मिथ्यादर्शन: Difference between revisions
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<p class="HindiText">स्वात्म तत्त्व से अपरिचित लौकिक जन शरीर, धन, पुत्र, स्त्री आदि में ही स्व व मेरापना तथा इष्टानिष्टपना मानता है, और तदनुसार ही प्रवृत्ति करता है। इसीलिए उसके अभिप्राय या रुचि को मिथ्यादर्शन कहते हैं। गृहीत, अगृहीत, एकांत, संशय, अज्ञान आदि के भेद से वह अनेक प्रकार का है। इनमें सांप्रदायिकता गृहीत मिथ्यात्व है और पक्षपात एकांत मिथ्यात्व। सब भेदों में ये दोनों ही अत्यंत घातक व प्रबल हैं।</p> | |||
<p>1. मिथ्यादर्शन सामान्य का लक्षण</p> | <p class="HindiText"><b>1.मिथ्यादर्शन सामान्य का लक्षण</b></p> | ||
<p>1. तत्त्व विषयक विपरीत अभिनिवेश</p> | <p class="HindiText">1. तत्त्व विषयक विपरीत अभिनिवेश</p> | ||
<p><span class="GRef"> भगवती आराधना/56/180 </span>तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं। = जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। (<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/7 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/ </span> | <p><span class="GRef"> भगवती आराधना/56/180 </span><p class=" PrakritText ">तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं। </p><p class="HindiText">= जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। (<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/7 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,10/ गाथा 107/163</span>)।</p> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/7 </span>मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनम्। = मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो तत्त्वों का अश्रद्धानरूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/4/109/5 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/15/39 </span>); (और भी देखें [[ मिथ्यादृष्टि#1 | मिथ्यादृष्टि - 1]])।</p> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/7 </span><p class="SanskritText">मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनम्।</p> <p class="HindiText">= मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो तत्त्वों का अश्रद्धानरूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/4/109/5 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/15/39 </span>); (और भी देखें [[ मिथ्यादृष्टि#1 | मिथ्यादृष्टि - 1]])।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef"> सिद्धिविनिश्चय/मूलवृत्ति/4/11/270/11</span> <p class="SanskritText">जीवादितत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम्। जीवे तावन्नास्तिक्यम् अन्यत्र जीवाभिमानश्च, मिथ्यादृष्टेः द्वैविध्यानतिक्रमात् विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिर्वेति।</p> <p class="HindiText">= जीवादि तत्त्वों में अश्रद्धान होना मिथ्यादर्शन है। वह दो प्रकार का है–जीव के नास्तिक्य भावरूप और अन्य पदार्थ में जीव के अभिमानरूप । क्योंकि, मिथ्यादृष्टि दो प्रकार की ही हो सकती है। या तो विपरीत ज्ञानरूप होगी और या अज्ञानरूप होगी।</p> | ||
<p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/303-305 </span>मिच्छत्तं पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेक्खं। तस्सोदयेण जीवो विवरीदं गेह्णए तच्चं।303। अत्थित्तं णो मण्णदि णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं। जत्थी विय तह दव्वे मूढो मूढो दु सव्वत्थ।304। मूढो विय सुदहेदं सहावणिरवेक्खरूवदो होदि। अलहंतो खवणादी मिच्छापयडी खलु उदये।305। | <p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/303-305 </span><p class=" PrakritText ">मिच्छत्तं पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेक्खं। तस्सोदयेण जीवो विवरीदं गेह्णए तच्चं।303। अत्थित्तं णो मण्णदि णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं। जत्थी विय तह दव्वे मूढो मूढो दु सव्वत्थ।304। मूढो विय सुदहेदं सहावणिरवेक्खरूवदो होदि। अलहंतो खवणादी मिच्छापयडी खलु उदये।305। </p><p class="HindiText">= मिथ्यात्व दो प्रकार का है–मूढत्व और स्वभाव-निरपेक्ष। उसके उदय से जीव तत्त्वों को विपरीत रूप से ग्रहण करता है।303। जो नास्तित्व से सापेक्ष अस्तित्व को अथवा अस्तित्व से सापेक्ष नास्तित्व को नहीं मानता है वह द्रव्यमूढ़ होने के कारण सर्वत्र मूढ है।304। तथा श्रुत के हेतु से होने वाला मिथ्यात्व स्वभाव-निरपेक्ष होता है। मिथ्या प्रकृतियों के उदय के कारण वह क्षपण आदि भावों को प्राप्त नहीं होता है।305।</p> | ||
