सप्तभंगी: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
Bhumi Doshi (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
| | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="HindiText">प्रश्नकार के प्रश्नवश अनेकांत स्वरूप वस्तु के प्रतिपादन के सात ही भंग होते हैं। न तो प्रश्न सात से हीन या अधिक हो सकते हैं और न ये भंग ही। | <span class="HindiText">प्रश्नकार के प्रश्नवश अनेकांत स्वरूप वस्तु के प्रतिपादन के सात ही भंग होते हैं। न तो प्रश्न सात से हीन या अधिक हो सकते हैं और न ये भंग ही। | ||
उदाहरणार्थ‒ | |||
1. जीव चेतन स्वरूप ही है, | |||
2. शरीर स्वरूप बिलकुल नहीं; | |||
3. क्योंकि स्वलक्षणरूप अस्तित्व पर की निवृत्ति के बिना और पर की निवृत्ति स्व लक्षण के अस्तित्व के बिना हो नहीं सकती है; | |||
4. पृथक् या क्रम से कहे गये ये स्व से अस्तित्व और पर से नास्तित्व रूप दोनों धर्म वस्तु में युगपत् सिद्ध होने से वह अवक्तव्य है; | |||
5. अवक्तव्य होते हुए भी वह स्वस्वरूप से सत् है; | |||
6. अवक्तव्य होते हुए भी वह पर से सदा व्यावृत्त ही है; | |||
7 और इस प्रकार वह अस्तित्व, नास्तित्व, व अवक्तव्य इन तीन धर्मों के अभेद स्वरूप है। | |||
इस अवक्तव्य को वक्तव्य बनाने के लिए इन सात बातों का क्रम से कथन करते हुए प्रत्येक वाक्य के साथ कथंचित् वाचक 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करते हैं जिसके कारण अनुक्त भी शेष छह बातों का संग्रह हो जाता है, और साथ ही प्रत्येक अपेक्षा के अवधारणार्थ एवकार का भी। स्यात् शब्द सहित कथन होने के कारण यह पद्धति स्याद्वाद् कहलाती है।</span> | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong>सप्तभंगी निर्देश</strong><ol> | <li class="HindiText"><strong>सप्तभंगी निर्देश</strong><ol> |
Revision as of 09:49, 7 March 2023
सिद्धांतकोष से
प्रश्नकार के प्रश्नवश अनेकांत स्वरूप वस्तु के प्रतिपादन के सात ही भंग होते हैं। न तो प्रश्न सात से हीन या अधिक हो सकते हैं और न ये भंग ही।
उदाहरणार्थ‒
1. जीव चेतन स्वरूप ही है, 2. शरीर स्वरूप बिलकुल नहीं; 3. क्योंकि स्वलक्षणरूप अस्तित्व पर की निवृत्ति के बिना और पर की निवृत्ति स्व लक्षण के अस्तित्व के बिना हो नहीं सकती है; 4. पृथक् या क्रम से कहे गये ये स्व से अस्तित्व और पर से नास्तित्व रूप दोनों धर्म वस्तु में युगपत् सिद्ध होने से वह अवक्तव्य है; 5. अवक्तव्य होते हुए भी वह स्वस्वरूप से सत् है; 6. अवक्तव्य होते हुए भी वह पर से सदा व्यावृत्त ही है; 7 और इस प्रकार वह अस्तित्व, नास्तित्व, व अवक्तव्य इन तीन धर्मों के अभेद स्वरूप है। इस अवक्तव्य को वक्तव्य बनाने के लिए इन सात बातों का क्रम से कथन करते हुए प्रत्येक वाक्य के साथ कथंचित् वाचक 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करते हैं जिसके कारण अनुक्त भी शेष छह बातों का संग्रह हो जाता है, और साथ ही प्रत्येक अपेक्षा के अवधारणार्थ एवकार का भी। स्यात् शब्द सहित कथन होने के कारण यह पद्धति स्याद्वाद् कहलाती है।
- सप्तभंगी निर्देश
- सप्तभंगी का लक्षण।
- सप्तभंगों के नाम निर्देश।
- सातों भंगों के पृथक्-पृथक् लक्षण।
- भंग सात ही हो सकते हैं हीनाधिक नहीं।
- दो या तीन ही भंग मूल हैं।
- * सात भंगी में स्यात्कार की आवश्यकता‒देखें स्याद्वाद - 5।
- * सप्तभंगी में एवकार की आवश्यकता‒देखें एकांत - 2।
- * सापेक्ष ही सातों भंग सम्यक् हैं निरपेक्ष नहीं‒देखें नय - II.7
- * सप्तभंगी का प्रयोजन‒देखें अनेकांत - 3।
- प्रमाण नय सप्तभंगी निर्देश
- अनेक प्रकार से सप्तभंगी प्रयोग
- * विरोधी धर्मों की अपेक्षा।‒देखें सप्तभंगी - 5.7।
- अस्ति नास्ति भंग निर्देश
- अनेक प्रकार से अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग
- स्वपर द्रव्यगुण पर्याय की अपेक्षा।
- स्वपर क्षेत्र की अपेक्षा।
- स्वपर काल की अपेक्षा।
- स्वपर भाव की अपेक्षा।
- वस्तु के सामान्य विशेष धर्मों की अपेक्षा।
- नयों की अपेक्षा।
- विरोधी धर्मों में।
- * वस्तु में अनेक विरोधी धर्म युगल तथा उनमें कथंचित् अविरोध।‒देखें अनेकांत - 4,5।
- * आकाश कुसुमादि अभावात्मक वस्तुओं का कथंचित् विधि निषेध।‒देखें असत् ।
- अवक्तव्य भंग निर्देश
- युगपत् अनेक अर्थ कहने की असमर्थता।
- वह सर्वथा अवक्तव्य नहीं।
- कालादि की अपेक्षा वस्तु धर्म अवक्तव्य है।
- सर्वथा अवक्तव्य कहना मिथ्या है।
- वक्तव्य व अवक्तव्य का समन्वय।
- * शब्द की वक्तव्यता तथा वाच्य वाचकता।‒देखें आगम - 4।
- * वस्तु में सूक्ष्म क्षेत्रादि की अपेक्षा स्वपर विभाग।‒देखें अनेकांत - 4/7।
- * शुद्ध निश्चय नय अवाच्य है।‒देखें नय - V.2.2।
- * सूक्ष्म पर्यायें अवाच्य हैं।‒देखें पर्याय - 3.1।
1. सप्तभंगी निर्देश
1. सप्तभंगी का लक्षण
राजवार्तिक/1/6/5/33/15 एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरुद्धा विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी बिज्ञेया। =प्रश्न के अनुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधि प्रतिषेध धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है। (स्याद्वादमंजरी /23/278/8)।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/14/30/15 पर उद्धृत‒एकस्मिन्नविरोधेन प्रमाणनयवाक्यत:। सदादिकल्पना या च सप्तभंगीति सा मता। =प्रमाण वाक्य से अथवा नय वाक्य से, एक ही वस्तु में अविरोध रूप से जो सत्-असत् आदि धर्म की कल्पना की जाती है उसे सप्तभंगी कहते हैं।
न्यायदीपिका/3/82/127/3 सप्तानां भंगानां समाहार: सप्तभंगीति। =सप्तभंगों के समूह को सप्तभंगी कहते हैं ( सप्तभंगीतरंगिणी/1/10 )।
सप्तभंगीतरंगिणी/3/1 प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वे सति, एकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धविधिप्रतिषेधात्मकधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वम् । =प्रश्नकर्ता के प्रश्नज्ञान का प्रयोज्य रहते, एक पदार्थ विशेष्यक अविरुद्ध विधि प्रतिषेध रूप नाना धर्म प्रकारक बोधजनक सप्त वाक्य पर्याप्त समुदायता (सप्तभंगी है)।
2. सप्तभंगों के नाम निर्देश
पंचास्तिकाय/14 सिय अत्थि णत्थि उहय अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं। दव्वं खु सत्तभंगं आदेशवसेण संभवदि।14। =आदेश (कथन) के वश द्रव्य वास्तव में स्यात्-अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अवक्तव्य और अवक्तव्यता युक्त तीन भंगवाला (स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, और स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य) इस प्रकार सात भंगवाला है।14। ( प्रवचनसार/115 ); ( राजवार्तिक/4/42/15/253/3 ); ( स्याद्वादमंजरी/23/278/11 ); ( सप्तभंगीतरंगिणी/2/1 )।
नयचक्र बृहद्/252 सत्तैव हुंति भंगा पमाणणयदुणयभेदजुत्तावि। =प्रमाण सप्तभंगी में, अथवा नय सप्तभंगी में, अथवा दुर्नय सप्तभंगी में सर्वत्र सात ही भंग होते है।
सप्तभंगीतरंगिणी/16/1 स च सप्तभंगी द्विविधा‒प्रमाणसप्तभंगी नयसप्तभंगी चेति। =सप्तभंगी दो प्रकार की है‒प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी।
3. सातों भंगों के पृथक्-पृथक् लक्षण
सप्तभंगीतरंगिणी/ पृष्ठ सं./पंक्ति सं.तत्र धर्मांतराप्रतिषेधकत्वे सति विधिविषयकबोधजनकवाक्यं प्रथमो भंग:। स च स्यादस्त्येव घट इति वचनरूप:। धर्मांतराप्रतिषेधकत्वे सति प्रतिषेधविषयकबोधजनकवाक्यं द्वितीयो भंग:। स च स्यान्नास्त्येव घट इत्याकार: (20/3)। घट: स्यादस्ति च नास्ति चेति तृतीय:। घटादिरूपैकधर्मिविशेष्यकक्रमार्पितविधिप्रतिषेधप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणम् । क्रमार्पितस्वरूपपररूपाद्यपेक्षयास्तिनास्त्यात्मको घट इति निरूपितप्रायम् । सहार्पितस्वरूपपररूपादिविवक्षायां स्यादवाच्यो घट इति चतुर्थ:। घटादिविशेष्यकावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणं (60/1) व्यस्तं द्रव्यं समस्तौ सहार्पितौ द्रव्यपर्यायावाश्रित्य स्यादस्ति चावक्तव्य एव घट इति पंचमभंग:। घटादिरूपैकधर्मिविशेष्यकसत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणम् । तत्र द्रव्यार्पणादस्तित्वस्य युगपद्द्रव्यपर्यायार्पणादवक्तव्यत्वस्य च विवक्षितत्वात् । (71/7) तथा व्यस्तं पर्यायं समस्तौ द्रव्यपर्यायौ चाश्रित्य स्यान्नास्ति चावक्तव्यो घट इति षष्ठ:। तल्लक्षणं च घटादिरूपैकधर्मिविशेष्यकनास्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वम् । एवं व्यस्तौ क्रमार्पितौ समस्तौ सहार्पितौ च द्रव्यपर्यायावाश्रित्य स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्य एव घट इति सप्तमभंग:। घटादिरूपैकवस्तुविशेष्यकसत्त्वासत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणम् (72/1)। =1. अन्य धर्मों का निषेध न करके विधि विषयक बोध उत्पन्न करने वाला प्रथम भंग है। वह 'कथंचित् घट है' इत्यादि वचनरूप है। 