कृतिकर्म: Difference between revisions
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<li class="HindiText">द्रव्यश्रुत के १४ पूर्वों में से बारहवें पूर्व का छहों प्रकीर्णक– देखें - [[ श्रुतज्ञान#III.1 | श्रुतज्ञान / III / १ ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText">दैनिकादि क्रियाओं में साधुओं को किस प्रकार के आसन, मुद्रा आदि का ग्रहण करना चाहिए तथा किस अवसर पर कौन भक्ति व पाठादि का उच्चारण करना चाहिए, अथवा प्रत्येक भक्ति आदि के साथ किस प्रकार आर्वत, नति व नमस्कार आदि करना चाहिए, इस सब विधि विधान को कृतिकर्म कहते हैं। इसी विषय का विशेष परिचय इस अधिकार में दिया गया है। </li> | |||
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Revision as of 21:19, 24 December 2013
- द्रव्यश्रुत के १४ पूर्वों में से बारहवें पूर्व का छहों प्रकीर्णक– देखें - श्रुतज्ञान / III / १ ।
- दैनिकादि क्रियाओं में साधुओं को किस प्रकार के आसन, मुद्रा आदि का ग्रहण करना चाहिए तथा किस अवसर पर कौन भक्ति व पाठादि का उच्चारण करना चाहिए, अथवा प्रत्येक भक्ति आदि के साथ किस प्रकार आर्वत, नति व नमस्कार आदि करना चाहिए, इस सब विधि विधान को कृतिकर्म कहते हैं। इसी विषय का विशेष परिचय इस अधिकार में दिया गया है।
- भेद व लक्षण
- कृतिकर्म का लक्षण।
- कृतिकर्म स्थितिकल्प का लक्षण।
- कृतिकर्म का लक्षण।
- कृतिकर्म निर्देश
- कृतिकर्म के नौ अधिकार।
- कृतिकर्म के प्रमुख अंग।
- कृतिकर्म कौन करे (स्वामित्व)।
- कृतिकर्म किसका करे।
- किस-किस अवसर पर करे।
- नित्य करने की प्रेरणा।
- कृतिकर्म की प्रवृत्ति आदि व अन्तिम तीर्थों में ही कही गयी हैं।
- आवर्तादि करने की विधि।
- * प्रत्येक कृतिकर्म में आवर्त नमस्कारादि का प्रमाण– देखें - कृतिकर्म / २ / ९ ।
- * कृतिकर्म के अतिचार– देखें - व्युत्सर्ग / १ ।
- अधिक बार आवर्तादि करने का निषेध नहीं।
- कृतिकर्म के नौ अधिकार।
- कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि
- योग्य मुद्रा व उसका प्रयोजन।
- योग्य आसन व उसका प्रयोजन।
- योग्य पाठ।
- योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन।
- योग्य दिशा।
- * योग्य काल–(देखें - वह वह विषय )।
- योग्य भाव आत्माधीनता।
- योग्य शुद्धियाँ।
- आसन क्षेत्र काल आदि के नियम अपवाद मार्ग हैं; उत्सर्ग नहीं।
- योग्य मुद्रा व उसका प्रयोजन।
- कृतिकर्म विधि
- साधु का दैनिक कार्यक्रम।
- कृतिकर्मानुपूर्वी विधि।
- प्रत्येक क्रिया के साथ भक्ति के पाठों का नियम।
- साधु का दैनिक कार्यक्रम।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- कृतिकर्म विषयक सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–दे० वह वह नाम।
- कृतिकर्म की संघातन परिशातन कृति–दे० वह वह नाम।
- कृतिकर्म विषयक सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–दे० वह वह नाम।
- भेद व लक्षण—
- कृतिकर्म का लक्षण
ष.खं./१३/५,४/सू.२८/८८ तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम/२८/।=आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना (त्रि:कृत्वा) तीन बार अवनति (नमस्कार), चार बार सिर नवाना (चतु:शिर) और १२ आवर्त ये सब क्रियाकर्म कहलाते हैं। (अन.ध./९/१४)।
क.पा./१/१,१/१/११८/२ जिणसिद्धाइरियं बहुसुदेसु वदिज्जमाणेसु। जं कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम।=जिनदेव, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय की (नव देवता की) वन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं। (गो.जी./जी.प्र./३६७/७९०/५)
मू.आ./भाषा/५७६ जिसमें आठ प्रकार के कर्मों का छेदन हो वह कृतिकर्म है। - कृतिकर्म स्थितिकल्प का लक्षण
भ.आ./टी./४२१/६१४/१० चरणस्थेनापि विनयो गुरूणां महत्तराणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पञ्चम: कृतिकर्मसंज्ञित: स्थितिकल्प:।=चारित्र सम्पन्न मुनि का, अपने गुरु का और अपने से बड़े मुनियों का विनय करना शुश्रूषा करना यह कर्तव्य है। इसको कृतिकर्म स्थितिकल्प कहते हैं।
- कृतिकर्म का लक्षण
- कृतिकर्म निर्देश—
- कृतिकर्म के नौ अधिकार—
मू.आ./५७५-५७६ किदियम्मं चिदियम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च। कादव्वं केण कस्स कथं व कहिं व कदि खुत्तो।५७६। कदि ओणदं कदि सिरं कदिए आवत्तगेहिं परिसुद्धं। कदि दोसविप्पमुक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं।५७७।=जिससे आठ प्रकार के कर्मों का छेदन हो वह कृतिकर्म है, जिससे पुण्यकर्म का संचय हो वह चितकर्म है, जिससे पूजा करना वह माला चन्दन आदि पूजाकर्म है, शुश्रूषा का करना विनयकर्म है।- वह क्रिया कर्म कौन करे,
- किसका करना,
- किस विधि से करना,
- किस अवस्था में करना,
- कितनी बार करना, (कृतिकर्म विधान);
- कितनी अवनतियों से करना,
- कितनी बार मस्तक में हाथ रखकर करना;
- कितने आवर्तों से शुद्ध होता है;
- कितने दोष रहित कृतिकर्म करना (अतिचार)—इस प्रकार नौ प्रश्न करने चाहिए (जिनको यहाँ चार अधिकारों में गर्भित कर दिया गया है।)
- कृतिकर्म के प्रमुख अंग—
ष.खं./१३/५,४/सू.२८/८८ तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम।=आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना (त्रि:कृत्वा), तीन बार अवनति (या नमस्कार), चार बार सिर नवाना (चतु:शिर), और बारह आवर्त ये सब क्रियाकर्म हैं। (समवायांग सूत्र २)
(क.पा./१/१,१/९१/११८/२) (चा.सा./१५७/१) (गो.जी१/जी.प्र./३६७/७१०/५)
मू.आ./६०१,६८६ दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य। चदुस्सिरं तिमुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।६०१। तियरणसव्वविसुद्धो दव्वं खेत्ते जधुत्तकालम्हि। मोणेणव्वाखित्तो कुज्जा आवासया णिच्चं।=ऐसे क्रियाकर्म को करे कि जिसमें दो अवनति (भूमि को छूकर नमस्कार) हैं, बारह आवर्त हैं, मन वचन काया की शुद्धता से चार शिरोनति हैं इस प्रकार उत्पन्न हुए बालक के समान करना चाहिए।६०१। मन, वचन काय करके शुद्ध, द्रव्य क्षेत्र यथोक्त काल में नित्य ही मौनकर निराकुल हुआ साधु आवश्यकों को करें।६८४। (भ.आ./११६/२७५/११ पर उद्धृत) (चा.सा./२५७/६ पर उद्धृत)
