ब्रह्मचर्य: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निश्चय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निश्चय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/878 </span><span class="PrakritGatha">जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरियाहविज्ज जा जणिंदो । तं जाण बंभचेर विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ।878। </span>= <span class="HindiText">जीव ब्रह्म है, जीव ही में जो मुनि की चर्या होती है उस को परदेह की सेवारहित ब्रह्मचर्य जानो । (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/109 </span>पर उद्धृत) ।</span><br /> | |||
पं.वि./12/2 <span class="SanskritGatha">आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं पर । स्वांगासंगविवर्जितैकमनस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । ... ।2।</span> = <span class="HindiText">ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी संबंध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी के ब्रह्मचर्य होता है । ( अनगारधर्मामृत /4/60 ) ।</span><br /> | पं.वि./12/2 <span class="SanskritGatha">आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं पर । स्वांगासंगविवर्जितैकमनस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । ... ।2।</span> = <span class="HindiText">ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी संबंध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी के ब्रह्मचर्य होता है । (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत /4/60 </span>) ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत /6/55 </span><span class="SanskritGatha">चरणं ब्रह्मणि गुरावस्वातंत्र्येण यन्मुदा । चरणं ब्रह्मणि परे तत्स्वातंत्र्येण वर्णिनः 55।</span> = <span class="HindiText">मैथुनकर्म से सर्वथा निवृत्त वर्णी की आत्मतत्त्व के उपदेष्टा गुरुओं की प्रीतिपूर्वक अधीनता स्वीकार कर ली गयी है, अथवा ज्ञान और आत्मा के विषय में स्वतंत्रतया की गयी प्रवृत्ति को ब्रह्मचर्य कहते हैं ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> व्यवहार की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> व्यवहार की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> बारस अणुवेक्खा/80 </span><span class="PrakritGatha">सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावम् । सो बम्ह-चेरभावं मुक्कदि खलुदुद्धरं धरदि ।80।</span> = <span class="HindiText">जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सारे सुंदर अंगों को देखकर उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है । (पं. वि./1/104) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/6/413/3 </span><span class="SanskritText">अनुभूतांगनास्मरणकथाश्रवणस्त्रीसंसक्तशयनासनादिवर्जनाद् ब्रह्मचर्य परिपूर्णमवतिष्ठते । स्वतंत्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम् । </span>= <span class="HindiText">अनुभूत स्त्री का स्मरण न करने से, स्त्री विषयक कथा के सुनने का त्यागकरने से और स्त्री से सटकर सोने व बैठने का त्याग करने से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतंत्र वृत्तिका त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ब्रह्मचर्य है । (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/22/598/27 </span>) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/46/154/16 </span><span class="SanskritText"> ब्रह्मचर्य नवविधब्रह्मपालनं ।</span> =<span class="HindiText"> नव प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य है । </span><br /> | |||
पं.वि./12/2...<span class="SanskritText">स्वांगासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । एवं सत्यबलाः स्वमातृभगिनीपुत्रीसमाः प्रेक्षते, वृद्धाद्या विजितेंद्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् ।2।</span> = <span class="HindiText">जो अपने शरीर से निर्ममत्व हो चुका है, वह इंद्रिय-विजयी होकर वृद्धा आदि स्त्रियोंको क्रम से माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, तो वह मुनि ब्रह्मचारी होता है ।</span><br /> | पं.वि./12/2...<span class="SanskritText">स्वांगासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । एवं सत्यबलाः स्वमातृभगिनीपुत्रीसमाः प्रेक्षते, वृद्धाद्या विजितेंद्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् ।2।</span> = <span class="HindiText">जो अपने शरीर से निर्ममत्व हो चुका है, वह इंद्रिय-विजयी होकर वृद्धा आदि स्त्रियोंको क्रम से माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, तो वह मुनि ब्रह्मचारी होता है ।</span><br /> | ||
का.आ./मू./403<span class="PrakritGatha"> जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव पस्सदे रूवं । कामकहादि-णिरीहो णव-विह-बंभं हवे तस्स ।403। </span><span class="HindiText">जो मुनि स्त्रियों के संग से बचता है, उनके रूप को नहीं देखता, काम कथादि नहीं करता उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है ।403।<br /> | का.आ./मू./403<span class="PrakritGatha"> जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव पस्सदे रूवं । कामकहादि-णिरीहो णव-विह-बंभं हवे तस्स ।403। </span><span class="HindiText">जो मुनि स्त्रियों के संग से बचता है, उनके रूप को नहीं देखता, काम कथादि नहीं करता उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है ।403।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> दस प्रकार का ब्रह्मचर्य </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> दस प्रकार का ब्रह्मचर्य </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/879-881 </span>उत्थानिका - <span class="PrakritText">मनसा वचसा शरीरेण परशरीर-गोचरव्यापारातिशयं त्यक्तवतः दशविधाब्रह्मत्यागात् दशविधं ब्रह्मचर्य भवतीति वक्तुकामो ब्रह्मभेदमाचष्टे - इच्छिविसयाभिलासो वच्छि- विमोक्खो य पणिदरससेवा । संसत्तदव्वसेवा तदिंदियालोयणं चेव ।879। सक्कारो संकारो अदीदसुमरणमणागदभिलासे । इट्ठविसयसेवा वि य अब्बं भं दसविहं एदं ।880। एवं विसग्गिमूदं अब्बं भं दसविहंपि णादव्वं । आवादे मदुरम्मिव होदि विवागे य कडुयदरं ।881।</span> = <span class="HindiText">मन से, वचन से और शरीर से परशरीर के साथ जिसने प्रवृत्ति करना छोड़दिया है, ऐसा मुनि दस प्रकार के अब्रह्मका त्याग करता है । तब वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्यों का पालन करता है । ग्रंथकार अब दस प्रकार के अब्रह्म का वर्णन करते हैं - </span> | |||
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<li class="HindiText"> स्त्री संबंधी विषयों की अभिलाषा, </li> | <li class="HindiText"> स्त्री संबंधी विषयों की अभिलाषा, </li> | ||
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<li class="HindiText"> अतीत स्मरण - भूतकाल में की रति, क्रीड़ाओं का स्मरण करना।</li> | <li class="HindiText"> अतीत स्मरण - भूतकाल में की रति, क्रीड़ाओं का स्मरण करना।</li> | ||
<li class="HindiText"> अनागताभिलाष - भविष्यत् काल में उनके साथ ऐसी क्रीड़ा करूँगा ऐसी अभिलाषा मन में करना । </li> | <li class="HindiText"> अनागताभिलाष - भविष्यत् काल में उनके साथ ऐसी क्रीड़ा करूँगा ऐसी अभिलाषा मन में करना । </li> | ||
<li class="HindiText"> इष्टविषय सेवा - मनोवांछित सौध, उद्यान वगैरह का उपभोग करना । ये अब्रह्म के दस प्रकार हैं ।879-880। ये दस प्रकार का अब्रह्म विष और अग्नि के समान है, इसका आरंभ मधुर, परंतु अंत कड़ुआ है । (ऐसा जानकर जो इसका त्याग करता है वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करता है ।) ।881। ( अनगारधर्मामृत/4/61 ), ( भावपाहुड़ टीका 96/246 ) पर उद्धृत) ।<br /> | <li class="HindiText"> इष्टविषय सेवा - मनोवांछित सौध, उद्यान वगैरह का उपभोग करना । ये अब्रह्म के दस प्रकार हैं ।879-880। ये दस प्रकार का अब्रह्म विष और अग्नि के समान है, इसका आरंभ मधुर, परंतु अंत कड़ुआ है । (ऐसा जानकर जो इसका त्याग करता है वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करता है ।) ।881। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/61 </span>), (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका 96/246 </span>) पर उद्धृत) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> नव प्रकार का ब्रह्मचर्य </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> नव प्रकार का ब्रह्मचर्य </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/403 </span><span class="SanskritText">तस्य मुनेः ब्रह्मचर्य भवेत्, नवप्रकारैः कृतकारितानुमत-गुणितमनोवचनकायैः कृत्वा स्त्रीसंगं वर्जयतीति ब्रह्मचर्य स्यात् ।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि स्त्री-संग का त्याग करता है उसी के मन, वचन, काय और कृतकारित-अनुमोदन के भेद से नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य होता है । (भ.पा./टी./96/245/22) ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> महाव्रत </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> महाव्रत </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/59 </span><span class="PrakritGatha">दट्ठूण इच्छिरूवं वांछाभावं णिवत्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं ।59। </span>= <span class="HindiText">स्त्रियों का रूप देखकर उनके प्रति वांछाभाव की निवृत्ति अथवा मैथुनसंज्ञा-रहित जो परिणाम वह चौथा व्रत है । (<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ </span>टी./28/47/24) । </span><br /> | |||
मू.आ./8,292 <span class="PrakritGatha">मादुसुदा भगिणीविय दट्ठूणित्थित्तियं च पडिरूवं । इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभं ।8। अच्चित्तदेवमाणुस- तिरिक्खजादं च मेहुणं चदुधा । तिविहेण तं ण सेवदि णिच्चं पिमुणीहि पयदमणो ।292।</span> = <span class="HindiText">जो वृद्धा,बाला, यौवनवाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी तस्वीरों को देखकर उनको माता-पुत्री-बहन समान समझ स्त्री-संबंधी कथादि का अनुराग छोड़ता है, वह तीनों लोकों का पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है ।8। चित्र आदि अचेतनदेवी, मानुषी, तिर्यंचनी; सचेतन स्त्री ऐसी चार प्रकार स्त्री को मन, वचन, काय से जो नहीं सेवता तथा प्रयत्न मन से ध्यानादि में लगा हुआ है, वही ब्रह्मचर्य व्रत है ।292।<br /> | मू.आ./8,292 <span class="PrakritGatha">मादुसुदा भगिणीविय दट्ठूणित्थित्तियं च पडिरूवं । इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभं ।8। अच्चित्तदेवमाणुस- तिरिक्खजादं च मेहुणं चदुधा । तिविहेण तं ण सेवदि णिच्चं पिमुणीहि पयदमणो ।292।</span> = <span class="HindiText">जो वृद्धा,बाला, यौवनवाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी तस्वीरों को देखकर उनको माता-पुत्री-बहन समान समझ स्त्री-संबंधी कथादि का अनुराग छोड़ता है, वह तीनों लोकों का पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है ।8। चित्र आदि अचेतनदेवी, मानुषी, तिर्यंचनी; सचेतन स्त्री ऐसी चार प्रकार स्त्री को मन, वचन, काय से जो नहीं सेवता तथा प्रयत्न मन से ध्यानादि में लगा हुआ है, वही ब्रह्मचर्य व्रत है ।292।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> अणुव्रत </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> अणुव्रत </strong></span><br /> | ||
