संगति: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
Sachinjain (talk | contribs) mNo edit summary |
||
Line 67: | Line 67: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: स]] | [[Category: स]] | ||
[[Category: चरणानुयोग]] |
Revision as of 11:41, 18 September 2022
मन पर संगति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक होने के कारण मोक्षमार्ग में भी साधुओं के लिए दुर्जनों, स्त्रियों व आर्यिकाओं आदि के संसर्ग का कड़ा निषेध किया गया है और गुणाधिक की संगति में रहने की अनुमति दी है।
- संगति का प्रभाव
- दुर्जन की संगति का निषेध
- लौकिकजनों की संगति का निषेध
- तरुणजनों की संगति का निषेध
- सत्संगति का माहात्म्य
- गुणाधिक का ही संग श्रेष्ठ है
- स्त्रियों आदि की संगति का निषेध
- आर्यिका की संगति का निषेध
- आर्यिका को साधु से सात हाथ दूर रहने का नियम
- कथंचित् एकांत में आर्यिका की संगति
- मित्रता संबंधी विचार
1. संगति का प्रभाव
भगवती आराधना/343 जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ तारिसो चेव। वासिज्जइ च्छुरिया सा रिया वि कणयादिसंगेण।343। = जैसे छुरी सुवर्णादिक की जिल्हई देने से सुवर्णादि स्वरूप की दीखती है वैसे मनुष्य भी जिसकी मित्रता करेगा वैसा ही अर्थात् दुष्ट के सहवास से दुष्ट और सज्जन के सहवास से सज्जन होगा।343।
2. दुर्जन की संगति का निषेध
भगवती आराधना/344-348 दुज्जणसंसग्गोए पजहदि णियगं गुणं खु सजणो वि। सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण।344। सुजणो वि होइ लहुओ दुज्जणसंमेलणाए दोसेण। माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसंसिट्ठा।345। दुज्जणसंसग्गीए संकिज्जदि संजदो वि दोसेण। पाणागारे दुद्धं पियंतओ बंभणो चेव।346। अदिसंजदो वि दुज्जणकएण दोसेण पाउणइ दोसं। जह घूगकए दोसे हंसो य हओ अपावो वि।348। = सज्जन मनुष्य भी दुर्जन के संग से अपना उज्ज्वल गुण छोड़ देता है। अग्नि के सहवास से ठंडा भी जल अपना ठंडापन छोड़कर क्या गरम नहीं हो जाता ? अर्थात् हो जाता है।344। दुर्जन के दोषों का संसर्ग करने से सज्जन भी नीच होता है, बहुत कीमत की पुष्पमाला भी प्रेत के (शव के) संसर्ग से कौड़ी की कीमत की होती है।346। दुर्जन के संसर्ग से दोष रहित भी मुनि लोकों के द्वारा दोषयुक्त गिना जाता है। मदिरागृह में जाकर कोई ब्राह्मण दूध पीवे तो भी मद्यपी है ऐसा लोक मानते हैं।349। महान् तपस्वी भी दुर्जनों के दोष से अनर्थ में पड़ते हैं अर्थात् दोष तो दुर्जन करता है परंतु फल सज्जन को भोगना पड़ता है। जैसे उल्लू के दोष से निष्पाप हंस पक्षी मारा गया।348।
3. लौकिकजनों की संगति का निषेध
प्रवचनसार/268 णिच्छिद सुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि। लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि। = जिसने सूत्रों के पदों को और अर्थों को निश्चित किया है, जिसने कषायों का शमन किया है और जो अधिक तपवान् है ऐसा जीव भी यदि लौकिकजनों के संसर्ग को नहीं छोड़ता तो वह संयत नहीं है।268।