अन.ध./८/७८ योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति। विनयेन यथाजात: कृतिकर्मामलं भजेत् ।७८।=योग्य काल, आसन, स्थान (शरीर की स्थिति बैठे हुए या खड़े हुए), मुद्रा, आवर्त, और शिरोनति रूप कृतिकर्म विनयपूर्वक यथाजात रूप में निर्दोष करना चाहिए।
- कृतिकर्म कौन करे (स्वामित्व)—
मू.आ./५९० पंचमहव्वदगुत्तो संविग्गोऽणालसो अमाणो य। किदियम्म णिज्जरट्ठी कुणइ सदा ऊणरादिणिओ।५९०।=पंच महाव्रतों के आचरण में लीन, धर्म में उत्साह वाला, उद्यमी, मानकषाय रहित, निर्जरा को चाहने वाला, दीक्षा से लघु ऐसा संयमी कृतिकर्म को करता है। नोट–मूलाचार ग्रन्थ मुनियों के आचार का ग्रन्थ है, इसलिए यहाँ मुनियों के लिए ही कृतिकर्म करना बताया गया है। परन्तु श्रावक व अविरत सम्यग्दृष्टियों को भी यथाशक्ति कृतिकर्म अवश्य करना चाहिए।
ध./५,४,३१/९४/४ किरियाकम्मदव्वट्ठदा असंखेज्जा। कुदो। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्त सम्माइट्ठीसु चेव किरियाकम्मुवलंभादो।=क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता (द्रव्य प्रमाण) असंख्यात है, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र सम्यग्दृष्टियों में ही क्रिया कर्म पाया जाता है।
चा.सा./१५८/६ सम्यग्दृष्टीनां क्रियार्हा भवन्ति।
चा.सा./१६६/४ एवमुक्ता: क्रिया यथायोग्यं जघन्यमध्यमोत्तमश्रावकै: संयतैश्च करणीया:।=सम्यग्दृष्टियों के ये क्रिया करने योग्य होती हैं।... इस प्रकार उपरोक्त क्रियाएँ अपनी-अपनी योग्यतानुसार उत्तम, मध्यम जघन्य श्रावकों को तथा मुनियों को करनी चाहिए।
अन.ध./८/१२६/८३७ पर उद्धृत—सव्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने। जायते यस्य संतोषो जिनवक्त्रविलोकने। परिषहसह: शान्तो जिनसूत्रविशारद:। सम्यग्दृष्टिरनाविष्टो गुरुभक्त: प्रियंवद:।। आवश्यकमिदं धीर: सर्वकर्मनिषूदनम्। सम्यक् कर्तुमसौ योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता।=- रोगी की निरोगता की प्राप्ति से; तथा अन्धे को नेत्रों की प्राप्ति से जिस प्रकार हर्ष व संतोष होता है, उसी प्रकार जिनमुख विलोकन से जिसको सन्तोष होता हो
- परीषहों को जीतने में जो समर्थ हो,
- शान्त परिणामी अर्थात् मन्दकषायी हो;
- जिनसूत्र विशारद हो;
- सम्यग्दर्शन से युक्त हो;
- आवेश रहित हो;
- गुरुजनों का भक्त हो;
- प्रिय वचन बोलने वाला हो; ऐसा वही धीरे-धीरे सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करने वाले इस आवश्यक कर्म को करने का अधिकारी हो सकता है। और किसी में इसकी योग्यता नहीं रह सकती।
- कृतिकर्म किस का करे—
मू.आ./५९१ आइरियउवज्झायाणं पवत्तयत्थेरगणधरादीणं। एदेसिं किदियम्मं कादव्वं णिज्जरट्ठाए।५९१।=आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर आदि का कृतिकर्म निर्जरा के लिए करना चाहिए, मन्त्र के लिए नहीं। (क.पा./१/१,१/९१/११८/२)
गो.जी./जी.प्र./३६७/७९०/२ तच्च अर्हत्सिद्धाचार्यबहुश्रुतसाध्वादिनवदेवतावन्दनानिमित्त .... क्रियां विधानं च वर्णयति।=इस (कृतिकर्म प्रकीर्णक में) अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि नवदेवता (पाँच परमेष्ठी, शास्त्र, चैत्य, चैत्यालय तथा जिनधर्म) की वन्दना के निमित्त क्रिया विधान निरूपित है। - किस किस अवसर पर करे—
मू.आ./५९९ आलोयणायकरणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए अवराधे य गुरूणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।५९९।=आलोचना के समय, पूजा के समय, स्वाध्याय के समय, क्रोधादिक अपराध के समय–इतने स्थानों में आचार्य उपाध्याय आदि को वंदना करनी चाहिए।
भ.आ./वि./११६/२७८/२२ अतिचारनिवृत्तये कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवन्ति। रात्रिदिनपक्षमासचतुष्टयसंवत्सरादिकालगोचरातिचारभेदापेक्षया।=अतिचार निवृत्ति के लिए कायोत्सर्ग बहुत प्रकार का है। रात्रि कायोत्सर्ग, पक्ष, मास, चतुर्मास और संवत्सर ऐसे कायोत्सर्ग के बहुत भेद हैं। रात्रि, दिवस, पक्ष, मास, चतुर्मास, वर्ष इत्यादि में जो व्रत में अतिचार लगते हैं उनको दूर करने के लिए ये कायोत्सर्ग किये जाते हैं।
- नित्य करने की प्रेरणा—
अन.ध./८/७७ नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन् कर्मणा,.../...शुभगं कैवल्यमस्तिघ्नुते।७७। नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के द्वारा पाप कर्मों का निर्मूलन करते हुए...कैवल्य ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
- कृतिकर्म की प्रवृत्ति आदि व अन्तिम तीर्थों में ही कही गयी है—
मू.आ./६२९-६३० मज्झिमया दिढ़बुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य। तह्माहु जमाचरंति तं गरहंता वि सुज्झंति।६२९। पुरिमचरिमादु जहमा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य। तो सव्वपडिक्कमणं अंघलघोडय दिट्ठंतो।६३०।=मध्यम तीर्थंकरों के शिष्य स्मरण शक्तिवाले हैं, स्थिर चित्त वाले हैं, परीक्षापूर्वक कार्य करने वाले हैं, इस कारण जिस दोष को प्रगट आचरण करते हैं, उस दोष से अपनी निन्दा करते हुए शुद्ध चारित्र के धारण करने वाले होते हैं।६२९। आदि-अन्त के तीर्थंकरों के शिष्य चलायमान चित्त वाले होते हैं, मूढ़बुद्धि होते हैं, इसलिए उनके सब प्रतिक्रमण दण्डक का उच्चारण है। इसमें अन्धे घोड़े का दृष्टान्त है। कि—एक वैद्यजी गाँव चले गये। पीछे एक सेठ अपने घोड़े को लेकर इलाज कराने के लिए वैद्यजी के घर पधारे। वैद्यपुत्र को ठीक औषधि का ज्ञान तो था नहीं। उसने आलमारी में रखी सारी ही औषधियों का लेप घोड़े की आँख पर कर दिया। इससे उस घोड़े की आँखें खुल गई। इसी प्रकार दोष व प्रायश्चित्त का ठीक-ठीक ज्ञान न होने के कारण आगमोक्त आवश्यकादि को ठीक-ठीक पालन करते रहने से जीवन के दोष स्वत: शान्त हो जाते हैं। (भ.आ./वि./४२१/६१६/५)
- आवर्तादि करने की विधि—