2. धर्मांतर का निषेध न करके निषेध विषयक बोधजनक वाक्य द्वितीय भंग है। 'कथंचित् घट नहीं है' इत्यादि वचनरूप उसका आकार है। (20/3)। 3. 'किसी अपेक्षा से घट है किसी अपेक्षा से नहीं है' यह तीसरा भंग है। घट आदि रूप एक धर्मी विशेष्यवाला तथा क्रम से योजित विधि प्रतिषेध विशेषण वाले बोध का जनक वाक्यत्व, यह तृतीय भंग का लक्षण है। क्रम से अर्पित स्वरूप पररूप द्रव्य आदि की अपेक्षा अस्ति नास्ति आत्मक घट है। यह विषय निरूपित है। 4. सह अर्पित स्वरूप-पररूप आदि की विवक्षा करने पर किसी अपेक्षा से घट अवाच्य है यह चतुर्थ भंग होता है। घटादि पदार्थ विशेष्यक और अवक्तव्य विशेषण वाले बोध (ज्ञान) का जनक वाक्यत्व, इसका लक्षण है। (60/1) 5. पृथक्भूत द्रव्य और मिलित द्रव्य व पर्याय इनका आश्रय करके 'कथंचित् घट अवक्तव्य है' इस भंग की प्रवृत्ति होती है। घट आदिरूप धर्मी विशेष्यक और सत्त्व सहित अवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्यत्व, यह इसका लक्षण है। इस भंग में द्रव्यरूप से अस्तित्व, और एक युगपत् द्रव्य व पर्याय को मिला के योजन करने से अवक्तव्यत्व रूप विवक्षित है। 6. ऐसे ही पृथग्भूत पर्याय और मिलित द्रव्य व पर्याय का आश्रय करके 'किसी अपेक्षा से घट नहीं है तथा अवक्तव्यत्व है' इस भंग की प्रवृत्ति होती है। घट आदि रूप एक पदार्थ विशेष्यक और असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषणवाले ज्ञान का जनक वाक्यत्व, इसका लक्षण है। 7. क्रम से योजित तथा युगपत् योजित द्रव्य तथा पर्याय का आश्रय करके, 'किसी अपेक्षा से सत्त्व असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व का आश्रय घट, इस सप्तम भंग की प्रवृत्ति होती है। घट आदि रूप एक पदार्थ विशेष्यक और सत्त्व असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्य, इसका लक्षण है। (और भी देखें नय - I.5.2)।
4. भंग सात ही हो सकते हैं हीनाधिक नहीं
राजवार्तिक/4/42/15/253/7 पर उद्धृत‒पुच्छावसेण भंगा सत्तेव दु संभवदि जस्स जथा। वत्थुत्ति तं पउच्चदि सामण्णविसेसदो नियदं। =प्रश्न के वश से ही भंग होते हैं। क्योंकि वस्तु सामान्य और विशेष उभय धर्मों से युक्त है।
श्लोकवार्तिक/2/1/6/49-52/414/16 ननु च प्रतिपर्यायमेक एव भंग: स्याद्वचनस्य न तु सप्तभंगी तस्य सप्तधा वक्तुमशक्ते:। पर्यायशब्दैस्तु तस्याभिधाने कथं तन्नियम: सहस्रभंग्या अपि तथा निषेद्धुमशक्तेरिति चेत् नैतत्सारं, प्रश्नवशादिति वचनात् । तस्य सप्तधा प्रवृत्तौ तत्प्रतिवचनस्य सप्तविधत्वोपपत्ते: प्रश्नस्य तु सप्तधा प्रवृत्ति: वस्तुन्येकस्य पर्यायस्याभिधाने पर्यायांतराणामाक्षेपसिद्धि:। =प्रश्न‒प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा से वचन का भंग एक ही होना चाहिए। सात भंग नहीं हो सकते, क्योंकि एक अर्थ का सात प्रकार से कहना अशक्य है। पर्यायवाची सात शब्दों करके एक का निरूपण करोगे तो सात का नियम कैसे रहा ? हजारों भंगों के समाहार का निषेध भी नहीं कर सकते हो ? उत्तर‒यह कथन सार रहित है। क्योंकि, प्रश्न के वश ऐसा पद डालकर कहा है। प्रश्न सात प्रकार से प्रवृत्त हो रहा है तो उसके उत्तररूप वचन को सात-सात प्रकारपना युक्त ही है। और यह वस्तु में एक पर्याय के कथन करने पर अन्य प्रतिषेध, अवक्तव्य आदि पर्यायों के आक्षेप कर लेने से सिद्ध है।
सप्तभंगीतरंगिणी/8 पर उद्धृत श्लोक ‒भंगास्सत्त्वादयस्सप्त संशयास्सप्त तद्गता:। जिज्ञासास्सप्त सप्त स्यु; प्रश्नास्सप्तोत्तराण्यपि। ='कथंचित् घट हैं' इत्यादि वाक्य में सत्त्व आदि सप्त भंग इस हेतु से हैं कि उनमें स्थिति संशय भी सप्त हैं, और सप्तसंशय के लिए जिज्ञासाओं के भेद भी सप्त हैं, और जिज्ञासाओं के भेद से ही सप्त प्रकार के प्रश्न तथा उत्तर भी है। ( स्याद्वादमंजरी/23/282/14,17 ); ( सप्तभंगीतरंगिणी/4/7 )।
5. दो या तीन ही भंग मूल हैं
स्याद्वादमंजरी/24/289/12 अमीषामेव त्रयाणां (अस्ति नास्ति अवक्तव्यानां) मुख्यत्वाच्छेषभंगानां च संयोगजत्वेनामीष्वेवांतर्भावादिति। =क्योंकि आदि के (अस्ति, नास्ति व अवक्तव्य ये) तीन भंग ही मुख्य भंग हैं, शेष भंग इन्हीं तीनों के संयोग से बनते हैं, अतएव उनका इन्हीं में अंतर्भाव हो जाता है।
सप्तभंगीतरंगिणी/75/6 इत्येवं मूलभंगद्वये सिद्धे उत्तरे च भंगा एवमेव योजयितव्या:। =इस रीति से मूलभूत (अस्ति-नास्ति) दो भंग की सिद्धि होने से उत्तर भंगों की योजना करनी चाहिए।
6. स्यात्कार का प्रयोग कर देने पर अन्य अंगों की क्या आवश्यकता
राजवार्तिक/4/42/15/253/13/20 यद्ययमनेकांतार्थास्तेनैव सर्वस्योपादानात् इतरेषां पदानामानर्थक्यं प्रसज्यते, नैष दोष:, सामान्येनोपादानेऽपि विशेषार्थिना विशेषोऽनुप्रयोक्तव्य:।13। यद्येवं स्यादस्त्येव जीव: इत्यनेनैव सकलादेशेन जीवद्रव्यागतानां सर्वेषां धर्माणां संग्रहात् इतरेषां भंगानामानर्थक्यमासजति; नैष दोष:; गुणप्राधान्यव्यवस्थाविशेषप्रतिपादनार्थत्वात् सर्वेषां भंगानां प्रयोगोऽर्थवान् । =प्रश्न‒यदि इस 'स्यात्' शब्द से अनेकांतार्थ का द्योतन हो जाता है, तो इतर पदों के प्रयोग का क्या अर्थ है ? ऐसा प्रसंग आता है। उत्तर‒इसमें कोई दोष नहीं है; क्योंकि सामान्यतया अनेकांत का द्योतन हो जाने पर भी, विशेषार्थी विशेष शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रश्न‒यदि 'स्यात् अस्त्येव जीव:' यह वाक्य सकलादेशी है तो इसी से जीव द्रव्य के सभी धर्मों का संग्रह हो ही जाता है, तो आगे के भंग निरर्थक है ? उत्तर‒गौण और मुख्य विवक्षा से सभी भंगों की सार्थकता है।
2. प्रमाण नय सप्तभंगी निर्देश
1. प्रमाण व नय सप्तभंगी के लक्षण व उदाहरण
राजवार्तिक/4/45/15/253/3
तत्रैतस्मिन् सकलादेश आदेशवशात् सप्तभंगी प्रतिपदं वेदितव्यां। तद्यथा‒स्यादस्त्येव जीव:, स्यान्नास्त्येव जीव:, स्यादवक्तव्य एव जीव:, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च इत्यादि। ...तत्र स्यादस्त्येव जीव इत्येतस्मिन् वाक्ये जीवशब्दो द्रव्यवचन: विशेष्यत्वात्, अस्तीति गुणवचनो विशेषणत्वात् । तयोस्सामान्यार्थाविच्छेदेन विशेषणविशेष्यसंबंधावद्योतनार्थ एवकार:।
राजवार्तिक/4/42/17/260/22 तत्रापि विकलादेशे तथा आदेशवशेन सप्तभंगी वेदितव्या। ...तद्यथा सर्वसामान्यादिषु द्रव्यार्थादेशेषु केनचिदुपलभ्यमानत्वात् स्यादस्त्येवात्मेति प्रथमो विकलादेश:। ...एवं शेषभंगेष्वपि विवक्षितांशमात्रप्ररूपणायाम् इतरेष्वौदासीन्येन विकलादेशकल्पना योज्या। =1. इस सकलादेश में प्रत्येक धर्म की अपेक्षा सप्तभंगी होती है। 1. स्यात् अस्त्येव जीव:, 2. स्यात् नास्त्येव जीव:, 3. स्यात् अवक्तव्य एव जीव:, 4. स्यात् अस्ति च नास्ति च, 5. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यश्च, 6. स्यात् नास्ति च अवक्तव्यश्च, 7. स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्यश्च। =...'स्यात् अस्त्येव जीव:' इस वाक्य में जीव शब्द विशेष्य है द्रव्यवाची है और अस्ति शब्द विशेषण है गुणवाची है। उनमें विशेषण विशेष्यभाव द्योतन के लिए 'एव' का प्रयोग है। 2. विकलादेश में भी सप्तभंगी होती है...यथा‒सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थ दृष्टि से 'स्यादस्त्येव आत्मा' यह पहला विकलादेश है। ...इसी तरह अन्य धर्मों में भी स्व विवक्षित धर्म की प्रधानता होती है और अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता; न तो उनका विधान ही होता है और न प्रतिषेध ही।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/170/201/2
स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्य: स्यादस्ति च नास्ति च स्यादस्ति चावक्तव्यश्च स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति सप्तापि सकलादेश:। ...एष: सकलादेश: प्रमाणाधीन: प्रमाणायत्त: प्रमाणव्यपाश्रय: प्रमाणजनित इति यावत् ।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/171/203/6 अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव अस्ति नास्त्येव अस्त्यवक्तव्य एव नास्त्यवक्तव्य एव घट इति विकलादेश:। ...अयं च विकलादेशो नयाधीन: नयायत्त: नयवशादुत्पद्यत इति यावत् । 1. कथंचित् घट है, कथंचित् घट नहीं है, कथंचित् घट अवक्तव्य है, कथंचित् घट है और नहीं है कथंचित् घट है और अवक्तव्य है, कथंचित् घट नहीं है और अवक्तव्य है, कथंचित् घट है नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सातों भंग सकलादेश कहे जाते हैं। ...यह सकलादेश प्रमाणाधीन है अर्थात् प्रमाण के वशीभूत हैं, प्रमाणाश्रित है या प्रमाणजनित है ऐसा जानना चाहिए। 2. घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्य रूप है, घट है ही और नहीं ही है, घट है ही और अवक्तव्य ही है, घट नहीं ही है और अवक्तव्य ही है, घट है ही, नहीं ही है और अवक्तव्य रूप है, इस प्रकार यह विकलादेश है। ...यह विकलादेश नयाधीन है, नय के वशीभूत है या नय से उत्पन्न होता है।
