सासादन: Difference between revisions
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<p class="HindiText"><strong>सासादन सामान्य निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>सासादन सामान्य निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.1"><strong>1. सासादन सम्यग्दृष्टि का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.1"><strong>1. सासादन सम्यग्दृष्टि का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/9,168 </span>सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो।9। ण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो।168।</span> =<span class="HindiText">1. सम्यक्त्वरूप रत्नपर्वत के शिखर से च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमि के सम्मुख और सम्यक्त्व के नाश को प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नाम वाला जानना चाहिए।9। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/ </span> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/9,168 </span>सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो।9। ण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो।168।</span> =<span class="HindiText">1. सम्यक्त्वरूप रत्नपर्वत के शिखर से च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमि के सम्मुख और सम्यक्त्व के नाश को प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नाम वाला जानना चाहिए।9। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/ गाथा 108/166</span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/20/46 </span>)। <br> | ||
2. उपशम सम्यक्त्व से परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।168। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/163/5 </span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/654/1102 </span>), (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/1 </span>)।</span></p> | 2. उपशम सम्यक्त्व से परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।168। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/163/5 </span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/654/1102 </span>), (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/1 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/13/589/18 </span>अत एवास्यान्वर्थसंज्ञा-आसादनं विराधनम्, सहासादनेन वर्तत इति सासादना, सासादना सम्यग्दृष्टिर्यस्य सोऽयं सासादनसम्यग्दृष्टिरिति।=</span><span class="HindiText">अतएव 'सासादन' यह अन्वर्थ संज्ञा है। आसादन का अर्थ विराधना है। आसादन के साथ रहे वह सासादन। आसादन सहित समीचीन दृष्टि जिसके वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/163/5 </span> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/13/589/18 </span>अत एवास्यान्वर्थसंज्ञा-आसादनं विराधनम्, सहासादनेन वर्तत इति सासादना, सासादना सम्यग्दृष्टिर्यस्य सोऽयं सासादनसम्यग्दृष्टिरिति।=</span><span class="HindiText">अतएव 'सासादन' यह अन्वर्थ संज्ञा है। आसादन का अर्थ विराधना है। आसादन के साथ रहे वह सासादन। आसादन सहित समीचीन दृष्टि जिसके वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/163/5 +166/1</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/10/31/4 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2"><strong>2. मिथ्यादृष्टि आदि से पृथक् सासादन दृष्टि क्या</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.2"><strong>2. मिथ्यादृष्टि आदि से पृथक् सासादन दृष्टि क्या</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/163/7 </span>अथ स्यान्न मिथ्यादृष्टिरयं मिथ्यात्वकर्मण उदयाभावात्, न सम्यग्दृष्टि: सम्यग्रुचेरभावात्, न सम्यग्मिथ्यादृष्टिरुभयविषयरुचेरभावात् । न च चतुर्थी दृष्टिरस्ति संयगसंयगुभयदृष्टयालंबनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलंभात् । अतोऽसन् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतोऽसद्दृष्टित्वात् । तर्हि मिथ्यादृष्टिर्भवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबंध्यनंतानुबंध्युदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेश:, किंतु सासादन इति व्यपदिश्यते। किमिति मिथ्यादृष्टिरिति न व्यपदिश्यते चेन्न, अनंतानुबंधिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात् । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयोपशमाद्वा सासादनपरिणाम: प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टि: सम्यग्दृष्टि: सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्यते। यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनंतानुबंधिनो, न तद्दर्शनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात् | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/163/7 </span>अथ स्यान्न मिथ्यादृष्टिरयं मिथ्यात्वकर्मण उदयाभावात्, न सम्यग्दृष्टि: सम्यग्रुचेरभावात्, न सम्यग्मिथ्यादृष्टिरुभयविषयरुचेरभावात् । न च चतुर्थी दृष्टिरस्ति संयगसंयगुभयदृष्टयालंबनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलंभात् । अतोऽसन् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतोऽसद्दृष्टित्वात् । तर्हि मिथ्यादृष्टिर्भवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबंध्यनंतानुबंध्युदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेश:, किंतु सासादन इति व्यपदिश्यते। किमिति मिथ्यादृष्टिरिति न व्यपदिश्यते चेन्न, अनंतानुबंधिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात् । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयोपशमाद्वा सासादनपरिणाम: प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टि: सम्यग्दृष्टि: सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्यते। यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनंतानुबंधिनो, न तद्दर्शनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात् | ||
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<strong>उत्तर</strong>-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान को स्वतंत्र कहने से अनंतानुबंधी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। (देखें [[ अनंतानुबंधी ]]) दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है-(देखें [[ सासादन#1.6 | सासादन - 1.6]]) जिससे कि इस गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। तथा जिस अनंतानुबंधी के उदय से दूसरे गुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनंतानुबंधी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। (और भी देखें [[ सासादन#1.7 | सासादन - 1.7]],8)</span></p> | <strong>उत्तर</strong>-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान को स्वतंत्र कहने से अनंतानुबंधी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। (देखें [[ अनंतानुबंधी ]]) दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है-(देखें [[ सासादन#1.6 | सासादन - 1.6]]) जिससे कि इस गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। तथा जिस अनंतानुबंधी के उदय से दूसरे गुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनंतानुबंधी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। (और भी देखें [[ सासादन#1.7 | सासादन - 1.7]],8)</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3"><strong>3. सासादन को सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.3"><strong>3. सासादन को सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/166/1 </span>विपरीताभिनिवेशदूषितस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या तस्य तद्वयपदेशोपपत्तेरिति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्राय से दूषित है (देखें [[ | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/166/1 </span>विपरीताभिनिवेशदूषितस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या तस्य तद्वयपदेशोपपत्तेरिति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्राय से दूषित है (देखें [[ सासादन#1.2 | सासादन 1.2]]), इसलिए इसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बनता है ? | ||
