मूढ़ता: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p><span class="GRef">मूलाचार आराधना/२५६ </span><span class="PrakritText">णच्चा दंसणघादी ण या कायव्वं ससत्तीए ।</span> = <span class="HindiText">देवमूढ़ता आदि को दर्शनघाती जानकर अपनी शक्ति के अनुसार नहीं करना चाहिए । <br /> | <p><span class="GRef">मूलाचार आराधना/२५६ </span><span class="PrakritText">णच्चा दंसणघादी ण या कायव्वं ससत्तीए ।</span> = <span class="HindiText">देवमूढ़ता आदि को दर्शनघाती जानकर अपनी शक्ति के अनुसार नहीं करना चाहिए । <br /> | ||
देखें - [[ मिथ्यादर्शन#1.1 | मिथ्यादर्शन ]]में | देखें - [[ मिथ्यादर्शन#1.1 | मिथ्यादर्शन ]]में नयचक्रबृहद/३०४ (नास्तित्व सापेक्ष अस्तित्व को और अस्तित्व सापेक्ष नास्तित्व को नहीं मानने वाला द्रव्य स्वभाव में मूढ़ होता है । यही उसका मूढ़ता नाम का मिथ्यात्व है) । <br /> | ||
</span></p> | </span></p> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">मूढ़ता के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">मूढ़ता के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार आराधना/२५६</span> <span class="PrakritText">लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्वं ।</span> =<span class="HindiText"> मूढ़ता चार प्रकार की है − लौकिक मूढ़ता, वैदिक मूढ़ता, सामायिक मूढ़ता और | <span class="GRef">मूलाचार आराधना/२५६</span> <span class="PrakritText">लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्वं ।</span> =<span class="HindiText"> मूढ़ता चार प्रकार की है − लौकिक मूढ़ता, वैदिक मूढ़ता, सामायिक मूढ़ता और अन्यदेव मूढ़ता । </span><br /> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६६/१०</span> <span class="SanskritText">देवतामूढ़लोकमूढ़समयमूढ़भेदेन मूढ़त्रयं भवति ।</span> = <span class="HindiText">देवतामूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता के भेद से मूढ़ता तीन प्रकार की है । <br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६६/१०</span> <span class="SanskritText">देवतामूढ़लोकमूढ़समयमूढ़भेदेन मूढ़त्रयं भवति ।</span> = <span class="HindiText">देवतामूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता के भेद से मूढ़ता तीन प्रकार की है । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
Line 11: | Line 11: | ||
<span class="GRef">रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२२ </span><span class="SanskritGatha">आपगासागरस्नानमुच्चय सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ।२२। </span>=<span class="HindiText"> धर्म समझकर गंगा - जमुना आदि नदियों में अथवा सागर में स्नान करना, बालू और पत्थरों आदि का ढेर करना, पर्वत से गिरकर मर जाना और अग्नि में जल जाना लोकमूढ़ता कही जाती है । </span><br /> | <span class="GRef">रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२२ </span><span class="SanskritGatha">आपगासागरस्नानमुच्चय सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ।२२। </span>=<span class="HindiText"> धर्म समझकर गंगा - जमुना आदि नदियों में अथवा सागर में स्नान करना, बालू और पत्थरों आदि का ढेर करना, पर्वत से गिरकर मर जाना और अग्नि में जल जाना लोकमूढ़ता कही जाती है । </span><br /> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/८ </span><span class="SanskritText">गंगादिनदीतीर्थस्नानसमुद्रस्नानप्रातःस्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोकमूढत्वं विज्ञेयम् ।</span> = <span class="HindiText">गंगादि जो नदीरूप तीर्थ हैं, इनमें स्नान करना, समुद्र में स्नान करना, प्रातःकाल में स्नान करना, जल में प्रवेश करके मर जाना, अग्नि में जल मरना; गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और वटवृक्ष आदि की पूजा करना, ये सब पुण्य के कारण हैं, इस प्रकार जो कहते हैं, उसको लोकमूढ़ता जानना चाहिए । </span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/८ </span><span class="SanskritText">गंगादिनदीतीर्थस्नानसमुद्रस्नानप्रातःस्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोकमूढत्वं विज्ञेयम् ।