धवला 9/4,1,45/165/4
सकलादेश:...स्यादस्तीत्यादि...प्रमाणनिबंधनत्वात् स्याच्छब्देन सूचिताशेषप्रधानीभूतधर्मत्वात् ।...विकलादेश अस्तीत्यादि...नयोत्पन्नत्वात् ।
धवला 9/4,1,45/183/7 स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादस्ति चावक्तव्यं च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च इति एतानि सप्त सुनयवाक्यानि प्रधानीकृतैकधर्मत्वात् । =1. 'कथंचित् हैं' इत्यादि सात भंगों का नाम सकलादेश है, क्योंकि प्रमाण निमित्तक होने के कारण इसके द्वारा 'स्यात्' शब्द से समस्त अप्रधानभूत धर्मों की सूचना की जाती है। ...'अस्ति' अर्थात् है इत्यादि सात वाक्यों का नाम विकलादेश है, क्योंकि वे नयों से उत्पन्न होते हैं। 2. कथंचित् है, कथंचित् नहीं है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् है और नहीं है, कथंचित् है और अवक्तव्य है, कथंचित् नहीं है और अवक्तव्य है, कथंचित् है और नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सात सुनय वाक्य हैं, क्योंकि वे एक धर्म को प्रधान करते हैं।
नयचक्र /श्रुतभवन/62/11 प्रमाणवाक्यं यथा स्यादस्ति स्याद्नास्ति... आदय:। नयवाक्यं यथा अस्त्येव स्वद्रव्यादिग्राहकनयेन। नास्त्येव परद्रव्यादिग्राहकनयेन। (इत्यादि) स्वभावानां नये योजनिकामाह। =प्रमाण वाक्य निम्न प्रकार हैं‒जैसे कथंचित् है, कथंचित् नहीं है। ...इत्यादि प्रमाण की योजना है। नयवाक्य निम्न प्रकार हैं जैसे‒स्वद्रव्यादिग्राहक नय की अपेक्षा से भावरूप ही है। परद्रव्यादिग्राहक नय की अपेक्षा से अभावरूप ही है ...(इसी प्रकार अन्य भंग भी लगा लेने चाहिए) स्वभावों की नयों में योजना बतलाते हैं। (वह उपरोक्त प्रकार लगा लेनी चाहिए)। ( नयचक्र बृहद्/252-255 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/14/32/11 सूक्ष्मव्याख्यानविवक्षायां पुन: सदेकनित्यादिधर्मेषु मथ्ये एकैकधर्मे निरुद्धे सप्तभंगा वक्तव्या:। कथमिति चेत् । स्यादस्ति स्यान्नास्ति। =सूक्ष्म व्याख्यान की विवक्षा में सत्, एक नित्यादि आदि एक-एक धर्म को लेकर सप्तभंग कहने चाहिए। जैसे‒स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, ...(इत्यादि इसी प्रकार अन्य भंगों की योजना करनी चाहिए)।
प्रवचनसार/115/ पृष्ठ /पंक्ति नयसप्तभंगी विस्तारयति स्यादस्त्येव...स्यान्नास्त्येव (161/10) पूर्वं पंचास्तिकाये स्यादस्तीत्यादिप्रमाणवाक्येन प्रमाणसप्तभंगी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकारग्रहणं तन्नयसप्तभंगीज्ञापनार्थमिति भावार्थ:।162/19। =नय सप्तभंगी कहते हैं - यथा - 'स्यादस्त्येव' अर्थात् कथंचित् जीव है ही, कथंचित् जीव नहीं ही है। इत्यादि। पहले पंचास्तिकाय ग्रंथ में 'कंथचित् है' इत्यादि प्रमाण वाक्य से प्रमाणसप्तभंगी व्याख्यान की गयी। और यहाँ पर जो 'कथंचित् है ही' इसमें जो एवकार का ग्रहण किया है वह नय सप्तभंगी के ज्ञान कराने के लिए किया गया है।
न्यायदीपिका/3/82/126-127 द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णं स्यादेकमेव, पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव।...सैषा नयविनियोगपरिपाटी सप्तभंगीत्युच्यते। =द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से सोना कथंचित् एकरूप है, पर्यायार्थिक नय के अभिप्राय से कथंचित् अनेकरूप है। ...इत्यादि नयों के कथन करने की इस शैली को ही सप्तभंगी कहते हैं।
2. प्रमाण सप्तभंगी में हेतु
राजवार्तिक/4/42/15/ पृष्ठ संख्या /पंक्ति/span> जीव: स्यादस्ति स्यान्नास्तीति। अत: द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकमात्मसात्कुर्वन् व्याह्नियते, पर्यायार्थिकोऽपि द्रव्यार्थिकमिति उभावपि इमौ सकलादेशो (257/8)। ताभ्यामेव क्रमेणाभिधित्सायां तथैव वस्तुसकलस्वरूपसंग्रहात् चतुर्थोऽपि विकल्पसकलादेश: (258/20) तत: स्यादस्ति चावक्तव्यश्च जीव:। अयमपि सकलादेश:। अंशाभेदविवक्षायाम् एकांशमुखेन सकलसंग्रहात् (259/27) यश्च वस्तुत्वेन सन्निति द्रव्यार्थांश: यश्च तत्प्रतियोगिनावस्तुत्वेनासन्निति पर्यायांश:, ताभ्यां युगपदभेदविवक्षायां अवक्तव्य इति द्वितीयोंऽश:। तस्मान्नास्ति चावक्तव्यश्चात्मा। अयमपि सकलादेश: शेषवाग्गोचरस्वरूपसमूहस्याविनाभावात् तत्रैवांतर्भूतस्य स्याच्छब्देन द्योतितत्वात् (260/1) सप्तमो विकल्प: चतुर्भिरात्मभि: त्र्यंश:। द्रव्यार्थविशेषं कंचिदाश्रित्यास्तित्वं पर्यायविशेषं च कंचिदाश्रित्य नास्तित्वमिति समुचितरूपं भवति, द्वयोरपि प्राधान्येन विवक्षितत्वात् । द्रव्यपर्यायविशेषेण च केनचित् द्रव्यपर्यायसामान्येन च केनचित् युगपदवक्तव्य: इति तृतीयोंऽश:। तत: स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च आत्मा। अयमपि सकलादेश:। यत: सर्वान् द्रव्यार्थान् द्रव्यमित्यभेदादेकं द्रव्यार्थं मन्यते। सर्वान् पर्यायार्थांश्च पर्यायजात्यभेदादेकं पर्यायार्थम् । अतो विवक्षितवस्तुजात्यभेदात् कृत्स्नं वस्तु एकद्रव्यार्थाभिन्नम् एकपर्यायाभेदोपचरितं वा एकमिति सकलसंग्रहात् (260/5)। =जीव स्यादस्ति और स्यान्नास्तिरूप है। इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक को तथा पर्यायार्थिक द्रव्यार्थिक को अपने में अंतर्भूत करके व्यापार करता है, अत: दोनों ही भंग सकलादेशी हैं (257/8)। (अवक्तव्य भेद‒देखें सप्तभंगी - 6) जब दोनों धर्मों की क्रमश: मुख्य रूप से विवक्षा होती है तब उनके द्वारा समस्त वस्तु का ग्रहण होने से चौथा भी भंग सकलादेशी होता है (258/20) जीव स्यात् अस्ति और अवक्तव्य है, यह भी विवक्षा से अखंड वस्तु को संग्रह करने के कारण सकलादेश है क्योंकि इसने एक अंश रूप से समस्त वस्तु को ग्रहण किया है (259/27) जो 'वस्तुत्वेन' सत् है द्रव्यांश वही तथा जो अवस्तुत्वेन असत् है वही पर्यायांश है। इन दोनों की युगपत् अभेद विवक्षा में वस्तु अवक्तव्य है यह दूसरा अंश है। इस तरह आत्मा नास्ति अवक्तव्य है यह भी सकलादेश है क्योंकि विवक्षित धर्मरूप से अखंड वस्तु को ग्रहण करता है। (260/1) सातवाँ भंग चार स्वरूपों से तीन अंशवाला है। किसी द्रव्यार्थ विशेष की अपेक्षा अस्तित्व किसी पर्याय विशेष की अपेक्षा नास्तित्व है। तथा किसी द्रव्यपर्याय विशेष, और द्रव्य पर्याय सामान्य की युगपत् विवक्षा में वही अवक्तव्य भी हो जाता है। इस तरह अस्ति नास्ति अवक्तव्य भंग बन जाता है। यह भी सकलादेश है। सर्वद्रव्यों को द्रव्य जाति की अपेक्षा से एक कहा जाता है, तथा सर्व पर्यायों को पर्याय जाति की अपेक्षा से एक कहा जाता है। क्योंकि इसने विवक्षित धर्मरूप से अखंड समस्त वस्तु का ग्रहण किया है।
धवला 4/1,4,1/145/1 दव्वपज्जवट्ठियणए अणवलंबिय कहणोवायाभावादो। जदि एवं, तो पमाणवक्कस्स अभावो पसज्जदे इदि वुत्ते, होदु णाम अभावो, गुणप्पहाणभावमंतरेण कहणोवायाभावादो। अधवा, पमाणुप्पाइदं वयणं पमाणवक्कमुवयारेण वुच्चदे। =द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के अवलंबन किये बिना वस्तु स्वरूप के कथन करने के उपाय का अभाव है। प्रश्न‒यदि ऐसा है तो प्रमाण वाक्य का अभाव प्राप्त होता है। उत्तर‒भले ही प्रमाण वाक्य का अभाव हो जावे, क्योंकि, गौणता और प्रधानता के बिना वस्तु स्वरूप के कथन करने के उपाय का भी अभाव है। अथवा प्रमाण से उत्पादित वचन को उपचार से प्रमाण वाक्य कहते हैं।
3. प्रमाण व नय सप्तभंगी में अंतर
स्याद्वादमंजरी/28/308/4 सदिति उल्लेखनात् नय:। स हि 'अस्ति घट:' इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्मं प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमिलिकामालंबते। न चास्य दुर्नयत्वम् । धर्मांतरातिरस्कारात् । न च प्रमाणत्वम् । स्याच्छब्देन अलांछितत्वात् । स्यात्सदिति 'स्यात्कंथंचित् सद् वस्तु' इति प्रमाणम् । प्रमाणत्वं चास्य दृष्टेष्टाबाधितत्वाद् विपक्षे बाधकसद्भावाच्च। सर्वं हि वस्तु स्वरूपेण सत् पररूपेण चासद् इति असकृदुक्तम् । सदिति दिङ्मात्रदर्शनार्थम् । अनया दिशा असत्त्वनित्यत्वानित्यत्ववक्तव्यत्वसामान्यविशेषादि अपि बोद्धव्यम् । =1. किसी वस्तु में अपने इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय कहते हैं‒जैसे 'यह घट है'। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता, इसलिए नय को दुर्नय नहीं कहा जा सकता। तथा नय में स्यात् शब्द का प्रयोग न होने से इसे प्रमाण भी नहीं कह सकते। 2. वस्तु के नाना दृष्टियों की अपेक्षा कथंचित् सत्रूप विवेचन करने को प्रमाण कहते हैं, जैसे 'घट कथंचित् सत् है'। प्रत्यक्ष और अनुमान से अबाधित होने से और विपक्ष का बाधक होने से इसे प्रमाण कहते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से सत् और दूसरे स्वभाव से असत् है, यह पहले कहा जा चुका है। यहाँ वस्तु के एक सत् धर्म को कहा गया है। इसी प्रकार असत्, नित्य, अनित्य, वक्तव्य, अवक्तव्य, सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्म समझने चाहिए।
