संयम: Difference between revisions
From जैनकोष
Sachinjain (talk | contribs) No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 85: | Line 85: | ||
<p class="HindiText" id="1"> <strong>भेद व लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1"> <strong>भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.1"> <strong> 1. संयम का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.1"> <strong> 1. संयम का लक्षण</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 7/2,1,3/7/3 </span><span class="SanskritText">सम्यक् यमो वा संयम:।</span> =<span class="HindiText">सम्यक् रूप से यम अर्थात् नियंत्रण सो संयम है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#3 | चारित्र - 3]]/7 [संयमन करने को संयम कहते हैं। अर्थात् भावसंयम से रहित द्रव्यसंयम संयम नहीं है।]।</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#3 | चारित्र - 3]]/7 [संयमन करने को संयम कहते हैं। अर्थात् भावसंयम से रहित द्रव्यसंयम संयम नहीं है।]।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2"> <strong>2. व्यवहार संयम का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.2"> <strong>2. व्यवहार संयम का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2.1"> 1. व्रत समिति गुप्ति आदि की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText" id="1.2.1"> 1. व्रत समिति गुप्ति आदि की अपेक्षा</p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> प्रवचनसार/240 </span><span class="PrakritText">पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदिय संबुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो।240। | ||
</span>=<span class="HindiText"> | </span>=<span class="HindiText">पंच समिति युक्त, पाँच इंद्रियों के संवरवाला, तीन गुप्ति सहित, कषायों को जीतने वाला, दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत कहा गया है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> प्रवचनसार/ प्रक्षेपक गाथा /मूल/240-1 </span><span class="PrakritText">चागो व अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं। सो संजमोत्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण।</span> =<span class="HindiText">बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग, मन वचन कायरूप व्यापार से निवृत्ति सो अनारंभ, इंद्रिय विषयों से विरक्तता, कषायों का क्षय यह सामान्यरूप से संयम का लक्षण कहा गया है। विशेष रूप से प्रव्रज्या की अवस्थाएँ होती हैं।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/28</span> <span class="PrakritText">पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियासु। पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं णिरायारं।28।</span> =<span class="HindiText">पाँच इंद्रियों का संवर (देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]) पाँच व्रत और पच्चीस क्रिया, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनका सद्भाव निरागार संयमाचरण चारित्र है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> बारस अणुवेक्खा/76 </span><span class="PrakritText">वदसमिदिपालणाए दंडच्चाएण इंदियजएण। परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा।76। | ||
</span>=<span class="HindiText">व्रत व समितियों का पालन, मन वचन काय की प्रवृत्ति का त्याग, इंद्रियजय यह सब जिसको होते हैं उसको नियम से संयम धर्म होता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">व्रत व समितियों का पालन, मन वचन काय की प्रवृत्ति का त्याग, इंद्रियजय यह सब जिसको होते हैं उसको नियम से संयम धर्म होता है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/127 </span><span class="PrakritText">वदसमिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचण्हं। धारणपालणणिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ।127।</span> =<span class="HindiText">पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चारकषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दंडों का त्याग करना और पाँच इंद्रियों का जीतना (देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]) सो संयम कहा गया है।127। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/ गाथा 92/145</span>); (<span class="GRef"> धवला 7/2,1,3/7/2 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/465/876 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ तप#2.1 | तप - 2.1 ]](तेरह प्रकार के चारित्र में प्रयत्न करना संयम है।)</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ तप#2.1 | तप - 2.1 ]](तेरह प्रकार के चारित्र में प्रयत्न करना संयम है।)</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3"> <strong>3. निश्चय संयम का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.3"> <strong>3. निश्चय संयम का लक्षण</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/14,242 </span><span class="SanskritText">सकलषड्जीवनिकायनिशुंभनविकल्पात्पंचेंद्रियाभिलाषविकल्पाच्चव्यावर्त्यात्मन: | ||
शुद्धस्वरूपैसंयमनात् ...।14। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियांतरनिवृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्येन...परिणतस्यात्मनि यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं।242।</span> =<span class="HindiText">1. समस्त छह जीवनिकाय के हनन के विकल्प से और पंचेंद्रिय संबंधी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्य करके आत्मा शुद्धस्वरूप में संयमन करने से (संयमयुक्त है)। 2. ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार प्रतीति, तथा प्रकार अनुभूति और क्रियांतर से निवृत्ति के द्वारा रचित उसी तत्त्व में परिणति, ऐसे लक्षण वाले सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनों पर्यायों की युगपतता के द्वारा परिणत आत्मा में आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतपना होता है...।</span></p> | शुद्धस्वरूपैसंयमनात् ...।14। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियांतरनिवृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्येन...परिणतस्यात्मनि यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं।242।</span> =<span class="HindiText">1. समस्त छह जीवनिकाय के हनन के विकल्प से और पंचेंद्रिय संबंधी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्य करके आत्मा शुद्धस्वरूप में संयमन करने से (संयमयुक्त है)। 2. ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार प्रतीति, तथा प्रकार अनुभूति और क्रियांतर से निवृत्ति के द्वारा रचित उसी तत्त्व में परिणति, ऐसे लक्षण वाले सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनों पर्यायों की युगपतता के द्वारा परिणत आत्मा में आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतपना होता है...।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1117 </span><span class="SanskritText">शुद्धस्वात्मोपलब्धि: स्यात् संयमो निष्क्रियस्य च। | ||
</span>=<span class="HindiText">निष्क्रिय आत्मा के स्वशुद्धात्मा की उपलब्धि ही संयम कहलाता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">निष्क्रिय आत्मा के स्वशुद्धात्मा की उपलब्धि ही संयम कहलाता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.4"> <strong>4. संयम मार्गणा की अपेक्षा भेद व लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.4"> <strong>4. संयम मार्गणा की अपेक्षा भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 123/368</span> <span class="PrakritText">संजमाणुवादेण अत्थि संजदा सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदा चेदि।123।</span> =<span class="HindiText">संयम मार्गणा के अनुवाद से सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपराय शुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत ये पाँच प्रकार के संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं।123। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/2 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.3 | चारित्र - 1.3 ]][सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ऐसे चारित्र पाँच प्रकार के हैं।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.3 | चारित्र - 1.3 ]][सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ऐसे चारित्र पाँच प्रकार के हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>नोट</strong> - [इनके लक्षणों के लिए-देखें [[ वह वह नाम ]]।]</p> | <p class="HindiText"> <strong>नोट</strong> - [इनके लक्षणों के लिए-देखें [[ वह वह नाम ]]।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.5"> <strong>5. निक्षेपों की अपेक्षा भेद व लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.5"> <strong>5. निक्षेपों की अपेक्षा भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 7/1,1,48/91/5 </span><span class="PrakritText">णायसंजमो ठवणसंजमो दव्वसंजमो भावसंजमो चेदि चउव्विहो संजमो। ...तव्वदिरित्तदव्वसंजमो संजमसाहणपिच्छाहारकवलीपोत्थयादीणि। भावसंजमो दुविहो आगमणोआगमभेएण। आगमो गदो। णोआगमो तिविहो खइओ खओवसमिओ उवसमिओ चेदि। | ||
</span>=<span class="HindiText">नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम। इस प्रकार संयम चार प्रकार का है। (नाम स्थापना आदि भेद-प्रभेद निक्षेपवत् जानने)। तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम संयम के साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमंडलु, पुस्तक आदि को कहते हैं। भावसंयम आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है - आगमभावसंयम तो गया, अर्थात् निक्षेपवत् जानना। नोआगम भावसंयम तीन प्रकार का है - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक। [तहाँ क्षायोपशमिक संयम के लिए। - | </span>=<span class="HindiText">नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम। इस प्रकार संयम चार प्रकार का है। (नाम स्थापना आदि भेद-प्रभेद निक्षेपवत् जानने)। तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम संयम के साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमंडलु, पुस्तक आदि को कहते हैं। भावसंयम आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है - आगमभावसंयम तो गया, अर्थात् निक्षेपवत् जानना। नोआगम भावसंयम तीन प्रकार का है - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक। [तहाँ क्षायोपशमिक संयम के लिए। - | ||
