गुणस्थान: Difference between revisions
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14. अयोग केवली । <span class="GRef"> महापुराण 24.94, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.79-83 </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.588-61 </span>जीव आरंभिक चार गुणस्थानों में असंयत पाँचवें में संयतासंयत और शेष नौ गुणस्थानों में संयत होते हैं । इनमें बाह्य रूप से कोई भेद नहीं होता । सभी निर्ग्रंथ होते हैं । आत्मविशुद्धता की अपेक्षा भेद अवश्य होता है । ये जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं, इनमें विशुद्धता बढ़ती जाती है । इनमें सर्वाधिक सुख क्षायिक लब्धियों के धारक सयोग और अयोग केवलियों को प्राप्त होता है । इनका सुख इंद्रियविषयज नहीं होता आत्मोत्थ एवं शाश्वत होता है । अपूर्वकरण से लेकर क्षीणकषाय तक के जीवों के कषायों के उपशमन अथवा क्षय से उत्पन्न होने वाला सुख परम सुख होता है । इसके बाद इनके क्रमश: एक निद्रा, पांच इंद्रियाँ, चार कषाय, चार विकथा और एक स्नेह इन पंद्रह प्रमादों से रहित अप्रमत्त संयत जीवों के प्रशम रस रूप सुख होता है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से विरत प्रमत्त-संयत जीवों के शांति रूप सुख होता है । हिंसा आदि पाँच पापों से यथा-शक्ति एक देश निवृत्त संयतासंयत जीवों के महातृष्णा-विजय से उत्पन्न सुख होता है । अविरत सम्यक्दृष्टि के तत्त्व-श्रद्धान से उत्पन्न सुख होता है । इसके पश्चात् परस्पर विरुद्ध सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप परिणामों के धारी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सुख और दुःख दोनों से मिश्रित रहते हैं । सासादन | 14. अयोग केवली । <span class="GRef"> महापुराण 24.94, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.79-83 </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.588-61 </span> | ||
जीव आरंभिक चार गुणस्थानों में असंयत पाँचवें में संयतासंयत और शेष नौ गुणस्थानों में संयत होते हैं । इनमें बाह्य रूप से कोई भेद नहीं होता । सभी निर्ग्रंथ होते हैं । आत्मविशुद्धता की अपेक्षा भेद अवश्य होता है । ये जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं, इनमें विशुद्धता बढ़ती जाती है । | |||
इनमें सर्वाधिक सुख क्षायिक लब्धियों के धारक सयोग और अयोग केवलियों को प्राप्त होता है । इनका सुख इंद्रियविषयज नहीं होता '''आत्मोत्थ एवं शाश्वत''' होता है । अपूर्वकरण से लेकर क्षीणकषाय तक के जीवों के कषायों के उपशमन अथवा क्षय से उत्पन्न होने वाला सुख '''परम सुख''' होता है । इसके बाद इनके क्रमश: एक निद्रा, पांच इंद्रियाँ, चार कषाय, चार विकथा और एक स्नेह इन पंद्रह प्रमादों से रहित अप्रमत्त संयत जीवों के '''प्रशम रस रूप सुख''' होता है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से विरत प्रमत्त-संयत जीवों के '''शांति रूप सुख''' होता है । हिंसा आदि पाँच पापों से यथा-शक्ति एक देश निवृत्त संयतासंयत जीवों के '''महातृष्णा-विजय से उत्पन्न सुख''' होता है । अविरत सम्यक्दृष्टि के '''तत्त्व-श्रद्धान से उत्पन्न सुख''' होता है । इसके पश्चात् परस्पर विरुद्ध सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप परिणामों के धारी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव '''सुख और दुःख दोनों से मिश्रित''' रहते हैं । सासादन-सम्यग्दृष्टि जीवों को सम्यक्त्व के छूट जाने से सुख तो नहीं '''सुख का कुछ आभास''' होता है । मोह की सात प्रकृतियों से मोहित मूढ़ मिथ्यादृष्टि जीव को '''सुख की प्राप्ति नहीं''' होती । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.78-79 </span></p> | |||
