विभाव के सहेतुक-अहेतुकमपने का समन्वय: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">कर्म जीव का पराभव कैसे कर सकता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">कर्म जीव का पराभव कैसे कर सकता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/4/14/569/7 </span><span class="SanskritText">यथा भिन्नजातीयेन क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रहः, तथैवात्मकर्मणोश्चेतनाचेतनात्वात् अतुल्यजातीयं कर्म आत्मनोऽनुग्राहकमिति सिद्धम।</span> =<span class="HindiText"> जैसे पृथिवीजातीय दूध से तेजोजातीय चक्षु का उपकार होता है, उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्मा का अनुग्रह आदि हो सकता है। अतः भिन्न जातीय द्रव्यों में परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला/6/1, 9-1, 5/8/8 </span><span class="PrakritText">कधं पोग्गलेण जीवादो पुधभूदेण जीवलक्खणं णाणं विणासिज्जदि। ण एस दोसो, जीवादो पुधभूदाणं घड-पड-त्थंभंध-यारादीणं जीवलक्खणणाणविणासयाणमुवलंभा।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>जीव द्रव्य से पृथग्भूत पुद्गलद्रव्य के द्वारा जीव का लक्षणभूत ज्ञान कैसे विनष्ट किया जाता है? <strong>उत्तर–</strong>यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जीवद्रव्य से पृथग्भूत घट, पट, स्तंभ और अंधकार आदिक पदार्थ जीव के लक्षण स्वरूप ज्ञान के विनाशक पाये जाते हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> रागादि भाव संयोगी होने के कारण किसी एक के नहीं कहे जा सकते</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> रागादि भाव संयोगी होने के कारण किसी एक के नहीं कहे जा सकते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/18 </span><span class="SanskritText">यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षवशेन देवदत्तयाः पुत्रोऽयं केचन वदंति, देवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन बदंति दोषो नास्ति। तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसंबद्धाः शुद्धनिश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः पौद्ग्लिकाः। परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत्।....ये केचन वदंत्येकांतेन रागादयो जीव संबंधिनः पुद्गलसंबंधिनो वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या।.......सूक्ष्मशुद्धनिश्चयेन तेषामस्तित्वमेव नास्ति पूर्वमेव भणितं तिष्ठति कथमुत्तरं प्रयच्छामः इति। </span>= <span class="HindiText">जिस प्रकार स्त्री व पुरुष दोनों से उत्पन्न हुआ पुत्र विवक्ष वश देवदत्ता (माता) का भी कहा जाता है और देवदत्त (पिता) का भी कहा जाता है। दोनों ही प्रकार से कहने में कोई दोष नहीं है। उसी प्रकार जीव पुद्गल के संयोग से उत्पन्न मिथ्यात्व रागादि प्रत्यय अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्ध उपादानरूप से चेतना हैं, जीव से संबद्ध हैं और शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध उपादानरूप से अचेतन हैं, पौद्ग्लिक हैं। परमार्थ से तो न वे एकांत से जीवरूप हैं और न पुद्गलरूप, जैसे कि चूने व हल्दी के संयोग के परिणामरूप लाल रंग। जो कोई एकांत से रागादिकों को जीवसंबंधी या पुद्गल संबंधी कहते हैं उन दोनों के ही वचन मिथ्या हैं। सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से पूछो तो उनका अस्तित्व ही नहीं है, ऐसा पहले कहा जा चुका है, तब हमसे उत्तर कैसे पूछते हो। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/1 </span>)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> ज्ञानी व अज्ञानी की अपेक्षा से दोनों बातें ठीक हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> ज्ञानी व अज्ञानी की अपेक्षा से दोनों बातें ठीक हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/382/462/21 </span><span class="SanskritText"> हे भगवन् पूर्वं बंधाधिकारे भणितं.....रागादीणामकर्ता ज्ञानी, परजनितरागादयः इत्युक्तं। अत्र तु स्वकीयबुद्धिदोषजनिता रागादयः परेषां शब्दादिपंचेंद्रिययविषयाणां दूषणं नास्तीति पूर्वापरविरोधः। अत्रोत्तरमाह-तत्र बंधाधिकारव्याख्याने ज्ञानिजीवस्य मुख्यता। ज्ञानी तु रागादिभिर्नं परिणमति तेन कारणेन परद्रव्यजनिता भणिताः। अत्र चाज्ञानिजीवस्य मुख्यता स चाज्ञानी जीवः स्वकीयबुद्धिदोषेण परद्रव्यनिमित्तमात्रमाश्रित्य रागादिभिः परिणमति, तेन कारणेन परेषां शब्दादिपंचेंद्रियविषयाणां दूषणं नास्तीति भणितं। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>हे भगवन् ! पहले बंधाधिकार में तो कहा था कि ज्ञानी रागादिका कर्ता नहीं हैं वे परजनित हैं। परंतु यहाँ कह रहे हैं कि रागादि अपनी बुद्धि के दोष से उत्पन्न होते हैं, इसमें शब्दादि पंचेंद्रिय विषयों का दोष नहीं है। इन दोनों बातों में पूर्वापर विरोध प्रतीत होता है? <strong>उत्तर–</strong>वहाँ बंधाधिकार के व्याख्यान में तो ज्ञानी जीव की मुख्यता है। ज्ञानी जीव रागादि रूप परिणमित नहीं होता है इसलिए उन्हें परद्रव्यजनित कहा गया है। यहाँ अज्ञानी जीव की मुख्यता है। अज्ञानी जीव अपनी बुद्धि के दोष से परद्रव्यरूप निमित्तमात्र को आश्रय करके रागादिरूप से परिणमित होता है, इसलिए पर जो शब्दादि पंचेंद्रियों के विषय उनका कोई दोष नहीं है, ऐसा कहा गया है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> दोनों का नयार्थ व मतार्थ</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> दोनों का नयार्थ व मतार्थ</strong> <br /> | ||
देखें [[ नय#IV.3.9.1 | नय - IV.3.9.1 ]](नैगमादि नयों की अपेक्षा कषायें कर्तृसाधन हैं, क्योंकि इन नयों में कारणकार्यभाव संभव है, परंतु शब्दादि नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि इन दृष्टियों में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। और यहाँ पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। (और भी देखें [[ नय#IV.3.3.1 | नय - IV.3.3.1]])। <br /> | देखें [[ नय#IV.3.9.1 | नय - IV.3.9.1 ]](नैगमादि नयों की अपेक्षा कषायें कर्तृसाधन हैं, क्योंकि इन नयों में कारणकार्यभाव संभव है, परंतु शब्दादि नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि इन दृष्टियों में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। और यहाँ पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। (और भी देखें [[ नय#IV.3.3.1 | नय - IV.3.3.1]])। <br /> | ||
देखें [[ विभाव#5.2 | विभाव - 5.2 ]](अशुद्ध निश्चयनय से ये जीव के हैं, शुद्धनिश्चय नय से पुद्गल के हैं और सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से इनका अस्तित्व ही नहीं है।) </span><br /> | देखें [[ विभाव#5.2 | विभाव - 5.2 ]](अशुद्ध निश्चयनय से ये जीव के हैं, शुद्धनिश्चय नय से पुद्गल के हैं और सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से इनका अस्तित्व ही नहीं है।) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/59/111/9 </span><span class="SanskritText">पूर्वोक्तप्रकारेणात्मा कर्मणां कर्ता न भवतीति दूषणे दत्ते सति सांख्यमतानुसारिशिष्यो वदति....अस्माकं मते आत्मनः कर्माकर्तृत्वं भूषणमेव न दूषणं। अत्र परिहारः। यथा शुद्धनिश्चयेन रागाद्यकर्तृत्वमात्मनः तथा यद्यशुद्धनिश्चयेनाप्यकर्तृत्वं भवति तदा द्रव्यकर्मबंधाभावस्तदभावे संसाराभावः, संसाराभावे सर्वदैव मुक्तप्रसंगः स च प्रत्यक्षविरोध इत्यभिप्रायः।</span> = <span class="HindiText">पूर्वोक्त प्रकार से ‘कर्मों का कर्ता आत्मा नहीं है’ इस प्रकार दूषण देने पर सांख्यमतानुसारी शिष्य कहता है कि हमारे मत में आत्मा को जो कर्मों का अकर्तृत्व बताया गया है, वह भूषण ही है, दूषण नहीं। इसका परिहार करते हैं–जिस प्रकार शुद्ध निश्चयनय से आत्मा को रागादि का अकर्तापना है, यदि उसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनय से भी अकर्तापना होवे तो द्रव्यकर्मबंध का अभाव हो जायेगा। उसका अभाव होने पर संसार का अभाव और संसार के अभाव में सर्वदा मुक्त होने का प्रसंग प्राप्त होगा। यह बात प्रत्यक्ष विरुद्ध है, ऐसा अभिप्राय है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> दोनों बातों का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> दोनों बातों का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/ </span>गा.<span class="SanskritText">सर्वे तेऽध्ववसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनम्। व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थेऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बंधस्याभावः। तथा.....मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।46। कारणानुविधायिनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः। गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनोऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम्।68। स्वलक्षणभूतोपयोगगुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावांन निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः संति।57। संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो....मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभावतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधो न कथंचनापि स्यात्।61। </span> | |||