अन.ध./८/८९ त्रि: संपुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत् पुन:। साम्यं पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत्।=आवश्यकों का पालन करने वाले तपस्वियों को सामायिक पाठ का उच्चारण करने के पहले दोनों हाथों को मुकुलित बनाकर तीन बार घुमाना चाहिए। घुमाकर सामायिक के ‘णमो अरहंताणं’ इत्यादि पाठ का उच्चारण करना चाहिए। पाठ पूर्ण होने पर फिर उसी तरह मुकुलित हाथों को तीन बार घुमाना चाहिए। यही विधि स्तव दण्डक के विषय में भी समझना चाहिए।
- अधिक बार भी आवर्त आदि करने का निषेध नहीं—
ध.१३/५,४,२८/८९/१४ एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं होदि। ण अण्णत्थ णवणपडिसेहो ऐदेण कदो, अण्णत्थणवणियमस्स पडिसेहाकरणादो।=इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु:सिर होता है। इससे अतिरिक्त नमन का प्रतिषेध नहीं किया गया है, क्योंकि शास्त्र में अन्यत्र नमन करने के नियम का कोई प्रतिषेध नहीं है। (चा.सा./१५७.५/);(अन.ध./८/९१)
- कृतिकर्म के नौ अधिकार—
- कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामग्री
- योग्यमुद्रा व उसका प्रयोजन
- शरीर निश्चल सीधा नासाग्रदृष्टि सहित होना चाहिए
भ.आ./मू./२०८९/१८०३ उज्जुअआयददेहो अचलं बंधेत्त पलिअंकं।=शरीर व कमर को सीधी करके तथा निश्चल करके और पर्यंकासन बाँधकर ध्यान किया जाता है।
रा.वा./९/४४/१/६३४/२० यथासुखमुपविष्टो बद्धपल्यङ्कासन: समृजं प्रणिधाय शरीरयष्टिमस्तब्धां स्वाङ्के वामपाणितलस्योपरि दक्षिणपाणितलमुत्तलं समुपादाय(नेते)नात्युन्मीलन्नातिनिमीलन् दन्तैर्दन्ताग्राणि संदधान: ईषदुन्नतमुख: प्रगुणमध्योऽस्तब्धमूर्ति: प्रणिधानगम्भीरशिरोधर: प्रसन्नवक्त्रवर्ण: अनिमिषस्थिरसौम्यदृष्टि: विनिहितनिद्रालस्यकामरागरत्यरतिशोकहास्यभयद्वेषविचिकित्स: मन्दमन्दप्राणापानप्रचार इत्येवमादिकृतपरिकर्मा साधु: ....।=सुखपूर्वक पल्यंकासन से बैठना चाहिए। उस समय शरीर को सम ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। अपनी गोद में बायें हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखे। नेत्र न अधिक खुले न अधिक बन्द। नीचे के दाँतों पर ऊपर के दाँतों को मिलाकर रखे। मुँह को कुछ ऊपर की ओर किये हुए तथा सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए, प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्य दृष्टि होकर (नासाग्र दृष्टि होकर (ज्ञा./२८/३५,); निद्रा, आलस्य, काम, राग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्दमन्द श्वासोच्छ्वास लेनेवाला साधु ध्यान की तैयारी करता है। (म.पु./२१/६०-६८);(चा.सा./१७१/६);(ज्ञा./२८/३४-३७);(त.अनु./९२-९३)
म.पु./२१/६६ अपि व्युत्सृष्टकायस्य समाधिप्रतिपत्तये। मन्दोच्छ्वासनिमेषादिवृत्तेर्नास्ति निषेधनम् ।६६।=(प्राणायाम द्वारा श्वास निरोध नहीं करना चाहिए देखें - प्राणायाम ), परन्तु शरीर से ममत्व छोड़ने वाले मुनि के ध्यान की सिद्धि के लिए मन्द-मन्द उच्छ्वास लेने का और पलकों की मन्द मन्द टिमकार का निषेध नहीं किया है।
- निश्चल मुद्रा का प्रयोजन
म.पु./२१/६७-६८ समावस्थितकायस्य स्यात् समाधानमङ्गिन:। दु:स्थिताङ्गस्य तद्भङ्गाद् भवेदाकुलता धिय:।६७। ततो तथोक्तपल्यङ्कलक्षणासनमास्थित:। ध्यानाभ्यासं प्रकुर्वीत योगी व्याक्षेपसुत्सृजन्।६८।=ध्यान के समय जिसका शरीर समरूप से स्थित होता है अर्थात् ऊँचा नीचा नहीं होता है, उसके चित्त की स्थिरता रहती है, और जिसका शरीर विषमरूप से स्थित है उसके चित्त की स्थिरता भंग हो जाती है, जिससे बुद्धि में आकुलता उत्पन्न होती है, इसलिए मुनियों को ऊपर कहे हुए पर्यंकासन से बैठकर और चित्त की चंचलता छोड़कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।
- अवसर के अनुसार मुद्रा का प्रयोग
अन.ध./८/८७ स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्ति: सामायिकस्तवे। योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनूज्झने।८७।=(कृतिकर्म रूप) आवश्यकों का पालन करने वालों को वन्दना के समय वन्दना मुद्रा और ‘सामायिक दण्डक’ पढ़ते समय तथा ‘थोस्सामि दण्डक’ पढ़ते समय मुक्ताशुक्ति मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए। यदि बैठकर कायोत्सर्ग किया जाये तो जिनमुद्रा धारण करनी चाहिए। (मुद्राओं के भेद व लक्षण–देखें - मुद्रा )
- शरीर निश्चल सीधा नासाग्रदृष्टि सहित होना चाहिए
- योग्य आसन व उसका प्रयोजन—
१. पर्यंक व कायोत्सर्ग की प्रधानता व उसका कारण
मू.आ./६०२ दुविहठाण पुनरुत्तं।=दो प्रकार के आसनों में से किसी एक से कृतिकर्म करना चाहिए।
भ.आ./मू./२०८९/१८०३ बंधेत्तु पलिअंकं।=पल्यंकासन बान्धकर किया जाता है। (रा.वा./९/४४/१/६३४/२०);(म.पु./२१/६०)
म.पु./२१/६९-७२ पल्यङ्क इव दिध्यासो: कायोत्सर्गोऽपि संमत:। संप्रयुक्त सर्वाङ्गो द्वात्रिंशद्दोषवर्जित:।६१। विसंस्थुलासनस्थस्य ध्रुवं गात्रस्य निग्रह:। तन्त्रिग्रहान्मन:पीडा ततश्च विमनस्कता।७०। वैमनस्ये च किं ध्यायेत् तस्यादिष्टं सुखासनम्। कायोत्सर्गश्च पर्यङ्क: ततोऽन्यद्विषमासनम्।७१। तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यते:। प्रायस्तत्रापि पल्यङ्कम् आममन्ति सुखासनम्।७२।=ध्यान करने की इच्छा करने वाले मुनि को पर्यंक आसन के समान कायोत्सर्ग आसन करने की भी आज्ञा है। परन्तु उसमें शरीर के समस्त अंग सम व ३२ दोषों से रहित रहने चाहिए ( देखें - व्युत्सर्ग / १ / १० ) विषम आसन से बैठने वाले के अवश्य ही शरीर में पीड़ा होने लगती है। उसके कारण मन में पीड़ा होती है और उससे व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है।७०। आकुलता उत्पन्न होने पर क्या ध्यान दिया जा सकता है ? इसलिए ध्यान के समय सुखासन लगाना ही अच्छा है। कायोत्सर्ग और पर्यंक ये दो सुखासन हैं। इनके सिवाय बाकी के सब आसन विषम अर्थात् दुःख देनेवाले हैं।७१। ध्यान करने वाले को इन्हीं दो आसनों की प्रधानता रहती है। और उन दोनों में भी पर्यंकासन अधिक सुखकर माना जाता है।७२। (ध. १३/५,४,२६/६६/२);(ज्ञा/२८/१२-१३,३१-३२) (का.अ./मू./३५५);(अन.ध./८/८४)२. समर्थ जनों के लिए आसन का कोई नियम नहीं:
