आवर्त्त: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 4: | Line 4: | ||
<p class="HindiText">= मन, वचन, काय के पलटने को आवर्त कहते हैं। ये आवर्त बारह होते हैं। जो सामायिक दण्ड के आरंभ और समाप्ति में तथा चतुर्विंशति स्तव दण्डक के आरंभ और समाप्ति के समय किये जाते हैं।</p> | <p class="HindiText">= मन, वचन, काय के पलटने को आवर्त कहते हैं। ये आवर्त बारह होते हैं। जो सामायिक दण्ड के आरंभ और समाप्ति में तथा चतुर्विंशति स्तव दण्डक के आरंभ और समाप्ति के समय किये जाते हैं।</p> | ||
<p> <span class="GRef">धवला पुस्तक (13/5,4,28/90/3)</span></p> | <p> <span class="GRef">धवला पुस्तक (13/5,4,28/90/3)</span></p> | ||
<p class="HindiText">भाष्यकार-जैसे “णमो | <p class="HindiText">भाष्यकार-जैसे “णमो अरहंताणं“ इत्यादि सामायिक दण्ड के पहले क्रिया विज्ञापन रूप मनोविकल्प होता है, उस मनोविकल्प को छोड़कर सामायिक दण्ड के उच्चारण के प्रति मन को लगाना सो मन परावर्तन है। उसी समायिक दण्ड के पहले भूमि स्पर्श रूप नमस्कार किया जाता है उस वक्त वंदना मुद्रा की जाती है, उस वंदना मुद्रा को त्याग कर पुनः खड़ा होकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा रूप दोनों हाथों को करके तीन बार घुमाना काय परावर्तन है। “चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि''? इत्यादि उच्चारण को छोड़कर “णमो अरहंताणं'' इत्यादि पाठ का उच्चारण करना सो वाक्परावर्तन है। इस तरह सामायिक दण्ड के पहले मन, वचन और काय परावर्तन रूप तीन आवर्त होते हैं। इसी तरह सामायिक दण्डक के अंत में तीन-तीन आवर्त यथायोग्य होते हैं। एवं सब मिलकर एक कार्योत्सर्ग में 12 आवर्त होते हैं।</p> | ||
<p class="HindiText">• कृतिकर्म में आवर्त करने का विधान - देखें [[ कृतिकर्म#2.8 | कृतिकर्म - 2.8]],। [[ कृतिकर्म#4.2 | कृतिकर्म 4.2]] |</p> | <p class="HindiText">• कृतिकर्म में आवर्त करने का विधान - देखें [[ कृतिकर्म#2.8 | कृतिकर्म - 2.8]],। [[ कृतिकर्म#4.2 | कृतिकर्म 4.2]] |</p> | ||
Latest revision as of 12:28, 23 December 2022
अनगार धर्मामृत अधिकार 8/88-89
शुभयोगपरावर्तानावर्तान् द्वादशाहुराद्यन्ते साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोंगगीः संयतं परावर्त्त्यम् ॥88॥
= मन, वचन और शरीर की चेष्टा को अथवा उसके द्वारा होने वाले आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन को योग कहते है। हिंसादिक अशुभ प्रवृत्तियों से रहित योग प्रशस्त समझा जाता है। इसी प्रशस्त योग को एक अवस्था से हटा कर दूसरी अवस्था में ले जाने का नाम परावर्त्तन है और इसका दूसरा नाम आवर्त भी है। इसके मन वचन काय की अपेक्षा तीन भेद हैं और यह सामायिक तथा स्तव की आदि में तथा अंत में किया जाता है। अतएव इसके बारह भेद होते हैं। जो मुमुक्षु साधु वंदना करने के लिए उद्यत हैं उन्हें यह बारह प्रकार का आवर्त करना चाहिए अर्थात् उन्हें, अपने मन, वचन व काय सामायिक तथा स्तव की आदि एवं अंत में पाप व्यापार से हटा कर अवस्थांतर को प्राप्त कराने चाहिए ॥88॥
क्रियाकलाप मुख्याधिकार संख्या 1/13
कथिता द्वादशावर्त्ता वपुर्वचनचेतसाम्। स्तवसामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणाः।
= मन, वचन, काय के पलटने को आवर्त कहते हैं। ये आवर्त बारह होते हैं। जो सामायिक दण्ड के आरंभ और समाप्ति में तथा चतुर्विंशति स्तव दण्डक के आरंभ और समाप्ति के समय किये जाते हैं।
धवला पुस्तक (13/5,4,28/90/3)
भाष्यकार-जैसे “णमो अरहंताणं“ इत्यादि सामायिक दण्ड के पहले क्रिया विज्ञापन रूप मनोविकल्प होता है, उस मनोविकल्प को छोड़कर सामायिक दण्ड के उच्चारण के प्रति मन को लगाना सो मन परावर्तन है। उसी समायिक दण्ड के पहले भूमि स्पर्श रूप नमस्कार किया जाता है उस वक्त वंदना मुद्रा की जाती है, उस वंदना मुद्रा को त्याग कर पुनः खड़ा होकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा रूप दोनों हाथों को करके तीन बार घुमाना काय परावर्तन है। “चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि? इत्यादि उच्चारण को छोड़कर “णमो अरहंताणं इत्यादि पाठ का उच्चारण करना सो वाक्परावर्तन है। इस तरह सामायिक दण्ड के पहले मन, वचन और काय परावर्तन रूप तीन आवर्त होते हैं। इसी तरह सामायिक दण्डक के अंत में तीन-तीन आवर्त यथायोग्य होते हैं। एवं सब मिलकर एक कार्योत्सर्ग में 12 आवर्त होते हैं।
• कृतिकर्म में आवर्त करने का विधान - देखें कृतिकर्म - 2.8,। कृतिकर्म 4.2 |