</span> = <span class="HindiText">गंगादि जो नदीरूप तीर्थ हैं, इनमें स्नान करना, समुद्र में स्नान करना, प्रातःकाल में स्नान करना, जल में प्रवेश करके मर जाना, अग्नि में जल मरना; गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और वटवृक्ष आदि की पूजा करना, ये सब पुण्य के कारण हैं, इस प्रकार जो कहते हैं, उसको लोकमूढ़ता जानना चाहिए । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> | <span class="GRef">पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/५९६-५९७</span> <span class="SanskritGatha">कुदेवाराधनं कुर्याद्दैहिकश्रेयसे कुधीः । मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढ़ता ।५९६। अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकमूढ़वशादिह । धनधान्यप्रदा नूनं सम्यगाराधिताऽम्बिका ।५९७। </span>= <span class="HindiText">इस लोक सम्बन्धी कल्याण के लिए जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवों की आराधना को करता है, वह केवल मिथ्यालोकोपचारवश की जाने के कारण अकल्याणकारी लोकमूढ़ता है ।५९६। इस लोक में उक्त लोकमूढ़ता के कारण किन्हीं का ऐसा श्रद्धान है कि अच्छी तरह से आराधित की गयी अम्बिका देवी निश्चय से धन-धान्य आदि को देने वाली है । (इसको नीचे देवमूढ़ता कहा है) । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> देवमूढ़ता का स्वरूप</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> देवमूढ़ता का स्वरूप</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार आराधना/२६० </span><span class="PrakritGatha">ईसरबंभाविण्हूआज्जाखंदादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवत्तणभावेण मूढ़ो ।२६०। </span>= <span class="HindiText">ईश्वर (महादेव), ब्रह्मा, विष्णु, पार्वती, स्कन्द (कार्तिकेय) इत्यादिक देव देवपने से रहित हैं । इनमें देवपने की भावना करना देवमूढ़ता है । </span><br /> | <span class="GRef">मूलाचार आराधना/२६० </span><span class="PrakritGatha">ईसरबंभाविण्हूआज्जाखंदादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवत्तणभावेण मूढ़ो ।२६०। </span>= <span class="HindiText">ईश्वर (महादेव), ब्रह्मा, विष्णु, पार्वती, स्कन्द (कार्तिकेय) इत्यादिक देव देवपने से रहित हैं । इनमें देवपने की भावना करना देवमूढ़ता है । </span><br /> | ||
<span class="GRef">रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२३ </span><span class="SanskritGatha">वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते ।२३।</span> =<span class="HindiText"> आशावान् होता हुआ वर की इच्छा करके राग-द्वेषरूपी मैल से मलिन देवताओं की जो उपासना की जाती है, सो देवमूढ़ता कही जाती है । </span><br /> | <span class="GRef">रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२३ </span><span class="SanskritGatha">वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते ।२३।</span> =<span class="HindiText"> आशावान् होता हुआ वर की इच्छा करके राग-द्वेषरूपी मैल से मलिन देवताओं की जो उपासना की जाती है, सो देवमूढ़ता कही जाती है । </span><br /> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/१ </span><span class="SanskritText">वीतरागसर्वज्ञदेवतास्वरूपमजानन् ख्यातिपूजालाभरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतार्त्तरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवमूढत्वं भण्यते । न च ते देवाः किमपि फलं प्रयच्छन्ति । किमिति चेत् ।.... बह्वयोऽपि विद्याः समाराधितास्ताभिः । कृतं न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्वं निर्विघ्नं जातमिति । </span>= <span class="HindiText">वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूप को न जानता हुआ, जो व्यक्ति