स्कंध: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">Molecule ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र.109)</p> | <p class="HindiText">Molecule (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ </span>प्र.109)</p> | ||
<p><span class="HindiText">परमाणुओं में स्वाभाविक रूप से उनके स्निग्ध व रूक्ष गुणों से हानि वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपात वाले गुणों को प्राप्त होने पर वे परस्पर बँध जाते हैं, जिसके कारण सूक्ष्मतम से स्थूलतम तक अनेक प्रकार के स्कंध उत्पन्न हो जाते हैं। पृथिवी, अप्, प्रकाश, छाया आदि सभी पुद्गल स्कंध हैं। लोक के सर्वद्वीप, चंद्र, सूर्य आदि महान् पृथिवियाँ मिलकर एक महास्कंध होता है, क्योंकि पृथक्-पृथक् रहते हुए भी ये सभी मध्यवर्ती सूक्ष्म स्कंधों के द्वारा परस्पर में बँधकर एक हैं।</span></p> | <p><span class="HindiText">परमाणुओं में स्वाभाविक रूप से उनके स्निग्ध व रूक्ष गुणों से हानि वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपात वाले गुणों को प्राप्त होने पर वे परस्पर बँध जाते हैं, जिसके कारण सूक्ष्मतम से स्थूलतम तक अनेक प्रकार के स्कंध उत्पन्न हो जाते हैं। पृथिवी, अप्, प्रकाश, छाया आदि सभी पुद्गल स्कंध हैं। लोक के सर्वद्वीप, चंद्र, सूर्य आदि महान् पृथिवियाँ मिलकर एक महास्कंध होता है, क्योंकि पृथक्-पृथक् रहते हुए भी ये सभी मध्यवर्ती सूक्ष्म स्कंधों के द्वारा परस्पर में बँधकर एक हैं।</span></p> | ||
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<strong>1. स्कंध सामान्य का लक्षण</strong></p> | <strong>1. स्कंध सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/5/25/297/7 स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारस्कंधनात्स्कंधा इति संज्ञायंते।</span> = <span class="HindiText">जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कंधन अर्थात् संघटना होती है वे स्कंध कहे जाते हैं। ( राजवार्तिक/5/25/2/491/16 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/25/297/7 </span>स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारस्कंधनात्स्कंधा इति संज्ञायंते।</span> = <span class="HindiText">जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कंधन अर्थात् संघटना होती है वे स्कंध कहे जाते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/25/2/491/16 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक 5/25/16/493/6 बंधो वक्ष्यते, तं परिप्राप्ता: येऽणव: ते स्कंधा इति व्यपदेशमर्हंति।</span> = <span class="HindiText">जिन परमाणुओं ने परस्पर बंध कर लिया है वे स्कंध कहलाते हैं।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक 5/25/16/493/6 </span>बंधो वक्ष्यते, तं परिप्राप्ता: येऽणव: ते स्कंधा इति व्यपदेशमर्हंति।</span> = <span class="HindiText">जिन परमाणुओं ने परस्पर बंध कर लिया है वे स्कंध कहलाते हैं।</span></p> | ||
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<strong>* पुद्गल वर्गणा रूप स्कंध</strong>-देखें [[ वर्गणा ]]।</p> | <strong>* पुद्गल वर्गणा रूप स्कंध</strong>-देखें [[ वर्गणा ]]।</p> | ||
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<strong>2. स्कंध देशादि के भेद व लक्षण</strong></p> | <strong>2. स्कंध देशादि के भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText"> पंचास्तिकाय/75 खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति। अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।75।</span> = <span class="HindiText">सकल-समस्त (पुद्गल पिंडात्मक संपूर्ण वस्तु) वह स्कंध है, उसके अर्ध को देश कहते हैं, अर्ध का अर्ध वह प्रदेश है और अविभागी वह सचमुच परमाणु है।75। (मू.आ./231); ( तिलोयपण्णत्ति/1/95 ); ( धवला 13/5,3,12/ गा.3/13); ( गोम्मटसार जीवकांड 604/1059 ); ( योगसार (अमितगति)/2/19 )।</span></p> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> पंचास्तिकाय/75 </span>खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति। अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।75।</span> = <span class="HindiText">सकल-समस्त (पुद्गल पिंडात्मक संपूर्ण वस्तु) वह स्कंध है, उसके अर्ध को देश कहते हैं, अर्ध का अर्ध वह प्रदेश है और अविभागी वह सचमुच परमाणु है।75। (मू.आ./231); (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/95 </span>); (<span class="GRef"> धवला 13/5,3,12/ </span>गा.3/13); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड 604/1059 </span>); (<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/2/19 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/5/25/16/493/7 ते (स्कंधा:) त्रिविधा: स्कंधा: स्कंधदेशा: स्कंधप्रदेशाश्चेति। अनंतानंतपरमाणुबंधविशेष: स्कंध:। तदर्धं देश:। अर्धार्धं प्रदेश:। तद्भेदा: पृथिव्यप्तेजोवायव; स्पर्शादिशब्दादिपर्याया:।</span> = <span class="HindiText">वे स्कंध तीन प्रकार के हैं-स्कंध, स्कंधदेश और स्कंध प्रदेश। अनंतानंत परमाणुओं का बंध विशेष स्कंध है। उसके आधे को देश कहते हैं और आधे के भी आधे को प्रदेश। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि उसी के भेद हैं। स्पर्शादि और स्कंधादि उसकी पर्याय हैं।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/5/25/16/493/7 </span>ते (स्कंधा:) त्रिविधा: स्कंधा: स्कंधदेशा: स्कंधप्रदेशाश्चेति। अनंतानंतपरमाणुबंधविशेष: स्कंध:। तदर्धं देश:। अर्धार्धं प्रदेश:। तद्भेदा: पृथिव्यप्तेजोवायव; स्पर्शादिशब्दादिपर्याया:।</span> = <span class="HindiText">वे स्कंध तीन प्रकार के हैं-स्कंध, स्कंधदेश और स्कंध प्रदेश। अनंतानंत परमाणुओं का बंध विशेष स्कंध है। उसके आधे को देश कहते हैं और आधे के भी आधे को प्रदेश। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि उसी के भेद हैं। स्पर्शादि और स्कंधादि उसकी पर्याय हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>3. स्थूल सूक्ष्म की अपेक्षा स्कंध के भेद व लक्षण</strong></p> | <strong>3. स्थूल सूक्ष्म की अपेक्षा स्कंध के भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> नियमसार/21-24 अइथूलथूलथूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च। सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेयं।21। भूपव्वदमादिया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा। थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया।22। छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि। सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य।23। सुहुमा हवंति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो। तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंदि।24।</span> = <span class="HindiText">1. भेद-अतिस्थूलस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म ऐसे पृथिवी आदि स्कंधों के छह भेद हैं।21। ( महापुराण/24/249 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 ); ( योगसार (अमितगति)/2/20 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/603/1059 ); 2. लक्षण-भूमि, पर्वत आदि अतिस्थूलस्थूल स्कंध कहे गये हैं, घी जल तेल आदि स्थूलस्कंध जानना।22। छाया, आतप आदि स्थूल-सूक्ष्मस्कंध जानना और चार इंद्रिय के विषयभूत स्कंधों को सूक्ष्म-स्थूल कहा गया है।23। और कर्म वर्गणा के योग्य स्कंध सूक्ष्म हैं, उनसे विपरीत (अर्थात् कर्म वर्गणा के अयोग्य) स्कंध अतिसूक्ष्म कहे जाते हैं।24।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> नियमसार/21-24 </span>अइथूलथूलथूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च। सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेयं।21। भूपव्वदमादिया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा। थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया।22। छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि। सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य।23। सुहुमा हवंति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो। तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंदि।24।