ध्येय: Difference between revisions
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<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/81 </span><span class="PrakritGatha">उद्धद्धमज्झलोए केइ मज्झं ण अहमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं।81।</span>=<span class="HindiText">ऊर्ध्व मध्य और अधो इन तीनों लोकों में, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हूँ। ऐसी भावना करने से योगी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/9/35 </span>)</span><br /> | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/81 </span><span class="PrakritGatha">उद्धद्धमज्झलोए केइ मज्झं ण अहमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं।81।</span>=<span class="HindiText">ऊर्ध्व मध्य और अधो इन तीनों लोकों में, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हूँ। ऐसी भावना करने से योगी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/9/35 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/104 </span><span class="SanskritGatha">अशरणमशुभअनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवं। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायं तु सामयिके।104।</span>=<span class="HindiText">मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दु:खमय और पररूप संसार में निवास करता हूँ और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/104 </span><span class="SanskritGatha">अशरणमशुभअनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवं। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायं तु सामयिके।104।</span>=<span class="HindiText">मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दु:खमय और पररूप संसार में निवास करता हूँ और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिए।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> इष्टोपदेश/27 </span><span class="SanskritGatha">एकोऽहं निर्मम: शुद्धो ज्ञानी योगींद्रगोचर:। बाह्या: संयोगजा भावा मत्त: सर्वेऽपि सर्वथा।27।</span>=<span class="HindiText">मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानी योगींद्रों के ज्ञान का विषय हूँ। इनके सिवाय जितने भी स्त्री धन आदि संयोगीभाव हैं, वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। (<span class="GRef"> सामायिक पाठ/अ./26 </span>), (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/187/257/14 | <span class="GRef"> इष्टोपदेश/27 </span><span class="SanskritGatha">एकोऽहं निर्मम: शुद्धो ज्ञानी योगींद्रगोचर:। बाह्या: संयोगजा भावा मत्त: सर्वेऽपि सर्वथा।27।</span>=<span class="HindiText">मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानी योगींद्रों के ज्ञान का विषय हूँ। इनके सिवाय जितने भी स्त्री धन आदि संयोगीभाव हैं, वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। (<span class="GRef"> सामायिक पाठ/अ./26 </span>), (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/187/257/14 पर उद्धृत </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/9/24-65 </span><span class="PrakritGatha">अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाप्पगो सदारूवी णवि अत्थि मज्झि किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।24। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चइ अठ्ठकम्मेहिं।26। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। एवं खलु जो भाओ सो पावइ सासयं ठाणं।28। णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किं पि। एवं खलु जो भावइ सो पावइ सव्वकल्लाणं।34। केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावो सुहमइओ। केवलविरियसहाओ सो हं इदि चिंतए णाणी।46।</span>=<span class="HindiText">मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक और अरूपी हूँ। मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है।24। मैं न परपदार्थों का हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हूँ।26। न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ।28। (<span class="GRef"> प्रवचनसार/160 </span>); (<span class="GRef"> आराधनासार/101 </span>)। न मैं परपदार्थों का हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं। यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है।34। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हूँ, इस प्रकार ज्ञानी जीव को विचार करना चाहिए।46। (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/391-397,404-408 </span>); (<span class="GRef">सामायिक पाठ/अ./24 </span>); (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/18/29 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/147-159 </span>)</span><br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/9/24-65 </span><span class="PrakritGatha">अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाप्पगो सदारूवी णवि अत्थि मज्झि किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।24। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चइ अठ्ठकम्मेहिं।26। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। एवं खलु जो भाओ सो पावइ सासयं ठाणं।28। णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किं पि। एवं खलु जो भावइ सो पावइ सव्वकल्लाणं।34। केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावो सुहमइओ। केवलविरियसहाओ सो हं इदि चिंतए णाणी।46।</span>=<span class="HindiText">मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक और अरूपी हूँ। मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है।24। मैं न परपदार्थों का हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हूँ।26। न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ।28। (<span class="GRef"> प्रवचनसार/160 </span>); (<span class="GRef"> आराधनासार/101 </span>)। न मैं परपदार्थों का हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं। यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है।34। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हूँ, इस प्रकार ज्ञानी जीव को विचार करना चाहिए।46। (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/391-397,404-408 </span>); (<span class="GRef">सामायिक पाठ/अ./24 </span>); (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/18/29 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/147-159 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/31/1-16 </span><span class="PrakritGatha"> स्वविभ्रमसमुद्भूतै रागाद्यतुलबंधनै:। बद्धो विडंबित: कालमनंतं जन्मदुर्गमे।2। परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वंचित:। आपातमात्ररम्यैस्तैर्विषयैरंतनीरसै:।8। मम शक्त्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिन:। एतावानानयोर्भेद: शक्तिव्यक्तिस्वभावत:।10। अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुष:। न देव: किंतु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रम:।12। अनंतवीर्यविज्ञानदृगानंदात्मकोऽप्यहम् । किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ।13।</span>=<span class="HindiText">मैंने अपने ही विभ्रम से उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबंधनों से बँधे हुए अनंतकाल पर्यंत संसाररूप दुर्गम मार्ग में विडंबनारूप होकर विपरीताचरण किया।2। यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्श्रेष्ठ है, महान् है, तो भी वर्तमान देखने मात्र को रमणीक और अंत में नीरस ऐसे इंद्रियों के विषयों से ठगाया गया हूँ।8। अनंत चतुष्टयादि गुणसमूह मेरे तो शक्ति की अपेक्षा विद्यमान है और अर्हंत सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनों में भेद है।10। न तो मैं नारकी हूँ, न तिर्यंच हूँ और न मनुष्य या देव ही हूँ किंतु सिद्धस्वरूप हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो कर्मविपाक से उत्पन्न हुई हैं।12। मैं अनंतवीर्य, अनंतविज्ञान, अनंतदर्शन व अनंतआनंदस्वरूप हूँ। इस कारण क्या विषवृक्ष के समान इन कर्मशत्रुओं को जड़मूल से न उखाड़ं।13। </span><br><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/285/365/13 </span><span class="SanskritText"> बंधस्य विनाशार्थं विशेषभावनामाहसहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानंदरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्य:, प्राप्यो, भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ-पंचेंद्रियविषयव्यापार:, मनोवचनकायव्यापार-भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्वविभावपरिणामरहित:। शून्योऽहं जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायै: कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवा: इति निरंतरं भावना कर्तव्या।