<p><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91 </span>भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं। = भगवान् अर्हंत परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान मिथ्यादर्शन है।</p> | <p><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91 </span><p class="SanskritText">भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं।</p> <p class="HindiText">= भगवान् अर्हंत परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान मिथ्यादर्शन है।</p> | ||
<p><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/32/341/23 | <p><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/32/341/23 पर उद्धृत हेमचंद्रकृत योगशास्त्र का श्लोक नं. 2</span><p class="SanskritText">–‘‘अदेवं देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात्।</p><p class="HindiText"> = अदेव को देव, अगुरु को गुरु और अधर्म को धर्म मानना मिथ्यात्व है, क्योंकि वह विपरीतरूप है। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1051 </span>)।</p> | ||
<p><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/88/144/10 </span>विपरीताभिनिवेशोपयोगविकाररूपं शुद्धजीवादिपदार्थविषये विपरीतश्रद्धानं मिथ्यात्वमिति। = विपरीत अभिनिवेश के उपयोग विकाररूप जो शुद्ध जीवादि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान होता है उसे मिथ्यात्व कहते हैं। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/48/205/6 </span>)।</p> | <p><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/88/144/10 </span><p class="SanskritText">विपरीताभिनिवेशोपयोगविकाररूपं शुद्धजीवादिपदार्थविषये विपरीतश्रद्धानं मिथ्यात्वमिति। </p><p class="HindiText">= विपरीत अभिनिवेश के उपयोग विकाररूप जो शुद्ध जीवादि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान होता है उसे मिथ्यात्व कहते हैं। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/48/205/6 </span>)।</p> | ||
<p>2. शुद्धात्म विमुखता</p> | <p class="HindiText">2. शुद्धात्म विमुखता</p> | ||
<p><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91 </span>स्वात्मश्रद्धान ... विमुखत्वमेव मिथ्यादर्शन ...। = निज आत्मा के श्रद्धानरूप से विमुखता मिथ्यादर्शन है।</p> | <p><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91 </span><p class="SanskritText">स्वात्मश्रद्धान ... विमुखत्वमेव मिथ्यादर्शन ...।</p> <p class="HindiText">= निज आत्मा के श्रद्धानरूप से विमुखता मिथ्यादर्शन है।</p> | ||
<p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/1 </span> | <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/1 </span><p class="SanskritText">अभ्यंतरे वीतरागनिजात्मतत्त्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेशजनकं, बहिर्विषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्तद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशोत्पादकं च मिथ्यात्वं भण्यते। </p><p class="HindiText">= अंतरंग में वीतराग निजात्म तत्त्व के अनुभव रूप रुचि में विपरीत अभिप्राय उत्पन्न कराने वाला तथा बाहरी विषय में अन्य के शुद्ध आत्म तत्त्व आदि समस्त द्रव्यों में जो विपरीत अभिप्राय का उत्पन्न कराने वाला है उसे मिथ्यात्व कहते हैं।</p> | ||
<p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/10 </span>निरंजननिर्दोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते। = अपना निरंजन व निर्दोष | <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/10 </span><p class="SanskritText">निरंजननिर्दोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते। </p><p class="HindiText">= अपना निरंजन व निर्दोष परमात्म तत्त्व ही उपादेय है, इस प्रकार की रुचिरूप सम्यक्त्व से विपरीत को मिथ्या शल्य कहते हैं।</p> | ||