</span> = <span class="HindiText">1. भेद-अतिस्थूलस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म ऐसे पृथिवी आदि स्कंधों के छह भेद हैं।21। (<span class="GRef"> महापुराण/24/249 </span>); (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 </span>); (<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/2/20 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/603/1059 </span>); 2. लक्षण-भूमि, पर्वत आदि अतिस्थूलस्थूल स्कंध कहे गये हैं, घी जल तेल आदि स्थूलस्कंध जानना।22। छाया, आतप आदि स्थूल-सूक्ष्मस्कंध जानना और चार इंद्रिय के विषयभूत स्कंधों को सूक्ष्म-स्थूल कहा गया है।23। और कर्म वर्गणा के योग्य स्कंध सूक्ष्म हैं, उनसे विपरीत (अर्थात् कर्म वर्गणा के अयोग्य) स्कंध अतिसूक्ष्म कहे जाते हैं।24।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> धवला 3/1,2,1/ गा.2/3 पुढवी-जलं च छाया चउरिंदियविसय-कम्मपरमाणू। छव्विह भेयं भणियं जिणवरेहिं।2।</span> = <span class="HindiText">पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इंद्रिय के अतिरिक्त शेष चार इंद्रियों के विषय, कर्म और परमाणु, इस प्रकार पुद्गल द्रव्य छह प्रकार का कहा गया है। ( पंचास्तिकाय/ प्रक्षेपक/73-1/130); ( नयचक्र बृहद्/32 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/602/1058 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/20 )।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 3/1,2,1/ </span>गा.2/3 पुढवी-जलं च छाया चउरिंदियविसय-कम्मपरमाणू। छव्विह भेयं भणियं जिणवरेहिं।2।</span> = <span class="HindiText">पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इंद्रिय के अतिरिक्त शेष चार इंद्रियों के विषय, कर्म और परमाणु, इस प्रकार पुद्गल द्रव्य छह प्रकार का कहा गया है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/ </span>प्रक्षेपक/73-1/130); (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/32 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/602/1058 </span>); (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/20 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> महापुराण/24/150-153 शब्द: स्पर्शो रसो गंध: सूक्ष्मस्थूलो निगद्यते। अचाक्षुषत्वे सत्येषाम् इंद्रियग्राह्यतेक्षणात् ।151। स्थूलसूक्ष्मा: पुनर्ज्ञेयाश्छायाज्योत्स्नातपादय:। चाक्षुषत्वेऽप्यसंहार्यरूपत्वादविघातका:।152। द्रवद्रव्यं जलादि स्यात् स्थूलभेदनिदर्शनम् । स्थूलस्थूल: पृथिव्यादिर्भेद्य: स्कंध: प्रकीर्तित:।153।</span> = <span class="HindiText">शब्द, रस, गंध, स्पर्श सूक्ष्मस्थूल कहलाते हैं, क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इंद्रिय के द्वारा ज्ञान नहीं होता, इसलिए ये सूक्ष्म हैं परंतु अपनी-अपनी कर्ण आदि इंद्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये स्थूल भी कहलाते हैं।151। छाया, चाँदनी और आतप आदि स्थूल-सूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि चक्षु इंद्रिय के द्वारा दिखाई देने के कारण यह स्थूल हैं, परंतु इनके रूप का संहरण नहीं हो सकता, इसलिए विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म भी हैं।152। पानी आदि तरल पदार्थ जो कि पृथक् करने पर भी मिल जाते हैं स्थूल भेद के उदाहरण हैं और पृथिवी आदि स्कंध जो कि भेद किये जाने पर फिर मिल न सकें स्थूल-स्थूल कहलाते हैं।153।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> महापुराण/24/150-153 </span>शब्द: स्पर्शो रसो गंध: सूक्ष्मस्थूलो निगद्यते। अचाक्षुषत्वे सत्येषाम् इंद्रियग्राह्यतेक्षणात् ।151। स्थूलसूक्ष्मा: पुनर्ज्ञेयाश्छायाज्योत्स्नातपादय:। चाक्षुषत्वेऽप्यसंहार्यरूपत्वादविघातका:।152। द्रवद्रव्यं जलादि स्यात् स्थूलभेदनिदर्शनम् । स्थूलस्थूल: पृथिव्यादिर्भेद्य: स्कंध: प्रकीर्तित:।153।</span> = <span class="HindiText">शब्द, रस, गंध, स्पर्श सूक्ष्मस्थूल कहलाते हैं, क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इंद्रिय के द्वारा ज्ञान नहीं होता, इसलिए ये सूक्ष्म हैं परंतु अपनी-अपनी कर्ण आदि इंद्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये स्थूल भी कहलाते हैं।151। छाया, चाँदनी और आतप आदि स्थूल-सूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि चक्षु इंद्रिय के द्वारा दिखाई देने के कारण यह स्थूल हैं, परंतु इनके रूप का संहरण नहीं हो सकता, इसलिए विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म भी हैं।152। पानी आदि तरल पदार्थ जो कि पृथक् करने पर भी मिल जाते हैं स्थूल भेद के उदाहरण हैं और पृथिवी आदि स्कंध जो कि भेद किये जाने पर फिर मिल न सकें स्थूल-स्थूल कहलाते हैं।153।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 तत्र छिन्ना: स्वयं संधानासमर्था काष्ठपाषाणादयो बादरबादरा:। छिन्ना; स्वयं संधानसमर्था: क्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो बादरा:। स्थूलोपलंभा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्या छायातपतमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्मा:। सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलंभा: स्पर्शरसगंधशब्दा: सूक्ष्मबादरा:। सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्या: कर्मवर्गणादय: सूक्ष्मा:। अत्यंतसूक्ष्मा: कर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुकस्कंधपर्यंता: सूक्ष्मसूक्ष्मा इति।</span> = <span class="HindiText">काष्ठ पाषाणादिक जो कि छेदन करने पर स्वयं नहीं जुड़ सकते वे (घन पदार्थ) बादरबादर हैं। दूध, घी, तेल, रस आदि जो कि छेदन करने पर स्वयं जुड़ जाते हैं वे (प्रवाही पदार्थ) बादर हैं। छाया, धूप, अंधकार, चाँदनी आदि (स्कंध) जो कि स्थूल ज्ञात होने पर भी जिनका छेदन, भेदन, अथवा (हस्तादि द्वारा) ग्रहण नहीं किया जा सकता वे बादर-सूक्ष्म हैं। स्पर्श-रस-गंध-शब्द जो कि सूक्ष्म होने पर भी स्थूल ज्ञात होते हैं (जो चक्षु के अतिरिक्त अन्य चार इंद्रियों से ज्ञात होते हैं) वे सूक्ष्म बादर हैं। कर्म वर्गणादि कि जिन्हें सूक्ष्मपना है तथा जो इंद्रियों से ज्ञात न हों ऐसे हैं वे सूक्ष्म हैं। कर्म वर्गणा से नीचे के द्विअणुक स्कंध तक के जो कि अत्यंत सूक्ष्म हैं वे सूक्ष्मसूक्ष्म हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/603/1059 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 </span>तत्र छिन्ना: स्वयं संधानासमर्था काष्ठपाषाणादयो बादरबादरा:। छिन्ना; स्वयं संधानसमर्था: क्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो बादरा:। स्थूलोपलंभा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्या छायातपतमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्मा:। सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलंभा: स्पर्शरसगंधशब्दा: सूक्ष्मबादरा:। सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्या: कर्मवर्गणादय: सूक्ष्मा:। अत्यंतसूक्ष्मा: कर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुकस्कंधपर्यंता: सूक्ष्मसूक्ष्मा इति।</span> = <span class="HindiText">काष्ठ पाषाणादिक जो कि छेदन करने पर स्वयं नहीं जुड़ सकते वे (घन पदार्थ) बादरबादर हैं। दूध, घी, तेल, रस आदि जो कि छेदन करने पर स्वयं जुड़ जाते हैं वे (प्रवाही पदार्थ) बादर हैं। छाया, धूप, अंधकार, चाँदनी आदि (स्कंध) जो कि स्थूल ज्ञात होने पर भी जिनका छेदन, भेदन, अथवा (हस्तादि द्वारा) ग्रहण नहीं किया जा सकता वे बादर-सूक्ष्म हैं। स्पर्श-रस-गंध-शब्द जो कि सूक्ष्म होने पर भी स्थूल ज्ञात होते हैं (जो चक्षु के अतिरिक्त अन्य चार इंद्रियों से ज्ञात होते हैं) वे सूक्ष्म बादर हैं। कर्म वर्गणादि कि जिन्हें सूक्ष्मपना है तथा जो इंद्रियों से ज्ञात न हों ऐसे हैं वे सूक्ष्म हैं। कर्म वर्गणा से नीचे के द्विअणुक स्कंध तक के जो कि अत्यंत सूक्ष्म हैं वे सूक्ष्मसूक्ष्म हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/603/1059 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>4. महास्कंध निर्देश</strong></p> | <strong>4. महास्कंध निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> षट्खंडागम/14/5,6/ सू.641/494 अठु पुढवीओ टंकाणि कूडाणि भवणाणि विमाणाणि विमाणिंदियाणि विमाणपत्थडाणि णिरइंदियाणि णिरयपत्थडाणि गच्छाणि गुम्माणि वल्लीणि लदाणि तणवणप्फदि आदीहि।641।