रयणसार/ मू./42 लोइयजणसंगादो होइ मइमुहरकुडिलदुब्भावो। लोइयसग तहमा जोइ वि त्तिविहेण मुंचाओ।42। = लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाले वक्कड कुटिल परिणाम और दुष्ट भावों से अत्यंत क्रूर हो जाते हैं इसलिए लौकिकजनों की संगति को मन-वचन-काय से छोड़ देना चाहिए।
समाधिशतक मू./72 जनेभ्यो वाक् तत: स्पंदो मनसश्चित्तविभ्रमा:। भवंति तस्मात्संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ।72। = लोगों के संसर्ग से वचन की प्रवृत्ति होती है। उसने मन की व्यग्रता होती है, तथा चित्त की चंचलता से चित्त में नाना विकल्प होते हैं। इसलिए योगी लौकिकजनों के संसर्ग का त्याग करे।
भ.वि./वि./609/807/15 उपवेशनं अथवा गोचरप्रविष्टस्य गृहेषु निषद्या कस्तत्र दोष इति चेत् ब्रह्मचर्यस्य विनाश: स्त्रीभि: सह संवासात् ।...भोजनार्थिनां च विघ्न:। कथमिव यतिसमीपे भुजिक्रियां संपादयाम:।...किमर्थमयमत्र दाराणां मध्ये निषण्णो यतिर्भुंक्ते न यातीति। = आहार के लिए श्रावक के घर पर जाकर वहाँ बैठना यह भी अयोग्य है। स्त्रियों के साथ सहवास होने से ब्रह्मचर्य का विनाश होता है। जो भोजन करना चाहते हैं उनको विघ्न उपस्थित होता है, मुनि के सन्निधि में आहार लेने में उनको संकोच होता है... ये यति स्त्रियों के बीच में क्यों बैठते हैं, यहाँ से क्यों अपने स्थान पर जाते नहीं? घर के लोग ऐसा कहते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/655 सहासंयमिभिर्लोकै: संसर्गं भाषणं रतिम् । कुर्यादाचार्य इत्येके नासौ सूरिर्न चार्हत:।655। = आचार्य असंयमी पुरुषों के साथ संबंध, भाषण, प्रेम-व्यवहार, करे कोई ऐसा कहते हैं, परंतु वह आचार्य न तो आचार्य है और न अर्हत् का अनुयायी ही।655।
4. तरुणजनों की संगति का निषेध
भगवती आराधना/1072-1084 खोभेदि पत्थरो जह दहे पडंतो पसण्णमवि पंकं। खोभेइ तहा मोहं पसण्णमवि तरुणसंसग्गी।1072। संडय संसग्गीए जह पादुं सुंडओऽभिलसदि सुरं। विसए तह पयडीए संमोहो तरुणगोट्ठीए।1078। जादो खु चारुदत्तो गोट्ठीदोसेण तह विणीदो वि। गणियासत्तो मज्जासत्तो कुलदूसओ य तहा।1082। परिहरइ तरुणगोट्ठी विसं व वुढ्ढासले य आयदणे। जो वसइ कुणइ गुरुणिद्देसं सो णिच्छरइ बंभं।1084। = जैसे बड़ा पत्थर सरोवर में डालने से उसका निर्मल पानी उछलकर मलिन बनता है वैसा तरुण संसर्ग मन के अच्छे विचारों को मलिन बनाता है।1072। जैसे मद्यपी के सहवास से मद्य का प्राशन न करने वाले मनुष्य को भी उसके पान की अभिलाषा उत्पन्न होती है वैसे तरुणों के संग से वृद्ध मनुष्य भी विषयों की अभिलाषा करता है।1078। ज्ञानी भी चारुदत्त कुसंसर्ग से गणिका में आसक्त हुआ, तदनंतर उसने मद्य में आसक्ति कर अपने कुल को दूषित किया।1082। जो मनुष्य तरुणों का संग विष तुल्य समझकर छोड़ता है, जहाँ वृद्ध रहते हैं, ऐसे स्थान में रहता है, गुरु की आज्ञा का अनुसरण करता है वही मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन करता है।