देखें [[ संयत#2 | संयत - 2]] और औपशमिक व क्षायिक के लिए - देखें [[ श्रेणी ]]]।</span></p> | देखें [[ संयत#2 | संयत - 2]] और औपशमिक व क्षायिक के लिए - देखें [[ श्रेणी ]]]।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.6"> <strong>6. सकल व देश संयम की अपेक्षा</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.6"> <strong>6. सकल व देश संयम की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/21</span> <span class="PrakritText">दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं। सायारं सग्गंथे परिग्गहो रहिय खलु णिरायारं।21।</span> =<span class="HindiText">संयम चरण चारित्र दो प्रकार का है - सागार तथा निरागार। सागार तो परिग्रहसहित श्रावक के होता है, बहुरि निरागार परिग्रह से रहित मुनिकै होता है।21।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/50 </span><span class="SanskritText">सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।50।</span> =<span class="HindiText">वह चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है। समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित मुनियों के सकल चारित्र और गृहस्थों के विकल चारित्र होता है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/40 </span><span class="SanskritText">हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मत: परिग्रहत:। कात्स्न्र्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।40।</span> =<span class="HindiText">हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों के सर्वदेश व एकदेश त्याग से चारित्र दो प्रकार का होता है। (देखें [[ व्रत#3.1 | व्रत - 3.1]])।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef"> लब्धिसार/ मूल/168/221</span> <span class="PrakritText">दुविहा चरित्तलद्धी देसे सयले...।</span> =<span class="HindiText">चारित्र की लब्धि सकल व देश के भेद से दो प्रकार है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/160/231/13 </span><span class="SanskritText">चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्रंथविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपम् गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययनग्रंथविहितमार्गेण पंचमगुणस्थानयोग्यं दानशीलपूजोपवासादिरूपं दार्शनिक व्रतिकाद्येकादशनिलयरूपं वा इति।</span> =<span class="HindiText">मुनियों का चारित्र आचारांग आदि चारित्र विषयक ग्रंथों में कथित मार्ग से, प्रमत्त व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों के योग्य (देखें [[ संयत ]]) पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, छह आवश्यक आदि रूप होता है (देखें [[ संयम#1.2 | संयम - 1.2]]) और गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन आदि ग्रंथों में कथित मार्ग से, पंचमगुणस्थान के योग्य (देखें [[ संयत ]]ासंयत) दान, शील, पूजा, उपवास आदि रूप होता है। अथवा दार्शनिक प्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि 11 स्थानों रूप होता है - (देखें [[ श्रावक ]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> सिद्धांत प्रवेशिका/224-225 श्रावक के व्रतों को देशचारित्र कहते हैं।224। मुनियों के व्रतों को सकल चारित्र कहते हैं।225।</p> | <p class="HindiText"> सिद्धांत प्रवेशिका/224-225 श्रावक के व्रतों को देशचारित्र कहते हैं।224। मुनियों के व्रतों को सकल चारित्र कहते हैं।225।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.7"> <strong>7 अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.7"> <strong>7 अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.7.1"> 1. लक्षण</p> | <p class="HindiText" id="1.7.1"> 1. लक्षण</p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/15/596/29 </span><span class="SanskritText">संयमो हि द्विविध: - उपेक्षासंयमोऽपहृतसंयमश्चेति। देशकालविधानज्ञस्य परानुपरोधेन उत्सृष्टकायस्य त्रिधा गुप्तस्य रागद्वेषानभिष्वंगलक्षण उपेक्षासंयम:। अपहृतसंयमस्त्रिविध: उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति। तत्र प्रासुकवस्त्याहारमात्रबाह्यसाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरणस्य बाह्यजंतूपनिपाते आत्मानं ततोऽपहृत्य जीवान् प्रतिपालयत उत्कृष्ट:, मृदुना प्रमृज्य जंतूं परिहरतो मध्यम:, उपकरणांतरेच्छया जघन्य:।</span> =<span class="HindiText">संयम दो प्रकार का होता है - एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम। देश और काल के विधान को समझने वाले स्वाभाविक रूप से शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्ति के राग और द्वेषरूप चित्तवृत्ति का न होना उपेक्षासंयम है। अपहृतसंयम उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार है। प्रासुक, वसति और आहारमात्र हैं। बाह्यसाधन जिनके, तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्ररूप करण जिनके ऐसे साधु का बाह्य जंतुओं के आने पर उनसे अपने को बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरण से जंतुओं को बुहार देने वाले मध्यम और अन्य उपकरणों की इच्छा रखने वाले के जघन्य अपहृत संयम होता है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/65/7-75/2 </span>) (और भी | ||
देखें [[ संयम#1.9 | संयम - 1.9]])।</span></p> | देखें [[ संयम#1.9 | संयम - 1.9]])।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/64 </span><span class="SanskritText">अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमंडलुप्रभृतय: अतस्ते परमजिनमुनय: एकांततो निस्पृहा:, अतएव बाह्योपकरणनिर्मुक्ता।=</span><span class="HindiText">यह अपहृतसंयमियों को संयमज्ञानादिक के उपकरण लेते, रखते समय उत्पन्न होने वाली समिति का प्रकार कहा है। उपेक्षा संयमियों को पुस्तक, कमंडलु आदि नहीं होते, वे परम जिनमुनि एकांत में निस्पृह होते हैं, इसलिए वे बाह्य उपकरण रहित होते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.7.2"> 2. दोनों की वीतराग व सराग चारित्र के साथ एकार्थता</p> | <p class="HindiText" id="1.7.2"> 2. दोनों की वीतराग व सराग चारित्र के साथ एकार्थता</p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/67/188/15 </span> <span class="SanskritText">अथवोपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव संभवत:। | ||
</span>=<span class="HindiText">उपेक्षासंयम और अपहृतसंयम जिनको कि वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनों भी उन शुद्धोपयोगियों को ही होते हैं।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">उपेक्षासंयम और अपहृतसंयम जिनको कि वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनों भी उन शुद्धोपयोगियों को ही होते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.14 | चारित्र - 1.14]],15 [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयत, सरागचारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द, तथा उत्सर्ग, निश्चयनय सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं।</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.14 | चारित्र - 1.14]],15 [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयत, सरागचारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द, तथा उत्सर्ग, निश्चयनय सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं।</p> | ||
Line 132: | Line 132: | ||
<p class="HindiText" id="1.8"> <strong>8. प्राणि व इंद्रिय संयम के लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.8"> <strong>8. प्राणि व इंद्रिय संयम के लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ असंयम ]][असंयम दो प्रकार का है - प्राणि असयंम और इंद्रिय असंयम। तहाँ षट्काय जीवों की विराधना प्राणि असंयम है और इंद्रिय विषयों में प्रवृत्ति इंद्रिय असंयम है। (इससे विपरीत प्राणि व इंद्रिय संयम हैं - यथा)]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ असंयम ]][असंयम दो प्रकार का है - प्राणि असयंम और इंद्रिय असंयम। तहाँ षट्काय जीवों की विराधना प्राणि असंयम है और इंद्रिय विषयों में प्रवृत्ति इंद्रिय असंयम है। (इससे विपरीत प्राणि व इंद्रिय संयम हैं - यथा)]</p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> मूलाचार/418</span> <span class="PrakritText">पंचरस पंचवण्ण दोगंधे अट्ठफास सत्तसरा। मणसा चोद्दसजीवा इंदियपाणा य संजमो णेओ।</span> =<span class="HindiText">पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध, आठ स्पर्श, षड्ज आदि सात स्वर ये सब मन के 28 विषय हैं। इनका निरोध सो इंद्रिय संयम है और चौदह प्रकार की जीवों की (देखें [[ जीव समास ]]) रक्षा करना सो प्राणि संयम है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/128 </span><span class="PrakritText">सगवण्ण जीवहिंसा अट्ठावीसिंदियत्थ दोसा य। तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ।128।</span> =<span class="HindiText">पहले जीवसमास प्रकरण में जो सत्तावन प्रकार के जीव बता आये हैं (देखें [[ जीवसमास ]]) उनकी हिंसा से तथा अठाईस प्रकार के इंद्रिय विषयों के (देखें [[ संदर्भ सं#1 | संदर्भ सं - 1]]) दोषों से विरति भाव का होना संयम है।128।</span></p> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/11 </span><p class="SanskritText">प्राणींद्रियेष्वशुभप्रवृत्तेर्विरति: संयम:।</p> | |||
<p> | <p> <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/6/412/1 </span><span class="SanskritText">समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणींद्रियपरिहारस्संयम:।</span> =<span class="HindiText">1. प्राणियों व इंद्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/12/6/522/21 </span>)। 2. समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के उनका परिपालन करने के लिए जो प्राणियों का और इंद्रियों का परिहार होता है, वह संयम है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/14/696/26 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/75/1 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/6/18 </span>); (<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशति/1/96</span>)</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/14/696/27 </span><span class="SanskritText">एकेंद्रियादिप्राणिपीडापरिहार: प्राणिसंयम:। शब्दादिष्विंद्रियार्थेषु रागानभिष्वंग इंद्रियसंयम:।</span> =<span class="HindiText">एकेंद्रियादि प्राणियों की पीड़ा का परिहार प्राणिसंयम है और शब्दादि जो इंद्रियों के विषय उनमें राग का अभाव सो इंद्रिय संयम है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/75/1 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/6/37-38/591 </span>)।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/399 </span><span class="PrakritText">जो जीवरक्खणपरो गमणागमणादिसव्वकज्जेसु। तणछेदं पि ण इच्छदि संजमधम्मो हवे तस्स।</span> =<span class="HindiText">जीव रक्षा में तत्पर जो मुनि गमनागमन आदि सब कार्यों में तृण का भी छेद नहीं करना चाहता उस मुनि के (प्राणि) संयम धर्म होता है।399।</span></p> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/123 </span><p class="SanskritText">संयम: सकलेंद्रियव्यापारपरित्याग:।</p> <p class="HindiText">=समस्त इंद्रियों के व्यापार का परित्याग सो संयम है।</p> | |||