</span> = <span class="HindiText">आठ पृथिवियाँ, टंक, कूट, भवन, विमान, विमानेंद्रक, विमानप्रस्तर नरक, नरकेंद्रक, नरकप्रस्तर, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृण वनस्पति आदि महास्कंध स्थान हैं।641।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम/14/5,6/ </span>सू.641/494 अठु पुढवीओ टंकाणि कूडाणि भवणाणि विमाणाणि विमाणिंदियाणि विमाणपत्थडाणि णिरइंदियाणि णिरयपत्थडाणि गच्छाणि गुम्माणि वल्लीणि लदाणि तणवणप्फदि आदीहि।641।</span> = <span class="HindiText">आठ पृथिवियाँ, टंक, कूट, भवन, विमान, विमानेंद्रक, विमानप्रस्तर नरक, नरकेंद्रक, नरकप्रस्तर, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृण वनस्पति आदि महास्कंध स्थान हैं।641।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/600/1052/4 महास्कंधवर्गणा वर्तमानकाले एका सा तु भवनविमानाष्टपृथ्वीमेरुकुलशैलादीनामेकीभावरूपा। कथं संख्यातासंख्यातयोजनांतरितानामेकत्वं। एकबंधनबद्धसूक्ष्मपुद्गलस्कंधै: समवेतानामंतराभावात् ।</span> = <span class="HindiText">महास्कंध वर्गणा वर्तमान काल में जगत् में एक ही है सो भवनवासियों के भवन, देवियों के विमान, आठ पृथिवी, मेरुगिरि, कुलाचल इत्यादि का एक स्कंध रूप ही है। प्रश्न-जिनके संख्यात असंख्यात योजन का अंतर है, तिनका एक स्कंध कैसे संभवता है? उत्तर-जो मध्य में सूक्ष्म परमाणू हैं, सो वे विमान आदि और सूक्ष्म परमाणू इन सबका एक बँधान है, इसलिए अंतर नहीं है एक स्कंध है। इस एक स्कंध का नाम महास्कंध है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/600/1052/4 </span>महास्कंधवर्गणा वर्तमानकाले एका सा तु भवनविमानाष्टपृथ्वीमेरुकुलशैलादीनामेकीभावरूपा। कथं संख्यातासंख्यातयोजनांतरितानामेकत्वं। एकबंधनबद्धसूक्ष्मपुद्गलस्कंधै: समवेतानामंतराभावात् ।</span> = <span class="HindiText">महास्कंध वर्गणा वर्तमान काल में जगत् में एक ही है सो भवनवासियों के भवन, देवियों के विमान, आठ पृथिवी, मेरुगिरि, कुलाचल इत्यादि का एक स्कंध रूप ही है। प्रश्न-जिनके संख्यात असंख्यात योजन का अंतर है, तिनका एक स्कंध कैसे संभवता है? उत्तर-जो मध्य में सूक्ष्म परमाणू हैं, सो वे विमान आदि और सूक्ष्म परमाणू इन सबका एक बँधान है, इसलिए अंतर नहीं है एक स्कंध है। इस एक स्कंध का नाम महास्कंध है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/2/ चूलिका/79/2 पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कंधापेक्षया सर्वगतं, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति।</span> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/2/ </span>चूलिका/79/2 पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कंधापेक्षया सर्वगतं, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति।</span> | ||
<span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य लोक व्यापक महास्कंध की अपेक्षा सर्वगत हैं और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत हैं।</span></p> | <span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य लोक व्यापक महास्कंध की अपेक्षा सर्वगत हैं और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत हैं।</span></p> | ||
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<strong>5. स्कंधों की उत्पत्ति का कारण</strong></p> | <strong>5. स्कंधों की उत्पत्ति का कारण</strong></p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/26 </span>भेदसंघातेभ्य उत्पद्यंते।26।</p> | |||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/5/26/298/5 भेदात्संघाताद्भेदसंघाताभ्यां च उत्पद्यंत इति। तद्यथा-द्वयो: परमाण्वो: संघाताद् द्विप्रदेश: स्कंध उत्पद्यते। द्विप्रदेशस्याणोश्च त्रयाणां वा अणूनां संघातात्त्रिप्रदेश:। द्वयोर्द्विप्रदेशयोस्त्रिप्रदेशस्याणोश्च चतुर्णां वा अणूनां संघाताच्चतु:प्रदेश:। एवं संख्येयासंख्येयानंतानामनंतानंतानां च संघातात्तावत्प्रदेश:। एषामेव भेदात्तावद् द्विप्रदेशपर्यंता: स्कंधा उत्पद्यंते। एवं भेदसंघाताभ्यामेकसमयिकाभ्यां द्विप्रदेशादय: स्कंधा उत्पद्यंते। अन्यतो भेदेनान्यस्य संघातेनेति। एवं स्कंधानामुत्पत्तिहेतुरुक्त:।</span> = <span class="HindiText"> भेद से, संघात से तथा भेद और संघात दोनों से स्कंध उत्पन्न होते हैं। <strong>प्रश्न</strong>-भेद और संघात दो हैं। इसलिए सूत्र में द्विवचन होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>-दो परमाणुओं के संघात से दो प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। दो प्रदेश वाले स्कंध और अणु के संघात से या तीन अणुओं के संघात से तीन प्रदेश वाले स्कंध और अणु के संघात से या चार अणुओं के स्कंधों के संघात से, चार प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनंत और अनंतानंत अणुओं के संघात से उतने-उतने प्रदेशों वाले स्कंध उत्पन्न होते हैं। तथा इन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कंधों के भेद से दो प्रदेश वाले स्कंध तक स्कंध उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार एक समय में होने वाले भेद और संघात इन दोनों से दो प्रदेश वाले आदि स्कंध उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कंध से भेद होता है और अन्य का संघात, तब एक साथ भेद और संघात इन दोनों से भी स्कंध की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्कंधों की उत्पत्ति का कारण कहा। ( राजवार्तिक/5/26/2-5/493/26 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/26/298/5 </span>भेदात्संघाताद्भेदसंघाताभ्यां च उत्पद्यंत इति। तद्यथा-द्वयो: परमाण्वो: संघाताद् द्विप्रदेश: स्कंध उत्पद्यते। द्विप्रदेशस्याणोश्च त्रयाणां वा अणूनां संघातात्त्रिप्रदेश:। द्वयोर्द्विप्रदेशयोस्त्रिप्रदेशस्याणोश्च चतुर्णां वा अणूनां संघाताच्चतु:प्रदेश:। एवं संख्येयासंख्येयानंतानामनंतानंतानां च संघातात्तावत्प्रदेश:। एषामेव भेदात्तावद् द्विप्रदेशपर्यंता: स्कंधा उत्पद्यंते। एवं भेदसंघाताभ्यामेकसमयिकाभ्यां द्विप्रदेशादय: स्कंधा उत्पद्यंते। अन्यतो भेदेनान्यस्य संघातेनेति। एवं स्कंधानामुत्पत्तिहेतुरुक्त:।</span> = <span class="HindiText"> भेद से, संघात से तथा भेद और संघात दोनों से स्कंध उत्पन्न होते हैं। <strong>प्रश्न</strong>-भेद और संघात दो हैं। इसलिए सूत्र में द्विवचन होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>-दो परमाणुओं के संघात से दो प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। दो प्रदेश वाले स्कंध और अणु के संघात से या तीन अणुओं के संघात से तीन प्रदेश वाले स्कंध और अणु के संघात से या चार अणुओं के स्कंधों के संघात से, चार प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनंत और अनंतानंत अणुओं के संघात से उतने-उतने प्रदेशों वाले स्कंध उत्पन्न होते हैं। तथा इन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कंधों के भेद से दो प्रदेश वाले स्कंध तक स्कंध उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार एक समय में होने वाले भेद और संघात इन दोनों से दो प्रदेश वाले आदि स्कंध उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कंध से भेद होता है और अन्य का संघात, तब एक साथ भेद और संघात इन दोनों से भी स्कंध की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्कंधों की उत्पत्ति का कारण कहा। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/26/2-5/493/26 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ वर्गणा ]]/2/3,8,9 (ऊपर की वर्गणाओं के भेद से तथा नीचे की वर्गणाओं के संघात से उत्पन्न होने का स्पष्टीकरण)</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ वर्गणा ]]/2/3,8,9 (ऊपर की वर्गणाओं के भेद से तथा नीचे की वर्गणाओं के संघात से उत्पन्न होने का स्पष्टीकरण)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>6. स्कंधों में चाक्षुष अचाक्षुष विभाग व उनकी उत्पत्ति</strong></p> | <strong>6. स्कंधों में चाक्षुष अचाक्षुष विभाग व उनकी उत्पत्ति</strong></p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/28 </span>भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:/28।