* सल्लेखना में संगति का महत्त्व - देखें सल्लेखना - 5।
5. सत्संगति का माहात्म्य
भगवती आराधना/350-353 जहदि य णिययं दोसं पि दुज्जणो सुयणवइयरगुणेण। जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययच्छविं जहदि।350। कुसममगंधमवि जहा देवयसेसत्ति करिदे सीसे। तह सुयणमज्झवासी वि दुज्जणो पूइओ होइ।351। संविग्गाणं मज्झे अप्पियधम्मो वि कायरो वि णरो। उज्जमदि करणचरणे भावणभयमाणलज्जाहिं।352। संविग्गोवि य संविग्गदरो संवेगमज्झारम्मि। होइ जह गंधदुत्ती पयडिसुरभिदव्वसंजोए।353। = दुर्जन मनुष्य सज्जनों के सहवास से पूर्व दोषों को छोड़कर गुणों से युक्त होता है, जैसे - कौवा मेरु का आश्रय लेने से अपनी स्वाभाविक मलिन कांति को छोड़कर सुवर्ण कांति का आश्रय लेता है।350। निर्गंध भी पुष्प यह देवता की शेषा है - प्रसाद है ऐसा समझकर लोक अपने मस्तक पर धारण करते हैं वैसे सज्जनों में रहने वाला दुर्जन भी पूजा जाता है।351। जो मुनि संसारभीरु मनुष्यों के पास रहकर भी धर्मप्रिय नहीं होते हैं। तो भी भावना, भय, मान और लज्जा के वश पाप क्रियाओं को वे त्यागते हैं।352। जो प्रथम ही संसारभीरु हैं वे संसारभीरु के सहवास से अधिक संसार भीरु होते हैं। स्वभावत: गंधयुक्त कस्तूरी, चंदन वगैरह पदार्थों के सहवास से कृत्रिम गंध पूर्व से भी अधिक सुगंधयुक्त होता है।253।
भगवती आराधना/1073-1083 कलुसीकदंपि उदयं अच्छं जह होइ कदयजोएण। कलुसो वि तहा मोहो उवसमदि हु बुढ्ढसेवाए।1073। तरुणो वि बुढ्ढसीली होदि णरी बुढ्ढसंसिओ अचिरा। लज्जा संकामाणावमाण भयधम्म बुढ्ढीहि।1076। तरुणस्स वि वेरग्गं पण्हाविज्जदि णरस्स बुढ्ढेहिं। पण्हाविज्जइ पाडच्छीवि हु वच्छस्स फरुसेण।1083। =जैसे मलिन जल भी कतक फल के संयोग से स्वच्छ होता है वैसा कलुष मोह भी शील वृद्धों के संसर्ग से शांत होता है।1073। वृद्धों के संसर्ग से तरुण मनुष्य भी शीघ्र ही शील गुणों की वृद्धि होने से शीलवृद्ध बनता है। लज्जा से, भीति से, अभिमान से, अपमान के डर से और धर्म बुद्धि से तरुण मनुष्य भी वृद्ध बनता है।1076। जैसे बछड़े के स्पर्श से गौ के स्तनों में दुग्ध उत्पन्न होता है वैसे ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और तपोवृद्धों के सहवास से तरुण के मन में भी वैराग्य उत्पन्न होता है।1083।
कुरल/46/5 मनस: कर्मणश्चापि शुद्धेर्मूलं सुसंगति:। तद्विशुद्धौ यत: सत्यां संशुद्धिर्जायते तयो:।5। = मन की पवित्रता और कर्मों की पवित्रता आदमी की संगति की पवित्रता पर निर्भर है।5।