<p> | <p> <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1118-1122 </span><span class="SanskritText">पंचानामिंद्रियाणां च मनसश्च निरोधनात् । स्यादिंद्रियनिरोधाख्य: संयम: प्रथमो मत:।1118। स्थावराणां च पंचानां त्रसस्यापि च रक्षणात् । असुसंरक्षणाख्य: स्याद्द्वितीय: प्राणसंयम:।1119। सत्यमक्षार्थसंबंधाज्ज्ञानं नासंयमाय यत् । तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तन्निरोधनम् ।1121। त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मन:। न वचो न वपु: क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।1122।</span> =<span class="HindiText">पाँचों इंद्रियों व मन के रोकने में इंद्रिय संयम और त्रस स्थावरों की रक्षा प्राणसंयम है।1118-1119। इंद्रियों द्वारा जो अर्थविषयक ज्ञान होता है वह असंयम नहीं है, बल्कि उन विषयों में राग वृद्धि का न होना इंद्रिय संयम है।1121। और इसी प्रकार त्रस व स्थावर जीवों में से किसी के भी वध के लिए मन, वचन व काय का उद्यत न होना सो प्राणिसंयम है।1122।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.9"> <strong>9. प्राणि व इंद्रिय संयम के 17 भेद</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.9"> <strong>9. प्राणि व इंद्रिय संयम के 17 भेद</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> मूलाचार/416-417</span> <span class="PrakritText">पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो। विगतिचदुपंचेंदिय अजीवकायेसु संजमणं।416। अप्पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेक्खावहरणदु संजमो चेव। मणवयणकायसंजम सत्तरस विधो दु णादव्वो।417।</span> =<span class="HindiText">पृथिवी, अप्, तेज, वायु व वनस्पति ये पाँच स्थावरकाय और दो, तीन, चार व पाँच इंद्रिय वाले चार त्रस जीव इनकी रक्षा में 9 प्रकार तो प्राणि संयम है, सूखे तृण आदि का छेदन न करना ऐसा 1 भेद अजीवकाय की रक्षारूप है।416। अप्रतिलेखन, दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षासंयम, अपहृतसंयम, मन, वचन व काय संयम, इस प्रकार कुल मिलकर 17 संयम होते हैं।417। (यहाँ पीछी से द्रव्य का शोधन सो प्रतिलेख संयम है और अप्रमाद रहित यत्नपूर्वक शोधन दुष्प्रतिलेख संयम है।)</span></p> | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<p class="HindiText" id="2"> <strong>नियम व शंका-समाधान आदि</strong></p> | <p class="HindiText" id="2"> <strong>नियम व शंका-समाधान आदि</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.1"> <strong> 1. संयम व विरति में अंतर</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.1"> <strong> 1. संयम व विरति में अंतर</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 14/5,6,16/12/1 </span><span class="PrakritText">संजम-विरईणं को भेदो। ससमिदिमहव्वयाणुव्वयाइं संजमो। समईहि विणा महव्वयाणुव्वया विरई।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - संयम और विरति में क्या भेद है ? <strong>उत्तर</strong> - समितियों के साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं। और समितियों के बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं। (<span class="GRef"> चारित्रसार/40/1 </span>)</span></p> | ||
<p> <span class="HindiText">देखें [[ संवर#2.5 | संवर - 2.5 ]][विरति प्रवृत्तिरूप होती है और संयम निवृत्ति रूप।]</span></p> | <p> <span class="HindiText">देखें [[ संवर#2.5 | संवर - 2.5 ]][विरति प्रवृत्तिरूप होती है और संयम निवृत्ति रूप।]</span></p> | ||
<p> <strong class="HindiText" id="2.2">2. संयम गुप्ति व समिति में अंतर</strong></p> | <p> <strong class="HindiText" id="2.2">2. संयम गुप्ति व समिति में अंतर</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/11-15/596/15 </span><span class="SanskritText">अथ क: संयम:। कश्चिदाह - भाषादिनिवृत्तिरिति। न भाषादिनिवृत्ति: संयम: गुप्त्यंतर्भावात् ।11। गुप्तिर्हि निवृत्तिप्रवणा, अतोऽत्रांतर्भावात् संयमाभाव: स्यात् । अपरमाह - कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा संयम इति। नापि कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा; समितिप्रसंगात् ।12। समितयो हि कायादिदोषनिवृत्तय:, अतस्तत्रांतर्भाव: प्रसज्यते। त्रसस्थावरवधप्रतिषेध आत्यंतिक: संयम इति चेत्, न; परिहारविशुद्धिचारित्रांतर्भावात् ।12। ...कस्तर्हि संयम:। समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणींद्रियपरिहार: संयम:।14। अतोऽपहृतसंयमभेदसिद्धि:।15।</span> =<span class="HindiText">1. कोई भाषादि की निवृत्ति को संयम कहता है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसका गुप्ति में अंतर्भाव हो जाता है। गुप्ति निवृत्तिप्रधान होती है इसलिए उपरोक्त लक्षण में संयम का अभाव है। 2. काय आदि की प्रवृत्ति को भी संयम कहना ठीक नहीं है; क्योंकि काय आदि दोषों की निवृत्ति करना समिति है। इसलिए इस लक्षण का समिति में अंतर्भाव हो जाने से वह संयम नहीं हो सकता। 3. त्रसस्थावर जीवों के वध का आत्यंतिक प्रतिषेध भी संयम नहीं है, क्योंकि परिहार विशुद्धि चारित्र में अंतर्भाव हो जाता है। 4. <strong>प्रश्न</strong> - तब फिर संयम क्या है ? <strong>उत्तर - </strong>समितियों में प्रवर्तमान जीव के प्राणिवध व इंद्रिय विषयों का परिहार संयम कहलाता है। इससे अपहृत संयम के भेदों की सिद्धि होती है। (अर्थात् अपहृत संयम दो प्रकार का है - प्राणि संयम व इंद्रिय संयम।) (<span class="GRef"> चारित्रसार/75/1 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/6/37/591 </span>)।</span></p> | ||
<p> <strong class="HindiText" id="2.3">3. चारित्र व संयम में अंतर</strong></p> | <p> <strong class="HindiText" id="2.3">3. चारित्र व संयम में अंतर</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/18/5/617/7 </span><span class="SanskritText">स्यादेतत् दशविधो धर्मो व्याख्यात:, तत्र संयमेऽंतर्भावोऽस्य प्राप्नोतीति; तन्न; किं कारणम् । अंते वचनस्य कृत्स्नकर्मक्षयहेतुत्वात् । धर्मे अंतर्भूतमपि चारित्रमंते गह्यते मोक्षप्राप्ते: साक्षात्कारणमिति ज्ञापनाय।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - दश प्रकार का धर्म कहा गया है। तहाँ संयम नाम के धर्म में चारित्र का अंतर्भाव प्राप्त होता है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, सकलकर्मों के क्षय का कारण होने से चारित्र मोक्ष का साक्षात्कारण है। और इसीलिए सूत्र में उसका अंत में ग्रहण किया गया है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.6 | चारित्र - 1.6 ]][चारित्र जीव का स्वभाव है पर संयम नहीं।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.6 | चारित्र - 1.6 ]][चारित्र जीव का स्वभाव है पर संयम नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.4"> <strong>4. इंद्रिय संयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.4"> <strong>4. इंद्रिय संयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता</strong></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef"> मूलाचार/988-989</span> <span class="PrakritText">जिब्भोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे। पत्तो अणंतसो तो जिब्भोवत्थे जह दाणिं।988। चदुरंगुला च जिब्भा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि। अठ्ठंगुलदोसेण दु जीवो दुक्खं हु पप्पोदि।989।</span> =<span class="HindiText">इस अनादिसंसार में इस जीव ने जिह्वा व उपस्थ इंद्रिय के कारण अनंत बार दु:ख पाया। इसलिए अब इन दोनों को जीत।988। चार अंगुल प्रमाण तो अशुभ यह जिह्वा इंद्रिय और चार ही अंगुल प्रमाण अशुभ यह उपस्थ इंद्रिय, इन आठ अंगुलों के दोष से यह जीव दु:ख पाता है।989।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef">कुरल काव्य/13/7</span> <span class="SanskritText">अन्येषां विजयो मास्तु संयतां रसनां कुरु। असंयतो यतो जिह्वा बह्वपायैरधिष्ठिता।7।</span> =<span class="HindiText">और किसी इंद्रिय को चाहे मत रोको, पर अपनी जिह्वा को अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगाम की जिह्वा बहुत दु:ख देती है।7।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ रसपरित्याग#2 | रसपरित्याग - 2 ]][जिह्वा के वश होने पर सब इंद्रियाँ वश हो जाती हैं।]।</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ रसपरित्याग#2 | रसपरित्याग - 2 ]][जिह्वा के वश होने पर सब इंद्रियाँ वश हो जाती हैं।]।</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.5"> <strong>5. इंद्रिय व मनोजय का उपाय</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.5"> <strong>5. इंद्रिय व मनोजय का उपाय</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> भगवती आराधना 1837-1838 </span><span class="PrakritText">इंदियदुद्दंतस्सा णिग्घिप्पंति दमणाणखलिणेहिं। उप्पहगामी णिघिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया।1837। अणिहुदमणसा इंदियसप्पाणि णिगेंडिदुं ण तीरंति। विज्जामंतोसधहीणेणव आसीविसा सप्पा।1838।</span> =<span class="HindiText">उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों का जैसे लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना से इंद्रियरूपी अश्वों का निग्रह हो सकता है।1837। विद्या, औषध और मंत्र से रहित मनुष्य जैसे आशीविष सर्पों के वश करने को समर्थ नहीं होते वैसे ही इंद्रिय-सर्प भी मन की एकाग्रता नष्ट होने से ज्ञान के द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते।1838।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/29</span> <span class="PrakritText">अमण्णुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य। ण करेइ रायदोसे पंचेंदियसंवरो अणिओ।</span> =<span class="HindiText">पाँचों इंद्रियों के विषयभूत अमनोज्ञ पदार्थों में तथा स्त्री-पुत्रादि जीवरूप और धन आदि अजीवरूप ऐसे मनोज्ञ पदार्थों में राग-द्वेष का न करना ही पाँच इंद्रियों का संवर है। (मू.आ./17-21)।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef">कुरल काव्य/35/3</span><span class="SanskritText">निग्रहं कुरु पंचानामिंद्रियाणां विकारिणाम् । प्रियेषु त्यज संमोहं त्यागस्यायं शुभक्रम:।3। | ||