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<strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, पहले वह सम्यग्दृष्टि था [अर्थात् प्रथमोपशम से गिरकर ही सासादन होने का नियम है-(देखें [[ सासादन#2 | सासादन - 2]])] इसलिए भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/10/31/5 </span>)</span></p> | <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, पहले वह सम्यग्दृष्टि था [अर्थात् प्रथमोपशम से गिरकर ही सासादन होने का नियम है-(देखें [[ सासादन#2 | सासादन - 2]])] इसलिए भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/10/31/5 </span>)</span></p> | ||
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<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-मिथ्यादृष्टि जीवों के भले ही दोनों (मति व श्रुत) अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्व का उदय पाया जाता है, परंतु सासादन में मिथ्यात्व का उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिए ? | <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-मिथ्यादृष्टि जीवों के भले ही दोनों (मति व श्रुत) अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्व का उदय पाया जाता है, परंतु सासादन में मिथ्यात्व का उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिए ? | ||
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<strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं। और मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थानवाले के अनंतानुबंधी का उदय तो पाया ही जाता है (देखें [[ | <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं। और मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थानवाले के अनंतानुबंधी का उदय तो पाया ही जाता है (देखें [[ सासादन#1.2 | सासादन 1.2]]), इसलिए वहाँ पर भी दोनों अज्ञान संभव हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.5"><strong>5. सासादन अनंतानुबंधी के उदय से होता है</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.5"><strong>5. सासादन अनंतानुबंधी के उदय से होता है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/13/588/20 </span>तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनंतानुबंधिकषायोदयकलुषीकृतांतरात्मा जीव: सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादर्शन के उदय का अभाव होने पर भी जिनका आत्मा अनंतानुबंधी के उदय से कलुषित हो रहा है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/13/588/20 </span>तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनंतानुबंधिकषायोदयकलुषीकृतांतरात्मा जीव: सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादर्शन के उदय का अभाव होने पर भी जिनका आत्मा अनंतानुबंधी के उदय से कलुषित हो रहा है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> लब्धिसार/ | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> लब्धिसार/ जी.प्र./99/136/16</span> तदुपशमनकाले अनंतानुबंध्युदयाभावेन सासादनगुणप्राप्तेरभावात् ।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोह के उपशमकाल में अनंतानुबंधी के उदय का अभाव होने से सासादन की प्राप्ति का अभाव है।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सासादन#1.2 | सासादन - 1.2 ]][यहाँ यद्यपि मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश पाया नहीं जाता, परंतु | <p class="HindiText">देखें [[ सासादन#1.2 | सासादन - 1.2 ]][यहाँ यद्यपि मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश पाया नहीं जाता, परंतु अनंतानुबंधीजन्य विपरीताभिनिवेश अवश्य पाया जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सासादन#1.4 | सासादन - 1.4 ]][अनंतानुबंधी के उदय के कारण ही इसके ज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ सासादन#1.4 | सासादन - 1.4 ]][अनंतानुबंधी के उदय के कारण ही इसके ज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सासादन#2 | सासादन - 2]]/2 [उपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवली शेष रह जाने पर अनंतानुबंधी का उदय आ जाने से सासादन होता है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ सासादन#2 | सासादन - 2]]/2 [उपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवली शेष रह जाने पर अनंतानुबंधी का उदय आ जाने से सासादन होता है।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.6"><strong>6. सासादन पारिणामिक भाव कैसे</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.6"><strong>6. सासादन पारिणामिक भाव कैसे</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम 5/1,7/ </span> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम 5/1,7/ सूत्र 3/196</span> सासणसम्मादिट्ठि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो।2। | ||
</span>=<span class="HindiText">सासादन सम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? पारिणामिक भाव है। ( | </span>=<span class="HindiText">सासादन सम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? पारिणामिक भाव है। (<span class="GRef">षट्खंडागम 7/2,1/सूत्र 77/109</span>); (<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/168 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/गाथा 108/166 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/20/46 </span>)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,7,3/196/7 </span>एत्थ चोदओ भणदि-भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णेहिंतो अणुप्पणस्स परिणामस्स अत्थित्तविरोहा। अह अण्णेहिंतो उप्पत्तो इच्छिज्जदि ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्तविरोहा इति। परिहारो उच्चते। तं जहा-जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमेहि विणा अण्णेहिंतो उप्पणो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पणपरिणामाभावा। सत्त-पमेयत्तादओ भावा णिक्कारणा उवलभंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा।...तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा ण होदि त्ति णिक्कारणसासणसम्मत्तं। अदो चेव पारिणामियत्तं पि। अणेण णाएण सव्वभावाणं पारिणामिपत्तं पसज्जदीदि च होदु, ण कोइ दोसो, विरोहाभावा। अण्णभावेसु पारिणामियववहारा किण्ण कीरदे। ण, सासणसम्मत्तं मोत्तूण अप्पिद कम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-1. 'यह पारिणामिक भाव है' यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि दूसरों से नहीं उत्पन्न होने वाले परिणाम के अस्तित्व का अभाव है। यदि अन्य से उत्पत्ति मानी जाये तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्योंकि, निष्कारण वस्तु के सकारणत्व का विरोध है। (अर्थात् स्वत: सिद्ध व अहेतुक त्रिकाली स्वभाव को पारिणामिक भाव कहते हैं, पर सासादन तो अनंतानुबंधी के उदय से उत्पन्न होने के कारण सहेतुक है। इसलिए वह पारिणामिक नहीं हो सकता) ? | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,7,3/196/7 </span>एत्थ चोदओ भणदि-भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णेहिंतो अणुप्पणस्स परिणामस्स अत्थित्तविरोहा। अह अण्णेहिंतो उप्पत्तो इच्छिज्जदि ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्तविरोहा इति। परिहारो उच्चते। तं जहा-जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमेहि विणा अण्णेहिंतो उप्पणो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पणपरिणामाभावा। सत्त-पमेयत्तादओ भावा णिक्कारणा उवलभंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा।...तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा ण होदि त्ति णिक्कारणसासणसम्मत्तं। अदो चेव पारिणामियत्तं पि। अणेण णाएण सव्वभावाणं पारिणामिपत्तं पसज्जदीदि च होदु, ण कोइ दोसो, विरोहाभावा। अण्णभावेसु पारिणामियववहारा किण्ण कीरदे। ण, सासणसम्मत्तं मोत्तूण अप्पिद कम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-1. 'यह पारिणामिक भाव है' यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि दूसरों से नहीं उत्पन्न होने वाले परिणाम के अस्तित्व का अभाव है। यदि अन्य से उत्पत्ति मानी जाये तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्योंकि, निष्कारण वस्तु के सकारणत्व का विरोध है। (अर्थात् स्वत: सिद्ध व अहेतुक त्रिकाली स्वभाव को पारिणामिक भाव कहते हैं, पर सासादन तो अनंतानुबंधी के उदय से उत्पन्न होने के कारण सहेतुक है। इसलिए वह पारिणामिक नहीं हो सकता) ? | ||