<p>2. मिथ्यादर्शन के भेद</p> | <p class="HindiText"><b>2.मिथ्यादर्शन के भेद</b></p> | ||
<p><span class="GRef"> भगवती आराधना/56/180 </span>संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च तं तिविहं। = वह मिथ्यात्व संशय, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से तीन प्रकार का है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,9/ </span> | <p><span class="GRef"> भगवती आराधना/56/180 </span><p class=" PrakritText ">संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च तं तिविहं। </p><p class="HindiText">= वह मिथ्यात्व संशय, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से तीन प्रकार का है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,9/ गाथा 107/163</span>)।</p> | ||
<p><span class="GRef"> बारस अणुवेक्खा/48 </span>एयंतविणयविवरियसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच। = मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है–एकांत, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान। (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/3 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/28/594/17 </span>); (<span class="GRef"> धवला 8/3, 6/2 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/15/39 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/5/3 </span>); (<span class="GRef"> दर्शनसार/5 </span>), (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/1 </span> | <p><span class="GRef"> बारस अणुवेक्खा/48 </span><p class=" PrakritText ">एयंतविणयविवरियसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच।</p><p class="HindiText"> = मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है–एकांत, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान। (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/3 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/28/594/17 </span>); (<span class="GRef"> धवला 8/3, 6/2 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/15/39 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/5/3 </span>); (<span class="GRef"> दर्शनसार/5 </span>), (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/1 पर उद्धृत गाथा </span>)।</p> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/1 </span>मिथ्यादर्शनं द्विविधम्; नैसर्गिकं परोपदेशपूर्वकं च। ... परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्; क्रियाक्रियावाद्यज्ञानिकवैनयिकविकल्पात्। = मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है–नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक। परोपदेश-निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है–क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी व वैनयिक। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/6,8/561/27 </span>)।</p> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/1 </span><p class="SanskritText">मिथ्यादर्शनं द्विविधम्; नैसर्गिकं परोपदेशपूर्वकं च। ... परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्; क्रियाक्रियावाद्यज्ञानिकवैनयिकविकल्पात्। </p><p class="HindiText">= मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है–नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक। परोपदेश-निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है–क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी व वैनयिक। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/6,8/561/27 </span>)।</p> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/12/562/12 </span>त एते मिथ्योपदेशभेदा: त्रीणि शतानि त्रिषष्टयुत्तराणि।</p> | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/12/562/12 </span><p class="SanskritText">त एते मिथ्योपदेशभेदा: त्रीणि शतानि त्रिषष्टयुत्तराणि।