र.क./59<span class="SanskritGatha"> न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृतिः स्वदारसंतोषानामपि ।59।</span> =<span class="HindiText">जो पाप के भय सेन तो पर स्त्री के प्रतिगमन करै और न दूसरों को गमन करावै, वह परस्त्री-त्याग तथा स्वदार-संतोष नाम का अणुव्रत है ।59। ( सागार धर्मामृत/4/52 ) ।</span><br /> | र.क./59<span class="SanskritGatha"> न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृतिः स्वदारसंतोषानामपि ।59।</span> =<span class="HindiText">जो पाप के भय सेन तो पर स्त्री के प्रतिगमन करै और न दूसरों को गमन करावै, वह परस्त्री-त्याग तथा स्वदार-संतोष नाम का अणुव्रत है ।59। (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/4/52 </span>) ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/10 </span><span class="SanskritText">उपात्ताया अनुपात्तायाश्च परांगनायाः संगान्निवृत्तरतिर्गृहीति चतुर्थमणुव्रतम् ।</span> = <span class="HindiText">गृहस्थ के स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का संग से रति हट जाती है इसलिए उसके परस्त्री नाम का चौथा अणुव्रत होता है । (<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/20/4/547/13 </span>) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/212 </span><span class="PrakritGatha">पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकीड़ा सया विवज्जंतो । थूलयड-बंभयारी जिणेहि भणिओ पवयणम्मि ।212।</span> = <span class="HindiText">अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में स्त्री - सेवन और सदैव अनंग क्रीड़ा का त्याग करने वाले जीव को प्रवचन में भगवान् ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है ।212। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/136 </span>) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/337-338 </span><span class="PrakritGatha">असुइ-मयं दुग्गंधं महिला-देहं विरच्चमाणो जो । रूवं लावण्णं पि य मण-मोहण-कारणं मुणइ ।337। जो मण्णदि परमहिलं जणणी- बहिणी- सुआइ-सारिच्छं । मण-वयणे कायण वि बंभ-वई सो हवे थूलो ।338। </span>= <span class="HindiText">जो स्त्री के शरीर को अशुचिमय और दुर्गंधित जानकर उसके रूप-लावण्य को भी मन में मोह को पैदा करने वाला मानता है तथा मन-वचन और काय से परायी स्त्री को माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, वह श्रावक स्थूल ब्रह्मचर्य का धारी है ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/21/43/21 </span><span class="SanskritText">ब्रह्मचर्य स्वदारसंतोषः परदारिनिवृत्तिः कस्यचित्तसर्वस्त्री निवृत्तिः । </span>= <span class="HindiText">स्व स्त्री संतोष, अथवा परस्त्री से निवृत्तिवा किसी के सर्वथा स्त्री के त्याग का नाम ब्रह्मचर्य व्रत है ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> ब्रह्मचर्य प्रतिमा का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> ब्रह्मचर्य प्रतिमा का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/143 </span><span class="SanskritText">मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगंधिवीभत्सां पश्यन्नंगमनंगाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ।143।</span> = <span class="HindiText">जो मल के बीजभूत, मल को उत्पन्न करने वाले, मलप्रवाही, दुर्गंधयुक्त, लज्जाजनक वा ग्लानियुक्त अंग को देखता हुआ काम-सेवन से विरक्त होता है, वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारी ब्रह्मचारी है ।143।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/297 </span><span class="PrakritGatha">पुव्वुत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो । इत्थि-कहाइणिवित्तो सत्तमगुणवंभयारी सो ।297। </span>= <span class="HindiText">जो पूर्वोक्त नौ प्रकार के मैथुन को सर्वदा त्याग करता हुआ स्त्रीकथा आदि से भी निवृत्त हो जाता है, वह सातवीं प्रतिमारूप गुणका धारी ब्रह्मचारी श्रावक है ।297। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/180 </span>), (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/45/8 </span>), (<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/384 </span>), (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/7/17 </span>), (<span class="GRef"> लाटी संहिता/6/25 </span>) ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> शील के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> शील के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
शील.पा./मू./40... <span class="PrakritText">सीलं विसयविरागो ...।40।</span> = <span class="HindiText">पंचेंद्रिय के विषय से विरक्त होना शील कहलाता है । </span><br /> | शील.पा./मू./40... <span class="PrakritText">सीलं विसयविरागो ...।40।</span> = <span class="HindiText">पंचेंद्रिय के विषय से विरक्त होना शील कहलाता है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 8/3,41/82/5 </span><span class="PrakritText">वद परिरक्खणं सीलं णाम ।</span> = <span class="HindiText">व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं . (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका 2/67 </span>) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/172 </span><span class="SanskritGatha">शीलं व्रतपरिरक्षणमुपैतु शुभयोगवृत्तिमितरहतिम् । संज्ञाक्षविरतिरोधौ क्ष्मादियममलात्ययं क्षमादींश्च ।172।</span> = <span class="HindiText">जिसके द्वारा व्रतों की रक्षा की जाय उसको शील कहते हैं । संज्ञाओं का परिहार और इंद्रियों का निरोध करना चाहिए, तथा उत्तमक्षमादि दस धर्म को धारण करना चाहिए ।172।<br /> | |||
देखें [[ प्रकृतिबंध#1.1 | प्रकृतिबंध - 1.1 ]]( प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची हैं) ।<br /> | देखें [[ प्रकृतिबंध#1.1 | प्रकृतिबंध - 1.1 ]]( प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची हैं) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6.1" id="1.6.1"> सामान्य भेद</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6.1" id="1.6.1"> सामान्य भेद</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>पं.जयचंद/120/240/1 शील की दोय प्रकार प्ररूपणा है - एक तो स्वद्रव्य-परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा है अर दूसरी स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा है । <br /> | |||
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<li class="HindiText"> तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इंद्रिय, दस पृथ्वी आदिक काय, दस मुनि धर्म - इनको आपस में गुणा करने से अठारह हजार शील होते हैं ।1017। </li> | <li class="HindiText"> तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इंद्रिय, दस पृथ्वी आदिक काय, दस मुनि धर्म - इनको आपस में गुणा करने से अठारह हजार शील होते हैं ।1017। </li> | ||
<li class="HindiText"> मन, वचन, काय का शुभकर्म के ग्रहण करने के लिए व्यापार वह योग है और अशुभ के लिए प्रवृत्ति वह करण है । आहारादि चार संज्ञा हैं, स्पर्शन आदि पाँच इंद्रिया हैं ।1018। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय - ये पृथिवी आदि दस हैं ।1019। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य, त्याग ये दस मुनिधर्म हैं ।1020। ( भावपाहुड़ टीका/118/267/6 ), ( भावपाहुड़/ पं. जयचंद /120/240/4) ।<br /> | <li class="HindiText"> मन, वचन, काय का शुभकर्म के ग्रहण करने के लिए व्यापार वह योग है और अशुभ के लिए प्रवृत्ति वह करण है । आहारादि चार संज्ञा हैं, स्पर्शन आदि पाँच इंद्रिया हैं ।1018। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय - ये पृथिवी आदि दस हैं ।1019। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य, त्याग ये दस मुनिधर्म हैं ।1020। (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/118/267/6 </span>), (<span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>पं. जयचंद /120/240/4) ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1.6.1.2" id="1.6.1.2"> स्त्री-संसर्ग की अपेक्षा </strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.6.1.2" id="1.6.1.2"> स्त्री-संसर्ग की अपेक्षा </strong><br /> | ||
काष्ठ, पाषाण, चित्राम (3 प्रकार अचेतन स्त्री) x मन अर काय = (3x2=6) (यहाँ वचन नाहीं) । कृत-कारित- अनुमोदना = (6x3= 18) । पाँच इंद्रिय (18x5=90) । द्रव्यभाव (90x2=180) । क्रोध-मान-माया-लोभ (180x4=720) । ये तो अचेतन स्त्री के आश्रित कहे । देवी, मनुष्याणी, तिर्यंचिनी (3 प्रकार चेतनस्त्री) x मन, वचन, काय (3x3 =9) । कृत, कारित, अनुमोदना (9x3= 27) । पंचेंद्रिय (27x5=135) । द्रव्य भाव (135x2=270) । चार संज्ञा (270x4 = 1080) । सोलह कषाय (1080x16=17280) । इस प्रकार चेतन स्त्री के आश्रित 17280 भेद कहे । कुल मिलाकर (720+17280) शील के 18000 भेद हुए । ( भावपाहुड़ टीका/118/267/14 ) ( भावपाहुड़/ पं. जयचंद/120/240) ।<br /> | काष्ठ, पाषाण, चित्राम (3 प्रकार अचेतन स्त्री) x मन अर काय = (3x2=6) (यहाँ वचन नाहीं) । कृत-कारित- अनुमोदना = (6x3= 18) । पाँच इंद्रिय (18x5=90) । द्रव्यभाव (90x2=180) । क्रोध-मान-माया-लोभ (180x4=720) । ये तो अचेतन स्त्री के आश्रित कहे । देवी, मनुष्याणी, तिर्यंचिनी (3 प्रकार चेतनस्त्री) x मन, वचन, काय (3x3 =9) । कृत, कारित, अनुमोदना (9x3= 27) । पंचेंद्रिय (27x5=135) । द्रव्य भाव (135x2=270) । चार संज्ञा (270x4 = 1080) । सोलह कषाय (1080x16=17280) । इस प्रकार चेतन स्त्री के आश्रित 17280 भेद कहे । कुल मिलाकर (720+17280) शील के 18000 भेद हुए । (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/118/267/14 </span>) (<span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>पं. जयचंद/120/240) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> ब्रह्मचर्य व्रत की 5 भावनाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> ब्रह्मचर्य व्रत की 5 भावनाएँ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना 1210 </span><span class="PrakritGatha">महिलालोयणपुव्वरदिसरण संसत्तवसहिविकहाहिं । पणिदरसेहिं य विरदी भावना पंच बंभस्स ।1210। </span>=<span class="HindiText"> स्त्रियों के अंग देखना, पूर्वानुभूत भोगादिका स्मरण करना, स्त्रियाँ जहाँ रहती हैं वहाँ रहना, शृंगार कथा करना, इन चार बातों से विरक्त रहना, तथा बल व उन्मत्तता, उत्पादक पदार्थों का सेवन करना, इन पाँच बातों का त्याग करना ये ब्रह्मचर्य की पाँच भावनाएँ हैं ।1210। (मू.आं.340) (<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ </span>मू./35) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/7 </span><span class="SanskritText">स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतःनुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ।7।</span> = <span class="HindiText">स्त्रियों में राग को पैदा करने वाली कथा के सुनने का त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पूर्व भोगों के स्मरण का त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रसका त्याग तथा अपने शरीर के संस्कार का त्याग, ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।7।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/9/347/11 </span><span class="SanskritText">अब्रह्मचारी मदविभ्रमोद्भ्रांतचित्तो वनगज इव वासिता वंचितो विवशो वधबंधनपरिक्लेशाननुभवति मोहाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानभिज्ञो न किंचित्कुशलमाचरति परांग-नालिंगनसंगकृतरतिश्चेहैव वैरानुबंधिनो लिंगच्छेदनवधबंधसर्व- स्वहरणादीनपायान् प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिमश्नुते गर्हितश्च भवति अतो विरतिरात्महिता ।