व्यंतर: Difference between revisions
From जैनकोष
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p> देवों का एक भेद ये आठ प्रकार के होते हैं । उनके नाम है—किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । बाल तप करने वाले साधु मरकर ऐसे ही देव होते हैं । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य प्रमाण तथा जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष होती है । ये मध्यलोक में रहते हैं । तीर्थंकरों के जन्म की सूचना देने के लिए इन देवों के भवनों में स्वयमेव भेरियों की ध्वनि होने लगती है । मध्यलोक में ये देव वटवृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ के शिखरों पर, वृक्षों के कोटरों, पत्तों की झोपड़ियों में रहते हैं । इनका सर्वत्र गमनागमन रहता है । द्वीप और समुद्रों की आभ्यंतरिक स्थिति का इन्हें ज्ञान होता है । इन देवों के सोलह इंद्र और सोलह प्रतींद्र होते हैं । उनके नाम ये | <div class="HindiText"> <p> देवों का एक भेद ये आठ प्रकार के होते हैं । उनके नाम है—किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । बाल तप करने वाले साधु मरकर ऐसे ही देव होते हैं । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य प्रमाण तथा जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष होती है । ये मध्यलोक में रहते हैं । तीर्थंकरों के जन्म की सूचना देने के लिए इन देवों के भवनों में स्वयमेव भेरियों की ध्वनि होने लगती है । मध्यलोक में ये देव वटवृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ के शिखरों पर, वृक्षों के कोटरों, पत्तों की झोपड़ियों में रहते हैं । इनका सर्वत्र गमनागमन रहता है । द्वीप और समुद्रों की आभ्यंतरिक स्थिति का इन्हें ज्ञान होता है । इन देवों के सोलह इंद्र और सोलह प्रतींद्र होते हैं । उनके नाम ये हैं —1. किन्नर 2. किंपुरुष 3. सत्पुरुष 4. महापुरुष 5. अतिकाय 6. महाकाय 7. गीतरति 8. रतिकीर्ति 9. मणिभद्र 10. पूर्णभद्र 11. भीम 12. महाभीम 13. सुरूप 14. प्रतिरूप 15. काल और 16. महाकाल । <span class="GRef"> महापुराण 31.109-113, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 3.159-162, 5.153, 105. 165, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.83, 3.134-135, 139, 5.397-420, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14.59-62, 17.90-91 </span></p> | ||
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Revision as of 09:16, 18 March 2022
सिद्धांतकोष से
भूत, पिशाच जाति के देवों को जैनागम में व्यंतर देव कहा गया है। ये लोग वैक्रियिक शरीर के धारी होते हैं। अधिकतर मध्य लोक के सूने स्थानों में रहते हैं। मनुष्य व तिर्यंचों के शरीर में प्रवेश करके उन्हें लाभ हानि पहुँचा सकते हैं। इनका काफी कुछ वैभव व परिवार होता है।
- व्यंतर देव निर्देश
- किंनर किंपुरुष आदि के उत्तर भेद ।–देखें किन्नर, किंपुरुष , महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ।
- व्यंतर मरकर कहाँ जन्मे और कौन स्थान प्राप्त करे ।–देखें जन्म - 6 ।
- व्यंतरों का जन्म, दिव्य शरीर, आहार, सुख, दुःख सम्यक्त्वादि ।–देखें देव - II.2.3 ।
- व्यंतरों के आहार व श्वास का अंतराल ।
- व्यंतरों के ज्ञान व शरीर की शक्ति विक्रिया आदि ।
- व्यंतर देव मनुष्यों के शरीरों में प्रवेश करके उन्हें विकृत कर सकते हैं ।
- व्यंतरों के शरीरों के वर्ण व चैत्य वृक्ष ।
- व्यंतरों की आयु व अवगाहना ।–देखें वह वह नाम ।
