काल 01: Difference between revisions
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Revision as of 16:21, 19 August 2020
यद्यपि लोक में घंटा, दिन, वर्ष आदि को ही काल कहने का व्यवहार प्रचलित है, पर यह तो व्यवहार काल है वस्तुभूत नहीं है। परमाणु अथवा सूर्य आदि की गति के कारण या किसी भी द्रव्य की भूत, वर्तमान, भावी पर्यायों के कारण अपनी कल्पनाओं में आरोपित किया जाता है। वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म द्रव्य है, जिसके निमित्त से ये सर्व द्रव्य गमन अथवा परिणमन कर रहे हैं। यदि वह न हो तो इनका परिणमन भी न हो, और उपरोक्त प्रकार आरोपित काल का व्यवहार भी न हो। यद्यपि वर्तमान व्यवहार में सैकेंड से वर्ष अथवा शताब्दी तक ही काल का व्यवहार प्रचलित है। परंतु आगम में उसकी जघन्य सीमा ‘समय’ है और उत्कृष्ट सीमा युग है। समय से छोटा काल संभव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय भी एक समय से जल्दी नहीं बदलती। एक युग में उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी ये दो कल्प होते हैं, और एक कल्प में दुःख से सुख की वृद्धि अथवा सुख से दुःख की ओर हानि रूप दुषमा सुषमा आदि छ: छ: काल कल्पित किये गये हैं। इन कालों या कल्पों का प्रमाण कोड़ाकोड़ी सागरों में मापा जाता है।
- काल सामान्य निर्देश
- काल सामान्य का लक्षण।
- निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद।
- दीक्षा-शिक्षादि काल की अपेक्षा भेद।
- निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद
- स्वपर काल के लक्षण।
- स्वपर काल की अपेक्षा वस्तु में विधि निषेध–देखें सप्तभंगी - 5.8
- दीक्षा-शिक्षादि कालों के लक्षण।
- ग्रहण व वासनादि कालों के लक्षण।
- स्थितिबंधापसरण काल–देखें अपकर्षण - 4.4।
- स्थितिकांडकोत्करण काल–देखें अपकर्षण - 4.4।
- अवहार काल का लक्षण।
- निक्षेप रूप कालों के लक्षण।
- सम्यग्ज्ञान का काल नाम अंग।
- पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे संभव है।
- दीक्षा-शिक्षादि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं।
- काल की अपेक्षा द्रव्य में भेदाभेद–देखें सप्तभंगी - 5.8
- आबाधाकाल–देखें आबाधा
- काल सामान्य का लक्षण।
- निश्चय काल निर्देश व उसकी सिद्धि
- निश्चय काल का लक्षण।
- काल द्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है।
- काल द्रव्य गति में भी सहकारी है।
- काल द्रव्य के 15 सामान्य-विशेष स्वभाव।
- काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य हैं।
- कालद्रव्य व अनस्तिकायपना–देखें अस्तिकाय
- काल द्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक् पृथक् अवस्थित है।
- काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये।
- समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं।
- समयादि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- परमाणु आदि की गति में भी धर्मादि द्रव्य निमित्त हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- काल द्रव्य न मानें तो क्या दोष है।
- अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या ?
- स्वयंकाल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या ?
- काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखंड द्रव्य मानिए।
- काल द्रव्य क्रियावान् नहीं है।–देखें द्रव्य - 3।
- कालद्रव्य क्रियावान् क्यों नहीं?
- कालाणु को अनंत कैसे कहते हैं?
- कालद्रव्य को जानने का प्रयोजन।
- निश्चय काल का लक्षण।
- कालद्रव्य का उदासीन कारणपना।–देखें कारण - III.2।
- समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्संबंधी शंका समाधान—
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश।
- समय निमिषादि काल प्रमाणों की सारणी–देखें गणित - I.1।
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश।
- समयादि की उत्पत्ति के निमित्त।
- परमाणु की तीव्र गति से समय का विभाग नहीं हो जाता।
- व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है।
- देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है।
- जब सब द्रव्यों का परिणमन काल है तो मनुष्य क्षेत्र में ही इसका व्यवहार क्यों ?