स्याद्वादमंजरी/28/321/1 स्याच्छब्दलांछितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । =नय वाक्यों में स्यात् शब्द लगाकर बोलने वाले को प्रमाण कहते हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/15/32/16 स्यादस्ति द्रव्यमिति पठनेन वचनेन प्रमाणसप्तभंगी ज्ञायते। कथमिति चेत् । स्यादस्तीति सकलवस्तुग्राहकत्वात्प्रमाणवाक्यं स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वान्नयवाक्यम् । ='द्रव्य कथंचित् है' ऐसा कहने पर प्रमाण सप्तभंगी जानी जाती है क्योंकि 'कथंचित् है' यह वाक्य सकल वस्तु का ग्राहक होने के कारण प्रमाण वाक्य है। 'द्रव्य कथंचित् है ही' ऐसा कहने पर यह वस्तु का एकदेश ग्राहक होने से नय वाक्य है।
देखें विकलादेश केवल धर्मी विषयक बोधजनक वाक्य सकलादेश , तथा केवल धर्म विषयक बोधजनक वाक्य नय है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि धर्मी और धर्म दोनों स्वतंत्र रूप से नहीं रहते हैं।
4. सप्तभंगों में प्रमाण व नय का विभाग युक्त नहीं
सप्तभंगीतरंगिणी/16/9 न च त्रीण्येव नयवाक्यानि चत्वार्येव प्रमाणवाक्यानि इति वक्तुं युक्तं सिद्धांतविरोधात् । =तीन (प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ भंग) ही नय वाक्य हैं और चार (तृतीय, पंचम, षष्ट, सप्तम भंग) ही प्रमाण वाक्य हैं, ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सिद्धांत से विरोध आता है।
5. नय सप्तभंगी में हेतु
देखें सप्तभंगी - 2.1 में धवला/9 'स्याद् अस्ति' आदि ये सात वाक्य सुनय वाक्य हैं, क्योंकि वे एक धर्म को विषय करते हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/682,688,689 यदनेकांशग्राहकमिह प्रमाणं न प्रत्यनीकतया। प्रत्युत मैत्रीभावादिति नयभेदादद: प्रभिन्नं स्यात् ।682। स यथास्त्िा च नास्तीति च क्रमेण युगपच्च वानयोर्भाव:। अपि वा वक्तव्यमिदं नयो विकल्पानतिक्रमादेव।688। तत्रास्ति च नास्ति समं भंगस्यास्यैकधर्मता नियमात् । न पुन: प्रमाणमिव किल विरुद्धधर्मद्वयाधिरूढत्वम् ।689। =प्रमाण अनेक अंशों को ग्रहण करने वाला परस्पर विरोधीपने से नहीं कहा गया है किंतु सापेक्ष भाव से कहा गया है। इसलिए संयोगी भंगात्मक नयों के भेद से भिन्न है।682। (नयविकल्पात्मक हैं) जैसे विकल्प का उल्लंघन नहीं करने से ही क्रमपूर्वक अस्ति और नास्ति, अस्तिनास्तिक्रम पूर्वक एक साथ कहना यह भंग तथा यह अवक्तव्य भंग भी नय है।688। उन भंगों में से निश्चय करके एक साथ अस्ति और नास्ति मिले हुए एक भंग को नियम से एक धर्मपना है किंतु प्रमाण की तरह विरुद्ध दो धर्मों को विषय करने वाला नहीं है।689।
3. अनेक प्रकार से सप्तभंगी प्रयोग
1. एकांत व अनेकांत की अपेक्षा
राजवार्तिक/1/6/6/35/17-22 अनेकांते तदभावादव्याप्तिरिति चेत्; न; तत्रापि तदुपपत्ते:।6। ...स्यादेकांत: स्यादनेकांत:...इति। तत्कथमिति चेत्;। =प्रश्न‒अनेकांत में सप्तभंगी का अभाव होने से 'सप्तभंगी की योजना सर्वत्र होती है' इस नियम का अभाव हो जायेगा। उत्तर‒ऐसा नहीं है, अनेकांत में भी सप्तभंगी की योजना होती है।...यथा - 'स्यादेकांत:', स्यादनेकांत:...इत्यादि'। क्योंकि (यदि अनेकांत अनेकांत ही होवे तो एकांत का अभाव होने से अनेकांत का अभाव हो जावेगा और यदि एकांत ही होवे तो उसके अविनाभावि शेष धर्मों का लोप होने से सब लोप हो जावेगा। (देखें अनेकांत - 2.5)।
सप्तभंगीतरंगिणी/75/1 सम्यगेकांतसम्यगनेकांतावाश्रित्य प्रमाणनयार्पणाभेदात्, स्यादेकांत: स्यादनेकांत: ...सप्तभंगी योज्या। तत्र नयार्पणादेकांतो भवति, एकधर्मगोचरत्वान्नयस्य। प्रमाणादनेकांतो भवति, अशेषधर्मनिश्चयात्मकत्वात्प्रमाणस्य। =सम्यगेकांत और सम्यगनेकांत का आश्रय लेकर प्रमाण तथा नय के भेद की योजना से किसी अपेक्षा से एकांत, किसी अपेक्षा से अनेकांत ...(आदि)। इस रीति से सप्तभंगी की योजना करनी चाहिए। उसमें नय की योजना से एकांत पक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि नय एक धर्म को विषय करता है। और प्रमाण की योजना से अनेकांत सिद्ध होता है, क्योंकि प्रमाण संपूर्ण धर्मों को विषय करता है।
2. स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/14 तत्र स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टमस्ति द्रव्यं, परद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टं नास्ति द्रव्यं...इति। न चैतदनुपपन्नम्; सर्वस्य वस्तुन: स्वरूपादिना अशून्यत्वात्; पररूपादिना शून्यत्वात् ...इति। =द्रव्य स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से कथन किया जाने पर 'अस्ति' है। द्रव्य परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से कथन किया जाने पर 'नास्ति है,...(आदि)। यह (उपरोक्त बात) अयोग्य नहीं है, क्योंकि सर्व वस्तु स्वरूपादि से अशून्य हैं, पररूपादि से शून्य हैं...(आदि)। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/115 ) ( धवला 7/4,1,45/213/4 ) और भी देखें नय - I.5.2)
3. सामान्य विशेष की अपेक्षा
राजवार्तिक/4/42/15/258-259/2 कथमेते निरूप्यंते। ...सर्वसामान्येन तदभावेन च...तत्र आत्मा अस्तीति सर्वप्रकारानाश्रयणादिच्छावशात् कल्पितेन सर्वसामान्येन वस्तुत्वेन अस्तीति प्रथम:। तत्प्रतिपक्षेणाभावसामान्येनावस्तुत्वेन नास्त्यात्मा इति द्वितीय:। ...विशिष्टसामान्येन तदभावेन च यथाश्रुतत्वात् श्रुत्युपात्तेन आत्मनैवाभिसंबंध:, ततश्चात्मत्वेनैव अस्त्यात्मा इति प्रथम:। यथाश्रुतप्रतियोगित्वात् अनात्मत्वेनैव नास्त्यात्मा इति द्वितीय:। ...विशिष्टसामान्येन तदभावसामान्येन च - यथाश्रुतत्वात् आत्मत्वेनैवास्तीति प्रथम:। अभ्युपगमविरोधभयात् वस्त्वंतरात्मना क्षित्युदकज्वलनघटपटगुणकर्मादिना सर्वेण प्रकारेण सामान्यो नास्तीति द्वितीय:। विशिष्टसामान्येन तद्विशेषेण च-आत्मसामान्येनास्त्यात्मा। आत्मविशेषेण मनुष्यत्वेन नास्ति। ...सामान्येन विशिष्टसामान्येन च-अविशेषरूपेण द्रव्यत्वेन अस्त्यात्मा। विशिष्टेन सामान्येन प्रतियोगिना नात्मत्वेन नास्त्यात्मा।...द्रव्यसामान्येन गुणसामान्येन च वस्तुनस्तथा तथा संभवात् तां तां विवक्षामाश्रित्याविशेषरूपेण द्रव्यत्वेनास्त्यात्मा, तत्प्रतियोगिनां विशेषरूपेण गुणत्वेन नास्त्यात्मा। ...धर्मसमुदायेन तद्वयतिरेकेण च-त्रिकालगोचरानेकशक्तिज्ञानादिधर्मसमुदायरूपेणात्मास्ति। तद्वयतिरेकेण नास्त्यनुपलब्धे:। धर्मसामांयसंबंधेन तदभावेन च गुणरूपगतसामान्यसंबंधविवक्षायां यस्य कस्यचित् धर्मस्य आश्रयत्वेन अस्त्यात्मा। न तु कस्यचिदपि धर्मस्याश्रयो न भवतीति धर्मसामान्यानाश्रयत्वेन नास्त्यात्मा। ...धर्मविशेषसंबंधेन तदभावेन च अनेकधर्मणोऽंयतमधर्मसंबंधेन तद्विपक्षेण वा विवक्षायाम् यथा अस्त्यात्मा नित्यत्वेन निरवयवत्वेन चेतनत्वेन वा, तेषामेवान्यतमधर्मप्रतिपक्षेण नास्त्यात्मा। =सप्तभंगी का निरूपण इस प्रकार होता है‒1. सर्वसामान्य और तदभाव से 'आत्मा अस्ति' यहाँ सभी प्रकार के अवांतर भेदों की विवक्षा न रहने पर सर्व विशेष व्यापी सन्मात्र की दृष्टि से उसमें 'अस्ति' व्यवहार होता है और उसके प्रतिपक्ष अभाव सामान्य से 'नास्ति' व्यवहार होता है। ...2. विशिष्ट सामान्य और तदभाव से‒आत्मा आत्मत्वरूप विशिष्ट सामान्य की दृष्टि से 'अस्ति' है और अनात्मत्व दृष्टि से 'नास्ति' है।...3. विशिष्टसामान्य और तदभाव सामान्य से। आत्मा 'आत्मत्व' रूप से अस्ति है तथा पृथिवी जल, पट आदि सब प्रकार से अभाव सामान्य रूप से 'नास्ति' है।...4. विशिष्ट सामान्य और तद्विशेष से। आत्मा 'आत्मत्व' रूप से अस्ति है, और आत्मविशेष 'मनुष्यरूप से' 'नास्ति' है। 5. सामान्य और विशिष्ट सामान्य से। सामान्य दृष्टि से द्रव्यत्व रूप से आत्मा 'अस्ति' है और विशिष्ट सामान्य के अभावरूप अनात्मत्व से 'नास्ति' है।...6. द्रव्य सामान्य और गुण सामान्य से। द्रव्यत्व रूप से आत्मा 'अस्ति' है तथा प्रतियोगी गुणत्व की दृष्टि से 'नास्ति' है। 7. धर्मसमुदाय और तद्वयतिरेक से। त्रिकाल गोचर अनेक शक्ति तथा ज्ञानादि धर्म समुदाय रूप से आत्मा 'अस्ति' है। तथा तदभाव रूप से नास्ति है।...8. धर्म समुदाय संबंध से और तदभाव से। ज्ञानादि गुणों के सामान्य संबंध की दृष्टि से आत्मा 'अस्ति' है तथा किसी भी समय धर्म सामान्य संबंध का अभाव नहीं होता अत: तदभाव की दृष्टि से 'नास्ति' है।...9. धर्मविशेष संबंध और तदभाव से। किसी विवक्षित धर्म के संबंध की दृष्टि से आत्मा 'अस्ति' है तथा उसी के अभावरूप से 'नास्ति' है। जैसे‒आत्मा नित्यत्व या चेतनत्व किसी अमुक धर्म के संबंध से 'अस्ति' है और विपक्षी धर्म से नास्ति है। ( श्लोकवार्तिक/2/1/6/56/469/11 )।