</p> | |||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/5/28/299/7 अनंतानंतपरमाणुसमुदयनिष्पाद्योऽपि कश्चिच्चाक्षुष: कश्चिदचाक्षुष:। तत्र योऽचाक्षुष: स कथं चाक्षुषो भवतीति चेदुच्यते-भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:। न भेदादिति। कात्रोपपत्तिरिति चेत् । ब्रूम:; सूक्ष्मपरिणामस्य स्कंधस्य भेदे सौक्ष्म्यापरित्यागादचाक्षुषत्वमेव। सौक्ष्म्यपरिणत: पुनरपर: सत्यपि तद्भेदेऽंयसंघातांतरसंयोगात्सौक्ष्म्यपरिणामोपरमे स्थौल्योत्पत्तौ चाक्षुषो भवति।</span> = <span class="HindiText"> भेद और संघात से चाक्षुष स्कंध उत्पन्न होता है।28। अनंतानंत परमाणुओं के समुदाय से निष्पन्न होकर भी कोई स्कंध चाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष। उसमें जो अचाक्षुष स्कंध है वह चाक्षुष कैसे होता है इसी बात के बतलाने के लिए यह कहा है कि भेद और संघात से चाक्षुष स्कंध होता है, केवल भेद से नहीं, यह सूत्र का अभिप्राय है। <strong>प्रश्न</strong>-इसका क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>-आगे उसी कारण को कहते हैं-सूक्ष्म परिणामवाले स्कंध का भेद होने पर वह अपनी सूक्ष्मता को नहीं छोड़ता इसलिए उसमें अचाक्षुषपना ही रहता है। एक दूसरा सूक्ष्म परिणाम वाला स्कंध है जिसका यद्यपि भेद हुआ तथापि उसका दूसरे संघात से संयोग हो गया अत: सूक्ष्मपना निकलकर उसमें स्थूलपने की उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाक्षुष हो जाता है। ( राजवार्तिक/5/28/-/594/15 )</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/28/299/7 </span>अनंतानंतपरमाणुसमुदयनिष्पाद्योऽपि कश्चिच्चाक्षुष: कश्चिदचाक्षुष:। तत्र योऽचाक्षुष: स कथं चाक्षुषो भवतीति चेदुच्यते-भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:। न भेदादिति। कात्रोपपत्तिरिति चेत् । ब्रूम:; सूक्ष्मपरिणामस्य स्कंधस्य भेदे सौक्ष्म्यापरित्यागादचाक्षुषत्वमेव। सौक्ष्म्यपरिणत: पुनरपर: सत्यपि तद्भेदेऽंयसंघातांतरसंयोगात्सौक्ष्म्यपरिणामोपरमे स्थौल्योत्पत्तौ चाक्षुषो भवति।</span> = <span class="HindiText"> भेद और संघात से चाक्षुष स्कंध उत्पन्न होता है।28। अनंतानंत परमाणुओं के समुदाय से निष्पन्न होकर भी कोई स्कंध चाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष। उसमें जो अचाक्षुष स्कंध है वह चाक्षुष कैसे होता है इसी बात के बतलाने के लिए यह कहा है कि भेद और संघात से चाक्षुष स्कंध होता है, केवल भेद से नहीं, यह सूत्र का अभिप्राय है। <strong>प्रश्न</strong>-इसका क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>-आगे उसी कारण को कहते हैं-सूक्ष्म परिणामवाले स्कंध का भेद होने पर वह अपनी सूक्ष्मता को नहीं छोड़ता इसलिए उसमें अचाक्षुषपना ही रहता है। एक दूसरा सूक्ष्म परिणाम वाला स्कंध है जिसका यद्यपि भेद हुआ तथापि उसका दूसरे संघात से संयोग हो गया अत: सूक्ष्मपना निकलकर उसमें स्थूलपने की उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाक्षुष हो जाता है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/28/-/594/15 </span>)</span></p> | ||
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<strong>* परमाणुओं की हीनाधिकता से स्कंध मोटा व छोटा नहीं होता।-</strong>सूक्ष्म/3/4।</p> | <strong>* परमाणुओं की हीनाधिकता से स्कंध मोटा व छोटा नहीं होता।-</strong>सूक्ष्म/3/4।</p> | ||
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<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>7. शब्द गंध आदि भेद स्कंध के हैं परमाणु के नहीं</strong></p> | <strong>7. शब्द गंध आदि भेद स्कंध के हैं परमाणु के नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/5/24/24/490/25 शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवंति सौक्ष्म्यवर्ज्या इत्येतस्य विशेषस्य प्रतिपत्त्यर्थं पृथग्योगकरणम् ।</span> = <span class="HindiText">शब्द आदि (अर्थात् शब्द, बंध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम और छाया व आतप उद्योत ये सब) व्यक्त रूप से स्कंधों के ही होते हैं सौक्ष्म्य को छोड़कर, इस विशेषता को बताने के लिए पृथक् सूत्र बनाया है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/24/490/25 </span>शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवंति सौक्ष्म्यवर्ज्या इत्येतस्य विशेषस्य प्रतिपत्त्यर्थं पृथग्योगकरणम् ।</span> = <span class="HindiText">शब्द आदि (अर्थात् शब्द, बंध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम और छाया व आतप उद्योत ये सब) व्यक्त रूप से स्कंधों के ही होते हैं सौक्ष्म्य को छोड़कर, इस विशेषता को बताने के लिए पृथक् सूत्र बनाया है।</span></p> | ||
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<strong>8. कर्म स्कंध सूक्ष्म हैं स्थूल नहीं</strong></p> | <strong>8. कर्म स्कंध सूक्ष्म हैं स्थूल नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/8/24/402/11 कर्मग्रहण...योग्या: पुद्गला: सूक्ष्मा: न स्थूला: इति।</span> = <span class="HindiText">कर्म रूप से ग्रहण योग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं होते। ( राजवार्तिक/8/24/4/585/17 )</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/24/402/11 </span>कर्मग्रहण...योग्या: पुद्गला: सूक्ष्मा: न स्थूला: इति।</span> = <span class="HindiText">कर्म रूप से ग्रहण योग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं होते। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/24/4/585/17 </span>)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* एक जाति के स्कंध दूसरी जाति रूप परिणमन नहीं करते।-</strong>देखें [[ वर्गणा ]]/2/8।</p> | <strong>* एक जाति के स्कंध दूसरी जाति रूप परिणमन नहीं करते।-</strong>देखें [[ वर्गणा ]]/2/8।</p> | ||
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<strong>1. पुद्गल बंध का लक्षण</strong></p> | <strong>1. पुद्गल बंध का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/2/10/2/124/24 द्रव्यबंध: कर्मनोकर्मपरिणत: पुद्गलद्रव्यविषय:।</span> = <span class="HindiText">नोकर्म रूप से परिणत पुद्गलकर्म रूप द्रव्यबंध है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/2/10/2/124/24 </span>द्रव्यबंध: कर्मनोकर्मपरिणत: पुद्गलद्रव्यविषय:।</span> = <span class="HindiText">नोकर्म रूप से परिणत पुद्गलकर्म रूप द्रव्यबंध है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> धवला 13/5,5,82/347/9,12 दो तिण्णि आदि पोग्गलाणं जो समवाओ सो पोग्गलबंधो णाम।9। जेण णिद्धल्हुक्खादिगुणेण पोग्गलाणं बंधो होदि सो पोग्गलबंधो णाम।</span> = <span class="HindiText">दो, तीन आदि पुद्गलों का जो समवाय संबंध होता है वह पुद्गल बंध कहलाता है।...जिस स्निग्ध और रूक्ष आदि गुण के कारण पुद्गलों का बंध होता है उसकी पुद्गलबंध संज्ञा है।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 13/5,5,82/347/9,12 </span>दो तिण्णि आदि पोग्गलाणं जो समवाओ सो पोग्गलबंधो णाम।9। जेण णिद्धल्हुक्खादिगुणेण पोग्गलाणं बंधो होदि सो पोग्गलबंधो णाम।</span> = <span class="HindiText">दो, तीन आदि पुद्गलों का जो समवाय संबंध होता है वह पुद्गल बंध कहलाता है।...जिस स्निग्ध और रूक्ष आदि गुण के कारण पुद्गलों का बंध होता है उसकी पुद्गलबंध संज्ञा है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणाम: स केवलपुद्गलबंध:।</span> = <span class="HindiText">कर्मों का जो स्निग्धतारूक्षता रूप स्पर्शविशेषों के साथ एकत्व परिणाम है सो केवल पुद्गलबंध है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 </span>यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणाम: स केवलपुद्गलबंध:।</span> = <span class="HindiText">कर्मों का जो स्निग्धतारूक्षता रूप स्पर्शविशेषों के साथ एकत्व परिणाम है सो केवल पुद्गलबंध है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/12 मृत्पिंडादिरूपेण योऽसौ बहुधाबंध: स केवल: पुद्गलबंध:।</span> = <span class="HindiText">मिट्टी आदि के पिंड रूप जो बहुत प्रकार का बंध है वह तो केवल पुद्गलबंध है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/12 </span>मृत्पिंडादिरूपेण योऽसौ बहुधाबंध: स केवल: पुद्गलबंध:।</span> = <span class="HindiText">मिट्टी आदि के पिंड रूप जो बहुत प्रकार का बंध है वह तो केवल पुद्गलबंध है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/47 द्रव्यं पौद्गलिक: पिंडो बंधस्तच्छक्तिरेव वा।