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<strong>उत्तर</strong>-जो कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न हुआ परिणाम है वह पारिणामिक कहा जाता है, न कि निष्कारण भाव को पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि, कारण के बिना उत्पन्न होने वाले परिणाम का अभाव है। | <strong>उत्तर</strong>-जो कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न हुआ परिणाम है वह पारिणामिक कहा जाता है, न कि निष्कारण भाव को पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि, कारण के बिना उत्पन्न होने वाले परिणाम का अभाव है। | ||
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<strong>प्रश्न</strong>-2.सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारण के बिना भी उत्पन्न होने वाले पाये जाते हैं ? | |||
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<strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदि के स्वरूप से नहीं परिणत होने वाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं। विवक्षित दर्शन मोहनीयकर्म के उदय से, उपशम से, क्षय से अथवा क्षयोपशम से नहीं होता है अत: यह सासादन सम्यक्त्व निष्कारण है और इसीलिए इसके पारिणामिकपना भी है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/165/6 </span>);। | <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदि के स्वरूप से नहीं परिणत होने वाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं। विवक्षित दर्शन मोहनीयकर्म के उदय से, उपशम से, क्षय से अथवा क्षयोपशम से नहीं होता है अत: यह सासादन सम्यक्त्व निष्कारण है और इसीलिए इसके पारिणामिकपना भी है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/165/6 </span>);। | ||
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<strong>उत्तर</strong>-भले ही वह उभयमोहनीय हो, किंतु यहाँ वैसी विवक्षा से सासादन गुणस्थान को पारिणामिक कहा है।</span></p> | <strong>उत्तर</strong>-भले ही वह उभयमोहनीय हो, किंतु यहाँ वैसी विवक्षा से सासादन गुणस्थान को पारिणामिक कहा है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,7,3/197/4 </span>आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूपणाए दंसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्खाभावा।</span> =<span class="HindiText">आदि के चार गुणस्थानों संबंधी भावों को प्ररूपणा में दर्शनमोहनीय कर्म के सिवाय शेष कर्मों के उदय की विवक्षा का अभाव है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,7,3/197/4 </span>आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूपणाए दंसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्खाभावा।</span> =<span class="HindiText">आदि के चार गुणस्थानों संबंधी भावों को प्ररूपणा में दर्शनमोहनीय कर्म के सिवाय शेष कर्मों के उदय की विवक्षा का अभाव है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड व जीव तत्त्व प्रदीपिका/12/35</span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.8"><strong>8. इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.8"><strong>8. इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/12/35/14 </span>अनंतानुबंध्यंयतमोदयविवक्षया तु औदयिकभावोऽपि भवेत् ।</span> =<span class="HindiText">अनंतानुबंधी चतुष्टय में अन्यतम का उदय होने की अपेक्षा सासादन गुणस्थान औदयिक भाव भी होता है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/12/35/14 </span>अनंतानुबंध्यंयतमोदयविवक्षया तु औदयिकभावोऽपि भवेत् ।</span> =<span class="HindiText">अनंतानुबंधी चतुष्टय में अन्यतम का उदय होने की अपेक्षा सासादन गुणस्थान औदयिक भाव भी होता है।</span></p> | ||
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<p class="HindiText">देखें [[ देव#3.1.2 | देव - 3.1.2 ]][भवनवासी से उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत के सभी देवों व देवियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में संभव है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ देव#3.1.2 | देव - 3.1.2 ]][भवनवासी से उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत के सभी देवों व देवियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में संभव है।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ इंद्रिय#4.4 | इंद्रिय - 4.4 ]][एकेंद्रिय व विकलेंद्रियों में नहीं होता, संज्ञी पंचेंद्रियों में ही संभव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि-(देखें [[ अगला संदर्भ ]])]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ इंद्रिय#4.4 | इंद्रिय - 4.4 ]][एकेंद्रिय व विकलेंद्रियों में नहीं होता, संज्ञी पंचेंद्रियों में ही संभव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि-(देखें [[ अगला संदर्भ ]])]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]] [नरक में सर्वथा जन्म नहीं लेता, कर्म व भोगभूमि दोनों के गर्भज संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचों में ही जन्मता है इनसे विपरीत में नहीं। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियों में केवल अपर्याप्त दशा में ही होता है और संज्ञियों की अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों दशाओं में द्वितीयोपशम की अपेक्षा संज्ञी, संज्ञियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा देवों में केवल अपर्याप्त दशा में ही संभव है। एकेंद्रिय व विकलेंद्रियों में यदि होते हैं तो केवल निवृत्त्यपर्याप्त दशा में ही संभव है। वहाँ पर भी केवल बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पति इन तीन | <p class="HindiText">देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]] [नरक में सर्वथा जन्म नहीं लेता, कर्म व भोगभूमि दोनों के गर्भज संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचों में ही जन्मता है इनसे विपरीत में नहीं। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियों में केवल अपर्याप्त दशा में ही होता है और संज्ञियों की अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों दशाओं में द्वितीयोपशम की अपेक्षा संज्ञी, संज्ञियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा देवों में केवल अपर्याप्त दशा में ही संभव है। एकेंद्रिय व विकलेंद्रियों में यदि होते हैं तो केवल निवृत्त्यपर्याप्त दशा में ही संभव है। वहाँ पर भी केवल बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पति इन तीन काय में ही संभव है अन्य काय में नहीं। वास्तव में एकेंद्रियों में उत्पन्न नहीं होते, बल्कि वहाँ मारणांतिक समुद्घात करते हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]]/10 [सासादन प्राप्ति के द्वितीय समय से लेकर आवली/असं.काल तक मरने पर नियम से देव गति में जन्मता है। इसके ऊपर आ./असं.काल मनुष्यों में जन्मने योग्य है। इसी प्रकार आगे क्रम से संज्ञी, असंज्ञी, चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय, द्वींद्रिय व एकेंद्रियों में जन्मने योग्य काल होता है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]]/10 [सासादन प्राप्ति के द्वितीय समय से लेकर आवली/असं.काल तक मरने पर नियम से देव गति में जन्मता है। इसके ऊपर आ./असं.काल मनुष्यों में जन्मने योग्य है। इसी प्रकार आगे क्रम से संज्ञी, असंज्ञी, चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय, द्वींद्रिय व एकेंद्रियों में जन्मने योग्य काल होता है।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ संयत#1.6 | संयत - 1.6 ]][सासादन निवृत्त्यपर्याप्त या पर्याप्त ही होता है लब्धि अपर्याप्त नहीं।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ संयत#1.6 | संयत - 1.6 ]][सासादन निवृत्त्यपर्याप्त या पर्याप्त ही होता है लब्धि अपर्याप्त नहीं।]</p> | ||