- भूत वर्तमान व भविष्यत् काल का प्रमाण।
- काल प्रमाण मानने से अनादित्व के लोप की आशंका
- निश्चय व व्यवहार काल में अंतर।
- भवस्थिति व कायस्थिति में अंतर–देखें स्थिति - 2।
- उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
- कल्प काल निर्देश।
- कल्प काल निर्देश।
- काल के उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेद।
- दोनों के सुषमादि छह-छह भेद।
- सुषमा दुषमा सामान्य का लक्षण।
- अवसर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।
- उत्सर्पिणी काल का लक्षण व काल प्रमाण।
- उत्सर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।
- छह कालों का पृथक् पृथक् प्रमाण।
- अवसर्पिणी के छह भेदों में क्रम से जीवों की वृद्धि होती है।
- उत्सर्पिणी के छह कालों में जीवों की क्रमिक हानि व कल्पवृक्षों की क्रमिक वृद्धि।
- युग का प्रारंभ व उसका क्रम।
- कृतयुग या कर्मभूमि का प्रारंभ–देखें भूमि - 4।
- हुंडावसर्पिणी काल की विशेषताएँ।
- ये उत्सर्पिणी आदि षट्काल भरत व ऐरावत क्षेत्रों में ही होते हैं।
- मध्यलोक में सुषमादुषमा आदि काल विभाग।
- छहों कालों में सुख-दुःख आदि का सामान्य कथन।
- चतुर्थ काल की कुछ विशेषताएँ।
- पंचम काल की कुछ विशेषताएँ।
- पंचम काल में भी ध्यान व मोक्षमार्ग–देखें धर्मध्यान - 5।
- षट्कालों में आयु आहारादि की वृद्धि व हानि प्रदर्शक सारणी।
- कालानुयोगद्वार तथा तत्संबंधी कुछ नियम
- कालानुयोगद्वार का लक्षण।
- काल व अंतरानुयोगद्वार में अंतर।
- कालप्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम।
- ओघ प्ररूपणा संबंधी सामान्य नियम।
- ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- ओघ प्ररूपणा में एक जीव की जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- गुणस्थानों विशेष संबंधी नियम।–देखें सम्यक्त्व व संयम मार्गणा ।
- देवगति में मिथ्यात्व के उत्कृष्टकाल संबंधी नियम।
- इंद्रिय मार्गणा में उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि।
- कायमार्गणा में त्रसों का उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि।
- योगमार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।
- वेदमार्गणा में स्त्रीवेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि।
- वेदमार्गणा में पुरुषवेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि।
- कषाय मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- मति, श्रुत, ज्ञान का उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।–देखें वेदक सम्यक्त्ववत् ।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा एक समय जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा अंतर्मुहूर्त जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- लेश्या परिवर्तन क्रम संबंधी नियम।
- वेदक सम्यक्त्व का 66 सागर उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।
- कालानुयोगद्वार का लक्षण।
- सासादन के काल संबंधी–देखें सासादन ।
- कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ
- सारणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय।
- जीवों की काल विषयक ओघ प्ररूपणा।
- जीवों के अवस्थान काल विषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा।
- सम्यक्त्व प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा
- पाँच शरीरबद्ध निषेकों का सत्ताकाल।
- पाँच शरीरों की संघातन परिशातन कृति।
- योग स्थानों का अवस्थान काल।
- अष्टकर्म के चतुर्बंध संबंधी ओघ आदेश प्ररूपणा।
- " " उदीरणा संबंधी ओघ आदेश प्ररूपणा
- " " उदय " " "
- " " अप्रशस्तोपशमना " "
- " " संक्रमण " " "
- " " स्वामित्व (सत्त्व) " "
- मोहनीय के चतु:बंधविषयक ओघ आदेश प्ररूपणा।
- काल-सामान्य निर्देश
- काल सामान्य का लक्षण (पर्याय)