स्याद्वादमंजरी/23/282/7 यथा हि सदसत्त्वाभ्याम्, एवं सामान्यविशेषाभ्यामपि सप्तभंग्येव स्यात् तथाहि स्यात्सामान्यम्, स्याद्विशेषं...इति। न चात्र विधिनिषेधप्रकारौ न स्त इति वाच्यम् । सामान्यस्य विधिरूपत्वाद् विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकत्वात् । अथवा प्रतिपक्षशब्दत्वाद् यदा सामान्यस्य प्राधान्यं तदा तस्य विधिरूपता विशेषस्य च निषेधरूपता। यदा विशेषस्य पुरस्कारस्तदा तस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेधरूपता। =जिस प्रकार सत्त्व असत्त्व की दृष्टि से सप्त भंग होते हैं, उसी तरह सामान्य विशेष की अपेक्षा से भी स्यात् सामान्य, स्यात् विशेष... (आदि) सात भंग होते हैं। प्रश्न‒सामान्य विशेष की सप्तभंगी में विधि और निषेध धर्मों की कल्पना कैसे बन सकती है ? उत्तर‒इसमें विधि निषेध धर्मों की कल्पना बन सकती है। क्योंकि सामान्य विधिरूप है, और विशेष व्यवच्छेदक होने से निषेध रूप है। अथवा सामान्य और विशेष दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव जब सामान्य की प्रधानता होती है उस समय सामान्य के विधिरूप होने से विशेष निषेध रूप कहा जाता है, और जब विशेष की प्रधानता होती है, उस समय विशेष के विधिरूप होने से सामान्य निषेध रूप कहा जाता है।
4. नयों की अपेक्षा
राजवार्तिक/4/42/17/261/6 एते त्रयोऽर्थनया एकैकात्मका, संयुक्ताश्च सप्त वाक्प्रकारान् जनयंति। तत्राद्य: संग्रह एक:, द्वितीयो व्यवहार एक:, तृतीय: संग्रहव्यवहारावविभक्तौ चतुर्थ: संग्रहव्यवहारौ समुच्चितौ, पंचम: संग्रह: संग्रहव्यवहारौ चाविभक्तौ। षष्ठो व्यवहार: संग्रहव्यवहारौ चाविभक्तौ। सप्तम: संग्रहव्यवहारौ प्रचितौ तौ चाविभक्तौ। एष ऋजुसूत्रेऽपि योज्य:। =ये तीनों (संग्रह, व्यवहार ऋजुसूत्र) अर्थनय मिलकर तथा एकाकी रहकर सात प्रकार के भंगों को उत्पन्न करते हैं। पहला संग्रह, दूसरा व्यवहार, तीसरा अविभक्त (युगपत् विवक्षित) संग्रह व्यवहार, चौथा समुच्चित (क्रम विवक्षित समुदाय) संग्रह व्यवहार, पाँचवाँ संग्रह और अविभक्त संग्रह व्यवहार छठा व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार तथा सातवाँ समुदित संग्रह व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार। इसी प्रकार ऋजुसूत्र नय भी लगा लेनी चाहिए।
5. अनंतों सप्तभंगियों की संभावना
स्याद्वादमंजरी/23/282/5 न च वाच्यमेकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानंतधर्माभ्युपगमेनानंतभंगीप्रसंगाद् असंगतैव सप्तभंगीति। विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुनि अनंतानामपि सप्तभंगीनामेव संभवात् । =प्रश्न‒यदि आप प्रत्येक वस्तु में अनंतधर्म मानते हो, तो अनंत भंगों की कल्पना न करके वस्तु में केवल सात ही भंगों की कल्पना क्यों करते हो ? उत्तर‒प्रत्येक वस्तु में अनंतधर्म होने के कारण वस्तु में अनंत भंग ही होते हैं। परंतु ये अनंत भंग विधि और निषेध की अपेक्षा से सात ही हो सकते हैं।
देखें सप्तभंगी - 5.7 [अस्ति नास्ति की भांति द्रव्य के नित्य-अनित्य, एक-अनेक, वक्तव्य-अवक्तव्य आदि धर्मों में भी सप्त भंगी की योजना कर लेनी चाहिए।]
4. अस्ति नास्ति भंग निर्देश
1. वस्तु की सिद्धि में इन दोनों का प्रधान स्थान
राजवार्तिक/1/6/5/ पृष्ठ संख्या/पंक्ति सं.स्वपरात्मोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम् । यदि स्वस्मिन् पटाद्यात्मव्यावृत्तिविपरिणतिर्न स्यात् सर्वात्मना घट इति व्यपदिश्येत। अथ परात्मना व्यावृत्तावपि स्वात्मोपादानविपरिणतिर्न स्यात् खरविषाणवदवस्त्वेव स्यात् (33/21)। यदीतरात्मनापि घट: स्यात् विवक्षितात्मना वाघट:; नामादिव्यवहारोच्छेद: स्यात् (33/26) यदीतरात्मक: स्यात्; एकघटमात्रप्रसंग (33/30) यदि हि कुशूलांतकपालाद्यात्मनि घट: स्यात्; घटावस्थायामपि तदुपलब्धिर्भवेत् (34/1)। यदि हि पृथुबुध्नाद्यात्मनामपि घटो न स्यात् स एव न स्यात् (34/11)। यदि वा रसादिवद्रूपमपि घट इति न गृह्येत; चक्षुर्विषयतास्य न स्यात् (34/16)। यदि वा इतरव्यपेक्षयापि घट: स्यात्, पटादिष्वपि तत्क्रियाविरहितेषु तच्छब्दवृत्ति: स्यात् (34/21)। इतरोऽसंनिहितोऽपि यदि घट: स्यात्; पटादीनामपि स्याद् घटत्वप्रसंग: (34/27)। यदि ज्ञेयाकारेणाप्यघट: स्यात्; तदाश्रयेतिकर्तव्यतानिरास: स्यात् । अथ हि ज्ञानाकारेणापि घट: स्यात्; (34/34)। उक्तै: प्रकरैरर्पितं घटत्वमघटत्वं च परस्परतो न भिन्नम् । यदि भिद्येत्; सामानाधिकरण्येन तद्बुद्धयभिधानवृत्तिर्न स्यात् घटपटवत् (35/1)।=1. स्वरूप ग्रहण और पररूप त्याग के द्वारा ही वस्तु की वस्तुता स्थिर की जाती है। यदि पररूप की व्यावृत्ति न हो तो सभी रूपों से घट व्यवहार होना चाहिए। और यदि स्वरूप ग्रहण न हो तो नि:स्वरूपत्व का प्रसंग होने से यह खरविषाण की तरह असत् हो जायेगा। 2. यदि अन्य रूप से नष्ट हो जाये तो प्रतिनियत नामादि व्यवहार का उच्छेद हो जायेगा (33/26) 3. यदि इतर घट के आकार से भी वह घट 'घट' रूप हो जाये तो सभी घड़े एक रूप हो जायेंगे (33/30) 4. यदि स्थास, कोस, कुशूल और कपाल आदि अवस्थाओं में घट है तो घट अवस्था में भी उनकी उपलब्धि होवे।(34/1)। 5. यदि पृथुबुध्नोदर आकार से भी घड़ा न हो तो घट का अभाव हो जायेगा (34/11)। 6. यदि रसादि की तरह रूप भी स्वात्मा न हो तो वह चक्षु के द्वारा दिखाई ही न देगा (34/13)। 7. यदि इतर रूप से भी घट कहा जाये तो घटन क्रिया रहित पट आदि में घट शब्द का व्यवहार होगा (34/21)। यदि इतर के न होने पर भी घट कहा जाये तो पटादि में भी घट व्यवहार का प्रसंग प्राप्त होगा (34/27)। 8. यदि ज्ञेयाकार से घट न माना जाये तो घट व्यवहार निराधार हो जायेगा (34/34)। इस प्रकार उक्त रीति से सूचित घटत्व और अघटत्व दोनों धर्मों का आधार घड़ा ही होता है। यदि दोनों में भेद माना जाये तो घट में ही दोनों धर्मों के निमित्त से होने वाली बुद्धि और वचन प्रयोग नहीं हो सकेंगे। (स्याद्वादमंजरी/14/176/6;177/17 )।
श्लोकवार्तिक/2/1/6/22 पृष्ठ सं./पंक्ति सं. सर्वं वस्तु स्वद्रव्येऽस्ति न परद्रव्यं तस्य स्वपरद्रव्यस्वीकारतिरस्कारव्यवस्थितसाध्यत्वात् । स्वद्रव्यवत् परद्रव्यस्य स्वीकारे द्रव्याद्वैतप्रसक्ते: स्वपरद्रव्यविभागाभावात् । तच्च विरुद्धम् । जीवपुद्गलादिद्रव्याणां भिन्नलक्षणानां प्रसिद्धे: (420/17)। तथा स्वक्षेत्रेऽस्ति परक्षेत्रे नास्तीत्यपि न विरुध्यते स्वपरक्षेत्रप्राप्तिपरिहाराभ्यां वस्तुनो वस्तुत्वसिद्धेरन्यथा क्षेत्रसंकरप्रसंगात् । सर्वस्याक्षेत्रत्वापत्तेश्च। न चैतत्साधीय: प्रतीतिविरोधात् (422/14)। तथा स्वकालेऽस्ति परकाले नास्तीत्यपि न विरुद्धं, स्वपरकालग्रहणपरित्यागाभ्यां वस्तुनस्तत्त्वं प्रसिद्धेरन्यथाकालसांकर्यप्रसंगात् । सर्वदा सर्वस्याभावप्रसंगाच्च (423/23)। =संपूर्ण वस्तु अपने द्रव्य में है पर द्रव्य में नहीं है क्योंकि वस्तु की व्यवस्था स्वकीय द्रव्य के स्वीकार करने से और परकीय द्रव्य के तिरस्कार करने से साधी जाती है। यदि वस्तु स्व द्रव्य के समान परद्रव्य को भी स्वीकार करे तो संसार में एक ही द्रव्य होने का प्रसंग हो जायेगा। स्वद्रव्य व परद्रव्य का विभाग न हो सकेगा। किंतु बद्ध मुक्त आदि का विभाग न होना प्रतीतियों से विरुद्ध है क्योंकि जीव, पुद्गल भिन्न लक्षण वाले अनेक द्रव्य प्रसिद्ध हैं।420/17। वस्तु स्वक्षेत्र में है परक्षेत्र में नहीं है, यह कहना भी विरुद्ध नहीं है। क्योंकि स्वकीय क्षेत्र की प्राप्ति से परकीय क्षेत्र के परित्याग से वस्तु का वस्तुपना सिद्ध हो रहा है। अन्यथा क्षेत्रों के संकर होने का प्रसंग होगा। तथा संपूर्ण पदार्थों को क्षेत्ररहितपने की आपत्ति हो जायेगी। किंतु यह क्षेत्ररहितपना प्रशस्त नहीं है क्योंकि प्रतीतियों से विरोध आ रहा है। (422/14)। स्वकीय काल में वस्तु है परकीयकाल में नहीं। यह कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि अपने काल का ग्रहण करने से और दूसरे काल की हानि करने से वस्तु का वस्तुपना सिद्ध हो रहा है। अन्यथा काल के संकर हो जाने का प्रसंग आता है। सभी कालों में संपूर्ण वस्तुओं के अभाव का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा।