ख्याति, | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/१ </span><span class="SanskritText">वीतरागसर्वज्ञदेवतास्वरूपमजानन् ख्यातिपूजालाभरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतार्त्तरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवमूढत्वं भण्यते । न च ते देवाः किमपि फलं प्रयच्छन्ति । किमिति चेत् ।.... बह्वयोऽपि विद्याः समाराधितास्ताभिः । कृतं न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्वं निर्विघ्नं जातमिति । </span>= <span class="HindiText">वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूप को न जानता हुआ, जो व्यक्ति ख्याति, सम्मान, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि सम्पदा प्राप्त होने के लिए राग-द्वेष युक्त, आर्त्तरौद्र ध्यानरूप परिणामों वाले क्षेत्रपाल, चण्डिका [पद्मावती देवी−(पं. सदासुखदास) आदि मिथ्यादृष्टि देवों का आराधन करता है, उसको देवमूढ़ता कहते हैं । ये देव कुछ भी फल नहीं देते हैं । (रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/पं. सदासुखदास/२३) । प्रश्न − फल कैसे नहीं देते । उत्तर − रावण, कौरवों तथा कंस ने रामचन्द्र लक्ष्मण, पाण्डव व कृष्ण को मारने के लिए बहुत - सी विद्याओं की आराधना की थी, परन्तु उन विद्याओं ने रामचन्द्र आदि का कुछ भी अनिष्ट न किया और रामचन्द्र आदि ने मिथ्यादृष्टि देवों को प्रसन्न नहीं किया तो भी सम्यग्दर्शन से उपार्जित पूर्वभव के पुण्य के द्वारा उनके सब विघ्न दूर हो गये । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> | <span class="GRef">पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/५९५</span> <span class="SanskritGatha">अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधीरिह । अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमूढ़ता ।५९५। </span>=<span class="HindiText"> इस लोक में जो कुदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और कुगुरु में गुरुबुद्धि होती है, वह देवमूढ़ता, धर्ममूढ़ता व गुरुमूढ़ता कही जाती है । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> समय या गुरुमूढ़ता का स्वरूप</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> समय या गुरुमूढ़ता का स्वरूप</strong> </span><br /> | ||
Line 23: | Line 23: | ||
<span class="GRef">रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२४ </span><span class="SanskritGatha">सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्त्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम् ।२४।</span> = <span class="HindiText">परिग्रह, आरम्भ और हिंसा सहित, संसार चक्र में भ्रमण करने वाले पाखण्डी साधु तपस्वियों का आदर, सत्कार, भक्ति-पूजादि करना सब पाखण्डी या गुरुमूढ़ता है । </span><br /> | <span class="GRef">रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२४ </span><span class="SanskritGatha">सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्त्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम् ।२४।</span> = <span class="HindiText">परिग्रह, आरम्भ और हिंसा सहित, संसार चक्र में भ्रमण करने वाले पाखण्डी साधु तपस्वियों का आदर, सत्कार, भक्ति-पूजादि करना सब पाखण्डी या गुरुमूढ़ता है । </span><br /> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/१० </span> <span class="SanskritText">अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागमलिङ्गिनां भयाशास्नेहलोभैर्धर्मार्थं प्रणामविनयपूजापुरस्कारादिकरणं समयमूढ़त्वमिति ।</span> = <span class="HindiText">अज्ञानी लोगों के चित्त में चमत्कार अर्थात् आश्चर्य उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ जो धर्म है, उसको छोड़कर मिथ्यादृष्टिदेव, मिथ्या आगम और खोटा तप करने वाले कुलिंगी का भय से, वांछा से, स्नेह से और लोभ से जो धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदि करना सो समयमूढ़ता है । <br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/१० </span> <span class="SanskritText">अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागमलिङ्गिनां भयाशास्नेहलोभैर्धर्मार्थं प्रणामविनयपूजापुरस्कारादिकरणं समयमूढ़त्वमिति ।