</p></p> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/27/564/14 </span>एवं परोपदेशनिमित्तमिथ्यादर्शनविकल्पा अन्ये च संख्येया योज्याः ऊह्याः, परिणामविकल्पात् असंख्येयाश्च भवंति, अनंताश्च अनुभागभेदात्। यन्नैसर्गिकं मिथ्यादर्शनं तदप्येकद्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियतिर्यङ्म्लेच्छशवरपुलिंदादिपरिग्रहादनेकविधम्। = इस तरह कुल 363 मिथ्यामतवाद हैं। (देखें [[ एकांत#5 | एकांत - 5]])। इस प्रकार | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/27/564/14 </span><p class="SanskritText">एवं परोपदेशनिमित्तमिथ्यादर्शनविकल्पा अन्ये च संख्येया योज्याः ऊह्याः, परिणामविकल्पात् असंख्येयाश्च भवंति, अनंताश्च अनुभागभेदात्। यन्नैसर्गिकं मिथ्यादर्शनं तदप्येकद्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियतिर्यङ्म्लेच्छशवरपुलिंदादिपरिग्रहादनेकविधम्।</p> <p class="HindiText">= इस तरह कुल 363 मिथ्यामतवाद हैं। (देखें [[ एकांत#5 | एकांत - 5]])। इस प्रकार परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन के अन्य भी संख्यात विकल्प होते हैं। इसके परिणामों की दृष्टि से असंख्यात और अणुभाग की दृष्टि से अनंत भी भेद होते हैं। नैसर्गिक मिथ्यादर्शन भी एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय, संज्ञी पंचेंद्रिय, तिर्यंच, म्लेच्छ, शवर, पुलिंद आदि स्वामियों के भेद से अनेक प्रकार का है।</p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,9/ | <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,9/ गाथा 105 व टीका /162/5</span><p class=" PrakritText "> जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव परसमया।105। इति वचनान्न मिथ्यात्वपंचकनियमोऽस्ति किंतूपलक्षणमात्रमेतदभिहितं पंचविधं मिथ्यात्वमिति। </p><p class="HindiText">= ‘जितने भी वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय होते हैं। (और भी देखें [[ नय#I.5.5 | नय - I.5.5]])’, इस वचन के अनुसार मिथ्यात्व के पाँच ही भेद हैं यह कोई नियम नहीं समझना चाहिए, किंतु मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है यह कहना उपलक्षण मात्र समझना चाहिए।</p> | ||
<p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/303 </span> | <p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/303 </span><p class=" PrakritText ">मिच्छत्तं पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेक्खं। </p><p class="HindiText">=मिथ्यात्व दो प्रकार का है–मूढ़ व स्वभाव-निरपेक्ष।</p> | ||
<p>3. गृहीत व अगृहीत मिथ्यात्व के लक्षण</p> | <p class="HindiText"><b>3.गृहीत व अगृहीत मिथ्यात्व के लक्षण</b></p> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/1 </span>तत्रोपदेशमंतरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम्। परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्। = जो परोपदेश के बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/7-8/561/29 </span>)।</p> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/1 </span><p class="SanskritText">तत्रोपदेशमंतरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम्। परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्। </p><p class="HindiText">= जो परोपदेश के बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/7-8/561/29 </span>)।</p> | ||
<p><span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/56/180/22 </span>यद्येशाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतम् अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते ... यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्त्वे अनेकांतात्मकत्वे चोपजातम् अश्रद्धानं अरुचिर्मिथ्यात्ममिति। परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वम्। = (जीवादितत्त्व नित्य ही हैं अथवा अनित्य ही हैं, इत्यादि रूप) दूसरों का उपदेश सुनकर जीवादिकों के अस्तित्व में अथवा उनके धर्मों में अश्रद्धा होती है, यह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और दूसरे के उपदेश के बिना ही जो अश्रद्धान मिथ्यात्व कर्म के उदय से हो जाता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1049-1050 </span>)।