ज्योतिष लोक: Difference between revisions
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<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/7/ </span>गा. चंद्र के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर राहु विमान के ध्वज दंड होते हैं।201। दिन और पर्व के भेद से राहुओं के पुरतलों के गमन दो प्रकार होते हैं। इनमें से दिन राहु की गति चंद्र सदृश होती है।205। एक वीथी को लाँघकर दिन राहु और चंद्रबिंब जंबूद्वीप की आग्नेय और वायव्य दिशा से तदनंतर वीथी में आते हैं।207। राहु प्रतिदिन एक-एक पथ में चंद्रमंडल के सोलह भागों में से एक-एक कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रम से पंद्रह कला पर्यंत आच्छादित करता है।208,211। इस प्रकार अंत में जिस मार्ग में चंद्र की केवल एक कला दिखाई देती है वह अमावस्या दिवस होता है।212। चांद्र दिवस का प्रमाण 31[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0081.gif ]] मुहूर्त है।213। प्रतिपदा के दिन से वह राहु एक-एक वीथी में गमन विशेष से चंद्रमा की एक-एक कला को छोड़ता है।214। यहाँ तक कि मनुष्यलोक में उनमें से जिस मार्ग में चंद्रबिंब परिपूर्ण दिखता है वह पूर्णिमा नामक दिवस होता है।206। अथवा चंद्रबिंब स्वभाव से ही 15 दिनों तक कृष्ण कांति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कांति स्वरूप परिणमता है।215। पर्वराहु नियम से गतिविशेषों के कारण छह मासों में पूर्णिमा के अंत में पृथक्-पृथक् चंद्रबिंबों को आच्छादित करते हैं। (इससे चंद्र ग्रहण होता है)।216।<br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/7/ </span>गा. चंद्र के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर राहु विमान के ध्वज दंड होते हैं।201। दिन और पर्व के भेद से राहुओं के पुरतलों के गमन दो प्रकार होते हैं। इनमें से दिन राहु की गति चंद्र सदृश होती है।205। एक वीथी को लाँघकर दिन राहु और चंद्रबिंब जंबूद्वीप की आग्नेय और वायव्य दिशा से तदनंतर वीथी में आते हैं।207। राहु प्रतिदिन एक-एक पथ में चंद्रमंडल के सोलह भागों में से एक-एक कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रम से पंद्रह कला पर्यंत आच्छादित करता है।208,211। इस प्रकार अंत में जिस मार्ग में चंद्र की केवल एक कला दिखाई देती है वह अमावस्या दिवस होता है।212। चांद्र दिवस का प्रमाण 31[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0081.gif ]] मुहूर्त है।213। प्रतिपदा के दिन से वह राहु एक-एक वीथी में गमन विशेष से चंद्रमा की एक-एक कला को छोड़ता है।214। यहाँ तक कि मनुष्यलोक में उनमें से जिस मार्ग में चंद्रबिंब परिपूर्ण दिखता है वह पूर्णिमा नामक दिवस होता है।206। अथवा चंद्रबिंब स्वभाव से ही 15 दिनों तक कृष्ण कांति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कांति स्वरूप परिणमता है।215। पर्वराहु नियम से गतिविशेषों के कारण छह मासों में पूर्णिमा के अंत में पृथक्-पृथक् चंद्रबिंबों को आच्छादित करते हैं। (इससे चंद्र ग्रहण होता है)।216।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="8.2" id="8.2">[[# 8.2 | दिन व रात</strong | <li class="HindiText"><strong name="8.2" id="8.2">[[# 8.2 | दिन व रात]]</strong><br /> | ||