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Revision as of 14:57, 26 November 2022
सिद्धांतकोष से
मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार चढ़ाव का नाम गुणस्थान है। परिणाम यद्यपि अनंत हैं, परंतु उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग परिणाम से लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तक की अनंतों वृद्धियों के क्रम को वक्तव्य बनाने के लिए उनको 14 श्रेणियों में विभाजित किया गया है। वे 14 गुणस्थान कहलाते हैं। साधक अपने अंतरंग प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने परिणामों को चढ़ाता है, जिसके कारण कर्मों व संस्कारों का उपशम, क्षय वा क्षयोपशम होता हुआ अंत में जाकर संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है, वही उसकी मोक्ष है।
- गुणस्थानों व उनके भावों का निर्देश
- गुणस्थान सामान्य लक्षण।
- गुणस्थानों की उत्पत्ति मोह और योग के कारण होती है।
- 14 गुणस्थानों के नाम निर्देश
- पृथक् पृथक् गुणस्थान विशेष।–देखें वह वह नाम
- सर्व गुणस्थानों में विरताविरत अथवा प्रमत्ताप्रमत्तादिपने का निर्देश।
- ऊपर के गुणस्थानों में कषाय अव्यक्त रहती है।–देखें रण - 3
- अप्रमत्त पर्यंत सब गुणस्थानों में अध:प्रवृत्तकरण परिणाम रहते हैं।–देखें करण - 4।
- चौथे गुणस्थान तक दर्शनमोह की और इससे ऊपर चारित्रमोह की अपेक्षा प्रधान है।
- संयत गुणस्थानों का श्रेणी व अश्रेणी रूप विभाजन।
- जितने परिणाम हैं उतने ही गुणस्थान क्यों नहीं।
- गुणस्थान निर्देश का कारण प्रयोजन।
- गुणस्थान सामान्य लक्षण।
- गुणस्थानों संबंधी कुछ नियम
- गुणस्थानों में परस्पर आरोहण व अवरोहण संबंधी नियम।
- प्रत्येक गुणस्थान पर आरोहण करने के लिए त्रिकरणों का नियम–देखें उपशम , क्षय व क्षयोपशम।
- दर्शन व चारित्रमोह का उपशम व क्षपण विधान।–देखें उपशम व क्षय
- गुणस्थानों में मृत्यु की संभावना असंभावना संबंधी नियम ।–देखें मरण - 3
- कौन गुणस्थान से मरकर कहाँ उत्पन्न हो और कौनसा गुण प्राप्त कर सके इत्यादि–देखें जन्म - 6।
- गुणस्थानों में उपशमादि 10 करणों का अधिकार।–देखें करण - 2।
- सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम–देखें मार्गणा - 6।
- 14 मार्गणाओं, जीवसमास आदि में गुणस्थानों के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् - 2।
- गुणस्थानों की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम
- पर्याप्तापर्याप्त तथा गतिकाय आदि में पृथक् पृथक् गुणस्थानों के स्वामित्व की विशेषताएँ–देखें वह वह नाम
- बद्धायुष्क की अपेक्षा गुणस्थानों का स्वामित्व।–देखें आयु - 6।
- गुणस्थानों में संभव कर्मों के बंध, उदय, सत्त्वादि की प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- गुणस्थानों में परस्पर आरोहण व अवरोहण संबंधी नियम।
- गुणस्थानों व उनके भावों का निर्देश
- गुणस्थान सामान्य का लक्षण