ज्ञानार्णव/15/19-39 वृद्धानुजोविनामेव स्युश्चारित्रादिसंपद:। भवत्यपि च निर्लेपं मन: क्रोधादिकश्मलम् ।19। मिथ्यात्वादि नगोत्तुंगशृंगभंगाय कल्पित:। विवेक: साधुसंगोत्थो वज्रादप्यजयो नृणाम् ।24। एकैव महतां सेवा स्याज्जेत्री भुवनत्रये। ययैव यमिनामुच्चैरंतर्ज्योतिविजृंभते।27। दृष्ट्वा श्रुत्वा यमी योगिपुण्यानुष्ठानमूर्जितम् । आक्रामति निरातंक: पदवीं तैरुपासिताम् ।28। = वृद्धों की सेवा करने वाले पुरुषों के ही चारित्र आदि संपदा होती हैं और क्रोधादि कषायों से मैला मन निर्लेप हो जाता है।19। सत्पुरुषों की संगति से उत्पन्न हुआ मनुष्यों का विवेक मिथ्यात्वादि पर्वतों के ऊँचे शिखरों को खंड-खंड करने के लिए वज्र से अधिक अजेय है।24। इस त्रिभुवन में सत्पुरुषों की सेवा ही एकमात्र जयनशील है। इससे मुनियों के अंतर में ज्ञानरूप ज्योति का प्रकाश विस्तृत होता है।27। संयमी मुनि महापुरुषों के महापवित्र आचरण के अनुष्ठान को देखकर या सुनकर उन योगीश्वरों की सेयी हुई पदवी को निरुपद्रव प्राप्त करता है।
अनगारधर्मामृत/4/100 कुशीलोऽपि सुशील: स्यात् सद्गोष्ठया मारिदत्तवत् । = कुशील भी सद्गोष्ठी से सुशील हो जाता है, मारिदत्त की भाँति।
6. गुणाधिक का ही संग श्रेष्ठ है
प्रवचनसार/270 तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं। अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं।270। =(लौकिक जन के संग से संयत भी असंयत होता है।) इसलिए यदि श्रमण दुख से परिमुक्त होना चाहता हो तो वह समान गुणों वाले श्रमण के अथवा अधिक गुणों वाले श्रमण के संग में निवास करो।270।
7. स्त्रियों आदि की संगति का निषेध
भगवती आराधना/334/554 सव्वत्थ इत्थिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अवीसत्थो। णित्थरदि बंभचेरं तव्विवरीदो ण णित्थरदि।334। = संपूर्ण स्त्री मात्र में मुनि को विश्वास रहित होना चाहिए, प्रमाद रहित होना चाहिए, तभी आजन्म ब्रह्मचर्य पालन कर सकेगा, अन्यथा ब्रह्मचर्य को नहीं निभा सकेगा।
भगवती आराधना/1092-1102 संसग्गीए पुरिसस्स अप्पसारस्स लद्धपसरस्स। अग्गिसमीवे लक्खेव मणो लहुमेव वियलाइ।1092। संसग्गीसम्मूढो मेहुणसहिदो मणो हु दुम्मेरो। पुव्वावरमगणंतो लंघेज्ज सुसीलपायारं।1093। मादं सुदं च भगिणीमेगंते अल्लियंतगस्स मणो। खुब्भइ णरस्स सहसा किं पुण सेसासु महिलासु।1095। जो महिलासंसग्गी विसंव दट्ठूण परिहरइ णिच्चं। णित्थरइ बंभचेरं जावज्जीवं अकंपो सो।1102। = स्त्री के साथ सहगमन करना, एकासन पर बैठना, इन कार्यों से अल्प धैर्य वाले और स्वच्छंद से बोलना-हँसना वगैरह करने वाले पुरुष का मन अग्नि के समीप लाख की भाँति पिघल जाता है।1092। स्त्री सहवास से मनुष्य का मन मोहित होता है, मैथुन की तीव्र इच्छा होती है, कारण-कार्य का विचार न कर शील तट उल्लंघन करने को उतारू हो जाता है।1093। माता, अपनी लड़की और बहन इनका भी एकांत में आश्रय पाकर मनुष्य का मन क्षुब्ध होता है, अन्य का तो कहना ही क्या।1095। जो पुरुष स्त्री का संसर्ग विष के समान समझकर उसका नित्य त्याग करता है वही महात्मा यावज्जीवन ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहता है।1102।
मू.आ./179 तरुणो तरुणीए सह कहा व सल्लावणं च जदि कुज्जा। आणाकोवादीया पंचवि दोसा कदा तेण।179। =युवावस्था वाला मुनि जवान स्त्री के साथ कथा व हास्यादि मिश्रित वार्तालाप करे तो उसने आज्ञाकोप आदि पाँचों ही दोष किये जानना।