</p> | <p><span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/56/180/22 </span><p class="SanskritText">यद्येशाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतम् अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते ... यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्त्वे अनेकांतात्मकत्वे चोपजातम् अश्रद्धानं अरुचिर्मिथ्यात्ममिति। परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वम्। </p><p class="HindiText">= (जीवादितत्त्व नित्य ही हैं अथवा अनित्य ही हैं, इत्यादि रूप) दूसरों का उपदेश सुनकर जीवादिकों के अस्तित्व में अथवा उनके धर्मों में अश्रद्धा होती है, यह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और दूसरे के उपदेश के बिना ही जो अश्रद्धान मिथ्यात्व कर्म के उदय से हो जाता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1049-1050 </span>)।</p> | ||
<p>4. मिथ्यात्व की सिद्धि में हेतु</p> | <p class="HindiText"><b>4.मिथ्यात्व की सिद्धि में हेतु</b></p> | ||
<p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1033-1034 </span>ततो न्यायगतो जंतोर्मिथ्याभावो निसर्गत:। दृङ्मोहस्योदयादेव वर्त्तते वा प्रवाहवत्।1033। कार्यं तदुदयस्योच्चै: प्रत्यक्षात्सिद्धमेव यत्। स्वरूपानुपलब्धि: स्यादन्यथा कथमात्मन:।1034। = इसलिए न्यायानुसार यह बात सिद्ध होती है कि जीवों के मिथ्यात्व स्वभाव से ही दर्शनमोह के उदय से प्रवाह के समान सदा पाया जाता है।1033। और मिथ्यात्व के उदय का कार्य भी भली भाँति स्वसंवेदन द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध है, क्योंकि अन्यथा आत्मस्वरूप की उपलब्धि जीवों को क्यों न होती।1034।</p> | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1033-1034 </span><p class="SanskritText">ततो न्यायगतो जंतोर्मिथ्याभावो निसर्गत:। दृङ्मोहस्योदयादेव वर्त्तते वा प्रवाहवत्।1033। कार्यं तदुदयस्योच्चै: प्रत्यक्षात्सिद्धमेव यत्। स्वरूपानुपलब्धि: स्यादन्यथा कथमात्मन:।1034।</p> <p class="HindiText">= इसलिए न्यायानुसार यह बात सिद्ध होती है कि जीवों के मिथ्यात्व स्वभाव से ही दर्शनमोह के उदय से प्रवाह के समान सदा पाया जाता है।1033। और मिथ्यात्व के उदय का कार्य भी भली भाँति स्वसंवेदन द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध है, क्योंकि अन्यथा आत्मस्वरूप की उपलब्धि जीवों को क्यों न होती।1034।</p> | ||
<p>5. मिथ्यात्व सबसे | <p class="HindiText"><b>5.मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है</b></p> | ||
<p><span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/34 </span> | <p><span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/34 </span><p class="SanskritText">अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्। </p><p class="HindiText">= शरीरधारी जीवों को मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ अकल्याणकारी नहीं है।</p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/623 </span>मिच्छइट्टी पावा णंताणंता य सासणगुणा वि। = मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि ये दोनों पाप अर्थात् पाप जीव हैं।</p> | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/623 </span><p class=" PrakritText ">मिच्छइट्टी पावा णंताणंता य सासणगुणा वि। </p><p class="HindiText">= मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि ये दोनों पाप अर्थात् पाप जीव हैं।</p> | ||
<p><span class="GRef"> समयसार/200/ </span> | <p><span class="GRef"> समयसार/200/ कलश 137</span> <p class="SanskritText">आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा। आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यक्त्वरिक्ता:। </p><p class="HindiText">= भले ही महाव्रतादि का आलंबन करें या समितियों की उत्कृष्टता का आश्रय करें तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व से रहित हैं।</p> | ||
<p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/200/ </span> | <p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/200/ कलश 137 पं. जयचंद</span><p class="HindiText"> = प्रश्न–व्रत समिति शुभ कार्य हैं, तब फिर उनका पालन करते हुए भी उस जीव को पापी क्यों कहा गया ? उत्तर–सिद्धांत में मिथ्यात्व को ही पाप कहा गया है; जब तक मिथ्यात्व रहता है तब तक शुभाशुभ सर्व क्रियाओं को अध्यात्म में परमार्थत: पाप ही कहा जाता है, और व्यवहारनय की प्रधानता में व्यवहारी जीवों को अशुभ से छुड़ाकर शुभ में लगाने की शुभ क्रिया को कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है ऐसा कहने से स्याद्वादमत में कोई विरोध नहीं है।</p> | ||