पं.सं./प्रा/1/3 जेहिं दु लक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहि भाघेहिं। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं।3।=दर्शनमोहनीयादि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने ‘गुणस्थान’ इस संज्ञा से निर्देश किया है। (पं.सं/सं/1/12) ( गोम्मटसार जीवकांड/8/29 )।
- गुणस्थानों की उत्पत्ति मोह और योग के कारण होती है।
गोम्मटसार जीवकांड/3/22 संखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा।=संक्षेप, ओघ ऐसी गुणस्थान की संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्गविषै रूढ़ है। बहुरि सो संज्ञा दर्शन चारित्र मोह और मन वचन काय योग तिनिकरि उपजी है।
- 14 गुणस्थानों के नाम निर्देश
षट्खंडागम 1/1,1/ सू 9-22/161-192 ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी।9। सासणसम्माइट्ठी।10। सम्मामिच्छाइट्ठी।11 असंजदसम्माइट्ठी।12। संजदासंजदा।13। पमत्तसंजदा।14। अप्पमत्तसंजदा।15। अपुव्वकरण-पविट्ठ-सुद्धि संजदेसु अत्थि उवसमा खवा।16। अणियट्ठि-बादर-सांपराइय-पविट्ठसुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा।17। सहुम-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धिसंजदेसु अत्थि उवसमा खवा।18। उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था।19। खीण-कसाय-वीयराय-छदुमत्था।20। सजोगकेवली।21। अजोगकेवली।22।=(गुणस्थान 14 होते हैं)–मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्र, असंयत या अविरत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत या देशविरत, प्रमत्तसंयत या प्रमत्तविरत, अप्रमतसंयत, अपूर्वकरण या अपूर्वकरण-प्रविष्टशुद्धिसंयत, अनिवृत्तिकरण या अनिवृत्तिकरणबादरसांपराय-प्रविष्टशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपराय या सूक्ष्म सांपराय प्रविष्ट शुद्धि संयत, उपशांतकषाय या उपशांतकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय या क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली (मू.आ/1195-1196), (पं.सं./प्रा/1/4-5), ( राजवार्तिक/9/1/11/588/8 ), ( गोम्मटसार जीवकांड/9-10/30 ) (पं.सं/सं./1/15-18)।
- सर्वगुणस्थानों में विरताविरतपने का अथवा प्रमत्ताप्रमत्तपने आदि का निर्देश
धवला 1/1,1,12-21/ पृष्ठ/पंक्ति ‘असंजद’ इदि जं सम्मादिट्ठिस्स विसेसणवयणं तमंतदीवयत्तादो हेट्ठिल्लाणं सयल-गुणट्ठाणाणमसंजदत्तं परूवेदि। उवरि असंजदभावं किण्ण परूवेदि त्ति उत्ते ण परूवेदि, उवरि सव्वत्थं संजमासंजम-संजम-विसेसणोवलंभादो त्ति। (172/8)। एदं सम्माइट्ठि वयणं उवरिम-सव्व-गुणट्ठाणेसु अणुवट्टइ गंगा-णई-पवाहो व्व (173/7)। प्रमत्तवचनमंतदीपकत्वाच्छेषातीतसर्वगुणेषु प्रमादास्तित्वं सूचयति। (176/6)। बादरग्रहणमंतदीपकत्वाद् गताशेषगुणस्थानानि बादरकषायाणीति प्रज्ञापनार्थम्, ‘सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति’ इति न्यायात् । (185/1)। छद्मस्थग्रहणमंतदीपकत्वादतीताशेषगुणानां सावरणत्वस्य सूचकमित्यवगंतव्यम् (190/2)। सयोगग्रहणमधस्तनसकलगुणानां सयोगत्वप्रतिपादकमंतदीपकत्वात् (191/5)।