ट तथा स्वादु और उत्कट रससे परिपूर्ण-ताजी बने हुए भोजनोंके द्वारा उद्भट-दुर्वम बना दिया जाये तो ये अपनी इच्छानुसार जो-जो इन्हें इष्ट हों उन सभी बाह्य पदार्थोंमें मनको भ्रमाने लगते हैं। अर्थात् इष्ट सरस और स्वादु भोजनके निमित्तसे इन्द्रियाँ स्वाधीन नहीं रह सकतीं।
- पौष्टिक भोजन नहीं लेते हैं
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ७/७,३५ ...वृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ।।७।। सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुष्पक्वाहाराः ।।३५।।
द्रवो वृष्योवाभिषवः (स.सि)
= गरिष्ठ और इष्ट रसका त्याग तथा अपने शरीरके संस्कारका त्याग ये ब्रह्मचर्यकी रक्षा करनेके लिए ब्रह्मचर्य व्रतकी पाँच भावनाएँ हैं ।।७।। सचित्ताहार, सम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार अर्थात् सचित्त या सचित्तसे सम्बन्धको प्राप्त अथवा सचित्तसे मिला हुआ आहार, अभिषवाहार और ठिक न पका हुआ आहार, इनका ग्रहण उपभोग परिभोग परिमाण व्रतके अतिचार हैं ।।७।। यहाँ द्रव, वृष्य और अभिषव इनका एक अर्थ है अर्थात् पौष्टिक आहार इसका अर्थ है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/३५/३७१/६)
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/१०२ को न वाजीकृतां दृप्तः कन्तुं कन्दलयेद्यतः। ऊर्ध्वमूलमधःशाखमृषयः पुरषं विदुः ।।१०२।।
= मनुष्योंको घोड़ेके समान बना देनेवाले प्रभृति वीर्य प्रवर्धक पदार्थोंको वाजीकरण कहते हैं। इसमें ऐसा कौन सा पदार्थ है जो कि उद्दृप्त-उत्तेजित होकर कामदेवको उद्भूत नहीं कर देता अर्थात् सभी सगर्व पदार्थ ऐसे ही हैं। क्योंकि ऋषियोंने पुरुषका स्वरूप ऊर्ध्वमूल और अधःशाख माना है। जिह्वा और कण्ठ प्रभृति अवयव मनुष्यके मूल हैं और हस्तादि अवयव शाखाएँ हैं। जिस प्रकार वृक्षके मूल में सिञ्जन किये गये सिञ्जनका प्रभाव उसकी शाखाओं पर पड़ता है उसी प्रकार जिह्वादिक के द्वारा उपयुक्त आहरादिकका प्रभाव हस्तादिक अंगोंपर पड़ता है।
क्रियाकोश श्लोक संख्या ९८२ अतिदुर्जर आहार जे वस्तु गरिष्ट सु होय। नहीं जोग जिनवर कहे तजै धन्न हैं सोय ।।९८२।।
= जो अत्यन्त गरिष्ठ आहार है उसको ग्रणह करना योग्य नहीं, ऐसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है। जो नर उसका त्याग करते हैं वे धन्य हैं।
- गृद्धता या स्वच्छन्दता सहित नहीं लेते
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या २९०,२९२ एसा गणधरमेरा आयारत्थाण वण्णियासुत्ते। लोगसुहाणुदाणं अप्पच्छंदो जहिच्छाए ।।२९०।। पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु। मूलट्ठाणं पत्तो बालो त्ति य णो समणबालो ।।२९२।।
= यह अच्छा संयत मुनि है, ऐसा मेरा जगतमें यश फैले अथवा अपने मतका प्रकाशन करनेसे मेरेको लाभ होगा ऐसे भाव मनमें धारण करके केवल चारित्र रक्षणार्थ ही निर्दोष आहारादिकको जो ग्रहण करता है वही सच्चारित्र मुनि समजना चाहिये ।।२९०।। उद्गमादि दोषोंसे युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है जिसको प्राणि संयम व इन्द्रिय संयम हैं ही नहीं वह साधु मूल स्थान प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है, वह अज्ञानी है, वह केवल नग्न है, वह यति भी नहीं है, और न गणधर ही है।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ९३१ जो जट्ठा जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधियादीयं। समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होदि ।।९३१।।
= जो साधु जिस शुद्ध अशुद्ध देशमें जैसा शुद्ध अशुद्ध मिला आहार व उपकरण ग्रहण करता है वह श्रमण गुणसे रहित योगी संसारका बढ़ानेवाला ही होता है।
सू.पा./मू.९ उक्किट्ठसीहचरियं वहुपरियम्मो य गरूयभारो य। जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ।।९।।
लिंगपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या १३ धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊणं भुंजदे पिंडं। एवरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होई सो समणो ।।१३।।
= जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिंहवत् निर्भय हुआ आचरण करता है और बहुत परिकर्म कहिए तपश्चरणादि क्रिया कर युक्त है, तथा गुरुके भारवाला है अर्थात् बड़े पदवाला है, संघ नायक कहलाता है, और जिन सूत्रसे च्युत हुआ स्वच्छन्द प्रवर्तता है तो वह पाप ही को प्राप्त होय है, मिथ्यात्वको प्राप्त होता है ।।९।। जो लिंगधारी पिण्ड अर्थात् आहारके लिए दौड़े हैं आहारके लिए कलह करके उसे खाता है तथा उसके निमित्त परस्पर अन्यसे ईर्ष्या करता है वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है ।।१३।।
(और भी देखे साधु ५)
- दातारपर भार न पड़े इस प्रकार लेते हैं
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/६/१६/५९७/२९ दातृजनबाधया बिना कुशलो मुनिभवदाहारमिति भ्रमाहार इत्यपि परिभाष्यते।
= दातृ जनोंको किसी भी प्रकारकी बाधा पहुंचाये बिना मुनि कुशलसे भ्रमरकी तरह आहार लेते हैं। अतः उनकी भिक्षा वृत्तिको भ्रामरोवृत्ति और आहारको भ्रमराहार कहते हैं।