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<li class="HindiText">ये सब अध्यवसान आदि भाव जीव हैं, ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है, वह यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तथापि व्यवहारनय को भी बताया है, क्योंकि जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तुस्वरूप बतलाती है, उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों की परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह बतलाना न्यायः संगत ही है। परंतु यदि व्यवहार नय न बताया जाय तो परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया जाने पर भी, जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है उसी प्रकार, त्रस स्थावर जीवों को निःशंकतया मसल देने से भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बंध का ही अभाव सिद्ध होगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का ही अभाव होगा।46। (देखें [[ नय#V.8.4 | नय - V.8.4]])। </li> | <li class="HindiText">ये सब अध्यवसान आदि भाव जीव हैं, ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है, वह यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तथापि व्यवहारनय को भी बताया है, क्योंकि जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तुस्वरूप बतलाती है, उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों की परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह बतलाना न्यायः संगत ही है। परंतु यदि व्यवहार नय न बताया जाय तो परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया जाने पर भी, जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है उसी प्रकार, त्रस स्थावर जीवों को निःशंकतया मसल देने से भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बंध का ही अभाव सिद्ध होगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का ही अभाव होगा।46। (देखें [[ नय#V.8.4 | नय - V.8.4]])। </li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6">वस्तुतः रागादि भाव की सत्ता नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6">वस्तुतः रागादि भाव की सत्ता नहीं है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/371/ </span>क 218 <span class="SanskritText">रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्, तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किचिंत्। सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्टया स्फुटं तौ ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः।218।</span> = <span class="HindiText">इस जगत् में ज्ञान ही अज्ञानभाव से रागद्वेषरूप परिणमित होता है, वस्तुत्वस्थापित दृष्टि से देखने पर वे रागद्वेष कुछ भी नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टि से प्रगटतया उनका क्षय करो कि जिससे पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो। (देखें [[ नय#V.1.5 | नय - V.1.5]]); (देखें [[ विभाव#5.2 | विभाव - 5.2]])। </span></li> | |||
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Revision as of 13:02, 14 October 2020
- विभाव के सहेतुक-अहेतुकमपने का समन्वय
- कर्म जीव का पराभव कैसे कर सकता है
राजवार्तिक/8/4/14/569/7 यथा भिन्नजातीयेन क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रहः, तथैवात्मकर्मणोश्चेतनाचेतनात्वात् अतुल्यजातीयं कर्म आत्मनोऽनुग्राहकमिति सिद्धम। = जैसे पृथिवीजातीय दूध से तेजोजातीय चक्षु का उपकार होता है, उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्मा का अनुग्रह आदि हो सकता है। अतः भिन्न जातीय द्रव्यों में परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है।
धवला/6/1, 9-1, 5/8/8 कधं पोग्गलेण जीवादो पुधभूदेण जीवलक्खणं णाणं विणासिज्जदि। ण एस दोसो, जीवादो पुधभूदाणं घड-पड-त्थंभंध-यारादीणं जीवलक्खणणाणविणासयाणमुवलंभा। = प्रश्न–जीव द्रव्य से पृथग्भूत पुद्गलद्रव्य के द्वारा जीव का लक्षणभूत ज्ञान कैसे विनष्ट किया जाता है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जीवद्रव्य से पृथग्भूत घट, पट, स्तंभ और अंधकार आदिक पदार्थ जीव के लक्षण स्वरूप ज्ञान के विनाशक पाये जाते हैं।