</span> <span class="HindiText">जो अब्रह्मचारी है, उसका चित्त मद से भ्रमता रहता है । जिस प्रकार वन का हाथी हथिनी से जुदा कर दिया जाता है, और विवश होकर उसे वध, बंधनऔर क्लेश आदि दुःखों को भोगना पड़ता है, ठीक यही अवस्था अब्रह्मचारी की होती है । मोह से अभिभूत होने के कारण वह कार्य-अकार्य के विवेक से रहित होकर कुछ भी उचित आचरण नहीं करता । पर स्त्री के राग में जिसकी रति रहती है, इसलिए वह वैरको बढ़ानेवाले लिंग का छेदा जाना, मारा जाना, बाँधा जाना और सर्वस्व का अपहरण किया जाना आदि दुःखों को और परलोक में अशुभगति को प्राप्त होता है तथा गर्हित होता है । इसलिए अब्रह्मका त्याग आत्महितकारी है ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ कुछ भावनाएँ </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ कुछ भावनाएँ </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/882/994 </span><span class="PrakritGatha">कामकदा इत्थिकदा दोसा असुचित्तबुढ्ढसेवा य । संसग्गीदोसावियकरंति इत्थीषु वेरग्गं ।882।</span> = <span class="HindiText">कामदोष, स्त्रीकृत दोष, शरीर की अपवित्रता, वृद्धों की सेवा, और संसर्ग दोष इन पाँच कारणों से स्त्रियों से वैराग्य उत्पन्न होता है । 882।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/27/599/30 </span><span class="SanskritText">ब्रह्मचर्यमनुपालयंतं हिंसादयो दोषा न स्पृशंति । नित्याभिरतगुरुकुलावासमधिवसंति गुणसंपदः । वरांगनाविलासविभ्रमविधेयीकृतः पापैरपि विधेयीक्रियते । अजितेंद्रियता हि लोके प्राणिनामवमानदात्रीति । एवमुत्तमक्षमादिषु तत्प्रतिपक्षेषु च गुणदोषविचारपूर्विकायां क्रोधादिनिवृत्तौ सत्यां तंनिबंधनकर्मास्रवाभावात् महान् संवरो भवति ।</span> =<span class="HindiText"> ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले के हिंसा आदि दोष नहीं लगते । नित्य गुरुकुलवासी को गुण संपदाएँ अपने- आप मिल जाती है । स्त्री विलास विभ्रम आदि का शिकार हुआ प्राणी पापों का भी शिकार बनता है । संसार में अजितेंद्रियता बड़ा अपमान कराती है । इस तरह उत्तम क्षमादि गुणों का तथा क्रोधादि दोषों का विचार करने से क्रोधादिकी निवृत्ति होने पर तन्निमित्तक कर्मों का आस्रव रुककर महान् संवर होता है । </span><br /> | |||
पं.वि./1/105 <span class="SanskritText">अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्याः, हृदि विरचित-रागाः कामिनीनां वसंति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदंघ्री, प्रतिदिनमतिनम्रास्तेऽपि नित्यं स्तुवंति ।105। </span>= <span class="HindiText">लोक में पुण्यवान् पुरुष राग को उत्पन्न करके निरंतर ही स्त्रियों के हृदय में निवास करते हैं । ये पुण्यवान् पुरुष भी जिन मुनियों के हृदय में वे स्त्रियाँ कभी और किसी प्रकार से भी नहीं रहती हैं उन मुनियों के चरणों की प्रतिदिन अत्यंत नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ।105।<br /> | पं.वि./1/105 <span class="SanskritText">अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्याः, हृदि विरचित-रागाः कामिनीनां वसंति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदंघ्री, प्रतिदिनमतिनम्रास्तेऽपि नित्यं स्तुवंति ।105। </span>= <span class="HindiText">लोक में पुण्यवान् पुरुष राग को उत्पन्न करके निरंतर ही स्त्रियों के हृदय में निवास करते हैं । ये पुण्यवान् पुरुष भी जिन मुनियों के हृदय में वे स्त्रियाँ कभी और किसी प्रकार से भी नहीं रहती हैं उन मुनियों के चरणों की प्रतिदिन अत्यंत नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ।105।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> रूपादि इंद्रियविषयों में प्रेम, </li> | <li class="HindiText"> रूपादि इंद्रियविषयों में प्रेम, </li> | ||
<li><span class="HindiText"> इष्ट व पुष्ट रस का सेवन, ये दस प्रकार का अब्रह्म संसार के महा दुःखों का स्थान है । इसको जो महात्मा संयमी त्यागता है, वही दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रत का धारी होता है ।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> इष्ट व पुष्ट रस का सेवन, ये दस प्रकार का अब्रह्म संसार के महा दुःखों का स्थान है । इसको जो महात्मा संयमी त्यागता है, वही दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रत का धारी होता है ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/28 </span><span class="SanskritText">परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः ।28।</span> = <span class="HindiText">पर विवाहकरण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा, और काम-तीव्राभिनिवेश ये स्वदारसंतोष अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ।28। (<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/60 </span>) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/11/7-9 </span><span class="SanskritGatha">आद्यं शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते ।7। योषिद्विषयसंकल्पः पंचमं परिकीर्तितम् । तदंगवीक्षणं षष्ठं संस्कारः सप्तमं मतम् ।8। पूर्वानुभोग-संभोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवमं भाविनी चिंता दशमं वस्तिमोक्षणम् । 9।</span> = | |||
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<li class="HindiText">प्रथम तो शरीर का संस्कार करना, </li> | <li class="HindiText">प्रथम तो शरीर का संस्कार करना, </li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.3.2" id="2.3.2"><strong> परस्त्री त्याग व्रत की अपेक्षा </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.3.2" id="2.3.2"><strong> परस्त्री त्याग व्रत की अपेक्षा </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/3/23 </span><span class="SanskritGatha"> कंयादूषणगांधर्व-विवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्रीव्यसनत्यागव्रतशुद्धिविधितस्या ।23।</span> = <span class="HindiText">परस्त्री-व्यसन का त्यागी श्रावक परस्त्री-व्यसन के त्यागरूप व्रत की शुद्धि को करने की इच्छा से कन्या के लिए दूषण लगाने को और गांधर्व विवाह आदि करने को छोड़े ।23। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/186,207 </span><span class="SanskritGatha">भोगपत्नी निषिद्धा स्यात्सर्वतो धर्मवेदिनाम् । ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।186। एतत्सर्वं परिज्ञाय स्वानुभूति समक्षत्: । परांगनासु नादेया बुद्धिर्धीधनशालिभिः ।207।</span> =<span class="HindiText"> धर्म के जानने वाले पुरुषों को भोगपत्नी का पूर्णरूप से त्याग कर देना चाहिए , क्योंकि यद्यपि विवाहित होने के कारण वह ग्रहण करने योग्य है, तथापि धर्मपत्नी से वह सर्वथा भिन्न है, सब तरह के अधिकारों से रहित है, इसलिए उसका सेवन करने में दोष है ।186। (धर्मपत्नी आदि भेद - देखें [[ स्त्री ]]) अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से इन सबको स्त्रियों के भेदों में समझकर बुद्धिमान पुरुषों को परस्त्रियों का सेवन करने में अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए ।207।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3.3" id="2.3.3"> वेश्या त्याग व्रत की अपेक्षा </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3.3" id="2.3.3"> वेश्या त्याग व्रत की अपेक्षा </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/3/20 </span><span class="SanskritGatha"> त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्तिं, वृथाट्यां विंगसंगतिम् । नित्यं पण्यांगनात्यागी, तद्गेहगमनादि च ।20।</span> = <span class="HindiText">वेश्या व्यसन का त्यागीश्रावक गीत, नृत्य और वाद्य में आसक्ति को, बिना प्रयोजन घूमने को, व्यभिचारी पुरुषों की संगति को, और वेश्या के घर आने-जाने आदि को सदा छोड़ देवे ।20।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3.4" id="2.3.4"> शील के दस दोष </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3.4" id="2.3.4"> शील के दस दोष </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़ </span>टी./9/9/4<span class="SanskritText"> कास्ता: शीलविरोधना: स्त्रीसंसर्ग: सरसाहार: सुगंधसंस्कार: कोमलशयनासनं शरीरमंडनं गीतवादित्रश्रवणम् अर्थग्रहणं कुशीलसंसर्ग: राजसेवा रात्रिसंचरणम् इति दशशीलविराधना: ।</span> = | |||
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<li> <span class="HindiText">स्त्री का संसर्ग, </span></li> | <li> <span class="HindiText">स्त्री का संसर्ग, </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> वेश्यागमन का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> वेश्यागमन का निषेध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/88-93 </span><span class="PrakritGatha">कारुय-किराय-चंडाल-डोंब पारसियाणमुच्छिट्ठं । सो भक्खेइ जो सह वसइ एयरत्तिं पि वेस्साए ।88। रत्तं णाऊण णरं सव्वस्सं हरइ वंचणसएहिं ।काउण मुयइ पच्छा पुरिसं चम्मट्ठिपरिसेसं ।89। पभणइ पुरओएयस्स सामी मोत्तूण णत्थि मे अण्णो । उच्चइ अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि ।90।माणी कुलजो सूरो वि कुणइ दासत्तणं पि णीचाणं । वेस्सा कएण बहुगं अवमाणं सहइ कामंधो ।91। जे मज्जमंसदोसा वेस्सा गमणम्मि होंति ते सव्वे । पावं पि तत्थ-हिट्ठं पावइ णियमेण सविसेसं ।92। पावेण तेण दुक्खं पावइ संसार-सायरे घोरे, तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयण-काएहि ।93।</span> =<span class="HindiText"> जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ निवास करता है, वह कारू (लुहार), चमार, किरात(भील), चंडाल, डोंब (भंगी) और पारसी आदि नीच लोगों का जूठा खाता है, क्योंकि, वेश्या इन सभी लोगों के साथ समागम करती है ।88। वेश्या, मनुष्य को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ों वचणाओं से उसका सर्वस्व हर लेती है और पुरुष को अस्थि-चर्म परिशेष करकेछोड़ देती है ।89। वह एक पुरुष के सामने कहती है कि तुम्हें छोड़कर तुम्हारे सिवाय मेरा स्वामी कोई नहीं है । इसी प्रकार वह अन्य से भी कहती है और अनेक खुशामदी बातें करती है ।90। मानी, कुलीन, और शूरवीर भी मनुष्य वेश्या में आसक्त होने से नीच पुरुषों की दासता को करता है, और इस प्रकार वह कामांध होकर वेश्या के द्वारा किये गये अपमानों को सहता है ।91। जो दोष मद्य-मांस के सेवन में होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमन में भी होते हैं । इसलिए वह मद्य और मांस सेवन के पाप को तो प्राप्त होता ही है, किंतु वेश्यासेवन के विशेष अधर्म को भी नियम से प्राप्त होता है ।92। वेश्यासेवन जनित पाप से यह जीव घोर संसारसागर में भयानक दुःखों को प्राप्त होता है, इसलिए मन, वचन और काय से वेश्या का सर्वथा त्याग करना चाहिए ।93।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/129-132 </span><span class="SanskritText">पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थं सेवते नरम् । तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका ।129। तत्त्यागः सर्वतः श्रेयान् श्रेयोऽर्थ यततां नृणाम् । मद्य -मांसादि दोषान्वै निःशेषान् त्यक्तुमिच्छताम् ।130। आस्तां तत्संगमे दोषो दुर्गतौ पतनं नृणाम् । इहैव नरकं नूनं वेश्यासक्तचेतसाम् ।131। उक्तं च याः खादंति पलं पिबंति च सुरां, जल्पंति मिथ्यावचः । स्निह्यंति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम् । नीचानामपि दूरवक्रमनसः पापत्मिकाः कुर्वते, लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्यां विहायापरम् । रजकशिला-सदृशीभिः कुक्कुरकर्परसमानचरिताभिः । वेश्याभिर्यदि संगः कृतमिव परलोकवार्ताभिः । प्रसिद्धं बहुभिस्तस्यां प्राप्ता दुःखपरंपराः । श्रेष्ठिना चारुदत्तेन विख्यातेन यथा पराः ।</span> =<span class="HindiText"> जो स्त्री केवल धन के लिए पुरुष का सेवन करती है, उसको वेश्या कहते हैं, ऐसी वेश्याएँ संसार में प्रसिद्ध हैं, उन वेश्याओं को दारिका, दासी, वेश्या वा नगरनायिका आदि नामों से पुकारते हैं ।129। जो मनुष्य मद्य, मांस आदि के दोषों को त्यागकर अपने आत्मा का कल्याण करना चाहते हैं, उनको वेश्या सेवन का त्याग करना चाहिए ।130। वेश्या सेवन से नरकादिक दुर्गतियों में पड़ना पड़ता है । और इस लोक में भी नरक के सदृश यातनाएँ व दुःख भोगने पड़ते हैं ।131। कहा भी है - यह पापिनी वेश्या मांस खाती है, शराब पीती है, झूठ बोलती है, धन के लिए प्रेम करती है, अपने धन और प्रतिष्ठा का नाश करती है और कुटिल मन से वा बिना मन के नीच लोगों की लार को रात-दिन चाटती है, इसलिए वेश्या को छोड़कर संसार में कोई नरक नहीं है । वेश्या तो धोबी की शिला के सदृश है, जिसपर आकर ऊँच-नीच अनेक पुरुषों के घृणित से घृणित और अत्यंत निंदनीय ऐसे वीर्य वा लार आदि मल आकर बहते हैं, अथवा वह वेश्या कुत्ते के मुँह में लगे हुए हड्डों के खप्पर के समान आचरण करती है। ऐसी वेश्या के साथ जो पुरुष समागम करते हैं, वे साथ-साथ परलोक की बातचीत भी अवश्य कर लेते हैं अर्थात् वह नरक अवश्य जाते हैं । इस वेश्यासेवन में आसक्त जीवों ने बहुत दुःख जन्म-जंमांतर तक पाये हैं । जैसे अत्यंत प्रसिद्ध सेठ चारुदत्त ने इस वेश्यासेवन से ही अनेक दुःख पाये थे ।132।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> परस्त्री निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> परस्त्री निषेध</strong> </span><br /> | ||