सूर्य के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट (केतु) विमानों के ध्वजदंड होते हैं।272। सूर्य के प्रथम पथ में स्थित रहने पर 18 मुहूर्त दिन और 12 मुहूर्त रात्रि होती है।277। तदंतर द्वितीयादि पथों में रहते हुए बराबर दिन में 2/61 की हानि और रात्रि में इतनी ही वृद्धि होती जाती है।280। यहाँ तक कि बाह्य मार्ग में स्थित रहते समय सब परिधियों में 18 मुहूर्त की रात्रि और 12 मुहूर्त का दिन होता है।278। सूर्य के बाह्य पथ से आदि पथ की ओर आते समय पूर्वोक्त दिन व रात्रि क्रमश: (पूर्वोक्त वृद्धि से) अधिक व हीन होते जाते हैं (453); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/379-381 </span>)।<br /> | सूर्य के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट (केतु) विमानों के ध्वजदंड होते हैं।272। सूर्य के प्रथम पथ में स्थित रहने पर 18 मुहूर्त दिन और 12 मुहूर्त रात्रि होती है।277। तदंतर द्वितीयादि पथों में रहते हुए बराबर दिन में 2/61 की हानि और रात्रि में इतनी ही वृद्धि होती जाती है।280। यहाँ तक कि बाह्य मार्ग में स्थित रहते समय सब परिधियों में 18 मुहूर्त की रात्रि और 12 मुहूर्त का दिन होता है।278। सूर्य के बाह्य पथ से आदि पथ की ओर आते समय पूर्वोक्त दिन व रात्रि क्रमश: (पूर्वोक्त वृद्धि से) अधिक व हीन होते जाते हैं (453); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/379-381 </span>)।<br /> | ||
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Revision as of 11:47, 9 December 2020
ज्योतिष देवों के विमान मध्य लोक के ही अंतर्गत चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर स्थित हैं। इनमें से कुछ चर हैं और कुछ अचर।
- ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/4/12/244/13 स एष ज्योतिर्गणगोचरो नभोऽवकाशो दशाधिकयोजनशतबहलस्तिर्यगसंख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो घनोदधिपर्यंत:। =ज्योतिषियों से व्याप्त नभ:प्रदेश 110 योजन मोटा और घनोदधि पर्यंत असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण लंबी है।
तिलोयपण्णत्ति/7/5-8 {1 राजू2×110}–अगम्यक्षेत्र 13032925015 योजन प्रमाण क्षेत्र में सर्व ज्योतिषी देव रहते हैं। लोक के अंत में पूर्वपश्चिम दिशा में घनोदधि वातवलय को छूते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा में नहीं छूते।
भावार्थ–1 राजू लंबे व चौड़े संपूर्ण मध्यलोक की चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर ज्योतिष लोक प्रारंभ होता है, जो उससे ऊपर 110 योजन तक आकाश में स्थित है। इस प्रकार चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर 1 राजू लंबा, 1 राजू चौड़ा 110 योजन मोटा आकाश क्षेत्र ज्योतिषी देवों के रहने व संचार करने का स्थान है, इससे ऊपर नीचे नहीं। तिसमें भी मध्य में मेरु के चारों तरफ 13032925015 योजन अगम्य क्षेत्र है, क्योंकि मेरु से 1121 योजन परे रहकर वे संचार करते हैं, उसके भीतर प्रवेश नहीं करते।
ज्योतिष लोक में चंद्र सूर्यादि का अवस्थान
चित्रा पृथिवी से ऊपर निम्न प्रकार क्रम से स्थित है। तिसमें भी दो दृष्टियाँ हैं–
दृष्टि नं.1=( सर्वार्थसिद्धि/4/12/244/8 ); ( तिलोयपण्णत्ति/7/36-108 ); ( हरिवंशपुराण/6/1-6 ); ( त्रिलोकसार/332-334 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/12/94 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/134/2 )।
दृष्टि नं.2=( राजवार्तिक/4/12/10/219/1 )।
तिलोयपण्णत्ति/7/ गा. |
कितने ऊपर जाकर |
कौन विमान |
प्रमाण |
कितने ऊपर जाकर |
कौन विमान |
|
दृष्टि नं.1– |
|
( राजवार्तिक/4/12/10/219/1 ) |
दृष्टि नं.2– |
|
108 |
790 यो. |
तारे |
790 यो. |
तारे |
|
65 |
800 यो. |
सूर्य |
800 यो. |
सूर्य |
|
36 |
880 यो. |
चंद्र |
880 यो. |
चंद्र |
|
104 |
884 यो. |
नक्षत्र |
883 यो. |
नक्षत्र |
|
83 |
888 यो. |
बुध |
886 यो. |
बुध |
|
89 |
891 यो. |
शुक्र |
889 यो. |
शुक्र |
|
93 |
894 यो. |
वृहस्पति |
892 यो. |
वृहस्पति |
|
96 |
897 यो. |
मंगल |
896 यो. |
मंगल |
|
99 |
900 यो. |
शनि |
900 यो. |
शनि |
|
101 |
888-900 यो. |
शेष ग्रह |
|
|