- व्यंतरों में संभव कषाय, लेश्या, वेद, पर्याप्ति आदि । देखें वह वह नाम ।
- व्यंतरों में गुणस्थान, मार्गंणास्थान आदि की 20 प्ररूपणा ।–दे . सत् ।
- व्यंतरों संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन ।
- काल अंतर भाव व अल्पबहुत्व । –देखें वह वह नाम ।
- व्यंतरों में कर्मों का बंध उदय सत्त्व ।–देखें वह वह नाम ।
- किंनर किंपुरुष आदि के उत्तर भेद ।–देखें किन्नर, किंपुरुष , महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ।
- व्यंतर इंद्र निर्देश
- व्यंतरों की देवियों का निर्देश
- व्यंतर लोक निर्देश
- व्यंतरदेव निर्देश
- व्यंतरदेव का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/11/243/10 विविधदेशांतराणि येषां निवासास्ते ‘व्यंतराः’ इत्यन्वर्था सामान्यसंज्ञेयमष्टानामपि विकल्पानाम् । = जिनका नाना प्रकार के देशों में निवास है, वे व्यंतरदेव कहलाते हैं । यह सामान्य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठों ही भेदों में लागू है । (राजवार्तिक/4/11/1/257/15) ।
- व्यंतरदेवों के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/4/11 व्यंतराः किंनरकिंपुरुषमहोरगगंधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ।11। = व्यंतरदेव आठ प्रकार के हैं–किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच (तिलोयपण्णत्ति/6/25; त्रिलोकसार/251 ) ।
- व्यंतरों के आहार व श्वास का अंतराल
तिलोयपण्णत्ति/6/88-89 पल्लाउजुदे देवे कालो असणस्स पंच दिवसाणिं । दोण्णि च्चिय णादव्वो दसवाससहस्सआउम्मि ।88। पलिदोवमाउजुत्तो पंचमुहुत्तेहिं एदि उस्सासो । सो अजुदाउजुदे वेंतरदवम्मि अ सत्त पाणेहिं ।89। = पल्यप्रमाण आयु से युक्त देवों के आहार का काल 5 दिन और 10,000 वर्ष प्रमाण आयु वाले देवों के आहार का काल दो दिन मात्र जानना चाहिए ।88। व्यंतर देवों में जो पल्यप्रमाण आयु से युक्त हैं वे पाँच मुहूर्त्तों में और जो दश हजार प्रमाण आयु से संयुक्त हैं वे सात प्राणों (उच्छ्वास-निश्वास परिमित काल - विशेष देखें गणित - I.1.4) में उच्छ्वास को प्राप्त करते हैं ।89। (त्रिलोकसार/301) ।
- व्यंतरों के ज्ञान व शरीर की शक्ति विक्रिया आदि
तिलोयपण्णत्ति/6/ गा.अवरा आहिधरित्ती अजुदाउजुदस्स पंचकोसाणिं । उक्किट्ठा पण्णासा हेट्ठोवरि पस्समाणस्स ।90। पलिदोवमाउ जुत्तो वेंतरदेवो तलम्मि उवरिम्मि । अवधीए जोयणाणं एक्कं लक्खं पलोएदि ।91। दसवास सहस्साऊ एक्कसयं माणुसाण मारेदुं । पोसेदुं पि समत्थो एक्केवको वेंतरो देवो ।92। पण्णाधियसयदं डप्पमाणविक्खंभबहुलजुत्तं सो । खेत्तं णिय सत्तीए उक्खणिदूणं खवेदि अण्णत्थ ।93। पल्लट्टदि भाजेहिं छक्खंडाणिं पि एक्कपल्लाऊ । मारेदुं पोसेदुं तेसु समत्थो ठिदं लोयं ।94। उक्कस्से रूवसदं देवो विकरेदि अजुदमेत्ताऊ । अवरे सगरूवाणिं मज्झिमयं विविहरूवाणि ।95। ऐसा वेंतरदेवा णियणिय ओहीण जेत्तियं खेत्तं । पूर ति तेत्तियं पि हु पत्तेक्कं विकरणबलेण ।96। संखेज्जजोयणाणिं संखेज्जाऊ य एक्कसमयेण । जादि असंखेज्जाणिं ताणि असंखेज्जाऊ य ।97। = नीचे व ऊपर देखने वाले दश हजार वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यंतर देवों के जघन्य अवधि का विषय पाँच कोश और उत्कृष्ट 50 कोश मात्र है ।90। पल्योपम प्रमाण आयु से युक्त व्यंतर देव अवधिज्ञान से नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण देखते हैं ।91। दश हजार वर्ष प्रमाण आयु का धारक प्रत्येक व्यंतर देव एक सौ मनुष्यों को मारने व पालने के लिए समर्थ है ।