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार संख्या ६/२७० मुनिनिकै भ्रमरी आदि आहार लेनेंकी विधि कही है। ए आसक्त होय दातारके प्राण पीड़ि आहारादिक ग्रहैं हैं।...इत्यादि अनेक विपरीतता प्रत्यक्ष प्रति भासे अर आपकौ मुनि मानै, मूल गुणादिकके धारक कहावै।
- भाव सहित दिया व लिया गया आहार ही वास्तवमें शुद्ध है
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४८५ पगदा असओ जह्मा तह्मादो दव्व दोत्ति तं दव्वं। पासुगमिद्रि सिद्धेवि य अप्पट्ठकदं अशुद्धं तु ।।४८५।।
= साधु द्रव्य व भाव दोनोंसे प्रासुक द्रव्यका भोजन करे। जिसमें-से एकेन्द्री जीव निकल गये वह द्रव्य प्रासुक है और जो प्रासुक आहार होनेपर भी “मेरे लिए किया गया है ऐसा चिन्तन करे वह भावसे अशुद्ध जानना, तथा चिन्तन नहीं करना वह भाव शुद्ध आहार है।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/६७ द्रव्यतः शुद्धमप्यन्नं भावाशुद्ध्या प्रदुष्यते। भावो ह्यशुद्धो बन्धाय शुद्धो मोक्षाय निश्चितः ।।६७।।
= यदि अन्न-भौज्य सामग्री द्रव्यगतः शुद्ध भी हो किन्तु भावतः `मेरे लिए इसने यह बहुत अच्छा किया' इत्यादि परिणामोंकी दृष्टि से अशुद्ध है तो उसको अशुद्ध-सर्वथा दूषित ही समझना चाहिए। क्योंकि बन्ध मोक्षके कारण परिणाम ही माने हैं। आगममें अशुद्ध परिणामोंको कर्मबन्ध का और विशुद्ध परिणामोंको मोक्षका कारण बताया है। अतएव जो अन्न द्रव्यसे शुद्ध रहते हुये भी भावसे भी शुद्ध हो वही ग्रहण करना चाहिये।
- आहार व आहार कालका प्रमाण
- स्वस्थ साधुके आहारका प्रमाण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४६१ अद्धमसणस्स सव्विंजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण। वाऊसंचरणट्ठं चउथमवसेसये भिक्खु ।।४९१।।
= साधु उदरके चार भागोंमेंसे दो भाग तो व्यंजन सहित भोजनसे भरे, तीसरा भाग जलसे परिपूर्ण करे और चौथा भाग पवनके विचरण के लिए खाली छोड़े ।।४९१।।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा संख्या २२९...अपरिपूर्णोदरो यथालब्धः।...।।२२९।।
= यथालब्ध तथा पेट न भरे इतना भोजन दिनमें एक बार करते हैं।
- साधुके आहार ग्रहण करनेके कालकी मर्यादा
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४९२.../ तिरदुगएगमुहूत्ते जहण्णमज्झिम्मुक्कस्से।
= भोजन कालमें तीन मुहूर्त लगना वह जघन्य आचरण है, दो मुहूर्त लगना वह मध्यम आचरण है, और एक मुहूर्त लगना वह उत्कृष्ट आचरण है।
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ३५) (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ९/९२)
- आहारके ४६ दोष
- छियालीस दोषोंका नाम निर्देश
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४२१-४७७ उग्गम उप्पादन एसणं संजीजणं पमाणं च। इंगाल धूमकारक अट्ठविहा पिंडसुद्धी हु ।।४२१।। आधाकम्मुद्देसिय अज्झोवसोय पूदि मिस्से य। पामिच्छे वलि बाहुडिदे पादूकारे य कोदे य ।।४२२।। पामिच्छे परियट्ठे अभिहइमच्छिण्ण मालआरोहे। आच्छिज्जे अणिसट्ठे उग्गदीसादु सेलसिमे ।।४२२।। घादीदूदणिमित्ते आजीवे वणिवगे य तेगिंछे। कोधी माणी मायी लोभी य हवंति दस एदे ।।४४५।। पुव्वीपच्छा संथुदि विज्जमंते य चुण्णजोगे य। उप्पादणा य दोसो सोलसमो मुलकम्मे य ।।४४६।। संकिदमक्खिदपिहिदसंववहरणदायगुम्मिस्से। अपरिणदलित्तछोडिद एसणदोसइं दस एदे ।।६२।।
- सामान्य दोष - उद्गम्, उत्पादन, अशन, संयोजन प्रमाण, अंगार या आगर और धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित, जो भोजन लेना वह आठ प्रकारकी पिण्ड शुद्धि कही है।
- उद्गम् दोष - गृहस्थके आश्रित जो चक्की आदि आरम्भ रूप कर्म वह अधःकर्म है उसका तो सामान्य रीति से साधुको त्याग ही होता है। तथा उपरोक्त मूल आठ दोषोंमे-से उद्गम दोषके सोहल भेद कहते हैं - औद्देशिक दोष, अध्यधि दोष, पूतिदोष, मिश्र दोष, स्थापित दोष, बलि दोष, प्रावर्तित दोष, प्राविष्करण दोष, क्रीत दोष, प्रामृश्य दोष, परिवर्तक दोष, अभिघट दोष, अच्छिन्न दोष, मालारोह दोष, अच्छेद्य दोष, अनिसृष्ट दोष,।
- उत्पादन दोष - सोहल दोष उत्पादनके हैं- धात्री दोष, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सक, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, ये दस दोष। तथा पूर्व संस्तुति, पश्चात् संस्तुति, विद्या, मन्त्र, चूर्णयोग, मूल कर्म छह दोष ये हैं।
- अशन दोष - शंकित, मृक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त, त्यक्त ये दस दोष अशनके हैं।
(चा.सा ६८-७२/४) (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/५-३७) (भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ९९)
- चौदह मल दोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४८४ णहरोमजंतुअट्ठीकणकुंडयपुयिचम्मरुहिरमंसाणि। वीयफलकंदमूला छिण्णाणि मला चउदसा होंति ।।४८४।।
= नख रोम (बाल) प्राण सहित शरीर, हाड़ गेहूँ आदिका कण, चालवका कण, खराबलोही (राधि) चाम, लोही, मांस, अंकुर होने योग्य गेहूँ आदि, आम्र आदि फल कंदमूल-ये चौदह मल हैं। इनको देखकर आहार त्याग देना चाहिए।
(वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा संख्या २३१ का विशेषार्थ)
