आत्मवाद: Difference between revisions
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<p>1. मिथ्या एकांतकी अपेक्षा</p> | <p>1. मिथ्या एकांतकी अपेक्षा</p> | ||
<p class="SanskritText">गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 881/1065 एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सव्ववावी य। सव्वंगणिगूढो वि य | <p class="SanskritText">गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 881/1065 एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सव्ववावी य। सव्वंगणिगूढो वि य सचेयणो णिग्गुणो परमो।</p> | ||
<p class="HindiText">= एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है, देव है। सर्व विषे व्यापक है। सर्वांगपने निगूढ कहिए अगम्य है। चेतना सहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा करि सबकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है। ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/1/5 की टिप्पणी) जगरूप सहाय कृत।</p> | <p class="HindiText">= एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है, देव है। सर्व विषे व्यापक है। सर्वांगपने निगूढ कहिए अगम्य है। चेतना सहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा करि सबकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है। ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/1/5 की टिप्पणी) जगरूप सहाय कृत।</p> | ||
<p>2. सम्यगेकांतकी अपेक्षा</p> | <p>2. सम्यगेकांतकी अपेक्षा</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/क 12 व 14 भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधीर्यद्यंतः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोयमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥12॥ अखंडितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहिर्महः, परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम् ॥14॥</p> | <p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/क 12 व 14 भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधीर्यद्यंतः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोयमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥12॥ अखंडितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहिर्महः, परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम् ॥14॥</p> | ||
<p class="HindiText">= यदि कोई सुबुद्धि (सम्यग्दृष्टि) जीव भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालमें कर्मोंके बंधको अपने आत्मासे तत्काल-शीघ्र भिन्न करके तथा उस कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले मिथ्यात्व (अज्ञान) को अपने बलमें (पुरुषार्थसे) रोककर अथवा नाश करके अंतरंगमें | <p class="HindiText">= यदि कोई सुबुद्धि (सम्यग्दृष्टि) जीव भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालमें कर्मोंके बंधको अपने आत्मासे तत्काल-शीघ्र भिन्न करके तथा उस कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले मिथ्यात्व (अज्ञान) को अपने बलमें (पुरुषार्थसे) रोककर अथवा नाश करके अंतरंगमें अभ्यास करे-देखे तो यह आत्मा अपने अनुभवसे ही जानने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा व्यक्त (अनुभवगोचर) निश्चल, शाश्वत नित्यकर्मकलंककर्दमसे रहित स्वयं स्तुति करने योग्य देव विराजमान हैं ॥12॥ आचार्य कहते हैं कि हमें वह उत्कृष्ट तेज प्राप्त हो कि जो तेज सदा काल चैतन्यके परिणमनसे परिपूर्ण है, जैसे नमककी डली एक क्षार रसकी लीलाका आलंबन करती है, उसी प्रकार जो एक ज्ञानस्वरूपका आलंबन करता है; जो तेज अखंडित है-जो ज्ञेयोंके आकार रूपसे खंडित नहीं होता, जो अनाकुल है-जिसमें कर्मोंके निमित्तसे होनेवाले रागादिसे उत्पन्न आकुलता नहीं है। जो अविनाशी रूपसे अंतरंगमें तो चैतन्य भावसे देदीप्यमान अनुभवमें आता है और बाहरमें वचन-कायकी क्रियासे प्रगट देदीप्यमान होता है-जाननेमें आता है, जो स्वभावसे हुआ है-जिसे किसीने नहीं रचा सदा जिसका विलास उदय रूप है-जो एक रूप प्रतिभास मान है।</p> | ||
<p class="SanskritText">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 18/25 परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु।</p> | <p class="SanskritText">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 18/25 परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु।</p> | ||
<p class="HindiText">= शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सदा शिव अर्थात् सदा मुक्त उस शक्तिरूप परमात्माको नमस्कार हो।</p> | <p class="HindiText">= शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सदा शिव अर्थात् सदा मुक्त उस शक्तिरूप परमात्माको नमस्कार हो।</p> |
Revision as of 08:57, 7 August 2022
1. मिथ्या एकांतकी अपेक्षा
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 881/1065 एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सव्ववावी य। सव्वंगणिगूढो वि य सचेयणो णिग्गुणो परमो।
= एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है, देव है। सर्व विषे व्यापक है। सर्वांगपने निगूढ कहिए अगम्य है। चेतना सहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा करि सबकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है। ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/1/5 की टिप्पणी) जगरूप सहाय कृत।
2. सम्यगेकांतकी अपेक्षा
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/क 12 व 14 भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधीर्यद्यंतः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोयमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥12॥ अखंडितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहिर्महः, परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम् ॥14॥
= यदि कोई सुबुद्धि (सम्यग्दृष्टि) जीव भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालमें कर्मोंके बंधको अपने आत्मासे तत्काल-शीघ्र भिन्न करके तथा उस कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले मिथ्यात्व (अज्ञान) को अपने बलमें (पुरुषार्थसे) रोककर अथवा नाश करके अंतरंगमें अभ्यास करे-देखे तो यह आत्मा अपने अनुभवसे ही जानने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा व्यक्त (अनुभवगोचर) निश्चल, शाश्वत नित्यकर्मकलंककर्दमसे रहित स्वयं स्तुति करने योग्य देव विराजमान हैं ॥12॥ आचार्य कहते हैं कि हमें वह उत्कृष्ट तेज प्राप्त हो कि जो तेज सदा काल चैतन्यके परिणमनसे परिपूर्ण है, जैसे नमककी डली एक क्षार रसकी लीलाका आलंबन करती है, उसी प्रकार जो एक ज्ञानस्वरूपका आलंबन करता है; जो तेज अखंडित है-जो ज्ञेयोंके आकार रूपसे खंडित नहीं होता, जो अनाकुल है-जिसमें कर्मोंके निमित्तसे होनेवाले रागादिसे उत्पन्न आकुलता नहीं है। जो अविनाशी रूपसे अंतरंगमें तो चैतन्य भावसे देदीप्यमान अनुभवमें आता है और बाहरमें वचन-कायकी क्रियासे प्रगट देदीप्यमान होता है-जाननेमें आता है, जो स्वभावसे हुआ है-जिसे किसीने नहीं रचा सदा जिसका विलास उदय रूप है-जो एक रूप प्रतिभास मान है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 18/25 परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु।
= शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सदा शिव अर्थात् सदा मुक्त उस शक्तिरूप परमात्माको नमस्कार हो।