</span>=<span class="HindiText">अपनी पाँचों इंद्रियों का दमन करो और जिन पदार्थों से तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिलकुल ही त्याग दो।3।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">अपनी पाँचों इंद्रियों का दमन करो और जिन पदार्थों से तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिलकुल ही त्याग दो।3।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/79 </span><span class="SanskritText">संचिंतयंननुप्रेक्षा: स्वाध्याये नित्यमुद्यत:। जयत्येव मन: साधुरिंद्रियार्थ-परांगमुख:।79।</span> =<span class="HindiText">जो साधु भले प्रकार अनुप्रेक्षाओं का सदा चिंतवन करता है, स्वाध्याय में उद्यमी और इंद्रिय विषयों से प्राय: मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही मन को जीतता है।79।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.6"> <strong>6. कषाय निग्रह का उपाय</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.6"> <strong>6. कषाय निग्रह का उपाय</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> भगवती आराधना/1836 </span><span class="PrakritText">उवसमदयादमाउहकरेण रक्खा कसायचोरेहिं। सक्का काउं आउहकरेण रक्खा व चोराणं।1836।</span> =<span class="HindiText">जैसे सशस्त्र पुरुष चोरों से अपना रक्षण करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रह रूप तीन शस्त्रों को धारण करने वाला कषायरूपी चोरों से अवश्य अपनी रक्षा करता है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> भगवती आराधना/260-268 </span> <span class="PrakritText">कोधं खयाए माणं च मद्दवेणाज्जवं च मायं च। संतोसेण य लोहं जिणदु खु चत्तारि वि कसाए।260। तं वत्थुं मोत्तव्वं जे पडिउप्पज्जदे कसायग्गि। तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं।262। तम्हा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमाणयं चेव। इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि।267।</span> | ||
<span class="HindiText">= हे क्षपक ! तू क्षमारूप परिणामों से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और संतोष से लोभ कषाय को जीतो।260। जिस वस्तु के निमित्त से कषायरूपी अग्नि होती है वह त्याग देनी चाहिए और कषाय का शमन करने वाली वस्तु का आश्रय करना चाहिए।262। [धीरे-धीरे बढ़ते हुए कषाय अनंतानुबंधी और मिथ्यात्व तक का कारण बन जाती है] इसलिए यह कषायाग्नि अब पाप को उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही, हे भगवन् ! आपका उपदेश ग्रहण करता हूँ। मेरे पाप मिथ्या होवें मैं आपका वंदन करता हूँ, ऐसे वचनरूप जल से शांत करना चाहिए।267।</span></p> | <span class="HindiText">= हे क्षपक ! तू क्षमारूप परिणामों से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और संतोष से लोभ कषाय को जीतो।260। जिस वस्तु के निमित्त से कषायरूपी अग्नि होती है वह त्याग देनी चाहिए और कषाय का शमन करने वाली वस्तु का आश्रय करना चाहिए।262। [धीरे-धीरे बढ़ते हुए कषाय अनंतानुबंधी और मिथ्यात्व तक का कारण बन जाती है] इसलिए यह कषायाग्नि अब पाप को उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही, हे भगवन् ! आपका उपदेश ग्रहण करता हूँ। मेरे पाप मिथ्या होवें मैं आपका वंदन करता हूँ, ऐसे वचनरूप जल से शांत करना चाहिए।267।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/2/184</span> <span class="PrakritText">णिठ्ठुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ। तो लहु भावहि बंभु परु जिं मणु झत्ति विलाइ।184।</span> =<span class="HindiText"> हे जीव ! जो कोई अविवेकी किसी को कठोर वचन कहे, उसको सुनकर जो न सह सके तो कषाय दूर करने के लिए परब्रह्म का मन में शीघ्र ध्यान करो।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> आत्मानुशासन/213 </span><span class="SanskritText">हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे, वसति खलु कषायग्राहचक्रं समंतात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशंकं, सयमशमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व।</span> =<span class="HindiText">निर्मल और अथाह हृदयरूप सरोवर में जब तक कषायोंरूप हिंस्र जलजंतुओं का समूह निवास करता है, तब तक निश्चय से यह उत्तम क्षमादि गुणों का समुदाय नि:शंक होकर उस हृदयरूप सरोवर का आश्रय नहीं लेता है। इसलिए हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीव्र-मध्यमादि उपशम भेदों से उन कषायों के जीतने का प्रयत्न कर।213।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/279/ कलश 176 </span> <span class="SanskritText">इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन स:। रागादोन्नात्मन: कुर्यान्नातो भवति कारक:।176।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभाव को जानता है, इसलिए वह रागादि को निजरूप नहीं करता, अत: वह रागादिक का कर्ता नहीं है।176। (देखें [[ चेतना#3.2 | चेतना - 3.2]],3)।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef">योगसार/अमितगति/5/7</span> <span class="SanskritText">विशुद्धदर्शनज्ञानचारित्रमयमुज्जवलम् । यो ध्यायत्यात्मानात्मानं कषायं क्षपयत्यसौ।7। | ||
</span>=<span class="HindiText">अपनी आत्मा से ही विशुद्ध दर्शनज्ञान चारित्रमयी उज्ज्वलस्वरूप अपनी आत्मा का जो ध्यान करता है वह अवश्य ही समस्त कषायों का नाश कर देता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">अपनी आत्मा से ही विशुद्ध दर्शनज्ञान चारित्रमयी उज्ज्वलस्वरूप अपनी आत्मा का जो ध्यान करता है वह अवश्य ही समस्त कषायों का नाश कर देता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ राग#5.3 | राग - 5.3 ]][राग और द्वेष का मूल कारण परिग्रह है। अत: उसका त्याग करके रागद्वेष को जीत लेता है।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ राग#5.3 | राग - 5.3 ]][राग और द्वेष का मूल कारण परिग्रह है। अत: उसका त्याग करके रागद्वेष को जीत लेता है।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.7"> <strong>7. संयमपालनार्थ भावना विशेष</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.7"> <strong>7. संयमपालनार्थ भावना विशेष</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/627/599/19 </span><span class="SanskritText">संयमो ह्यात्महित: तमुतिष्ठिन्निहैव पूज्यते परत्र किमस्ति वाच्यम् । असंयत: प्राणिवधविषयरणेषु नित्यप्रवृत्त: कर्माशुभं संचिनुते।</span> =<span class="HindiText">संयमी पुरुष की यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या ? असंयमी निरंतर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ कर्मों का संचय करता है।</span></p> | ||
<p> <span class=" | <p> <span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशति/1/97</span> <span class="SanskritText">मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वेवाप्तवच: श्रुति: स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने। प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि परं स्यातां न यनोज्झिते, स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयम:।97।</span> =<span class="HindiText">इस संसारी प्राणी को मनुष्यत्व, उत्तम जाति आदि, जिनवाणी श्रवण, लंबी आयु, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक अधिक दुर्लभ हैं। ये सब भी संयम के बिना स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फल को नहीं दे सकते, इसलिए संयम कैसे प्रशंसनीय नहीं है। (और भी | ||
देखें [[ अनुप्रेक्षा#1.11 | अनुप्रेक्षा - 1.11]])।</span></p> | देखें [[ अनुप्रेक्षा#1.11 | अनुप्रेक्षा - 1.11]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.8"> <strong>8. पंचम काल में भी संभव है</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.8"> <strong>8. पंचम काल में भी संभव है</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> रयणसार/38 </span><span class="PrakritText">सम्मविसोही तवगुणचारित्तसण्णाणदानपरिधाणं। भरहे दुस्समकाले मणुयाणं जायदे णियदं।38।</span> =<span class="HindiText">इस दुस्सह दु:खम (पंचम) काल में मनुष्य के सम्यग्दर्शन सहित तप व्रत अठाईस मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं।38।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ धर्मध्यान#5 | धर्मध्यान - 5 ]][यद्यपि पंचम काल में शुक्लध्यान संभव नहीं परंतु अपनी अपनी भूमिकानुसार तरतमता लिये धर्मध्यान अवश्य संभव है]।</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ धर्मध्यान#5 | धर्मध्यान - 5 ]][यद्यपि पंचम काल में शुक्लध्यान संभव नहीं परंतु अपनी अपनी भूमिकानुसार तरतमता लिये धर्मध्यान अवश्य संभव है]।</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.9"> <strong>9. जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.9"> <strong>9. जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.9.1"> 1. तिर्यंचों में</p> | <p class="HindiText" id="2.9.1"> 1. तिर्यंचों में</p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 5/1,6,37/32/4 </span><span class="PrakritText">एत्थ वे उवदेसा। तं जहा-तिरिक्खेसु वेमासमुहुत्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं जीवो पडिवज्जदि।...एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...तिरिक्खेसु तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवस-अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च पडिवज्जदि। ...एसा उत्तरपडिवत्ती।</span> =<span class="HindiText"> इस विषय में दो उपदेश हैं। वे इस प्रकार हैं - 1. तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव, दो मास और मुहूर्त पृथक्त्व से ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त करता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। 2. वह तीन पक्ष, तीन दिवस और अंतर्मुहूर्त के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5 ]][तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव दिवस पृथक्त्व से लगाकर उपरिमकाल में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है नीचे के काल में नहीं।