बोधपाहुड़/ मू./57 पसुमहिलासंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ...पवज्जा एरिसा भणिया।57। =जिन प्रव्रज्या में पशु, महिला, नपुंसक और कुशील पुरुष का संग नहीं है तथा विकथा न करे ऐसी प्रव्रज्या कही है।57।
लिं.पा./मू./17 रागो करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेइ। दंसण णाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।17। =जो लिंग धारणकर स्त्रियों के समूह के प्रति राग करता है, निर्दोषी को दूषण लगाता है, सो मुनि दर्शन व ज्ञान कर रहित तिर्यंच योनियाँ पशुसम है।
8. आर्यिका की संगति का निषेध
भगवती आराधना/331-336 थेरस्स वि तवसिस्स वि बहुस्सुदस्स वि पमाणभूदस्स। अज्जासंसग्गीए जणजंपणयं हवेज्जादि।331। जदि वि सयं थिरबुद्धी तहा वि संसग्गिलद्धपसराए। अग्गिसमीवे व घदं विलेज्ज चित्तं खु अज्जाए।333। खेलपडिदमप्पाणं ण तरदि जह मच्छिया विमोचेदुं। अज्जाणुचरो ण तरदि तह अप्पाणं विमोचेदुं।336। =मुनि, वृद्ध, तपस्वी, बहुश्रुत और जनमान्य होने पर भी यदि आर्यिका का सहवास करेगा तो वह लोगों की निंदा का स्थान बनेगा ही।331। मुनि यद्यपि स्थिर बुद्धि का धारक होगा तो भी मुनि के सहवास से जिसका चित्त चंचल हुआ है ऐसी आर्यिका का मन अग्नि के समीप घी जैसा पिघल जाता है।333। जैसे मनुष्य के कफ में पड़ी मक्खी उससे निकलने में असमर्थ होती है वैसे आर्यिका के साथ परिचय किया मुनि छुटकारा नहीं पा सकता।336।
मू.आ./177-185 अज्जागमणे काले ण अत्थिदव्वं तहेव एक्केण। ताहिं पुण सल्लावो ण य कायव्वो अकज्जेण।177। तासिं पुण पुच्छाओ एक्कस्से णय कहेज्ज एक्को दु। गणिणीं पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्वं।178। णो कप्पदि विरदाणं विरदीमुवासयम्हि चिट्ठेदुं। तत्थ णिसेज्जउवट्ठणसज्झाहारभिक्खवोसरणे।180। कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सइरिणी सलिंगं वा। अचिरेणल्लियमाणो अववादं तत्थ पप्पोदि।182। =आर्यिका आदि स्त्रियों के आने के समय मुनि को वन में अकेला नहीं रहना चाहिए और उनके साथ धर्म कार्यादि प्रयोजन के बिना बोले नहीं।177। उन आर्यिकाओं में से यदि एक आर्यिका कुछ पूछे तो निंदा के भय से अकेला न रहे। यदि प्रधान आर्यिका अगाड़ी करके कुछ पूछे तो कह देना चाहिए।178। संयमी मुनि को आर्यिकाओं की वस्तिका में ठहरना, बैठना, सोना, स्वाध्याय करना, आहार व भिक्षा ग्रहण करना तथा प्रतिक्रमण व मल का त्याग करना आदि क्रिया नहीं करनी चाहिए।180। कन्या, विधवा, रानी व विलासिनी, स्वेच्छाचारिणी तथा दीक्षा धारण करने वाली, ऐसी स्त्रियों के साथ क्षणमात्र भी वार्तालाप करता मुनि लोक निंदा को पाता है।185।
9. आर्यिका को साधु से सात हाथ दूर रहने का नियम
मू.आ./195 पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरि ऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति।195। =आर्यिकाएँ आचार्य से पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गौ आसन से बैठकर नमस्कार करती हैं।195।