</span>=<span class="HindiText">बंध का विनाश करने के लिए विशेष भावना कहते हैं ‒ मैं तो सहज ज्ञानानंदस्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासीन हूँ। निरंजन निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप सुखानुभूति ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञान के गम्य हूँ। भरितावस्थावत् परिपूर्ण हूँ। राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया व लोभ से तथा पंचेंद्रियों के विषयों से, मनोवचनकाय के व्यापार से, भावकर्म द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित हूँ। ख्याति-पूजा-लाभ से देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षारूप निदान तथा माया मिथ्या इन तीन शल्यों को आदि लेकर सर्व विभाव परिणामों से रहित हूँ। तिहुँलोक तिहुँकाल में मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदना के द्वारा शुद्ध निश्चय से मैं शून्य हूँ। इसी प्रकार सब जीवों को भावना करनी चाहिए। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/परि.</span> का अंत )</span></li> | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/31/1-16 </span><span class="PrakritGatha"> स्वविभ्रमसमुद्भूतै रागाद्यतुलबंधनै:। बद्धो विडंबित: कालमनंतं जन्मदुर्गमे।2। परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वंचित:। आपातमात्ररम्यैस्तैर्विषयैरंतनीरसै:।8। मम शक्त्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिन:। एतावानानयोर्भेद: शक्तिव्यक्तिस्वभावत:।10। अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुष:। न देव: किंतु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रम:।12। अनंतवीर्यविज्ञानदृगानंदात्मकोऽप्यहम् । किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ।13।</span>=<span class="HindiText">मैंने अपने ही विभ्रम से उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबंधनों से बँधे हुए अनंतकाल पर्यंत संसाररूप दुर्गम मार्ग में विडंबनारूप होकर विपरीताचरण किया।2। यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्श्रेष्ठ है, महान् है, तो भी वर्तमान देखने मात्र को रमणीक और अंत में नीरस ऐसे इंद्रियों के विषयों से ठगाया गया हूँ।8। अनंत चतुष्टयादि गुणसमूह मेरे तो शक्ति की अपेक्षा विद्यमान है और अर्हंत सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनों में भेद है।10। न तो मैं नारकी हूँ, न तिर्यंच हूँ और न मनुष्य या देव ही हूँ किंतु सिद्धस्वरूप हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो कर्मविपाक से उत्पन्न हुई हैं।12। मैं अनंतवीर्य, अनंतविज्ञान, अनंतदर्शन व अनंतआनंदस्वरूप हूँ। इस कारण क्या विषवृक्ष के समान इन कर्मशत्रुओं को जड़मूल से न उखाड़ं।13। </span><br><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/285/365/13 </span><span class="SanskritText"> बंधस्य विनाशार्थं विशेषभावनामाहसहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानंदरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्य:, प्राप्यो, भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ-पंचेंद्रियविषयव्यापार:, मनोवचनकायव्यापार-भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्वविभावपरिणामरहित:। शून्योऽहं जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायै: कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवा: इति निरंतरं भावना कर्तव्या।</span>=<span class="HindiText">बंध का विनाश करने के लिए विशेष भावना कहते हैं ‒ मैं तो सहज ज्ञानानंदस्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासीन हूँ। निरंजन निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप सुखानुभूति ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञान के गम्य हूँ। भरितावस्थावत् परिपूर्ण हूँ। राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया व लोभ से तथा पंचेंद्रियों के विषयों से, मनोवचनकाय के व्यापार से, भावकर्म द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित हूँ। ख्याति-पूजा-लाभ से देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षारूप निदान तथा माया मिथ्या इन तीन शल्यों को आदि लेकर सर्व विभाव परिणामों से रहित हूँ। तिहुँलोक तिहुँकाल में मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदना के द्वारा शुद्ध निश्चय से मैं शून्य हूँ। इसी प्रकार सब जीवों को भावना करनी चाहिए। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/परि.</span> का अंत )</span></li> |