</span> = <span class="HindiText">कर्मरूप पौद्गलिक पिंड का अथवा कर्म की शक्ति का ही नाम द्रव्य बंध है।47।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/47 </span>द्रव्यं पौद्गलिक: पिंडो बंधस्तच्छक्तिरेव वा।</span> = <span class="HindiText">कर्मरूप पौद्गलिक पिंड का अथवा कर्म की शक्ति का ही नाम द्रव्य बंध है।47।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>2. बंध का कारण स्निग्ध रूक्षता</strong></p> | <strong>2. बंध का कारण स्निग्ध रूक्षता</strong></p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/33 </span>स्निग्धरूक्षत्वाद् बंध:।33।</p> | |||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/5/33/304/8 द्वयो: स्निग्धरूक्षयोरण्वो: परस्परश्लेषलक्षणे बंधे सति द्वयणुकस्कंधो भवति। एवं संख्येयासंख्येयानंतप्रदेश: स्कंधो योज्य:।</span> = <span class="HindiText">स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बंध होता है।33। स्निग्ध और रूक्षगुणवाले दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेष लक्षण बंध होने पर द्वयणुक नाम का स्कंध बनता है। इसी प्रकार संख्यात असंख्यात और अनंत प्रदेश वाले स्कंध उत्पन्न होते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/609/1066 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/33/304/8 </span>द्वयो: स्निग्धरूक्षयोरण्वो: परस्परश्लेषलक्षणे बंधे सति द्वयणुकस्कंधो भवति। एवं संख्येयासंख्येयानंतप्रदेश: स्कंधो योज्य:।</span> = <span class="HindiText">स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बंध होता है।33। स्निग्ध और रूक्षगुणवाले दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेष लक्षण बंध होने पर द्वयणुक नाम का स्कंध बनता है। इसी प्रकार संख्यात असंख्यात और अनंत प्रदेश वाले स्कंध उत्पन्न होते हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/609/1066 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>3. स्निग्ध व रूक्ष में परस्पर बंध होने संबंधी नियम</strong></p> | <strong>3. स्निग्ध व रूक्ष में परस्पर बंध होने संबंधी नियम</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> षट्खंडागम 14/5,6/ सू.34,36/31,33 णिद्धणिद्वा ण बज्झंति ल्हुक्खल्हुक्खा य पोग्गला। णिद्धल्हुक्खा य बज्झंति रूवारूवी य पोग्गला।34। णिद्वस्स णिद्धेण दुराहिएण ल्हुक्खस्स ल्हुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स ल्हुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा।36।</span> = | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5,6/ </span>सू.34,36/31,33 णिद्धणिद्वा ण बज्झंति ल्हुक्खल्हुक्खा य पोग्गला। णिद्धल्हुक्खा य बज्झंति रूवारूवी य पोग्गला।34। णिद्वस्स णिद्धेण दुराहिएण ल्हुक्खस्स ल्हुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स ल्हुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा।36।</span> = | ||
<span class="HindiText">स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध पुद्गलों के साथ नहीं बँधते। रूक्ष पुद्गल रूक्ष पुद्गलों के साथ नहीं बँधते किंतु सदृश और विसदृश ऐसे स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल परस्पर बँधते हैं।34। स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बंध होता है। तथा स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुण के सिवा विषम अथवा सम गुण के रहने पर बंध होता है।36। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/166 में उद्धृत); ( गोम्मटसार जीवकांड/610,618/1068 )</span></p> | <span class="HindiText">स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध पुद्गलों के साथ नहीं बँधते। रूक्ष पुद्गल रूक्ष पुद्गलों के साथ नहीं बँधते किंतु सदृश और विसदृश ऐसे स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल परस्पर बँधते हैं।34। स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बंध होता है। तथा स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुण के सिवा विषम अथवा सम गुण के रहने पर बंध होता है।36। (<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/166 </span>में उद्धृत); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/610,618/1068 </span>)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> प्रवचनसार/166 णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणगुत्तो।166।</span> = <span class="HindiText">स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध परमाणु के साथ बंध को अनुभव करता है अथवा रूक्षरूप से तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवाले के साथ युक्त होता हुआ बँधता है।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार/166 </span>णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणगुत्तो।166।</span> = <span class="HindiText">स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध परमाणु के साथ बंध को अनुभव करता है अथवा रूक्षरूप से तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवाले के साथ युक्त होता हुआ बँधता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> तत्त्वार्थसूत्र/5/34,36 न जघन्यगुणानाम् ।34। गुणसाम्ये सदृशानाम् ।35। द्वयधिकादिगुणानां तु।36।</span> = <span class="HindiText">जघन्य गुणवाले पुद्गलों का बंध नहीं होता।34। समान शक्त्यंश होने पर तुल्य जाति वालों का बंध नहीं होता।35। दो अधिक आदि शक्त्यंशवालों का तो बंध होता है।36।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/34,36 </span>न जघन्यगुणानाम् ।34। गुणसाम्ये सदृशानाम् ।35। द्वयधिकादिगुणानां तु।36।</span> = <span class="HindiText">जघन्य गुणवाले पुद्गलों का बंध नहीं होता।34। समान शक्त्यंश होने पर तुल्य जाति वालों का बंध नहीं होता।35। दो अधिक आदि शक्त्यंशवालों का तो बंध होता है।36।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> नयचक्र बृहद्/28 णिद्धादो णिद्धेण तहेव रुक्खेण सरिस विसमं वा। बज्झदि दोगुणअहिओ परमाणु जहण्णगुणरहिओ।28।</span> = <span class="HindiText">जघन्य गुण से रहित तथा दो गुण अधिक होने पर स्निग्ध का स्निग्ध के साथ, रूक्ष का रूक्ष के साथ, स्निग्ध का रूक्ष के साथ, और रूक्ष का स्निग्ध के साथ परमाणुओं का बंध होता है।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/28 </span>णिद्धादो णिद्धेण तहेव रुक्खेण सरिस विसमं वा। बज्झदि दोगुणअहिओ परमाणु जहण्णगुणरहिओ।28।</span> = <span class="HindiText">जघन्य गुण से रहित तथा दो गुण अधिक होने पर स्निग्ध का स्निग्ध के साथ, रूक्ष का रूक्ष के साथ, स्निग्ध का रूक्ष के साथ, और रूक्ष का स्निग्ध के साथ परमाणुओं का बंध होता है।</span></p> | ||
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<strong>* स्कंधों में परमाणुओं का एक देश व सर्वदेश समागम</strong>-देखें [[ परमाणु#3 | परमाणु - 3]]।</p> | <strong>* स्कंधों में परमाणुओं का एक देश व सर्वदेश समागम</strong>-देखें [[ परमाणु#3 | परमाणु - 3]]।</p> | ||
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</ol> | </ol> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
दृष्टि नं.1. ( षट्खंडागम 14/ मू.व टी./5,6/सू.32-36/30-32)।</p> | दृष्टि नं.1. (<span class="GRef"> षट्खंडागम 14/ </span>मू.व टी./5,6/सू.32-36/30-32)।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
दृष्टि नं.2. ( सर्वार्थसिद्धि/5/34-36/305-307 ); ( राजवार्तिक/5/34-36/498-499 ); ( गोम्मटसार जीवकांड व जी.प्र./612-618/1068)।</p> | दृष्टि नं.2. (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/34-36/305-307 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/34-36/498-499 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड </span>व जी.प्र./612-618/1068)।</p> | ||
<table class="HindiText" border="1" cellpadding="1" cellspacing="1"> | <table class="HindiText" border="1" cellpadding="1" cellspacing="1"> | ||
<tr class="center"> | <tr class="center"> | ||
