समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति
From जैनकोष
चौथा शुक्लध्यान । इसमें आत्म-प्रदेशों के परिस्पंदन रूप योगों का तथा काय बल आदि प्राणों का समुच्छिन्न हो जाता है । इस ध्यान में किसी भी प्रकार का आस्रव नहीं होता । यह अंतर्मुहूर्त समय के लिए होता है परंतु इतने ही समय में इससे ध्यानी को निर्वाण प्राप्त हो जाता है । महापुराण 21.196-197 52.67-68 हरिवंशपुराण - 56.77-78