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<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,8,12/250/7 </span>सासणगुणमुवसमसम्मादिट्ठिणो चेव पडिवज्जंति।</span> =<span class="HindiText">सासादन गुणस्थान को उपशमसम्यग्दृष्टि ही प्राप्त होते हैं।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,8,12/250/7 </span>सासणगुणमुवसमसम्मादिट्ठिणो चेव पडिवज्जंति।</span> =<span class="HindiText">सासादन गुणस्थान को उपशमसम्यग्दृष्टि ही प्राप्त होते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.2"><strong>2. प्रथमोपशम के काल में कुछ अवशेष रहने पर होता है</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.2"><strong>2. प्रथमोपशम के काल में कुछ अवशेष रहने पर होता है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/13/589/16 </span>जघन्येन एकसमये उत्कर्षेणावलिकाषट्केऽवशिष्टे यदा अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभमंयतमस्योदयो भवति तदा सासादनसम्यग्दृष्टिरित्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अंतर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली शेष रहने पर, जब अनंतानुबंधी क्रोध मान माया व लोभ इन चारों में से किसी एक का उदय होता है, तब वह जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/19/44 </span>); (<span class="GRef"> लब्धिसार/ </span> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/13/589/16 </span>जघन्येन एकसमये उत्कर्षेणावलिकाषट्केऽवशिष्टे यदा अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभमंयतमस्योदयो भवति तदा सासादनसम्यग्दृष्टिरित्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अंतर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली शेष रहने पर, जब अनंतानुबंधी क्रोध मान माया व लोभ इन चारों में से किसी एक का उदय होता है, तब वह जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/19/44 </span>); (<span class="GRef"> लब्धिसार/ मूल/100/137</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/15 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/548/718/17 </span>)</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.3"><strong>3. उपशम में शेष बचा काल ही सासादन का काल है</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.3"><strong>3. उपशम में शेष बचा काल ही सासादन का काल है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम 7/2,2/ | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम 7/2,2/ सूत्र 200-202/182</span> सासणसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होदि।200। जहण्णेण एयसमओ।201। उक्कस्सेण छावलियाओ।202। | ||
</span> = <span class="HindiText">सासादन सम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ?।200। जघन्य एक समय।201। और उत्कृष्ट छह आवली काल तक रहते हैं।202। (<span class="GRef"> षट्खंडागम 4/1,5/ </span> | </span> = <span class="HindiText">सासादन सम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ?।200। जघन्य एक समय।201। और उत्कृष्ट छह आवली काल तक रहते हैं।202। (<span class="GRef"> षट्खंडागम 4/1,5/ सूत्र 7-8</span>); (<span class="GRef"> धवला 5/1,8,12/250/2 </span>)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 4/1,5,7/ </span> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 4/1,5,7/ गाथा 31/341</span> उवसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ता हु होइ अवसिट्ठा। पडिवज्जंता साणं तत्तियमेत्ता य तस्सद्धा।31।</span> = <span class="HindiText">जितना प्रमाण उपशम सम्यक्त्व का काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासादन गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव का भी उतने प्रमाण ही काल होता है।31।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 7/2,2,201/182/6 </span>उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसे सासणं गदस्स सासणगुणस्स एगसमयकालोवलंभादो। जेत्तिया उवसमसम्मत्तद्धा एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छावलियाओ त्ति अवसेसा अत्थि तत्तिया चेव सासणगुणद्धावियप्पा होंति।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि, उपशम सम्यक्त्व के काल में एकसमय शेष रहने पर सासादनगुणस्थान में जाने वाले जीव के सासादनगुणस्थान का एक समय काल पाया जाता है। एक समय से प्रारंभ कर अधिक से अधिक छह आवलियों तक जितना उपशम सम्यक्त्व का काल शेष रहता है, उतने ही सासादनगुणस्थान के विकल्प होते हैं।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 7/2,2,201/182/6 </span>उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसे सासणं गदस्स सासणगुणस्स एगसमयकालोवलंभादो। जेत्तिया उवसमसम्मत्तद्धा एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छावलियाओ त्ति अवसेसा अत्थि तत्तिया चेव सासणगुणद्धावियप्पा होंति।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि, उपशम सम्यक्त्व के काल में एकसमय शेष रहने पर सासादनगुणस्थान में जाने वाले जीव के सासादनगुणस्थान का एक समय काल पाया जाता है। एक समय से प्रारंभ कर अधिक से अधिक छह आवलियों तक जितना उपशम सम्यक्त्व का काल शेष रहता है, उतने ही सासादनगुणस्थान के विकल्प होते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.4"><strong>4. उक्त काल से हीन या अधिक शेष रहने पर सासादन को प्राप्त नहीं होता</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.4"><strong>4. उक्त काल से हीन या अधिक शेष रहने पर सासादन को प्राप्त नहीं होता</strong></p> |
Revision as of 16:02, 23 November 2022
सिद्धांतकोष से
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवली शेष रहने पर जीव सम्यक्त्व से गिरकर उतने मात्र काल के लिए जिस गुणस्थान को प्राप्त होता है उसे सासादन कहते हैं, अगले ही क्षण वह अवश्य मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। मिथ्यात्व का उदय न होने से उसे सम्यग्दृष्टि कह देते हैं। मिथ्यात्व का उदय उपशम व क्षय तीनों ही नहीं है, इसलिए इसे पारिणामिक भाव कहा जाता है।
- सासादन सामान्य निर्देश
- सासादन सम्यग्दृष्टि का लक्षण।
- मिथ्यादृष्टि आदि से पृथक् सासादनदृष्टि क्या।
- सासादन को सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों।
- सासादन में तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों।
- सासादन अनंतानुबंधी के उदय से होता है।
- सासादन पारिणामिक भाव कैसे।
- अनंतानुबंधी के उदय से औदयिक क्यों नहीं।
- इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है।
- सासादन गुणस्थान का स्वामित्व।
- एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय व असंज्ञियों में सासादन गुणस्थान की उत्पत्ति अनुत्पत्ति संबंधी चर्चा।-देखें जन्म - 4।
- सासादन के स्वामियों में जीवसमास मार्गणास्थान आदि बीस प्ररूपणाएँ।-देखें सत् ।
- सासादन जीवों संबंधी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अंतर भाव अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें सत् ; संख्या ; क्षेत्र ; स्पर्शन ; काल ; अंतर ; भाव ; अल्पबहुत्व ।
- मार्गणाओं में सासादन के अस्तित्व संबंधी शंका-समाधान।-देखें वह वह नाम ।
- सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।-देखें मार्गणा ।
- इस गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का बंध उदय सत्त्व।-देखें बंध ; उदय ; सत्त्व ।
- सासादन के आरोहण व अवरोहण संबंधी
- उपशम सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है।
- प्रथमोपशम के काल में कुछ अवशेष रहने पर होता है।
- उपशम में शेष बचा काल ही सासादन का काल है।
- उक्त काल से हीन या अधिक शेष रहने पर सासादन को प्राप्त नहीं होता।
- सासादन गुणस्थान में मरण संबंधी।-देखें मरण - 3।
- द्वितीयोपशम पूर्वक होने में काल आदि के सर्व नियम पूर्ववत् हैं।-देखें सासादन - 2.5।
- द्वितीयोपशम से दो बार सासादन की प्राप्ति संभव नहीं।-देखें अंतर - 2.4।
सासादन सामान्य निर्देश
1. सासादन सम्यग्दृष्टि का लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/9,168 सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो।9। ण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो।168। =1. सम्यक्त्वरूप रत्नपर्वत के शिखर से च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमि के सम्मुख और सम्यक्त्व के नाश को प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नाम वाला जानना चाहिए।9। ( धवला 1/1,1,10/ गाथा 108/166), ( गोम्मटसार जीवकांड/20/46 )।
2. उपशम सम्यक्त्व से परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।168। ( धवला 1/1,1,10/163/5 ), ( गोम्मटसार जीवकांड/654/1102 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/1 )।