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5 ]][तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव दिवस पृथक्त्व से लगाकर उपरिमकाल में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है नीचे के काल में नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.9.2"> 2. मनुष्यों में</p> | <p class="HindiText" id="2.9.2"> 2. मनुष्यों में</p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 5/1,6,37/32/4 </span><span class="PrakritText">एत्थ वे उवदेसा। तं जहा...मणुसेसु गब्भादि अट्ठवस्सेसु अंतोमुहुत्तब्भहिएसु सम्मतं संजमं संजामसंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...मणुसेसु अट्ठवस्साणुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा उत्तरपडिवत्ती।</span> =<span class="HindiText"> इस विषय में दो उपदेश हैं - 1. मनुष्यों में गर्भकाल से प्रारंभकर अंतर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। (<span class="GRef"> धवला 5/1,6,69/52 </span>) 2. वह आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 9/4,1,66/307/5 </span><span class="PrakritText">मणुस्सेसु वासपुधत्तेण विणा मासपुधत्तब्भंतरे सम्मत्त-संजम-संजमासंजमाणं गहणाभावादो।</span> =<span class="HindiText"> मनुष्यों में वर्ष पृथक्त्व के बिना मास पृथक्त्व के भीतर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,59/278/12 </span><span class="PrakritText">गब्भादो णिक्खंतपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि हेट्ठा ण होदि त्ति ऐसो भावत्थो। गब्भम्मि पदिदपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, जोणिणिक्खभणजम्मणेणेत्ति वयणण्णहाणुवत्तीदो। जदि गब्भम्मि पदिदपढमसमयादो अट्ठवस्साणि घेप्पंति तो गब्भवदणजम्मणेण अट्ठवस्सीओ जादो त्ति सुत्तकारो भणेज्ज। ण च एवं, तम्हा सत्तमासाहिय अट्ठहि वासेहि संजमं पडिवज्जदि त्ति एसो चेव अत्थो घेत्तव्वो; सव्वलहुणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">गर्भ से निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जाने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है, इसके पहले संयम ग्रहण के योग्य नहीं होता, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्षों के बीतने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर 'योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से' यह सूत्रवचन (इसी पुस्तक के सूत्र नं.72,59) नहीं बन सकता। यदि गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो 'गर्भपतनरूप जन्म से आठ वर्ष का हुआ' ऐसा सूत्रकार कहते हैं। किंतु उन्होंने ऐसा नहीं कहा है। इसलिए सात मास अधिक आठ वर्ष का होने पर संयम को प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्यथा सूत्र में 'सर्वलघु' पद का निर्देश घटित नहीं होता।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5 ]][जन्म लेने के पश्चात् आठ वर्षों के ऊपर प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसके नीचे नहीं।</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5 ]][जन्म लेने के पश्चात् आठ वर्षों के ऊपर प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसके नीचे नहीं।</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.9.3"> 3. सूक्ष्म आदि जीवों में</p> | <p class="HindiText" id="2.9.3"> 3. सूक्ष्म आदि जीवों में</p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> धवला 10/5,2,456/276/9 </span><span class="PrakritText">अपज्जत्तेहिंतो णिग्गयस्स सव्वलहुएण कालेण संजमासंजमग्गहणाभावादो। ...आउकाइयपज्जत्तेहिंतो मणुस्सेसुप्पण्णस्स सव्वलहुएण कालेण संजमादिगहणाभावादो।</span>=<span class="HindiText">अपर्याप्तकों में से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है। ...अप्कायिक पर्याप्तकों में से मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव के सर्वलघुकाल के द्वारा संयम आदि का ग्रहण संभव नहीं है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ जन्म#5 | जन्म - 5]]/5 [सूक्ष्म निगोदिया से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम या संयम का ग्रहण। सूक्ष्म निगोदिया से निकलकर सीधे मनुष्य होने वाले जीव युगपत् सम्यक्त्व व संयमासंयम ग्रहण नहीं कर सकते, बीच में एक भव त्रस का धारण करके मनुष्य में उत्पन्न होने वाले जीव के ही वह संभव है।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ जन्म#5 | जन्म - 5]]/5 [सूक्ष्म निगोदिया से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम या संयम का ग्रहण। सूक्ष्म निगोदिया से निकलकर सीधे मनुष्य होने वाले जीव युगपत् सम्यक्त्व व संयमासंयम ग्रहण नहीं कर सकते, बीच में एक भव त्रस का धारण करके मनुष्य में उत्पन्न होने वाले जीव के ही वह संभव है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> </p> | <p class="HindiText"> </p> | ||
<p class="HindiText" id="2.10"> <strong>10. पुन: पुन: संयमादि प्राप्त करने की सीमा</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.10"> <strong>10. पुन: पुन: संयमादि प्राप्त करने की सीमा</strong></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> षट्खंडागम 10/4,2,4/ सूत्र 71/294 </span><span class="PrakritText">एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजमकडयाणि अणुपालइयत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमासंजमकंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च अणुपालइत्ता एवं संसारिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो।71। | ||
</span>=<span class="HindiText">इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्व के कांडकों की तथा कषायोपशमना की संख्या कही गयी है। यथा - चार बार संयम को प्राप्त करने पर एक संयम कांडक होता है। ऐसे आठ ही संयम कांडक होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक 32 बार ही संयम का ग्रहण होता है। क्योंकि इससे आगे संसार नहीं रहता।) इन आठ संयमकांडों के भीतर कषायोपशामना के बार चार ही होते हैं। जीवस्थान चूलिका में जो चारित्र मोह के उपशामन विधान की और दर्शनमोह के उपशामन विधान की प्ररूपणा की गयी है, उसकी यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए। परंतु संयमासंयम कांडक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक पल्य/असं. के चौगुने बार संयमासंयम का ग्रहण होना संभव है। संयमासंयमकांडकों से सम्यक्त्वकांडक विशेष अधिक है, जो पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्व के कांडकों की तथा कषायोपशमना की संख्या कही गयी है। यथा - चार बार संयम को प्राप्त करने पर एक संयम कांडक होता है। ऐसे आठ ही संयम कांडक होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक 32 बार ही संयम का ग्रहण होता है। क्योंकि इससे आगे संसार नहीं रहता।) इन आठ संयमकांडों के भीतर कषायोपशामना के बार चार ही होते हैं। जीवस्थान चूलिका में जो चारित्र मोह के उपशामन विधान की और दर्शनमोह के उपशामन विधान की प्ररूपणा की गयी है, उसकी यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए। परंतु संयमासंयम कांडक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक पल्य/असं. के चौगुने बार संयमासंयम का ग्रहण होना संभव है। संयमासंयमकांडकों से सम्यक्त्वकांडक विशेष अधिक है, जो पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/619-619/822 </span><span class="PrakritText">सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजणविहिं च उक्कस्सं। पल्लासंखेज्जदियं वारं पडिवज्जदे जीवो।618। चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं बाराइं संजममुवलहिय णिव्वदि।619।</span> =<span class="HindiText">प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, देशसंयम और अनंतानुबंधी के विसंयोजन का विधान ये एक जीव में उत्कृष्टत: पल्योपम के असंख्यात बार ही होते हैं।618। उपशमश्रेणी चार बार चढ़ने के पीछे अवश्य कर्मों का क्षय होता है। संयम 32 बार होता है, पीछे अवश्य निर्वाण प्राप्त करता है। (<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/ टीका/5/488)</span>।</span></p> | ||
<p>भूतकालीन 12वें तीर्थंकर - देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]।</p> | <p class="HindiText"> भूतकालीन 12वें तीर्थंकर - देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]।</p> | ||
Revision as of 14:57, 24 December 2022
सिद्धांतकोष से
सम्यक् प्रकार यमन करना अर्थात् व्रत-समिति-गुप्ति आदि रूप से प्रवर्तना अथवा विशुद्धात्मध्यान में प्रवर्तना संयम है। तहाँ समिति आदि रूप प्रवर्तना अपहृत या व्यवहार संयम और दूसरा लक्षण उपेक्षा या निश्चय संयम है। इन्हीं दोनों को वीतराग व सराग चारित्र भी कहते हैं। अन्य प्राणियों की रक्षा करना प्राणिसंयम है और इंद्रियों के विषयों से विरक्त होना इंद्रिय संयम है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ऐसे इसके पाँच भेद हैं।
- भेद व लक्षण
- निश्चय व्यवहार चारित्र की कथंचित् मुख्यता गौणता। - देखें चारित्र - 4.7।
- संयम लब्धिस्थान व एकांतानुवृद्धि आदि संयम। - देखें लब्धि - 5।
- सामायिकादि संयम। - देखें शीर्षक सं - 4।
- क्षायोपशमिकादि संयम निर्देश। - देखें भाव - 2।
- सकल चारित्र देशचारित्र की अपेक्षा है यथाख्यात की अपेक्षा नहीं। - देखें संयत - 2.1 में गोम्मटसार जीवकांड ।
- नियम व शंका समाधान
- चारित्रमोह का उपशम क्षय व क्षयोपशम विधान। - देखें वह वह नाम ।
- सम्यक्त्व सहित ही होता है। - देखें चारित्र - 3।
- व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयमी नहीं। - देखें चारित्र - 3.8।
- सवस्त्रसंयम निषेध। - देखें वेद - 7.4।
- उत्सर्ग व अपवादसंयम निर्देश। - देखें अपवाद - 4।
- सयोगकेवली के संयम में भी कथंचित् मल का सद्भाव। - देखें केवली - 2.2।
- संयम में परीषहजय का अंतर्भाव। - देखें कायक्लेश ।
- इंद्रियसंयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता।
- इंद्रिय व मनोजय का उपाय।
- कषाय निग्रह का उपाय।
- संयम पालनार्थ भावना विशेष।
- पंचम काल में संभव है।
- निगोद से निकलकर सीधे संयम प्राप्ति करने संबंधी। - देखें जन्म - 5।
- संयमी मरकर देवगति में ही जन्मता है। - देखें जन्म - 5.6।
- संयममार्गणा में क्षायोपशमिक भाव संबंधी। - देखें संयत - 2।
- संयम का स्वामित्व
- सामायिक आदि संयमों का स्वामित्व। - देखें वह वह नाम ।
- क्षायोपशमिकादि संयमों का स्वामित्व (5-7 तक क्षायोपशमिक और आगे औपशमिक व क्षायिक)। - देखें वह वह गुणस्थान ।
- गुणस्थानों में परस्पर संयमों का आरोहण अवरोहण क्रम। - देखें संयत - 1.5।
- बद्धायुष्कों में केवल देवायु वाला ही संयम धारण कर सकता है। - देखें आयु - 6।
- स्त्री को या सचेल की संभव नहीं। - देखें वेद - 7.4।
- संयम मार्गणा में संभव जीवसमास मार्गणास्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