धवला 4/1,5,1/322/6 अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूदकालाभावा परिणामाणं च आणंतिओवलंभा।=परिणामों से पृथक् भूतकाल का अभाव है, तथा परिणाम अनंत पाये जाते हैं।
धवला 9/4,1,2/27/11 तीदाणागयपज्जायाणं...कालत्तब्भुवगमादो।=अतीत व अनागत पर्यायों को काल स्वीकार किया गया है।
धवला/ पू./277 तदुदाहरणं संप्रति परिणमनं सत्तयावधार्यंत। अस्ति विवक्षितत्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह।277।=सत् सामान्य रूप परिणमन की विवक्षा से काल, सामान्य काल कहलाता है। तथा सत् के विवक्षित द्रव्य गुण वा पर्याय रूप अंशों के परिणमन की अपेक्षा से जब काल की विवक्षा होती है वह विशेष काल है।
- निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद
सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/2 कालो हि द्विविध: परमार्थकालो व्यवहारकालश्च।=काल दो प्रकार का है–परमार्थकाल और व्यवहारकाल। ( सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 ); ( सर्वार्थसिद्धि/4/14/246/4 ); ( राजवार्तिक/4/14/2/222/1 ); ( राजवार्तिक/5/22/24/482/1 )
तिलोयपण्णत्ति/4/279 कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हुवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेणं अमुक्खकालो पयट्टेदि।=काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।
- दीक्षा-शिक्षा आदि काल की अपेक्षा भेद
गोम्मटसार कर्मकांड/583 विग्गहकम्मसरीरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते। आणावचिपज्जत्ते कमेण पंचोदये काला।583।=ते नामकर्म के उदय स्थान जिस-तिस काल विषैं उदय योग्य हैं तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। ते काल विग्रहगति, वा कार्मण शरीरविषैं, मिश्रशरीरविषैं, शरीर पर्याप्ति विषैं, आनपान पर्याप्ति विषैं, भाषा-पर्याप्ति विषैं अनुक्रमतैं पाँच जानने।
गोम्मटसार कर्मकांड/615 (इस गाथा) वेदककाल व उपशमकाल ऐसे दो कालों का निर्देश है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/11 दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थभेदेन षट्काला भवंति।=दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कारकाल, सल्लेखनाकाल और उत्तमार्थकाल के भेद से काल के छह भेद हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 तत्स्थिते: सोपक्रमकाल: अनुपक्रमकालश्चेति द्वौ भंगौ भवत:।=उनकी स्थिति (काल) के दोय भाग हैं—एक सोपक्रमकाल, एक अनुपक्रमकाल।
- निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद
धवला 4/1,5,1/ पृ./पं णामकालो ठवणकालो दव्वकालो भावकालो चेदिकालो चउव्विहो (313/11) सा दुविहा, सब्भावासब्भावभेदेण।...दव्वकालो दुविहो, आगमदो णोआगमदो य।...णो आगमदो दव्वकालो जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तभेदेण तिविहो। तत्थ जाणुगसरीरणोआगमदव्वकालो भविय-वट्टमाण-समुज्झादभेदेण तिविहो। (314/1)। भावकालो दुविहो, आगम-णोआगमभेदा।=नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल और भावकाल इस प्रकार से काल चार प्रकार का है (313/11)। स्थापना, सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना के भेद से दो प्रकार की है।...आगम और नोआगम के भेद से द्रव्यकाल दो प्रकार का है।...ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्वयतिरिक्त के भेद से नोआगम द्रव्यकाल तीन प्रकार का है, उनमें ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्यकाल भावी, वर्तमान और व्यक्त के भेद से तीन प्रकार का है (314/1)। आगम और नोआगम के भेद से भावकाल दो प्रकार का है।
धवला 4/1,5,1/322/4 सामण्णेण एयविहो। तीदो अणागदो वट्टमाणो त्ति तिविहो। अथवा गुणट्ठिदिकालो भवट्ठिदिकालो कम्मट्ठिदिकालो कायट्ठिदिकालो उववादकालो भवटि्ठदिकालो त्ति छव्विहो। अहवा अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूतकालाभावा, परिणामाणां च आणंतिओवलंभा।=सामान्य से एक प्रकार का काल होता है। अतीतानागत वर्तमान की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। अथवा गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कर्मस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और भावस्थितिकाल, इस प्रकार काल के छह भेद हैं। अथवा काल अनेक प्रकार का है, क्योंकि परिणामों से पृथग्भूत काल का अभाव है, तथा परिणाम अनंत पाये जाये।