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<strong>5. बद्ध परमाणुओं के गुणों में परिणमन</strong></p> | <strong>5. बद्ध परमाणुओं के गुणों में परिणमन</strong></p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/37 </span>बंधेऽधिकौ पारिणामिकौ च।37।</p> | |||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/5/37/307/11 यथा क्लिन्नो गुडोऽधिकमधुररस: परीतानां रेण्वादीनां स्वगुणापादनात् पारिणामिक:। तथाऽन्योऽप्यधिकगुण: अल्पीयस: पारिणामिक इति कृत्वा द्विगुणादिस्निग्धरूक्षस्य चतुर्गुणादिस्निग्धरूक्ष: पारिणामिको भवति। तत: पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तार्तीयिकमवस्थांतरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते। इतरथा हि शुक्लकृष्णतंतुवत् संयोगे सत्यप्यपारिणामिकत्वात्सर्वं विविक्तरूपेणैवावतिष्ठेत् ।</span> = <span class="HindiText">बंध के समय दो अधिक गुण वाला परिणमन कराने वाला होता है।37। जैसे अधिक मीठे रसवाला गीला गुड़ उस पर पड़ी हुई धूलि को अपने गुणरूप से परिणमाने के कारण पारिणामिक होता है उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी अल्पगुण वाले का पारिणामिक होता है। इस व्यवस्था के अनुसार दो शक्त्यंश वाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु का चार शक्त्यंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है। इससे पूर्व अवस्थाओं का त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। अत: उनमें एकरूपता आ जाती है अन्यथा सफेद और काले तंतु के समान संयोग होने पर भी पारिणामिक न होने से सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/37/307/11 </span>यथा क्लिन्नो गुडोऽधिकमधुररस: परीतानां रेण्वादीनां स्वगुणापादनात् पारिणामिक:। तथाऽन्योऽप्यधिकगुण: अल्पीयस: पारिणामिक इति कृत्वा द्विगुणादिस्निग्धरूक्षस्य चतुर्गुणादिस्निग्धरूक्ष: पारिणामिको भवति। तत: पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तार्तीयिकमवस्थांतरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते। इतरथा हि शुक्लकृष्णतंतुवत् संयोगे सत्यप्यपारिणामिकत्वात्सर्वं विविक्तरूपेणैवावतिष्ठेत् ।</span> = <span class="HindiText">बंध के समय दो अधिक गुण वाला परिणमन कराने वाला होता है।37। जैसे अधिक मीठे रसवाला गीला गुड़ उस पर पड़ी हुई धूलि को अपने गुणरूप से परिणमाने के कारण पारिणामिक होता है उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी अल्पगुण वाले का पारिणामिक होता है। इस व्यवस्था के अनुसार दो शक्त्यंश वाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु का चार शक्त्यंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है। इससे पूर्व अवस्थाओं का त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। अत: उनमें एकरूपता आ जाती है अन्यथा सफेद और काले तंतु के समान संयोग होने पर भी पारिणामिक न होने से सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> गोम्मटसार जीवकांड/619/1074 णिद्धीदरगुणा अहिया हीणं परिणामयंति बंधम्मि। संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसाण खंधाण।</span> = <span class="HindiText">संख्यात असंख्यात अनंतप्रदेश वाले स्कंधों में स्निग्ध या रूक्ष के अधिक गुण वाले परमाणु या स्कंध अपने से हीन गुण वाले परमाणु या स्कंधों को अपने रूप परिणमाते हैं। (जैसे एक हज़ार स्निग्ध या रूक्ष गुण के अंशों से युक्त परमाणु या स्कंध को एक हजार दो अंश वाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कंध परणमाता है।)</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/619/1074 </span>णिद्धीदरगुणा अहिया हीणं परिणामयंति बंधम्मि। संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसाण खंधाण।</span> = <span class="HindiText">संख्यात असंख्यात अनंतप्रदेश वाले स्कंधों में स्निग्ध या रूक्ष के अधिक गुण वाले परमाणु या स्कंध अपने से हीन गुण वाले परमाणु या स्कंधों को अपने रूप परिणमाते हैं। (जैसे एक हज़ार स्निग्ध या रूक्ष गुण के अंशों से युक्त परमाणु या स्कंध को एक हजार दो अंश वाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कंध परणमाता है।)</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>* गुणों का परिणमन स्वजाति की सीमा का लंघन नहीं कर सकता</strong>-देखें [[ गुण#2.7 | गुण - 2.7]]।</p> | <p class="HindiText"><strong>* गुणों का परिणमन स्वजाति की सीमा का लंघन नहीं कर सकता</strong>-देखें [[ गुण#2.7 | गुण - 2.7]]।</p> | ||
Revision as of 13:03, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
Molecule ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र.109)
परमाणुओं में स्वाभाविक रूप से उनके स्निग्ध व रूक्ष गुणों से हानि वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपात वाले गुणों को प्राप्त होने पर वे परस्पर बँध जाते हैं, जिसके कारण सूक्ष्मतम से स्थूलतम तक अनेक प्रकार के स्कंध उत्पन्न हो जाते हैं। पृथिवी, अप्, प्रकाश, छाया आदि सभी पुद्गल स्कंध हैं। लोक के सर्वद्वीप, चंद्र, सूर्य आदि महान् पृथिवियाँ मिलकर एक महास्कंध होता है, क्योंकि पृथक्-पृथक् रहते हुए भी ये सभी मध्यवर्ती सूक्ष्म स्कंधों के द्वारा परस्पर में बँधकर एक हैं।
स्कंध निर्देश
1. स्कंध सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/5/25/297/7 स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारस्कंधनात्स्कंधा इति संज्ञायंते। = जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कंधन अर्थात् संघटना होती है वे स्कंध कहे जाते हैं। ( राजवार्तिक/5/25/2/491/16 )।
राजवार्तिक 5/25/16/493/6 बंधो वक्ष्यते, तं परिप्राप्ता: येऽणव: ते स्कंधा इति व्यपदेशमर्हंति। = जिन परमाणुओं ने परस्पर बंध कर लिया है वे स्कंध कहलाते हैं।
* पुद्गल वर्गणा रूप स्कंध-देखें वर्गणा ।
2. स्कंध देशादि के भेद व लक्षण
पंचास्तिकाय/75 खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति। अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।75। = सकल-समस्त (पुद्गल पिंडात्मक संपूर्ण वस्तु) वह स्कंध है, उसके अर्ध को देश कहते हैं, अर्ध का अर्ध वह प्रदेश है और अविभागी वह सचमुच परमाणु है।75। (मू.आ./231); ( तिलोयपण्णत्ति/1/95 ); ( धवला 13/5,3,12/ गा.3/13); ( गोम्मटसार जीवकांड 604/1059 ); ( योगसार (अमितगति)/2/19 )।
राजवार्तिक/5/25/16/493/7 ते (स्कंधा:) त्रिविधा: स्कंधा: स्कंधदेशा: स्कंधप्रदेशाश्चेति। अनंतानंतपरमाणुबंधविशेष: स्कंध:। तदर्धं देश:। अर्धार्धं प्रदेश:। तद्भेदा: पृथिव्यप्तेजोवायव; स्पर्शादिशब्दादिपर्याया:। = वे स्कंध तीन प्रकार के हैं-स्कंध, स्कंधदेश और स्कंध प्रदेश। अनंतानंत परमाणुओं का बंध विशेष स्कंध है। उसके आधे को देश कहते हैं और आधे के भी आधे को प्रदेश। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि उसी के भेद हैं। स्पर्शादि और स्कंधादि उसकी पर्याय हैं।
3. स्थूल सूक्ष्म की अपेक्षा स्कंध के भेद व लक्षण
नियमसार/21-24 अइथूलथूलथूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च। सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेयं।21। भूपव्वदमादिया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा। थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया।22। छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि। सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य।23। सुहुमा हवंति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो। तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंदि।24। = 1. भेद-अतिस्थूलस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म ऐसे पृथिवी आदि स्कंधों के छह भेद हैं।21। ( महापुराण/24/249 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 ); ( योगसार (अमितगति)/2/20 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/603/1059 ); 2. लक्षण-भूमि, पर्वत आदि अतिस्थूलस्थूल स्कंध कहे गये हैं, घी जल तेल आदि स्थूलस्कंध जानना।22। छाया, आतप आदि स्थूल-सूक्ष्मस्कंध जानना और चार इंद्रिय के विषयभूत स्कंधों को सूक्ष्म-स्थूल कहा गया है।23। और कर्म वर्गणा के योग्य स्कंध सूक्ष्म हैं, उनसे विपरीत (अर्थात् कर्म वर्गणा के अयोग्य) स्कंध अतिसूक्ष्म कहे जाते हैं।24।
धवला 3/1,2,1/ गा.2/3 पुढवी-जलं च छाया चउरिंदियविसय-कम्मपरमाणू। छव्विह भेयं भणियं जिणवरेहिं।2। = पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इंद्रिय के अतिरिक्त शेष चार इंद्रियों के विषय, कर्म और परमाणु, इस प्रकार पुद्गल द्रव्य छह प्रकार का कहा गया है। ( पंचास्तिकाय/ प्रक्षेपक/73-1/130); ( नयचक्र बृहद्/32 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/602/1058 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/20 )।