राजवार्तिक/9/1/13/589/18 अत एवास्यान्वर्थसंज्ञा-आसादनं विराधनम्, सहासादनेन वर्तत इति सासादना, सासादना सम्यग्दृष्टिर्यस्य सोऽयं सासादनसम्यग्दृष्टिरिति।=अतएव 'सासादन' यह अन्वर्थ संज्ञा है। आसादन का अर्थ विराधना है। आसादन के साथ रहे वह सासादन। आसादन सहित समीचीन दृष्टि जिसके वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। ( धवला 1/1,1,10/163/5 +166/1); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/10/31/4 )।
2. मिथ्यादृष्टि आदि से पृथक् सासादन दृष्टि क्या
धवला 1/1,1,10/163/7 अथ स्यान्न मिथ्यादृष्टिरयं मिथ्यात्वकर्मण उदयाभावात्, न सम्यग्दृष्टि: सम्यग्रुचेरभावात्, न सम्यग्मिथ्यादृष्टिरुभयविषयरुचेरभावात् । न च चतुर्थी दृष्टिरस्ति संयगसंयगुभयदृष्टयालंबनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलंभात् । अतोऽसन् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतोऽसद्दृष्टित्वात् । तर्हि मिथ्यादृष्टिर्भवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबंध्यनंतानुबंध्युदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेश:, किंतु सासादन इति व्यपदिश्यते। किमिति मिथ्यादृष्टिरिति न व्यपदिश्यते चेन्न, अनंतानुबंधिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात् । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयोपशमाद्वा सासादनपरिणाम: प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टि: सम्यग्दृष्टि: सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्यते। यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनंतानुबंधिनो, न तद्दर्शनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात्
।=प्रश्न-सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है, समीचीन रुचि का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि भी नहीं है। दोनों को विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं, क्योंकि, समीचीन असमीचीन और उभयरूप दृष्टि के आलंबनभूत वस्तु के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पायी नहीं जाती है। इसलिए सासादन गुणस्थान असत्स्वरूप है ?
उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान में विपरीत अभिप्राय रहता है, इसलिए उसे असद्दृष्टि ही समझना चाहिए।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र का प्रतिबंध करने वाली अनंतानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसलिए द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यादृष्टि है किंतु मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं। केवल सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं।
प्रश्न-ऊपर के कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गयी है ?
उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान को स्वतंत्र कहने से अनंतानुबंधी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। (देखें अनंतानुबंधी ) दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है-(देखें सासादन - 1.6) जिससे कि इस गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। तथा जिस अनंतानुबंधी के उदय से दूसरे गुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनंतानुबंधी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। (और भी देखें सासादन - 1.7,8)
3. सासादन को सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों
धवला 1/1,1,10/166/1 विपरीताभिनिवेशदूषितस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या तस्य तद्वयपदेशोपपत्तेरिति। =प्रश्न-सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्राय से दूषित है (देखें सासादन 1.2), इसलिए इसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बनता है ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहले वह सम्यग्दृष्टि था [अर्थात् प्रथमोपशम से गिरकर ही सासादन होने का नियम है-(देखें सासादन - 2)] इसलिए भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/10/31/5 )
4. सासादन में तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों
राजवार्तिक 9/1/13/589/19 तस्य मिथ्यादर्शनोदयाभावेऽपि अनंतानुबंध्युदयात् त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानानि एव भवंति। =मिथ्यात्व का उदय न होने पर भी इसके तीनों मति, श्रुत और अवधिज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं। (देखें सत् )
धवला 1/1,1,116/361/3 मिथ्यादृष्टे: द्वेऽप्यज्ञाने भवतां नाम तत्र मिथ्यात्वोदयस्य सत्त्वात् । मिथ्यात्वोदयस्यासत्त्वान्न सासादने तयो: सत्त्वमिति न, मिथ्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेश: स च मिथ्यात्वादनंतानुबंधिनश्चोत्पद्यते। समस्ति च सासादनस्यानंतानुबंध्युदय इति।
प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीवों के भले ही दोनों (मति व श्रुत) अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्व का उदय पाया जाता है, परंतु सासादन में मिथ्यात्व का उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिए ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं। और मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थानवाले के अनंतानुबंधी का उदय तो पाया ही जाता है (देखें सासादन 1.2), इसलिए वहाँ पर भी दोनों अज्ञान संभव हैं।
5. सासादन अनंतानुबंधी के उदय से होता है
राजवार्तिक/9/1/13/588/20 तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनंतानुबंधिकषायोदयकलुषीकृतांतरात्मा जीव: सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते। =मिथ्यादर्शन के उदय का अभाव होने पर भी जिनका आत्मा अनंतानुबंधी के उदय से कलुषित हो रहा है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है।
लब्धिसार/ जी.प्र./99/136/16 तदुपशमनकाले अनंतानुबंध्युदयाभावेन सासादनगुणप्राप्तेरभावात् । =दर्शनमोह के उपशमकाल में अनंतानुबंधी के उदय का अभाव होने से सासादन की प्राप्ति का अभाव है।
देखें सासादन - 1.2 [यहाँ यद्यपि मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश पाया नहीं जाता, परंतु अनंतानुबंधीजन्य विपरीताभिनिवेश अवश्य पाया जाता है।]
देखें सासादन - 1.4 [अनंतानुबंधी के उदय के कारण ही इसके ज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं।]
देखें सासादन - 2/2 [उपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवली शेष रह जाने पर अनंतानुबंधी का उदय आ जाने से सासादन होता है।]
6. सासादन पारिणामिक भाव कैसे
षट्खंडागम 5/1,7/ सूत्र 3/196 सासणसम्मादिट्ठि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो।2। =सासादन सम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? पारिणामिक भाव है। (षट्खंडागम 7/2,1/सूत्र 77/109); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/168 ); ( धवला 1/1,1,10/गाथा 108/166 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/20/46 )
धवला 5/1,7,3/196/7 एत्थ चोदओ भणदि-भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णेहिंतो अणुप्पणस्स परिणामस्स अत्थित्तविरोहा। अह अण्णेहिंतो उप्पत्तो इच्छिज्जदि ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्तविरोहा इति। परिहारो उच्चते। तं जहा-जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमेहि विणा अण्णेहिंतो उप्पणो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पणपरिणामाभावा। सत्त-पमेयत्तादओ भावा णिक्कारणा उवलभंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा।...तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा ण होदि त्ति णिक्कारणसासणसम्मत्तं। अदो चेव पारिणामियत्तं पि। अणेण णाएण सव्वभावाणं पारिणामिपत्तं पसज्जदीदि च होदु, ण कोइ दोसो, विरोहाभावा। अण्णभावेसु पारिणामियववहारा किण्ण कीरदे। ण, सासणसम्मत्तं मोत्तूण अप्पिद कम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा। =प्रश्न-1. 'यह पारिणामिक भाव है' यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि दूसरों से नहीं उत्पन्न होने वाले परिणाम के अस्तित्व का अभाव है। यदि अन्य से उत्पत्ति मानी जाये तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्योंकि, निष्कारण वस्तु के सकारणत्व का विरोध है। (अर्थात् स्वत: सिद्ध व अहेतुक त्रिकाली स्वभाव को पारिणामिक भाव कहते हैं, पर सासादन तो अनंतानुबंधी के उदय से उत्पन्न होने के कारण सहेतुक है। इसलिए वह पारिणामिक नहीं हो सकता) ?