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/३९ पूयास्रपसल्यस्थ्यजिनं नखः कचमृतविकलत्रके कन्दः। बीजं मूलफले कणकुण्डौ च मलाश्चतुर्दशान्नगताः ।।३६।।
= जिनसे कि संसक्त-स्पृष्ट होनेपर अन्नादिक आहार्य सामग्री साधुओंको ग्रहण न करनी चाहिए उनको मल कहते हैं। उनके चौदह भेद हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं। - पीब-फोड़े आदिमें हो जानेवाला कच्चा रुधिर तथा साधारण रुधिर, मांस, हड्डी. चर्म, नख, केश, मरा हुआ विकलत्रय, कन्द सूरण आदि. जो उत्पन्न हो सकता है ऐसा गेहुँ आदि बीज, मूली अदरख आदि मूल, बेर आदि फल, तथा कण-गेहुँ आदिका बाह्य खण्ड, और कुण्ड - शाली आदिके सूक्ष्म अभ्यन्तर अवयव अथवा बाहरसे पक्व और भीतरसे अपक्वको कुण्ड कहते हैं।
- सात विशेष दोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ८१२ उद्देसिय कीदयंड अण्णादं संकिदं अभिहडं च। सत्प्पडिकुट्ठाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जेंति ।।८१२।।
= औद्देशिक, क्रीततर, अज्ञात, शंकित, अन्य स्थानसे आया सूत्र के विरुद्ध और सूत्रसे निषद्ध एसे आहरको वे मुनि त्याग देते हैं ।।८१२।।
- छियालीस दोषोंके लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४२७,४४४ - उद्गम दोष : जलतंदुल पक्खेवो दाणट्ठं संजदाण सयपयणे। अज्झोवोज्झं णेयं अहवा पागं तु जाव रोहो वा ।।४२७।। अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूदिकम्मं तुं। चुल्ली उक्खलिदव्वी भायणमंधत्ति पंचविहं ।।४२८।। पासंडेहिं य सद्धं सागरेहिं य जदण्णमुद्दिसियं। दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्सं वियाणाहि ।।४२९।। पागादु भायाणाओ अण्णाह्मि य भायणह्मिपक्कविय। सघरे वा परघरे वा णिहिदं ठविदं वियाणाहि ।।४३०।। जक्खयणागदीणं बलिसेसं स बलित्ति पण्णत्तं। संजदआगमणट्ठं बलियम्मं वा बलिं जाणे ।।४३१।। पाहुडिहं दुविहं बादर सुहुमं च दुविहमेक्केकं। ओकस्सणमुक्कस्सणमह कालोवट्टणावड्ढी ।।४३२।। दिवसे पक्खे मासे वासे परत्तीय बादरं दुविहं। पुव्वपरमज्झवेलं परियत्तं दुविहं सुहुमं च ।।४३३।। पादुक्कारो दुविहो संकमण पयासणा य बोधव्वो। भायण भोयणादीणं मंडवविरलादियं कमसो ।।४३४।। कीदयडं पुण दुविहं दव्वं भावं च सगपरं दुविहं। सच्चितादी दव्वं विज्जामंतादि भावं च ।।४३५।। लहरिय रिणं तु भणियं पामिच्छे ओदणादि अण्णदरं। तं पुण दुविहं भणिदं सवड्ढियमवड्ढियं चावि ।।४३६।। बीहीकूरादीहिं य सालीकूरादियं तु जं गहिदं। दातुमिति संजदाणं परियट्ट होदि णायव्वं ।।४३७।। देसत्ति य सव्वत्ति य दुविहं पुण अभिहडं वियाणाहि। आचिण्णमणाचिण्णं देसाविहडं हवे दुविहं ।।४३८।। उज्जुत्तिहिं सत्तहिं वा घरेहिं जदि आगदं दु आचिण्णं। परदो वा तेहिं भवे तव्विबरीदं अणाचिण्णं ।।४३९।। सव्वाभिघडं चदुधा सयपरगामे सदेसपरदेस। पुव्वपरपाडणयडं पढमं सेसं पि णादव्वं ।।४४०।। पिहिदं लंछिदयं वा ओसहघिदसक्कारादि जं दव्वं। उब्भिण्णिऊण देयं उब्भिण्णं होदि णादव्वं ।।४४१।। णिस्सेणिकट्ठादीहि णिहिदं पूवादियं तु धित्तणं। मालारोहिं किच्चा देयं मालारोहणं णांम ।।४४२।। रायाचोरादीहिं य संजदभिक्खसमं तु दट्ठूणं। बीहेदूण णिजुज्जं अच्छिज्जं होदि णादव्वं ।।४४३।। अणिसट्ठं पुण दुविहं इस्सरसह णिस्सरं चदुवियप्यं। प?ढमिस्सर सारक्खं वत्तावत्तं च संघाडं ।।४४४।।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४४७-४६१ सोहल उत्पादन दोष-मज्जणमंडणधादी खेल्लावखीरअंबधादी य। पंचविधघादिकम्मेणुप्पादो धादिदेसो दु ।।४४७।। जलथलआयासगदं सयपरगामे सदेसपरदेसे। संबधिवयणणयणं दूदीदोसो भवदि एसो ।।४४८।। वंजणमंगं च सरं छिण्णं भूमं च अंतरिक्खं च। लक्खण सुविणं तहा अट्ठविहं होह णेमित्तं ।।४४९।। जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त आजीवं। तेहिं पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसो ।।४५०।। साणकिविणतिधिमांहणपासंडियसवणकगदाणादी। पुण्णं णवेति पट्ठे पुण्णोत्ति वणीवत्तं वयणं ।।४५१।। कोमातरणुतिगिंछारसायणविसभूदखारतंतं च। सालंकियं च सल्लं तिगिंछदोसो दु अट्ठविहो ।।४५२।। कोधेण य माणेण य मायालोभेण चावि उप्पादो। उप्पादणा य दोसो चदुव्विहो होदि णायव्वो ।।४५३।। दायगपुरदो कित्ती तं दाणवदी जसोधरो वेत्ति। पुव्वीसंथुदि दोसो विस्सरिदं बोधणं चावि ।।४५५।। पच्छासंथुदिदोसो दाणंगहिदूण तं पुणो कित्तिं। विक्खादो दाणवदी तुज्झ जसो विस्सुदो वेंति ।।४५६।। विज्जासाधित सिद्धा तिस्से आसापदाणकरणेहिं। तस्से माहप्पेण य विज्जादोसो दु उप्पादो ।।४५७।। सिद्धे पढिदे मंते तस्स य आसापदाणकरणेण। तस्स य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु ।।४५८।। आहारदायगाणं बिज्जामंतेहिं देवदाणं तु। आहुय साधिदव्वा विज्जामंतो हवे दोसो ।।४५९।। णेत्तस्संजणचुण्णं भूसणचुण्णं च गत्त सोभयरं। चुण्णं तेणुप्पदो चुण्णयदोसो हवदि एसो ।।४६०।। अवसाणं वसियसणं संजोजयणं च विप्पजुत्ताणं। भणिदं तु मूलकम्मं एदे उप्पादणा दोसा ।।४६१।।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४६३-४७५ `१० आशन दोष' - असणं च पाणयं वा खादियमध सादियं च अज्झप्पे। कप्पियमकप्पियत्ति य संदिद्धं संकियं जाणे ।।४६३।। ससिणिद्धेण य देयं हत्थेण य भायणेण दव्वीए। एसो मक्खिददोसो परिहदव्वो सदा मुणिणा ।।