साम्य: Difference between revisions
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<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/27/13-14</span> क्रोधविद्वेषु सत्त्वेषु निस्त्रिशक्रूरकर्मसु। मधुमांससुरांयस्त्रीलुब्धेष्वत्यंतपापिषु।13। देवागमयतिब्रातनिंदकेष्वात्मशंसिषु। नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्तिता।14।</span> =<span class="HindiText">जिस पुरुष का मन चित् (पुत्र-मित्र-कलत्रादि) और अचित् (धन-धान्यादि) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के द्वारा मोह को प्राप्त नहीं होता उस पुरुष के ही साम्यभाव में स्थिति होती है।2। जिस पुरुष के समभाव की भावना है, उसके आशाएँ तो तत्काल नाश हो जाती हैं, अविद्या क्षणभर में क्षय हो जाती है, उसी प्रकार चित्तरूपी सर्प भी मर जाता है।11। जिस समय यह आत्मा अपने को समस्त परद्रव्यों व उनकी पर्यायों से भिन्न स्वरूप निश्चय करता है उसी काल साम्यभाव उत्पन्न होता है।17। क्रोधी, निर्दय, क्रूरकर्मी, मद्य, मांस, मधु व परस्त्रियों में लुब्ध, अत्यंत पापी, देव गुरु शास्त्रादि की निंदा करने वाले ऐसे नास्तिकों में तथा अपनी प्रशंसा करने वालों में माध्यस्थ्य भाव का होना उपेक्षा कही गयी है।13-14।</span></p> | |||
<span class="HindiText"> अधिक जानकारी के लिये देखें [[ सामायिक#1.1 | सामायिक - 1.1]]।</span> | |||
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Revision as of 11:44, 22 November 2022
ज्ञानार्णव/27/13-14 क्रोधविद्वेषु सत्त्वेषु निस्त्रिशक्रूरकर्मसु। मधुमांससुरांयस्त्रीलुब्धेष्वत्यंतपापिषु।13। देवागमयतिब्रातनिंदकेष्वात्मशंसिषु। नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्तिता।14। =जिस पुरुष का मन चित् (पुत्र-मित्र-कलत्रादि) और अचित् (धन-धान्यादि) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के द्वारा मोह को प्राप्त नहीं होता उस पुरुष के ही साम्यभाव में स्थिति होती है।2। जिस पुरुष के समभाव की भावना है, उसके आशाएँ तो तत्काल नाश हो जाती हैं, अविद्या क्षणभर में क्षय हो जाती है, उसी प्रकार चित्तरूपी सर्प भी मर जाता है।11। जिस समय यह आत्मा अपने को समस्त परद्रव्यों व उनकी पर्यायों से भिन्न स्वरूप निश्चय करता है उसी काल साम्यभाव उत्पन्न होता है।17। क्रोधी, निर्दय, क्रूरकर्मी, मद्य, मांस, मधु व परस्त्रियों में लुब्ध, अत्यंत पापी, देव गुरु शास्त्रादि की निंदा करने वाले ऐसे नास्तिकों में तथा अपनी प्रशंसा करने वालों में माध्यस्थ्य भाव का होना उपेक्षा कही गयी है।13-14।
अधिक जानकारी के लिये देखें सामायिक - 1.1।