उत्तर-जो कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न हुआ परिणाम है वह पारिणामिक कहा जाता है, न कि निष्कारण भाव को पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि, कारण के बिना उत्पन्न होने वाले परिणाम का अभाव है।
प्रश्न-2.सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारण के बिना भी उत्पन्न होने वाले पाये जाते हैं ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदि के स्वरूप से नहीं परिणत होने वाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं। विवक्षित दर्शन मोहनीयकर्म के उदय से, उपशम से, क्षय से अथवा क्षयोपशम से नहीं होता है अत: यह सासादन सम्यक्त्व निष्कारण है और इसीलिए इसके पारिणामिकपना भी है। ( धवला 1/1,1,10/165/6 );।
प्रश्न-3. इस न्याय के अनुसार तो सभी भावों के पारिणामिकपने का प्रसंग प्राप्त होता है [क्योंकि कोई भी भाव ऐसा नहीं जिसमें किसी एक या अधिक कर्मों के उदय आदि का अभाव न हो।]
उत्तर-इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं आता। (देखें पारिणामिक )।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो फिर अन्य भावों में पारिणामिकपने का व्यवहार क्यों नहीं किया जाता ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्व को छोड़कर विवक्षित कर्म से नहीं होने वाले अन्य कोई भाव नहीं पाया जाता है।
धवला 7/2,1,77/109/6 एसो सासणपरिणामो खईओ ण होदि, दंसणमोहक्खएणाणुप्पत्तीदो। ण खओवसमिओ वि, देसघादिफद्दयाणमुदएण अणुप्पत्तीए। उवसमिओ वि ण होदि, दंसणमोहुवसमेणाणुप्पत्तीदो। ओदइओ वि ण होदि, दंसणमोहस्सुदएणाणुप्पत्तीदो। परिसेसादो परिणामिएण भावेण सासणो होदि। =यह सासादन परिणाम क्षायिक नहीं होता, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के क्षय से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। यह क्षायोपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के देशघाती स्पर्धकों के उदय से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। औपशमिक भी नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के उपशम से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। वह औदयिक भी नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीय के उदय से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। अतएव परिशेष न्याय से पारिणामिक भाव से ही सासादन परिणाम होता है।
7. अनंतानुबंधी के उदय से औदयिक क्यों नहीं
धवला 7/2,77/109/9 अणंताणुबंधीणमुदएण सासणगुणस्सुवलंभादो ओदइओ भावो किण्ण उच्चदे। ण दंसणमोहणीयस्स उदय-उवसम-खय-खओवसमेहि विणा उप्पज्जदि त्ति सासणगुणस्स कारणं चरित्तमोहणीयं तस्स दंसणमोहणीयत्तविरोहत्तादो। अणंताणुबंधीचदुक्कं तदुभयमोहणं च। होदु णाम, किंतु णेदमेत्थ विवक्खियं। अणंताणुबंधीचदुक्कं चरित्तमोहणीयं चेवेत्ति विवक्खाए सासणगुणो पारिणमिओ त्ति भणिदो। =प्रश्न-अनंतानुबंधी कषायों के उदय से सासादन गुणस्थान पाया जाता है, अत: उसे औदयिक भाव क्यों नहीं कहते ?
उत्तर-नहीं कहते, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशम के बिना उत्पन्न होने से सासादन गुणस्थान का कारण चारित्र मोहनीय कर्म ही हो सकता है और चारित्र मोहनीय के दर्शन मोहनीय मानने में विरोध आता है।
प्रश्न-अनंतानुबंधी तो दर्शन और चारित्र दोनों में मोह उत्पन्न करने वाला है ?