- रागादि भाव संयोगी होने के कारण किसी एक के नहीं कहे जा सकते
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/18 यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षवशेन देवदत्तयाः पुत्रोऽयं केचन वदंति, देवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन बदंति दोषो नास्ति। तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसंबद्धाः शुद्धनिश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः पौद्ग्लिकाः। परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत्।....ये केचन वदंत्येकांतेन रागादयो जीव संबंधिनः पुद्गलसंबंधिनो वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या।.......सूक्ष्मशुद्धनिश्चयेन तेषामस्तित्वमेव नास्ति पूर्वमेव भणितं तिष्ठति कथमुत्तरं प्रयच्छामः इति। = जिस प्रकार स्त्री व पुरुष दोनों से उत्पन्न हुआ पुत्र विवक्ष वश देवदत्ता (माता) का भी कहा जाता है और देवदत्त (पिता) का भी कहा जाता है। दोनों ही प्रकार से कहने में कोई दोष नहीं है। उसी प्रकार जीव पुद्गल के संयोग से उत्पन्न मिथ्यात्व रागादि प्रत्यय अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्ध उपादानरूप से चेतना हैं, जीव से संबद्ध हैं और शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध उपादानरूप से अचेतन हैं, पौद्ग्लिक हैं। परमार्थ से तो न वे एकांत से जीवरूप हैं और न पुद्गलरूप, जैसे कि चूने व हल्दी के संयोग के परिणामरूप लाल रंग। जो कोई एकांत से रागादिकों को जीवसंबंधी या पुद्गल संबंधी कहते हैं उन दोनों के ही वचन मिथ्या हैं। सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से पूछो तो उनका अस्तित्व ही नहीं है, ऐसा पहले कहा जा चुका है, तब हमसे उत्तर कैसे पूछते हो। ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/1 )।
- ज्ञानी व अज्ञानी की अपेक्षा से दोनों बातें ठीक हैं
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/382/462/21 हे भगवन् पूर्वं बंधाधिकारे भणितं.....रागादीणामकर्ता ज्ञानी, परजनितरागादयः इत्युक्तं। अत्र तु स्वकीयबुद्धिदोषजनिता रागादयः परेषां शब्दादिपंचेंद्रिययविषयाणां दूषणं नास्तीति पूर्वापरविरोधः। अत्रोत्तरमाह-तत्र बंधाधिकारव्याख्याने ज्ञानिजीवस्य मुख्यता। ज्ञानी तु रागादिभिर्नं परिणमति तेन कारणेन परद्रव्यजनिता भणिताः। अत्र चाज्ञानिजीवस्य मुख्यता स चाज्ञानी जीवः स्वकीयबुद्धिदोषेण परद्रव्यनिमित्तमात्रमाश्रित्य रागादिभिः परिणमति, तेन कारणेन परेषां शब्दादिपंचेंद्रियविषयाणां दूषणं नास्तीति भणितं। = प्रश्न–हे भगवन् ! पहले बंधाधिकार में तो कहा था कि ज्ञानी रागादिका कर्ता नहीं हैं वे परजनित हैं। परंतु यहाँ कह रहे हैं कि रागादि अपनी बुद्धि के दोष से उत्पन्न होते हैं, इसमें शब्दादि पंचेंद्रिय विषयों का दोष नहीं है। इन दोनों बातों में पूर्वापर विरोध प्रतीत होता है? उत्तर–वहाँ बंधाधिकार के व्याख्यान में तो ज्ञानी जीव की मुख्यता है। ज्ञानी जीव रागादि रूप परिणमित नहीं होता है इसलिए उन्हें परद्रव्यजनित कहा गया है। यहाँ अज्ञानी जीव की मुख्यता है। अज्ञानी जीव अपनी बुद्धि के दोष से परद्रव्यरूप निमित्तमात्र को आश्रय करके रागादिरूप से परिणमित होता है, इसलिए पर जो शब्दादि पंचेंद्रियों के विषय उनका कोई दोष नहीं है, ऐसा कहा गया है।
- दोनों का नयार्थ व मतार्थ
देखें नय - IV.3.9.1 (नैगमादि नयों की अपेक्षा कषायें कर्तृसाधन हैं, क्योंकि इन नयों में कारणकार्यभाव संभव है, परंतु शब्दादि नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि इन दृष्टियों में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। और यहाँ पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। (और भी देखें नय - IV.3.3.1)।
देखें विभाव - 5.2 (अशुद्ध निश्चयनय से ये जीव के हैं, शुद्धनिश्चय नय से पुद्गल के हैं और सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से इनका अस्तित्व ही नहीं है।)