४६४।। सच्चित्तपुढविआऊतेऊहरिदं च वीयतसजीवा। जं तेसिमुवरि हठविदं णिक्खित्तं होदि छब्भेयं ।।४६५।। सच्चित्तेण व पिहिदं अथवा अचित्तगुरुगपिहिदं च। जं छंडिय जं देयं पिहिदं तं होदि बोधव्वं ।।४६६।। संववहरणं किच्चा पदादुमिदि चेल भायणादीणं। असमिक्खय जं देयं संववहरणो हवदि दोसो ।।४६७।। सूदी सूंडी रोगीमदयणपंसय पिसायमग्गो य। उच्चारपडिदवंतरुहिरवेसी समणी अगमक्खिया ।।४६८।। अतिबाला अतिबुड्ढा घासत्ती गब्भिणी य अंधलिय। अंतरिदाव विसण्णा उच्चत्था अहव णीचत्था ।।४६९।। पूयणं पज्जलणं वा सारणं पच्छादणं च विज्झवणं। किच्चा तहग्गिकज्जं णिव्वादं घट्टणं चावि ।।४७०।। लेवणमज्जणकम्मं पियमाणं दारयं च णिक्खिविय। एवं विहादिया पुण दाणं जदि दिंति दायगा दोसा ।।४७१।। पुढवी आऊ य तहा हरिदा वीया तसा य सज्जीवा। पंचेहिं तेहिं मिस्सं आहारं होदि उम्मिस्सं ।।४७२।। तिलतंडुलउसणोदय चणोदय तुसोदयं अविधुत्थं। अण्णं तहाविहं वा अपरिणदं णेव गेण्हिज्जो ।।४७३।। गेरुय हरिदालेण व सेडीय मणो सिलाम पिट्ठेण। सपबालोदणलेवे ण व देयं करभायणे लित्तं ।।४७४।। बहुपरिसाडणमुज्झिअ आहारो परिगलंत दिज्जंतं। छंडिय भुंजणमहवा छंडियदोसो हवेणेओ ।।४७५।।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४७६-४७७ संयोजना आदि ४ दोष-संयोजणा य दोसो जो संजाएदि भतपाणं तु। अदिमत्तो आहारो पमाणदोसो हवदि एसो ।।४७६।। तं होदि सयंगालं जं आहारेदि मुच्छिदो संतो। तं पुण होदि सधूमं जं आहारेदि णिंदिंदो ।।४७७।।
- अधः कर्मादि १६ उद्गम दोष -
- अधःकर्मदोष - देखे अधःकर्म ।
- अध्यधि दोष - संयमी साधुको आता देख उनको देनेके लिए अपने निमित्त चूल्हेपर रखे हुए जल और चावलोंमे और अधिक जल और चावल मिलाकर फिर पकावे। अथवा जब तक भोजन तैय्यार न हो, तब तक धर्मप्रश्नके बहाने साधुको रोक रखे, वह अध्यधि दोष है।
- पूतिदोष - प्रासुक आहारादिक वस्तु सचित्तादि वस्तुसे मिश्रित हो वह पूति होष है। प्रासुक द्रव्य भी पूतिकर्मसे मिला पूतिकर्म कहलाता है। उसके पाँच भेद हैं - चूल्ही (चूल्हा), ओखली, कड़छी, पकानेके बासन तथा गन्ध युक्त द्रव्य। इन पाँचोंमे संकल्प करना कि इन चूलि आदि से पका भोजन जब तक साधुको न दे दें तक तब अन्य किसीको नहीं देंगे। ये ही पाँच आरम्भ दोष हैं जो पूति दोष में गर्भित हैं ।।४२८।।
- मिश्रदोष - प्रासुक तैयार हुआ भोजन अन्य भेषधारियों के साथ तथा गृहस्थोंके साथ संयमी साधुओँको देनेका उद्देश्य करे तो मिश्र दोष जानना ।।४२९।।
- स्थापित दोष - जिस बासनमें पकाया था उससे दूसरे भाजनमें पके भोजनको रखकर अपने घरमें तथा दूसरेके घरमें जाकर उस अन्नको रख दे उसे स्थापित दोष जानना ।।४३०।।
- बलिदोष - यक्ष नागादि देवताओंके लिए जो बलि (पूजन) किया हो उससे शेष रहा भोजन बलिदोष सहित है। अथवा संयमियोंके आगमनके लिए जो बलिकर्म (सावद्य पूजन) करे वहाँ भी बलिदोष जानना ।।४३१।।
- प्राभृतदोष - प्राभृत दोष के दो भेद हैं - बादर और सूक्ष्म। इन दोनोंके भी दो-दो भेद हैं - अपकर्षण और उत्कर्षण। कालकी हानिका नाम अपकर्षण है, और कालकी वृद्धिको उत्कर्षण कहते हैं ।।४३२।। दिन, पक्ष, महीना, वर्ष इनको बदल कर जो आहार दान देना वह बादर प्राभृत दोष है। वह बादर दोष उत्कर्षण व अपकर्षण करनेसे दो प्रकारका है। सूक्ष्म प्रावर्तित दोष भी दो प्रकारका है। पूर्वाह्ण समय व अपराह्ण समयको पलटनेसे कालको बढ़ाना घटाना रूप है ।।४३३।।
- प्रादुष्कार दोष - प्रादुष्कार दोषके दो भेद हैं - संक्रमण और प्रकाशन। साधुके आ जानेपर भोजन भाजन आदिको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर लेजाना संक्रमण है और भाजनको मांजना या दीपकका प्रकाश करना अथवा मण्डपका उद्योतन करना आदि प्रकाशन दोष हैं ।।४३४।।
- क्रीत दोष - क्रीततर दोषके दो भेद हैं - द्रव्य और भाव। हर एकके पुनः दो भेद हैं - स्व व पर। संयमीके भिक्षार्थ प्रवेश करनेपर गाय आदि देकर बदलेमें भोजन लेकर साधुको देना द्रव्य क्रीत है। प्रज्ञप्ति आदि विद्या चा चेटकादि मन्त्रोंके बदलेमें आहार लेके साधुको देना भावक्रीत दोष है ।।४३५।।
- प्रामृष्य दोष - साधुओंको आहार करानेके लिए दूसरेसे उधार भात आदिक भोजन सामग्री लाकर देना प्रामृष्य दोष है। उसके दो भेद हैं - सवृद्धिक और अवृद्धिक। कर्जसे अधिक देना सवृद्धिक है। जितना कर्ज लिया उतना ही देना अवृद्धिक हैं ।।४३६।।
- परिवर्त दोष - साधुओंको आहार देनेके लिए अपने साठीके चावल आदिक देकर दूसरेसे बढिया चावलादिक लेकर साधुको आहार दे वह परिवर्त दोष जानना ।।४३७।।
- अभिघट दोष - अभिघट दोषके दो भेद हैं - एक देश और सर्वदेश। उसमें भी देशाभिघटके दो भेद हैं - आचिन्न और अनाचिन्न। पंक्तिबद्ध सीधे तीन अथवा सात घरोंसे आया योग्य भोजन आचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य है। और तितर-बितर किन्हीं सात घरोंसे आया अथवा पंक्तिबद्ध आठवाँ आदि घरोंसे आया हुआ भोजन अनाचिन्न है अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है ।।४३९।। सर्वाभिघट दोषके चार भेद हैं - स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश और परदेश। पूर्वादि दिशाके मोहल्लेसे पश्चिमादि दिशाके मोहल्लेमें भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है। इसी तरह शेष तीन भी जान लेने। इसमें ईर्यापथका दोष आता है ।।४४०।।