ध.१३/५,४,२६/१४/६६ जच्चिय देहावत्था जया ण झाणावरोहिणी होइ। झाएज्जो तदवत्थो ट्ठियो णिसण्णो णिवण्णो वा=जैसी भी देह की अवस्था जिस समय ध्यान में बाधक नहीं होती उस अवस्था में रहते हुए खड़ा होकर या बैठकर (या म.पु.के अनुसार लेट कर भी) कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करे। (म.पु./२१/७५);(ज्ञा/२८/११)
भ.आ./मू./२०९०/१८०४ वीरासणमादीयं आसणसमपादमादियं ठाणं। सम्मं अधिदिट्ठी अध वसेज्जमुत्ताणसयणादि।२०९०।=वीरासन आदि आसनों से बैठकर अथवा समपाद आदि से खड़े होकर अर्थात् कायोत्सर्ग आसन से किंवा उत्तान शयनादिक से अर्थात् लेटकर भी धर्मध्यान करते हैं।२०९०।
म.पु./२१/७३-७४ वज्रकाया महासत्त्वा: सर्वावस्थान्तरस्थिता:। श्रूयन्ते ध्यानयोगेन संप्राप्ता: पदमव्ययम्।७३। बाहुल्यापेक्षया तस्माद् अवस्थाद्वयसंगर:। सक्तानां तूपसर्गाद्यै: तद्वैचित्र्यं न दुष्यति।७४।=आगम में ऐसा भी सुना जाता है कि जिनका शरीर वज्रमयी है, और जो महाशक्तिशाली है; ऐसे पुरुष सभी आसनों से (आसन के वीरासन, कुक्कुटासन आदि अनेकों भेद-देखें - आसन ) विराजमान होकर ध्यान के बल से अविनाशीपद को प्राप्त हुए हैं।७३। इसलिए कायोत्सर्ग और पर्यंक ऐसे दो आसनों का निरूपण असमर्थ जीवों की अधिकता से किया गया है। जो उपसर्ग आदि के सहन करने में अतिशय समर्थ हैं; ऐसे मुनियों के लिए अनेक प्रकार के आसनों के लगाने में दोष नहीं है।७४। (ज्ञा/२८१३-१७)
अन.ध./८/८३ त्रिविधं पद्यपर्यङ्कवीरासनस्वभावकम्। आसनं यत्नत: कार्य विदधानेन वन्दनाम्।=वन्दना करने वालों को पद्मासन पर्यंकासन और वीरासन इन तीन प्रकार के आसनों में से कोई भी आसन करना चाहिए।
- योग्य पीठ
रा.वा./९/४४/१/६३४/१९ समन्तात् बाह्यान्त:करणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले शुचावनुकूलस्पर्शे यथासुखमुपविष्टो।=सब तरफ से बाह्य और आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य, अनुकूल स्पर्शवाली पवित्र भूमि पर सुख पूर्वक बैठना चाहिए। (म.पु./२१/६०)
ज्ञा./२८/९ दारुपट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले। समाधिसिद्धये धीरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ।९।=धीर वीर पुरुष समाधि की सिद्धि के लिए काष्ठ के तख्ते पर, तथा शिला पर अथवा भूमि पर वा बालू रेत के स्थान में भले प्रकार स्थिर आसन करै। (त. अनु./९२)
अन.ध./८/८२ विजन्त्वशब्दमच्छिद्रं सुखस्पर्शमकीलकम्। स्थेयस्तार्णाद्यधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम्।=विनय की वृद्धि के लिए, साधुओं को तृणमय, शिलामय या काष्ठमय ऐसे आसन पर बैठना चाहिए, जिसमें क्षुद्र जीव न हों, जिसमें चरचर शब्द न होता हो, जिसमें छिद्र न हों, जिसका स्पर्श सुखकर हो, जो कील या कांटे रहित हो तथा निश्चल हो, हिलता न हो। - योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन
- गिरि गुफा आदि शून्य व निर्जन्तु स्थान:
र.क.श्रा./९९ एकान्ते सामायिकं निर्व्याक्षेपे वनेषुवास्तुषु च। चैत्यालयेषु वापि च परिचेत्यं प्रसन्नधिया।=क्षुद्र जीवों के उपद्रव रहित एकान्त में तथा वनों में अथवा घर तथा धर्मशालाओं में और चैत्यालयों में या पर्वत की गुफा आदि में प्रसन्न चित्त से सामायिक करना चाहिए। (का.अ./मू./६५३) (चा.सा./१९/२)
रा.वा./९/४४/१/६३४/१७ पर्वतगुहाकन्दरदरीद्रुमकोटरनदीपुलिनपितृवनजीर्णोद्यानशून्यागारादीनामन्यतमस्मिन्नवकाशे ...।=पर्वत, गुहा, वृक्ष की कोटर, नदी का तट, नदी का पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान और शून्यागार आदि किसी स्थान में भी ध्यान करता है। (ध.१३/५,४,२६/६६/१) ,(म.पु./२१/५७), (चा.सा./१७१/३),(त.अनु./९०)
ज्ञा./२८/१-७ सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते। कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धि: प्रजायते।१। सागरान्ते वनान्ते वा शैलशृङ्गान्तरेऽथवा। पुलिने पद्मखण्डान्ते प्राकारे शालसंकटे।२। सरिता संगमे द्वीपे प्रशस्ते तरुकोटरे। जीर्णोद्याने श्मशाने वा गुहागर्भे विजन्तुके।३। सिद्धकूटे जिनागारे कृत्रिमेऽकृत्रिमेऽपि वा। महर्द्धिकमहाधीरयोगिसंसिद्धवाञ्छिते।४।=सिद्धक्षेत्र, पुराण पुरुषों द्वारा सेवित, महातीर्थक्षेत्र, कल्याणकस्थान।१। सागर के किनारे पर वन, पर्वत का शिखर, नदी के किनारे, कमल वन, प्राकार (कोट), शालवृक्षों का समूह, नदियों का संगम, जल के मध्य स्थित द्वीप, वृक्ष के कोटर, पुराने वन, श्मशान, पर्वत की गुफा, जीवरहित स्थान, सिद्धकूट, कृत्रिम व अकृत्रिम चैत्यालय–ऐसे स्थानों में ही सिद्धि की इच्छा करने वाले मुनि ध्यान की सिद्धि करते हैं। (अन.ध./८/८१) ( देखें - वसतिका / ४ ) - निर्बाध व अनुकूल
भ.आ./मू./२०८९/१८०३ सुचिए समे विचित्ते देसे णिज्जंतुए अणुणाए।२०८९।=पवित्र, सम, निर्जन्तुक तथा देवता आदि से जिसके लिए अनुमति ले ली गयी है, ऐसे स्थान पर मुनि ध्यान करते हैं। (ज्ञा./२७/३२)
ध./१३/५,४,२६/१६-१७/६६ तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयणकायजोगाणं। भूदोवघायरहिओ सो देसो ज्झायमाणस्स।१६। णिच्चं वियजुवइपसूणवुंसयकुसीलवज्जियं जइणो। ट्ठाणं वियणं भणियं विसेसदो ज्झाणकालम्मि।१७। =मन, वचन व काय का जहाँ समाधान हो और जो प्राणियों के उपघात से रहित हो वही देश ध्यान करने वालों के लिए उचित है।१६। जो स्थान श्वापद, स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील जनों से रहित हो और जो निर्जन हो, यति जनों को विशेष रूप से ध्यान के समय ऐसा ही स्थान उचित है।१७। ( देखें - वसतिका / ३ व ४)
रा.वा./९/४४/१/६३४/१८ व्यालमृगपशुपक्षिमनुष्याणामगोचरे तत्रत्यैरागन्तुभिश्च जन्तुभि: परिवर्जिते नात्युष्णे नातिशीते नातिवाते वर्षातापवर्जिते समन्तात् बाह्यान्त:करणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले।=व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, न अति उष्ण और न अति शीत, न अधिक वायुवाला, वर्षा-आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफ से बाह्य और आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य ऐसे भूमितल पर स्थित होकर ध्यान करे। (म.पु./२१/५८-५९,७७); (चा.सा./१७१/४); (ज्ञा./२७/३३); (त.अनु./९०-९१); (अन.ध./८/८१) - पापी जनों से संसक्त स्थान का निषेध