Revision as of 14:13, 5 October 2022
सिद्धांतकोष से
क्योंकि पदार्थों का चिंतक ही जीवों के प्रशस्त या अप्रशस्त भावों का कारण है, इसलिए ध्यान के प्रकरण में यह विवेक रखना आवश्यक है, कि कौन व कैसे पदार्थ ध्यान किये जाने योग्य हैं और कौन नहीं।
- ध्येय सामान्य निर्देश
- आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश।‒देखें धर्मध्यान - 1।
- पाँच धारणाओं का निर्देश।‒देखें पिंडस्थध्यान ।
- आग्नेयी आदि धारणाओं का स्वरूप।‒देखें वह वह नाम ।
- आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश।‒देखें धर्मध्यान - 1।
- द्रव्यरूप ध्येय निर्देश
- पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश
- पंच परमेष्ठी का स्वरूप।‒देखें वह वह नाम ।
- निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश
- भावरूप ध्येय निर्देश
- ध्येय सामान्य निर्देश
- ध्येय का लक्षण
चारित्रसार/167/2 ध्येयमप्रशस्तप्रशस्तपरिणामकारणं।=जो अशुभ तथा शुभ परिणामों का कारण हो उसे ध्येय कहते हैं।
- ध्येय के भेद
महापुराण/21/111 श्रुतमर्थाभिधानं च प्रत्ययश्चेत्यदस्त्रिधा।=शब्द, अर्थ और ज्ञान इस तरह तीन प्रकार का ध्येय कहलाता है।
तत्त्वानुशासन/98,99,131 आज्ञापायो विपाकं च संस्थानं भुवनस्य च। यथागममविक्षिप्तचेतसा चिंतयेंमुनि:।98। नाम च स्थापना द्रव्यं भावश्चेति चतुर्विधम् । समस्तं व्यस्तमप्येतद् ध्येयमध्यात्मवेदिभि:।99। एवं नामादिभेदेन ध्येयमुक्तं चतुर्विधम् । अथवा द्रव्यभावाभ्यां द्विधैव तदवस्थितम् ।131।=मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और लोकसंस्थान का आगम के अनुसार चित्त की एकाग्रता के साथ चिंतवन करे।98। अध्यात्मवेत्ताओं के द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप चार प्रकार का ध्येय समस्त तथा व्यस्त दोनों रूप से ध्यान के योग्य माना गया है।99। अथवा द्रव्य और भाव के भेद से वह दो प्रकार का ही अवस्थित है।
- आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश‒देखें धर्मध्यान - 1।
- नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश
तत्त्वानुशासन/100 वाच्यस्य वाचकं नामं प्रतिमा स्थापना मता।=वाच्य का जो वाचक शब्द वह नामरूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना मानी गयी है।
और भी देखें पदस्थध्यान (नामरूप ध्येय अर्थात् अनेक प्रकार के मंत्रों व स्वरव्यंजन आदि का ध्यान)।
- पाँच धारणाओं का निर्देश‒देखें पिंडस्थध्यान
- आग्नेयी आदि धारणाओं का स्वरूप‒देखें वह वह नाम ।
- ध्येय का लक्षण
- द्रव्यरूप ध्येय निर्देश
- प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है
तत्त्वानुशासन/110-115 गुणपर्ययवद्द्रव्यम् ।100। यथैकमेकदा द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्नुनश्वरम् । तथैव सर्वदा सर्वमिति तत्त्वं विचिंतयेत् ।110। अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्याया: प्रतिक्षणम् । उंमज्जंति निमज्जंति जलकल्लोलवज्जले।112। यद्विवृतं यथा पूर्वं यच्च पश्चाद्विवत्र्स्यति। विवर्तते यदत्राद्य तदेवेदमिदं च तत् ।113। सहवृत्ता गुणास्तत्र पर्याया: क्रमवर्तिन:। स्यादेतदात्मकं द्रव्यभेते च स्युस्तदात्मका:।114। एवंविधमिदं वस्तु स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकम् । प्रतिक्षणमनाद्यनंतं सर्वं ध्येयं यथा स्थितम् ।115।=द्रव्यरूप ध्येय गुणपर्यायवान् होता है।100। जिस प्रकार एकद्रव्य एकसमय में उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होता है, उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदा काल उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होते रहते हैं।110। द्रव्य जो कि अनादि निधन है, उसमें प्रतिक्षण स्व पर्यायें जल में कल्लोलों की तरह उपजती तथा विनशती रहती हैं।112। जो पूर्व क्रमानुसार विवर्तित हुआ है, होगा और हो रहा है वही सब यह (द्रव्य) है और यही सब उन सबरूप है।113। द्रव्य में गुण सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती हैं। द्रव्य इन गुणपर्यायात्मक है और गुणपर्याय द्रव्यात्मक है।114। इस प्रकार यह द्रव्य नाम की वस्तु जो प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप है तथा अनादिनिधन है वह सब यथावस्थित रूप में ध्येय है।115। ( ज्ञानार्णव/31/17 )। - चेतनाचेतन पदार्थों का यथावस्थितरूप ध्येय है