- उद्भिन्न दोष - मिट्टी लाख आदिसे ढका हुआ अथवा नामकी महोर कर चिह्नित जो औषध घी या शक्कर आदि द्रव्य हैं अर्थात् सील बन्द पदार्थोंको उघाड़कर या खोलकर देना उद्भिन्न दोष है। इसमें चींटी आदिके प्रवेशका दोष लगता है ।।४४१।।
- मालारोहण दोष - काष्ठ आदिकी बनी हूई सीढी अथवा पैड़ीसे घरके ऊपरके खनपर चढ़कर वहाँ रखे हुए पूवा लड्डू आदि अन्नको लाकर साधुको देना मालारोहण दोष है। इसमें दाताको विघ्न होता है ।।४४२।।
- आछेद्य दोष - संयमी साधुओंके भिक्षाके परिश्रमको देख राजा, चोर आदि गृहस्थियोंको ऐसा डर दिखाकर ऐसा कहें कि यदि तुम इन साधुओंको भिक्षा नहीं दोगे तो हम तुम्हारा द्रव्य छीन लेंगे ऐसा डर दिखाकर दिया गया आहार वह आछेद्य दोष है ।।४४३।।
- अनिसृष्ट दोष - अनीशार्थके दो भेद हैं - ईश्वर और अनीश्वर दोनेंके भी मिलाकर चार भेद हैं। पहला भेद ईश्वर सारक्ष तथा ईश्वर तीन भेद - व्यक्त, अव्यक्त व संघाट। दानका स्वामी देने की इच्छा करे और मन्त्री आदि मना करें तो दिया हुआ भी अनीशार्थ है। स्वामीसे अन्य जनोंका निषेध किया अनीश्वर कहलाता है। वह व्यक्त अर्थात् वृद्ध, अव्यक्त अर्थात् बाल और सङ्घाट अर्थात् दोनोंके भेदसे तीन प्रकारका है ।।४४४।।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या ६९/२) (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/५-६)
- धात्री आदि १६ उत्पादन दोष
- धात्री दोष - पोषन करे वह धाय कहलाती है। वह पाँच प्रकारकी होती है-स्नान करानेवाली, आभूषण पहनानेवाली, बच्चोंको रमानेवाली, दूध पिलानेवली तथा मातावत अपने पास सुलानेवली। इनका उपदेश करके जो साधु भोजन ले तो धात्री दोष युक्त होता है। इससे स्वध्यायका नाश होता है तथा साधु मार्गमे दूषण लगता है ।।४४७।।
- दूत दोष - कोई साधु अपने ग्रामसे व अपने देशसे दूसरे ग्राममें व दूसरे देशमें जलके मार्ग नावमें बैठकर व स्थलमार्ग व आकाशमार्गसे होकर जाय। वहाँ पहुँचकर किसीके सन्देशको उसके सम्बन्धीसे कह दे, फिर भोजन ले तो वह दूत दोष युक्त होता है ।।४४८।।
- निमित्त दोष - निमित्त ज्ञानके आठ भेद हैं - मसा, तिल आदि व्यञ्जन, मस्तक आदि अङ्ग, शब्द रूप स्वर, वस्त्रादिकका छेद वा तलवारादिका प्रहार, भूमिविभाग, सूर्यादि ग्रहोंका उदय अस्त होना, पद्म चक्रादि लक्षण और स्वप्न। इन अष्टांग निमित्तोंसे शुभाशुभ कहकर भोजन-लेनेसे साधु निमित्त दोष युक्त होता है।
- आजीव दोष - जाति, कुल, चारित्रादि शिल्प तपश्चरणकी क्रिया आदि द्वारा अपनेको महान् प्रगट करने रूप वचन गृहस्थोंको कहकर आहार लेना आजीव दोष है। इसमें बलहीनपना व दीनपनाका दोष आता है ।।४५०।।
- वनीपक दोष - कोई दाता ऐसे पूछे कि कुत्ता, कृपण, भिखारी, असदाचारी, ब्राह्मण, भेषी साधु तथा त्रिदण्डी आदि साधु और कौआ इनको आहारादि देनेमें पुण्य होता है या नहीं? तो उसकी रुचिके अनुकूल ऐसा कहा कि पुण्य ही होता है। फिर भोजन करे तो वनीपक दोष युक्त होता है। इसमें दीनता प्रगट होती है ।।४५१।।
- चिकित्सा दोष - चिकित्सा शास्त्रके आठ भेद हैं - बालचिकित्सा, शरीरचिकित्सा, रसायन, विषतन्त्र, भूततंत्र, क्षारतन्त्र शलाकाक्रिया, शल्यचिकित्सा। इनका उपदेश देकर आहार लेनेसे चिकित्सा दोष होता है ।।४५२।।
७-१०. क्रोधी, मानी, मायी, लोभी दोष - क्रोधसे भिक्षा लेना, मानसे आहार लेना, मायासे आहार लेना, लोभसे आहार लेना, इस प्रकार क्रोध, मान, मायी, लोभ रूप उत्पादन दोष होता है ।।४५३।।
- पूर्व स्तुति दोष - दातारके आगे `तुम दानपति हो, यशोधर हो, तुम्हारी कीर्ति लोक प्रसिद्ध हैं' इस प्रकार के वचनों द्वारा उसकी प्रशंसा करके आहार लेना, अथवा दातार यदि भूल गया हो तो उस याद दिलाया कि पहले तो तुम बड़े दानी थे, अब कैसे भूल गये, इस प्रकार प्रशंसा करके आहार लेना पूर्व स्तुति दोष है ।।४५५।।
- पश्चात् स्तुति दोष - आहार लेकर पीछे जो साधु दाताकी प्रशंसा करे, कि तुम प्रसिद्ध दानपति हो, तुम्हारा यश प्रसिद्ध है, ऐसा कहनेसे पश्चात् स्तुति दोष लगता है ।।४५६।।
- विद्या दोष - जो साधने से सिद्ध हो वह विद्या है, उसे विद्याकी आशा देनेसे कि हम तुमको विद्या देंगे तथा उस विद्याकी महिमा वर्णन करनेसे जो आहार ले उस साधुके विद्या दोष आता है ।।४५७।।
- मन्त्र दोष - पढने मात्रसे जो मन्त्र सिद्ध हो वह पठित सिद्ध मन्त्र होता है, उस मन्त्रकी आशा देकर और उसकी महिमा कहकर जो साधु आहार ग्रहण करता है उसके मन्त्र दोष होता है ।।४५८।। आहार देनेवाले व्यन्तरादि देवोंको विद्या तथा मन्त्रसे बुलाकर साधन करे वह विद्या मन्त्र दोष है। अथवा आहार देनेवाले गृहस्थोंके देवताको बुलाकर साधना वह भी विद्या मन्त्र दोष है ।।४५९।।
- चूर्ण दोष - नेत्रोंका अञ्जन, भूषण साफ करनेका चूर्ण, शरीरकी शोभा बढानेवाला चूर्ण - इन चूर्णोंकी विधि बतलाकर आहार ले वहाँ चूर्ण दोष होता है ।।४६०।।
- मूल कर्म दोष - जो वशमें नहीं है उनको वशमें करना, जो स्त्री पुरुष वियुक्त हैं उनका संयोग कराना - ऐसे मन्त्र-तन्त्र आदि उपाय बतलाकर गृहस्थोंसे आहार लेना मूलकर्मदोष है।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या ७१/१), (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/२०-२७)