ज्ञा./२७/२३-३० म्लेच्छाधमजनैर्जुष्टं दुष्टभूपालपालितम्। पाषण्डिमण्डलाक्रान्तं महामिथ्यात्ववासितम्।२३। कौलिकापालिकावासं रुद्रक्षुद्रादिमन्दिरम्। उद्भ्रान्तभूतवेतालं चण्डिकाभवनाजिरम्।२४। पण्यस्त्रीकृतसंकेतं मन्दचारित्रमन्दिरम्। क्रूरकर्माभिचाराढ्य कुशास्त्राभ्यासवञ्चितम्।२५। क्षेत्रजातिकुलोत्पन्नशक्तिस्वीकारदर्पितम्। मिलितानेकदु:शीलकल्पिताचिन्त्यसाहसम्।२६। द्यूतकारसुरापानविटवन्दिव्रजान्वितम्। पापिसत्त्वसमाक्रान्तं नास्तिकासारसेवितम्।२७। क्रव्यादकामुकाकोणं व्याधविध्वस्तश्वापदम्। शिल्पिकारुकविक्षिप्तमग्निजीवजनाश्चितम्।२८। प्रतिपक्षशिर:शूले प्रत्यनीकावलम्बितम्। आत्रेयीखण्डितव्यङ्गसंसृतं च परित्यजेत्।२९। विद्रवन्ति जना: पापा: संचरन्त्यभिसारिका:। क्षोभयन्तोङ्गिताकारैर्यत्र नार्योपशंकिता:।३०। =ध्यान करने वाले मुनि ऐसे स्थानों को छोड़े–म्लेच्छ व अधम जनोंसे सेवित, दुष्ट राजा से रक्षित, पाखण्डियों से आक्रान्त, महामिथ्यात्व से वासित।२३। कुलदेवता या कापालिक (रुद्र) आदि का वास व मन्दिर जहाँ कि भूत वेताल आदि नाचते हों अथवा वण्डिकादेवी के भवन का आँगन।२४। व्यभिचारिणी स्त्रियों के द्वारा संकेतित स्थान, कुचारित्रियों का स्थान, क्रूरकर्म करने वालों से संचारित, कुशास्त्रों का अभ्यास या पाठ आदि जहाँ होता हो।२५। जमींदारी अथवा जाति व कुल के गर्व से गर्वित पुरुष जिस स्थान में प्रवेश करने से मना करें, जिसमें अनेक दु:शील व्यक्तियों ने कोई साहसिक कार्य किया हो।२६। जुआरी, मद्यपायी, व्यभिचारी, बन्दीजन आदि के समूह से युक्त स्थान पापी जीवों से आक्रान्त, नास्तिकों द्वारा सेवित।२७। राक्षसों व कामी पुरुषों से व्याप्त, शिकारियों ने जहाँ जीव वध किया हो, शिल्पी, मोची आदिकों से छोड़ा गया स्थान, अग्निजीवी (लुहार, ठठेरे आदि) से युक्त स्थान।२८। शत्रु की सेना का पड़ाव, राजस्वला, भ्रष्टाचारी, नपुंसक व अंगहीनों का आवास।२९। जहाँ पापी जन उपद्रव करें, अभिसारिकाएँ जहाँ विचरती हों, स्त्रियाँ नि:शंकित होकर जहाँ कटाक्ष आदि करती हों।३०। (वसतिका/३) - समर्थजनों के लिए क्षेत्र का कोई नियम नहीं
ध.१३/५,४/२६/१८/६७ थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणेसु णिच्चलमणाणं। गामम्मि जणाइण्णे सण्णे रण्णे य ण विसेसो।१८।=परन्तु जिन्होंने अपने योगों को स्थिर कर लिया है और जिनका मन ध्यान में निश्चल है, ऐसे मुनियों के लिए मनुष्यों से व्याप्त ग्राम में और शून्य जंगल में कोई अन्तर नहीं है। (म.पु./२१/८०); (ज्ञा./२८/२२)
- क्षेत्र सम्बंधी नियम का कारण व प्रयोजन
म.पु./२१/७८-७९ वसतोऽस्य जनाकीर्णे विषयानभिपश्यत:। बाहुल्यादिन्द्रियार्थानां जातु व्यग्रीभवेन्मन:।७८। ततो विविक्तशायित्वं वने वासश्च योगिनाम्। इति साधारणो मार्गो जिनस्थविरकल्पयो:।७९।=जो मुनि मनुष्यों से भरे हुए शहर आदि में निवास करते हैं और निरन्तर विषयों को देखा करते हैं, ऐसे मुनियों का चित्त इन्द्रियों के विषयों की अधिकता होने से कदाचित् व्याकुल हो सकता है।७८। इसलिए मुनियों को एकान्त स्थान में ही शयन करना चाहिए और वन में ही रहना चाहिए यह जिनकल्पी और स्थिविरकल्पी दोनों प्रकार के मुनियों का साधारण मार्ग है।७९। (ज्ञा./२७/२२)
- योगदिशा
ज्ञा./२८/२३-२४ पूर्वदिशाभिमुख: साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा। प्रसन्नवदनो ध्याता ध्यानकाले प्रशस्यते।२३। =ध्यानी मुनि जो ध्यान के समय प्रसन्न मुख साक्षात् पूर्व दिशा में मुख करके अथवा उत्तर दिशा में मुख करके ध्यान करे सो प्रशंसनीय कहते हैं।२३। (परन्तु समर्थजनों के लिए दिशा का कोई नियम नहीं।२४।
नोट–(दोनों दिशाओं के नियम का कारण–देखें - दिशा )
- योग्य भाव आत्माधीनता
ध.१३/५,४,२८/८८/१० किरियाकम्मे कीरिमाणे अप्पायत्तं अपरवसत्तं आदाहीणं णाम। पराहीणभावेण किरियाकम्मं किण्ण कोरदे। ण, तहा किरियाकम्मं कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो जिणिंदादि अच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च।=क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीनता है। प्रश्न—पराधीन भाव से क्रियाकर्म क्यों नहीं किया जाता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि उस प्रकार क्रियाकर्म करने वाले के कर्मों का क्षय नहीं होगा और जिनेन्द्रदेव की आसादना होने से कर्मों का बन्ध होगा।
अन.ध./८/९६ कालुष्यं येन जातं तं क्षमयित्वैव सर्वत:। सङ्गाञ्च चिन्तां व्यावर्त्य क्रिया कार्या फलार्थिना।९६। =मोक्ष के इच्छुक साधुओं को सम्पूर्ण परिग्रहों की तरफ से चिन्ता को हटाकर और जिसके साथ किसी तरह का कभी कोई कालुष्य उत्पन्न हो गया हो, उसके क्षमा कराकर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिए।
- योग्य शुद्धियाँ
द्रव्य–क्षेत्र–काल व भाव शुद्धि; मन-वचन व काय शुद्धि; ईर्यापथ शुद्धि, विनय शुद्धि, कायोत्सर्ग-अवनति-आवर्त व शिरोनति आदि की शुद्धि–इस प्रकार कृतिकर्म में इन सब प्रकार की शुद्धियों का ठीक प्रकार विवेक रखना चाहिए। (विशेष–देखें - शुद्धि )। - आसन, क्षेत्र, काल आदि के नियम अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग नहीं
ध.१३/५,४,२६/१५,२०/६६ सव्वासु वट्टमाणा जं देसकालचेट्ठासु। वरकेवलादिलाहं पत्ता हु सो खवियपावा।१५। तो देसकालचेट्ठाणियमो ज्झाणस्स णत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं।२०।=सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं (आसनों) में विद्यमान मुनि अनेकविध पापों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञानादि को प्राप्त हुए।१५। ध्यान के शास्त्र में देश, काल और चेष्टा (आसन) का भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वत: जिस तरह योगों का समाधान हो उसी तरह प्रवृत्ति करनी चाहिए।२०। (म.पु./२१/८२-८३); (ज्ञा.२८/२१)