=सूत्र में सम्यग्दृष्टि के लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है, वह अंतदीपक है, इसलिए वह अपने से नीचे के भी समस्त गुणस्थानों के असयंतपने का निरूपण करता है। (इससे ऊपरवाले गुणस्थानों में सर्वत्र संयमासंयम या संयम विशेषण पाया जाने से उनके असंयमपने का यह प्ररूपण नहीं करता है। (अर्थात् चौथे गुणस्थान तक सब गुणस्थान असंयत हैं और इससे ऊपर संयतासंयत या संयत/ (172/8)।। इस सूत्र में जो सम्यग्दृष्टि पद है, वह गंगा नदी के प्रवाह के समान ऊपर के समस्त गुणस्थानों में अनिवृत्ति को प्राप्त होता है। अर्थात् पाँचवें आदि समस्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है। (173/7)। यहाँ पर प्रमत्त शब्द अंतदीपक है, इसलिए वह छठवें गुणस्थान से पहिले के संपूर्ण गुणस्थानों में प्रमाद के अस्तित्व को सूचित करता है। (अर्थात् छठे गुणस्थान तक सब प्रमत्त हैं और इससे ऊपर सातवें आदि गुणस्थान सब अप्रमत्त हैं। (176/6)।। सूत्र में जो ‘बादर’ पद का ग्रहण किया है, वह अंतदीपक होने से पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थान बादरकषाय हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए ग्रहण किया है, ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि जहाँ पर विशेषण संभव हो अर्थात् लागू पड़ता हो और न देने पर व्यभिचार आता हो, ऐसी जगह दिया गया विशेषण सार्थक होता है, ऐसा न्याय है (185/1)। इस सूत्र में आया हुआ छद्मस्थ पद अंतदीपक है, इसलिए उसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों के सावरण (या छद्मस्थ) पने का सूचक समझना चाहिए (190/2)। इस सूत्र में जो सयोग पद का ग्रहण किया है, वह अंतदीपक होने से नीचे के संपूर्ण गुणस्थानों के सयोगपने का प्रतिपादक है (191/5)।
- चौथे गुणस्थान तक दर्शनमोह की तथा इससे ऊपर चारित्रमोह की अपेक्षा प्रधान है
गोम्मटसार जीवकांड/12-13/35 एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच्च भणिदा हु। चारित्तं णत्थि जदो अविरद अंतेसु ठाणेसु।12। देसविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमिय भावो दु। सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरिं।13। =(मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमश: जो औदयिक, पारिणामिक, क्षायोपशमिक व औपशमिकादि तीनों भाव बताये गये हैं। प्रा.11।) वे नियम से दर्शनमोह के आश्रय करके कहे गये हैं। प्रगटपनैं जातैं अविरतपर्यंत च्यारि गुणस्थानविषै चारित्र नाहीं है। इस कारण ते चारित्रमोह का आश्रयकरि नाहीं कहे हैं।12। देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत विषै क्षायोपशमिकभाव है, वह चारित्रमोह के आश्रय से कहा गया है। तैसे ही ऊपर भी अपूर्वकरणादि गुणस्थानविषैं चारित्रमोह को आश्रयकरि भाव जानने।13।
- संयत गुणस्थानों का श्रेणी व अश्रेणी रूप विभाजन
राजवार्तिक/9/1/16/589/30 एतदादीनि गुणस्थानानि चारित्रमोहस्य क्षयोपशमादुपशमात् क्षयाच्च भवंति।
राजवार्तिक/9/1/18/590/7 इत ऊर्ध्वं गुणस्थानानां चतुर्णां द्वे श्रेण्यौ भवत: उपशमकश्रेणी क्षपकश्रेणी चेति।=- संयतासंयत आदि गुणस्थान चारित्रमोह के क्षयोपशम से अथवा उपशम से अथवा क्षय से उत्पन्न होते हैं। (तहाँ भी)
- अप्रमत्त संयत से ऊपर के चार गुणस्थान उपशम या क्षपक श्रेणी में ही होते हैं।
- जितने परिणाम हैं उतने ही गुणस्थान क्यों नहीं
धवला 1/1,1,17/184/8 यावंत: परिणामास्तावंत: एव गुणा: किन्न भवंतीति चेन्न, तथा व्यवहारानुपपत्तौ द्रव्यार्थिकनयसमाश्रयणात् ।=प्रश्न–जितने परिणाम होते हैं उतने ही गुणस्थान क्यों नहीं होते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जितने परिणाम होते हैं, उतने ही गुणस्थान यदि माने जायें तो (समझने समझाने या कहने का) व्यवहार ही नहीं चल सकता हैं, इसलिए द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नियम संख्यावाले ही गुणस्थान कहे गये हैं।
