एकांतानुवृद्धि: Difference between revisions
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<b>1. एकांतानुवृद्धि योग-स्थान</b></p>- | <p class="HindiText"><b>1. एकांतानुवृद्धि योग-स्थान</b></p>- | ||
(धवला 10/4, 2, 4, 173/420/7) <span class="PrakritText"> उप्पण्णविदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवड्ढिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगंताणुवड्ढिजोगो चेव ।</span> = <span class="HindiText">उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अंतिम समय तक एकांतानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध के योग्य काल में अपने जीवित के त्रिभाग में परिणाम योग होता है । उससे नीचे '''एकांतानुवृद्धि योग''' ही होता है । </span><br /> | (धवला 10/4, 2, 4, 173/420/7) <span class="PrakritText"> उप्पण्णविदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवड्ढिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगंताणुवड्ढिजोगो चेव ।</span> = <span class="HindiText">उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अंतिम समय तक एकांतानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध के योग्य काल में अपने जीवित के त्रिभाग में परिणाम योग होता है । उससे नीचे '''एकांतानुवृद्धि योग''' ही होता है । </span><br /> | ||
(गोम्मटसार कर्मकांड व टीका /222/270) <span class="PrakritGatha">एयंतवड्ढिठाणा उभयट्ठाणाणमंतरे होंति । अवखरट्ठाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ।222।</span> <span class="SanskritText">तदैवैकांतेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात् चरमसमयपर्यंतं प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकांतानुवृद्धिरित्युच्यते ।</span> =<span class="HindiText"> '''एकांतानुवृद्धि''' योगस्थान उपपाद आदि दोनों स्थानों के बीच में, (अर्थात् पर्याय धारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्ति के अंतर्मुहूर्त के अंत समय तक) होते हैं । उसमें जघन्यस्थान तो अपने काल के पहले समय में और उत्कृष्टस्थान अंत के समय में होता है । इसीलिए एकांत (नियम कर) अपने समयों में समय-समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि जिसमें हो वह '''एकांतानुवृद्धि''' स्थान, ऐसा नाम कहा गया है । </span> | (गोम्मटसार कर्मकांड व टीका /222/270) <span class="PrakritGatha">एयंतवड्ढिठाणा उभयट्ठाणाणमंतरे होंति । अवखरट्ठाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ।222।</span> <span class="SanskritText">तदैवैकांतेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात् चरमसमयपर्यंतं प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकांतानुवृद्धिरित्युच्यते ।</span> =<span class="HindiText"> '''एकांतानुवृद्धि''' योगस्थान उपपाद आदि दोनों स्थानों के बीच में, (अर्थात् पर्याय धारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्ति के अंतर्मुहूर्त के अंत समय तक) होते हैं । उसमें जघन्यस्थान तो अपने काल के पहले समय में और उत्कृष्टस्थान अंत के समय में होता है । इसीलिए एकांत (नियम कर) अपने समयों में समय-समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि जिसमें हो वह '''एकांतानुवृद्धि''' स्थान, ऐसा नाम कहा गया है । </span> | ||
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<p class="HindiText">देखें [[ योग#5 | योग - 5]];</p> | <p class="HindiText">देखें [[ योग#5 | योग - 5]];</p> | ||
<b>2. एकांतानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान</b></p>- | <p class="HindiText"><b>2. एकांतानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान</b></p>- | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/273/18/ विशेषार्थ</span><br> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/273/18/ विशेषार्थ</span><br> | ||
<span class="HindiText">- संयतासंयत होने के प्रथम समय से लेकर जो प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि होती है, उसे '''एकांतानुवृद्धि''' कहते हैं। </span> | <span class="HindiText">- संयतासंयत होने के प्रथम समय से लेकर जो प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि होती है, उसे '''एकांतानुवृद्धि''' कहते हैं। </span> |
Revision as of 11:15, 5 February 2023
1. एकांतानुवृद्धि योग-स्थान
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(धवला 10/4, 2, 4, 173/420/7) उप्पण्णविदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवड्ढिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगंताणुवड्ढिजोगो चेव । = उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अंतिम समय तक एकांतानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध के योग्य काल में अपने जीवित के त्रिभाग में परिणाम योग होता है । उससे नीचे एकांतानुवृद्धि योग ही होता है ।
(गोम्मटसार कर्मकांड व टीका /222/270) एयंतवड्ढिठाणा उभयट्ठाणाणमंतरे होंति । अवखरट्ठाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ।222। तदैवैकांतेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात् चरमसमयपर्यंतं प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकांतानुवृद्धिरित्युच्यते । = एकांतानुवृद्धि योगस्थान उपपाद आदि दोनों स्थानों के बीच में, (अर्थात् पर्याय धारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्ति के अंतर्मुहूर्त के अंत समय तक) होते हैं । उसमें जघन्यस्थान तो अपने काल के पहले समय में और उत्कृष्टस्थान अंत के समय में होता है । इसीलिए एकांत (नियम कर) अपने समयों में समय-समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि जिसमें हो वह एकांतानुवृद्धि स्थान, ऐसा नाम कहा गया है ।
देखें योग - 5;
2. एकांतानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान
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धवला 6/1,9-8,14/273/18/ विशेषार्थ
- संयतासंयत होने के प्रथम समय से लेकर जो प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि होती है, उसे एकांतानुवृद्धि कहते हैं।
देखें लब्धि - 5।