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/59/111/9 पूर्वोक्तप्रकारेणात्मा कर्मणां कर्ता न भवतीति दूषणे दत्ते सति सांख्यमतानुसारिशिष्यो वदति....अस्माकं मते आत्मनः कर्माकर्तृत्वं भूषणमेव न दूषणं। अत्र परिहारः। यथा शुद्धनिश्चयेन रागाद्यकर्तृत्वमात्मनः तथा यद्यशुद्धनिश्चयेनाप्यकर्तृत्वं भवति तदा द्रव्यकर्मबंधाभावस्तदभावे संसाराभावः, संसाराभावे सर्वदैव मुक्तप्रसंगः स च प्रत्यक्षविरोध इत्यभिप्रायः। = पूर्वोक्त प्रकार से ‘कर्मों का कर्ता आत्मा नहीं है’ इस प्रकार दूषण देने पर सांख्यमतानुसारी शिष्य कहता है कि हमारे मत में आत्मा को जो कर्मों का अकर्तृत्व बताया गया है, वह भूषण ही है, दूषण नहीं। इसका परिहार करते हैं–जिस प्रकार शुद्ध निश्चयनय से आत्मा को रागादि का अकर्तापना है, यदि उसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनय से भी अकर्तापना होवे तो द्रव्यकर्मबंध का अभाव हो जायेगा। उसका अभाव होने पर संसार का अभाव और संसार के अभाव में सर्वदा मुक्त होने का प्रसंग प्राप्त होगा। यह बात प्रत्यक्ष विरुद्ध है, ऐसा अभिप्राय है।
- दोनों बातों का कारण व प्रयोजन
समयसार / आत्मख्याति/ गा.सर्वे तेऽध्ववसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनम्। व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थेऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बंधस्याभावः। तथा.....मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।46। कारणानुविधायिनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः। गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनोऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम्।68। स्वलक्षणभूतोपयोगगुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावांन निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः संति।57। संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो....मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभावतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधो न कथंचनापि स्यात्।61।- ये सब अध्यवसान आदि भाव जीव हैं, ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है, वह यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तथापि व्यवहारनय को भी बताया है, क्योंकि जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तुस्वरूप बतलाती है, उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों की परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह बतलाना न्यायः संगत ही है। परंतु यदि व्यवहार नय न बताया जाय तो परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया जाने पर भी, जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है उसी प्रकार, त्रस स्थावर जीवों को निःशंकतया मसल देने से भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बंध का ही अभाव सिद्ध होगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का ही अभाव होगा।46। (देखें नय - V.8.4)।
- कारण जैसा ही कार्य होता है ऐसा समझकर जौ पूर्वक होने वाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं इसी न्याय से, वे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। और गुणस्थानों का अचेतनत्व सो आगम से सिद्ध होता है तथा चैतन्य स्वभाव से व्याप्त जो आत्मा उससे भिन्नपने से वे गुणस्थान भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं, इसलिए उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है।68।
- स्वलक्षणभूत उपयोग गुण के द्वारा व्याप्त होने से आत्मा सर्व द्रव्यों से अधिकपने से प्रतीत होता है, इसलिए जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्य संबंध है वैसा वर्णादि (गुणस्थान मार्गणास्थान आदि) के साथ आत्मा का संबंध नहीं है, इसलिए निश्चय से वर्णादिक (या गुणस्थानादिक) पुद्गलपरिणाम आत्मा के नहीं हैं ।57। क्योंकि संसार अवस्था में कथंचित् वर्णदि रूपता से व्याप्त होता है (फिर भी) मोक्ष अवस्था में जो सर्वथा वर्णादिरूपता की व्याप्ति से रहित होता है। इस प्रकार जीव का इनके साथ किसी भी तरह तादाम्यलक्षण संबंध नहीं है।
- वस्तुतः रागादि भाव की सत्ता नहीं है
समयसार / आत्मख्याति/371/ क 218 रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्, तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किचिंत्। सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्टया स्फुटं तौ ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः।218। = इस जगत् में ज्ञान ही अज्ञानभाव से रागद्वेषरूप परिणमित होता है, वस्तुत्वस्थापित दृष्टि से देखने पर वे रागद्वेष कुछ भी नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टि से प्रगटतया उनका क्षय करो कि जिससे पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो। (देखें नय - V.1.5); (देखें विभाव - 5.2)।
- कर्म जीव का पराभव कैसे कर सकता है