देखें सप्तभंगी - 1 [ये दोनों भंगमूल हैं।]
स्याद्वादमंजरी/13/155/28
अंयरूपनिषेधमंतरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्यसंपत्ते:।
स्याद्वादमंजरी/14/176/14
सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च। अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसंभव:।
स्याद्वादमंजरी/23/280/10 स्यात्कथंचिद् नास्त्येव कुंभादि: स्वद्रव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ हि प्रतिनियतस्वरूपाभावाद् वस्तुप्रतिनियतिर्न स्यात् । न चास्तित्वैकांतवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्धमिति वक्तव्यम् । कथंचित् तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्धत्वात् साधनवत् । =1. बिना किसी वस्तु का निषेध किये हुए विधिरूप ज्ञान नहीं हो सकता है। 2. प्रत्येक वस्तु स्वरूप से विद्यमान है, पर रूप से विद्यमान नहीं है। यदि वस्तु को सर्वथा भावरूप स्वीकार किया जाये, तो एक वस्तु के सद्भाव में संपूर्ण वस्तुओं का सद्भाव मानना चाहिए, और यदि सर्वथा अभावरूप माना जाये तो वस्तु को सर्वथा स्वभाव रहित मानना चाहिए। 3. घट आदि प्रत्येक वस्तु कथंचित् नास्ति रूप ही है। यदि पदार्थ को स्व चतुष्टय की तरह पर चतुष्टय से भी अस्तिरूप माना जाये, तो पदार्थ का कोई भी निश्चित स्वरूप सिद्ध नहीं हो सकता। सर्वथा अस्तित्ववादी भी वस्तु में नास्तित्व धर्म का प्रतिषेध नहीं करते, क्योंकि जिस प्रकार एक ही साधन में किसी अपेक्षा से अस्तित्व और किसी अपेक्षा से नास्तित्व सिद्ध होता है, उसी प्रकार अस्तिरूप वस्तु में कथंचित् नास्ति रूप भी युक्ति से सिद्ध होता है।
2. दोनों में अविनाभावी सापेक्षता
नयचक्र बृहद्/304 अत्थित्तं णो मण्णदि णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं। णत्थीविय तहदव्वे मूढो मूढो दु सव्वत्थ। =जो अस्तित्व को नास्तित्व के सापेक्ष तथा नास्तित्व को अस्तित्व के सापेक्ष नहीं मानता है, तथा द्रव्य में जो मूढ है वह सर्वत्र मूढ है।304।
भावपाहुड़ टीका/57/204/10 एकस्य निषेधोऽपरस्य विधि:। =एक का निषेध ही दूसरे की विधि है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/655 न कश्चिन्नयो हि निरपेक्ष: सति च विधौ प्रतिषेध: प्रतिषेधे सति विधे: प्रसिद्धत्वात् ।655। =कोई भी नय निरपेक्ष नहीं है किंतु विधि के होने पर प्रतिषेध और प्रतिषेध के होने पर विधि की प्रसिद्धि है।655।
सप्तभंगीतरंगिणी/53/6 अस्तित्व‒स्वभावं नास्तित्वेनाविनाभूतम् । विशेषणत्वात् वैधर्म्यवत् । =अस्तित्व स्वभाव नास्तित्व से व्याप्त है क्योंकि वह विशेषण है जैसे वैधर्म्य।
3. दोनों की सापेक्षता में हेतु
राजवार्तिक/4/42/15/254/14 स्यादेतत्‒यदस्ति तत् स्वायत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण भवति नेतरेण तस्याप्रस्तुतत्वात् । यथा घटो द्रव्यत: पार्थिवत्वेन, क्षेत्रत इहत्यतया कालतो वर्तमानकालसंबंधितया, भावतो रक्तत्वादिना, न परायत्तैर्द्रव्यादिभिस्तेषामप्रसक्तत्वात् इति। ...यदि हि असौ द्रव्यत: पार्थिवत्वेन तथोदकादित्वेनापि भवेत्, ततोऽसौ घट एव न स्यात् पृथिव्युदकदहनपवनादिषु वृत्तत्वात् द्रव्यत्ववत् । तथा, यथा इहत्यतया अस्ति तथाविरोधिदिगंतानियतदेशस्थतयापि यदि स्यात्तथा चासौ घट एव न स्यात् विरोधिदिगंतानियतसर्वदेशस्थत्वात् आकाशवत् । तथा, यथा वर्तमानघटकालतया अस्ति तथातीतशिवकाद्यनागतकपालादिकालतयापि स्यात् तथा चासौ घट एव न स्यात् सर्वकालसंबंधित्वात् मृद्द्रव्यवत् । ...तथा, यथा नवत्वेन तथा पुराणत्वेन, सर्वरूपरसगंधस्पर्शसंख्यासंस्थानादित्वेन वा स्यात्; तथा चासौ घट एव न स्यात् सर्वथा भावित्वात् भवनवत् । =जो अस्ति है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से ही है, इतर द्रव्यादि से नहीं, क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं। जैसे घड़ा पार्थिव रूप से, इस क्षेत्र से, इस काल की दृष्टि से तथा अपनी वर्तमान पर्यायों से अस्ति है अन्य से नहीं, क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं। ...यदि घड़ा पार्थिवत्व की तरह जलादि रूप से भी अस्ति हो जाये तो जलादि रूप भी होने से वह एक सामान्य द्रव्य बन जायेगा न कि घड़ा। यदि इस क्षेत्र की तरह अन्य समस्त क्षेत्रों में भी घड़ा 'अस्ति' हो जाये तो वह घड़ा नहीं रह पायेगा किंतु आकाश बन जायेगा। यदि इस काल की तरह अतीत अनागत काल से भी वह 'अस्ति' हो तो भी घड़ा नहीं रह सकता किंतु त्रिकालानुयायी होने से मृद् द्रव्य बन जायेगा।...इसी तरह जैसे वह नया है उसी तरह पुराने या सभी रूप, रस, गंध, स्पर्श, संस्थान आदि की दृष्टि से भी 'अस्ति' हो तो वह घड़ा नहीं रह जायेगा किंतु सर्वव्यापी होने से महासत्ता बन जायेगा।
4. नास्तित्व भंग की सिद्धि में हेतु
श्लोकवार्तिक/2/1/6/52/417/17 क्कचिदस्तित्वसिद्धिसामर्थ्यात्तस्यान्यत्र नास्तित्वस्य सिद्धेर्न रूपांतरत्वमिति चेत् व्याहतमेतत् । सिद्धौ सामर्थ्यसिद्धं च न रूपांतरं चेति कथमवधेयं कस्यचित् क्कचिन्नास्तित्वसामर्थ्याच्चास्तित्वस्य सिद्धेस्ततो रूपांतरत्वाभावप्रसंगात् । =प्रश्न‒अस्तित्व के सामर्थ्य से उसका दूसरे स्थलों पर नास्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है, अत: अस्तित्व और नास्तित्व ये दो भिन्न स्वरूप नहीं हैं। =उत्तर‒यह व्याघात दोष है कि एक की सिद्धि पर अन्यतर को सामर्थ्य से सिद्धि कहना और फिर उनको भिन्न स्वरूप न मानना। ( स्याद्वादमंजरी/16/200/12 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/ श्लोक सं.अस्तीति च वक्तव्यं यदि वा नास्तीति तत्त्वसंसिद्धयै। नोपादानं पृथगिह युक्तं तदनर्थकादिति चेत् ।290। तन्न यत: सर्वस्वं तदुभयभावाध्यवसितमेवेति। अन्यतरस्य विलोपे तदितरभावस्य निह्नवापत्ते:।291। न पटाभावो हि घटो न पटाभावे घटस्य निष्पत्ति:। न घटाभावो हि पट: पटसर्गो वा घटव्ययादिति च।297। तत्किं व्यतिरेकस्य भावेन विनान्वयोऽपि नास्तीति।298। तन्न यत: सदिति स्यादद्वैतं द्वैतभावभागपि च। तत्र विधौ विधिमात्रं तदिह निषेधे निषेधमात्रं स्यात् ।299। =प्रश्न‒तत्त्व सिद्धि के अर्थ केवल अस्ति अथवा केवल नास्ति ही कहना चाहिए, क्योंकि दोनों का मानना अनर्थक है अत: दोनों का ग्रहण करना युक्त नहीं है।290। उत्तर‒यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य का स्वरूप अस्ति नास्तिरूप भाव से युक्त है, इसलिए एक को मानने पर उससे भिन्न के लोप का प्रसंग प्राप्त होता है।291। प्रश्न‒निश्चय से न पट का अभाव घट है और न पट के अभाव में घट की उत्पत्ति होती है। तथा न घट का अभाव पट है और न घट के नाश से पट की उत्पत्ति होती है।297। तो फिर व्यतिरेक के सद्भाव बिना अन्वय की सिद्धि नहीं होती, यह कैसे।298। उत्तर‒यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ पर सत् द्वैत भाव का धारण करने वाला है तो भी अद्वैत ही है क्योंकि उस सत् में विधि विवक्षित होने पर वह सत् केवल विधिरूप और निषेध में केवल निषेध रूप प्रतीत होता है।299।
5. नास्तित्व वस्तु का धर्म है तथा तद्गत शंका
राजवार्तिक/1/4/15/26/15 कथमभावो निरूपाख्यो वस्तुनो लक्षणं भवति। अभावोऽपि वस्तुधर्मो हेत्वंगत्वादे: भाववत् । अतोऽसौ लक्षणं युज्यते। स हि वस्तुनो लक्षणं न स्यात् सर्वसंकर: स्यात् । =प्रश्न‒अभाव भी वस्तु का लक्षण कैसे होता है? उत्तर‒अभाव भी वस्तु का धर्म होता है जैसे कि विपक्षाभाव हेतु का स्वरूप है। यदि अभाव को वस्तु का स्वरूप न माना जाये तो सर्व सांकर्य हो जायेगा क्योंकि प्रत्येक वस्तु में स्वभिन्न पदार्थों का अभाव होता ही है। ( राजवार्तिक/4/42/15/256/4 )।