कुरल/15/10 <span class="SanskritGatha">वरमन्यत्कृतं पापमपराधोऽपि वा वरम् । परं न साध्वी त्वत्पक्षे कांक्षिता प्रतिवेशिनी ।10।</span> =<span class="HindiText">तुम कोई भी अपराध और दूसरा कैसा भी पाप क्यों न करो पर तुम्हारे पक्ष में यही श्रेयस्कर है कि तुम पड़ोसी की स्त्री से सदा दूर रहो । </span><br /> | कुरल/15/10 <span class="SanskritGatha">वरमन्यत्कृतं पापमपराधोऽपि वा वरम् । परं न साध्वी त्वत्पक्षे कांक्षिता प्रतिवेशिनी ।10।</span> =<span class="HindiText">तुम कोई भी अपराध और दूसरा कैसा भी पाप क्यों न करो पर तुम्हारे पक्ष में यही श्रेयस्कर है कि तुम पड़ोसी की स्त्री से सदा दूर रहो । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/ </span>गा.नं. <span class="PrakritGatha">णिस्ससइ रुयइ गायइ णियवसिरं हणइ महियले पड़इ । परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पि जंपेहा ।113। अह भुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बलाधरेऊणं ।.. ।118। अह कावि पाव बहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं । सयमेव पच्छियाओ उवरोहवसेण अप्पाणं ।119। जइ देइ जह वि तत्थ सुण्णहर खंडदेउलयमज्झम्मि । सच्चित्ते भयभीओ सोक्खं किं तत्थ पाउणइ ।120। सोऊण किं पि सद्दं सहसा परिवेवमाणसव्वंगो । ल्हुक्कइ पलाइ पखलइ चउद्दिसं णियइ भयभोओ ।121। जइ पुणकेण वि दीसइ णिज्जइ तो बंधिऊण णिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउणइ सविसेसं ।122। परलोयम्मि अणंतं दुक्खं पाउणइ इह भव समुद्दम्मि । परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण वज्जिज्जा ।124।</span> = <span class="HindiText">पर स्त्री-लंपट पुरुष जब अभिलषित परमहिला को नहीं पाता है, तब वह दीर्घ निश्वास छोड़ता है, रोता है, कभी गाता है, कभी सिर को फोड़ता है और कभी भूतल पर गिरता है और असत्प्रलाप भी करता है ।113। नहीं चाहने वाली किसी पर - महिला को जबर्दस्ती पकड़कर भोगता है । ...118। यदि कोई पापिनी दुराचारिणी अपने शील को नाश करके उपरोध के वश से कामी पुरुष के पास स्वयंउपस्थित भी हो जाय, और अपने आपको सौंप भी देवे ।119। तो भी उस शून्य गृह या खंडित देवकुल के भीतर रमण करता हुआ वह अपने चित्त में भयभीत होने से वहाँ पर क्या सुख पा सकता है ।120। वहाँ पर कुछ भी जरा-सा शब्द सुनकर सहसा थर-थर काँपता हुआ इधर-उधर छिपता है, भागता है, गिरता है और भयभीत हो चारों दिशाओं को देखता है ।121। इस पर यदि कोई देख लेता है तो वह बाँधकर राजदरबार में ले जाया जाता है और वहाँ पर वह चोर से भी अधिक दंड को पाता है ।122। पर स्त्री-लंपटी परलोक में इस संसारसमुद्र के भीतर अनंत दुःख को पाता है । इसलिए परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रियों को मन, वचन काय से त्याग करना चाहिए ।124।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/207 </span><span class="SanskritGatha">एतत्सर्वं परिज्ञाय स्वानुभूमिसमक्षत: । परांगनासु नादेया बुद्धिर्धीधनशालिभि: ।207। </span>= <span class="HindiText">अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से इन सब स्त्रियों को सेवन करनेवाला और भोजनादि में मद्यादि सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ संसर्ग करनेवाला व्रतधारी पुरुष निंदा सहित मद्य-त्याग आदि मूलगुणों की हानि को प्राप्त होता है ।10। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> दुराचारिणी स्त्री का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> दुराचारिणी स्त्री का निषेध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/3/10 </span><span class="SanskritGatha">भजन् मद्यादि भाजः स्त्री-स्तादृशैः सह संसृजन् । भुक्त्यादौ चैति साकीर्ति मद्यादि विरतिक्षतिम् ।10।</span> = <span class="HindiText">मद्य, मांस आदि को खाने वाली स्त्रियों को सेवन करनेवाला और भोजनादि में मद्यादि के सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ संसर्ग करनेवाला व्रतधारी पुरुष निंदा सहित मद्य-त्याग आदि मूलगुणों की हानि को प्राप्त होता है ।10।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> स्त्री के लिए परपुरुषादि का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> स्त्री के लिए परपुरुषादि का निषेध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/994 </span><span class="PrakritGatha">जह सीलरक्खयाणं पुरिसाणं णिंदिदाओ महिलाओ । तह सीलरक्खयाणं महिलाणं णिंदिदापुरिसा ।994।</span> = <span class="HindiText">शील का रक्षण करने वाले पुरुष को स्त्री जैसे निंदनीय अर्थात् त्याग करने योग्य है, वैसे शील का रक्षण करने वाली स्त्रियों को भी पुरुष निंदनीय अर्थात् त्याज्य है ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> अब्रह्म सेवन में दोष</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> अब्रह्म सेवन में दोष</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/922 </span><span class="PrakritGatha">अवि य वहो जीवाणं मेहुणसेवाए होइ बहुगाणं । तिलणालीए तत्ता सलायवेसो य जोणीए ।922। </span>= <span class="HindiText">मैथुन सेवन करने से वह अनेक जीवों का वध करता है । जैसे तिलकी फल्ली में अग्नि से तपी हुई सली प्रविष्ट होने से सब तिल जलकर खाक होते हैं वैसे मैथुन सेवन करते समय योनि में उत्पन्न हुए जीवों का नाश होता है ।922। (विशेष विस्तार देखें [[ ]]<span class="GRef"> भगवती आराधना/890-1117 </span>), (<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/ </span>उ./108) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/23/276/15 </span>पर उद्धृत <span class="PrakritGatha">मेहुण सण्णारूढो णवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं । केवलिणा पण्णत्ता सद्दहिअव्वा सया कालं ।3। इत्थीजोणीए संभवंति बेइंदिया उ जे जीवा । इक्को व दो व तिण्णि व लक्खपुहुत्तं उ उक्कोसं ।4। पुरिसेण सह गयाए तेसिं जीवाण होइ उद्दवणं । वेणुगदिट्ठं तेण तत्तायसलागणाएणं ।5। पंचिंदिया मणुस्सा एगणर भुत्तणारिगब्भम्मि । उक्कोसं णवलक्खा जायंति एगवेलाए ।6। णव लक्खाणं मज्झे जायइ इक्कस्स दोण्ह व समत्ती । सेसा पुण एमेव य विलयं वच्चंति तत्थेव ।7।</span> = <span class="HindiText">केवली भगवान् ने मैथुन के सेवन में नौ लाख सूक्ष्म जीवों का घातबताया है इसमें सदा विश्वास करना चाहिए । 3। तथा स्त्रियों की योनि में दो इंद्रिय जीव उत्पन्न होते हैं । इन जीवों की संख्या एक, दो तीन से लगाकर लाखों तक पहुँच जाती है । 4। जिस समय पुरुष स्त्री के साथ संभोग करता है, उस समय जैसे अग्नि से तपायी हुई लोहे की सलाई को बाँस की नली में डालने से नली में रखे तिल भस्म हो जाते हैं, वैसे ही पुरुष के संयोग से योनि में रहनेवाले संपूर्ण जीवों का नाश हो जाता है ।5। पुरुष और स्त्री के एक बार संयोग करने पर स्त्री के गर्भ में अधिक से अधिक नौ लाख पंचेंद्रिय मनुष्य उत्पन्न होते हैं ।6। इन नौ लाख जीवों में एक या दो जीव जीते हैं बाकी सब जीव नष्ट हो जाते हैं ।7।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">शील की प्रधानता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">शील की प्रधानता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> शीलपाहुड़/ </span>मू./19 <span class="PrakritGatha">जीवदयादम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे । सम्मद्दंसण णाणं तओ य सीलस्स परिवारो ।19।</span> = <span class="HindiText">जीव दया, इंद्रिय दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप ये सर्व शील के परिवार हैं ।19।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> ब्रह्मचर्य की महिमा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> ब्रह्मचर्य की महिमा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/1115/1123 </span><span class="PrakritGatha"> तेल्लोक्काडविडहणो कामग्गी विसयरुक्खपज्जलिओ । जीव्वणतणिल्लचारी जं ण डहइ सो हवइ धण्णो ।1115। </span>= <span class="HindiText">कामाग्नि विषयरूपी वृक्षों का आश्रय लेकर प्रज्वलित हुआ है, त्रैलोक्यरूपी वन को यह महाग्नि जलाने को उद्यत हुआ है परंतु तारुण्यरूपी तृणपर संचार करनेवाले जिन महात्माओं को वह जलाने में असमर्थ है वे महात्मा धन्य हैं । (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/99 </span>) ।</span><br /> | |||
अन./4/60 <span class="SanskritGatha">या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्तिः । तद्ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पांति ते यांति परं प्रमोदम् ।60। </span>= <span class="HindiText">शुद्ध और बुद्ध अपने चित्स्वरूप ब्रह्म में परद्रव्यों का त्याग करने वाले व्यक्ति की अप्रतिहत परिणतिरूप जो चर्या होती है उसी को ब्रह्मचर्य कहते हैं । यह व्रत समस्त व्रतों में सार्वभौम के समान है जो पुरुष इसका पालन करते हैं वे ही पुरुष सर्वोत्कृष्ट आनंद-मोक्षसुख को प्राप्त किया करते हैं ।60। </span><br /> | अन./4/60 <span class="SanskritGatha">या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्तिः । तद्ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पांति ते यांति परं प्रमोदम् ।60। </span>= <span class="HindiText">शुद्ध और बुद्ध अपने चित्स्वरूप ब्रह्म में परद्रव्यों का त्याग करने वाले व्यक्ति की अप्रतिहत परिणतिरूप जो चर्या होती है उसी को ब्रह्मचर्य कहते हैं । यह व्रत समस्त व्रतों में सार्वभौम के समान है जो पुरुष इसका पालन करते हैं वे ही पुरुष सर्वोत्कृष्ट आनंद-मोक्षसुख को प्राप्त किया करते हैं ।60। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/23/277/25 </span>पर उद्धृत <span class="SanskritGatha">एकरात्रौषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा ऋृतुसहस्रेण प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ।</span> =<span class="HindiText"> हे युधिष्ठिर! एक रात ब्रह्मचर्य से रहने वाले पुरुष को जो उत्तमगति मिलती है, वह गति हजारों यज्ञ करने से भी नहीं होगी ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> स्त्री पुरुषादिका सहवास मात्र अब्रह्म नहीं हो सकता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> स्त्री पुरुषादिका सहवास मात्र अब्रह्म नहीं हो सकता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/16/9/544/14 </span><span class="SanskritText"> मिथुनस्य भाव (मैथुनं) इति चेन्न द्रव्यद्वय- भवनमात्रप्रसंगादिति, तदसत् अभ्यंतरपरिणामाभावे बाह्यहेतुरफलत्वात् । ... अभ्यंतरचारित्रमोहोदयापादितम्त्रैंणपौंस्नात्मकरतिपरिणामाभावात् बाह्यद्रव्यद्वयभवनेऽपि न मैथुनम् । ... स्त्रीपुंसयोः कर्मेति चेन्न पच्यादिक्रियाप्रसंगात् इति; तदसांप्रतम्; कुतः तद्विषय- स्यैव ग्रहणात् । तयोरेव यत्कर्म तदिह गृह्यते, पच्यादिकर्म पुनः अन्येनापि क्रियते । ... नमस्काराद्युपयुक्तस्य ... वंदनादिमिथुनकर्मणि न मैथुनम् । ... = ‘मिथुनस्य भावः</span>’ <span class="HindiText">इस पक्ष में जो दो स्त्री-पुरुषरूप द्रव्यों की सत्ता मात्र को मैथुनत्व का प्रसंग दिया जाता है, वह उचित नहीं है, क्योंकि अभ्यंतर चारित्र-मोहोदयरूपी परिणाम के अभाव में बाह्य कारण निरर्थक है । उसी तरह अभ्यंतर चारित्रमोहोदय के स्त्रैण पौंस्नरूप रति परिणाम न होने से बाह्य में रति परिणाम रहित दो द्रव्यों के रहने पर भी मैथुन का व्यवहार नहीं होता । - स्त्री और पुरुष के कर्म पक्ष में पाकादि क्रिया और वंदनादि क्रिया में मैथुनत्व का प्रसंग उचित नहीं है, क्योंकि स्त्री और पुरुष के संयोग से होनेवाला कर्म वहाँ विवक्षित है, पाकादि क्रिया तो अन्य से भी हो जाती है । (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/16/353/11 </span>) ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> मैथुन के लक्षण से हस्तक्रिया आदि में अब्रह्म सिद्ध नहीं होगा </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> मैथुन के लक्षण से हस्तक्रिया आदि में अब्रह्म सिद्ध नहीं होगा </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/16/5-8/543-544/33 </span><span class="SanskritText">न वैतद्युक्तम् । कुतः ? एकस्मिन्न- प्रसंगात् । हस्तपादपुद्गलसंघट्टनादि भिरब्रह्मसेवमाने एकस्मिन्नपि मैथुनमिष्यते, तन्न सिद्ध्यति ।5। यथा स्त्रीपुंसयो रत्यर्थे संयोगे परस्पररतिकृतस्पर्शाभिमानात् सुखं तथैकस्यापि हस्तादिसंघट्टनात् स्पर्शाभिमानस्तुल्यः । तस्मान्मुख्य एव तत्रापि मैथुनशब्दलाभः रागद्वेषमोहाविष्टत्वात् ।7। यथैकस्यापि पिशाचवशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वं तथैकस्य चारित्रमोहोदयाविष्कृतकामपिशाचवशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वसिद्धेः मैथुनव्यवहारसिद्धिः ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यह मैथुन का लक्षण युक्त नहीं है, क्योंकि एक ही व्यक्ति के हस्तादि पुद्गल के रगड़ से अब्रह्म के सेवन करने पर भी मैथुन क्रिया मानी गयी है । परंतु इससे (मैथुन के लक्षण से) वह सिद्ध न होगी । <strong>उत्तर-</strong> जिस प्रकार स्त्री और पुरुष का रति के समय संयोग होने पर स्पर्शसुख होता है, उसी तरह एक व्यक्ति का भी हाथ आदि के संयोग से स्पर्शसुख का भान होता है, अतः हस्तमैथुन भी मैथुन कहा जाता है, यह औपचारिक नहीं है, क्योंकि राग, द्वेष, मोह से आविष्ट है । (अन्यथा इससे कर्मबंध न होगा) ।7। यहाँ एक ही व्यक्ति चारित्र मोह के उदय से प्रकट हुए कामरूपी पिशाच के संपर्क से दो हो गया है और दो के कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं है ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> परस्त्री त्याग संबंधी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> परस्त्री त्याग संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/ </span>श्लोक नं. <span class="SanskritGatha">ननु यथा धर्मपत्न्यां यैव दास्यां क्रियैव सा । विशेषानुपलब्धेश्च कथं भेदोऽवधार्यते ।189 । मैवं स्पर्शादि यद्वस्तु बाह्यं विषयसंज्ञिकम् । तद्भेतुस्तादृशो भावो जीवस्यैवास्ति निश्चयात् ।191। दृश्यते जलमेवैकमेकरूपं स्वरूपतः । चंदनादि-वनराजि प्राप्य नानात्वमध्यगात् ।192। त्याज्यं वत्स परस्त्रीषु रतिं तृष्णोपशांतये । विमृश्य चापदां चक्रं लोकद्वयविध्वंसिनीम् ।209। आस्तां यन्नरके दुःखं भावतीब्रानुवेदिनाम् । जातं परांगनासक्ते लोहांगनादिलिंगनात् ।212। इहैवानर्थसंदोहो यावानस्ति सुदस्सहः तावान्न शक्यते वक्तुमन्वयोषिन्मतेरितः ।213।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> विषयसेवन करतेसमय जो क्रिया धर्मपत्नी में की जाती है वही क्रिया दासी में की जाती है । अतः क्रिया में भेद न होने से उन दोनों में कोई भेद नहीं होना चाहिए । 189। <strong>उत्तर-</strong> कर्मबंध में वा परिणामों में शुभ-अशुभपना होने में स्पर्श करना वा विषय सेवना आदि ब्राह्य वस्तु ही कारण नहीं है किंतु जीवों के वैसे परिणाम होना ही निश्चय कारण हैं । (अर्थात् दासी के सेवन में तीव्र लालसा होती है इससे तीव्र अशुभ कर्म का बंध होता है ।) ।191। जल एक स्वरूप का होने पर भी चंदनादि वनराजि को प्राप्त होने पर पात्र के भेद से नाना प्रकार का परिणत हो जाता है । उसी प्रकार दासी व धर्मपत्नी के साथ एक-सी क्रिया होने पर भी पात्र भेद से परिणामों में अंतर होता है तथा परिणामों में अंतर होने से शुभ व अशुभ कर्मबंध में अंतर पड़ जाता है । 192। हे वत्स! परस्त्री में प्रेम करना आपत्तियों का स्थान है, वह परस्त्री दोनों लोकों के हित का नाश करने वाली है, यही समझकर अपनी तृष्णा व लालसा को शांत करने के लिए परस्त्री में प्रेम करना छोड़ ।209। परस्त्री सेवनेवालों को नरक में उनकी तीव्र लालसा के कारण गरम लोहे की स्त्रियों से आलिंगन कराने से तो महादुःख होता है, किंतु इस लोक में भी अत्यंत असह्य दुःख व अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं ।212-213।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> ब्रह्मचर्य व्रत व ब्रह्मचर्य प्रतिमा में अंतर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> ब्रह्मचर्य व्रत व ब्रह्मचर्य प्रतिमा में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/7/19 </span><span class="SanskritGatha">प्रथमाश्रमिणः प्रोक्ता, ये पंचोपनयादयः । तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुर्युर्दारानन्यत्र नैष्ठिकात् ।19।</span> = <span class="HindiText">जो प्रथम आश्रमवाले (ब्रह्मचर्याश्रमी) मौंजी बंधनपूर्वक व्रत ग्रहण करने वाले उपनय आदिक पाँच प्रकार के ब्रह्मचारी (देखें [[ ]] ब्रह्मचारी) कहे गये हैं वे सब नैष्ठिक के बिना शेष सब शास्त्रों को पढ़कर स्त्री को स्वीकार करते हैं ।19।<br /> | |||
देखें [[ ब्रह्मचर्य | देखें [[ ]]ब्रह्मचर्य/1/3-4 (द्वितीय प्रतिमा में ग्रहण किये एक ब्रह्मचर्य अणुव्रत में तो अपनी धर्मपत्नी का भोग करता था । परंतु इस ब्रह्मचर्य प्रतिमा को स्वीकार करने पर नव प्रकार से तीनों काल संबंधी समस्त स्त्रीमात्र के सेवन का त्याग कर देता है )। </span></li> | ||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
अध्यात्ममार्ग में ब्रह्मचर्य को सर्व प्रधान माना जाता है, क्योंकिब्रह्म में रमणता ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है । निश्चय से देखने पर क्रोधादि निग्रहका भी इसी में अंतर्भाव हो जाने से इसके 1800 भंग हो जाते हैं परंतु स्त्री के त्यागरूप ब्रह्मचर्य की भी लोक व परमार्थ दोनों क्षेत्रों में बहुत महत्ता है । वह ब्रह्मचर्य अणुव्रतरूप से भी ग्रहण किया जाता है महाव्रतरूप से भी । अब्रह्म -सेवन से चित्तभ्रम आदि अनेक दोष होते हैं, अतः विवेकी जनों को सदा ही अपनी- अपनी शक्ति के अनुसार दुराचारिणी स्त्रियों के अथवा पर स्त्रीके, वा स्वस्त्री के भी साये से बचकर रहना चाहिए, और इसी प्रकार स्त्री को पुरुषों से बचकर रहना चाहिए । यद्यपि ब्रह्मचर्य को भी कथंचित् सावद्य कहा जाता है, परंतु फिर भी इसका पालन करना श्रेयस्कर है ।
- भेद व लक्षण
- ब्रह्मचर्य सामान्य का लक्षण ।
- ब्रह्मचर्य विशेष के लक्षण ।
- ब्रह्मचर्य महाव्रत व अणुव्रत का लक्षण ।
- ब्रह्मचर्य प्रतिमा का लक्षण ।
- घोर व अघोरगुण ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि - देखें ऋद्धि - 5 ।
- शील के लक्षण ।
- शील के 18000 भंग व भेद ।
- ब्रह्मचर्य सामान्य का लक्षण ।
- ब्रह्मचर्य निर्देश
- दश धर्मों में ब्रह्मचर्य निर्देश ।- देखें धर्म - 8 । व 1/6
- ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ ।
- ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ कुछ भावनाएँ ।
- ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार ।
- शील के दस दोष ।
- दश धर्मों में ब्रह्मचर्य निर्देश ।- देखें धर्म - 8 । व 1/6
- * व्रत की भावनाओं व अतिचारों संबंधी विशेष विचार - देखें व्रत - 2 ।
- अब्रह्म का निषेध व ब्रह्मचर्य की प्रधानता
- वेश्यागमन का निषेध ।
- परस्त्री निषेध ।
- दुराचारिणी स्त्री का निषेध ।
- वेश्यागमन का निषेध ।
- धर्मपत्नी के अतिरिक्त समस्त स्त्री का निषेध - देखें स्त्री - 12
- स्त्री के लिए पर पुरुषादि का निषेध ।
- अब्रह्म सेवन में दोष ।
- काम व काम के 10 विकार - देखें काम - 1,3
- अब्रह्म का हिंसा में अंतर्भाव -देखें हिंसा - 1.4 ।
- ब्रह्मचर्य भी कथंचित् सावद्य है - देखें सावद्य । 7
- शील की प्रधानता ।
- ब्रह्मचर्य की महिमा ।
- शंका समाधान
- स्त्री पुरुषादि का सहवास मात्र अब्रह्म नहीं हो सकता ।
- मैथुन के लक्षण से हस्तक्रिया आदि में अब्रह्म सिद्ध नहीं होगा ।
- परस्त्री त्याग संबंधी ।
- ब्रह्मचर्य व्रत व प्रतिमा में अंतर ।
- स्त्री पुरुषादि का सहवास मात्र अब्रह्म नहीं हो सकता ।
- भेद व लक्षण
- ब्रह्मचर्य सामान्य का लक्षण
- निश्चय
भगवती आराधना/878 जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरियाहविज्ज जा जणिंदो । तं जाण बंभचेर विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ।878। = जीव ब्रह्म है, जीव ही में जो मुनि की चर्या होती है उस को परदेह की सेवारहित ब्रह्मचर्य जानो । ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/109 पर उद्धृत) ।
पं.वि./12/2 आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं पर । स्वांगासंगविवर्जितैकमनस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । ... ।2। = ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी संबंध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी के ब्रह्मचर्य होता है । ( अनगारधर्मामृत /4/60 ) ।
अनगारधर्मामृत /6/55 चरणं ब्रह्मणि गुरावस्वातंत्र्येण यन्मुदा । चरणं ब्रह्मणि परे तत्स्वातंत्र्येण वर्णिनः 55। = मैथुनकर्म से सर्वथा निवृत्त वर्णी की आत्मतत्त्व के उपदेष्टा गुरुओं की प्रीतिपूर्वक अधीनता स्वीकार कर ली गयी है, अथवा ज्ञान और आत्मा के विषय में स्वतंत्रतया की गयी प्रवृत्ति को ब्रह्मचर्य कहते हैं ।
- व्यवहार की अपेक्षा
बारस अणुवेक्खा/80 सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावम् । सो बम्ह-चेरभावं मुक्कदि खलुदुद्धरं धरदि ।80। = जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सारे सुंदर अंगों को देखकर उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है । (पं. वि./1/104) ।
सर्वार्थसिद्धि/9/6/413/3 अनुभूतांगनास्मरणकथाश्रवणस्त्रीसंसक्तशयनासनादिवर्जनाद् ब्रह्मचर्य परिपूर्णमवतिष्ठते । स्वतंत्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम् । = अनुभूत स्त्री का स्मरण न करने से, स्त्री विषयक कथा के सुनने का त्यागकरने से और स्त्री से सटकर सोने व बैठने का त्याग करने से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतंत्र वृत्तिका त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ब्रह्मचर्य है । ( राजवार्तिक/9/6/22/598/27 ) ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/46/154/16 ब्रह्मचर्य नवविधब्रह्मपालनं । = नव प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य है ।
पं.वि./12/2...स्वांगासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । एवं सत्यबलाः स्वमातृभगिनीपुत्रीसमाः प्रेक्षते, वृद्धाद्या विजितेंद्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् ।2। = जो अपने शरीर से निर्ममत्व हो चुका है, वह इंद्रिय-विजयी होकर वृद्धा आदि स्त्रियोंको क्रम से माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, तो वह मुनि ब्रह्मचारी होता है ।
का.आ./मू./403 जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव पस्सदे रूवं । कामकहादि-णिरीहो णव-विह-बंभं हवे तस्स ।403। जो मुनि स्त्रियों के संग से बचता है, उनके रूप को नहीं देखता, काम कथादि नहीं करता उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है ।403।
- निश्चय
- ब्रह्मचर्य विशेष के लक्षण
- दस प्रकार का ब्रह्मचर्य
