इंद्र: Difference between revisions
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<p> <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/14/108/3</span> <p class="SanskritText">इंदतीति इंद्र आत्मा।...अथवा इंद्र इति नाम कर्मोच्यते।</p> | <p> <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/14/108/3</span> <p class="SanskritText">इंदतीति इंद्र आत्मा।...अथवा इंद्र इति नाम कर्मोच्यते।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 4/4/239/1</span> <p class="SanskritText">अंयदेवासाधारणाणिमादिगुणयोगादिंदंतीति इंद्राः।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 4/4/239/1</span> <p class="SanskritText">अंयदेवासाधारणाणिमादिगुणयोगादिंदंतीति इंद्राः।</p> | ||
<p class="HindiText">= इंद्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है `इंद्रतीति इंद्रः' जो आज्ञा और एश्वर्य वाला है वह इंद्र है। इंद्र शब्द का अर्थ आत्मा है। अथवा इंद्र शब्द नामकर्म का वाची | <p class="HindiText">= इंद्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है `इंद्रतीति इंद्रः' जो आज्ञा और एश्वर्य वाला है वह इंद्र है। इंद्र शब्द का अर्थ आत्मा है। अथवा इंद्र शब्द नामकर्म का वाची है।</p> | ||
<p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 1/1/14/59/15); (धवला पुस्तक 1/1,1,33/233/1)।</span></p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 1/1/14/59/15); (धवला पुस्तक 1/1,1,33/233/1)।</span></p> | ||
<span class="HindiText">जो अन्य देवों में असाधारण अणिमादि गुणों के संबंध से शोभते हैं वे इंद्र कहलाते हैं।</span> | <span class="HindiText">जो अन्य देवों में असाधारण अणिमादि गुणों के संबंध से शोभते हैं वे इंद्र कहलाते हैं।</span> | ||
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<p class="HindiText">= स्वर्गनिके उपरि अहमिंद्र हैं ते सर्व ही समान है। हीनाधिपकना तहाँ नाही है। </p> | <p class="HindiText">= स्वर्गनिके उपरि अहमिंद्र हैं ते सर्व ही समान है। हीनाधिपकना तहाँ नाही है। </p> | ||
<span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/46/66 पर उद्धृत</span><span class="SanskritText"> “अहमिंद्रोऽस्मि नेंद्रोऽंयो मत्तोऽस्तीत्यात्तकत्थनाः। अहमिंद्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः। नासूया परनिंदा वा नात्मश्लाघा न मत्सरः। केवलं सुखसाद्भूता दीव्यंत्येते दिवौकसः।</span> | <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/46/66 पर उद्धृत</span><span class="SanskritText"> “अहमिंद्रोऽस्मि नेंद्रोऽंयो मत्तोऽस्तीत्यात्तकत्थनाः। अहमिंद्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः। नासूया परनिंदा वा नात्मश्लाघा न मत्सरः। केवलं सुखसाद्भूता दीव्यंत्येते दिवौकसः।</span> | ||
<span class="HindiText">= मेरे सिवाय और इंद्र कौन हैं? मैं ही तो इंद्र हूँ। इस प्रकार अपने को इंद्र उद्धोषित करनेवाले कल्पातीत देव अहमिंद्र नाम से प्रख्यात हैं। न तो उनमें असूया है और न मत्सरता ही है, एवं न ये पर की निंदा करते और न अपनी प्रशंसा ही करते हैं। केवल परम विभूति के साथ सुख का अनुभव करते हैं।</span ></li> | <span class="HindiText">= मेरे सिवाय और इंद्र कौन हैं? मैं ही तो इंद्र हूँ। इस प्रकार अपने को इंद्र उद्धोषित करनेवाले कल्पातीत देव '''अहमिंद्र''' नाम से प्रख्यात हैं। न तो उनमें असूया है और न मत्सरता ही है, एवं न ये पर की निंदा करते और न अपनी प्रशंसा ही करते हैं। केवल परम विभूति के साथ सुख का अनुभव करते हैं।</span ></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दिगिंद्र का लक्षण</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दिगिंद्र का लक्षण</strong> <br /></span> |