10. कथंचित् एकांत में आर्यिका की संगति
पद्मपुराण/106/225-228 ग्रामो मंडलिको नाम तमायात: सुदर्शन:। मुनिमुद्यानमायातं वंदित्वा तं गता जना:।225। सुदर्शनां स्थितां तत्र स्वसारं सद्वचो ब्रुवन् । ईक्षितो वेदवत्याऽसौ सत्या श्रमणया तय।226। ततो ग्रामीणलोकाय सम्यग्दर्शनतत्परा। जगाद पश्यतेदृक्षं श्रमणं ब्रूथ सुंदरम् ।227। मया मुयोषिता साकं स्थितो रहसि वीक्षित:। तत: कैश्चित् प्रतीतं तन्न तु कैश्चिद्विचक्षणै:।228। = उस ग्राम में एक सुदर्शन नामक मुनि आये। वंदना कर जब सब लोग चले गये तब उनके पास एक सुदर्शना नाम की आर्यिका जो कि मुनि की बहन थी बैठी रही और मुनि उसे सद्वचन कहते रहे। अपने आपको सम्यग्दृष्टि बताने वाली वेदवती (सीता के पूर्वभव की पर्याय) ने गाँव के लोगों से कहा कि मैंने उन साधुओं को एकांत में सुंदर स्त्री के साथ बैठे देखा है।
* पार्श्वस्थादि मुनि संग निषेध - देखें साधु - 5।
11. मित्रता संबंधी विचार
1. मित्रता में परीक्षा का स्थान
कुरल/80/1,3,10 अपरीक्ष्यैव मैत्री चेत् क: प्रमादो ह्यत: पर:। भद्रा: प्रीतिं विधायादौ न तां मुंचंति कर्हिचित् ।1। कथं शीलं कुलं किं क: संबंध: का च योग्यता। इति सर्वं विचार्येव कर्तव्यो मित्रसंग्रह:।3। विशुद्धहृदयेरार्यै: सह मैत्रीं विधेहि वै। उपयाचितदानेन मुंचस्वानार्यमित्रताम् ।10। = इससे बढ़कर अप्रिय बात और कोई नहीं है कि बिना परीक्षा किये किसी के साथ मित्रता कर ली जाय, क्योंकि एक बार मित्रता हो जाने पर सहृदय पुरुष फिर छोड़ नहीं सकता।1। जिस मनुष्य को तुम अपना मित्र बनाना चाहते हो उसके कुल का, उसके गुण-दोषों का, किन-किनके साथ उसका संबंध है, इन सब बातों का विचार कर, पश्चात् यदि वह योग्य हो तो मित्र बना लो।3। पवित्र लोगों के साथ बड़े चाव से मित्रता करो, लेकिन जो अयोग्य हैं उनका साथ छोड़ दो, इसके लिए चाहे तुम्हें कुछ भी देना पड़े।80।
2. मित्रता में विचार स्वतंत्रता का स्थान
कुरल/81/2,4 सत्यरूपात् तयोर्मैत्री वर्तते विज्ञसंमता। स्वाश्रितौ यत्र पक्षौ द्वौ भवतो नापि बाधक:।2। प्रगाढमित्रयोरेक: किमप्यनुमतिं विना। कुरुते चेद् द्वितीयोऽपि सख्यमाध्याय हृष्यति।4। = सच्ची मित्रता वही है जिसमें मित्र आपस में स्वतंत्र रहें और एक-दूसरे पर दबाव न डालें। विज्ञजन ऐसी मित्रता का कभी विरोध नहीं करते।2। जबकि जिन दो व्यक्तियों में प्रगाढ़ मैत्री है उनमें से एक दूसरे की अनुमति के बिना ही कोई काम कर लेता है तो दूसरा मित्र आपस के प्रेम का ध्यान करके उससे प्रसन्न ही होगा।4।
3. अयोग्य मित्र की अपेक्षा अकेला रहना ही अच्छा है
कुरल/82/4 पलायते यथा युद्धात् पातयित्वाश्ववारकम् । कुत्स्यसप्तिस्तथा मायी का सिद्धिस्तस्य सख्यत:।4। = कुछ आदमी उस अक्खड़ घोड़े की तरह होते हैं कि जो युद्धक्षेत्र में अपने सवार को गिरा कर भाग जाता है। ऐसे लोगों से मैत्री रखने से तो अकेला रहना ही हजारगुणा अच्छा है।4।