92। वह देव एक सौ पचास धनुष प्रमाण विस्तार व बाहुल्य से युक्त क्षेत्र को अपनी शक्ति से उखाड़कर अन्यत्र फेंक सकता है ।93। एक पल्य प्रमाण आयु का धारक प्रत्येक व्यंतर देव अपनी भुजाओं से छह खंडों को उलट सकता है और उनमें स्थित लोगों को मारने व पालने के लिए भी समर्थ है ।94। दश हजार वर्ष मात्र आयु का धारक व्यंतर देव उत्कृष्ट रूप से सौ रूपों की और जघन्य रूप से सात रूपों की विक्रिया करता है । मध्यमरूप से वह देव सात से ऊपर और सौ से नीचे विविध रूपों की विक्रिया करता है ।95। बाकी के व्यंतर देवों में से प्रत्येक देव अपने-अपने अवधिज्ञानों का जितना क्षेत्र है । उतने मात्र क्षेत्र को विक्रिया बल से पूर्ण करते हैं।96। संख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यंतर देव एक समय में संख्यात योजन और असंख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त असंख्यात योजन जाता है।97।
- व्यंतरदेव मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करके उन्हें विकृत कर सकते हैं
भगवती आराधना/1977/1741 जदि वा एस ण कीरेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई। आदाय तं कलेवरमुट्ठिज्ज रमिज्ज बाधेज्ज।1977। = यदि यह विधि न की जावेगी अर्थात् क्षपक के मृत शरीर के अंग बाँधे या छेदे नहीं जायेंगे तो मृत शरीर में क्रीड़ा करने का स्वभाव वाला कोई देवता (भूत अथवा पिशाच) उसमें प्रवेश करेगा। उस प्रेत को लेकर वह उठेगा, भागेगा, क्रीडा करेगा।1977।
स्याद्वादमंजरी/11/135/10 यदपि च गयाश्राद्धादियाचनमुपलभ्यते, तदपि तादृशविप्रलंभकविभंगज्ञानिव्यंतरादिकृतमेव निश्चयेम्।= बहुत से पितर पुत्रों के शरीर में प्रविष्ठ होकर जो गया आदि तीर्थस्थानों में श्राद्ध करने के लिए कहते हैं, वे भी कोई ठगने वाले विभंगज्ञान के धारक व्यंतर आदि नीच जाति के देव ही हुआ करते हैं।
- व्यंतरों के शरीरों के वर्ण व चैत्य वृक्ष
तिलोयपण्णत्ति/6 (त्रिलोकसार/252-253)
- व्यंतरदेव का लक्षण
नाम |
वर्ण |
वृक्ष |
गा. 25 |
गा. 55-56, गा. 57-58 |
गा. 28 |
किन्नर |
प्रियंगु |
अशोक |
किंपुरुष |
सुवर्ण |
चंपक |
महोरग |
श्याम |
नागद्रुम |
गंधर्व |
सुवर्ण |
तुंबुर |
यक्ष |
श्याम |
न्यग्रोध |
राक्षस |
श्याम |
कंटक वृक्ष |
भूत |
श्याम |
तुलसी |
पिशाच |
कज्जल |
कदंब |
पुराणकोष से
देवों का एक भेद ये आठ प्रकार के होते हैं । उनके नाम है—किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । बाल तप करने वाले साधु मरकर ऐसे ही देव होते हैं । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य प्रमाण तथा जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष होती है । ये मध्यलोक में रहते हैं । तीर्थंकरों के जन्म की सूचना देने के लिए इन देवों के भवनों में स्वयमेव भेरियों की ध्वनि होने लगती है । मध्यलोक में ये देव वटवृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ के शिखरों पर, वृक्षों के कोटरों, पत्तों की झोपड़ियों में रहते हैं । इनका सर्वत्र गमनागमन रहता है । द्वीप और समुद्रों की आभ्यंतरिक स्थिति का इन्हें ज्ञान होता है । इन देवों के सोलह इंद्र और सोलह प्रतींद्र होते हैं । उनके नाम ये हैं —1. किन्नर 2. किंपुरुष 3. सत्पुरुष 4. महापुरुष 5. अतिकाय 6. महाकाय 7. गीतरति 8. रतिकीर्ति 9. मणिभद्र 10. पूर्णभद्र 11. भीम 12. महाभीम 13. सुरूप 14. प्रतिरूप 15. काल और 16. महाकाल । महापुराण 31.109-113, पद्मपुराण 3.159-162, 5.153, 105. 165, हरिवंशपुराण 2.83, 3.134-135, 139, 5.397-420, वीरवर्द्धमान चरित्र 14.59-62, 17.90-91