विनमि: Difference between revisions
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<p class="HindiText">पद्मपुराण/3/306-308 नमि और विनमि ये दो भगवान् आदिनाथ के साले के पुत्र थे। ध्यानस्थ अवस्था में भगवान् से भक्ति पूर्वक राज्य की याचना करने पर धरणेंद्र ने प्रगट होकर इन्हें विजयार्ध की श्रेणियों का राज्य दे दिया और साथ ही कुछ विद्याएँ भी प्रदान की। इन्हीं से ही विद्याधर वंश की उत्पत्ति हुई।देखें [[ नमि#1 | नमि - 1]]।</p> | |||
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<div class="HindiText"> <p> तीर्थंकर वृषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र और वृषभदेव के अठहत्तरवें गणधर । ये और इनके ताऊ कच्छ का पुत्र नमि दोनों वृषभदेव के उस समय निकट गये जब वृषभदेव छ: माह के प्रतिमायोग में विराजमान थे । ये दोनों वृषभदेव के साथ दीक्षित हो गये थे किंतु पद से क्षत होकर वृषभदेव से बार-बार भोग-सामग्री की याचना करते थे । इन्हें उचित-अनुचित का कुछ भी ज्ञान न था । दोनों जल, पुष्प तथा अर्घ से वृषभदेव की उपासना करते थे । इससे धरणेंद्र का आसन कंपायमान हुआ । वह अवधिज्ञान से नमि और विनमि के वृत्तांत को जान गया । अत: वह वृषभदेव के पास आया । धरणेंद्र ने इसे विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का राज्य देकर संतुष्ट किया । यह भी वहाँ नभस्तिलक नगर में रहने लगा था । धरणेंद्र ने इसे गांधरपदा और पन्नगपदा दो विद्याएँ भी दी थीं । धरणेंद्र की देवी अदिति ने मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गांधार, भूमितुंड, मूलवीर्यक और शंकुक ये आठ तथा दूसरी दिति देवी ने― मातंग, पांडुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल और वृक्षमूल ये आठ विद्या-निकाय दिये थे । इसने और इसके भाई नमि ने अनेक औषधियां तथा विद्याएं विद्याधरों को दी थीं जिन्हें प्राप्त कर विद्याधर विद्यानिकायों के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे । वे गौरी विद्या से गौरिक, मनु से मनु, गांधारी से गांधार, मानवी से मानव, कौशिकी से कौशिक, भूमितुंडक से भूमितुंडक, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकु से शंकुक, पांडुकी से पांडुकेय, कालक से काल, श्वपाक से स्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालयगण, पांशुमूल से पांशुमूलिक और वृक्षमूल से वार्क्षमूल कहे जाने लगे थे । इसके संजय, अरिंजय, शत्रुन्जय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक प्रभंजन, | <div class="HindiText"> <p> तीर्थंकर वृषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र और वृषभदेव के अठहत्तरवें गणधर । ये और इनके ताऊ कच्छ का पुत्र नमि दोनों वृषभदेव के उस समय निकट गये जब वृषभदेव छ: माह के प्रतिमायोग में विराजमान थे । ये दोनों वृषभदेव के साथ दीक्षित हो गये थे किंतु पद से क्षत होकर वृषभदेव से बार-बार भोग-सामग्री की याचना करते थे । इन्हें उचित-अनुचित का कुछ भी ज्ञान न था । दोनों जल, पुष्प तथा अर्घ से वृषभदेव की उपासना करते थे । इससे धरणेंद्र का आसन कंपायमान हुआ । वह अवधिज्ञान से नमि और विनमि के वृत्तांत को जान गया । अत: वह वृषभदेव के पास आया । धरणेंद्र ने इसे विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का राज्य देकर संतुष्ट किया । यह भी वहाँ नभस्तिलक नगर में रहने लगा था । धरणेंद्र ने इसे गांधरपदा और पन्नगपदा दो विद्याएँ भी दी थीं । धरणेंद्र की देवी अदिति ने मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गांधार, भूमितुंड, मूलवीर्यक और शंकुक ये आठ तथा दूसरी दिति देवी ने― मातंग, पांडुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल और वृक्षमूल ये आठ विद्या-निकाय दिये थे । इसने और इसके भाई नमि ने अनेक औषधियां तथा विद्याएं विद्याधरों को दी थीं जिन्हें प्राप्त कर विद्याधर विद्यानिकायों के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे । वे गौरी विद्या से गौरिक, मनु से मनु, गांधारी से गांधार, मानवी से मानव, कौशिकी से कौशिक, भूमितुंडक से भूमितुंडक, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकु से शंकुक, पांडुकी