</span> = <span class="HindiText">अज्ञानी लोगों के चित्त में चमत्कार अर्थात् आश्चर्य उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ जो धर्म है, उसको छोड़कर मिथ्यादृष्टिदेव, मिथ्या आगम और खोटा तप करने वाले कुलिंगी का भय से, वांछा से, स्नेह से और लोभ से जो धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदि करना सो समयमूढ़ता है । <br /> | ||
देखें - [[ मूढ़ता#4 | मूढ़ता - 4]]। | देखें - [[ मूढ़ता#4 | मूढ़ता - 4]]। पंचाध्यायी (अगुरु में गुरुबुद्धि गुरुमूढ़ता है) । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> वैदिकमूढ़ता का स्वरूप</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> वैदिकमूढ़ता का स्वरूप</strong> </span><br /> |
Revision as of 10:32, 6 October 2022
मूलाचार आराधना/२५६ णच्चा दंसणघादी ण या कायव्वं ससत्तीए । = देवमूढ़ता आदि को दर्शनघाती जानकर अपनी शक्ति के अनुसार नहीं करना चाहिए ।
देखें - मिथ्यादर्शन में नयचक्रबृहद/३०४ (नास्तित्व सापेक्ष अस्तित्व को और अस्तित्व सापेक्ष नास्तित्व को नहीं मानने वाला द्रव्य स्वभाव में मूढ़ होता है । यही उसका मूढ़ता नाम का मिथ्यात्व है) ।
- मूढ़ता के भेद
मूलाचार आराधना/२५६ लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्वं । = मूढ़ता चार प्रकार की है − लौकिक मूढ़ता, वैदिक मूढ़ता, सामायिक मूढ़ता और अन्यदेव मूढ़ता ।
द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६६/१० देवतामूढ़लोकमूढ़समयमूढ़भेदेन मूढ़त्रयं भवति । = देवतामूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता के भेद से मूढ़ता तीन प्रकार की है ।
- लोकमूढ़ता का स्वरूप
मूलाचार आराधना/२५७ कोडिल्लमासुरक्खा भारहरामायणादि जे धम्मा । होज्जु वि तेसु विसोती लोइयमूढ़ो हवदि एसो ।२५७। = कुटिलता प्रयोजन वाले चार्वाक व चाणक्यनीति आदि के उपदेश, हिंसक यज्ञादि के प्ररूपक वैदिक धर्म के शास्त्र और महान् पुरुषों को दोष लगाने वाले महाभारत रामायण आदि शास्त्र, इनमें धर्म समझना लौकिक मूढ़ता है।
रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२२ आपगासागरस्नानमुच्चय सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ।२२। = धर्म समझकर गंगा - जमुना आदि नदियों में अथवा सागर में स्नान करना, बालू और पत्थरों आदि का ढेर करना, पर्वत से गिरकर मर जाना और अग्नि में जल जाना लोकमूढ़ता कही जाती है ।
द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/८ गंगादिनदीतीर्थस्नानसमुद्रस्नानप्रातःस्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोकमूढत्वं विज्ञेयम् । = गंगादि जो नदीरूप तीर्थ हैं, इनमें स्नान करना, समुद्र में स्नान करना, प्रातःकाल में स्नान करना, जल में प्रवेश करके मर जाना, अग्नि में जल मरना; गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और वटवृक्ष आदि की पूजा करना, ये सब पुण्य के कारण हैं, इस प्रकार जो कहते हैं, उसको लोकमूढ़ता जानना चाहिए ।
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/५९६-५९७ कुदेवाराधनं कुर्याद्दैहिकश्रेयसे कुधीः । मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढ़ता ।५९६। अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकमूढ़वशादिह । धनधान्यप्रदा नूनं सम्यगाराधिताऽम्बिका ।५९७। = इस लोक सम्बन्धी कल्याण के लिए जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवों की आराधना को करता है, वह केवल मिथ्यालोकोपचारवश की जाने के कारण अकल्याणकारी लोकमूढ़ता है ।५९६। इस लोक में उक्त लोकमूढ़ता के कारण किन्हीं का ऐसा श्रद्धान है कि अच्छी तरह से आराधित की गयी अम्बिका देवी निश्चय से धन-धान्य आदि को देने वाली है । (इसको नीचे देवमूढ़ता कहा है) ।
- देवमूढ़ता का स्वरूप