म.पु./२१/७६ देशादिनियमोऽप्येवं प्रायोवृत्तिव्यपाश्रय:। कृतात्मनां तु सर्वोऽपि देशादिर्ध्यानसिद्धये।७६।=देश आदि का जो नियम कहा गया है वह प्रायोवृत्ति को लिए हुए है, अर्थात् हीन शक्ति के धारक ध्यान करने वालों के लिए ही देश आदि का नियम है, पूर्ण शक्ति के धारण करने वालों के लिए तो सभी देश और सभी काल आदि ध्यान के साधन हैं।
और भी देखें - कृतिकर्म / ३ / २ ,४ (समर्थ जनों के लिए आसन व क्षेत्र का कोई नियम नहीं)
देखें - वह वह विषय –काल सम्बंधी भी कोई अटल नियम नहीं है। अधिक बार या अन्य–अन्य कालों में भी सामायिक, वन्दना, ध्यान आदि किये जाते हैं।
- गिरि गुफा आदि शून्य व निर्जन्तु स्थान:
- योग्यमुद्रा व उसका प्रयोजन
- कृतिकर्म-विधि
- साधु का दैनिक कार्यक्रम
मू.आ./६०० चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए। पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दस्सा होंति।६००।=प्रतिक्रमण काल में चार क्रियाकर्म होते हैं और स्वाध्याय काल में तीन क्रियाकर्म होते हैं। इस तरह सात सवेरे और सात साँझ को सब १४ क्रियाकर्म होते हैं।
(अन.ध. ९/१-१३/३४-३५)
- साधु का दैनिक कार्यक्रम
- कृतिकर्मानुपूर्वी विधि
कोषकार—साधु के दैनिक कार्यक्रम पर से पता चलता है कि केवल चार घड़ी सोने के अतिरिक्त शेष सर्व समय में वह आवश्यक क्रियाओं में ही उपयुक्त रहता है। वे उसकी आवश्यक क्रियाएँ छह कही गयी है—सामायिक, वन्दना, स्तुति, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान व कायोत्सर्ग। कहीं-कहीं स्वाध्याय के स्थान पर प्रतिक्रमण भी कहते हैं। यद्यपि ये छहों क्रियाएँ अन्तरंग व बाह्य दो प्रकार की होती हैं। परन्तु अन्तरंग क्रियाएँ तो एक वीतरागता या समता के पेट में समा जाती हैं। सामायिक व छेदोपस्थापना चारित्र के अन्तर्गत २४ घण्टों ही होती रहती हैं। यहाँ इन छहों का निर्देश वाचसिक व कायिकरूप बाह्य क्रियाओं की अपेक्षा किया गया है अर्थात् इनके अन्तर्गत मुख से कुछ पाठादि का उच्चारण और शरीर से कुछ नमस्कार आदि का करना होता है। इस क्रिया काण्ड का ही इस कृतिकर्म अधिकार में निर्देश किया गया है। सामायिक का अर्थ यहाँ ‘सामायिक दण्डक’ नाम का एक पाठ विशेष है और उस स्तव का अर्थ ‘थोस्सामि दण्डक’ नाम का पाठ जिसमें कि २४ तीर्थंकरों का संक्षेप में स्तवन किया गया है। कायोत्सर्ग का अर्थ निश्चल सीधे खड़े होकर ९ बार णमोकार मन्त्र का २७ श्वासों में जाप्य करना है। वन्दना, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, व प्रतिक्रमण का अर्थ भी कुछ भक्तियों के पाठों का विशेष क्रम से उच्चारण करना है, जिनका निर्देश पृथक् शीर्षक में दिया गया है। इस प्रकार के १३ भक्ति पाठ उपलब्ध होते हैं--- सिद्ध भक्ति,
- श्रुत भक्ति,
- चारित्र भक्ति,
- योग भक्ति,
- आचार्य भक्ति,
- निर्वाण भक्ति,
- नन्दीश्वर भक्ति,
- वीर भक्ति,
- चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति,
- शान्ति भक्ति,
- चैत्य भक्ति,
- पंचमहागुरु भक्ति व
- समाधि भक्ति। इनके अतिरिक्त ईर्यापथ शुद्धि, सामायिक दण्डक व थोस्सामि दण्डक ये तीन पाठ और भी हैं। दैनिक अथवा नैमित्तिक सर्व क्रियाओं में इन्हीं भक्तियों का उलट-पलट कर पाठ किया जाता है, किन्हीं क्रियाओं में किन्हीं का और किन्हीं में किन्हीं का। इन छहों क्रियाओं में तीन ही वास्तव में मूल हैं—देव या आचार्य वन्दना, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय या प्रतिक्रमण। शेष तीन का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उपरोक्त तीन मूल क्रियाओं के क्रियाकाण्ड में ही उनका प्रयोग किया जाता है। यही कृतिकर्म का विधि विधान है जिसका परिचय देना यहाँ अभीष्ट है। प्रत्येक भक्ति के पाठ के साथ मुख से सामायिक दण्डक व थोस्सामि दण्डक (स्तव) का उच्चारण; तथा काय से दो नमस्कार, ४ नति व १२ आवर्त करने होते हैं। इनका क्रम निम्न प्रकार है–(चा.सा./१५७/१ का भावार्थ)।
- पूर्व या उत्तराभिमुख खड़े होकर या योग्य आसन से बैठकर ‘‘विवक्षित भक्ति का प्रतिष्ठापन या निष्ठापन क्रियायां अमुक भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम्’’ ऐसे वाक्य का उच्चारण।
- पंचांग नमस्कार;
- पूर्व प्रकार खड़े होकर या बैठकर तीन आवर्त व एक नति;
- ‘सामायिक दण्डक’ का उच्चारण;
- तीन आवर्त व एक नति;
- कायोत्सर्ग;
- पंचांग नमस्कार;
- ३ आवर्त व एक नति;
- थोस्सामि दण्डक का उच्चारण;
- ३ आवर्त व एक नति;
- विवक्षित भक्ति के पाठ का उच्चारण;
- उस भक्ति पाठ की अंचलिका जो उस पाठ के साथ ही दी गयी है। इसी को दूसरे प्रकार से यों भी समझ सकते हैं कि प्रत्येक भक्ति पाठ से पहिले प्रतिज्ञापन करने के पश्चात् सामायिक व थोस्सामि दण्डक पढ़ने आवश्यक हैं। प्रत्येक सामायिक व थोस्सामि दण्डक से पूर्व व अन्त में एक एक शिरोनति की जाती है। इस प्रकार चार नति होती हैं। प्रत्येक नति तीन-तीन आवर्त पूर्वक ही होने से १२ आवर्त होते हैं। प्रतिज्ञापन के पश्चात् एक नमस्कार होता है और इसी प्रकार दोनों दण्डकों की सन्धि में भी। इस प्रकार २ नमस्कार होते हैं। कहीं कहीं तीन नमस्कारों का निर्देश मिलता है। तहाँ एक नमस्कार वह भी जोड़ लिया गया समझना जो कि प्रतिज्ञापन आदि से भी पहिले बिना कोई पाठ बोले देव या आचार्य के समक्ष जाते ही किया जाता है। (देखें - आवर्त व नमस्कार ) किस क्रिया के साथ कौन कौन-सी भक्तियाँ की जाती हैं, उसका निर्देश आगे किया जाता है। ( देखें - नमस्कार / ५ )
- प्रत्येक क्रिया के साथ भक्ति पाठों का निर्देश
(चा॰सा॰/१६०-१६६/६६;क्रि॰क॰/४ अध्याय) (अन.ध./९/४५-७४;८२-८५)
संकेत—ल=लघु; जहाँ कोई चिह्न नहीं दिया वहाँ वह बृहत् भक्ति समझना।
- नित्य व नैमित्तिक क्रिया की अपेक्षा
- अनेक अपूर्व चैत्य दर्शन क्रिया–अनेक अपूर्व जिन प्रतिमाओं को देखकर एक अभिरुचित जिनप्रतिमा में अनेक अपूर्व जिन चैत्य वन्दना करे। छठें महीने उन प्रतिमाओं में अपूर्वता सुनी जाती है। कोई नयी प्रतिमा हो या छह महीने पीछे पुन: दृष्टिगत हुई प्रतिमा हो उसे अपूर्व चैत्य कहते हैं। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ होने पर स्वरुचि के अनुसार किसी एक प्रतिमा के प्रति यह क्रिया करे। (केवल क्रि॰ क॰)