सप्तभंगीतरंगिणी/ पृष्ठ /पंक्ति संख्या ननु पररूपेणासत्त्वं नाम पररूपासत्त्वमेव। न हि घटे पटस्वरूपाभावघटे नास्तीति वक्तुं शक्यम् । भूतले घटाभावे भूतले घटो नास्तीति वाक्यप्रवृत्तिवत् घटे पटस्वरूपाभावे पटो नास्तीत्येव वक्तुमुचितत्वात् । इति चेन्न‒विचारासहत्वात् । घटादिषु पररूपासत्त्वं पटादिधर्मो घटधर्मो वा। नाद्य:, व्याघातात् । न हि पटरूपासत्त्वं पटेऽस्ति। पटस्य शून्यत्वापत्ते:। न च स्वधर्म: स्वस्मिन्नास्तीति वाच्यम् । तस्य स्वधर्मत्वविरोधात् । पटधर्मस्य घटाद्याधारकत्वायोगाच्च। अन्यथा वितानविवितानाकारस्यापि तदाधारकत्वप्रसंगात् । अंत्यपक्षस्वीकारे तु विवादो विश्रांत:। (83/7) घटे पटरूपासत्त्वं नाम घटनिष्ठाभावप्रतियोगित्वम् । तच्च घटधर्म:। यथा भूतले घटो नास्तीत्यत्र भूतलनिष्ठाभावप्रतियोगित्वमेव भूतले नास्तित्वम् तच्च घटधर्म:। इति चेन्न; तथापि पटरूपाभावस्य घटधर्मत्वाविरोधात्, घटाभावस्य भूतलधर्मत्ववत् । तथा च घटस्य भावाभावात्मकत्वं सिद्धम् । कथंचित्तादात्म्यलक्षणसंबंधेन संबंधिन एव स्वधर्मत्वात् (84/3); नन्वेवं रीत्या घटस्य भावाभावात्मकत्वे सिद्धेऽपि घटोऽस्ति पटो नास्तीत्येव वक्तव्यम् (85/1); घटस्य भावाभावात्मकत्वे सिद्धेऽस्माकं विवादो विश्रांत: समीहितसिद्धे:। शब्दप्रयोगस्तु पूर्वपूर्वप्रयोगानुसारेण भविष्यति। न हि पदार्थ सत्ताधीनश्शब्दप्रयोग: (85/7); घटादौ वर्तमान: पटरूपाभावो घटाद्भिन्नोऽभिन्नो वा। यदि भिन्नस्तस्यापि परत्वात्तदभावस्तन्न कल्पनीय: (86/1) यद्यभिन्नस्तर्हि सिद्धं स्वस्मादभिन्नेन भावधर्मेण घटादौ सत्त्ववदभावधर्मेण तादृशेनासत्त्वमपि स्वीकरणीयमिति (86/4); =प्रश्न‒पररूप से असत्त्व नाम परकीय रूप का असत्त्व अर्थात् दूसरे पट आदि का रूप घट में नहीं है। क्योंकि घट में पट स्वरूप का अभाव होने से घट नहीं है ऐसा नहीं कह सकते किंतु भूतल में घट का अभाव होने पर भूतल में घट नहीं है, इस वाक्य की प्रवृत्ति के समान घट में पट के स्वरूप का अभाव होने से घट में पट नहीं है यह कथन उचित है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि घट आदि पदार्थों में जो पट आदि रूप का असत्त्व है वह पट आदि का धर्म है अथवा घट का है, प्रथम पक्ष मानने पर पट रूप का ही व्याघात होगा, क्योंकि पटरूप का असत्त्व पट नहीं है। और स्वकीय धर्म अपने में ही नहीं है ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा मानने से घट भी ताना-बाना का आधार हो जायेगा। पटरूप का असत्त्व भी घट का धर्म है ऐसा मानने पर तो विवाद का ही विश्राम हो जायेगा (83/7)। प्रश्न‒घट में पटरूप के असत्त्व का अर्थ यह है कि घट में रहने वाला जो अन्य पदार्थों का अभाव, उस अभाव का प्रतियोगी रूप और यह घटधर्म रूप होगा। जैसे भूतल में घट नहीं है यहाँ पर भूतल में रहने वाला जो अभाव उस अभाव की प्रतियोगिता ही भूतल में नास्तिता रूप पड़ती है और प्रतियोगिता वा नास्तिता घट का धर्म है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, पटरूप का जो अभाव उसके घट धर्म होने से कोई भी विरोध नहीं है। जैसे कि भूतल में घटाभाव भूतल का धर्म है। इस रीति से घट के भाव-अभाव उभयरूप सिद्ध हो गये। क्योंकि किसी अपेक्षा से तादात्म्य अर्थात्‒अभेद संबंध से संबंधी ही को स्वधर्मरूपता हो जाती है (84/3); प्रश्न‒पूर्वोक्त रीतिसे घट की भाव-अभाव उभयरूपता सिद्ध होने पर भी घट है पट नहीं है ऐसा ही प्रयोग करना चाहिए, न कि घट नहीं है ऐसा प्रयोग (85/1)? उत्तर‒घट के भाव-अभाव उभय स्वरूप सिद्ध होने से हमारे विवाद की समाप्ति है, क्योंकि उभयरूपता मानने से ही हमारे अभीष्ट की सिद्धि है। और शब्द प्रयोग तो पूर्व-पूर्व प्रयोग के अनुसार होगा। क्योंकि शब्द प्रयोग पदार्थ की सत्ता के वशीभूत नहीं है। (85/7) और भी घट आदि में
( राजवार्तिक/4/42/15/256/4 )।
पररूप का जो अभाव है वह घट से भिन्न है अथवा अभिन्न है। यदि घट से भिन्न है तब तो उसके भी पट होने से वहाँ उसके अभाव ही की कल्पना करनी चाहिए (86/1); यदि पटरूपाभाव घट से अभिन्न है तो हमारा अभीष्ट सिद्ध हो गया, क्योंकि अपने से अभिन्न भाव धर्म से घट आदि में जैसे सत्त्वरूपता है ऐसे ही अपने से अभिन्न अभाव धर्म से असत्त्व रूपता भी घट आदि में स्वीकार करनी चाहिए।
6. उभयात्मक तृतीय भंग की सिद्धि में हेतु
राजवार्तिक/4/42/15/255-256/9 इतश्च स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्वपरसत्ता भावाभावोभयाधीनत्वात् जीवस्य। यदि परसत्तया अभावं स जीवं स्वात्मनि नापेक्षते, अत: स जीव एव न स्यात् सन्मात्रं स्यात् नासौ जीव: सत्त्वे सति विशेषरूपेण अनवस्थितत्वात् सामान्यवत् । तथा परसत्ताभावापेक्षायामपि जीवत्वे यदि स्वसत्तापरिणतिं नापेक्षते तथापि तस्य वस्तुत्वमेव न स्यात् जीवत्वं वा, सद्भावापरिणत्वे परभावमात्रत्वात् खपुष्पवत् । अत: पराभावोऽपि स्वसत्तापरिणत्यपेक्ष एव अस्तित्वस्वात्मवत् ।...किं हि वस्तुसर्वात्मकं सर्वाभावरूपं वा दृष्टमिति। ...अभाव: स्वसद्भावं भावाभावं च अपेक्षमाण: सिध्यति। भावोऽपि स्वसद्भावं अभावाभावं चापेक्ष्य सिद्धिमुपयाति। यदि तु अभाव एकांतेनास्ति इत्यभ्युपगम्येत तत: सर्वात्मनास्तित्वात् स्वरूपवद्भावात्मनापि स्यात्, तथा च भावाभावरूपसंकरादस्थितरूपत्वादुभयोरप्यभाव:। अथ एकांतेन नास्ति इत्यभ्युपगम्येत ततो यथा भावात्मना नास्ति तथा भावात्मनापि न स्यात्, ततश्च अभावस्याभावात् भावस्याप्रतिपक्षत्वात् भावमात्रमेव स्यात् । तथा खपुष्पादयोऽपि भावा एव अभावभावरूपत्वात् घटवत् इति सर्वभावप्रसंग:। ...एवं स्वात्मनि घटादिवस्तुसिद्धौ च भावाभावयो: परस्परापेक्षत्वात् यदुच्यते अर्थात् प्रकरणाद्वा घटे अप्रसक्ताया: पटादिसत्ताया: किमिति निषेध: क्रियते। इति; तदयुक्तम् । किंच घटे अर्थत्वात् अर्थसामान्यात् पटादिसर्वार्थप्रसंग: संभवत्येव। तत्र विशिष्टं घटार्थत्वम् अभ्युपगम्यमानं पटादिसत्तारूपस्थार्थसामर्थ्यप्रापितस्य अर्थतत्त्वस्य निरसेनैव आत्मानं शक्नोति लब्धुम्, इतरथा हि असौ घटार्थ एव न स्यात् पटाद्यर्थरूपेणानिवृत्तत्वात् पटाद्यर्थस्वरूपवत्, विपरीतो वा। =1. स्वसद्भाव और परअभाव के आधीन जीव का स्वरूप होने से वह उभयात्मक है। यदि जीव परसत्ता के अभाव की अपेक्षा न करे तो वह जीव न होकर सन्मात्र हो जायेगा। इसी तरह परसत्ता के अभाव की अपेक्षा होने पर भी स्वसत्ता का सद्भाव न हो तो वह वस्तु ही नहीं हो सकेगा, जीव होने की बात तो दूर ही रही। अत: पर का अभाव भी स्वसत्ता सद्भाव से ही वस्तु का स्वरूप बन सकता है। ...क्या कभी वस्तु सर्वाभावात्मक या सर्व-सत्तात्मक देखी गयी है? ...इस तरह भावरूपता और अभावरूपता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं अभाव अपने सद्भाव तथा भाव के अभाव की अपेक्षा सिद्ध होता है तथा भाव स्वसद्भाव और अभाव के अभाव की अपेक्षा से सिद्ध होता है। 2. यदि अभाव को एकांत से अस्ति स्वीकार किया जाये तो जैसे वह अभावरूप से अस्ति है उसी तरह भावरूप से भी 'अस्ति' हो जाने के कारण भाव और अभाव में स्वरूप सांकर्य हो जायेगा। यदि अभाव को सर्वथा 'नास्ति' माना जाये तो जैसे वह भावरूप से नास्ति है उसी तरह अभावरूप से भी नास्ति होने से अभाव का सर्वथा लोप हो जाने के कारण भावमात्र ही जगत् रह जायेगा। और इस तरह खपुष्प आदि भी भावात्मक हो जायेंगे। अत: घटादिक भाव स्यादस्ति और स्याद्नास्ति हैं। इस तरह घटादि वस्तुओं में भाव और अभाव को परस्पर सापेक्ष होने से प्रतिवादी का कथन यह है कि अर्थ या प्रकरण से जब घट में पटादि की सत्ता का प्रसंग ही नहीं है, तब उसका निषेध क्यों करते हो ? अयुक्त हो जाता है। किंच, अर्थ होने के कारण सामान्य रूप से घट पटादि अर्थों की सत्ता का प्रसंग प्राप्त है ही, यदि उसमें हम विशिष्ट घटरूपता स्वीकार करना चाहते हैं तो वह पटादि की सत्ता का निषेध करके ही आ सकती है। अन्यथा वह घट नहीं कहा जा सकता क्योंकि पटादि रूपों की व्यावृत्ति न होने से उसमें पटादिरूपता भी उसी तरह मौजूद है। ( स्याद्वादमंजरी/23/280/10 ); ( सप्तभंगीतरंगिणी/83/5 )।
5. अनेक प्रकार से अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग
1. स्वपर द्रव्य गुण पर्याय की अपेक्षा
राजवार्तिक/1/6/5/ पृष्ठ /पंक्ति संख्यातत्र स्वात्मना स्याद्घट:, परात्मना स्यादघट:। को वा घटस्य स्वात्मा को वा परात्मा। घटबुद्धयभिधानप्रवृत्तिलिंग: स्वात्मा, यत्र तयोरप्रवृत्ति: स परात्मा पटादि:। ... नामस्थापनाद्रव्यभावेषु यो विवक्षित: स स्वात्मा, इतर: परात्मा। तत्र विवक्षितात्मना घट:, नेतरात्मना।33/20। घटशब्दप्रयोगानंतरमुत्पद्यमान उपयोगाकार: स्वात्मा...बाह्यो घटाकार: परात्मा... स घट उपयोगाकारेणास्ति नान्येन।...तत्र ज्ञेयाकार: स्वात्मा...ज्ञानाकार: परात्मा।34/24। =स्वात्मा से कथंचित् घड़ा है, और परात्मा से कथंचित् अघट है। प्रश्न‒घड़े के स्वात्मा और परात्मा क्या हैं? उत्तर‒जिसमें घट बुद्धि और घट शब्द का व्यवहार है वह स्वात्मा तथा उससे भिन्न पटादि परात्मा हैं। ...नाम, स्थापना, द्रव्य और भावनिक्षेपों का जो आधार होता है वह स्वात्मा तथा अन्य परात्मा है।33/20। घट शब्द का प्रयोग के बाद उत्पन्न घट ज्ञानाकार स्वात्मा है...बाह्य घटाकार परात्मा है। अत: घड़ा उपयोगाकार है अन्य से नहीं है।...ज्ञेयाकार स्वात्मा है...और ज्ञानाकार परात्मा है।
