समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति: Difference between revisions
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<p> चौथा शुक्लध्यान । इस आत्म-प्रदेशों के परिस्पंदन रूप योगों का तथा काय बल आदि प्राणों का समुच्छिन्न हो जाता है । इस ध्यान में किसी भी प्रकार का आस्रव नहीं होता । यह अंतर्मुहूर्त समय के लिए होता है परंतु इतने ही समय में इससे ध्यानी को निर्वाण प्राप्त हो जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 21.196-197 52.67-68 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 56. 77-78 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> चौथा शुक्लध्यान । इस आत्म-प्रदेशों के परिस्पंदन रूप योगों का तथा काय बल आदि प्राणों का समुच्छिन्न हो जाता है । इस ध्यान में किसी भी प्रकार का आस्रव नहीं होता । यह अंतर्मुहूर्त समय के लिए होता है परंतु इतने ही समय में इससे ध्यानी को निर्वाण प्राप्त हो जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 21.196-197 52.67-68 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 56. 77-78 </span></p> | ||
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Revision as of 16:58, 14 November 2020
चौथा शुक्लध्यान । इस आत्म-प्रदेशों के परिस्पंदन रूप योगों का तथा काय बल आदि प्राणों का समुच्छिन्न हो जाता है । इस ध्यान में किसी भी प्रकार का आस्रव नहीं होता । यह अंतर्मुहूर्त समय के लिए होता है परंतु इतने ही समय में इससे ध्यानी को निर्वाण प्राप्त हो जाता है । महापुराण 21.196-197 52.67-68 हरिवंशपुराण 56. 77-78