- अपूर्व चैत्य क्रिया—सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, सालोचनाचारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति। अष्टमी आदि क्रियाओं में या पाक्षिक प्रतिक्रमण में दर्शनपूजा अर्थात् अपूर्व चैत्य क्रिया का योग हो तो सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति करे। अन्त में शान्तिभक्ति करे। (केवल क्रि॰क॰)
- अभिषेक वन्दना क्रिया—सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शान्ति भक्ति।
- अष्टमी क्रिया—सिद्ध-भक्ति, श्रुतभक्ति, सालोचना चारित्रभक्ति, शान्ति भक्ति। (विधि नं॰ १), सिद्ध भक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति। (विधि नं॰ २)
- अष्टाह्निक क्रिया—सिद्धभक्ति, नन्दीश्वर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शान्ति भक्ति।
- आचार्यपद प्रतिष्ठान क्रिया—सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति, शान्ति भक्ति।
- आचार्य वन्दना—लघु सिद्ध, श्रुत व आचार्य भक्ति। (विशेष देखें - वन्दना ) केशलोंच क्रिया–ल॰सिद्ध–ल॰योगि भक्ति। अन्त में योगिभक्ति।
- चतुर्दशी क्रिया—सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति, (विधि नं॰ १)। अथवा चैत्य भक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति (विधि नं॰२)
- तीर्थंकर जन्म क्रिया—देखें - आगे पाक्षिकी क्रिया।
- दीक्षा विधि (सामान्य)
- सिद्धभक्ति, योगि भक्ति, लोंचकरण (केशलुंचण), नामकरण, नाग्न्य प्रदान, पिच्छिका प्रदान, सिद्धभक्ति।
- उसी दिन या कुछ दिन पश्चात् व्रतदान प्रतिक्रमण।
- दीक्षा विधि (क्षुल्लक), सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति, ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं नम:’ इस मंत्र का २१ बार या १०८ बार जाप्य। विशेष दे० (क्रि॰क॰/पृ॰ ३३७)
- दीक्षा विधि (बृहत्)—शिष्य–
- बृहत्प्रत्याख्यान क्रिया में सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, गुरु के समक्ष सोपवास प्रत्याख्यान ग्रहण। आचार्य भक्ति, शान्ति भक्ति, गुरु को नमस्कार।
- गणधर वलय पूजा।
- श्वेत वस्त्र पर पूर्वाभिमुख बैठना।
- केशलोंच क्रिया में सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति। आचार्य—मन्त्र विशेषों के उच्चारण पूर्वक मस्तक पर गन्धोदक व भस्म क्षेपण व केशोत्पाटन।
शिष्य—केशलोंच निष्ठापन क्रिया में सिद्धभक्ति, दीक्षा याचना।
आचार्य—विशेष मन्त्र विधान पूर्वक सिर पर ‘श्री’ लिखे व अंजली में तन्दुलादि भरकर उस पर नारियल रखे। फिर व्रत दान क्रिया में सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, व्रत दान, १६ संस्कारारोपण, नामकरण, उपकरण प्रदान, समाधि भक्ति।
शिष्य—सर्व मुनियों को वन्दना।
आचार्य—व्रतारोपण क्रिया में रत्नत्रय पूजा, पाक्षिक प्रतिक्रमण।
शिष्य—मुख शुद्धि मुक्त करण पाठ क्रिया में सिद्ध भक्ति, समाधि भक्ति। विशेष दे० (क्रि॰क॰/पृ॰३३३)
देव वन्दना—ईर्यापथ विशुद्धि पाठ, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति। (विशेष देखें - वंदना )
पाक्षिकी क्रिया—सिद्धभक्ति, चारित्र भक्ति, और शान्ति भक्ति। यदि धर्म व्यासंग से चतुर्दशी के रोज क्रिया न कर सके तो पूर्णिमा और अमावस को अष्टमी क्रिया करनी चाहिए। (विधि नं॰१)।
सालोचना चारित्र भक्ति, चैत्य पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति (विधि नं॰२)
- पूर्व जिन चैत्य क्रिया—विहार करते करते छ: महीने पहले उसी प्रतिमा के पुन: दर्शन हों तो उसे पूर्व जिन चैत्य कहते हैं। उस पूर्व जिन चैत्य का दर्शन करते समय पाक्षिकी क्रिया करनी चाहिए।
(केवल क्रि॰क॰)।
- प्रतिमा योगी मुनिक्रिया—सिद्धभक्ति योगी भक्ति, शान्ति भक्ति।
- मंगल गोचार मध्याह्न वन्दना क्रिया—सिद्धभक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति।
- योगनिद्रा धारण क्रिया—योगि भक्ति। (विधि नं॰१)।
- वर्षा योग निष्ठापन व प्रतिष्ठापन क्रिया—
- सिद्धभक्ति, योग भक्ति, ‘यावन्ति जिनचैत्यायतनानि’, और स्वयम्भूस्तोत्र से प्रथम दो तीर्थंकरों की स्तुति, चैत्य भक्ति।
- ये सर्व पाठ पूर्वादि चारों दिशाओं की ओर सुख करके पढ़ें, विशेषता इतनी कि प्रत्येक दिशा में अगले अगले दो दो तीर्थंकरों की स्तुति पढ़ें।
- पंचगुरु भक्ति व शान्ति भक्ति।
नोट—आषाढ शुक्ला १४ की रात्रि के प्रथम पहर में प्रतिष्ठापन और कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रि के चौथे पहर में निष्ठापन करना। विशेष देखें - पाद्य स्थिति कल्प।
वीर निर्वाण क्रिया—सिद्ध भक्ति, निर्वाण भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति।
श्रुत पंचमी क्रिया—सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति पूर्वक वाचना नाम का स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए। फिर स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुतभक्ति और आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुत भक्ति कर स्वाध्याय पूर्ण करे। समाप्ति के समय शान्ति भक्ति करे।
- सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, कर वाचना ग्रहण,
- श्रुत भक्ति, आचार्य भक्ति कर स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुतभक्ति में स्वाध्याय पूर्ण करे।
- वाचना के समय यही क्रिया कर अन्त में शान्ति भक्ति करे।
- संन्यास में स्थित होकर-बृहत् श्रुत भक्ति बृ.आचार्य भक्ति कर स्वाध्याय ग्रहण, बृ॰ श्रुत भक्ति में स्वाध्याय करे। (विधि नं॰ १)। संन्यास प्रारम्भ कर सिद्ध व श्रुत भक्ति, अन्त में सिद्ध श्रुत व शान्ति भक्ति। अन्य दिनों में बृ॰ श्रुतभक्ति, बृ॰ आचार्य भक्ति पूर्वक प्रतिष्ठापना तथा बृ॰ श्रुतभक्ति पूर्वक निष्ठापना। सिद्ध प्रतिमा क्रिया–सिद्धभक्ति।