त्रिलोकसार/340 राहुअरिट्ठविमाणधयादुवरि पमाणअंगुलचउक्कं। गंतूण ससिविमाणा सूर विमाणा कमे होंति। =राहु और केतु के विमाननिका जो ध्वजादंड ताके ऊपर च्यार प्रमाणांगुल जाइ क्रमकरि चंद्र के विमान अर सूर्य के विमान हैं। राहु विमान के ऊपर चंद्रमा का और केतु विमान के ऊपर सूर्य का विमान है। ( तिलोयपण्णत्ति/7/201,202 )।
नोट–विशेषता के लिए देखें पृ - 348 वाला चित्र।
- ज्योतिष-विमानों में चर-अचर विभाग
सर्वार्थसिद्धि/4/13/245/8 अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोर्ज्योतिष्का नित्यगतयो नान्यत्रेति। =अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में (अर्थात् 347 पेज का चार्ट बाकी है
जंबूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक के मनुष्य लोक में पाँचों प्रकार के) ज्योतिषी देव निरंतर गमन करते रहते हैं अन्यत्र नहीं। ( तिलोयपण्णत्ति/7/116 ); ( राजवार्तिक/4/13/4/220/11 )।
तिलोयपण्णत्ति/7/611-612 सव्वे कुणंति मेरु पदाहिणं जंबूदीवजोदिगणा। अद्धपमाणा धादइसंडे तह पोक्खरद्धम्मि।611। मणुस्सुत्तरादो परदो संभूरमणो त्ति दीवउवहीणं। अचरसरूवठिदाणं जोइगणाणं परूवेमो।612। =जंबूद्वीप में सब ज्योतिषीदेवों के समूह मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं, तथा धातकी खंड और पुष्करार्ध द्वीप में आधे ज्योतिषीदेव मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं।611। मानुषोत्तर पर्वत से आगे, स्वयंभूरमण पर्यंत द्वीप समुद्रों में अचर स्वरूप से स्थित ज्योतिषी देवों के समूह का निरूपण करते हैं।612।
- ज्योतिष विमानों का प्रमाण
संकेत–सं.प्र.अं=संख्यात प्रतरांगुल; ज.श्रे.=जगश्रेणी।
प्रमाण–प्रत्येक विकल्प का प्रमाण उसके निचे दिया गया है। जहाँ केवल ब्रैकेट में नं.दिया है वहाँ तिलोयपण्णत्ति/7/ गा.समझना।
लोक के किस भाग में |
चंद्र |
सूर्य |
ग्रह |
नक्षत्र |
तारे |
||
अचल तारे |
कुल तारे कोड़ा कोड़ी |
||||||
प्रत्येक चंद्र का परिवार |
1 ज्योतिषी/1/5 |
1 ज्योतिषी/1/5 |
88 ज्योतिषी/1/5 |
28 ज्योतिषी/1/5 |
|
66975 (ज्योतिषी/1/5) |
|
नोट–(यहाँ से आगे केवल चंद्र व अचर ताराओं का प्रमाण दिया गया है, शेष विकल्प उपरोक्त उनपात के गुणाकार से प्राप्त हो जाते हैं।) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/12/87 ) |
|||||||
जंबू द्वी. |
2 (116) |
2 |
176 |
56 |
36 (495) |
133950 (*) |
|
लवण. |
4 (550) |
4 |
352 |
112 |
139(604) |
267900 |
|
धातकी |
12(550) |
12 |
1056 |
336 |
1010(604) |
803700 |
|
कालोद |
42(550) |
42 |
3696 |
1176 |
41120(604) |
2812950 |
|
पुष्करार्द्ध |
72(550) |
72 |
6336 |
2016 |
53230(604) |
4822200 |
|
|
( हरिवंशपुराण/6/26-27 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/12/106-107 ), ( त्रिलोकसार/346 ) |
( त्रिलोकसार 347 ) |
|
||||
मनुष्य लोक |
132 |
11616 |
3696 |
8840700 |
|||
( तिलोयपण्णत्ति/7/606-609 ) |
|||||||
सर्व लोक |
ज.श्रे.2 ÷ (सं.प्र.अं × 4389273600000000033248) |
चंद्र के बराबर (14) |
ज.श्रे.2÷(सं.प्र.अं×54865920000000000966656)×11 (ति.प्र.7/23) |
ज.श्रे.2÷(सं.प्र.अं×109731840000000001933312)×7 (ति.प्र.7/29-30) |
|
ज.श्रे.2÷(सं.प्र.अं×267900000000000472) × 498782958984375 (ति.प्र./7/33-35) |
|
*–ताराओं का विशेष अवस्थान देखें अगला शीर्षक |
(देखें ज्योतिषी - 2.9) जितने विमान आदि हैं उतने ही देव हैं।
नोट–विशेषता के लिए देखें पृष्ठ - 347 का चित्र।
- क्षेत्र व पर्वतों आदि पर ताराओं के प्रमाण का विभाग