- शङ्कितादि १० अशन दोष
- शङ्कित दोष - अशन, पान, खाद्य व स्वाद्य यह चार प्रकार भोजन आगमानुसार मेरे लेने योग्य है अथवा नहीं ऐसे सन्देह सहित आहार को लेना संकित दोष है ।।३६३।।
- मृक्षित दोष - चिकने हाथ व पात्र तथा कड़छीसे भात आदि भेजन देना मृक्षित दोष है। उसका सदा त्याग करे ।।४६४।।
- निक्षिप्त दोष - अप्रासुक सचित्त पृथिवी, जल, तेज, हरितकाय, बीजकाय, त्रसकाय, जीवोंके ऊपर रखा हुआ आहार इस प्रकार छह भेद वाला निक्षिप्त दोष है ।।४६५।।
- पिहित दोष - जो आहार अप्रासुक वस्तुसे ढँका हो, उसे उघाड़ कर दिया गये आहार को लेना पिहित दोष होता है ।।४६६।।
- संव्यवहरण दोष - भोजनादिका देन-लेन शीघ्रतासे करते हुए, बिना देखे भोजन-पान दे तो उसको लेनेमें संव्यवहरण दोष होता है ।।४६७।।
- दायक दोष - जो स्त्री बालकका शृङ्गार कर रही हो, मदिरा पीनेमें लम्पट हो, रोगी हो, मुरदेको जलाकर आया हो, मूत्रादि करके आया हो, नपुञ्सक हो, आयु आदिसे पीड़ित हो, वस्त्रादि ओढ़े हुए न हो, मूत्रादि करके आया हो, मूर्छासे गिर पड़ा हो, वमन करके आया हो, लोहू सहित हो, दास या दासी हो, अर्जिका रक्तपटिका आदि हो, अंगको मर्दन करने वाली हो, - इन सबोंके हाथसे मुनि आहार न लें ।।४६८।। अति बालक हो, अधिक बूढी हो, भोजन करती जूठे मुंह हो, पाँच महीना आदिके गर्भसे युक्त हो, अन्धी हो, भीत आदिके आँतरेसे या सहारेसे बैठी हो, ऊँची जगहपर बैठी हो, नीची जगहपर बैठी हो ।।४६९।। मूँहसे फूंककर अग्नि जलाना, काठ आधि डालकर आग जलाना, काठको जलानेके लिए सरकाना, राखसे अग्नि को ढँकना, जलादिसे अग्निका बुझाना, तथा अन्य भी अग्निको निर्वातन व घट्टन आदि करने रूप कार्य करते हुए भोजन देना ।।४७०।। गोबर आदिसे भीतिका लीपना, स्नानादि क्रिया करना, दूध पीते बालककों छोड़कर आहार देना, इत्यादि क्रियाओंसे युक्त होते हुए आहार दे तो दायक दोष जानना ।।४७१।।
- उन्मिश्र दोष - मिट्टी, अप्रासुक जल, पान-फूल, फल आदि हरी, जौ, गेहुँ आदि बीज, द्वीन्द्रियादिक त्रस जीव - इन पाँचोंसे मिला हुआ आहार देनेसे उन्मिश्र दोष होता है ।।४७२।।
- अपरिणत दोष - तिलके धोनेका जल, चावलका जल, गरम होके ठण्ढा हुआ जल, तुषका जल, हरण चूरण आदि कर भी परिणित न हुआ जल हो वह नहीं ग्रहण करना। ग्रहण करनेसे अपरिणत दोष आता है ।।४७३।।
- लिप्त दोष - गेरू, हरताल, खड़िया, मैनशिल, चावल, आदिका चून, कच्चा शाक - इनसे लिप्त हाथ तथा पात्र अथवा अप्रासुक जलसे भीँगा हाथ तथा पात्र इन दोनोंसे भोजन दे तो लिप्त दोष आता है ।।४७४।।
- त्यक्त दोष - बहुत भोजनको थोड़ा भोजन करे अर्थात् जूठ छोड़ना या बहुत-सा भोजन कर पात्रमें-से नीचे गिराता भोजन करे छाछ आदिसे झरते हुए हाथ से भोजन करे अथवा किसी एक आहारको (अशन, पान, खाद्य स्वाद्यादिमें-से किसी एकको) छोड़कर भोजन करेतो त्यक्त दोष आता है ।।४७५।।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या ७२/१), (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/२९-३६)
- संयोजनादि ४ दोष
- संयोजना दोष - जो ठण्डा भोजन गर्म जलसे मिलाना अथवा ठण्डा जल गर्म भोजनसे मिलाना, सो संयोजना दोष है ।।४७६।।
- प्रमाण दोष - मात्रासे अधिक भोजन करना प्रमाण दोष है ।।४७७।।
- अङ्गार दोष - जो मूर्च्छित हुआ अति तृष्णासे आहार ग्रहण करता है उसके अङ्गार दोष होता है।
- धूम दोष - जो निन्दा अर्थात् ग्लानि करता हुआ भोजन करता है उसके धूम दोष होता है ।।४७७।।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या ७२/४), (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/३७)
- दातार सम्बन्धी विचार
- दातारके गुण व दोष
राजवार्तिक अध्याय संख्या ७/३९/४/५५९/२९ प्रतिग्रहीतरि अनसूया त्यागेऽविषादः दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः कुशलाभिसन्धिता दृष्टफलानेपेक्षिता निरुपरोधत्वमनिदानत्वमित्येवमादिः दातृविशेषोऽवसेयः।
= पात्रमें ईर्षा न होना, त्यागमें विषाद न होना, देनेकी इच्छा करने वालेमें तथा देने वालोमें या जिसने दान दिया है सब में प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फलकी आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसीसे विसंवाद नहीं करना आदि दाताकी विशेषताए हैं।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/३९/३७३/६)
महापुराण सर्ग संख्या /२०/८२-८५ श्रद्धा शक्तिश्च भक्तिश्च विज्ञानञ्चाप्यलब्धता। क्षमात्यागश्च सत्पैते प्रोक्ता दानपतैर्गुणाः ।।८२।। श्रद्धास्तिक्यमनास्तिवये प्रदाने स्यादनादरः। भवेच्छक्तिरनालस्यं भक्तिः स्यात्तद्गुणादरः ।।८३।। विज्ञानं स्यात् क्रमज्ञत्वं देयासक्तिरलब्धताक्षमातितिक्षाददतस्त्यागः सद्व्ययशीलता ।।८४।। इति सप्तगुणोपेतो दाता स्यात् पात्रसंपदि। व्यपेतश्च निदानादेः दोषान्निश्रेयसोद्यतः ।।८५।।