धवला 11/4,2,6,1/75-77/4
चार्ट - स्वपर काल के लक्षण
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमय: कालो भण्यते।=वर्तमान शुद्ध पर्याय से परिणत आत्मद्रव्य की वर्तमान पर्याय उसका स्वकाल कहलाता है।
पंचाध्यायी x`/5/274,471 कालो वर्तनमिति वा परिणमनवस्तुन: स्वभावेन।...।274। काल: समयो यदि वा तद्देशे वर्तमानकृतिश्चार्थात् ।...।471।=वर्तना को अथवा वस्तु के प्रतिसमय होने वाले स्वाभाविक परिणमन को काल कहते हैं।...।274। काल नाम समय का है अथवा परमार्थ से द्रव्य के देश में वर्तना के आकार का नाम भी काल है।...।471। राजवार्तिक/ हिं./1/6/49 गर्भ से लेकर मरण पर्यंत (पर्याय) याका काल है।
राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 निश्चयकालकरि वर्तया जो क्रियारूप तथा उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप परिणाम (पर्याय) सो निश्चयकाल निमित्त संसार (पर्याय) है। राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 अतीत अनागत वर्तमानरूप भ्रमण सो (जीव) का व्यवहार काल (परकाल) निमित्त संसार है। - दीक्षा शिक्षादि कालों के लक्षण
- दीक्षादि कालों के अध्यात्म अपेक्षा लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/11 यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमाचार्यं प्राप्यात्माराधनार्थं बाह्याभ्यंतरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति स दीक्षाकाल:, दीक्षानंतरं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा शिक्षां गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानंतरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गे स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल:, गणपोषणानंतरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कारं करोति स आत्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानंतरं तदर्थमेव...परमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थं कायक्लेशानुष्ठनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनानंतरं...बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवांतरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ काल:।=जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेदरत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, आत्मआराधना के अर्थ बाह्य व अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनंतर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्मतत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्यप्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता है वह गणपोषणकाल है। गणपोषण के अनंतर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्धसंस्कार करता है वह आत्मसंस्कारकाल है। तदनंतर उसी के लिए परमात्मपदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्यसल्लेखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखना के पश्चात् बहिर्द्रव्यों में इच्छा का निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षभागी ऐसे चरमदेही, अथवा उससे विपरीत जो भवांतर से मोक्ष जाने के योग्य है, इन दोनों के होती है। वह उत्तमार्थकाल कहलाता है। - दीक्षादि कालों के आगम की अपेक्षा लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/8 यदा कोऽपि चतुर्विधाराधनाभिमुख: सन् पंचाचारोपेतमाचार्यं प्राप्योभयपरिग्रहरहितो भूत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति तदा दीक्षाकाल:, दीक्षानंतरं चतुर्विधाराधनापरिज्ञानार्थमाचाराराधनादिचरणकरणग्रंथशिक्षां गृह्णाति तदा शिक्षाकाल:, शिक्षानंतरं चरणकरणकथितार्थानुष्ठानेन व्याख्यानेन च पंचभावनासहित: सन् शिष्यगणपोषणं करोति तदा गणपोषणकाल:।...