मूलाचार आराधना/२६० ईसरबंभाविण्हूआज्जाखंदादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवत्तणभावेण मूढ़ो ।२६०। = ईश्वर (महादेव), ब्रह्मा, विष्णु, पार्वती, स्कन्द (कार्तिकेय) इत्यादिक देव देवपने से रहित हैं । इनमें देवपने की भावना करना देवमूढ़ता है ।
रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२३ वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते ।२३। = आशावान् होता हुआ वर की इच्छा करके राग-द्वेषरूपी मैल से मलिन देवताओं की जो उपासना की जाती है, सो देवमूढ़ता कही जाती है ।
द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/१ वीतरागसर्वज्ञदेवतास्वरूपमजानन् ख्यातिपूजालाभरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतार्त्तरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवमूढत्वं भण्यते । न च ते देवाः किमपि फलं प्रयच्छन्ति । किमिति चेत् ।.... बह्वयोऽपि विद्याः समाराधितास्ताभिः । कृतं न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्वं निर्विघ्नं जातमिति । = वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूप को न जानता हुआ, जो व्यक्ति ख्याति, सम्मान, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि सम्पदा प्राप्त होने के लिए राग-द्वेष युक्त, आर्त्तरौद्र ध्यानरूप परिणामों वाले क्षेत्रपाल, चण्डिका [पद्मावती देवी−(पं. सदासुखदास) आदि मिथ्यादृष्टि देवों का आराधन करता है, उसको देवमूढ़ता कहते हैं । ये देव कुछ भी फल नहीं देते हैं । (रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/पं. सदासुखदास/२३) । प्रश्न − फल कैसे नहीं देते । उत्तर − रावण, कौरवों तथा कंस ने रामचन्द्र लक्ष्मण, पाण्डव व कृष्ण को मारने के लिए बहुत - सी विद्याओं की आराधना की थी, परन्तु उन विद्याओं ने रामचन्द्र आदि का कुछ भी अनिष्ट न किया और रामचन्द्र आदि ने मिथ्यादृष्टि देवों को प्रसन्न नहीं किया तो भी सम्यग्दर्शन से उपार्जित पूर्वभव के पुण्य के द्वारा उनके सब विघ्न दूर हो गये ।
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/५९५ अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधीरिह । अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमूढ़ता ।५९५। = इस लोक में जो कुदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और कुगुरु में गुरुबुद्धि होती है, वह देवमूढ़ता, धर्ममूढ़ता व गुरुमूढ़ता कही जाती है ।
- समय या गुरुमूढ़ता का स्वरूप
मूलाचार आराधना/२५९ रत्तवडचरगतावसपरिहत्तादीय अण्णयासंढा । संसारतारगत्तिय जदि गेण्हदि समयमूढो सो ।२५९। = बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, जटाधारी, सांख्य, आदि शब्द से शैव, पाशुपत, कापालिक आदि अन्यलिंगी हैं, वे संसार से तारने वाले हैं- इनका आचरण अच्छा है, ऐसा ग्रहण करना सामयिक मूढ़ता है ।
रत्नकरण्ड-श्रावकाचार/२४ सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्त्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम् ।२४। = परिग्रह, आरम्भ और हिंसा सहित, संसार चक्र में भ्रमण करने वाले पाखण्डी साधु तपस्वियों का आदर, सत्कार, भक्ति-पूजादि करना सब पाखण्डी या गुरुमूढ़ता है ।
द्रव्यसंग्रह/टीका/४१/१६७/१० अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागमलिङ्गिनां भयाशास्नेहलोभैर्धर्मार्थं प्रणामविनयपूजापुरस्कारादिकरणं समयमूढ़त्वमिति । = अज्ञानी लोगों के चित्त में चमत्कार अर्थात् आश्चर्य उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ जो धर्म है, उसको छोड़कर मिथ्यादृष्टिदेव, मिथ्या आगम और खोटा तप करने वाले कुलिंगी का भय से, वांछा से, स्नेह से और लोभ से जो धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदि करना सो समयमूढ़ता है ।
देखें - मूढ़ता - 4। पंचाध्यायी (अगुरु में गुरुबुद्धि गुरुमूढ़ता है) ।
- वैदिकमूढ़ता का स्वरूप
मूलाचार आराधना/२५८ ॠग्वेदसामवेदा वागणुवादादिवेदसत्थाइं । तुच्छाणित्ति ण गेण्हइ वेदियमूढो हवदि एसो ।२५८। = ॠग्वेद, सामवेद, प्रायश्चित्तादि वाक् मनुस्मृति आदि अनुवाक् आदि शब्द से यजुर्वेद, अथर्ववेद - ये सब हिंसा के उपदेशक हैं । इसलिए धर्म रहित निरर्थक हैं । ऐसा न समझकर जो ग्रहण करता है, सो वैदिकमूढ़ है ।