= श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा और त्याग ये दानपति अर्थात् दान देने वालेके सात गुण कहलाते हैं ।।८२।। श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धिको कहते हैं; आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् श्रद्धाके न होनेपर दान देनेमें अनादार हो सकता है। दान देनेमें आलस्य नहीं करना सो शक्ति नामका गुण है, पात्रके गुणोमें आदर करना सो भक्ति नामका गुण है ।।८३।। दान देने आदिके क्रमका ज्ञान होना सो विज्ञान नामका गुण है, दान देनेकी आसक्तिको अलुब्धता कहते हैं, सहनशीलता होना क्षमा गुण है और उत्तम द्रव्य दानमें देना सो त्याग है ।।८४।। इस प्रकार जो दाता ऊपर कहे सात गुणों सहित है और निदानादि दोषसे रहित होकर पात्ररूपी सम्पदामें दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करनेके लिए तत्पर होता है ।।८५।।
गुणभद्र श्रावकाचार श्लोक संख्या १५१ श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं पुष्टिः शक्तिरलब्धता। क्षमा च यत्र सप्तैते गुणाः दाता प्रशस्यते ।।१५१।।
= श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, सन्तोष, शक्ति, अलुब्धता और क्षमा ये सात गुण जिसमें पाये जाये, वह दातार प्रशंसनीय है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक संख्या १६९ ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिर्निष्कपटतानसूयत्वम्। अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ।।१६९।।
= इस लोक सम्बन्धी फलकी अपेक्षारहित, क्षमा, निष्कपटता, ईर्षारहितता, अखिन्नभाव, हर्षभाव और निरभिमानता, इस प्रकार ये सात निश्चय करके दाताके गुण हैं।
चारित्रसार पृष्ठ संख्या २६/६ में उद्धृत “श्रद्धा शक्तिरलुब्धत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा। इति श्रद्धादयः सप्त गुणाः स्युर्गृहमेधिनाम्।।
= श्रद्धा, भक्ति, निर्लोभता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा आदि सात दान देने वाले गृहस्थोंके गुण है।
(वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा संख्या १५१)
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/४७ भक्तिश्रद्धासत्त्वतुष्टि-ज्ञानालौल्यक्षमागुणः। नवकोटिविशुद्धस्य दाता दानस्य यः पतिः ।।४७।।
= भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौल्य और क्षमा इनके साथ असाधारण गुण सहित जो श्रावक मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना इन नौ कोटियों के द्वारा विशुद्ध दानका अर्थात् देने योग्य द्रव्यका स्वामी होता है वह दाता कहलाता है।
- दान देने योग्य अवस्थाएँ विशेष
भ.आ/वि.१२०६/१२०४/१७ स्तनं प्रयच्छन्त्या, गर्भिण्या वा दीयमानं न गृह्णीयात्। रोगिणा, अतिवृद्धेन, बालेनोत्मत्तेन, पिशाचेन, मुग्धेनान्धेन, मूकेन, दूर्बलेन, भीतने, शङ्कितेन, अत्यासन्नेन, अदूरेण लज्जाव्यावृतमुख्या, आवृतमुख्या, उपानदुपरिन्यस्तपादेन वा दीयमानं न गृह्णीयात्। स्त्रण्डेन भिन्नेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं वा।
= जो अपने बालकको स्तन पान करा रही है और जो गर्भिणी है ऐसी स्त्रियोंका दिया हुआ आहार न लेना चाहिए। रोगी अतिशय वृद्ध, बालक, उन्मत्त, अंधा, गूंगा, अशक्त, भययुक्त, शंकायुक्त, अतिशय नजदीक जो खड़ा हुआ है, जो दूर खड़ा हुआ है ऐसे पुरुषसे आहार नहीं लेना चाहिए। लज्जासे जिसने अपना मुँह फेर लिया है, जिसने जूता अथवा चप्पल पर पाँव रखा है, जो ऊँची जगह पर खड़ा हुआ है, ऐसे मनुष्यका दिया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। टूटी हुई अथवा खण्डयुक्त हुई ऐसी कड़छीके द्वादा दिया हुआ नहीं लेना चाहिए।
(अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/३४ मे उद्धृत) (और भी विशेष - देखे आहार II/४/३ में दायक दोष)
- भोजन ग्रहणके कारण व प्रयोजन
- संयम रक्षार्थ करते है शरीर रक्षार्थ नहीं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४८१,४८३ ण बालाउसाउअट्ठं ण शरीरस्सुवसुवचयट्ठं तेजट्ठं णाणट्ठं संजमट्ठं झाड़ट्ठं चेव भुंजेज्जो ।।४८१।।...। जत्तासाधणमत्तं चाद्दसमलवज्जिदं भुंजे ।।४८३।।
= साधु बलके लिए, आयु बढ़ानेके लिए, स्वादके लिए, शरीरके पुष्ट होनेके लिए, शरीरके तेज बढ़ानेके लिए भोजन नहीं करते। किन्तु वे ज्ञान (स्वाध्याय) के लिए, संयम पालनेके लिए, ध्यान होनेके लिए भोजन करते हैं ।।४८१।। ...प्राणोंके धारणके लिए हो अथवा मोक्ष यात्राके साधनेके लिए हो, और चौदह मलोंसे रहित हो ऐसा भोजन साधु करे ।।४८३।।
रयणसार गाथा संख्या ११३ भुंजेइ जहालाहं लहेइ जइ णाणसंजमणिमित्तं। झणज्झयणंणिमित्तं अणियारो मोक्खमग्गरओ ।।११३।।
= मुनि केवल संयम और ज्ञानकी वृद्धिके लिए तथा ध्यान और अध्ययन करनेके लिए जो मिल गया शुद्ध भोजन, उसको ग्रहण करते हैं वे मुनि अवश्य ही मोक्षमार्गमें लीन रहते हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/६१ क्षुच्छमं संयम स्वान्यवैयावृत्त्यसुस्थितिम्। वाञ्छन्नावयश्कं ज्ञानध्यानादींश्चाहरेन्मुनिः ।।६१।।
= क्षुधा बाधाका उपशमन, संयमकी सिद्धि, और स्व परकी वैयावृत्य, - आपत्तियोंका प्रतिकार करनेके लिए तथा प्राणोंकी स्थिति बनाये रखनेके लिये एवं आवश्यकों और ध्यानाध्ययनादिकोंको निर्विघ्न चलते रहनेके लिए मुनियोंको आहार ग्रहण करना चाहिए। और भी देखे [[नीचे मूलाचार]] / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४७९।
- शरीरके रक्षणार्थ भी कथंचित् ग्रहण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४७९ वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संयमट्ठाए। तध पाण धम्मचिंता कुज्जा एदेहि आहारं ।।४७९।।