गणपोषणानंतरं स्वकीयगणं त्यक्त्वात्मभावनासंस्कारार्थी भूत्वा परगणं गच्छति तदात्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानंतरमाचाराराधनाकथितक्रमेण द्रव्यभावसल्लेखनां करोति तदा सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनांतरं चतुर्विधाराधनाभावनया समाधिविधिना कालं करोति तदा स उत्तमार्थकालश्चेति।=जब कोई मुमुक्षु चतुर्विध आराधना के अभिमुख हुआ, पंचाचार से युक्त आचार्य को प्राप्त करके उभय परिग्रह से रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है तदा दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनंतर चतुर्विध आराधना के ज्ञान के परिज्ञान के लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोग के ग्रंथों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात् चरणानुयोग में कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यान के द्वारा पंचभावनासहित होता हुआ जब शिष्यगण को पोषण करता है तब गणपोषण काल है।...गणपोषण के पश्चात् अपने गण अर्थात् संघ को छोड़कर आत्मभावना के संस्कार का इच्छुक होकर परसंघ को जाता है तब आत्मसंस्कार काल है। आत्मसंस्कार के अनंतर आचाराराधना में कथित क्रम से द्रव्य और भाव सल्लेखना करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखना के उपरांत चार प्रकार की आराधना की भावनारूप समाधि को धारण करता है, वह उत्तमार्थकाल है। - सोपक्रमादि कालों के लक्षण
धवला 14/4,2,7,42/32/1 पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेण कालो जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा।=प्रारंभ किये गये प्रथम समय से लेकर अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकांडकघात है। परंतु उत्कीरणकाल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है। विशेषार्थ—कांडक पोर को कहते हैं। कुल अनुभाग के हिस्से करके एक एक हिस्से का फालिक्रम से अंतर्मुहूर्तकाल के द्वारा अभाव करना अनुभाग कांडकघात कहलाता है। (उपरोक्त कथन पर से उत्कीरणकाल का यह लक्षण फलितार्थ होता है कि कुल अनुभाग के पोर कांडक करके उन्हें घातार्थ जिस अंतर्मुहूर्तकाल में स्थापित किया जाता है, उसे उत्कीरण काल कहते हैं।
धवला 14/5,6,631/485/12 प्रबध्नंति एकत्वं गच्छंति अस्मिन्निति प्रबंधन:। प्रबंधनश्चासौ कालश्च प्रबंधकाल:। बँधते अर्थात् एकत्व को प्राप्त होते हैं, जिसमें उसे प्रबंधन कहते हैं। तथा प्रबंधन रूप जो काल वह प्रबंधनकाल कहलाता है। गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/615/820/5 सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्या: स्थितिसत्त्वं यावत्त्रसे उदधिपृथक्त्व एकाक्षे च पल्यासंख्यातैकभागोनसागरोपममवशिष्यते तावद्वेदकयोग्यकालो भण्यते। तत उपर्युपशमकाल इति।=सम्यक्त्वमोहिनी अर मिश्रमोहनी इनकी जो पूर्वे स्थितिबंधी थी सो वह सत्तारूप स्थिति त्रसकैं तौ पृथक्त्व सागर प्रमाण अवशेष रहैं अर एकेंद्रीकैं पल्य का असंख्यातवाँ भाग करि हीन एक सागर प्रमाण अवशेष रहै तावत्काल तौ वेदक योग्य काल कहिए। बहुरि ताकै उपरि जो तिसतैं भी सत्तारूप स्थिति घाटि होइ तहाँ उपशम योग्य काल कहिए।
गो.क./भाषा/583/789 ते नामकर्म के उदय स्थान जिस जिस काल विषैं उदय योग्य है तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। (इसको उदयकाल कहते हैं)...कार्मण शरीर जहाँ पाइए सो कार्मण काल यावत् शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीर मिश्रकाल, शरीर पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीरपर्याप्ति काल, सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् भाषा पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् आनपान पर्याप्तिकाल, भाषा पर्याप्ति पूर्ण भएँ पीछैं सर्व अवशेष आयु प्रमाण भाषापर्याप्ति कहिए। गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 उपक्रम: तत्सहित: काल: सोपक्रमकाल: निरंतरोत्पत्तिकाल इत्यर्थ:।...अनुपक्रमकाल: उत्पत्तिरहित: काल:।=उपक्रम कहिए उत्पत्ति तोंहि सहित जो काल सो सोपक्रम काल कहिए सो आवली के असंख्यातवें भाग मात्र है।...बहुरि जो उत्पत्ति रहित काल होइ सो अनुपक्रम काल कहिए।