- गुणस्थान निर्देश का कारण प्रयोजन
राजवार्तिक/9/1/10/588/6 तस्य संवरस्य विभावनार्थं गुणस्थानविभागवचनं क्रियते।=संवर के स्वरूप का विशेष परिज्ञान करने के लिए चौदह गुणस्थानों का विवेचन आवश्यक है।
- गुणस्थान सामान्य का लक्षण
- गुणस्थानों संबंधी कुछ नियम
- गुणस्थानों में परस्पर आरोहण व अवरोहण संबंधी नियम
गोम्मटसार कर्मकांड/556-559/760-762 चदुरेक्कदुपण पंच य छत्तिगठाणाणि अप्पमत्तंता। तिसु उवसमगे संतेत्ति य तियतिय दोण्णि गच्छंति।556। सासणपमत्तवेज्जं अपमत्तंतं समल्लियइ मिच्छो। मिच्छत्तं बिदियगणो मिस्सो पढमं चउत्थं च।557। अविरदसम्मा देसो पमत्तपरिहीणमपमत्तंतं। छट्ठाणाणि पमत्तो छट्ठगुणं अप्पमत्तो दु।558। उवसामगा दु सेढिं आरोहंति य पडंति य कमेण। उवसामगेसु मरिदो देवतमत्तं समल्लियई।559।
धवला 12/4,2,7,19/20/13 उक्कस्साणुभागेण सह आउवबंधे संजदासंजदादिहेट्ठिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो।=मिथ्यादृष्ट्यादिक निज निज गुणस्थान छेड़ैं अनुक्रमतैं 4,1,2,5,5,6,3 गुणस्थाननि कौ अप्रमत्तपर्यंत प्राप्त हो हैं। बहुरि अपूर्वकरणादिक तीन उपशमवाले तीन तीन कौं, उपशांत कषायवाले दोय गुणस्थानकनिकौं प्राप्त हो है।556। वह कैसे सो आगे कोष्ठकों में दर्शाया है–इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अनुभाग के साथ आयु के बाँधने पर (अप्रमत्तादि गुणस्थानों से) अधस्तन गुणस्थानों में गमन नहीं होता है।ध।
नोट–निम्न में से किसी भी गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है।
- गुणस्थानों में परस्पर आरोहण व अवरोहण संबंधी नियम
नं. |
गुणस्थान |
आरोहण क्रम |
अवरोहणक्रम |
1 |
मिथ्यादृष्टि अनादि |
उपशम सम्य.सहित 4,5,7 |
× |
|
मिथ्यादृष्टि सादि |
3,4,5,7 |
|
2 |
सासादन |
× |
1 |
3 |
मिश्र |
4 |
1 |
4 |
असंयत |
||
|
उपशम सम्य. |
5,7 |
सासादनपूर्वक 1 |
|
क्षायिक |
5,7 |
× |
|
क्षायोपशमिक |
5,7 |
3,1 |
5 |
संयतासंयत |
7 |
4,3,2,1 |
6 |
प्रमत्तसंयत |
7 |
5,4,3,2,1 |
7 |
अप्रमत्तसंयत |
8 |
6 (मृत्यु होने पर देवों में जन्म चौथा स्थान) |
8 |
अपूर्वकरण |
9 |
7 (मृत्यु होने पर देवों में जन्म चौथा स्थान) |
9 |
अनिवृत्तिकरण |
10 |
8 (मृत्यु होने पर देवों में जन्म चौथा स्थान) |
10 |
सूक्ष्मसांपराय |
11,12 |
9 (मृत्यु होने पर देवों में जन्म चौथा स्थान) |
11 |
उप-कषाय |
× |
10 (मृत्यु होने पर देवों में जन्म चौथा स्थान) |
12 |
क्षीणकषाय |
13 |
× |
13 |
सयोगी |
14 |
× |
14 |
अयोगी |
सिद्ध |
× |
पुराणकोष से
मोहनीय कर्मों के उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम के निमित्त हुई जीव की विभिन्न स्थितियाँ । वे चौदह है—
1. मिथ्यादृष्टि
2. सासादन
3. सम्यग्मिथ्यात्व
4. असंयतसम्यग्दृष्टि
5. संयतासंयत
6. प्रमत्तसंयत
7. अप्रमत्तसंयत
8. अपूर्वकरण
9. अनिवृत्तिकरण
10. सूक्ष्मसांपराय
11. उपशांतकषाय
12. क्षीण कषाय
13. सयोगकेवली और
14. अयोग केवली । महापुराण 24.94, हरिवंशपुराण 3.79-83 वीरवर्द्धमान चरित्र 16.588-61
जीव आरंभिक चार गुणस्थानों में असंयत पाँचवें में संयतासंयत और शेष नौ गुणस्थानों में संयत होते हैं । इनमें बाह्य रूप से कोई भेद नहीं होता । सभी निर्ग्रंथ होते हैं । आत्मविशुद्धता की अपेक्षा भेद अवश्य होता है । ये जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं, इनमें विशुद्धता बढ़ती जाती है ।