शतक: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> <strong> दिगंबरीय प्राकृत पंचसंग्रह–</strong></br>सबसे अधिक प्राचीन है। इसके पाँच अधिकारों के नाम हैं–जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका। षट्खंडागम का और कषायपाहुड़ का अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणास्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बंध उदय सत्त्व का विवेचन करते हैं ।343। इसमें कुल 1324 गाथायें तथा 500 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। <br> | <span class="HindiText"> <strong> दिगंबरीय प्राकृत पंचसंग्रह–</strong></br>सबसे अधिक प्राचीन है। इसके पाँच अधिकारों के नाम हैं–जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका। षट्खंडागम का और कषायपाहुड़ का अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणास्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बंध उदय सत्त्व का विवेचन करते हैं ।343। इसमें कुल 1324 गाथायें तथा 500 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। <br> | ||
समय – इसके रचयिता का नाम तथा समय ज्ञात नहीं है। तथापि अकलंक भट्ट (ई. 620-680) कृत राजवार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि.श.8 से पूर्व ही अनुमान किया जाता है ।351। (जैन धर्म का इतिहास/1/पृष्ठ)। डॉ. A.N.Up. ने इसे वि.श.5-8 में स्थापित किया है । (पंचसंग्रह/प्र. 39) । | समय – इसके रचयिता का नाम तथा समय ज्ञात नहीं है। तथापि अकलंक भट्ट (ई. 620-680) कृत राजवार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि.श.8 से पूर्व ही अनुमान किया जाता है ।351। (<span class="GRef">जैन धर्म का इतिहास/1/पृष्ठ</span>)। डॉ. A.N.Up. ने इसे वि.श.5-8 में स्थापित किया है । (<span class="GRef">पंचसंग्रह/प्र. 39</span>) । | ||
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<span>'कर्म प्रकृति' नामक श्वेतांबर ग्रंथ के बड़े भाई के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रंथ के रचयिता भी 'कर्म प्रकृति' के कर्ता आ.शिवशर्म सूरि (वि.500) ही बताये जाते हैं। गाथा संख्या 107 होने से इसका 'शतक' नाम सार्थक है, और कर्मों के बंध उदय आदि का प्ररूपक होने से 'बंध शतक' कहलाता है।313। दृष्टिवाद अंग के अष्टम पूर्व 'कर्म प्रवाद' की बंध विषयक गाथाओं का संग्रह होने से इसे 'बंध समास' भी कहा जा सकता है।314। गाथा संख्या 105 में इसे 'कर्म प्रवाद' अंग का संक्षिप्त स्यंद या सार कहा गया है।312। चूर्णिकार चंद्रर्षि महत्तर ने इसकी उत्पत्ति दृष्टिवाद अंग के ‘अग्रणी’ नामक द्वि.पूर्व के अंतर्गत ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ के 'बंधन' नामक अष्टम अनुयोग द्वार से बताई है।358। इसके पूर्वार्ध भाग में जीव समास, गुणस्थान, मार्गणा स्थान आदि में समवेत जीवकांडका, और अपरार्ध भाग में कर्मों के बंध उदय सत्त्व की व्युच्छित्ति विषयक कर्मकांड का विवेचन निबद्ध है।312। रचयिता ने अपने ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रंथ में सर्वत्र ‘शतक’ के स्थान पर ‘बंध शतक’ का नामोल्लेख किया है।313। समय-वि.500। (जै./1/पृष्ठ)। इस पर अनेकों चूर्णियां लिखी जा चुकी हैं। ।</span></li> | <span>'कर्म प्रकृति' नामक श्वेतांबर ग्रंथ के बड़े भाई के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रंथ के रचयिता भी 'कर्म प्रकृति' के कर्ता आ.शिवशर्म सूरि (वि.500) ही बताये जाते हैं। गाथा संख्या 107 होने से इसका 'शतक' नाम सार्थक है, और कर्मों के बंध उदय आदि का प्ररूपक होने से 'बंध शतक' कहलाता है।313। दृष्टिवाद अंग के अष्टम पूर्व 'कर्म प्रवाद' की बंध विषयक गाथाओं का संग्रह होने से इसे 'बंध समास' भी कहा जा सकता है।314। गाथा संख्या 105 में इसे 'कर्म प्रवाद' अंग का संक्षिप्त स्यंद या सार कहा गया है।