लब्धिसार/ भाषा/53/85 अपूर्वकरण के प्रथम समय तैं लगाय यावत् सम्यक्त्व मोहनी, मिश्रमोहनी का पूरणकाल जो जिस कालविषैं गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वकौं सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमावै है।
- दीक्षादि कालों के अध्यात्म अपेक्षा लक्षण
- ग्रहण व वासनादि कालों के लक्षण
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/46/47/10 उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकाल:।=उदय का अभाव होते संतै भी जो कषायनि का संस्कार जितने काल तक रहे ताका नाम वासनाकाल है। भगवती आराधना/ भाषा/211/426 दीक्षा ग्रहण कर जब तक संन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है, तथा व्रतादिकों में अतिचार लगने पर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करने के लिए कुछ दिन अनशनादि तप करना पड़ता है उसको प्रतिसेवना काल कहते हैं। - अवहार काल का लक्षण
धवला 3/1,2,56/269/11 का सारार्थ भागाहार रूप काल का प्रमाण। - निक्षेपरूप कालों के लक्षण
धवला 4/1,5,1/313-316/10 तत्थ णामकालो णाम कालसद्दो।...सो एसो इदि अण्णम्हि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम।...पल्लवियं...वणसंडुज्जोइयचित्तालिहियवसंतो। अब्भवट्ठवणकालो णाम मणिभेद-गेरुअ-मट्टी-ठिक्करादिसु वसंतो ति बुद्धिबलेण ठविदो।...आगमदो कालपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो।...भवियणोआगमदव्वकालोभवियणोआगमदव्वकालो भविस्सकाले कालपाहुडजाणओ जीवो। ववगददोगंध-पंचरसट्ठपास-पंचवण्णो कुंभारचक्कहेट्ठिमसिलव्व वत्तणालक्खणो...अत्थो तव्वदिरित्तणोआगमदव्वकालो णाम।...जीवाजीवादिअट्ठभंगदव्वं वा णोआगमदव्वकालो। ...कालपाहुडजाणओ उवजुत्तो जीवो आगमभावकालो। दव्वकालजणिदपरिणामो णोआगमभावकालो भण्णदि।...तस्स समय-आवलिय-खण-लव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख–मांस-उडु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्व–पलिदोवम-सागरोवमादि-रुवत्तादो। =’काल’ इस प्रकार का शब्द नामकाल कहलाता है।...’वह यही है’ इस प्रकार से अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना है।...उनमें से पल्लवित...आदि वनखंड से उद्योतित, चित्रलिखित वसंतकाल को सद्भावस्थापनाकाल निक्षेप कहते हैं। मणिविशेष, गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादि में यह वसंत है’ इस प्रकार बुद्धि के बल से स्थापना करने को असद्भावस्थापना काल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव आगमद्रव्य काल है।...भविष्यकाल में जो जीव कालप्राभृत का ज्ञायक होगा, उसे भावीनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। जो दो प्रकार के गंध, पाँच प्रकार के रस, आठ प्रकार के स्पर्श और पाँच प्रकार के वर्ण से रहित है...वर्तना ही जिसका लक्षण है...ऐसे पदार्थ को तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं।...अथवा जीव और अजीवादिक के योग से बने हुए आठ भंग रूप द्रव्य को नोआगमद्रव्यकाल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक और वर्तमान में उपयुक्त जीव आगम भाव काल है। द्रव्यकाल से जनित परिणाम या परिणमन नोआगमभावकाल कहा जाता है।...वह काल समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है।