महापुराण/24/150-153 शब्द: स्पर्शो रसो गंध: सूक्ष्मस्थूलो निगद्यते। अचाक्षुषत्वे सत्येषाम् इंद्रियग्राह्यतेक्षणात् ।151। स्थूलसूक्ष्मा: पुनर्ज्ञेयाश्छायाज्योत्स्नातपादय:। चाक्षुषत्वेऽप्यसंहार्यरूपत्वादविघातका:।152। द्रवद्रव्यं जलादि स्यात् स्थूलभेदनिदर्शनम् । स्थूलस्थूल: पृथिव्यादिर्भेद्य: स्कंध: प्रकीर्तित:।153। = शब्द, रस, गंध, स्पर्श सूक्ष्मस्थूल कहलाते हैं, क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इंद्रिय के द्वारा ज्ञान नहीं होता, इसलिए ये सूक्ष्म हैं परंतु अपनी-अपनी कर्ण आदि इंद्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये स्थूल भी कहलाते हैं।151। छाया, चाँदनी और आतप आदि स्थूल-सूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि चक्षु इंद्रिय के द्वारा दिखाई देने के कारण यह स्थूल हैं, परंतु इनके रूप का संहरण नहीं हो सकता, इसलिए विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म भी हैं।152। पानी आदि तरल पदार्थ जो कि पृथक् करने पर भी मिल जाते हैं स्थूल भेद के उदाहरण हैं और पृथिवी आदि स्कंध जो कि भेद किये जाने पर फिर मिल न सकें स्थूल-स्थूल कहलाते हैं।153।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 तत्र छिन्ना: स्वयं संधानासमर्था काष्ठपाषाणादयो बादरबादरा:। छिन्ना; स्वयं संधानसमर्था: क्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो बादरा:। स्थूलोपलंभा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्या छायातपतमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्मा:। सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलंभा: स्पर्शरसगंधशब्दा: सूक्ष्मबादरा:। सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्या: कर्मवर्गणादय: सूक्ष्मा:। अत्यंतसूक्ष्मा: कर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुकस्कंधपर्यंता: सूक्ष्मसूक्ष्मा इति। = काष्ठ पाषाणादिक जो कि छेदन करने पर स्वयं नहीं जुड़ सकते वे (घन पदार्थ) बादरबादर हैं। दूध, घी, तेल, रस आदि जो कि छेदन करने पर स्वयं जुड़ जाते हैं वे (प्रवाही पदार्थ) बादर हैं। छाया, धूप, अंधकार, चाँदनी आदि (स्कंध) जो कि स्थूल ज्ञात होने पर भी जिनका छेदन, भेदन, अथवा (हस्तादि द्वारा) ग्रहण नहीं किया जा सकता वे बादर-सूक्ष्म हैं। स्पर्श-रस-गंध-शब्द जो कि सूक्ष्म होने पर भी स्थूल ज्ञात होते हैं (जो चक्षु के अतिरिक्त अन्य चार इंद्रियों से ज्ञात होते हैं) वे सूक्ष्म बादर हैं। कर्म वर्गणादि कि जिन्हें सूक्ष्मपना है तथा जो इंद्रियों से ज्ञात न हों ऐसे हैं वे सूक्ष्म हैं। कर्म वर्गणा से नीचे के द्विअणुक स्कंध तक के जो कि अत्यंत सूक्ष्म हैं वे सूक्ष्मसूक्ष्म हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/603/1059 )।
4. महास्कंध निर्देश
षट्खंडागम/14/5,6/ सू.641/494 अठु पुढवीओ टंकाणि कूडाणि भवणाणि विमाणाणि विमाणिंदियाणि विमाणपत्थडाणि णिरइंदियाणि णिरयपत्थडाणि गच्छाणि गुम्माणि वल्लीणि लदाणि तणवणप्फदि आदीहि।641। = आठ पृथिवियाँ, टंक, कूट, भवन, विमान, विमानेंद्रक, विमानप्रस्तर नरक, नरकेंद्रक, नरकप्रस्तर, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृण वनस्पति आदि महास्कंध स्थान हैं।641।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/600/1052/4 महास्कंधवर्गणा वर्तमानकाले एका सा तु भवनविमानाष्टपृथ्वीमेरुकुलशैलादीनामेकीभावरूपा। कथं संख्यातासंख्यातयोजनांतरितानामेकत्वं। एकबंधनबद्धसूक्ष्मपुद्गलस्कंधै: समवेतानामंतराभावात् । = महास्कंध वर्गणा वर्तमान काल में जगत् में एक ही है सो भवनवासियों के भवन, देवियों के विमान, आठ पृथिवी, मेरुगिरि, कुलाचल इत्यादि का एक स्कंध रूप ही है। प्रश्न-जिनके संख्यात असंख्यात योजन का अंतर है, तिनका एक स्कंध कैसे संभवता है? उत्तर-जो मध्य में सूक्ष्म परमाणू हैं, सो वे विमान आदि और सूक्ष्म परमाणू इन सबका एक बँधान है, इसलिए अंतर नहीं है एक स्कंध है। इस एक स्कंध का नाम महास्कंध है।
द्रव्यसंग्रह टीका/2/ चूलिका/79/2 पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कंधापेक्षया सर्वगतं, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति। पुद्गल द्रव्य लोक व्यापक महास्कंध की अपेक्षा सर्वगत हैं और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत हैं।
देखें परमाणु - 2.7 (महास्कंध में कुछ परमाणु त्रिकाल अचल हैं)
देखें वर्गणा /2/2 (जघन्य वर्गणा से लेकर महास्कंध पर्यंत वर्गणाओं की क्रमिक वृद्धि)
* वनस्पति स्कंध निर्देश-देखें वनस्पति - 3.7।
5. स्कंधों की उत्पत्ति का कारण
तत्त्वार्थसूत्र/5/26 भेदसंघातेभ्य उत्पद्यंते।26।
सर्वार्थसिद्धि/5/26/298/5 भेदात्संघाताद्भेदसंघाताभ्यां च उत्पद्यंत इति। तद्यथा-द्वयो: परमाण्वो: संघाताद् द्विप्रदेश: स्कंध उत्पद्यते। द्विप्रदेशस्याणोश्च त्रयाणां वा अणूनां संघातात्त्रिप्रदेश:। द्वयोर्द्विप्रदेशयोस्त्रिप्रदेशस्याणोश्च चतुर्णां वा अणूनां संघाताच्चतु:प्रदेश:। एवं संख्येयासंख्येयानंतानामनंतानंतानां च संघातात्तावत्प्रदेश:। एषामेव भेदात्तावद् द्विप्रदेशपर्यंता: स्कंधा उत्पद्यंते। एवं भेदसंघाताभ्यामेकसमयिकाभ्यां द्विप्रदेशादय: स्कंधा उत्पद्यंते। अन्यतो भेदेनान्यस्य संघातेनेति। एवं स्कंधानामुत्पत्तिहेतुरुक्त:। = भेद से, संघात से तथा भेद और संघात दोनों से स्कंध उत्पन्न होते हैं। प्रश्न-भेद और संघात दो हैं। इसलिए सूत्र में द्विवचन होना चाहिए ? उत्तर-दो परमाणुओं के संघात से दो प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। दो प्रदेश वाले स्कंध और अणु के संघात से या तीन अणुओं के संघात से तीन प्रदेश वाले स्कंध और अणु के संघात से या चार अणुओं के स्कंधों के संघात से, चार प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनंत और अनंतानंत अणुओं के संघात से उतने-उतने प्रदेशों वाले स्कंध उत्पन्न होते हैं। तथा इन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कंधों के भेद से दो प्रदेश वाले स्कंध तक स्कंध उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार एक समय में होने वाले भेद और संघात इन दोनों से दो प्रदेश वाले आदि स्कंध उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कंध से भेद होता है और अन्य का संघात, तब एक साथ भेद और संघात इन दोनों से भी स्कंध की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्कंधों की उत्पत्ति का कारण कहा। ( राजवार्तिक/5/26/2-5/493/26 )।
देखें वर्गणा /2/3,8,9 (ऊपर की वर्गणाओं के भेद से तथा नीचे की वर्गणाओं के संघात से उत्पन्न होने का स्पष्टीकरण)
6. स्कंधों में चाक्षुष अचाक्षुष विभाग व उनकी उत्पत्ति
तत्त्वार्थसूत्र/5/28 भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:/28।
सर्वार्थसिद्धि/5/28/299/7 अनंतानंतपरमाणुसमुदयनिष्पाद्योऽपि कश्चिच्चाक्षुष: कश्चिदचाक्षुष:। तत्र योऽचाक्षुष: स कथं चाक्षुषो भवतीति चेदुच्यते-भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:। न भेदादिति। कात्रोपपत्तिरिति चेत् । ब्रूम:; सूक्ष्मपरिणामस्य स्कंधस्य भेदे सौक्ष्म्यापरित्यागादचाक्षुषत्वमेव। सौक्ष्म्यपरिणत: पुनरपर: सत्यपि तद्भेदेऽंयसंघातांतरसंयोगात्सौक्ष्म्यपरिणामोपरमे स्थौल्योत्पत्तौ चाक्षुषो भवति। = भेद और संघात से चाक्षुष स्कंध उत्पन्न होता है।28। अनंतानंत परमाणुओं के समुदाय से निष्पन्न होकर भी कोई स्कंध चाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष। उसमें जो अचाक्षुष स्कंध है वह चाक्षुष कैसे होता है इसी बात के बतलाने के लिए यह कहा है कि भेद और संघात से चाक्षुष स्कंध होता है, केवल भेद से नहीं, यह सूत्र का अभिप्राय है। प्रश्न-इसका क्या कारण है? उत्तर-आगे उसी कारण को कहते हैं-सूक्ष्म परिणामवाले स्कंध का भेद होने पर वह अपनी सूक्ष्मता को नहीं छोड़ता इसलिए उसमें अचाक्षुषपना ही रहता है। एक दूसरा सूक्ष्म परिणाम वाला स्कंध है जिसका यद्यपि भेद हुआ तथापि उसका दूसरे संघात से संयोग हो गया अत: सूक्ष्मपना निकलकर उसमें स्थूलपने की उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाक्षुष हो जाता है। ( राजवार्तिक/5/28/-/594/15 )
* परमाणुओं की हीनाधिकता से स्कंध मोटा व छोटा नहीं होता।-सूक्ष्म/3/4।
* स्कंध के प्रदेशों में गुणों संबंधी।-देखें पुद्गल ।