उत्तर-भले ही वह उभयमोहनीय हो, किंतु यहाँ वैसी विवक्षा से सासादन गुणस्थान को पारिणामिक कहा है।
धवला 5/1,7,3/197/4 आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूपणाए दंसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्खाभावा। =आदि के चार गुणस्थानों संबंधी भावों को प्ररूपणा में दर्शनमोहनीय कर्म के सिवाय शेष कर्मों के उदय की विवक्षा का अभाव है। ( गोम्मटसार जीवकांड व जीव तत्त्व प्रदीपिका/12/35)।
8. इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/12/35/14 अनंतानुबंध्यंयतमोदयविवक्षया तु औदयिकभावोऽपि भवेत् । =अनंतानुबंधी चतुष्टय में अन्यतम का उदय होने की अपेक्षा सासादन गुणस्थान औदयिक भाव भी होता है।
9. सासादन गुणस्थान का स्वामित्व
देखें नरक - 4.2,3 [सातों ही पृथिवियों में संभव है परंतु केवल पर्याप्त ही होते हैं अपर्याप्त नहीं।]
देखें तिर्यंच - 2.1,2 [पंचेंद्रिय तिर्यंच व योनिमति दोनों के पर्याप्त व अपर्याप्त में होना संभव है।]
देखें मनुष्य - 3.1,2 [मनुष्य व मनुष्यनियाँ दोनों के पर्याप्त व अपर्याप्त में होना संभव है।]
देखें देव - 3.1.2 [भवनवासी से उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत के सभी देवों व देवियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में संभव है।]
देखें इंद्रिय - 4.4 [एकेंद्रिय व विकलेंद्रियों में नहीं होता, संज्ञी पंचेंद्रियों में ही संभव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि-(देखें अगला संदर्भ )]
देखें जन्म - 4 [नरक में सर्वथा जन्म नहीं लेता, कर्म व भोगभूमि दोनों के गर्भज संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचों में ही जन्मता है इनसे विपरीत में नहीं। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियों में केवल अपर्याप्त दशा में ही होता है और संज्ञियों की अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों दशाओं में द्वितीयोपशम की अपेक्षा संज्ञी, संज्ञियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा देवों में केवल अपर्याप्त दशा में ही संभव है। एकेंद्रिय व विकलेंद्रियों में यदि होते हैं तो केवल निवृत्त्यपर्याप्त दशा में ही संभव है। वहाँ पर भी केवल बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पति इन तीन काय में ही संभव है अन्य काय में नहीं। वास्तव में एकेंद्रियों में उत्पन्न नहीं होते, बल्कि वहाँ मारणांतिक समुद्घात करते हैं।]
देखें जन्म - 4/10 [सासादन प्राप्ति के द्वितीय समय से लेकर आवली/असं.काल तक मरने पर नियम से देव गति में जन्मता है। इसके ऊपर आ./असं.काल मनुष्यों में जन्मने योग्य है। इसी प्रकार आगे क्रम से संज्ञी, असंज्ञी, चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय, द्वींद्रिय व एकेंद्रियों में जन्मने योग्य काल होता है।]
देखें संयत - 1.6 [सासादन निवृत्त्यपर्याप्त या पर्याप्त ही होता है लब्धि अपर्याप्त नहीं।]
10. मारणांतिक समुद्घात संबंधी
धवला 4/1,4,4/4/164/2 तेसिं सासणगुणपाहम्मेण लोगणालीए बाहिरमुप्पज्जणसहावाभावादो। लोगणालीए अब्भंतरे मारणंतियं करेंता वि भवणवासियजगमूलादोवरिं चेव देव-तिरिक्खसासणसम्मादिट्ठिणो मारणंतियं करेंति, णो हेट्ठा, कुदो। सासणगुणपाहम्मादो चेव। =[सासादन सम्यग्दृष्टिदेव एकेंद्रियों में मारणांतिक समुद्घात करते हैं, परंतु] उनके सासादन गुणस्थान की प्रधानता से लोक नालों के बाहर उत्पन्न होने के स्वभाव का अभाव है। और लोकनाली के भीतर मारणांतिक समुद्घात को करते हुए भी भवनवासी लोक के मूलभाग से ऊपर ही देव या तिर्यंच सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मारणांतिक समुद्घात को करते हैं। इससे नीचे नहीं, क्योंकि, उनमें सासादनगुणस्थान की ही प्रधानता है।
धवला 4/1,4,4/164/7 ईसिपब्भारपुढवीदो उवरि सासणाणमाउकाइएसु मारणंतियसंभवादो, अट्ठमपुढवीए एगरंतुपदरब्भंतरं सव्वमावूरिय ट्ठिदाए तेसिं मारणंतियकरणं पडि विरोहाभावादो च। =ईषत्प्राग्भार पृथिवी से ऊपर सासादन सम्यग्दृष्टियों का अपकायिक जीवों में मारणांतिक समुद्घात संभव है, तथा एक रज्जू प्रतर के भीतर सर्वक्षेत्र को व्याप्त करके स्थित आठवीं पृथिवी में उन जीवों के मारणांतिक समुद्घात करने के प्रति कोई विरोध भी नहीं है।
देखें मरण - 5.4-[मेरुतल से अधोभागवर्ती एकेंद्रिय जीवों में व मारणांतिक समुद्घात नहीं करते।]
देखें जन्म - 4/11-[सासादन सम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिकों में मारणांतिक समुद्घात नहीं करते।]
सासादन के आरोहण व अवरोहण संबंधी
1. उपशमसम्यक्त्व पूर्वक ही होता है
धवला 5/1,8,12/250/7 सासणगुणमुवसमसम्मादिट्ठिणो चेव पडिवज्जंति। =सासादन गुणस्थान को उपशमसम्यग्दृष्टि ही प्राप्त होते हैं।
2. प्रथमोपशम के काल में कुछ अवशेष रहने पर होता है
राजवार्तिक/9/1/13/589/16 जघन्येन एकसमये उत्कर्षेणावलिकाषट्केऽवशिष्टे यदा अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभमंयतमस्योदयो भवति तदा सासादनसम्यग्दृष्टिरित्युच्यते। =प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अंतर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली शेष रहने पर, जब अनंतानुबंधी क्रोध मान माया व लोभ इन चारों में से किसी एक का उदय होता है, तब वह जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। ( गोम्मटसार जीवकांड/19/44 ); ( लब्धिसार/ मूल/100/137); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/15 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/548/718/17 )
3. उपशम में शेष बचा काल ही सासादन का काल है
षट्खंडागम 7/2,2/ सूत्र 200-202/182 सासणसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होदि।200। जहण्णेण एयसमओ।201। उक्कस्सेण छावलियाओ।202। = सासादन सम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ?।200। जघन्य एक समय।201। और उत्कृष्ट छह आवली काल तक रहते हैं।202। ( षट्खंडागम 4/1,5/ सूत्र 7-8); ( धवला 5/1,8,12/250/2 )
धवला 4/1,5,7/ गाथा 31/341 उवसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ता हु होइ अवसिट्ठा। पडिवज्जंता साणं तत्तियमेत्ता य तस्सद्धा।31। = जितना प्रमाण उपशम सम्यक्त्व का काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासादन गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव का भी उतने प्रमाण ही काल होता है।31।