<p><span class="GRef"> | <p><span class="GRef"> बोधपाहुड़/ पं. जयचंद/60/152/7 </span><p class="HindiText">गृहस्थकै महापाप मिथ्यात्व का सेवनां अन्याय... आदि ये महापाप हैं। <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/8/393/3 </span><p class="HindiText">मिथ्यात्व समान अन्य पाप नाहीं है।</p> | ||
<p>अन्य संबंधित विषय</p> | <p class="HindiText"><b>अन्य संबंधित विषय</b></p> | ||
<p>1. मिथ्यादर्शन में ‘दर्शन’ शब्द का महत्त्व–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.5 | सम्यग्दर्शन - I.1.5]]।</p> | <p class="HindiText">1. मिथ्यादर्शन में ‘दर्शन’ शब्द का महत्त्व–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.5 | सम्यग्दर्शन - I.1.5]]।</p> | ||
<p>2. एकांतादि पाँचों मिथ्यात्व–देखें [[ | <p class="HindiText">2. एकांतादि पाँचों मिथ्यात्व–देखें [[ एकांत]] , [[ विनय]], [[ विपरीत ]], [[ संशय]] और [[अज्ञान ]]।</p> | ||
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Revision as of 16:27, 19 January 2023
स्वात्म तत्त्व से अपरिचित लौकिक जन शरीर, धन, पुत्र, स्त्री आदि में ही स्व व मेरापना तथा इष्टानिष्टपना मानता है, और तदनुसार ही प्रवृत्ति करता है। इसीलिए उसके अभिप्राय या रुचि को मिथ्यादर्शन कहते हैं। गृहीत, अगृहीत, एकांत, संशय, अज्ञान आदि के भेद से वह अनेक प्रकार का है। इनमें सांप्रदायिकता गृहीत मिथ्यात्व है और पक्षपात एकांत मिथ्यात्व। सब भेदों में ये दोनों ही अत्यंत घातक व प्रबल हैं।
1.मिथ्यादर्शन सामान्य का लक्षण
1. तत्त्व विषयक विपरीत अभिनिवेश
भगवती आराधना/56/180
तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं।
= जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/7 ); ( धवला 1/1,1,10/ गाथा 107/163)।
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/7
मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनम्।
= मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो तत्त्वों का अश्रद्धानरूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है। ( राजवार्तिक/2/6/4/109/5 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/15/39 ); (और भी देखें मिथ्यादृष्टि - 1)।
सिद्धिविनिश्चय/मूलवृत्ति/4/11/270/11
जीवादितत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम्। जीवे तावन्नास्तिक्यम् अन्यत्र जीवाभिमानश्च, मिथ्यादृष्टेः द्वैविध्यानतिक्रमात् विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिर्वेति।
= जीवादि तत्त्वों में अश्रद्धान होना मिथ्यादर्शन है। वह दो प्रकार का है–जीव के नास्तिक्य भावरूप और अन्य पदार्थ में जीव के अभिमानरूप । क्योंकि, मिथ्यादृष्टि दो प्रकार की ही हो सकती है। या तो विपरीत ज्ञानरूप होगी और या अज्ञानरूप होगी।
नयचक्र बृहद्/303-305
मिच्छत्तं पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेक्खं। तस्सोदयेण जीवो विवरीदं गेह्णए तच्चं।303। अत्थित्तं णो मण्णदि णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं। जत्थी विय तह दव्वे मूढो मूढो दु सव्वत्थ।304। मूढो विय सुदहेदं सहावणिरवेक्खरूवदो होदि। अलहंतो खवणादी मिच्छापयडी खलु उदये।305।
= मिथ्यात्व दो प्रकार का है–मूढत्व और स्वभाव-निरपेक्ष। उसके उदय से जीव तत्त्वों को विपरीत रूप से ग्रहण करता है।303। जो नास्तित्व से सापेक्ष अस्तित्व को अथवा अस्तित्व से सापेक्ष नास्तित्व को नहीं मानता है वह द्रव्यमूढ़ होने के कारण सर्वत्र मूढ है।304। तथा श्रुत के हेतु से होने वाला मिथ्यात्व स्वभाव-निरपेक्ष होता है। मिथ्या प्रकृतियों के उदय के कारण वह क्षपण आदि भावों को प्राप्त नहीं होता है।305।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91
भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं।
= भगवान् अर्हंत परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान मिथ्यादर्शन है।
स्याद्वादमंजरी/32/341/23 पर उद्धृत हेमचंद्रकृत योगशास्त्र का श्लोक नं. 2