त्रिलोकसार/371 णउदिसयभजिदतारा सगदुगुणसलासमब्भत्था। भरहादि विदेहोत्ति य तारा वस्से य वस्सधरे। =(जंबूद्वीप के कुल 133950 कोड़ाकोड़ी तारों का क्षेत्रों व कुलाचल पर्वतों की अपेक्षा विभाग करते हैं।) जंबूद्वीप के दो चंद्रों संबंधी तारे 133950 को.को. हैं। इनको 190 का भाग दीजिए जो प्रमाण होय ताको भरतादिक्षेत्र या कुलाचल की 1/2/4/8/16/32/64/32/16/8/4/2/1 शलाका करि गुणें उन उनके ताराओं का प्रमाण होता है। अर्थात् उपरोक्त सर्व ताराओं की राशि को उपरोक्त अनुपात (Ratio) से विभाजित करने पर क्रम से भरतादि क्षेत्रों व कुलाचलों के तारों का प्रमाण होता है।
- अचर ज्योतिष विमान
हरिवंशपुराण/6/31-34 सारार्थ–मानुषोत्तर पर्वत से 50,000 योजन आगे चलकर सूर्य, चंद्रमा आदि ज्योतिषी वलय के रूप में स्थित हैं। अर्थात् मानुषोत्तर से 50,000 यो. चलकर ज्योतिषियों का पहला वलय है। उसके आगे एक-एक लाख योजन चलकर ज्योतिषियों के वलय (अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत) है। प्रत्येक वलय में चार-चार सूर्य और चार-चार चंद्र अधिक हैं, एवं एक दूसरे की किरणें निरंतर परस्पर में मिली हुई हैं।31-34।
(अंतिम वलय स्वयंभूरमण समुद्र की वेदी से 50,000 योजन इधर ही रह जाता है। प्रत्येक द्वीप या समुद्र के अपने-अपने वलयों में प्रथम वलय से लेकर अंतिम वलय तक चंद्र व सूर्यों का प्रमाण उत्तरोत्तर चार चय करि अधिक होता गया है। इससे आगे अगले द्वीप या समुद्र का प्रथम वलय प्राप्त होता है। प्रत्येक द्वीप या सागर के प्रथम वलय में अपने से पूर्ववाले द्वीप या सागर के प्रथम वलय से दुगुने चंद्र और सूर्य होते हैं। यह क्रम अपर पुष्करार्ध के प्रथम वलय से स्वयंभूरमण सागर के अंतिम वलय तक ले जाना चाहिए) ( तिलोयपण्णत्ति/7/612-613 पद्य व गद्य। पृ.761-767); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/12/15-86 ); ( त्रिलोकसार/349 361 )।
द्वीप या सागर |
वलय |
प्रथम वलय में चंद्र |
पुष्करार्द्ध |
8 |
144 |
पुष्करोद |
32 |
288 |
वारुणीद्वी. |
64 |
576 |
वारुणी सा. |
128 |
1152 |
क्षीरवर द्वी. |
256 |
2304 |
क्षीरवर सा. |
512 |
4608 |
घृतवर द्वी. |
1024 |
9216 |
घृतवर सा. |
2048 |
18432 |
क्षौरवर द्वी. |
4096 |
36864 |
क्षौरवर सा. |
8192 |
73728 |
( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/12/21-40 ) |
||
नंदीश्वर द्वी. |
16384 |
147456 |
नंदीश्वर सा. |
32768 |
294912 |
स्वयंभूरमण सा. |
|
ज.श्रे.9÷28 लाख+27/4 ( तिलोयपण्णत्ति ) |
सब वलय |
ज.श्रे.÷14 लाख–23 ( तिलोयपण्णत्ति ) |
|
( तिलोयपण्णत्ति/7/612-613 गद्य) ( त्रिलोकसार/349-361 गद्य) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/12/18-32 ) |
- चर ज्योतिष विमानों का चार क्षेत्र―
टिप्पण–गमनशील बिंब मनुष्यक्षेत्र अर्थात् जंबूद्वीप, लवणोसमुद्र
धातकीखंड, कालोद समुद्र और पुष्करार्धद्वीप में ही है ( तत्त्वार्थसूत्र/4/13-15 ); ( सर्वार्थसिद्धि/4/13/245/11 ); ( हरिवंशपुराण/6/25 ); ( त्रिलोकसार/345 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/12/13 )। तिनमें पृथक्-पृथक् चंद्र आदिकों का प्रमाण पहले बताया गया है (देखें ज्योतिषी - 2.3)। ये सभी ज्योतिषी देव 1121 योजन छोड़कर मेरुओं की प्रदक्षिणा रूप से स्व-स्व मार्ग में गमन करते रहते हैं।
उनके गमन करने के मार्ग को चार क्षेत्र कहते हैं। अर्थात् आकाश में इतने भाग में ही ये गमन करते हैं इसके बाहर नहीं। यद्यपि चंद्रादि की संख्या आगे-आगे के द्वीपों में बढ़ती गयी है पर उनके चार क्षेत्र का विस्तार सर्वत्र एक ही है। दो-दो चंद्र व सूर्य का एक ही चारक्षेत्र है। अत: चंद्रों व सूर्यों को दो से भाग देने पर उस-उस द्वीप व सागर में उनके चार क्षेत्रों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। (देखो नीचे सारिणी)