धवला 11/4,2,6,1/76/7 तत्थ सच्चितो-जहा दंसकालो मसयकालो इच्चेवमादि, दंस-मसयाणं चेव उवयारेण कालत्तविहा णादो। अचित्तकालोजहा धूलिकालो चिक्खल्लकालो उण्हकालो बरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि। मिस्सकालो-तहा सदंस-सीदकालो इच्चेवमादि।...तत्थ लोउत्तरीओ समाचारकालो-जहा वंदणकालो णियमकालो सज्झयकालो झाणकालो इच्चेवमादि। लोगिय-समाचारकालो-जहा कसणकालो लुणणकालो ववणकालो इच्चेवमादि। =उनमें दंशकाल, मशककाल इत्यादिक सचित्तकाल है, क्योंकि इनमें दंश और मशक के ही उपचार से काल का विधान किया गया है। धूलिकाल, कर्दमकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल एवं शीतकाल इत्यादि सब अचित्तकाल है। सदंश शीतकाल इत्यादि मिश्रकाल है।...वंदनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल व ध्यानकाल आदि लोकोत्तरीय समाचारकाल हैं। कर्षणकाल, लुननकाल व वपनकाल इत्यादि लौकिक समाचारकाल हैं। - सम्यग्ज्ञान का कालनामा अंग
मू.आ./270-275 पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता। उभये कालम्हि पुणो सज्झाओ होदि कायव्वो।270। सज्झाये पट्ठवणे जंघच्छायं वियाण सत्तपयं। पव्वण्हे अवरण्हे तावदियं चेव णिट्ठवणे।271। आसाढे दुपदा छाया पुस्समासे चदुप्पदा। वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला।272। णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोधीए। पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए।273। दिसहाह उक्कपडणं विज्जु चडुक्कासणिंदधणुगं च। दुग्गंधसज्झदुद्दिणचंदग्गहसूरराहुजुज्झं च।274। कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्चं च। इच्चेवमाइबहुया सज्झाए वज्जिदा दोसा।275।=प्रादोषिककाल, वैरात्रिक, गोसर्गकाल—इन चारों कालों में से दिनरात के पूर्वकाल अपरकाल इन दो कालों में स्वाध्याय करनी चाहिए।270। स्वाध्याय के आरंभ करने में सूर्य के उदय होने पर दोनों जाँघों की छाया सात विलस्त छाया रहे तब स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए।271। आषाढ महीने के अंत दिवस में पूर्वाह्ण के समय दो पहर पहले जंघा छाया दो विलस्त अर्थात् बारह अंगुल प्रमाण होती है और पौषमास में अंत के दिन में चौबीस अंगुल प्रमाण जंघाछाया होती है। और फिर महीने-महीने में दो-दो अंगुल बढ़ती घटती है। सब संध्याओं में आदि अंत की दो दो घड़ी छोड़ स्वाध्याय काल है।272। दिशाओं के पूर्व आदि भेदों की शुद्धि के लिए प्रात:काल में नौ गाथाओं का, तीसरे पहर सात गाथाओं का, सायंकाल के समय पाँच गाथाओं का स्वाध्याय (पाठ व जाप) करे।273। उत्पात से दिशा का चमकना, मेघों के संघट्ट से उत्पन्न वज्रपात, ओले बरसना, धनुष के आकार पंचवर्ण पुद्गलों का दिखना, दुर्गंध, लालपीलेवर्ण के आकार साँझ का समय, बादलों से आच्छादित दिन, चंद्रमा, ग्रह, सूर्य, राहु के विमानों का आपस में टकराना।274। लड़ाई के वचन, लकड़ी आदि से झगड़ना, आकाश में धुआँ रेखा का दीखना, धरतीकंप, बादलों का गर्जना, महापवन का चलना, अग्निदाह इत्यादि बहुत से दोष स्वाध्याय में वर्जित किये गये हैं अर्थात् ऐसे दोषों के होने पर नवीन पठन-पाठन नहीं करना चाहिए।275। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/260 ) - पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे संभव है
धवला/4/1,5,1/317/9 पोग्गलादिपरिणामस्स कधं कालववएसो। ण एस दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो।=प्रश्न—पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणाम के ‘काल’ यह संज्ञा कैसे संभव है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण के उपचार के निबंधन से पुद्गलादि द्रव्यों के परिणाम के भी ‘काल’ संज्ञा का व्यवहार हो सकता है। - दीक्षा शिक्षा आदि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/22 अत्र कालषट्कमध्ये केचन प्रथमकाले केचन द्वितीयकाले केचन तृतीयकालादौ केवलज्ञानमुत्पादयंतीति कालषट्कनियमो नास्ति।=यहाँ दीक्षादि छ: कालों में से कोई तो प्रथम काल में, कोई द्वितीय काल में, कोई तृतीय आदि काल में केवलज्ञान को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार छ: कालों का नियम नहीं है।
- काल सामान्य का लक्षण (पर्याय)