- संयम मार्गणा संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- संयमियों में कर्मों का बंध-उदय-सत्त्व। - देखें वह वह नाम ।
- सभी मार्गणा स्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें मार्गणा ।
भेद व लक्षण
1. संयम का लक्षण
धवला 7/2,1,3/7/3 सम्यक् यमो वा संयम:। =सम्यक् रूप से यम अर्थात् नियंत्रण सो संयम है।
देखें चारित्र - 3/7 [संयमन करने को संयम कहते हैं। अर्थात् भावसंयम से रहित द्रव्यसंयम संयम नहीं है।]।
2. व्यवहार संयम का लक्षण
1. व्रत समिति गुप्ति आदि की अपेक्षा
प्रवचनसार/240 पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदिय संबुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो।240। =पंच समिति युक्त, पाँच इंद्रियों के संवरवाला, तीन गुप्ति सहित, कषायों को जीतने वाला, दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत कहा गया है।
प्रवचनसार/ प्रक्षेपक गाथा /मूल/240-1 चागो व अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं। सो संजमोत्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण। =बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग, मन वचन कायरूप व्यापार से निवृत्ति सो अनारंभ, इंद्रिय विषयों से विरक्तता, कषायों का क्षय यह सामान्यरूप से संयम का लक्षण कहा गया है। विशेष रूप से प्रव्रज्या की अवस्थाएँ होती हैं।
चारित्तपाहुड़/ मूल/28 पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियासु। पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं णिरायारं।28। =पाँच इंद्रियों का संवर (देखें संयम - 2) पाँच व्रत और पच्चीस क्रिया, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनका सद्भाव निरागार संयमाचरण चारित्र है।
बारस अणुवेक्खा/76 वदसमिदिपालणाए दंडच्चाएण इंदियजएण। परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा।76। =व्रत व समितियों का पालन, मन वचन काय की प्रवृत्ति का त्याग, इंद्रियजय यह सब जिसको होते हैं उसको नियम से संयम धर्म होता है।
पंचसंग्रह / प्राकृत/127 वदसमिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचण्हं। धारणपालणणिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ।127। =पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चारकषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दंडों का त्याग करना और पाँच इंद्रियों का जीतना (देखें संयम - 2) सो संयम कहा गया है।127। ( धवला 1/1,1,4/ गाथा 92/145); ( धवला 7/2,1,3/7/2 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/465/876 )।
देखें तप - 2.1 (तेरह प्रकार के चारित्र में प्रयत्न करना संयम है।)
3. निश्चय संयम का लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/14,242 सकलषड्जीवनिकायनिशुंभनविकल्पात्पंचेंद्रियाभिलाषविकल्पाच्चव्यावर्त्यात्मन: शुद्धस्वरूपैसंयमनात् ...।14। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियांतरनिवृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्येन...परिणतस्यात्मनि यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं।242। =1. समस्त छह जीवनिकाय के हनन के विकल्प से और पंचेंद्रिय संबंधी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्य करके आत्मा शुद्धस्वरूप में संयमन करने से (संयमयुक्त है)। 2. ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार प्रतीति, तथा प्रकार अनुभूति और क्रियांतर से निवृत्ति के द्वारा रचित उसी तत्त्व में परिणति, ऐसे लक्षण वाले सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनों पर्यायों की युगपतता के द्वारा परिणत आत्मा में आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतपना होता है...।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1117 शुद्धस्वात्मोपलब्धि: स्यात् संयमो निष्क्रियस्य च। =निष्क्रिय आत्मा के स्वशुद्धात्मा की उपलब्धि ही संयम कहलाता है।
4. संयम मार्गणा की अपेक्षा भेद व लक्षण
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 123/368 संजमाणुवादेण अत्थि संजदा सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदा चेदि।123। =संयम मार्गणा के अनुवाद से सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपराय शुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत ये पाँच प्रकार के संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं।123। ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/2 )।
देखें चारित्र - 1.3 [सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ऐसे चारित्र पाँच प्रकार के हैं।]
नोट - [इनके लक्षणों के लिए-देखें वह वह नाम ।]
5. निक्षेपों की अपेक्षा भेद व लक्षण
धवला 7/1,1,48/91/5 णायसंजमो ठवणसंजमो दव्वसंजमो भावसंजमो चेदि चउव्विहो संजमो। ...तव्वदिरित्तदव्वसंजमो संजमसाहणपिच्छाहारकवलीपोत्थयादीणि। भावसंजमो दुविहो आगमणोआगमभेएण। आगमो गदो। णोआगमो तिविहो खइओ खओवसमिओ उवसमिओ चेदि। =नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम। इस प्रकार संयम चार प्रकार का है। (नाम स्थापना आदि भेद-प्रभेद निक्षेपवत् जानने)। तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम संयम के साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमंडलु, पुस्तक आदि को कहते हैं। भावसंयम आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है - आगमभावसंयम तो गया, अर्थात् निक्षेपवत् जानना। नोआगम भावसंयम तीन प्रकार का है - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक। [तहाँ क्षायोपशमिक संयम के लिए। - देखें संयत - 2 और औपशमिक व क्षायिक के लिए - देखें श्रेणी ]।
6. सकल व देश संयम की अपेक्षा
चारित्तपाहुड़/ मूल/21 दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं। सायारं सग्गंथे परिग्गहो रहिय खलु णिरायारं।21। =संयम चरण चारित्र दो प्रकार का है - सागार तथा निरागार। सागार तो परिग्रहसहित श्रावक के होता है, बहुरि निरागार परिग्रह से रहित मुनिकै होता है।21।
रत्नकरंड श्रावकाचार/50 सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।50। =वह चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है। समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित मुनियों के सकल चारित्र और गृहस्थों के विकल चारित्र होता है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/40 हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मत: परिग्रहत:। कात्स्न्र्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।40। =हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों के सर्वदेश व एकदेश त्याग से चारित्र दो प्रकार का होता है। (देखें व्रत - 3.1)।
लब्धिसार/ मूल/168/221 दुविहा चरित्तलद्धी देसे सयले...। =चारित्र की लब्धि सकल व देश के भेद से दो प्रकार है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/160/231/13 चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्रंथविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपम् गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययनग्रंथविहितमार्गेण पंचमगुणस्थानयोग्यं दानशीलपूजोपवासादिरूपं दार्शनिक व्रतिकाद्येकादशनिलयरूपं वा इति। =मुनियों का चारित्र आचारांग आदि चारित्र विषयक ग्रंथों में कथित मार्ग से, प्रमत्त व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों के योग्य (देखें संयत ) पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, छह आवश्यक आदि रूप होता है (देखें संयम - 1.2) और गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन आदि ग्रंथों में कथित मार्ग से, पंचमगुणस्थान के योग्य (देखें संयत ासंयत) दान, शील, पूजा, उपवास आदि रूप होता है। अथवा दार्शनिक प्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि 11 स्थानों रूप होता है - (देखें श्रावक )।
सिद्धांत प्रवेशिका/224-225 श्रावक के व्रतों को देशचारित्र कहते हैं।224। मुनियों के व्रतों को सकल चारित्र कहते हैं।225।
7 अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश
1. लक्षण
राजवार्तिक/9/6/15/596/29 संयमो हि द्विविध: - उपेक्षासंयमोऽपहृतसंयमश्चेति। देशकालविधानज्ञस्य परानुपरोधेन उत्सृष्टकायस्य त्रिधा गुप्तस्य रागद्वेषानभिष्वंगलक्षण उपेक्षासंयम:। अपहृतसंयमस्त्रिविध: उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति। तत्र प्रासुकवस्त्याहारमात्रबाह्यसाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरणस्य बाह्यजंतूपनिपाते आत्मानं ततोऽपहृत्य जीवान् प्रतिपालयत उत्कृष्ट:, मृदुना प्रमृज्य जंतूं परिहरतो मध्यम:, उपकरणांतरेच्छया जघन्य:। =संयम दो प्रकार का होता है - एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम। देश और काल के विधान को समझने वाले स्वाभाविक रूप से शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्ति के राग और द्वेषरूप चित्तवृत्ति का न होना उपेक्षासंयम है। अपहृतसंयम उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार है। प्रासुक, वसति और आहारमात्र हैं। बाह्यसाधन जिनके, तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्ररूप करण जिनके ऐसे साधु का बाह्य जंतुओं के आने पर उनसे अपने को बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरण से जंतुओं को बुहार देने वाले मध्यम और अन्य उपकरणों की इच्छा रखने वाले के जघन्य अपहृत संयम होता है। ( चारित्रसार/65/7-75/2 ) (और भी देखें संयम - 1.9)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/64 अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमंडलुप्रभृतय: अतस्ते परमजिनमुनय: एकांततो निस्पृहा:, अतएव बाह्योपकरणनिर्मुक्ता।=यह अपहृतसंयमियों को संयमज्ञानादिक के उपकरण लेते, रखते समय उत्पन्न होने वाली समिति का प्रकार कहा है। उपेक्षा संयमियों को पुस्तक, कमंडलु आदि नहीं होते, वे परम जिनमुनि एकांत में निस्पृह होते हैं, इसलिए वे बाह्य उपकरण रहित होते हैं।
2. दोनों की वीतराग व सराग चारित्र के साथ एकार्थता
परमात्मप्रकाश टीका/2/67/188/15 अथवोपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव संभवत:। =उपेक्षासंयम और अपहृतसंयम जिनको कि वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनों भी उन शुद्धोपयोगियों को ही होते हैं।
देखें चारित्र - 1.14,15 [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयत, सरागचारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द, तथा उत्सर्ग, निश्चयनय सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं।
3. अपहृतसंयम की विशेषताएँ
देखें संयम - 2/2 [अपहृत संयम दो प्रकार का है - इंद्रिय संयम और प्राणि संयम।]
देखें शुद्धि - 2 [इस अपहृत संयम में भाव, काय, विनय आदि के भेद से आठ शुद्धियों का उपदेश है।]
8. प्राणि व इंद्रिय संयम के लक्षण