ज्ञानार्णव/31/18 अमी जीवादयो भावाश्चिदचिल्लक्षलांछिता:। तत्स्वरूपाविरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभि:।18।=जो जीवादिक षट्द्रव्य चेतन अचेतन लक्षण से लक्षित हैं, अविरोधरूप से उन यथार्थ स्वरूप ही बुद्धिमान् जनों द्वारा धर्मध्यान में ध्येय होता है। ( ज्ञानसार/17 ); ( तत्त्वानुशासन/111,132 )। - सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं
धवला 13/5,4,26/3 जिणउवइट्ठणवपयत्था वा ज्झेयं होंति।=जिनेंद्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय हैं। महापुराण/20/108 अहं ममास्रवो बंध: संवरो निर्जराक्षय:। कर्मणामिति तत्त्वार्था ध्येया: सप्त नवाथवा।108।=मैं अर्थात् जीव और मेरे अजीव आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा कर्मों का क्षय होने रूप मोक्ष इस प्रकार से सात तत्त्व या पुण्य पाप मिला देने से नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य है। - अनीहित वृत्ति से समस्त वस्तुएँ ध्येय हैं
धवला 13/5,4,26/32/70 आलंबणेहि भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स। जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलंबणं होइ।=यह लोक ध्यान के आलंबनों से भरा हुआ है। ध्यान में मन लगाने वाला क्षपक मन से जिस-जिस वस्तु को देखता है, वह वह वस्तु ध्यान का आलंबन होती है।
महापुराण/21/17 ध्यानस्यालंबनं कृत्स्नं जगत्तत्त्वं यथास्थितम् । विनात्मात्मीयसंकल्पाद् औदासीन्ये निवेशितम् ।=जगत् के समस्त तत्त्व जो जिस रूप से अवस्थित हैं और जिनमें मैं और मेरेपन का संकल्प न होने से जो उदासीनरूप से विद्यमान हैं वे सब ध्यान के आलंबन हैं।17। ( महापुराण/21/19-21 ); ( द्रव्यसंग्रह/55 ); ( तत्त्वानुशासन/138 )। पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/25 में उद्धृत ‒ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । =अपने-अपने स्वरूप में यथा स्थित वस्तु ध्येय है।
- प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है
- पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश
- सिद्ध का स्वरूप ध्येय है
धवला 13/5,4,26/69/4 को ज्झाइज्जइ। जिणो वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिकालगोयराणंतपज्जाओवचियछद्दव्वो णवकेवललद्धिप्पहुडिअणंतगुणेहि आरद्धदिव्वदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो...सव्वलक्खणसंपुण्णदंप्पणसंकंतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलमाणुसपहावुत्तिण्णो अव्वओ अक्खओ।...सगसरूवे दिण्णचित्तजीवाणमसेसपावपणासओ...ज्झेयं होंति। =प्रश्न‒ध्यान करने योग्य कौन है ? उत्तर‒जो वीतराग है, केवलज्ञान के द्वारा जिसने त्रिकालगोचर अनंत पर्यायों से उपचित छह द्रव्यों को जान लिया है, नव केवललब्धि आदि अनंत गुणों के साथ जो आरंभ हुए दिव्य देह को धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनि संभव है, अदग्ध है, अछेद्य है...(तथा अन्य भी अनेकों) समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है, अतएव दर्पण में सक्रांत हुई मनुष्य की छाया के समान होकर भी समस्त मनुष्यों के प्रभाव से परे हैं, अव्यक्त हैं, अक्षय हैं। (तथा सिद्धों के प्रसिद्ध आठ या बारह गुणों से समवेत है (देखें मोक्ष - 3)। जिन जीवों ने अपने स्वरूप में चित्त लगाया है उनके समस्त पापों का नाश करने वाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने योग्य है। ( महापुराण/21/111-119 ); ( तत्त्वानुशासन/120-122 )।
ज्ञानार्णव/31/17 शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर:। सर्वज्ञ: सकल: शिव: स भगवान्सिद्ध: परो निष्कल:।17।=शुद्धध्यान से नष्ट हुआ है कर्मरूप आवरण जिनका ऐसे मुक्ति के वर सर्वज्ञदेव सकल अर्थात् शरीर सहित तो अर्हंत भगवान् है अर्थात् निष्कल सिद्ध भगवान् है। ( तत्त्वानुशासन/119 )
- अर्हंत का स्वरूप ध्येय है
महापुराण/21/120-130 अथवा स्नातकावस्थां प्राप्तो घातिव्यपायत:। जिनोऽर्हन् केवली ध्येयो बिभ्रत्तेजोमयं वपु:।120।=घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से जो स्नातक अवस्था को प्राप्त हुए हैं, और जो तेजोमय परम औदारिक शरीर को धारण किये हुए हैं ऐसे केवलज्ञानी अर्हंत जिन ध्यान करने योग्य हैं।120। वे अर्हंत हैं, वे सिद्ध हैं, विश्वदर्शी व विश्वज्ञ हैं।121-122। अनंतचतुष्टय जिनको प्रगट हुआ है।123। समवशरण में विराजमान व अष्टप्रातिहार्यों युक्त हैं।124। शरीर सहित होते हुए भी ज्ञान से विश्वरूप हैं।125। विश्वव्यापी, विश्वतोमुख, विश्वचक्षु, लोकशिखामणि हैं।126। सुखमय, निर्भय, नि:स्पृह, निर्बाध, निराकुल, निरपेक्ष, नीरोग, नित्य, कर्मरहित।127-128। नव केवललब्धियुक्त, अभेद्य, अच्छेद्य, निश्चल।129। ऐसे लक्षणों से लक्षित, परमेष्ठी, परंतत्त्व, परंज्योति, व अक्षर स्वरूप अर्हंत भगवान् ध्येय हैं।130। ( तत्त्वानुशासन/123-129 )।