= क्षुधाकी वेदनाके उपशमार्थ, वैयावृत्य करनेके लिए, छह आवश्यक क्रियाके अर्थ, तेरह प्रकार चारित्रके लिए, प्राण रक्षाके लिए, उत्तम क्षमादि धर्मके पालनके लिए भोजन करना चाहिए। और भी देखे उपर -
(अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/६१)
रयणसार गाथा संख्या ११६ वहुदुक्खभायणं कम्मक्कारणं भिण्णमप्पणो देहो। तं देहं धम्मणुट्ठाण कारणं चेदि पीसए भिक्खू ।।११६।।
= यह शरीर दुखोंका पात्र हैं, कर्म आनेका कारण है और आत्मासे सर्वथा भिन्न है। ऐसे शरीरको मुनिराज कभी पोषण नहीं करते हैं, किन्तु यही शरीर धर्मानुष्ठानका कारण है, यही समझकर इस शरीरसे धर्म सेवन करनेके लिए और मोक्षमें पहुंचनेके लिए मुनिराज इसको थोड़ा सा आहार देते हैं।
पद्मपुराण सर्ग ४/७९...। भुञ्जते प्राणधृत्यर्थं प्राणा धर्मस्य हेतवः ।।७९।।
= (मुनि) भोजन प्राणोंकी रक्षांके लिए ही करते हैं, क्योंकि प्राण धर्मके कारण हैं।
- शरीरके उपचारार्थ औषध आदिकी भी इच्छा नहीं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ८३९-८४० उप्पण्णम्मि य वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चेव। अधियासिंति सुधिदिया कार्यातगिंछं ण इच्छंति ।।४३९।। ण य दुम्मणा ण विहला अणाउला होंति चेय सप्पुरिसा। णिप्पड़ियम्मसरीरा देंति उरं वाहिरोगाणं ।।८४०।।
= ज्वररोगादिक उत्पन्न होने पर भी तथा मस्तकमें पीड़ा होने पर भी चारित्रमें दृढ परिणाम वाले वे मुनि पीड़ाको सहन कर लेते हैं परन्तु शरीरका इलाज करने की इच्छा नहीं रखते ।।८३९।। वे सत्पुरुष रोगादिकके आने पर भी मन में खेद खिन्न नहीं होते, न विचारशून्य होते हैं, न आकृल होते हैं किन्तु शरीरमें प्रतिकार रहित हुए व्याधि रोगोंके लिए हृदय दे देते हैं। अर्थात् सबको सहते हैं।
- शरीर व संयमार्थ ग्रहणका समन्वय
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ८१५ अक्खोमक्खणमेत्तं भुंजंति मुणी पाणधारणणिमित्तं। पाणं धम्मणिमित्तं घम्मंपि चरंति मोक्खट्ठं ।।८१५।।
= गाड़ीके धुरा चुपरनेके समान, प्राणोंके धारणके निमित्त वे मुनि आहार लेते हैं, प्राणोंको धारण करना धर्मके निमित्त है और धर्मको मोक्षके निमित्त पालते हैं ।।८१५।।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २३० बालवृद्धआन्तग्लानेन संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंययसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा बालवृद्धश्रान्त ग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृद्वप्याचरणमाचरणीयमित्यापवादसापेक्ष उत्सर्गः।
= बाल, वृद्ध-श्रान्त-ग्लानके संयमका जो कि शुद्धात्म तत्त्व का साधनभूत होनेसे मूलभूत है उसका छेद जैसे न हो उस प्रकारका संयत ऐसा अपने योग्य अतिकठोर आचरण आचरते हुए (उसके) शरीरका-जोकि शुद्धत्मतत्त्वके साधनभूत संयमका साधन होनेसे मूलभूत है उसका (भी) छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानके (अपने) योग्य मृदु आचरण भी आचरना। इस प्रकार अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग है।
आत्मानुशासन श्लोक संख्या ११६-११७ अमी प्ररूठवैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत्। तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ।।११६।। क्षणार्धमपि देहेन साहचर्यं सहेत कः। यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्बोधो निरोधकः ।।११७।।
= जिनके हृदयमें विरक्ति उत्पन्न हई है, वे शरीरकी रक्षा करके जो चिरकाल तक तपश्चरण करते हैं, वह निश्चयसे ज्ञानका ही प्रभाव है ऐसा प्रतीत होता है ।।११६।। यदि ज्ञान पौंचे (हथेलीके ऊपरका भाग) को ग्रहण करके रोकने वाला न होता तो कौन सा विवेकी जीव उस शरीरके साथ आधे क्षणके लिए भी रहना सहन करता? अर्थात् नहीं करता।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/१४० शरीरं धर्मसंयुक्त रक्षितव्यं प्रयत्नतः। इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति ।।१४०।।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/९ शरीरमाद्यं किल धर्मसाधनं तदस्य यस्येत् स्थितयेऽशनादिना। तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं, न वानुधावन्त्यनुबद्धतुड्वशात् ।।९।।
= जिससे धर्मका साधन हो सकता है, उस शरीरकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए इस शिक्षाको आप्त भगवानके उपदिष्ट प्रवचनका तुष-छिलका समझना चाहिए, क्योंकि आत्म-सिद्धि के लिए शरीर रक्षाका प्रयत्न निरुपयोगी है ।।१४०।। शरीरके बिना तप तथा और भी ऐसे ही धर्मोंका साधन नहीं हो सकता। अतएव आगममें ऐसा कहा है कि रत्नत्रय रूप धर्मका आद्य साधन शरीर है। इसीलिए साधुओंको भी भोजन पान शयन आदिके द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस बातको लक्ष्यमें रखना चाहिए कि भोजनादिमें प्रवृत्ति ऐसी व उतनी ही हो जिससे कि इन्द्रियाँ अपनी अधीन बनी रहें। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अनादिकालकी वासनाके वशवर्ती होकर वे उन्मार्गकी तरफ भी दौड़ने लगें ।।९।।
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