चंद्रमा व सूर्य दोनों ही के चार क्षेत्र सर्वत्र 510File:JSKHtmlSample clip image006 0018.gif योजन चौड़े तथा उस-उस द्वीप व सागर की परिधि प्रमाण होते हैं। चंद्रमा के प्रत्येक चार क्षेत्र में 15 तथा सूर्य के प्रत्येक चार क्षेत्र में 184 गलियाँ कल्पित की गयी हैं। चंद्रमा की गलियों के बीच अंतराल सर्वत्र ही 35File:JSKHtmlSample clip image008 0018.gif योजन तथा सूर्य की गलियों के बीच 2 योजन होता है, क्योंकि चारक्षेत्र समान होते हुए गलियाँ हीनाधिक हैं। प्रत्येक गली का विस्तार अपने-अपने बिंब के विस्तार के जितना ही समझना चाहिए अर्थात् चंद्र पथ का विस्तार File:JSKHtmlSample clip image010 0013.gif × File:JSKHtmlSample clip image012 0024.gif योजन तथा सूर्य पथ का विस्तार File:JSKHtmlSample clip image006 0019.gif × File:JSKHtmlSample clip image014 0010.gif योजन चौड़ा व ऊँचा है। (देखें नीचे सारणी )
चंद्र व सूर्य प्रतिदिन आधी-आधी गली का अतिक्रमण करते हुए अगली-अगली गली को प्राप्त होते रहते हैं शेष आधी गली में वे नहीं जाते हैं, क्योंकि वह द्वितीय चंद्र व सूर्य से भ्रमित होता है ( तिलोयपण्णत्ति/7/209 )। यहाँ तक कि 15वें दिन चंद्रमा और 184वें दिन सूर्य अंतिम गली में पहुँच जाते हैं। वहाँ से पुन: भीतर की गलियों की ओर लौटते हैं, और क्रम से एक-एक दिन में एक-एक गली का अतिक्रमण करते हुए एक महीने में चंद्र और एक वर्ष में सूर्य अपने पहली गली को पुन: प्राप्त कर लेते हैं।
नोट–राहुकेतु के गमन के लिए (देखो ज्योतिषी/2/8)।
तिलोयपण्णत्ति/7/ गा./सारार्थ―जंबूद्वीप संबंधी सूर्य व चंद्रमा 180 योजन तो द्वीप विषै और 330File:JSKHtmlSample clip image006 0020.gif योजन लवण समुद्र विषै विचरते हैं, अर्थात् उनके 510File:JSKHtmlSample clip image006 0021.gif यो. प्रमाण चार क्षेत्र का इतना इतना भाग द्वीप व समुद्र की प्रणिधियों में पड़ता है। 118,218। ( त्रिलोकसार/375 )।
(सभी) द्वीप व समुद्रों में अपने-अपने चंद्रों में से आधे एक भाग में अर्थात् पूर्व दिशा में और आधे दूसरे भाग में अर्थात् पश्चिम दिशा में पंक्तिक्रम से संचार करते हैं।551। पश्चात् चंद्रबिंब अग्निदिशा से लांघकर वीथी के अर्धभाग में जाता है। द्वितीय चंद्र से भ्रमित होने के कारण शेष अर्ध भाग में नहीं जाता।209। (इसी प्रकार) अपने-अपने सूर्यों से आधे एक भाग में और दूसरे आधे दूसरे भाग में पंक्तिक्रम से संचार करते हैं।572।
अठासी ग्रहों का एक ही चार क्षेत्र है (अर्थात् प्रत्येक चंद्र संबंधी 88 ग्रहों का पूर्वोक्त ही चार क्षेत्र है।) जहाँ प्रत्येक वीथी में उनके योग्य वीथियाँ हैं और परिधियाँ हैं। (चंद्रमावाली वीथियों के बीच में ही यथायोग्य ग्रहों की विथियाँ है) वे ग्रह इन परिधियों में संचार करते हैं। इनका मेरु पर्वत से अंतराल तथा और भी जो पूर्व में कहा जा चुका है इसका उपदेश कालवश नष्ट हो चुका है।457-458।
चंद्र की 15 गलियों के मध्य उन 28 नक्षत्रों की 8 ही गलियाँ होती हैं। अभिजित आदि 9 (देखो नक्षत्र), स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी ये 12 नक्षत्र चंद्र के प्रथम मार्ग में संचार करते हैं। चंद्र के तृतीय पथ में पुनर्वसु और मघा, 7वें में रोहिणी और चित्रा, 6ठे में कृत्तिका और 8वें में विशाखा नक्षत्र संचार करता है। 10वें में अनुराधा, 11वें में ज्येष्ठ, और 15वें मार्ग में हस्त, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, मृगशिरा, आर्द्रा, पुष्य और आश्लेषा ये आठ नक्षत्र संचार करते हैं। (शेष 2,4,5,9,12,13,14 इन सात मार्गों में कोई नक्षत्र संचार नहीं करता)।459-462। स्वाति, भरणी, मूल, अभिजित और कृत्तिका ये पाँच नक्षत्र अपने-अपने मार्ग में क्रम से ऊर्ध्व, अध:, दक्षिण, उत्तर और मध्य में संचार करते हैं।491। तथा ( त्रिलोकसार/344 )। ये नक्षत्र मंदर पर्वत के प्रदक्षिणा क्रम से अपने-अपने मार्गों में नित्य ही संचार करते हैं।492। नक्षत्र व तारे एक ही पथ विषै गमन करते हैं, अन्य अन्य वीथियों को प्राप्त नहीं होते हैं ( त्रिलोकसार/345 )।