–‘‘अदेवं देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात्।
= अदेव को देव, अगुरु को गुरु और अधर्म को धर्म मानना मिथ्यात्व है, क्योंकि वह विपरीतरूप है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1051 )।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/88/144/10
विपरीताभिनिवेशोपयोगविकाररूपं शुद्धजीवादिपदार्थविषये विपरीतश्रद्धानं मिथ्यात्वमिति।
= विपरीत अभिनिवेश के उपयोग विकाररूप जो शुद्ध जीवादि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान होता है उसे मिथ्यात्व कहते हैं। ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/205/6 )।
2. शुद्धात्म विमुखता
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91
स्वात्मश्रद्धान ... विमुखत्वमेव मिथ्यादर्शन ...।
= निज आत्मा के श्रद्धानरूप से विमुखता मिथ्यादर्शन है।
द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/1
अभ्यंतरे वीतरागनिजात्मतत्त्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेशजनकं, बहिर्विषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्तद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशोत्पादकं च मिथ्यात्वं भण्यते।
= अंतरंग में वीतराग निजात्म तत्त्व के अनुभव रूप रुचि में विपरीत अभिप्राय उत्पन्न कराने वाला तथा बाहरी विषय में अन्य के शुद्ध आत्म तत्त्व आदि समस्त द्रव्यों में जो विपरीत अभिप्राय का उत्पन्न कराने वाला है उसे मिथ्यात्व कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/10
निरंजननिर्दोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते।
= अपना निरंजन व निर्दोष परमात्म तत्त्व ही उपादेय है, इस प्रकार की रुचिरूप सम्यक्त्व से विपरीत को मिथ्या शल्य कहते हैं।
2.मिथ्यादर्शन के भेद
भगवती आराधना/56/180
संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च तं तिविहं।
= वह मिथ्यात्व संशय, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से तीन प्रकार का है। ( धवला 1/1,1,9/ गाथा 107/163)।
बारस अणुवेक्खा/48
एयंतविणयविवरियसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच।
= मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है–एकांत, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान। ( सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/3 ); ( राजवार्तिक/8/1/28/594/17 ); ( धवला 8/3, 6/2 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/15/39 ); ( तत्त्वसार/5/3 ); ( दर्शनसार/5 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/1 पर उद्धृत गाथा )।
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/1
मिथ्यादर्शनं द्विविधम्; नैसर्गिकं परोपदेशपूर्वकं च। ... परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्; क्रियाक्रियावाद्यज्ञानिकवैनयिकविकल्पात्।
= मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है–नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक। परोपदेश-निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है–क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी व वैनयिक। ( राजवार्तिक/8/1/6,8/561/27 )।
राजवार्तिक/8/1/12/562/12
त एते मिथ्योपदेशभेदा: त्रीणि शतानि त्रिषष्टयुत्तराणि।
राजवार्तिक/8/1/27/564/14
एवं परोपदेशनिमित्तमिथ्यादर्शनविकल्पा अन्ये च संख्येया योज्याः ऊह्याः, परिणामविकल्पात् असंख्येयाश्च भवंति, अनंताश्च अनुभागभेदात्। यन्नैसर्गिकं मिथ्यादर्शनं तदप्येकद्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियतिर्यङ्म्लेच्छशवरपुलिंदादिपरिग्रहादनेकविधम्।
= इस तरह कुल 363 मिथ्यामतवाद हैं। (देखें एकांत - 5)। इस प्रकार परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन के अन्य भी संख्यात विकल्प होते हैं। इसके परिणामों की दृष्टि से असंख्यात और अणुभाग की दृष्टि से अनंत भी भेद होते हैं। नैसर्गिक मिथ्यादर्शन भी एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय, संज्ञी पंचेंद्रिय, तिर्यंच, म्लेच्छ, शवर, पुलिंद आदि स्वामियों के भेद से अनेक प्रकार का है।
धवला 1/1,1,9/ गाथा 105 व टीका /162/5
जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव परसमया।105। इति वचनान्न मिथ्यात्वपंचकनियमोऽस्ति किंतूपलक्षणमात्रमेतदभिहितं पंचविधं मिथ्यात्वमिति।