देखें असंयम [असंयम दो प्रकार का है - प्राणि असयंम और इंद्रिय असंयम। तहाँ षट्काय जीवों की विराधना प्राणि असंयम है और इंद्रिय विषयों में प्रवृत्ति इंद्रिय असंयम है। (इससे विपरीत प्राणि व इंद्रिय संयम हैं - यथा)]
मूलाचार/418 पंचरस पंचवण्ण दोगंधे अट्ठफास सत्तसरा। मणसा चोद्दसजीवा इंदियपाणा य संजमो णेओ। =पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध, आठ स्पर्श, षड्ज आदि सात स्वर ये सब मन के 28 विषय हैं। इनका निरोध सो इंद्रिय संयम है और चौदह प्रकार की जीवों की (देखें जीव समास ) रक्षा करना सो प्राणि संयम है।
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/128 सगवण्ण जीवहिंसा अट्ठावीसिंदियत्थ दोसा य। तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ।128। =पहले जीवसमास प्रकरण में जो सत्तावन प्रकार के जीव बता आये हैं (देखें जीवसमास ) उनकी हिंसा से तथा अठाईस प्रकार के इंद्रिय विषयों के (देखें संदर्भ सं - 1) दोषों से विरति भाव का होना संयम है।128।
सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/11
प्राणींद्रियेष्वशुभप्रवृत्तेर्विरति: संयम:।
सर्वार्थसिद्धि/9/6/412/1 समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणींद्रियपरिहारस्संयम:। =1. प्राणियों व इंद्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं। ( राजवार्तिक/6/12/6/522/21 )। 2. समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के उनका परिपालन करने के लिए जो प्राणियों का और इंद्रियों का परिहार होता है, वह संयम है। ( राजवार्तिक/9/6/14/696/26 ); ( चारित्रसार/75/1 ); ( तत्त्वसार/6/18 ); (पद्मनन्दि पंचविंशति/1/96)
राजवार्तिक/9/6/14/696/27 एकेंद्रियादिप्राणिपीडापरिहार: प्राणिसंयम:। शब्दादिष्विंद्रियार्थेषु रागानभिष्वंग इंद्रियसंयम:। =एकेंद्रियादि प्राणियों की पीड़ा का परिहार प्राणिसंयम है और शब्दादि जो इंद्रियों के विषय उनमें राग का अभाव सो इंद्रिय संयम है। ( चारित्रसार/75/1 ); ( अनगारधर्मामृत/6/37-38/591 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/399 जो जीवरक्खणपरो गमणागमणादिसव्वकज्जेसु। तणछेदं पि ण इच्छदि संजमधम्मो हवे तस्स। =जीव रक्षा में तत्पर जो मुनि गमनागमन आदि सब कार्यों में तृण का भी छेद नहीं करना चाहता उस मुनि के (प्राणि) संयम धर्म होता है।399।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/123
संयम: सकलेंद्रियव्यापारपरित्याग:।
=समस्त इंद्रियों के व्यापार का परित्याग सो संयम है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1118-1122 पंचानामिंद्रियाणां च मनसश्च निरोधनात् । स्यादिंद्रियनिरोधाख्य: संयम: प्रथमो मत:।1118। स्थावराणां च पंचानां त्रसस्यापि च रक्षणात् । असुसंरक्षणाख्य: स्याद्द्वितीय: प्राणसंयम:।1119। सत्यमक्षार्थसंबंधाज्ज्ञानं नासंयमाय यत् । तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तन्निरोधनम् ।1121। त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मन:। न वचो न वपु: क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।1122। =पाँचों इंद्रियों व मन के रोकने में इंद्रिय संयम और त्रस स्थावरों की रक्षा प्राणसंयम है।1118-1119। इंद्रियों द्वारा जो अर्थविषयक ज्ञान होता है वह असंयम नहीं है, बल्कि उन विषयों में राग वृद्धि का न होना इंद्रिय संयम है।1121। और इसी प्रकार त्रस व स्थावर जीवों में से किसी के भी वध के लिए मन, वचन व काय का उद्यत न होना सो प्राणिसंयम है।1122।
9. प्राणि व इंद्रिय संयम के 17 भेद
मूलाचार/416-417 पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो। विगतिचदुपंचेंदिय अजीवकायेसु संजमणं।416। अप्पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेक्खावहरणदु संजमो चेव। मणवयणकायसंजम सत्तरस विधो दु णादव्वो।417। =पृथिवी, अप्, तेज, वायु व वनस्पति ये पाँच स्थावरकाय और दो, तीन, चार व पाँच इंद्रिय वाले चार त्रस जीव इनकी रक्षा में 9 प्रकार तो प्राणि संयम है, सूखे तृण आदि का छेदन न करना ऐसा 1 भेद अजीवकाय की रक्षारूप है।416। अप्रतिलेखन, दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षासंयम, अपहृतसंयम, मन, वचन व काय संयम, इस प्रकार कुल मिलकर 17 संयम होते हैं।417। (यहाँ पीछी से द्रव्य का शोधन सो प्रतिलेख संयम है और अप्रमाद रहित यत्नपूर्वक शोधन दुष्प्रतिलेख संयम है।)
नियम व शंका-समाधान आदि
1. संयम व विरति में अंतर
धवला 14/5,6,16/12/1 संजम-विरईणं को भेदो। ससमिदिमहव्वयाणुव्वयाइं संजमो। समईहि विणा महव्वयाणुव्वया विरई। =प्रश्न - संयम और विरति में क्या भेद है ? उत्तर - समितियों के साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं। और समितियों के बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं। ( चारित्रसार/40/1 )
देखें संवर - 2.5 [विरति प्रवृत्तिरूप होती है और संयम निवृत्ति रूप।]
2. संयम गुप्ति व समिति में अंतर
राजवार्तिक/9/6/11-15/596/15 अथ क: संयम:। कश्चिदाह - भाषादिनिवृत्तिरिति। न भाषादिनिवृत्ति: संयम: गुप्त्यंतर्भावात् ।11। गुप्तिर्हि निवृत्तिप्रवणा, अतोऽत्रांतर्भावात् संयमाभाव: स्यात् । अपरमाह - कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा संयम इति। नापि कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा; समितिप्रसंगात् ।12। समितयो हि कायादिदोषनिवृत्तय:, अतस्तत्रांतर्भाव: प्रसज्यते। त्रसस्थावरवधप्रतिषेध आत्यंतिक: संयम इति चेत्, न; परिहारविशुद्धिचारित्रांतर्भावात् ।12। ...कस्तर्हि संयम:। समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणींद्रियपरिहार: संयम:।14। अतोऽपहृतसंयमभेदसिद्धि:।15। =1. कोई भाषादि की निवृत्ति को संयम कहता है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसका गुप्ति में अंतर्भाव हो जाता है। गुप्ति निवृत्तिप्रधान होती है इसलिए उपरोक्त लक्षण में संयम का अभाव है। 2. काय आदि की प्रवृत्ति को भी संयम कहना ठीक नहीं है; क्योंकि काय आदि दोषों की निवृत्ति करना समिति है। इसलिए इस लक्षण का समिति में अंतर्भाव हो जाने से वह संयम नहीं हो सकता। 3. त्रसस्थावर जीवों के वध का आत्यंतिक प्रतिषेध भी संयम नहीं है, क्योंकि परिहार विशुद्धि चारित्र में अंतर्भाव हो जाता है। 4. प्रश्न - तब फिर संयम क्या है ? उत्तर - समितियों में प्रवर्तमान जीव के प्राणिवध व इंद्रिय विषयों का परिहार संयम कहलाता है। इससे अपहृत संयम के भेदों की सिद्धि होती है। (अर्थात् अपहृत संयम दो प्रकार का है - प्राणि संयम व इंद्रिय संयम।) ( चारित्रसार/75/1 ); ( अनगारधर्मामृत/6/37/591 )।
3. चारित्र व संयम में अंतर
राजवार्तिक/9/18/5/617/7 स्यादेतत् दशविधो धर्मो व्याख्यात:, तत्र संयमेऽंतर्भावोऽस्य प्राप्नोतीति; तन्न; किं कारणम् । अंते वचनस्य कृत्स्नकर्मक्षयहेतुत्वात् । धर्मे अंतर्भूतमपि चारित्रमंते गह्यते मोक्षप्राप्ते: साक्षात्कारणमिति ज्ञापनाय।=प्रश्न - दश प्रकार का धर्म कहा गया है। तहाँ संयम नाम के धर्म में चारित्र का अंतर्भाव प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, सकलकर्मों के क्षय का कारण होने से चारित्र मोक्ष का साक्षात्कारण है। और इसीलिए सूत्र में उसका अंत में ग्रहण किया गया है।
देखें चारित्र - 1.6 [चारित्र जीव का स्वभाव है पर संयम नहीं।]
4. इंद्रिय संयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता
मूलाचार/988-989 जिब्भोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे। पत्तो अणंतसो तो जिब्भोवत्थे जह दाणिं।988। चदुरंगुला च जिब्भा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि। अठ्ठंगुलदोसेण दु जीवो दुक्खं हु पप्पोदि।989। =इस अनादिसंसार में इस जीव ने जिह्वा व उपस्थ इंद्रिय के कारण अनंत बार दु:ख पाया। इसलिए अब इन दोनों को जीत।988। चार अंगुल प्रमाण तो अशुभ यह जिह्वा इंद्रिय और चार ही अंगुल प्रमाण अशुभ यह उपस्थ इंद्रिय, इन आठ अंगुलों के दोष से यह जीव दु:ख पाता है।989।
कुरल काव्य/13/7 अन्येषां विजयो मास्तु संयतां रसनां कुरु। असंयतो यतो जिह्वा बह्वपायैरधिष्ठिता।7। =और किसी इंद्रिय को चाहे मत रोको, पर अपनी जिह्वा को अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगाम की जिह्वा बहुत दु:ख देती है।7।
देखें रसपरित्याग - 2 [जिह्वा के वश होने पर सब इंद्रियाँ वश हो जाती हैं।]।
5. इंद्रिय व मनोजय का उपाय
भगवती आराधना 1837-1838 इंदियदुद्दंतस्सा णिग्घिप्पंति दमणाणखलिणेहिं। उप्पहगामी णिघिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया।1837। अणिहुदमणसा इंदियसप्पाणि णिगेंडिदुं ण तीरंति। विज्जामंतोसधहीणेणव आसीविसा सप्पा।1838। =उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों का जैसे लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना से इंद्रियरूपी अश्वों का निग्रह हो सकता है।1837। विद्या, औषध और मंत्र से रहित मनुष्य जैसे आशीविष सर्पों के वश करने को समर्थ नहीं होते वैसे ही इंद्रिय-सर्प भी मन की एकाग्रता नष्ट होने से ज्ञान के द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते।1838।
चारित्तपाहुड़/ मूल/29 अमण्णुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य। ण करेइ रायदोसे पंचेंदियसंवरो अणिओ। =पाँचों इंद्रियों के विषयभूत अमनोज्ञ पदार्थों में तथा स्त्री-पुत्रादि जीवरूप और धन आदि अजीवरूप ऐसे मनोज्ञ पदार्थों में राग-द्वेष का न करना ही पाँच इंद्रियों का संवर है। (मू.आ./17-21)।
कुरल काव्य/35/3निग्रहं कुरु पंचानामिंद्रियाणां विकारिणाम् । प्रियेषु त्यज संमोहं त्यागस्यायं शुभक्रम:।3। =अपनी पाँचों इंद्रियों का दमन करो और जिन पदार्थों से तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिलकुल ही त्याग दो।3।
तत्त्वानुशासन/79 संचिंतयंननुप्रेक्षा: स्वाध्याये नित्यमुद्यत:। जयत्येव मन: साधुरिंद्रियार्थ-परांगमुख:।79। =जो साधु भले प्रकार अनुप्रेक्षाओं का सदा चिंतवन करता है, स्वाध्याय में उद्यमी और इंद्रिय विषयों से प्राय: मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही मन को जीतता है।79।
6. कषाय निग्रह का उपाय
भगवती आराधना/1836 उवसमदयादमाउहकरेण रक्खा कसायचोरेहिं। सक्का काउं आउहकरेण रक्खा व चोराणं।1836। =जैसे सशस्त्र पुरुष चोरों से अपना रक्षण करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रह रूप तीन शस्त्रों को धारण करने वाला कषायरूपी चोरों से अवश्य अपनी रक्षा करता है।
भगवती आराधना/260-268 कोधं खयाए माणं च मद्दवेणाज्जवं च मायं च। संतोसेण य लोहं जिणदु खु चत्तारि वि कसाए।260। तं वत्थुं मोत्तव्वं जे पडिउप्पज्जदे कसायग्गि। तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं।262। तम्हा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमाणयं चेव। इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि।267। = हे क्षपक ! तू क्षमारूप परिणामों से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और संतोष से लोभ कषाय को जीतो।260। जिस वस्तु के निमित्त से कषायरूपी अग्नि होती है वह त्याग देनी चाहिए और कषाय का शमन करने वाली वस्तु का आश्रय करना चाहिए।262। [धीरे-धीरे बढ़ते हुए कषाय अनंतानुबंधी और मिथ्यात्व तक का कारण बन जाती है] इसलिए यह कषायाग्नि अब पाप को उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही, हे भगवन् ! आपका उपदेश ग्रहण करता हूँ। मेरे पाप मिथ्या होवें मैं आपका वंदन करता हूँ, ऐसे वचनरूप जल से शांत करना चाहिए।267।