नक्षत्रों के गमन से सब ताराओं का गमन अधिक जानना चाहिए। इसके नामादिक का उपदेश इस समय नष्ट हो गया।496।
लवणोद आदि के ज्योतिषी मंडल की कुछ विशेषताएँ
जंबूद्वीप में सब ज्योतिषी देवों के समूह, मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं तथा धातकीखंड और पुष्करार्धद्वीप में आधे ज्योतिषी मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं (आधे नहीं करते)।611। लवण समुद्र आदि चार में जो सूर्य व चंद्र हैं उनकी किरणें अपने अपने क्षेत्रों में ही जाती हैं अन्य क्षेत्र में कदापि नहीं जातीं।289।
(उपरोक्त कुल कथन त्रिलोकसार/374-376 में भी दिया है)।
नोट―निम्न सारणी में ब्रैकेट में रहे अंक तिलोयपण्णत्ति/7 की गाथाओं को सूचित करते हैं। प्रत्येक विकल्प का प्रमाण उसके नीचे ब्रकैट में दिया गया है।
संकेत–उप=चंद्र या सूर्य का अपना अपना उपरोक्त विकल्प।
द्वीप या सागर का नाम |
चंद्र या सूर्य निर्देश |
प्रत्येक द्वीपादि में |
प्रत्येक चारक्षेत्र में |
प्रत्येक गली का विस्तार |
मेरु से या द्वीप या सागर की दोनों जगतियों से चारक्षेत्रों का अंतराल |
अनंतर चारक्षेत्रों की गलियों में परस्पर अंतराल |
एक ही चारक्षेत्र की गलियों में परस्पर अंतराल |
|||
कुल चंद्र व सूर्य |
कुल चार क्षेत्र |
चंद्र व सूर्य |
विस्तार |
गलियाँ |
||||||
|
|
|
|
|
यो. |
|
यो. |
योजन |
योजन |
योजन |
जंबूद्वीप |
चंद्र |
2 |
1 |
2 |
15 |
File:JSKHtmlSample clip image010 0014.gif×File:JSKHtmlSample clip image012 0025.gif |
44820 |
― |
||
|
|
(116) |
116) |
(116) |
117) |
(119) |
(119) |
(121) |
― |
(125) |
|
सूर्य |
2 |
1 |
2 |
उप |
184 |
File:JSKHtmlSample clip image006 0023.gif×File:JSKHtmlSample clip image014 0011.gif |
उप |
― |
2 यो. |
|
|
(217) |
(217) |
(217) |
(217) |
(219) |
(219) |
(221) |
― |
(223) |
लवण सा. |
चंद्र |
4 |
2 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(550) |
(551) |
(552) |
(552) |
(553) |
(553) |
(554) |
(563) |
(570) |
|
सूर्य |
4 |
2 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(571) |
|
(573) |
(573) |
(574) |
(574) |
(577) |
(577) |
(593) |
धातकी |
चंद्र |
12 |
6 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(550) |
(568) |
(568) |
(570) |
(568) |
(553) |
(557) |
(564) |
(570) |
|
सूर्य |
12 |
6 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(571) |
(573) |
(573) |
(573) |
(574) |
(574) |
(579) |
(579) |
(593) |
कालोद |
चंद्र |
42 |
21 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(550) |
(568) |
(568) |
(570) |
(568) |
(553) |
(558) |
(565) |
(570) |
|
सूर्य |
42 |
21 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(571) |
(573) |
(573) |
(573) |
(574) |
(574) |
(581) |
(581) |
(593) |
पुष्करार्ध |
चंद्र |
72 |
36 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(550) |
(568) |
(568) |
(570) |
(568) |
(553) |
(559) |
(566) |
(570) |
|
सूर्य |
72 |
36 |
2 |
उप |
उप |
उप |
उप |
||
|
|
(571) |
(573) |
(573) |
(573) |
(574) |
(574) |
(583) |
(583) |
(593) |
- चर ज्योतिष विमानों की गति विधि