= ‘जितने भी वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय होते हैं। (और भी देखें नय - I.5.5)’, इस वचन के अनुसार मिथ्यात्व के पाँच ही भेद हैं यह कोई नियम नहीं समझना चाहिए, किंतु मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है यह कहना उपलक्षण मात्र समझना चाहिए।
नयचक्र बृहद्/303
मिच्छत्तं पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेक्खं।
=मिथ्यात्व दो प्रकार का है–मूढ़ व स्वभाव-निरपेक्ष।
3.गृहीत व अगृहीत मिथ्यात्व के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/1
तत्रोपदेशमंतरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम्। परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्।
= जो परोपदेश के बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है। ( राजवार्तिक/8/1/7-8/561/29 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/56/180/22
यद्येशाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतम् अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते ... यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्त्वे अनेकांतात्मकत्वे चोपजातम् अश्रद्धानं अरुचिर्मिथ्यात्ममिति। परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वम्।
= (जीवादितत्त्व नित्य ही हैं अथवा अनित्य ही हैं, इत्यादि रूप) दूसरों का उपदेश सुनकर जीवादिकों के अस्तित्व में अथवा उनके धर्मों में अश्रद्धा होती है, यह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और दूसरे के उपदेश के बिना ही जो अश्रद्धान मिथ्यात्व कर्म के उदय से हो जाता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1049-1050 )।
4.मिथ्यात्व की सिद्धि में हेतु
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1033-1034
ततो न्यायगतो जंतोर्मिथ्याभावो निसर्गत:। दृङ्मोहस्योदयादेव वर्त्तते वा प्रवाहवत्।1033। कार्यं तदुदयस्योच्चै: प्रत्यक्षात्सिद्धमेव यत्। स्वरूपानुपलब्धि: स्यादन्यथा कथमात्मन:।1034।
= इसलिए न्यायानुसार यह बात सिद्ध होती है कि जीवों के मिथ्यात्व स्वभाव से ही दर्शनमोह के उदय से प्रवाह के समान सदा पाया जाता है।1033। और मिथ्यात्व के उदय का कार्य भी भली भाँति स्वसंवेदन द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध है, क्योंकि अन्यथा आत्मस्वरूप की उपलब्धि जीवों को क्यों न होती।1034।
5.मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है
रत्नकरंड श्रावकाचार/34
अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।
= शरीरधारी जीवों को मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ अकल्याणकारी नहीं है।
गोम्मटसार जीवकांड/623
मिच्छइट्टी पावा णंताणंता य सासणगुणा वि।
= मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि ये दोनों पाप अर्थात् पाप जीव हैं।
समयसार/200/ कलश 137
आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा। आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यक्त्वरिक्ता:।
= भले ही महाव्रतादि का आलंबन करें या समितियों की उत्कृष्टता का आश्रय करें तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व से रहित हैं।
समयसार / आत्मख्याति/200/ कलश 137 पं. जयचंद
= प्रश्न–व्रत समिति शुभ कार्य हैं, तब फिर उनका पालन करते हुए भी उस जीव को पापी क्यों कहा गया ? उत्तर–सिद्धांत में मिथ्यात्व को ही पाप कहा गया है; जब तक मिथ्यात्व रहता है तब तक शुभाशुभ सर्व क्रियाओं को अध्यात्म में परमार्थत: पाप ही कहा जाता है, और व्यवहारनय की प्रधानता में व्यवहारी जीवों को अशुभ से छुड़ाकर शुभ में लगाने की शुभ क्रिया को कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है ऐसा कहने से स्याद्वादमत में कोई विरोध नहीं है।
बोधपाहुड़/ पं. जयचंद/60/152/7
गृहस्थकै महापाप मिथ्यात्व का सेवनां अन्याय... आदि ये महापाप हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक/8/393/3
मिथ्यात्व समान अन्य पाप नाहीं है।
अन्य संबंधित विषय
1. मिथ्यादर्शन में ‘दर्शन’ शब्द का महत्त्व–देखें सम्यग्दर्शन - I.1.5।
2. एकांतादि पाँचों मिथ्यात्व–देखें एकांत , विनय, विपरीत , संशय और अज्ञान ।
3. मिथ्यादर्शन औदयिक भाव है तथा तत्संबंधी शंका समाधान–देखें उदय - 9।
4. पुरुषार्थ से मिथ्यात्व का भी क्षणभर में नाश संभव है।–देखें पुरुषार्थ - 2।