Revision as of 22:38, 5 March 2023
सिद्धांतकोष से
- इंद्र सामान्य का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 3/65 इंदा रायसरिच्छा। = देवो में इंद्र राजा के सदृश होता है।सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/14/108/3
इंदतीति इंद्र आत्मा।...अथवा इंद्र इति नाम कर्मोच्यते।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 4/4/239/1अंयदेवासाधारणाणिमादिगुणयोगादिंदंतीति इंद्राः।
= इंद्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है `इंद्रतीति इंद्रः' जो आज्ञा और एश्वर्य वाला है वह इंद्र है। इंद्र शब्द का अर्थ आत्मा है। अथवा इंद्र शब्द नामकर्म का वाची है।
(राजवार्तिक अध्याय 1/1/14/59/15); (धवला पुस्तक 1/1,1,33/233/1)।
जो अन्य देवों में असाधारण अणिमादि गुणों के संबंध से शोभते हैं वे इंद्र कहलाते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 4/4/1/212/16)।
- अहमिंद्र का लक्षण
त्रिलोकसार गाथा 225....। भवणे कप्पे सव्वे हवंति अहमिंदया तत्तो ॥225॥
= स्वर्गनिके उपरि अहमिंद्र हैं ते सर्व ही समान है। हीनाधिपकना तहाँ नाही है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 1/46/66 पर उद्धृत “अहमिंद्रोऽस्मि नेंद्रोऽंयो मत्तोऽस्तीत्यात्तकत्थनाः। अहमिंद्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः। नासूया परनिंदा वा नात्मश्लाघा न मत्सरः। केवलं सुखसाद्भूता दीव्यंत्येते दिवौकसः।
= मेरे सिवाय और इंद्र कौन हैं? मैं ही तो इंद्र हूँ। इस प्रकार अपने को इंद्र उद्धोषित करनेवाले कल्पातीत देव अहमिंद्र नाम से प्रख्यात हैं। न तो उनमें असूया है और न मत्सरता ही है, एवं न ये पर की निंदा करते और न अपनी प्रशंसा ही करते हैं। केवल परम विभूति के साथ सुख का अनुभव करते हैं। - दिगिंद्र का लक्षण
त्रिलोकसार गाथा 223-224..दिगिंदा..।..॥223॥...तंतराए....।....॥224॥
= बहुरि जैसे तंत्रादि राजा कहिये सेनापति तैसे लोकपाल हैं।
- प्रतींद्र का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 3/65,69जुवरायसमा हुवंति पडिइंदा ॥65॥ इंदसमा पडिइंदा।...॥69॥
= प्रतींद्र युवराज के समान होते हैं ( त्रिलोकसार गाथा 224) प्रतींद्र इंद्र के बराबर हैं ॥69॥
जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 11/305,306...। पडिइंदा इंदस्स दु चदुसु वि दिसासु णायव्वा ॥305॥ तुल्लबल्लरूविक्कमपयावजुता हवंति ते सव्वे ॥306॥
= इंद्र के प्रतींद्र चारों ही दिशाओ में जानने चाहिए ॥305॥ वे सब तुल्य बल, रूप, विक्रम एवं प्रताप से युक्त होते हैं।
• इंद्र की सुधर्मा सभा का वर्णन - देखें सौधर्म ।
• भवनवासी आदि देवो में इंद्रों का नाम निर्देश - देखें वह वह नाम ।
- शत इंद्र निर्देश
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 1/5 पर उद्धृत“भवणालयचालीसा विंतरदेवाणहोंति बत्तीसा। कप्पामरचउवीसा चंदो सूरो णरो तिरिओ।
= भवनवासी देवों के 40 इंद्र, व्यंतर देवों के 32 इंद्र; कल्पवासी देवों के 24 इंद्र, ज्योतिष देवों के चंद्र और सूर्य ये दो, मुनष्यों का एक इंद्र चक्रवर्ती, तथा तिर्यंचों का इंद्र सिंह ऐसे मिलकर 100 इंद्र हैं।
(विशेष देखें भवनवासी , व्यंतर , ज्योतिष, वैमानिक ) ।