भगवती आराधना/879-881 उत्थानिका - मनसा वचसा शरीरेण परशरीर-गोचरव्यापारातिशयं त्यक्तवतः दशविधाब्रह्मत्यागात् दशविधं ब्रह्मचर्य भवतीति वक्तुकामो ब्रह्मभेदमाचष्टे - इच्छिविसयाभिलासो वच्छि- विमोक्खो य पणिदरससेवा । संसत्तदव्वसेवा तदिंदियालोयणं चेव ।879। सक्कारो संकारो अदीदसुमरणमणागदभिलासे । इट्ठविसयसेवा वि य अब्बं भं दसविहं एदं ।880। एवं विसग्गिमूदं अब्बं भं दसविहंपि णादव्वं । आवादे मदुरम्मिव होदि विवागे य कडुयदरं ।881। = मन से, वचन से और शरीर से परशरीर के साथ जिसने प्रवृत्ति करना छोड़दिया है, ऐसा मुनि दस प्रकार के अब्रह्मका त्याग करता है । तब वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्यों का पालन करता है । ग्रंथकार अब दस प्रकार के अब्रह्म का वर्णन करते हैं -- स्त्री संबंधी विषयों की अभिलाषा,
- वत्थिमोक्खो - अपने इंद्रिय अर्थात् लिंग में विकार होना,
- वृष्यरससेवा - पौष्टिक आहार का ग्रहण करना, जिससे बल व वीर्य की वृद्धि हो ।
- संसक्तद्रव्यसेवा - स्त्री का स्पर्श अथवा उसकी शय्या आदि पदार्थों का सेवन करना ।
- तदिंद्रियालोचन - स्त्रियों के सुंदर शरीर का अवलोकन करना ।
- सत्कार - स्त्रियों का सत्कार करना,
- सम्माण - उनके देहपर प्रेम रखकर वस्त्र आदि से सत्कार करना ।
- अतीत स्मरण - भूतकाल में की रति, क्रीड़ाओं का स्मरण करना।
- अनागताभिलाष - भविष्यत् काल में उनके साथ ऐसी क्रीड़ा करूँगा ऐसी अभिलाषा मन में करना ।
- इष्टविषय सेवा - मनोवांछित सौध, उद्यान वगैरह का उपभोग करना । ये अब्रह्म के दस प्रकार हैं ।879-880। ये दस प्रकार का अब्रह्म विष और अग्नि के समान है, इसका आरंभ मधुर, परंतु अंत कड़ुआ है । (ऐसा जानकर जो इसका त्याग करता है वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करता है ।) ।881। ( अनगारधर्मामृत/4/61 ), ( भावपाहुड़ टीका 96/246 ) पर उद्धृत) ।
- नव प्रकार का ब्रह्मचर्य
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/403 तस्य मुनेः ब्रह्मचर्य भवेत्, नवप्रकारैः कृतकारितानुमत-गुणितमनोवचनकायैः कृत्वा स्त्रीसंगं वर्जयतीति ब्रह्मचर्य स्यात् । = जो मुनि स्त्री-संग का त्याग करता है उसी के मन, वचन, काय और कृतकारित-अनुमोदन के भेद से नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य होता है । (भ.पा./टी./96/245/22) ।
- दस प्रकार का ब्रह्मचर्य
- ब्रह्मचर्य महाव्रत व अणुव्रत का लक्षण
- महाव्रत
नियमसार/59 दट्ठूण इच्छिरूवं वांछाभावं णिवत्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं ।59। = स्त्रियों का रूप देखकर उनके प्रति वांछाभाव की निवृत्ति अथवा मैथुनसंज्ञा-रहित जो परिणाम वह चौथा व्रत है । ( चारित्तपाहुड़/ टी./28/47/24) ।
मू.आ./8,292 मादुसुदा भगिणीविय दट्ठूणित्थित्तियं च पडिरूवं । इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभं ।8। अच्चित्तदेवमाणुस- तिरिक्खजादं च मेहुणं चदुधा । तिविहेण तं ण सेवदि णिच्चं पिमुणीहि पयदमणो ।292। = जो वृद्धा,बाला, यौवनवाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी तस्वीरों को देखकर उनको माता-पुत्री-बहन समान समझ स्त्री-संबंधी कथादि का अनुराग छोड़ता है, वह तीनों लोकों का पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है ।8। चित्र आदि अचेतनदेवी, मानुषी, तिर्यंचनी; सचेतन स्त्री ऐसी चार प्रकार स्त्री को मन, वचन, काय से जो नहीं सेवता तथा प्रयत्न मन से ध्यानादि में लगा हुआ है, वही ब्रह्मचर्य व्रत है ।292।
- अणुव्रत
र.क./59 न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृतिः स्वदारसंतोषानामपि ।59। =जो पाप के भय सेन तो पर स्त्री के प्रतिगमन करै और न दूसरों को गमन करावै, वह परस्त्री-त्याग तथा स्वदार-संतोष नाम का अणुव्रत है ।59। ( सागार धर्मामृत/4/52 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/10 उपात्ताया अनुपात्तायाश्च परांगनायाः संगान्निवृत्तरतिर्गृहीति चतुर्थमणुव्रतम् । = गृहस्थ के स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का संग से रति हट जाती है इसलिए उसके परस्त्री नाम का चौथा अणुव्रत होता है । ( राजवार्तिक/7/20/4/547/13 ) ।
वसुनंदी श्रावकाचार/212 पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकीड़ा सया विवज्जंतो । थूलयड-बंभयारी जिणेहि भणिओ पवयणम्मि ।212। = अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में स्त्री - सेवन और सदैव अनंग क्रीड़ा का त्याग करने वाले जीव को प्रवचन में भगवान् ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है ।212। ( गुणभद्र श्रावकाचार/136 ) ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/337-338 असुइ-मयं दुग्गंधं महिला-देहं विरच्चमाणो जो । रूवं लावण्णं पि य मण-मोहण-कारणं मुणइ ।337। जो मण्णदि परमहिलं जणणी- बहिणी- सुआइ-सारिच्छं । मण-वयणे कायण वि बंभ-वई सो हवे थूलो ।338। = जो स्त्री के शरीर को अशुचिमय और दुर्गंधित जानकर उसके रूप-लावण्य को भी मन में मोह को पैदा करने वाला मानता है तथा मन-वचन और काय से परायी स्त्री को माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, वह श्रावक स्थूल ब्रह्मचर्य का धारी है ।
चारित्तपाहुड़/21/43/21 ब्रह्मचर्य स्वदारसंतोषः परदारिनिवृत्तिः कस्यचित्तसर्वस्त्री निवृत्तिः । = स्व स्त्री संतोष, अथवा परस्त्री से निवृत्तिवा किसी के सर्वथा स्त्री के त्याग का नाम ब्रह्मचर्य व्रत है ।
- महाव्रत
- ब्रह्मचर्य प्रतिमा का लक्षण
रत्नकरंड श्रावकाचार/143 मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगंधिवीभत्सां पश्यन्नंगमनंगाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ।143। = जो मल के बीजभूत, मल को उत्पन्न करने वाले, मलप्रवाही, दुर्गंधयुक्त, लज्जाजनक वा ग्लानियुक्त अंग को देखता हुआ काम-सेवन से विरक्त होता है, वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारी ब्रह्मचारी है ।143।
वसुनंदी श्रावकाचार/297 पुव्वुत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो । इत्थि-कहाइणिवित्तो सत्तमगुणवंभयारी सो ।297। = जो पूर्वोक्त नौ प्रकार के मैथुन को सर्वदा त्याग करता हुआ स्त्रीकथा आदि से भी निवृत्त हो जाता है, वह सातवीं प्रतिमारूप गुणका धारी ब्रह्मचारी श्रावक है ।297। ( गुणभद्र श्रावकाचार/180 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/45/8 ), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/384 ), ( सागार धर्मामृत/7/17 ), ( लाटी संहिता/6/25 ) ।
- शील के लक्षण
शील.पा./मू./40... सीलं विसयविरागो ...।40। = पंचेंद्रिय के विषय से विरक्त होना शील कहलाता है ।
धवला 8/3,41/82/5 वद परिरक्खणं सीलं णाम । = व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं . ( परमात्मप्रकाश टीका 2/67 ) ।
अनगारधर्मामृत/4/172 शीलं व्रतपरिरक्षणमुपैतु शुभयोगवृत्तिमितरहतिम् । संज्ञाक्षविरतिरोधौ क्ष्मादियममलात्ययं क्षमादींश्च ।172। = जिसके द्वारा व्रतों की रक्षा की जाय उसको शील कहते हैं । संज्ञाओं का परिहार और इंद्रियों का निरोध करना चाहिए, तथा उत्तमक्षमादि दस धर्म को धारण करना चाहिए ।172।
देखें प्रकृतिबंध - 1.1 ( प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची हैं) ।
- शील के 18000 भंग वभेद
- सामान्य भेद
भावपाहुड़/ पं.जयचंद/120/240/1 शील की दोय प्रकार प्ररूपणा है - एक तो स्वद्रव्य-परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा है अर दूसरी स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा है ।
- स्वद्रव्य परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा
मू.आ./1017-1020 जोए करणे सण्णा इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य । अण्णोण्णेहिं अभत्था अट्ठारहसील सहस्साहं ।1017। तिग्हं सुहसंजोगो जोगो करणं च असुहसंजोगो । आहारादी सण्णा फासंदिय इंदिया णेया ।1018। पुढविगदगागणिमारुदपत्तेयअणंतकायिया चेव । विगतिगचदुपंचेंदिय भोम्मादि हवदि दस एदे ।1019। खंती मद्दव अज्जव लाघव तव संजमो आकिंचणदा । तह होदि बंभचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा ।1020। =- तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इंद्रिय, दस पृथ्वी आदिक काय, दस मुनि धर्म - इनको आपस में गुणा करने से अठारह हजार शील होते हैं ।1017।
- मन, वचन, काय का शुभकर्म के ग्रहण करने के लिए व्यापार वह योग है और अशुभ के लिए प्रवृत्ति वह करण है । आहारादि चार संज्ञा हैं, स्पर्शन आदि पाँच इंद्रिया हैं ।1018। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय - ये पृथिवी आदि दस हैं ।1019। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य, त्याग ये दस मुनिधर्म हैं ।1020। ( भावपाहुड़ टीका/118/267/6 ), ( भावपाहुड़/ पं. जयचंद /120/240/4) ।
- स्त्री-संसर्ग की अपेक्षा
काष्ठ, पाषाण, चित्राम (3 प्रकार अचेतन स्त्री) x मन अर काय = (3x2=6) (यहाँ वचन नाहीं) । कृत-कारित- अनुमोदना = (6x3= 18) । पाँच इंद्रिय (18x5=90) । द्रव्यभाव (90x2=180) । क्रोध-मान-माया-लोभ (180x4=720) । ये तो अचेतन स्त्री के आश्रित कहे । देवी, मनुष्याणी, तिर्यंचिनी (3 प्रकार चेतनस्त्री) x मन, वचन, काय (3x3 =9) । कृत, कारित, अनुमोदना (9x3= 27) । पंचेंद्रिय (27x5=135) । द्रव्य भाव (135x2=270) । चार संज्ञा (270x4 = 1080) । सोलह कषाय (1080x16=17280) । इस प्रकार चेतन स्त्री के आश्रित 17280 भेद कहे । कुल मिलाकर (720+17280) शील के 18000 भेद हुए । ( भावपाहुड़ टीका/118/267/14 ) ( भावपाहुड़/ पं. जयचंद/120/240) ।
- स्वद्रव्य परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा
- सामान्य भेद
- ब्रह्मचर्य सामान्य का लक्षण
- ब्रह्मचर्य निर्देश
- ब्रह्मचर्य व्रत की 5 भावनाएँ
भगवती आराधना 1210 महिलालोयणपुव्वरदिसरण संसत्तवसहिविकहाहिं । पणिदरसेहिं य विरदी भावना पंच बंभस्स ।1210। = स्त्रियों के अंग देखना, पूर्वानुभूत भोगादिका स्मरण करना, स्त्रियाँ जहाँ रहती हैं वहाँ रहना, शृंगार कथा करना, इन चार बातों से विरक्त रहना, तथा बल व उन्मत्तता, उत्पादक पदार्थों का सेवन करना, इन पाँच बातों का त्याग करना ये ब्रह्मचर्य की पाँच भावनाएँ हैं ।1210। (मू.आं.340) ( चारित्तपाहुड़/ मू./35) ।
तत्त्वार्थसूत्र/7/7 स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतःनुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ।7। = स्त्रियों में राग को पैदा करने वाली कथा के सुनने का त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पूर्व भोगों के स्मरण का त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रसका त्याग तथा अपने शरीर के संस्कार का त्याग, ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।7।
सर्वार्थसिद्धि/7/9/347/11 अब्रह्मचारी मदविभ्रमोद्भ्रांतचित्तो वनगज इव वासिता वंचितो विवशो वधबंधनपरिक्लेशाननुभवति मोहाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानभिज्ञो न किंचित्कुशलमाचरति परांग-नालिंगनसंगकृतरतिश्चेहैव वैरानुबंधिनो लिंगच्छेदनवधबंधसर्व- स्वहरणादीनपायान् प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिमश्नुते गर्हितश्च भवति अतो विरतिरात्महिता । जो अब्रह्मचारी है, उसका चित्त मद से भ्रमता रहता है । जिस प्रकार वन का हाथी हथिनी से जुदा कर दिया जाता है, और विवश होकर उसे वध, बंधनऔर क्लेश आदि दुःखों को भोगना पड़ता है, ठीक यही अवस्था अब्रह्मचारी की होती है । मोह से अभिभूत होने के कारण वह कार्य-अकार्य के विवेक से रहित होकर कुछ भी उचित आचरण नहीं करता । पर स्त्री के राग में जिसकी रति रहती है, इसलिए वह वैरको बढ़ानेवाले लिंग का छेदा जाना, मारा जाना, बाँधा जाना और सर्वस्व का अपहरण किया जाना आदि दुःखों को और परलोक में अशुभगति को प्राप्त होता है तथा गर्हित होता है । इसलिए अब्रह्मका त्याग आत्महितकारी है ।
- ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ कुछ भावनाएँ
भगवती आराधना/882/994 कामकदा इत्थिकदा दोसा असुचित्तबुढ्ढसेवा य । संसग्गीदोसावियकरंति इत्थीषु वेरग्गं ।882। = कामदोष, स्त्रीकृत दोष, शरीर की अपवित्रता, वृद्धों की सेवा, और संसर्ग दोष इन पाँच कारणों से स्त्रियों से वैराग्य उत्पन्न होता है । 882।