312। चूर्णिकार चंद्रर्षि महत्तर ने इसकी उत्पत्ति दृष्टिवाद अंग के ‘अग्रणी’ नामक द्वि.पूर्व के अंतर्गत ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ के 'बंधन' नामक अष्टम अनुयोग द्वार से बताई है।358। इसके पूर्वार्ध भाग में जीव समास, गुणस्थान, मार्गणा स्थान आदि में समवेत जीवकांडका, और अपरार्ध भाग में कर्मों के बंध उदय सत्त्व की व्युच्छित्ति विषयक कर्मकांड का विवेचन निबद्ध है।312। रचयिता ने अपने ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रंथ में सर्वत्र ‘शतक’ के स्थान पर ‘बंध शतक’ का नामोल्लेख किया है।313। समय-वि.500। (<span class="GRef">जै./1/पृष्ठ</span>)। इस पर अनेकों चूर्णियां लिखी जा चुकी हैं। ।</span></li> | ||
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<span>उपर्युक्त ग्रंथ को ही कुछ अंतर के साथ श्री देवेंद्र सूरि ने भी लिखा है। जिस पर उन्हीं की एक स्वोपज्ञ टीका भी है। समय-वि.श.13 का अंत। (जैन धर्म का इतिहास/1/435)।</span></li> | <span>उपर्युक्त ग्रंथ को ही कुछ अंतर के साथ श्री देवेंद्र सूरि ने भी लिखा है। जिस पर उन्हीं की एक स्वोपज्ञ टीका भी है। समय-वि.श.13 का अंत। (<span class="GRef">जैन धर्म का इतिहास/1/435</span>)।</span></li> | ||
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Revision as of 14:38, 22 December 2022
सिद्धांतकोष से
दिगंबरीय प्राकृत पंचसंग्रह–
सबसे अधिक प्राचीन है। इसके पाँच अधिकारों के नाम हैं–जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका। षट्खंडागम का और कषायपाहुड़ का अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणास्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बंध उदय सत्त्व का विवेचन करते हैं ।343। इसमें कुल 1324 गाथायें तथा 500 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है।
समय – इसके रचयिता का नाम तथा समय ज्ञात नहीं है। तथापि अकलंक भट्ट (ई. 620-680) कृत राजवार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि.श.8 से पूर्व ही अनुमान किया जाता है ।351। (जैन धर्म का इतिहास/1/पृष्ठ)। डॉ. A.N.Up. ने इसे वि.श.5-8 में स्थापित किया है । (पंचसंग्रह/प्र. 39) ।
पुराणकोष से
शतक-इस नाम के दो ग्रंथ प्राप्त हैं।
- 'कर्म प्रकृति' नामक श्वेतांबर ग्रंथ के बड़े भाई के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रंथ के रचयिता भी 'कर्म प्रकृति' के कर्ता आ.शिवशर्म सूरि (वि.500) ही बताये जाते हैं। गाथा संख्या 107 होने से इसका 'शतक' नाम सार्थक है, और कर्मों के बंध उदय आदि का प्ररूपक होने से 'बंध शतक' कहलाता है।313। दृष्टिवाद अंग के अष्टम पूर्व 'कर्म प्रवाद' की बंध विषयक गाथाओं का संग्रह होने से इसे 'बंध समास' भी कहा जा सकता है।314। गाथा संख्या 105 में इसे 'कर्म प्रवाद' अंग का संक्षिप्त स्यंद या सार कहा गया है।312। चूर्णिकार चंद्रर्षि महत्तर ने इसकी उत्पत्ति दृष्टिवाद अंग के ‘अग्रणी’ नामक द्वि.पूर्व के अंतर्गत ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ के 'बंधन' नामक अष्टम अनुयोग द्वार से बताई है।358। इसके पूर्वार्ध भाग में जीव समास, गुणस्थान, मार्गणा स्थान आदि में समवेत जीवकांडका, और अपरार्ध भाग में कर्मों के बंध उदय सत्त्व की व्युच्छित्ति विषयक कर्मकांड का विवेचन निबद्ध है।312। रचयिता ने अपने ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रंथ में सर्वत्र ‘शतक’ के स्थान पर ‘बंध शतक’ का नामोल्लेख किया है।313। समय-वि.500। (जै./1/पृष्ठ)। इस पर अनेकों चूर्णियां लिखी जा चुकी हैं। ।
- उपर्युक्त ग्रंथ को ही कुछ अंतर के साथ श्री देवेंद्र सूरि ने भी लिखा है। जिस पर उन्हीं की एक स्वोपज्ञ टीका भी है। समय-वि.श.13 का अंत। (जैन धर्म का इतिहास/1/435)।
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