से पांडुकेय, कालक से काल, श्वपाक से स्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालयगण, पांशुमूल से पांशुमूलिक और वृक्षमूल से वार्क्षमूल कहे जाने लगे थे । इसके संजय, अरिंजय, शत्रुन्जय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक प्रभंजन, चूड़ामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वंजय, वज्रबाहु, महाबाहु, अरिंदम आदि अनेक पुत्र और भद्रा और सुभद्रा नाम की दो कन्याएँ थी । इनमें सुभद्रा चक्रवर्ती भरतेश के चौदह रत्नों में एक स्त्रीरत्न थी । अंत में यह पुत्र को राज्य सौंपकर संसार से विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली थी । इसके मातंग पुत्र से हुए अनेक पुत्र-पौत्र थे । वे भी अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष गये । <span class="GRef"> महापुराण 18-91-97, 19.182-185, 43. 65, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 3. 306-309, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 9.132-133, 12.68, 22.57-60, 76-83, 103-110 </span></p> | ||
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Revision as of 19:43, 31 January 2023
सिद्धांतकोष से
पद्मपुराण/3/306-308 नमि और विनमि ये दो भगवान् आदिनाथ के साले के पुत्र थे। ध्यानस्थ अवस्था में भगवान् से भक्ति पूर्वक राज्य की याचना करने पर धरणेंद्र ने प्रगट होकर इन्हें विजयार्ध की श्रेणियों का राज्य दे दिया और साथ ही कुछ विद्याएँ भी प्रदान की। इन्हीं से ही विद्याधर वंश की उत्पत्ति हुई।देखें नमि - 1।
पुराणकोष से
तीर्थंकर वृषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र और वृषभदेव के अठहत्तरवें गणधर । ये और इनके ताऊ कच्छ का पुत्र नमि दोनों वृषभदेव के उस समय निकट गये जब वृषभदेव छ: माह के प्रतिमायोग में विराजमान थे । ये दोनों वृषभदेव के साथ दीक्षित हो गये थे किंतु पद से क्षत होकर वृषभदेव से बार-बार भोग-सामग्री की याचना करते थे । इन्हें उचित-अनुचित का कुछ भी ज्ञान न था । दोनों जल, पुष्प तथा अर्घ से वृषभदेव की उपासना करते थे । इससे धरणेंद्र का आसन कंपायमान हुआ । वह अवधिज्ञान से नमि और विनमि के वृत्तांत को जान गया । अत: वह वृषभदेव के पास आया । धरणेंद्र ने इसे विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का राज्य देकर संतुष्ट किया । यह भी वहाँ नभस्तिलक नगर में रहने लगा था । धरणेंद्र ने इसे गांधरपदा और पन्नगपदा दो विद्याएँ भी दी थीं । धरणेंद्र की देवी अदिति ने मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गांधार, भूमितुंड, मूलवीर्यक और शंकुक ये आठ तथा दूसरी दिति देवी ने― मातंग, पांडुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल और वृक्षमूल ये आठ विद्या-निकाय दिये थे । इसने और इसके भाई नमि ने अनेक औषधियां तथा विद्याएं विद्याधरों को दी थीं जिन्हें प्राप्त कर विद्याधर विद्यानिकायों के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे । वे गौरी विद्या से गौरिक, मनु से मनु, गांधारी से गांधार, मानवी से मानव, कौशिकी से कौशिक, भूमितुंडक से भूमितुंडक, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकु से शंकुक, पांडुकी से पांडुकेय, कालक से काल, श्वपाक से स्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालयगण, पांशुमूल से पांशुमूलिक और वृक्षमूल से वार्क्षमूल कहे जाने लगे थे । इसके संजय, अरिंजय, शत्रुन्जय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक प्रभंजन, चूड़ामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वंजय, वज्रबाहु, महाबाहु, अरिंदम आदि अनेक पुत्र और भद्रा और सुभद्रा नाम की दो कन्याएँ थी । इनमें सुभद्रा चक्रवर्ती भरतेश के चौदह रत्नों में एक स्त्रीरत्न थी । अंत में यह पुत्र को राज्य सौंपकर संसार से विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली थी । इसके मातंग पुत्र से हुए अनेक पुत्र-पौत्र थे । वे भी अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष गये । महापुराण 18-91-97, 19.182-185, 43. 65, पद्मपुराण 3. 306-309, हरिवंशपुराण 9.132-133, 12.68, 22.57-60, 76-83, 103-110