राजवार्तिक/9/6/27/599/30 ब्रह्मचर्यमनुपालयंतं हिंसादयो दोषा न स्पृशंति । नित्याभिरतगुरुकुलावासमधिवसंति गुणसंपदः । वरांगनाविलासविभ्रमविधेयीकृतः पापैरपि विधेयीक्रियते । अजितेंद्रियता हि लोके प्राणिनामवमानदात्रीति । एवमुत्तमक्षमादिषु तत्प्रतिपक्षेषु च गुणदोषविचारपूर्विकायां क्रोधादिनिवृत्तौ सत्यां तंनिबंधनकर्मास्रवाभावात् महान् संवरो भवति । = ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले के हिंसा आदि दोष नहीं लगते । नित्य गुरुकुलवासी को गुण संपदाएँ अपने- आप मिल जाती है । स्त्री विलास विभ्रम आदि का शिकार हुआ प्राणी पापों का भी शिकार बनता है । संसार में अजितेंद्रियता बड़ा अपमान कराती है । इस तरह उत्तम क्षमादि गुणों का तथा क्रोधादि दोषों का विचार करने से क्रोधादिकी निवृत्ति होने पर तन्निमित्तक कर्मों का आस्रव रुककर महान् संवर होता है ।
पं.वि./1/105 अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्याः, हृदि विरचित-रागाः कामिनीनां वसंति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदंघ्री, प्रतिदिनमतिनम्रास्तेऽपि नित्यं स्तुवंति ।105। = लोक में पुण्यवान् पुरुष राग को उत्पन्न करके निरंतर ही स्त्रियों के हृदय में निवास करते हैं । ये पुण्यवान् पुरुष भी जिन मुनियों के हृदय में वे स्त्रियाँ कभी और किसी प्रकार से भी नहीं रहती हैं उन मुनियों के चरणों की प्रतिदिन अत्यंत नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ।105।
- ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार
- स्वदार संतोष व्रत की अपेक्षा
देखें ब्रह्मचर्य - 1.1.2, (स्वस्त्री भोगाभिलाष, इंद्रियविकार, पुष्टरससेवा, स्त्री द्वारा स्पर्श की हुई शय्या का सेवन करना, स्त्री के अंगोपांग का अवलोकन करना, स्त्री का अधिक सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, पूर्वभोगानुस्मरण, आगामी भोगाभिलाष, इष्ट विषयसेवन ये दस अब्रह्म के प्रकार हैं ।)
मू.आ./996-998 पढ़म विउलाहारं विदियं काय सोहणं । तदियं गंधमल्लाइं चउत्थं गीयवाइयं ।996। तह सयणसोधणंपि य इत्थिसंसग्गपि अत्थसंगहणं । पुव्वरदिसरणमिंदियविसयरदी पणीदरससेवा ।997। दसविहमव्वंभविणं संसारमहादुहाणमावाहं । परिहरेइ जो महप्पा सो दढबंभव्वदो होदि।998। =- बहुत भोजन करना,
- तैलादि से शरीर का संस्कार करना,
- सुगंध, पुष्पमालादिका सेवन,
- गीतनृत्यादि देखना,
- शय्या-क्रीड़ागृह या चित्रशाला आदि की खोज करना ।
- कटाक्ष करती स्त्रियों के साथ खेलना,
- आभूषण वस्त्रादि पहचानना,
- पूर्व भोगानुस्मरण,
- रूपादि इंद्रियविषयों में प्रेम,
- इष्ट व पुष्ट रस का सेवन, ये दस प्रकार का अब्रह्म संसार के महा दुःखों का स्थान है । इसको जो महात्मा संयमी त्यागता है, वही दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रत का धारी होता है ।
तत्त्वार्थसूत्र/7/28 परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः ।28। = पर विवाहकरण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा, और काम-तीव्राभिनिवेश ये स्वदारसंतोष अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ।28। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/60 ) ।
ज्ञानार्णव/11/7-9 आद्यं शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते ।7। योषिद्विषयसंकल्पः पंचमं परिकीर्तितम् । तदंगवीक्षणं षष्ठं संस्कारः सप्तमं मतम् ।8। पूर्वानुभोग-संभोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवमं भाविनी चिंता दशमं वस्तिमोक्षणम् । 9। =- प्रथम तो शरीर का संस्कार करना,
- पुष्टरसका सेवन करना,
- गीत-वादित्रादिका देखना,
- गीत-वादित्रादिका सुनना,
- स्त्री में किसीप्रकार का संकल्प वा विचार करना ।
- स्त्री के अंग देखना,
- देखने का संस्कार हृदय में रहना ।
- पूर्व में किये भोग का स्मरण करना,
- आगामी भोगने की चिंता करनी,
- शुक्र का क्षरण । इस प्रकार मैथुन के दश भेद हैं, इन्हें ब्रह्मचारी को सर्वथा त्यागने चाहिए ।7-9।
- परस्त्री त्याग व्रत की अपेक्षा
सागार धर्मामृत/3/23 कंयादूषणगांधर्व-विवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्रीव्यसनत्यागव्रतशुद्धिविधितस्या ।23। = परस्त्री-व्यसन का त्यागी श्रावक परस्त्री-व्यसन के त्यागरूप व्रत की शुद्धि को करने की इच्छा से कन्या के लिए दूषण लगाने को और गांधर्व विवाह आदि करने को छोड़े ।23।
लाटी संहिता/2/186,207 भोगपत्नी निषिद्धा स्यात्सर्वतो धर्मवेदिनाम् । ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।186। एतत्सर्वं परिज्ञाय स्वानुभूति समक्षत्: । परांगनासु नादेया बुद्धिर्धीधनशालिभिः ।207। = धर्म के जानने वाले पुरुषों को भोगपत्नी का पूर्णरूप से त्याग कर देना चाहिए , क्योंकि यद्यपि विवाहित होने के कारण वह ग्रहण करने योग्य है, तथापि धर्मपत्नी से वह सर्वथा भिन्न है, सब तरह के अधिकारों से रहित है, इसलिए उसका सेवन करने में दोष है ।186। (धर्मपत्नी आदि भेद - देखें स्त्री ) अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से इन सबको स्त्रियों के भेदों में समझकर बुद्धिमान पुरुषों को परस्त्रियों का सेवन करने में अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए ।207।
- वेश्या त्याग व्रत की अपेक्षा
सागार धर्मामृत/3/20 त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्तिं, वृथाट्यां विंगसंगतिम् । नित्यं पण्यांगनात्यागी, तद्गेहगमनादि च ।20। = वेश्या व्यसन का त्यागीश्रावक गीत, नृत्य और वाद्य में आसक्ति को, बिना प्रयोजन घूमने को, व्यभिचारी पुरुषों की संगति को, और वेश्या के घर आने-जाने आदि को सदा छोड़ देवे ।20।
- शील के दस दोष
दर्शनपाहुड़ टी./9/9/4 कास्ता: शीलविरोधना: स्त्रीसंसर्ग: सरसाहार: सुगंधसंस्कार: कोमलशयनासनं शरीरमंडनं गीतवादित्रश्रवणम् अर्थग्रहणं कुशीलसंसर्ग: राजसेवा रात्रिसंचरणम् इति दशशीलविराधना: । =- स्त्री का संसर्ग,
- स्वादिष्ट आहार,
- सुगंधित पदार्थों से शरीर का संस्कार,
- कोमल शय्या व आसन आदि पर सोना, बैठना,
- अलंकारादि से शरीर का शृंगार,
- गीत-वादित्र-श्रवण,
- अधिक धन ग्रहण,
- कुशीले व्यक्तियों की संगति,
- राजा की सेवा,
- रात्रि में इधर-उधर घूमना, ऐसे दस प्रकार से शील की विराधना होती है ।
- स्वदार संतोष व्रत की अपेक्षा
- ब्रह्मचर्य व्रत की 5 भावनाएँ
- अब्रह्म का निषेध व ब्रह्मचर्य की प्रधानता
- वेश्यागमन का निषेध
वसुनंदी श्रावकाचार/88-93 कारुय-किराय-चंडाल-डोंब पारसियाणमुच्छिट्ठं । सो भक्खेइ जो सह वसइ एयरत्तिं पि वेस्साए ।88। रत्तं णाऊण णरं सव्वस्सं हरइ वंचणसएहिं ।काउण मुयइ पच्छा पुरिसं चम्मट्ठिपरिसेसं ।89। पभणइ पुरओएयस्स सामी मोत्तूण णत्थि मे अण्णो । उच्चइ अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि ।90।माणी कुलजो सूरो वि कुणइ दासत्तणं पि णीचाणं । वेस्सा कएण बहुगं अवमाणं सहइ कामंधो ।91। जे मज्जमंसदोसा वेस्सा गमणम्मि होंति ते सव्वे । पावं पि तत्थ-हिट्ठं पावइ णियमेण सविसेसं ।92। पावेण तेण दुक्खं पावइ संसार-सायरे घोरे, तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयण-काएहि ।93। = जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ निवास करता है, वह कारू (लुहार), चमार, किरात(भील), चंडाल, डोंब (भंगी) और पारसी आदि नीच लोगों का जूठा खाता है, क्योंकि, वेश्या इन सभी लोगों के साथ समागम करती है ।88। वेश्या, मनुष्य को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ों वचणाओं से उसका सर्वस्व हर लेती है और पुरुष को अस्थि-चर्म परिशेष करकेछोड़ देती है ।89। वह एक पुरुष के सामने कहती है कि तुम्हें छोड़कर तुम्हारे सिवाय मेरा स्वामी कोई नहीं है । इसी प्रकार वह अन्य से भी कहती है और अनेक खुशामदी बातें करती है ।90। मानी, कुलीन, और शूरवीर भी मनुष्य वेश्या में आसक्त होने से नीच पुरुषों की दासता को करता है, और इस प्रकार वह कामांध होकर वेश्या के द्वारा किये गये अपमानों को सहता है ।91। जो दोष मद्य-मांस के सेवन में होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमन में भी होते हैं । इसलिए वह मद्य और मांस सेवन के पाप को तो प्राप्त होता ही है, किंतु वेश्यासेवन के विशेष अधर्म को भी नियम से प्राप्त होता है ।92। वेश्यासेवन जनित पाप से यह जीव घोर संसारसागर में भयानक दुःखों को प्राप्त होता है, इसलिए मन, वचन और काय से वेश्या का सर्वथा त्याग करना चाहिए ।93।
लाटी संहिता/2/129-132 पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थं सेवते नरम् । तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका ।129। तत्त्यागः सर्वतः श्रेयान् श्रेयोऽर्थ यततां नृणाम् । मद्य -मांसादि दोषान्वै निःशेषान् त्यक्तुमिच्छताम् ।130। आस्तां तत्संगमे दोषो दुर्गतौ पतनं नृणाम् । इहैव नरकं नूनं वेश्यासक्तचेतसाम् ।131। उक्तं च याः खादंति पलं पिबंति च सुरां, जल्पंति मिथ्यावचः । स्निह्यंति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम् । नीचानामपि दूरवक्रमनसः पापत्मिकाः कुर्वते, लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्यां विहायापरम् । रजकशिला-सदृशीभिः कुक्कुरकर्परसमानचरिताभिः । वेश्याभिर्यदि संगः कृतमिव परलोकवार्ताभिः । प्रसिद्धं बहुभिस्तस्यां प्राप्ता दुःखपरंपराः । श्रेष्ठिना चारुदत्तेन विख्यातेन यथा पराः । = जो स्त्री केवल धन के लिए पुरुष का सेवन करती है, उसको वेश्या कहते हैं, ऐसी वेश्याएँ संसार में प्रसिद्ध हैं, उन वेश्याओं को दारिका, दासी, वेश्या वा नगरनायिका आदि नामों से पुकारते हैं ।129। जो मनुष्य मद्य, मांस आदि के दोषों को त्यागकर अपने आत्मा का कल्याण करना चाहते हैं, उनको वेश्या सेवन का त्याग करना चाहिए ।130। वेश्या सेवन से नरकादिक दुर्गतियों में पड़ना पड़ता है । और इस लोक में भी नरक के सदृश यातनाएँ व दुःख भोगने पड़ते हैं ।131। कहा भी है - यह पापिनी वेश्या मांस खाती है, शराब पीती है, झूठ बोलती है, धन के लिए प्रेम करती है, अपने धन और प्रतिष्ठा का नाश करती है और कुटिल मन से वा बिना मन के नीच लोगों की लार को रात-दिन चाटती है, इसलिए वेश्या को छोड़कर संसार में कोई नरक नहीं है । वेश्या तो धोबी की शिला के सदृश है, जिसपर आकर ऊँच-नीच अनेक पुरुषों के घृणित से घृणित और अत्यंत निंदनीय ऐसे वीर्य वा लार आदि मल आकर बहते हैं, अथवा वह वेश्या कुत्ते के मुँह में लगे हुए हड्डों के खप्पर के समान आचरण करती है। ऐसी वेश्या के साथ जो पुरुष समागम करते हैं, वे साथ-साथ परलोक की बातचीत भी अवश्य कर लेते हैं अर्थात् वह नरक अवश्य जाते हैं । इस वेश्यासेवन में आसक्त जीवों ने बहुत दुःख जन्म-जंमांतर तक पाये हैं । जैसे अत्यंत प्रसिद्ध सेठ चारुदत्त ने इस वेश्यासेवन से ही अनेक दुःख पाये थे ।132।
- परस्त्री निषेध
कुरल/15/10 वरमन्यत्कृतं पापमपराधोऽपि वा वरम् । परं न साध्वी त्वत्पक्षे कांक्षिता प्रतिवेशिनी ।10। =तुम कोई भी अपराध और दूसरा कैसा भी पाप क्यों न करो पर तुम्हारे पक्ष में यही श्रेयस्कर है कि तुम पड़ोसी की स्त्री से सदा दूर रहो ।
वसुनंदी श्रावकाचार/ गा.नं. णिस्ससइ रुयइ गायइ णियवसिरं हणइ महियले पड़इ । परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पि जंपेहा ।113। अह भुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बलाधरेऊणं ।.. ।118। अह कावि पाव बहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं । सयमेव पच्छियाओ उवरोहवसेण अप्पाणं ।119। जइ देइ जह वि तत्थ सुण्णहर खंडदेउलयमज्झम्मि । सच्चित्ते भयभीओ सोक्खं किं तत्थ पाउणइ ।120। सोऊण किं पि सद्दं सहसा परिवेवमाणसव्वंगो । ल्हुक्कइ पलाइ पखलइ चउद्दिसं णियइ भयभोओ ।121। जइ पुणकेण वि दीसइ णिज्जइ तो बंधिऊण णिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउणइ सविसेसं ।122। परलोयम्मि अणंतं दुक्खं पाउणइ इह भव समुद्दम्मि । परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण वज्जिज्जा ।124। = पर स्त्री-लंपट पुरुष जब अभिलषित परमहिला को नहीं पाता है, तब वह दीर्घ निश्वास छोड़ता है, रोता है, कभी गाता है, कभी सिर को फोड़ता है और कभी भूतल पर गिरता है और असत्प्रलाप भी करता है ।113। नहीं चाहने वाली किसी पर - महिला को जबर्दस्ती पकड़कर भोगता है । ...118। यदि कोई पापिनी दुराचारिणी अपने शील को नाश करके उपरोध के वश से कामी पुरुष के पास स्वयंउपस्थित भी हो जाय, और अपने आपको सौंप भी देवे ।119। तो भी उस शून्य गृह या खंडित देवकुल के भीतर रमण करता हुआ वह अपने चित्त में भयभीत होने से वहाँ पर क्या सुख पा सकता है ।120। वहाँ पर कुछ भी जरा-सा शब्द सुनकर सहसा थर-थर काँपता हुआ इधर-उधर छिपता है, भागता है, गिरता है और भयभीत हो चारों दिशाओं को देखता है ।121। इस पर यदि कोई देख लेता है तो वह बाँधकर राजदरबार में ले जाया जाता है और वहाँ पर वह चोर से भी अधिक दंड को पाता है ।122। पर स्त्री-लंपटी परलोक में इस संसारसमुद्र के भीतर अनंत दुःख को पाता है । इसलिए परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रियों को मन, वचन काय से त्याग करना चाहिए ।124।