धवला 7/2,2,201/182/6 उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसे सासणं गदस्स सासणगुणस्स एगसमयकालोवलंभादो। जेत्तिया उवसमसम्मत्तद्धा एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छावलियाओ त्ति अवसेसा अत्थि तत्तिया चेव सासणगुणद्धावियप्पा होंति। =क्योंकि, उपशम सम्यक्त्व के काल में एकसमय शेष रहने पर सासादनगुणस्थान में जाने वाले जीव के सासादनगुणस्थान का एक समय काल पाया जाता है। एक समय से प्रारंभ कर अधिक से अधिक छह आवलियों तक जितना उपशम सम्यक्त्व का काल शेष रहता है, उतने ही सासादनगुणस्थान के विकल्प होते हैं।
4. उक्त काल से हीन या अधिक शेष रहने पर सासादन को प्राप्त नहीं होता
कषायपाहुड़ सुत्त/10/गा.97/631 उवसामगो च सव्वो...णिरासाणो। उवसंते भजियव्वो णीरासणो य खीणम्मि।97। =जब तक दर्शनमोह का उपशम कर रहा है तब तक वह सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता है। उसका उपशम हो जाने पर भजितव्य है, अर्थात् सासादन को प्राप्त हो भी जाता है और नहीं भी। [प्रथमोपशम काल में एक समय से छह आवली तक शेष रहने पर तो कदाचित् प्राप्त हो जाता है। परंतु उस उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त हो जाने पर प्राप्त नहीं होता है।] ( धवला 6/1,9-8,9/ गा.4/239); ( लब्धिसार/ मू./99/136)
धवला 4/1,5,8/ गा.32/342 उवसमसंपत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज अवसिट्ठा। तो सासणं पवज्जइ णो हेठ्ठुक्कट्ठकालेसु।32। = उपशम सम्यक्त्व का छह आवली प्रमाण अवशिष्ट होवे तो जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है, यदि इससे अधिक काल अवशिष्ट रहे तो नहीं प्राप्त होता है।32।
धवला 7/2,2,201/182/8 उवसम्मत्तकालं संपुण्णमच्छिदो सासणगुणं ण पडिवज्जदित्ति कधं णव्वदे। एदम्हादो चेव सुत्तादो, आइरियपरंपरागदुवदेसादौ वा। = प्रश्न-जो जीव उपशमसम्यक्त्व के संपूर्ण काल तक उपशमसम्यक्त्व में रहा है, वह सासादन गुणस्थान में नहीं जाता, यह कैसे जाना ?
उत्तर-प्रस्तुत सूत्र से (देखें शीर्षक नं - 3) ही तथा आचार्य परंपरागत उपदेश से भी पूर्वोक्त बात जानी जाती है।
लब्धिसार/ जी.प्र./99/136/16 उपशांते दर्शनमोहे अंतरायामे वर्तमान: प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि: सासादनगुणस्थानप्राप्त्या भक्तव्यो विकल्पनीय:। कस्यचित्प्रथमोपशमसम्यक्त्वकाले एकसमयादिषडावलिकांतावशेषे सासादनगुणत्वसंभवात् । उपशमसम्यक्त्वकाले क्षीणेसमाप्ते सति निरासादन एव तदा नियमेन मिथ्यात्वाद्यन्यतमोदयसंभवात् ।=दर्शनमोह के उपशांत हो जाने पर उस प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अंतरायाम में वर्तमान प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थान की प्राप्ति के लिए भजनीय है, अर्थात् प्राप्त करे अथवा न भी करे। तहाँ किसी जीव के प्रथमोपशम के काल में एक समय से छह आवली पर्यंत काल शेष रहने पर सासादन गुणस्थान का होना संभव है। परंतु उपशम सम्यक्त्व का काल क्षीण हो जाने पर निरासादन ही है अर्थात् सासादन को बिलकुल प्राप्त नहीं हो सकता। तब मिथ्यादि (मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व या सम्यक्प्रकृति इन तीनों में से किसी एक का उदय संभव है।)
(देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.8 ) [प्रथमोपशम से गिरकर अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार मिथ्यादृष्टि सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टि में से किसी भी गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है।]
5. द्वितीयोपशम से सासादन की प्राप्ति अप्राप्ति संबंधी दो मत
धवला 6/1,9-8,14/331/4 एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भंतरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज। ...एसो पाहुडचुण्णिसुत्ताभियाओ। भूदबलिभयवंतस्सुवएसेण उवसमसेडीदो ओदिण्णो ण सासणत्तं पडिवज्जदि। =
1.द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकाल के भीतर असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियों के शेष रहने पर सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। ...यह कषायप्राभृत चूर्णिसूत्र (यतिवृषभाचार्य) का अभिप्राय है। ( लब्धिसार/ मू./348); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/19/45/1 ); (देखें सम्यग्दर्शन - IV.3.3 में गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704 )।
2. किंतु भगवान् भूतबलि के उपदेशानुसार उपशेमश्रेणी से उतरता हुआ सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता। ( लब्धिसार/ मू./351)
धवला 5/1,6,7/11/2 उवसमसेडीदो ओदिण्णाणं सासणगमणाभावादो। तं पि कुदो णवदे। एदम्हादो चेव भूदबलीयवयणादो। = उपशमश्रेणी से उतरने वाले जीवों के सासादनगुणस्थान में गमन करने का अभाव है।
प्रश्न-यह कैसे जाना ?
उत्तर-भूतबली आचार्य के इसी वचन से जाना [कि सासादन गुणस्थान का जघन्य अंत एक जीव की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग है-(सू.7 पृ.9)]।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/548/718/17 अमी प्रथमद्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टय: स्वभवचरमे स्वसम्यक्त्वकाले जघन्येनैकसमये उत्कृष्टेन षडावलिमात्रेऽवशिष्टेऽनंतानुबंध्यंतमोदयेन सासादना भूत्वा...। =ये प्रथमोपशम व द्वितीयोपशम दोनों सम्यग्दृष्टि अपने भव के चरमसमय में अपने-अपने सम्यक्त्व के काल में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली मात्र अवशेष रहने पर अनंतानुबंधी चतुष्क में से किसी एक प्रकृति के उदय से सासादन होकर (मरते हैं, तब देवगति को प्राप्त करते हैं।)
6. सासादन से अवश्य मिथ्यात्व की प्राप्ति
राजवार्तिक/9/1/13/589/21 स हि मिथ्यादर्शनोदयफलमापादयन् मिथ्यादर्शनमेव प्रवेशयति। = यह (अनंतानुबंधी कषाय) मिथ्यादर्शन के फलों को उत्पन्न करती है, अत: मिथ्यादर्शन को उदय में आने का रास्ता खोल देती है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/548/718/20 सासादनकालमतीत्य मिथ्यादृष्टय एव भूत्वा। = सासादन का काल बीतने पर नियम से मिथ्यादृष्टि होकर...।
पुराणकोष से
दूसरा गुणस्थान-सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की ओर अभिमुख होने की जीव की प्रवृत्ति । हरिवंशपुराण 3.60