तिलोयपण्णत्ति/7/ गा.चंद्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा ये सब अपने अपने पथों की प्रणिधियों (परिधियों) में पंक्तिरूप से नभखंडों में संचार करते हैं।610। चंद्र व सूर्य बाहर निकलते हुए अर्थात् बाह्य मार्ग की ओर आते समय शीघ्र गतिवाले और अभ्यंतर मार्ग की ओर प्रवेश करते हुए मंद गति से संयुक्त होते हैं। इसीलिए वे समान काल में असमान परिधियों का भ्रमण करते हैं।179। चंद्र से सूर्य, सूर्य से ग्रह, ग्रहों से नक्षत्र और नक्षत्रों से भी तारा शीघ्र गमन करने वाले होते हैं।497। उन परिधियों में से प्रत्येक के 109800 योजन प्रमाण गगनखंड करने चाहिए।180,266। चंद्र एक मुहूर्त में 1768 गगनखंडों का अतिक्रमण करते हैं, इसलिए 62 मुहूर्त में संपूर्ण गगनखंडों का अतिक्रमण कर लेते हैं। अर्थात् दोनों चंद्रमा अभ्यंतर वीथी से बाह्य वीथी पर्यंत इतने काल में भ्रमण करता है।181-183। इस प्रकार सूर्य एक मुहूर्त में 1830 गगनखंडों का अतिक्रमण करता है। इसलिए दोनों सूर्य अभ्यंतर वीथी से बाह्य वीथी पर्यंत 60 मुहूर्त में भ्रमण करते हैं।267-268। द्वितीयादि वीथियों में चंद्र व सूर्य दोनों का गति वेग क्रम से बढ़ता चला जाता है, जिससे उन वीथियों की परिधि बढ़ जाने पर भी उनका अतिक्रमण काल वह का वह ही रहता है।185-199 तथा 270-271।
तिलोयपण्णत्ति/7/ गा. सब नक्षत्रों के गगनखंड 54900 (चंद्रमा से आधे) हैं। इससे दूने चंद्रमा के गगनखंड हैं और वही नक्षत्रों की सीमा का विस्तार है।504-505। सूर्य की अपेक्षा नक्षत्र 30 मुहूर्त में File:JSKHtmlSample clip image018 0008.gif मुहूर्त अधिक वेग वाला है।513। अभिजित नक्षत्र सूर्य के साथ 4 अहोरात्र व छ: मुहूर्त तथा चंद्रमा के साथ 9File:JSKHtmlSample clip image050 0000.gif मुहूर्त काल तक गमन करता है।516,521। शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा तथा ज्येष्ठा ये; नक्षत्र सूर्य के साथ 6 अहोरात्र 21 मुहूर्त तथा चंद्रमा के साथ 15 मुहूर्त तक गमन करते हैं।517,522। तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये छ: नक्षत्र सूर्य के साथ 20 अहोरात्र 3 मुहूर्त तथा चंद्रमा के साथ 45 मुहूर्त तक गमन करते हैं।518,524। शेष 15 नक्षत्र सूर्य के साथ 13 अहोरात्र 12 मुहूर्त और चंद्र के साथ 30 मुहूर्त तक गमन करते हैं।519,523। ( त्रिलोकसार/398-404 )।
लवण समुद्र, धातकीखंड, कालोद समुद्र, और पुष्करार्द्ध द्वीप में स्थित चंद्रों, सूर्यों व नक्षत्रों का सर्व वर्णन जंबूद्वीप के समान समझना।570,593,598।
चार्ट - अमावस्या, ग्रहण, दिन-रात्रि आदि का उत्पत्ति क्रम
- अमावस्या, पूर्णिमा व चंद्र ग्रहण―
तिलोयपण्णत्ति/7/ गा. चंद्र के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर राहु विमान के ध्वज दंड होते हैं।201। दिन और पर्व के भेद से राहुओं के पुरतलों के गमन दो प्रकार होते हैं। इनमें से दिन राहु की गति चंद्र सदृश होती है।205। एक वीथी को लाँघकर दिन राहु और चंद्रबिंब जंबूद्वीप की आग्नेय और वायव्य दिशा से तदनंतर वीथी में आते हैं।207। राहु प्रतिदिन एक-एक पथ में चंद्रमंडल के सोलह भागों में से एक-एक कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रम से पंद्रह कला पर्यंत आच्छादित करता है।208,211। इस प्रकार अंत में जिस मार्ग में चंद्र की केवल एक कला दिखाई देती है वह अमावस्या दिवस होता है।212। चांद्र दिवस का प्रमाण 31File:JSKHtmlSample clip image002 0081.gif मुहूर्त है।213। प्रतिपदा के दिन से वह राहु एक-एक वीथी में गमन विशेष से चंद्रमा की एक-एक कला को छोड़ता है।214। यहाँ तक कि मनुष्यलोक में उनमें से जिस मार्ग में चंद्रबिंब परिपूर्ण दिखता है वह पूर्णिमा नामक दिवस होता है।206। अथवा चंद्रबिंब स्वभाव से ही 15 दिनों तक कृष्ण कांति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कांति स्वरूप परिणमता है।215। पर्वराहु नियम से गतिविशेषों के कारण छह मासों में पूर्णिमा के अंत में पृथक्-पृथक् चंद्रबिंबों को आच्छादित करते हैं। (इससे चंद्र ग्रहण होता है)।216।
- दिन व रात