पद्मपुराण सर्ग 7/श्लोक।1.रथनूपुर के राजा सहस्रार का पुत्र था। रावण के दादा माली को मारकर स्वयं इंद्र के सदृश राज्य किया (88) फिर आगे रावण के द्वारा युद्ध में हराय गया (346-347) अंत में दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया (109)
2. मगध देश की राज्यवंशावली के अनुसार यह राजा शिशुपाल का पिता और कल्की राजा चतुर्मुख का दादा था। यद्यपि इसे कल्की नहीं कहा गया है, परंतु जैसे कि वंशावली में बताया है, यह भी अत्याचारी व कल्की था। समय वी.नि.958-1000 (ई.432-474)। (देखें इतिहास - 3.4) 3. लोकपाल का एक भेद - देखें लोकपाल ।
पुराणकोष से
(1) भरतक्षेत्र मे विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के रथनूपुर नगर के राजा विद्युत्प्रभ का बड़ा पुत्र । यह विद्युन्माली का अग्रज था । राजा होने के पश्चात् इसके शत्रुओं का दमन अर्जुन ने किया था । पद्मपुराण 1.59-60, पांडवपुराण 17.41-45, 60-62
(2) चंद्रशेखर का पुत्र, चंद्ररथ का पिता । पद्मपुराण 5.47-56
(3) देवों के स्वामी । ये महायुध वज्र के धारक होते हैं । पद्मपुराण 2. 243-244, हरिवंशपुराण 3.151, कल्पवासी, भवनवासी और व्यंतर देवों के जितने इंद्र होते हैं उतने ही प्रतींद्र भी होते हैं । कल्पवासी देवों के बारह इंद्रों के नाम है― 1. सौधर्मेंद्र 2. ऐशानेंद्र 3. सनत्कुमारेंद्र 4. माहेंद्र 5. ब्रह्मेंद्र 6. लांतवेंद्र 7. शुकेंद्र 8. शतारेंद्र 9. आनतेंद्र 10. प्राणतेंद्र 11. अरणेंद्र 12. अच्युतेंद्र । भवनवासी देवों के बीस इंद्रों के नाम है― 1. चमर 2. वैरोचन 3. भूतेश 4. धरणानंद 5. वेणुदेव 6. वेजुधरा 7. पूर्ण 8. अवशिष्ट 9. जलप्रभ 10. जलकांति 11. हरिषेण 12. हरिकांत 13. अग्निशिखी 14. अग्निवाहन 15. अमितगति 16. अमितवाहन 17. घोष 18. महाघोष 19. वेलंजन और 20. प्रभंजन । व्यंतर देवों के सोलह इंद्र है― 1. अतिकाय 2. काल 3. किन्नर 4. किंपुरुष 5. गीतरति 6. पूर्णभद्र 7. प्रतिरूपक 8. भीम 9. मणिभद्र 10. महाकाय 11. महाकाल 12. महामीम 13. महापुरुष 14. रतिकीर्ति 15. सत्पुरुरुष 16. सुरूप । ज्योतिष देवों के पांच इंद्र है― चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारक । वीरवर्द्धमान चरित्र 14.41-43
(4) जमदग्नि का पुत्र । महापुराण 65.92
(5) द्युतिलकपुर के राजा चंद्राभ का मंत्री । महापुराण 74.141
(6) रथनूपुर के राजा सहस्रार और उसकी रानी मानसुंदरी का पुत्र । गर्भावस्था में माता को इंद्र के भोग भोगने की इच्छा होने के कारण पिता ने पुत्र का यह नाम रखा था । इसने इंद्र के समान सुंदर महल बनवाया था, अड़तालीस हजार इसकी रानियाँ थी, ऐरावत हाथी था, चारों दिशाओं में इसने लोकपाल नियुक्त किये थे, इसकी पटरानी का नाम शची था और सभा का नाम सुधर्मा था । इसके पास वज्र नाम का शस्त्र, तीन सभाएँ, हरिणकेशी सेनापति, अश्विनीकुमार वैद्य, आठ वसु, चार प्रकार के देव, नारद, तुंबरु, विश्वबासु आदि गायक, उर्वशी, मेनका, मंजुस्वनी अप्सराएँ और वृहस्पति मंत्री थे इसने अपने वैभव को इंद्र के समान ही नाम दिये थे । रावण के दादा माली को मारकर इसने इंद्र के सदृश राज्य किया था । महापुराण 7.1-31, 85-88 अंत में दशानन ने इसे युद्ध में हराया था । रावण के द्वारा बद्ध इसे पिता सहस्रार ने बंधनों से मुक्त कराया था । असार सुख के स्वाद से सचेत करने के कारण इसने रावण को अपना महाबंधु माना था । अंत में निर्वाणसंगम मुनि से धर्मोपदेश सुन कर यह विरक्त हुआ और पुत्र को राज्य देकर अन्य पुत्रों और लोकपालों सहित इसने दीक्षा धारण कर की तथा तपपूर्वक शुक्लध्यान से कर्मक्षय करके निर्वाण प्राप्त किया । पद्मपुराण 12.346-347, 13.32-109