- अनेक अपूर्व चैत्य दर्शन क्रिया–अनेक अपूर्व जिन प्रतिमाओं को देखकर एक अभिरुचित जिनप्रतिमा में अनेक अपूर्व जिन चैत्य वन्दना करे। छठें महीने उन प्रतिमाओं में अपूर्वता सुनी जाती है। कोई नयी प्रतिमा हो या छह महीने पीछे पुन: दृष्टिगत हुई प्रतिमा हो उसे अपूर्व चैत्य कहते हैं। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ होने पर स्वरुचि के अनुसार किसी एक प्रतिमा के प्रति यह क्रिया करे। (केवल क्रि॰ क॰)
- पंचकल्याणक वन्दना की अपेक्षा
- गर्भकल्याणक–सिद्धभक्ति, चारित्र भक्ति, शान्ति भक्ति।
- जन्म कल्याणक वन्दना–सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति व शान्ति भक्ति।
- तप कल्याणक वन्दना–सिद्ध-चारित्र-योगि व शान्ति भक्ति।
- ज्ञान कल्याणक वन्दना–सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगि व शान्ति भक्ति।
- निर्वाण कल्याणक वन्दना–सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगिनिर्वाण व शान्ति भक्ति।
- अचल जिनबिम्ब प्रतिष्ठा–सिद्ध व शान्ति भक्ति।...(चतुर्थ दिन अभिषेक वन्दना में–सिद्ध-चारित्र चैत्य-पंचगुरु व शान्ति भक्ति (विधि नं॰१)। अथवा सिद्ध, चारित्र, चारित्रालोचना व शान्ति भक्ति।
- चल जिनबिम्ब प्रतिष्ठा–सिद्ध व शान्ति भक्ति।....(चतुर्थ दिन अभिषेक वन्दना में)–सिद्ध-चैत्य–शान्ति भक्ति।
- गर्भकल्याणक–सिद्धभक्ति, चारित्र भक्ति, शान्ति भक्ति।
- साधु के मृत शरीर व उसकी निषद्यका की वन्दना की अपेक्षा
- सामान्य मुनि सम्बंधी–सिद्ध-योगी व शान्ति भक्ति।
- उत्तर व्रती मुनि सम्बंधी–सिद्ध-चारित्र-योगि व शान्ति भक्ति।
- सिद्धान्त वेत्ता मुनि सम्बंधी–सिद्ध-श्रुत-योगि व शान्ति भक्ति।
- उत्तरव्रती व सिद्धान्तवेत्ता उभयगुणी साधु–सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगि व शान्ति भक्ति।
- आचार्य सम्बंधी–सिद्ध-योगि-आचार्य-शान्ति भक्ति।
- कायक्लेशमृत आचार्य—सिद्ध-योगि-आचार्य व शान्ति भक्ति।(विधि नं॰१) सिद्ध-योगि-आचार्य-चारित्र व शान्ति भक्ति।
- सिद्धान्त वेत्ता आचार्य—सिद्ध-श्रुत-योगि-आचार्य शान्ति भक्ति।
- शरीरक्लेशी व सिद्धान्त उभय आचार्य—सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगि-आचार्य व शान्ति भक्ति।
- सामान्य मुनि सम्बंधी–सिद्ध-योगी व शान्ति भक्ति।
- स्वाध्याय की अपेक्षा
सिद्धान्ताचार वाचन क्रिया—(सामान्य) सिद्ध-श्रुत भक्ति करनी चाहिए, फिर श्रुत भक्ति व आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय करें, तथा अन्त में श्रुत व शान्ति भक्ति करें। तथा एक कायोत्सर्ग करें। (केवल चा॰सा॰)
विशेष—प्रारम्भ में सिद्ध-श्रुत भक्ति तथा आचार्य भक्ति करनी चाहिए तथा अन्त में ये ही क्रियाएँ तथा छह छह कायोत्सर्ग करने चाहिए।
पूर्वाह्न स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति
अपराह्न स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति
पूर्वरात्रिक स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति
वैरात्रिक स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति - प्रत्याख्यान धारण की अपेक्षा
भोजन सम्बन्धी—ल॰ सिद्ध भक्ति।
उपवास सम्बन्धी=यदि स्वयं करे तो–ल.सिद्ध भक्ति।
यदि आचार्य के समक्ष करे तो–सिद्ध व योगि भक्ति
मंगल गोचर बृहत् प्रत्याख्यान क्रिया:—सिद्ध व योगि भक्ति...(प्रत्याख्यान ग्रहण)—आचार्य व शान्ति भक्ति। - प्रतिक्रमण की अपेक्षा
दैवसिक व रात्रिक प्रतिक्रमण–सिद्ध व प्रतिक्रमण-निष्ठित चारित्र व चतुर्विंशति जिन स्तुति पढ़े। (विधि नं॰ १)। सिद्ध-प्रतिक्रमण भक्ति अन्त में वीर भक्ति तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति (विधि नं॰ २)। यति का पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सारिक प्रतिक्रमण-सिद्ध-प्रतिक्रमण तथा चारित्र प्रतिक्रमण के साथ साथ चारित्र-चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति, चारित्र आलोचना गुरु भक्ति, बड़ी आलोचना गुरु भक्ति, फिर छोटी आचार्य भक्ति करनी चाहिए (विधि नं॰ १)- केवल शिष्यजन–ल॰श्रुत भक्ति, ल॰ आचार्य भक्ति द्वारा आचार्य वन्दना करें।
- आचार्य सहित समस्त संघ–बृ॰ सिद्ध भक्ति, आलोचना सहित बृ॰ चारित्र भक्ति।
- केवल आचार्य–ल॰ सिद्ध भक्ति, ल॰ योग भक्ति, ‘इच्छामि भंते चरित्तायारो तेरह विहो’ इत्यादि देव के समक्ष अपने दोषों की आलोचना व प्रायश्चित्त ग्रहण। ‘तीन बार पंच महाव्रत’ इत्यादि देव के प्रति गुरु भक्ति।
- आचार्य सहित समस्त संघ–ल॰ सिद्ध भक्ति, ल॰ योगि भक्ति तथा प्रायश्चित्त ग्रहण।
- केवल शिष्य—ल॰ आचार्य भक्ति द्वारा आचार्य वन्दना।
- गणधर वलय, प्रतिक्रमण दण्डक, वीरभक्ति, शान्ति जिनकीर्तन सहित चतुर्विंशति जिनस्तव, ल॰ चारित्रालोचना युक्त बृ॰ आचार्य भक्ति, बृ॰ आलोचना युक्त मध्याचार्य भक्ति, ल॰ आलोचना सहित ल॰ आचार्य भक्ति, समाधि भक्ति।
नं॰ |
समय |
क्रिया |
१ |
सूर्योदय से लेकर २ घड़ी तक |
देववन्दन, आचार्य वन्दना व मनन |
२ |
सूर्योदय के २ घड़ी पश्चात् से मध्याह्न के २ घड़ी पहले तक |
पूर्वाह्निक स्वाध्याय |
३ |
मध्याह्न के २ घड़ी पूर्व से २ घड़ी पश्चात् तक |
आहारचर्या (यदि उपवासयुक्त है तो क्रम से आचार्य व देववन्दना तथा मनन) |
४ |
आहार से लौटने पर |
मंगलगोचर प्रत्याख्यान |
५ |
मध्याह्न के २ घड़ी पश्चात् से सूर्यास्त के २ घड़ी पूर्व तक |
अपराह्निक स्वाध्याय |
६ |
सूर्यास्त के २ घड़ी पूर्व से सूर्यास्त तक |
दैवसिक प्रतिक्रमण व रात्रियोग धारण |
७. |
सूर्यास्त से लेकर उसके २ घड़ी पश्चात् तक |
आचार्य व देववन्दना तथा मनन |
८. |
सूर्यास्त के २ घड़ी पश्चात् से अर्धरात्रि के २ घड़ी पूर्व तक |
पूर्व रात्रिक स्वाध्याय |
९. |
अर्धरात्रि के २ घड़ी पूर्व से उसके २ घड़ी पश्चात तक |
चार घड़ी निद्रा |
१० |
अर्धरात्रि के २ घड़ी पश्चात् से सूर्योदय के २ घड़ी पूर्व तक |
वैरात्रिक स्वाध्याय |
११ |
सूर्योदय के २ घड़ी पूर्व से सूर्योदय तक |
रात्रिक प्रतिक्रमण |
नोट—रात्रि क्रियाओं के विषय में दैवसिक क्रियाओं की तरह समय का नियम नहीं है। अर्थात् हीनाधिक भी कर सकते हैं।४४।
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