सूर्य के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट (केतु) विमानों के ध्वजदंड होते हैं।272। सूर्य के प्रथम पथ में स्थित रहने पर 18 मुहूर्त दिन और 12 मुहूर्त रात्रि होती है।277। तदंतर द्वितीयादि पथों में रहते हुए बराबर दिन में 2/61 की हानि और रात्रि में इतनी ही वृद्धि होती जाती है।280। यहाँ तक कि बाह्य मार्ग में स्थित रहते समय सब परिधियों में 18 मुहूर्त की रात्रि और 12 मुहूर्त का दिन होता है।278। सूर्य के बाह्य पथ से आदि पथ की ओर आते समय पूर्वोक्त दिन व रात्रि क्रमश: (पूर्वोक्त वृद्धि से) अधिक व हीन होते जाते हैं (453); ( त्रिलोकसार/379-381 )।
- अयन व वर्ष
सूर्य, चंद्र और जो अपने-अपने क्षेत्र में संचार करने वाले ग्रह हैं, उनके अयन होते हैं। नक्षत्र समूह व ताराओं का इस प्रकार अयनों का नियम नहीं है।498। सूर्य के प्रत्येक अयन में 183 दिनरात्रियाँ और चंद्र के अयन में 13File:JSKHtmlSample clip image004 0042.gif दिन होते हैं।449। सब सूर्यों का दक्षिणायन आदि में और उत्तरायन अंत में होता है। चंद्रों के अयनों का क्रम इससे विपरीत है।500। अभिजित् आदि दै करि पुष्य पर्यंत जे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट नक्षत्र तिनके 183 दिन उत्तरायण के हो हैं। बहुरि इनतै अधिक 3 दिन एक अयन विषै गत दिवस हो है। ( त्रिलोकसार/407 )।
- तिथियों में हानि-वृद्धि व अधिक (लौंद) मास
त्रिलोकसार/ गा. एक मास विषै एक दिन की वृद्धि होइ, एक वर्ष विषै बारह दिन की वृद्धि होइ, अढाई वर्ष विषै एक मास अधिक होइ। पंचवर्षीय युग विषै दो मास अधिक हो है।140। आषाढ मास विषै पूर्णिमा के दिन अपराह्ण समय उत्तरायण की समाप्ति पर युगपूर्ण होता है।411।
- अमावस्या, पूर्णिमा व चंद्र ग्रहण―
- ज्योतिषी देवों के निवासों व विमानों का स्वरूप व संख्या
तिलोयपण्णत्ति/7/ गा. चंद्र विमानों (नगरों) में चार-चार गोपुर द्वार, कूट, वेदी व जिन भवन हैं।41-42। विमानों के कूटों पर चंद्रों के प्रासाद होते हैं।50। इन भवनों में उपपाद मंदिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीड़ाशाला, मंत्रशाला और सभा भवन हैं।52। प्रत्येक भवन में सात-आठ भूमियाँ (मंजिलें) होती हैं।56। चंद्र विमानों व प्रासादोंवत् सूर्य के विमान व प्रासाद हैं।70-74। इसी प्रकार ग्रहों के विमान व प्रासाद।86-87। नक्षत्रों के विमान व प्रासाद।106। तथा ताराओं के विमानों व प्रासादों का भी वर्णन जानना।113। राहु व केतु के नगरों आदि का वर्णन भी उपरोक्त प्रकार ही जानना।204,275।
चंद्रादिकों की निज-निज राशि का जो प्रमाण है, उतना ही अपने-अपने नगरों, कूटों और जिन भवनों का प्रमाण है।114।
- ज्योतिषी देवों के विमानों का विस्तार व रंग आदि―
( तिलोयपण्णत्ति/7/ गा.); ( त्रिलोकसार/337-339 )।
संकेत–यो.=योजन, को.=कोश।
नाम |
प्रमाण तिलोयपण्णत्ति/7/ गा.; |
आकार |
व्यास |
गहराई |
रंग |
चंद्र |
37-39 |
अर्धगोल |
मणिमय |
||
सूर्य |
66-68 |
अर्धगोल |
मणिमय |
||
बुध |
84-85 |
अर्धगोल |
1/2 को. |
1/4 को. |
स्वर्ण |
शुक्र |
90-91 |
अर्धगोल |
1 को. |
1/2 को. |
रजत |
बृहस्पति |
94-95 |
अर्धगोल |
कुछ कम 1 को. |
1/2 को. |
स्फटिक |
मंगल |
97-98 |
अर्धगोल |
1/2 को. |
1/4 को. |
रक्त |
शनि |
99-101 |
अर्धगोल |
1/2 को. |
1/4 को. |
स्वर्ण |
नक्षत्र |
106 |
अर्धगोल |
1 को. |
1/2 को. |
सूर्यवत् |
तारे उत्कृष्ट |
109-110 |
अर्धगोल |
1 को. |
1/2 को. |
सूर्यवत् |
तारे मध्यम |
109-111 |
अर्धगोल |
File:JSKHtmlSample clip image014 0012.gif, File:JSKHtmlSample clip image016 0009.gif को. |
सूर्यवत् |
|
तारे जघन्य |
109-111 |
अर्धगोल |
1/4 को. |
1/8 को. |
सूर्यवत् |
राहु |
202-203 |
अर्धगोल |
1 यो. |
250 धनुष |
अंजन |
केतु |
273-274 |
अर्धगोल |
1 यो. |
250 धनुष |
अंजन |
नोट–चंद्र के आकार व विस्तार आदि का चित्र–देखें पृ - 348।