ज्ञानार्णव/31/17 शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर:। सर्वज्ञ: सकल: शिव: स भगवान्सिद्ध: परो निष्कल:।=शुद्धध्यान से नष्ट हुआ है कर्मरूपी आवरण जिनका ऐसे मुक्ति के वर, सर्वज्ञ, देहसहित समस्त कल्याण के पूरक अर्हंतभगवान् ध्येय हैं।
- अर्हंत का ध्यान पदस्थ पिंडस्थ व रूपस्थ तीनों ध्यानों में होता है
द्रव्यसंग्रह टीका/50 की पातनिका/209/8 पदस्थपिंडस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति...।=पदस्थ, पिंडस्थ और रूपस्थ इन तीन ध्यानों के ध्येयभूत जो श्री अर्हंत सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूप को दिखलाता हूँ।
- आचार्य उपाध्याय साधु भी ध्येय हैं
तत्त्वानुशासन/130 सम्यग्ज्ञानादिसंपन्ना: प्राप्तसप्तमहर्द्धय:। यथोक्तलक्षणा ध्येया सूर्युपाध्यायसाधव:।130।=जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से संपन्न हैं, तथा जिन्हें सात महाऋद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त हुई हैं, और जो यथोक्त लक्षण के धारक हैं ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधु ध्यान के योग्य हैं।
- पंचपरमेष्ठीरूप ध्येय की प्रधानता
तत्त्वानुशासन/119,140 तत्रापि तत्त्वत: पंच ध्यातव्या: परमेष्ठिन:।119। संक्षेपेण यदत्रोक्तं विस्तारात्परमागमे। तत्सर्वं ध्यातमेव स्याद् ध्यातेषु परमेष्ठिसु।140।=आत्मा के ध्यान में भी वस्तुत: पंच परमेष्ठी ध्यान किये जाने के योग्य हैं।119। जो कुछ यहाँ संक्षेपरूप से तथा परमागम में विस्ताररूप से कहा गया है वह सब परमेष्ठियों के ध्याये जाने पर ध्यात हो जाता है। अथवा पंचपरमेष्ठियों का ध्यान कर लिया जाने पर सभी श्रेष्ठ व्यक्तियों व वस्तुओं का ध्यान उसमें समाविष्ट हो जाता है।140।
- सिद्ध का स्वरूप ध्येय है
- पंच परमेष्ठी का स्वरूप‒देखें वह वह नाम ।
- निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश
- निज शुद्धात्मा ध्येय है
तिलोयपण्णत्ति/9/41 गय सित्थमूसगब्भायारो रयणत्तयादिगुणजुत्तो। णियआदा ज्झायव्वो खयहिदो जीवघणदेसो।41।=मोमरहित मूषक के अभ्यंतर आकाश के आकार, रत्नत्रयादि गुणों युक्त, अनश्वर और जीवघनदेशरूप निजात्मा का ध्यान करना चाहिए।41।
राजवार्तिक/9/27/7/625/34 एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वार्थे चिंतानियमो इत्यर्थ:/...।=एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु (आत्मा की निर्विकल्प अवस्था) में चित्तवृत्ति को केंद्रित करना ध्यान है। (देखें परमाणु )
महापुराण/21/18,228 अथवा ध्येयमध्यात्मतत्त्वं मुक्तेतरात्मकम् । तत्तत्त्वचिंतनं ध्यात: उपयोगस्य शुद्धये।18। ध्येयं स्याद् परमं तत्त्वमवाङ्मानसगोचरम् ।228।=संसारी व मुक्त ऐसे दो भेदवाले आत्मतत्त्व का चिंतवन ध्याता के उपयोग की विशुद्धि के लिए होता है।18। मन वचन के अगोचर शुद्धात्म तत्त्व ध्येय है।228।
ज्ञानार्णव/31/20-21 अथ लोकत्रयीनाममूर्त्तं परमेश्वरम् । ध्यातुं प्रक्रमते साक्षात्परमात्मानमव्ययम् ।20। त्रिकालविषयं साक्षाच्छक्तिव्यक्तिविवक्षया। सामान्येन नयेनैकं परमात्मानमामनेत् ।21।=तीन लोक के नाथ अमूर्तीक परमेश्वर परमात्मा अविनाशी का ही साक्षात् ध्यान करने का प्रारंभ करे।20। शक्ति और व्यक्ति की विवक्षा से तीन काल के गोचर साक्षात् सामान्य (द्रव्यार्थिक) नय से एक परमात्मा का ध्यान व अभ्यास करे।21।
- शुद्धपारिणामिक भाव ध्येय है
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41 पंचानां भावानां मध्ये...पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरणसंयुक्तत्वात् न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजननिजपरमपंचमभावभावनया पंचमगतिं मुमुक्षवो यांति यास्यंति गताश्चेति।=पाँच भावों में से पूर्वोक्त चार भाव आवरण संयुक्त होने से मुक्ति के कारण नहीं है। निरुपाधि निजस्वरूप है, ऐसे निरंजन निज परमपंचमभाव की भावना से पंचमगति (मोक्ष) में मुमुक्षु जाते हैं जायेंगे और जाते थे।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/8 यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। स एव रागादिविकल्परहिते मोक्षकारणभूते ध्यानभावनापर्याये ध्येयो भवति।=जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपरमपारिणामिकभावरूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी ऐसा नहीं है। रागादि विकल्पों से रहित मोक्ष का कारणभूत ध्यान भावनापर्याय में वही मोक्ष (त्रिकाल निरुपाधि शुद्धात्मस्वरूप) ध्येय होता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/39/10 )