लाटी संहिता/2/207 एतत्सर्वं परिज्ञाय स्वानुभूमिसमक्षत: । परांगनासु नादेया बुद्धिर्धीधनशालिभि: ।207। = अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से इन सब स्त्रियों को सेवन करनेवाला और भोजनादि में मद्यादि सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ संसर्ग करनेवाला व्रतधारी पुरुष निंदा सहित मद्य-त्याग आदि मूलगुणों की हानि को प्राप्त होता है ।10।
- दुराचारिणी स्त्री का निषेध
सागार धर्मामृत/3/10 भजन् मद्यादि भाजः स्त्री-स्तादृशैः सह संसृजन् । भुक्त्यादौ चैति साकीर्ति मद्यादि विरतिक्षतिम् ।10। = मद्य, मांस आदि को खाने वाली स्त्रियों को सेवन करनेवाला और भोजनादि में मद्यादि के सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ संसर्ग करनेवाला व्रतधारी पुरुष निंदा सहित मद्य-त्याग आदि मूलगुणों की हानि को प्राप्त होता है ।10।
- स्त्री के लिए परपुरुषादि का निषेध
भगवती आराधना/994 जह सीलरक्खयाणं पुरिसाणं णिंदिदाओ महिलाओ । तह सीलरक्खयाणं महिलाणं णिंदिदापुरिसा ।994। = शील का रक्षण करने वाले पुरुष को स्त्री जैसे निंदनीय अर्थात् त्याग करने योग्य है, वैसे शील का रक्षण करने वाली स्त्रियों को भी पुरुष निंदनीय अर्थात् त्याज्य है ।
- अब्रह्म सेवन में दोष
भगवती आराधना/922 अवि य वहो जीवाणं मेहुणसेवाए होइ बहुगाणं । तिलणालीए तत्ता सलायवेसो य जोणीए ।922। = मैथुन सेवन करने से वह अनेक जीवों का वध करता है । जैसे तिलकी फल्ली में अग्नि से तपी हुई सली प्रविष्ट होने से सब तिल जलकर खाक होते हैं वैसे मैथुन सेवन करते समय योनि में उत्पन्न हुए जीवों का नाश होता है ।922। (विशेष विस्तार देखें [[ ]] भगवती आराधना/890-1117 ), ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/ उ./108) ।
स्याद्वादमंजरी/23/276/15 पर उद्धृत मेहुण सण्णारूढो णवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं । केवलिणा पण्णत्ता सद्दहिअव्वा सया कालं ।3। इत्थीजोणीए संभवंति बेइंदिया उ जे जीवा । इक्को व दो व तिण्णि व लक्खपुहुत्तं उ उक्कोसं ।4। पुरिसेण सह गयाए तेसिं जीवाण होइ उद्दवणं । वेणुगदिट्ठं तेण तत्तायसलागणाएणं ।5। पंचिंदिया मणुस्सा एगणर भुत्तणारिगब्भम्मि । उक्कोसं णवलक्खा जायंति एगवेलाए ।6। णव लक्खाणं मज्झे जायइ इक्कस्स दोण्ह व समत्ती । सेसा पुण एमेव य विलयं वच्चंति तत्थेव ।7। = केवली भगवान् ने मैथुन के सेवन में नौ लाख सूक्ष्म जीवों का घातबताया है इसमें सदा विश्वास करना चाहिए । 3। तथा स्त्रियों की योनि में दो इंद्रिय जीव उत्पन्न होते हैं । इन जीवों की संख्या एक, दो तीन से लगाकर लाखों तक पहुँच जाती है । 4। जिस समय पुरुष स्त्री के साथ संभोग करता है, उस समय जैसे अग्नि से तपायी हुई लोहे की सलाई को बाँस की नली में डालने से नली में रखे तिल भस्म हो जाते हैं, वैसे ही पुरुष के संयोग से योनि में रहनेवाले संपूर्ण जीवों का नाश हो जाता है ।5। पुरुष और स्त्री के एक बार संयोग करने पर स्त्री के गर्भ में अधिक से अधिक नौ लाख पंचेंद्रिय मनुष्य उत्पन्न होते हैं ।6। इन नौ लाख जीवों में एक या दो जीव जीते हैं बाकी सब जीव नष्ट हो जाते हैं ।7।
- शील की प्रधानता
शीलपाहुड़/ मू./19 जीवदयादम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे । सम्मद्दंसण णाणं तओ य सीलस्स परिवारो ।19। = जीव दया, इंद्रिय दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप ये सर्व शील के परिवार हैं ।19।
- ब्रह्मचर्य की महिमा
भगवती आराधना/1115/1123 तेल्लोक्काडविडहणो कामग्गी विसयरुक्खपज्जलिओ । जीव्वणतणिल्लचारी जं ण डहइ सो हवइ धण्णो ।1115। = कामाग्नि विषयरूपी वृक्षों का आश्रय लेकर प्रज्वलित हुआ है, त्रैलोक्यरूपी वन को यह महाग्नि जलाने को उद्यत हुआ है परंतु तारुण्यरूपी तृणपर संचार करनेवाले जिन महात्माओं को वह जलाने में असमर्थ है वे महात्मा धन्य हैं । ( अनगारधर्मामृत/4/99 ) ।
अन./4/60 या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्तिः । तद्ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पांति ते यांति परं प्रमोदम् ।60। = शुद्ध और बुद्ध अपने चित्स्वरूप ब्रह्म में परद्रव्यों का त्याग करने वाले व्यक्ति की अप्रतिहत परिणतिरूप जो चर्या होती है उसी को ब्रह्मचर्य कहते हैं । यह व्रत समस्त व्रतों में सार्वभौम के समान है जो पुरुष इसका पालन करते हैं वे ही पुरुष सर्वोत्कृष्ट आनंद-मोक्षसुख को प्राप्त किया करते हैं ।60।
स्याद्वादमंजरी/23/277/25 पर उद्धृत एकरात्रौषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा ऋृतुसहस्रेण प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर । = हे युधिष्ठिर! एक रात ब्रह्मचर्य से रहने वाले पुरुष को जो उत्तमगति मिलती है, वह गति हजारों यज्ञ करने से भी नहीं होगी ।
- वेश्यागमन का निषेध
- शंका - समाधान
- स्त्री पुरुषादिका सहवास मात्र अब्रह्म नहीं हो सकता
राजवार्तिक/7/16/9/544/14 मिथुनस्य भाव (मैथुनं) इति चेन्न द्रव्यद्वय- भवनमात्रप्रसंगादिति, तदसत् अभ्यंतरपरिणामाभावे बाह्यहेतुरफलत्वात् । ... अभ्यंतरचारित्रमोहोदयापादितम्त्रैंणपौंस्नात्मकरतिपरिणामाभावात् बाह्यद्रव्यद्वयभवनेऽपि न मैथुनम् । ... स्त्रीपुंसयोः कर्मेति चेन्न पच्यादिक्रियाप्रसंगात् इति; तदसांप्रतम्; कुतः तद्विषय- स्यैव ग्रहणात् । तयोरेव यत्कर्म तदिह गृह्यते, पच्यादिकर्म पुनः अन्येनापि क्रियते । ... नमस्काराद्युपयुक्तस्य ... वंदनादिमिथुनकर्मणि न मैथुनम् । ... = ‘मिथुनस्य भावः’ इस पक्ष में जो दो स्त्री-पुरुषरूप द्रव्यों की सत्ता मात्र को मैथुनत्व का प्रसंग दिया जाता है, वह उचित नहीं है, क्योंकि अभ्यंतर चारित्र-मोहोदयरूपी परिणाम के अभाव में बाह्य कारण निरर्थक है । उसी तरह अभ्यंतर चारित्रमोहोदय के स्त्रैण पौंस्नरूप रति परिणाम न होने से बाह्य में रति परिणाम रहित दो द्रव्यों के रहने पर भी मैथुन का व्यवहार नहीं होता । - स्त्री और पुरुष के कर्म पक्ष में पाकादि क्रिया और वंदनादि क्रिया में मैथुनत्व का प्रसंग उचित नहीं है, क्योंकि स्त्री और पुरुष के संयोग से होनेवाला कर्म वहाँ विवक्षित है, पाकादि क्रिया तो अन्य से भी हो जाती है । ( सर्वार्थसिद्धि/7/16/353/11 ) ।
- मैथुन के लक्षण से हस्तक्रिया आदि में अब्रह्म सिद्ध नहीं होगा
राजवार्तिक/7/16/5-8/543-544/33 न वैतद्युक्तम् । कुतः ? एकस्मिन्न- प्रसंगात् । हस्तपादपुद्गलसंघट्टनादि भिरब्रह्मसेवमाने एकस्मिन्नपि मैथुनमिष्यते, तन्न सिद्ध्यति ।5। यथा स्त्रीपुंसयो रत्यर्थे संयोगे परस्पररतिकृतस्पर्शाभिमानात् सुखं तथैकस्यापि हस्तादिसंघट्टनात् स्पर्शाभिमानस्तुल्यः । तस्मान्मुख्य एव तत्रापि मैथुनशब्दलाभः रागद्वेषमोहाविष्टत्वात् ।7। यथैकस्यापि पिशाचवशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वं तथैकस्य चारित्रमोहोदयाविष्कृतकामपिशाचवशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वसिद्धेः मैथुनव्यवहारसिद्धिः । = प्रश्न - यह मैथुन का लक्षण युक्त नहीं है, क्योंकि एक ही व्यक्ति के हस्तादि पुद्गल के रगड़ से अब्रह्म के सेवन करने पर भी मैथुन क्रिया मानी गयी है । परंतु इससे (मैथुन के लक्षण से) वह सिद्ध न होगी । उत्तर- जिस प्रकार स्त्री और पुरुष का रति के समय संयोग होने पर स्पर्शसुख होता है, उसी तरह एक व्यक्ति का भी हाथ आदि के संयोग से स्पर्शसुख का भान होता है, अतः हस्तमैथुन भी मैथुन कहा जाता है, यह औपचारिक नहीं है, क्योंकि राग, द्वेष, मोह से आविष्ट है । (अन्यथा इससे कर्मबंध न होगा) ।7। यहाँ एक ही व्यक्ति चारित्र मोह के उदय से प्रकट हुए कामरूपी पिशाच के संपर्क से दो हो गया है और दो के कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं है ।
- परस्त्री त्याग संबंधी
लाटी संहिता/2/ श्लोक नं. ननु यथा धर्मपत्न्यां यैव दास्यां क्रियैव सा । विशेषानुपलब्धेश्च कथं भेदोऽवधार्यते ।189 । मैवं स्पर्शादि यद्वस्तु बाह्यं विषयसंज्ञिकम् । तद्भेतुस्तादृशो भावो जीवस्यैवास्ति निश्चयात् ।191। दृश्यते जलमेवैकमेकरूपं स्वरूपतः । चंदनादि-वनराजि प्राप्य नानात्वमध्यगात् ।192। त्याज्यं वत्स परस्त्रीषु रतिं तृष्णोपशांतये । विमृश्य चापदां चक्रं लोकद्वयविध्वंसिनीम् ।209। आस्तां यन्नरके दुःखं भावतीब्रानुवेदिनाम् । जातं परांगनासक्ते लोहांगनादिलिंगनात् ।212। इहैवानर्थसंदोहो यावानस्ति सुदस्सहः तावान्न शक्यते वक्तुमन्वयोषिन्मतेरितः ।213। = प्रश्न - विषयसेवन करतेसमय जो क्रिया धर्मपत्नी में की जाती है वही क्रिया दासी में की जाती है । अतः क्रिया में भेद न होने से उन दोनों में कोई भेद नहीं होना चाहिए । 189। उत्तर- कर्मबंध में वा परिणामों में शुभ-अशुभपना होने में स्पर्श करना वा विषय सेवना आदि ब्राह्य वस्तु ही कारण नहीं है किंतु जीवों के वैसे परिणाम होना ही निश्चय कारण हैं । (अर्थात् दासी के सेवन में तीव्र लालसा होती है इससे तीव्र अशुभ कर्म का बंध होता है ।) ।191। जल एक स्वरूप का होने पर भी चंदनादि वनराजि को प्राप्त होने पर पात्र के भेद से नाना प्रकार का परिणत हो जाता है । उसी प्रकार दासी व धर्मपत्नी के साथ एक-सी क्रिया होने पर भी पात्र भेद से परिणामों में अंतर होता है तथा परिणामों में अंतर होने से शुभ व अशुभ कर्मबंध में अंतर पड़ जाता है । 192। हे वत्स! परस्त्री में प्रेम करना आपत्तियों का स्थान है, वह परस्त्री दोनों लोकों के हित का नाश करने वाली है, यही समझकर अपनी तृष्णा व लालसा को शांत करने के लिए परस्त्री में प्रेम करना छोड़ ।209। परस्त्री सेवनेवालों को नरक में उनकी तीव्र लालसा के कारण गरम लोहे की स्त्रियों से आलिंगन कराने से तो महादुःख होता है, किंतु इस लोक में भी अत्यंत असह्य दुःख व अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं ।212-213।
- ब्रह्मचर्य व्रत व ब्रह्मचर्य प्रतिमा में अंतर
सागार धर्मामृत/7/19 प्रथमाश्रमिणः प्रोक्ता, ये पंचोपनयादयः । तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुर्युर्दारानन्यत्र नैष्ठिकात् ।19। = जो प्रथम आश्रमवाले (ब्रह्मचर्याश्रमी) मौंजी बंधनपूर्वक व्रत ग्रहण करने वाले उपनय आदिक पाँच प्रकार के ब्रह्मचारी (देखें [[ ]] ब्रह्मचारी) कहे गये हैं वे सब नैष्ठिक के बिना शेष सब शास्त्रों को पढ़कर स्त्री को स्वीकार करते हैं ।19।
देखें [[ ]]ब्रह्मचर्य/1/3-4 (द्वितीय प्रतिमा में ग्रहण किये एक ब्रह्मचर्य अणुव्रत में तो अपनी धर्मपत्नी का भोग करता था । परंतु इस ब्रह्मचर्य प्रतिमा को स्वीकार करने पर नव प्रकार से तीनों काल संबंधी समस्त स्त्रीमात्र के सेवन का त्याग कर देता है )।
- स्त्री पुरुषादिका सहवास मात्र अब्रह्म नहीं हो सकता
पुराणकोष से
अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में एक महाव्रत । इसमें मन वचन, काय से स्त्रियों को माता के समान माना जाता है । यह ग्यारह प्रतिमाओं में सातवीं प्रतिमा है । इसमें स्त्री मात्र के संसर्ग का त्याग होता है । यह उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों में दसवाँ धर्म है । महापुराण 10.160, 36.158 पांडवपुराण 23.67 , वीरवर्द्धमान चरित्र 18.64, 23. 64-68 ऐसा महाव्रती देव, मनुष्य, पशु तथा कृत्रिम स्त्रियों (चित्र आदि) से पूर्ण विरक्त रहता है । इस महाव्रत के पालन के लिए स्त्रीरागकथा श्रवण, स्त्री-मनोहरांग निरीक्षण, स्त्रीपूर्वरतानुस्मरण, स्वशरीरसंस्कार और कामोद्दीपक गरिष्ठ-रस-त्याग ये पाँच भावनाएँ होती है । इसके पाँच अतिचार होते हैं― 1. परविवाहकरण 2. अनंगक्रीड़ा 3. गृहीतेत्वरिकागमन 4. अगृहीतेत्वरिकागमन और 5. कामतीव्राभिनिवेश । महापुराण 20.164, हरिवंशपुराण 58. 121, 174, पांडवपुराण 9.86 अपने ब्रह्म में (आत्मा) में विचरण करना स्वभावज ब्रह्मचर्य है । परस्त्रियों में राग-भाव का परित्याग कर स्वस्त्रियों में ही संतोष करना बह्मचर्याणुव्रत है । इससे अहिंसा आदि गुणों की वृद्धि होती है । इसका अपरनाम स्वदारसंतोषव्रत है । हरिवंशपुराण 58.132, 141, 175 पांडवपुराण 23.67