7. शब्द गंध आदि भेद स्कंध के हैं परमाणु के नहीं
राजवार्तिक/5/24/24/490/25 शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवंति सौक्ष्म्यवर्ज्या इत्येतस्य विशेषस्य प्रतिपत्त्यर्थं पृथग्योगकरणम् । = शब्द आदि (अर्थात् शब्द, बंध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम और छाया व आतप उद्योत ये सब) व्यक्त रूप से स्कंधों के ही होते हैं सौक्ष्म्य को छोड़कर, इस विशेषता को बताने के लिए पृथक् सूत्र बनाया है।
8. कर्म स्कंध सूक्ष्म हैं स्थूल नहीं
सर्वार्थसिद्धि/8/24/402/11 कर्मग्रहण...योग्या: पुद्गला: सूक्ष्मा: न स्थूला: इति। = कर्म रूप से ग्रहण योग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं होते। ( राजवार्तिक/8/24/4/585/17 )
* एक जाति के स्कंध दूसरी जाति रूप परिणमन नहीं करते।-देखें वर्गणा /2/8।
* अनंतों स्कंधों का लोक में अवस्थान व अवगाह।-देखें आकाश - 3.5।
पुद्गल बंध निर्देश
1. पुद्गल बंध का लक्षण
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 द्रव्यबंध: कर्मनोकर्मपरिणत: पुद्गलद्रव्यविषय:। = नोकर्म रूप से परिणत पुद्गलकर्म रूप द्रव्यबंध है।
धवला 13/5,5,82/347/9,12 दो तिण्णि आदि पोग्गलाणं जो समवाओ सो पोग्गलबंधो णाम।9। जेण णिद्धल्हुक्खादिगुणेण पोग्गलाणं बंधो होदि सो पोग्गलबंधो णाम। = दो, तीन आदि पुद्गलों का जो समवाय संबंध होता है वह पुद्गल बंध कहलाता है।...जिस स्निग्ध और रूक्ष आदि गुण के कारण पुद्गलों का बंध होता है उसकी पुद्गलबंध संज्ञा है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणाम: स केवलपुद्गलबंध:। = कर्मों का जो स्निग्धतारूक्षता रूप स्पर्शविशेषों के साथ एकत्व परिणाम है सो केवल पुद्गलबंध है।
द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/12 मृत्पिंडादिरूपेण योऽसौ बहुधाबंध: स केवल: पुद्गलबंध:। = मिट्टी आदि के पिंड रूप जो बहुत प्रकार का बंध है वह तो केवल पुद्गलबंध है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/47 द्रव्यं पौद्गलिक: पिंडो बंधस्तच्छक्तिरेव वा। = कर्मरूप पौद्गलिक पिंड का अथवा कर्म की शक्ति का ही नाम द्रव्य बंध है।47।
2. बंध का कारण स्निग्ध रूक्षता
तत्त्वार्थसूत्र/5/33 स्निग्धरूक्षत्वाद् बंध:।33।
सर्वार्थसिद्धि/5/33/304/8 द्वयो: स्निग्धरूक्षयोरण्वो: परस्परश्लेषलक्षणे बंधे सति द्वयणुकस्कंधो भवति। एवं संख्येयासंख्येयानंतप्रदेश: स्कंधो योज्य:। = स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बंध होता है।33। स्निग्ध और रूक्षगुणवाले दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेष लक्षण बंध होने पर द्वयणुक नाम का स्कंध बनता है। इसी प्रकार संख्यात असंख्यात और अनंत प्रदेश वाले स्कंध उत्पन्न होते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/609/1066 )।
3. स्निग्ध व रूक्ष में परस्पर बंध होने संबंधी नियम
षट्खंडागम 14/5,6/ सू.34,36/31,33 णिद्धणिद्वा ण बज्झंति ल्हुक्खल्हुक्खा य पोग्गला। णिद्धल्हुक्खा य बज्झंति रूवारूवी य पोग्गला।34। णिद्वस्स णिद्धेण दुराहिएण ल्हुक्खस्स ल्हुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स ल्हुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा।36। = स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध पुद्गलों के साथ नहीं बँधते। रूक्ष पुद्गल रूक्ष पुद्गलों के साथ नहीं बँधते किंतु सदृश और विसदृश ऐसे स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल परस्पर बँधते हैं।34। स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बंध होता है। तथा स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुण के सिवा विषम अथवा सम गुण के रहने पर बंध होता है।36। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/166 में उद्धृत); ( गोम्मटसार जीवकांड/610,618/1068 )
प्रवचनसार/166 णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणगुत्तो।166। = स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध परमाणु के साथ बंध को अनुभव करता है अथवा रूक्षरूप से तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवाले के साथ युक्त होता हुआ बँधता है।
तत्त्वार्थसूत्र/5/34,36 न जघन्यगुणानाम् ।34। गुणसाम्ये सदृशानाम् ।35। द्वयधिकादिगुणानां तु।36। = जघन्य गुणवाले पुद्गलों का बंध नहीं होता।34। समान शक्त्यंश होने पर तुल्य जाति वालों का बंध नहीं होता।35। दो अधिक आदि शक्त्यंशवालों का तो बंध होता है।36।
नयचक्र बृहद्/28 णिद्धादो णिद्धेण तहेव रुक्खेण सरिस विसमं वा। बज्झदि दोगुणअहिओ परमाणु जहण्णगुणरहिओ।28। = जघन्य गुण से रहित तथा दो गुण अधिक होने पर स्निग्ध का स्निग्ध के साथ, रूक्ष का रूक्ष के साथ, स्निग्ध का रूक्ष के साथ, और रूक्ष का स्निग्ध के साथ परमाणुओं का बंध होता है।
* स्कंधों में परमाणुओं का एक देश व सर्वदेश समागम-देखें परमाणु - 3।
4. पुद्गल बंध संबंधी नियम में दृष्टि भेद
संकेत -
- सदृश=स्निग्ध+स्निग्ध या रूक्ष+रूक्ष।
- विसदृश=स्निग्ध+रूक्ष या रूक्ष+ स्निग्ध।
दृष्टि नं.1. ( षट्खंडागम 14/ मू.व टी./5,6/सू.32-36/30-32)।
दृष्टि नं.2. ( सर्वार्थसिद्धि/5/34-36/305-307 ); ( राजवार्तिक/5/34-36/498-499 ); ( गोम्मटसार जीवकांड व जी.प्र./612-618/1068)।
नं. | गुणांश | दृष्टि नं.1 | दृष्टि नं.2 | ||
सदृश | विसदृश | सदृश | विसदृश | ||
1 | समान गुणधारी | नहीं | है | नहीं | नहीं |
2 | असमान गुणधारी | हाँ | है | है | है |
3 | जघन्य+जघन्य | नहीं | नहीं | नहीं | नहीं |
4 | जघन्य+जघन्येतर | नहीं | नहीं | नहीं | नहीं |
5 | जघन्येतर+समजघन्येतर | नहीं | है | नहीं | नहीं |
6 | जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर | नहीं | है | नहीं | नहीं |
7 | जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर | है | है | है | है |
8 | जघन्येतर+व्यापि अधिक जघन्येतर | नहीं | है | नहीं | नहीं |
5. बद्ध परमाणुओं के गुणों में परिणमन
तत्त्वार्थसूत्र/5/37 बंधेऽधिकौ पारिणामिकौ च।37।
सर्वार्थसिद्धि/5/37/307/11 यथा क्लिन्नो गुडोऽधिकमधुररस: परीतानां रेण्वादीनां स्वगुणापादनात् पारिणामिक:। तथाऽन्योऽप्यधिकगुण: अल्पीयस: पारिणामिक इति कृत्वा द्विगुणादिस्निग्धरूक्षस्य चतुर्गुणादिस्निग्धरूक्ष: पारिणामिको भवति। तत: पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तार्तीयिकमवस्थांतरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते। इतरथा हि शुक्लकृष्णतंतुवत् संयोगे सत्यप्यपारिणामिकत्वात्सर्वं विविक्तरूपेणैवावतिष्ठेत् । = बंध के समय दो अधिक गुण वाला परिणमन कराने वाला होता है।37। जैसे अधिक मीठे रसवाला गीला गुड़ उस पर पड़ी हुई धूलि को अपने गुणरूप से परिणमाने के कारण पारिणामिक होता है उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी अल्पगुण वाले का पारिणामिक होता है। इस व्यवस्था के अनुसार दो शक्त्यंश वाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु का चार शक्त्यंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है। इससे पूर्व अवस्थाओं का त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। अत: उनमें एकरूपता आ जाती है अन्यथा सफेद और काले तंतु के समान संयोग होने पर भी पारिणामिक न होने से सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा।
गोम्मटसार जीवकांड/619/1074 णिद्धीदरगुणा अहिया हीणं परिणामयंति बंधम्मि। संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसाण खंधाण। = संख्यात असंख्यात अनंतप्रदेश वाले स्कंधों में स्निग्ध या रूक्ष के अधिक गुण वाले परमाणु या स्कंध अपने से हीन गुण वाले परमाणु या स्कंधों को अपने रूप परिणमाते हैं। (जैसे एक हज़ार स्निग्ध या रूक्ष गुण के अंशों से युक्त परमाणु या स्कंध को एक हजार दो अंश वाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कंध परणमाता है।)
* गुणों का परिणमन स्वजाति की सीमा का लंघन नहीं कर सकता-देखें गुण - 2.7।
पुराणकोष से
(1) अग्रायणीयपूर्व के चौथे प्राभृत का चौबीसवाँ योगद्वार । हरिवंशपुराण 10. 86 देखें अग्रायणीयपूर्व
(2) परमाणुओं के स्थान से उत्पन्न पुद्गल का भेद । यह स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं का समुदाय है । इसके छ: भेद हैं― सूक्ष्म-सूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्थूलसूक्ष्म, स्थूल और स्थूल-स्थूल । महापुराण 24.196, 249, हरिवंशपुराण 58.55, वीरवर्द्धमान चरित्र 16. 117 देखें पुद्गल