- आत्मा रूप ध्येय की प्रधानता
तत्त्वानुशासन/117-118 पुरुष: पुद्गल: कालो धर्माधर्मौ तथांबरं । षडविधं द्रव्यमाख्यातं तत्र ध्येयतम: पुमान् ।117। सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते। ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतम: स्मृत:।118।=पुरुष (जीव), पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म और आकाश ऐसे छह भेदरूप द्रव्य कहा गया है। उन द्रव्यभेदों में सबसे अधिक ध्यान के योग्य पुरुषरूप आत्मा है।117। ज्ञाता के होने पर ही, ज्ञेय ध्येयता को प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम है।118।
- निज शुद्धात्मा ध्येय है
- भावरूप ध्येय निर्देश
- भावरूप ध्येय का लक्षण
तत्त्वानुशासन/100,132 भाव: स्याद्गुणपर्ययौ।100। भावध्येयं पुनर्ध्येयसंनिभध्यानपर्यय:।132।=गुण व पर्याय दोनों भावरूप ध्येय है।100। ध्येय के सदृश्य ध्यान की पर्याय भावध्येयरूप से परिगृहीत है।132।
- सभी द्रव्यों के यथावस्थित गुणपर्याय ध्येय हैं
धवला 13/5,4,26/70 बारसअणुपेक्खाओ उवसमसेडिखवगसेडिचडविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंचपरियट्टाणि ट्ठिदिअणुभागपयडिपदेसादि सव्वं पि ज्झेयं होदि त्ति दट्ठव्वं।=बारह अनुप्रेक्षाएँ, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पर आरोहणविधि, तेईस वर्गणाएँ, पाँच परिवर्तन, स्थिति अनुभाग प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य हैं।
तत्त्वानुशासन/116 अर्थव्यंजनपर्याया: मूर्तामूर्ता गुणाश्च ये। यत्र द्रव्ये यथावस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मरेत् ।116।= जो अर्थ तथा व्यंजनपर्यायें और मूर्तीक तथा अमूर्तीक गुण जिस द्रव्य में जैसे अवस्थित हैं, उनको वहाँ उसी रूप में ध्याता चिंतन करे।
- रत्नत्रय व वैराग्य की भावनाएँ ध्येय हैं
धवला 13/5,4,26/68 पुव्वकयब्भासो भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि। ताओ य णाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ।23।=जिसने पहले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है, वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है। और वे भावनाएँ ज्ञान दर्शन चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती हैं। ( महापुराण/21/94-95 )
नोट‒(सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र की भावनाएँ‒देखें वह वह नाम और वैराग्य भावनाएँ‒देखें अनुप्रेक्षा )
- ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाएँ
मोक्षपाहुड़/81 उद्धद्धमज्झलोए केइ मज्झं ण अहमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं।81।=ऊर्ध्व मध्य और अधो इन तीनों लोकों में, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हूँ। ऐसी भावना करने से योगी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है। ( तिलोयपण्णत्ति/9/35 )
रत्नकरंड श्रावकाचार/104 अशरणमशुभअनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवं। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायं तु सामयिके।104।=मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दु:खमय और पररूप संसार में निवास करता हूँ और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिए।
इष्टोपदेश/27 एकोऽहं निर्मम: शुद्धो ज्ञानी योगींद्रगोचर:। बाह्या: संयोगजा भावा मत्त: सर्वेऽपि सर्वथा।27।=मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानी योगींद्रों के ज्ञान का विषय हूँ। इनके सिवाय जितने भी स्त्री धन आदि संयोगीभाव हैं, वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। ( सामायिक पाठ/अ./26 ), ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/187/257/14 पर उद्धृत )