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/184 णिठ्ठुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ। तो लहु भावहि बंभु परु जिं मणु झत्ति विलाइ।184। = हे जीव ! जो कोई अविवेकी किसी को कठोर वचन कहे, उसको सुनकर जो न सह सके तो कषाय दूर करने के लिए परब्रह्म का मन में शीघ्र ध्यान करो।
आत्मानुशासन/213 हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे, वसति खलु कषायग्राहचक्रं समंतात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशंकं, सयमशमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व। =निर्मल और अथाह हृदयरूप सरोवर में जब तक कषायोंरूप हिंस्र जलजंतुओं का समूह निवास करता है, तब तक निश्चय से यह उत्तम क्षमादि गुणों का समुदाय नि:शंक होकर उस हृदयरूप सरोवर का आश्रय नहीं लेता है। इसलिए हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीव्र-मध्यमादि उपशम भेदों से उन कषायों के जीतने का प्रयत्न कर।213।
समयसार / आत्मख्याति/279/ कलश 176 इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन स:। रागादोन्नात्मन: कुर्यान्नातो भवति कारक:।176। =ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभाव को जानता है, इसलिए वह रागादि को निजरूप नहीं करता, अत: वह रागादिक का कर्ता नहीं है।176। (देखें चेतना - 3.2,3)।
योगसार/अमितगति/5/7 विशुद्धदर्शनज्ञानचारित्रमयमुज्जवलम् । यो ध्यायत्यात्मानात्मानं कषायं क्षपयत्यसौ।7। =अपनी आत्मा से ही विशुद्ध दर्शनज्ञान चारित्रमयी उज्ज्वलस्वरूप अपनी आत्मा का जो ध्यान करता है वह अवश्य ही समस्त कषायों का नाश कर देता है।
देखें राग - 5.3 [राग और द्वेष का मूल कारण परिग्रह है। अत: उसका त्याग करके रागद्वेष को जीत लेता है।]
7. संयमपालनार्थ भावना विशेष
राजवार्तिक/9/627/599/19 संयमो ह्यात्महित: तमुतिष्ठिन्निहैव पूज्यते परत्र किमस्ति वाच्यम् । असंयत: प्राणिवधविषयरणेषु नित्यप्रवृत्त: कर्माशुभं संचिनुते। =संयमी पुरुष की यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या ? असंयमी निरंतर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ कर्मों का संचय करता है।
पद्मनन्दि पंचविंशति/1/97 मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वेवाप्तवच: श्रुति: स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने। प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि परं स्यातां न यनोज्झिते, स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयम:।97। =इस संसारी प्राणी को मनुष्यत्व, उत्तम जाति आदि, जिनवाणी श्रवण, लंबी आयु, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक अधिक दुर्लभ हैं। ये सब भी संयम के बिना स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फल को नहीं दे सकते, इसलिए संयम कैसे प्रशंसनीय नहीं है। (और भी देखें अनुप्रेक्षा - 1.11)।
8. पंचम काल में भी संभव है
रयणसार/38 सम्मविसोही तवगुणचारित्तसण्णाणदानपरिधाणं। भरहे दुस्समकाले मणुयाणं जायदे णियदं।38। =इस दुस्सह दु:खम (पंचम) काल में मनुष्य के सम्यग्दर्शन सहित तप व्रत अठाईस मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं।38।
देखें धर्मध्यान - 5 [यद्यपि पंचम काल में शुक्लध्यान संभव नहीं परंतु अपनी अपनी भूमिकानुसार तरतमता लिये धर्मध्यान अवश्य संभव है]।
9. जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल
1. तिर्यंचों में
धवला 5/1,6,37/32/4 एत्थ वे उवदेसा। तं जहा-तिरिक्खेसु वेमासमुहुत्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं जीवो पडिवज्जदि।...एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...तिरिक्खेसु तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवस-अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च पडिवज्जदि। ...एसा उत्तरपडिवत्ती। = इस विषय में दो उपदेश हैं। वे इस प्रकार हैं - 1. तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव, दो मास और मुहूर्त पृथक्त्व से ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त करता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। 2. वह तीन पक्ष, तीन दिवस और अंतर्मुहूर्त के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.5 [तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव दिवस पृथक्त्व से लगाकर उपरिमकाल में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है नीचे के काल में नहीं।]
2. मनुष्यों में
धवला 5/1,6,37/32/4 एत्थ वे उवदेसा। तं जहा...मणुसेसु गब्भादि अट्ठवस्सेसु अंतोमुहुत्तब्भहिएसु सम्मतं संजमं संजामसंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...मणुसेसु अट्ठवस्साणुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा उत्तरपडिवत्ती। = इस विषय में दो उपदेश हैं - 1. मनुष्यों में गर्भकाल से प्रारंभकर अंतर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। ( धवला 5/1,6,69/52 ) 2. वह आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।
धवला 9/4,1,66/307/5 मणुस्सेसु वासपुधत्तेण विणा मासपुधत्तब्भंतरे सम्मत्त-संजम-संजमासंजमाणं गहणाभावादो। = मनुष्यों में वर्ष पृथक्त्व के बिना मास पृथक्त्व के भीतर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है।
धवला 10/4,2,4,59/278/12 गब्भादो णिक्खंतपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि हेट्ठा ण होदि त्ति ऐसो भावत्थो। गब्भम्मि पदिदपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, जोणिणिक्खभणजम्मणेणेत्ति वयणण्णहाणुवत्तीदो। जदि गब्भम्मि पदिदपढमसमयादो अट्ठवस्साणि घेप्पंति तो गब्भवदणजम्मणेण अट्ठवस्सीओ जादो त्ति सुत्तकारो भणेज्ज। ण च एवं, तम्हा सत्तमासाहिय अट्ठहि वासेहि संजमं पडिवज्जदि त्ति एसो चेव अत्थो घेत्तव्वो; सव्वलहुणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो। =गर्भ से निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जाने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है, इसके पहले संयम ग्रहण के योग्य नहीं होता, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्षों के बीतने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर 'योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से' यह सूत्रवचन (इसी पुस्तक के सूत्र नं.72,59) नहीं बन सकता। यदि गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो 'गर्भपतनरूप जन्म से आठ वर्ष का हुआ' ऐसा सूत्रकार कहते हैं। किंतु उन्होंने ऐसा नहीं कहा है। इसलिए सात मास अधिक आठ वर्ष का होने पर संयम को प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्यथा सूत्र में 'सर्वलघु' पद का निर्देश घटित नहीं होता।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.5 [जन्म लेने के पश्चात् आठ वर्षों के ऊपर प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसके नीचे नहीं।
3. सूक्ष्म आदि जीवों में
धवला 10/5,2,456/276/9 अपज्जत्तेहिंतो णिग्गयस्स सव्वलहुएण कालेण संजमासंजमग्गहणाभावादो। ...आउकाइयपज्जत्तेहिंतो मणुस्सेसुप्पण्णस्स सव्वलहुएण कालेण संजमादिगहणाभावादो।=अपर्याप्तकों में से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है। ...अप्कायिक पर्याप्तकों में से मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव के सर्वलघुकाल के द्वारा संयम आदि का ग्रहण संभव नहीं है।
देखें जन्म - 5/5 [सूक्ष्म निगोदिया से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम या संयम का ग्रहण। सूक्ष्म निगोदिया से निकलकर सीधे मनुष्य होने वाले जीव युगपत् सम्यक्त्व व संयमासंयम ग्रहण नहीं कर सकते, बीच में एक भव त्रस का धारण करके मनुष्य में उत्पन्न होने वाले जीव के ही वह संभव है।]
10. पुन: पुन: संयमादि प्राप्त करने की सीमा
षट्खंडागम 10/4,2,4/ सूत्र 71/294 एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजमकडयाणि अणुपालइयत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमासंजमकंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च अणुपालइत्ता एवं संसारिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो।71। =इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्व के कांडकों की तथा कषायोपशमना की संख्या कही गयी है। यथा - चार बार संयम को प्राप्त करने पर एक संयम कांडक होता है। ऐसे आठ ही संयम कांडक होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक 32 बार ही संयम का ग्रहण होता है। क्योंकि इससे आगे संसार नहीं रहता।) इन आठ संयमकांडों के भीतर कषायोपशामना के बार चार ही होते हैं। जीवस्थान चूलिका में जो चारित्र मोह के उपशामन विधान की और दर्शनमोह के उपशामन विधान की प्ररूपणा की गयी है, उसकी यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए। परंतु संयमासंयम कांडक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक पल्य/असं. के चौगुने बार संयमासंयम का ग्रहण होना संभव है। संयमासंयमकांडकों से सम्यक्त्वकांडक विशेष अधिक है, जो पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है।
गोम्मटसार कर्मकांड/619-619/822 सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजणविहिं च उक्कस्सं। पल्लासंखेज्जदियं वारं पडिवज्जदे जीवो।618। चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं बाराइं संजममुवलहिय णिव्वदि।619। =प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, देशसंयम और अनंतानुबंधी के विसंयोजन का विधान ये एक जीव में उत्कृष्टत: पल्योपम के असंख्यात बार ही होते हैं।618। उपशमश्रेणी चार बार चढ़ने के पीछे अवश्य कर्मों का क्षय होता है। संयम 32 बार होता है, पीछे अवश्य निर्वाण प्राप्त करता है। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/ टीका/5/488)।
भूतकालीन 12वें तीर्थंकर - देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
भरतेश द्वारा व्रतियों के लिए बताये गये छ: कर्मों में एक कर्म—पांचों इंद्रियों और मन का वंशीकरण तथा छ: काय के जीवों की रक्षा । इसमें पाँच महाव्रतों का धारण, पांच समितियों का पालन, कषायों का निग्रह और मन-वचन-काय रूप प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है । संयमी शरीर को संयम का साधन जानकर उसकी स्थिति के लिए ही आहार करते हैं । वे रसों में आसक्त नहीं होते । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इसके रक्षक है । महापुराण 20. 9, 173, 38. 24-34, हरिवंशपुराण 2.129, 47.11, पांडवपुराण 22.71, 23.65, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.10