तिलोयपण्णत्ति/9/24-65 अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाप्पगो सदारूवी णवि अत्थि मज्झि किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।24। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चइ अठ्ठकम्मेहिं।26। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। एवं खलु जो भाओ सो पावइ सासयं ठाणं।28। णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किं पि। एवं खलु जो भावइ सो पावइ सव्वकल्लाणं।34। केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावो सुहमइओ। केवलविरियसहाओ सो हं इदि चिंतए णाणी।46।=मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक और अरूपी हूँ। मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है।24। मैं न परपदार्थों का हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हूँ।26। न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ।28। ( प्रवचनसार/160 ); ( आराधनासार/101 )। न मैं परपदार्थों का हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं। यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है।34। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हूँ, इस प्रकार ज्ञानी जीव को विचार करना चाहिए।46। ( नयचक्र बृहद्/391-397,404-408 ); (सामायिक पाठ/अ./24 ); ( ज्ञानार्णव/18/29 ); ( तत्त्वानुशासन/147-159 )
ज्ञानार्णव/31/1-16 स्वविभ्रमसमुद्भूतै रागाद्यतुलबंधनै:। बद्धो विडंबित: कालमनंतं जन्मदुर्गमे।2। परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वंचित:। आपातमात्ररम्यैस्तैर्विषयैरंतनीरसै:।8। मम शक्त्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिन:। एतावानानयोर्भेद: शक्तिव्यक्तिस्वभावत:।10। अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुष:। न देव: किंतु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रम:।12। अनंतवीर्यविज्ञानदृगानंदात्मकोऽप्यहम् । किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ।13।=मैंने अपने ही विभ्रम से उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबंधनों से बँधे हुए अनंतकाल पर्यंत संसाररूप दुर्गम मार्ग में विडंबनारूप होकर विपरीताचरण किया।2। यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्श्रेष्ठ है, महान् है, तो भी वर्तमान देखने मात्र को रमणीक और अंत में नीरस ऐसे इंद्रियों के विषयों से ठगाया गया हूँ।8। अनंत चतुष्टयादि गुणसमूह मेरे तो शक्ति की अपेक्षा विद्यमान है और अर्हंत सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनों में भेद है।10। न तो मैं नारकी हूँ, न तिर्यंच हूँ और न मनुष्य या देव ही हूँ किंतु सिद्धस्वरूप हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो कर्मविपाक से उत्पन्न हुई हैं।12। मैं अनंतवीर्य, अनंतविज्ञान, अनंतदर्शन व अनंतआनंदस्वरूप हूँ। इस कारण क्या विषवृक्ष के समान इन कर्मशत्रुओं को जड़मूल से न उखाड़ं।13।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/285/365/13 बंधस्य विनाशार्थं विशेषभावनामाहसहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानंदरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्य:, प्राप्यो, भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ-पंचेंद्रियविषयव्यापार:, मनोवचनकायव्यापार-भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्वविभावपरिणामरहित:। शून्योऽहं जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायै: कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवा: इति निरंतरं भावना कर्तव्या।=बंध का विनाश करने के लिए विशेष भावना कहते हैं ‒ मैं तो सहज ज्ञानानंदस्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासीन हूँ। निरंजन निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप सुखानुभूति ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञान के गम्य हूँ। भरितावस्थावत् परिपूर्ण हूँ। राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया व लोभ से तथा पंचेंद्रियों के विषयों से, मनोवचनकाय के व्यापार से, भावकर्म द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित हूँ। ख्याति-पूजा-लाभ से देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षारूप निदान तथा माया मिथ्या इन तीन शल्यों को आदि लेकर सर्व विभाव परिणामों से रहित हूँ। तिहुँलोक तिहुँकाल में मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदना के द्वारा शुद्ध निश्चय से मैं शून्य हूँ। इसी प्रकार सब जीवों को भावना करनी चाहिए। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/परि. का अंत )
- भावरूप ध्येय का लक्षण
पुराणकोष से
(1) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.45,25.108
(2) ध्यान के विषय । ये विषय हैं― अध्यात्म, प्रमाण और नयों से सिद्ध-तत्त्वों का ज्ञान, पंचपरमेष्ठी, मोक्षमार्ग-रत्नत्रय अनुप्रेक्षाएं । महापुराण 21.1721, 94-95, 107-130, 228