धवला 9/4,1,45/ पृष्ठ सं./पंक्ति संख्यास्वरूपादिचतुष्टयेन अस्ति घट:, ...पररूपादिचतुष्टयेन नास्ति घट:, ....मृद्घटो मृद्घटरूपे अस्ति, न कल्याणादि घटरूपेण। (213/4) तत्परिणतरूपेणास्ति घट:, न नामादिघटरूपेण (214/9) अथवोपयोगरूपेणास्ति घट:, नार्थाभिधानाभ्याम् । ...अथवोपयोगघटोऽपि वर्त्तमानरूपतयास्ति, नातीतानागतोपयोगघटै:। अथवा घटोपयोगघट: स्वरूपेणास्ति, न पटोपयोगादिरूपेण। ...इत्यादिप्रकारेण सकलार्थानामस्तित्व-नास्तित्वावक्तव्यभंगा योज्या:।(215/9) =स्वरूपादि चतुष्टय के द्वारा घट है...पररूपादि चतुष्टय से 'घट नहीं है' ...मिट्टी का घट मिट्टी के घट रूप से है, स्वर्ण के घटरूप से नहीं है। (213/4) अथवा घटरूप पर्याय से परिणत स्वरूप से घट है, नामादि रूप से वह घट नहीं है (214/9) उपयोग रूप से घट है और अर्थव अभिधान की अपेक्षा वह नहीं है...अथवा उपयोग घट भी वर्तमान रूप से है, अतीत व अनागत उपयोग घटों की अपेक्षा वह नहीं है...अथवा घटोपयोग स्वरूप से घट है, पटोपयोगादि स्वरूप से नहीं है। ...इत्यादि प्रकार से सब पदार्थों के अस्तित्व, नास्तित्व व अवक्तव्य भंगों को कहना चाहिए।
समयसार / आत्मख्याति/ परिशिष्ठ/कलश 252-253 स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्य: समुन्मज्जता, स्याद्वादी...।252। स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तिताम् ।253। =स्याद्वादी तो, आत्मा को स्वद्रव्यरूप से अस्तिपने से निपुणतया देखता है।252। और स्याद्वादी तो, समस्त वस्तुओं में परद्रव्य स्वरूप से नास्तित्व को जानता है।253।
स्याद्वादमंजरी/23/278/30
कुंभो द्रव्यत: पार्थिवत्वेनास्ति। नाप्वादिरूपत्वेन।
=घड़ा द्रव्य की अपेक्षा पार्थिव रूप से विद्यमान है जलरूप से नहीं।
2. स्व - पर क्षेत्र की अपेक्षा
राजवार्तिक/1/6/5/ पृष्ठ/पंक्ति अथवा, तत्र विवक्षितघटशब्दवाच्यसादृश्यसामांयसंबंधिषु कस्मिश्चिद् घटविशेषे परिगृहीते प्रतिनियतो य: संस्थानादि: स स्वात्मा, इतर: परात्मा। तत्र प्रतिनियतेन रूपेण घट: नेतरेण (33/28)। परस्परोपकारवर्तिनि पृथुबुध्नाद्याकार: स्वात्मा, इतर: परात्मा। तेन पृथुबुध्नाद्याकरेण स घटोऽस्ति नेतरेण। (34/9)। =घट शब्द के वाच्य अनेक घड़ों में से विवक्षित अमुक घट का जो आकार आदि है वह स्वात्मा, अन्य परात्मा है। सो प्रतिनियत रूप से घट है, अन्य रूप से नहीं। (33/28)। (प्रत्युत्पन्न घट क्षण में रूप, रस, गंध) पृथुबुध्नोदराकार आदि अनेक गुण और पर्यायें हैं। अत: घड़ा पृथुबुध्नोदराकार से 'है' क्योंकि घट व्यवहार इसी आकार से होता है अन्य से नहीं।
धवला 9/4,1,45/214/5 अर्पितसंस्थानघट: अस्तिस्वरूपेण, नार्पितसंस्थानघटरूपेण। अथवार्पितक्षेत्रवृत्तिर्धटोऽस्ति स्वरूपेण नानर्पितक्षेत्रवृत्तैर्घटै:। =विवक्षित आकारयुक्त घट स्वरूप से है, अविवक्षित आकाररूप घट स्वरूप से नहीं है। ...अथवा विवक्षित क्षेत्र में रहने वाला घट अपने स्वरूप से है, अविवक्षित क्षेत्र में रहने वाले घटों की अपेक्षा वह नहीं है।
समयसार / आत्मख्याति/254-255 स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभस: स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन् ।254। स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां...।255। =स्याद्वादी तो स्वक्षेत्र से अस्तित्व के कारण जिसका वेग रुका हुआ है, ऐसा होता हुआ, आत्मा में ही ज्ञेयों में निश्चित व्यापार की शक्तिवाला होकर, टिकता है।254। स्याद्वादी तो स्वक्षेत्र में रहता हुआ, परक्षेत्र में अपना नास्तित्व जानता (है)।255।
स्याद्वादमंजरी/23/279/1 क्षेत्रत: पाटलिपुत्रकत्वेन। न कान्यकुब्जादित्वेन। =(घट) क्षेत्र की अपेक्षा पटना नगर की अपेक्षा मौजूद है, कन्नौज की अपेक्षा नहीं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/148 अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेक:। =जो एक देश जितने क्षेत्र को रोककर रहता है वह उस देश (द्रव्य) का स्वक्षेत्र है। अन्य उसका नहीं है, किंतु दूसरा दूसरा ही है, पहला पहला ही है।
3. स्व-पर काल की अपेक्षा
राजवार्तिक/1/6/5/33/32 तस्मिन्नेव घटविशेषे कालांतरावस्थायिनि पूर्वोत्तरकुशूलांतकपालाद्यवस्थाकलाप: परात्मा, तदंतरालवर्ती स्वात्मा। स तेनैव घट: तत्कर्मगुणव्यपदेशदर्शनात् नेतरात्मना। ...अथवा ऋजुसूत्रनयापेक्षया प्रत्युत्पन्नघटस्वभाव: स्वात्मा, घटपर्याय एवातीतोऽनागतश्च परात्मा। तेन प्रत्युत्पन्नस्वभावेन सता स घट: नेतरेणासता। =अमुक घट भी द्रव्यदृष्टि से अनेक क्षणस्थायी होता है। अत: अन्वयी मृद्द्रव्य की अपेक्षा स्थास कोश कुशूल घट कपाल आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओं में भी घट व्यवहार हो सकता है। इनमें स्थास, कोश, कुशूल और कपाल आदि पूर्व और उत्तर अवस्थाएँ परात्मा हैं तथा मध्य क्षणवर्ती घट अवस्था स्वात्मा है। ...अथवा ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से एक क्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है, और अतीत अनागतकालीन उस घट की पर्यायें परात्मा हैं। क्योंकि प्रत्युत्पन्न स्वभाव से घट है, अन्य से नहीं।
धवला 9/4,1,45/214/9 तत्परिणतरूपेणास्ति घट:, न पिंड-कपालादिप्राक् प्रध्वंसभावै: विरोधात् । ...वर्तमानो घटो वर्तमानघटरूपेणास्ति, नातीतानागतघटै:। =घट पर्याय से घट है, प्राग्भावरूप पिंड और प्रध्वंसाभावरूप कपाल पर्याय से वह नहीं है, क्योंकि वैसा मानने में विरोध है। ...वर्तमान घट वर्तमानरूप से है, अतीत व अनागत घटों की अपेक्षा वह नहीं है।
समयसार / आत्मख्याति/ परिशिष्ठ/कलश 256-257 अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुन:।256। नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवदी पुन:...।257। =स्याद्वाद का ज्ञाता तो आत्मा का निज काल से अस्तित्व जानता हुआ...।256। स्याद्वाद का ज्ञाता तो परकाल से आत्मा का नास्तित्व जानता (है)।257।
स्याद्वादमंजरी/23/279/1 (घट:) कालत: शैशिरत्वेन। न वासंतिकादित्वेन। =(घट:) काल की अपेक्षा शीत ऋतु की दृष्टि से है, वसंत ऋतु की दृष्टि से नहीं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/149 अपि चैकस्मिन् समये यकाप्यवस्था भवेन्न साप्यन्या। भवति च सापि तदन्या द्वितीयसमयोऽपि कालव्यतिरेक:।149। =एक समय में जो अवस्था होती है वह वह ही है अन्य नहीं। और दूसरे समय में भी जो अवस्था होती है वह भी उससे अन्य ही होती है पहली नहीं।149। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/173/497 )।
4. स्व-पर भाव की अपेक्षा
राजवार्तिक/1/6/5/34/14 रूपमुखेन घटो गृह्यत इति रूपं स्वात्मा, रसादि: परात्मा। स घटो रूपेणास्ति नेतरेण रसादिना।...तत्र घटनक्रिया विषयकर्तृभाव: स्वात्मा, इतर: परात्मा। तत्राद्येन घट: नेतरेण। =घड़े के रूप को आँख से देखकर ही घट के अस्तित्व का व्यवहार होता है अत: रूप स्वात्मा है तथा रसादि परात्मा। क्योंकि घड़ा रूप से है अन्य रसादि रूप से नहीं।...घट का घटनक्रिया में कर्ता रूप से उपयुक्त होने वाला स्वरूप स्वात्मा है और अन्य परात्मा।
धवला 9/4,1,45/214/1 रूपघटो रूपघटरूपेणास्ति, न रसादिघटरूपेण। ...रक्तघटो रक्तघटरूपेणास्ति, न कृष्णादिघटरूपेण। अथवा नवघटो नवघटरूपेणास्ति, न पुराणादिघटरूपेण। =रूपघट रूपघट रूप से है, रसादि घट रूप से नहीं, ...रक्तघट रक्तघट रूप से है कृष्णादि घट रूप से नहीं है। ...अथवा नवीन घट नवीन घट स्वरूप से है, पुराने आदि घट स्वरूप से नहीं।
समयसार / आत्मख्याति/ परिशिष्ठ/कलश 258-259 सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन् स्याद्वादी...।258। स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरादारूढ: परभावभावविरहव्यालोकनिष्कंपित:।259। =स्याद्वादी तो अपने नियत स्वभाव के भवन स्वरूप ज्ञान के कारण सब (परभावों) से भिन्न वर्तता हुआ...।258। स्याद्वादी तो अपने स्वभाव में अत्यंत आरूढ होता हुआ, परभाव रूप भवन के अभाव की दृष्टि के कारण निष्कंप वर्तता हुआ।259।
स्याद्वादमंजरी/23/279/2 (घट:) भावत: श्यामत्वेन। न रक्तादित्वेन। =घट भाव की अपेक्षा काले रूप से मौजूद है, लाल रूप से नहीं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/150 भवति गुणांश: कश्चित् स भवति नान्यो भवति न चाप्यन्य:। सोऽपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेक:।150। =जो कोई एक गुण का अविभागी प्रतिच्छेद है वह वह ही होता है, अन्य नहीं हो सकता। और दूसरा भी पहला नहीं हो सकता है। किंतु उससे भिन्न है वह उससे भिन्न ही रहता है।150।
5. वस्तु के सामान्य विशेष धर्मों की अपेक्षा
न्यायविनिश्चय/ मूल/3/66/350 द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषप्रविभागत:। स्याद्विधिप्रतिषेधाम्यां सप्तभंगी प्रवर्तते। =द्रव्य अर्थात् सामान्य और पर्याय अर्थात् विशेष; द्रव्य सामान्य व द्रव्य विशेष में तथा पर्याय सामान्य व पर्याय विशेष में कथंचित् विधि प्रतिषेध के द्वारा तीन सप्तभंगी प्रवर्तती है।
धवला 9/4,1,45/ पृष्ठ/पंक्ति पर्यायघट: पर्यायघटरूपेणास्ति, न द्रव्यघटरूपेण (214/7) अथवा व्यंजनपर्यायेणास्ति घट: नार्थपर्यायेण (215/3)। =पर्यायघट पर्यायघट रूप से है, द्रव्य घट रूप से नहीं (214/7) अथवा व्यंजन पर्याय से घट है, अर्थ पर्याय से नहीं हैं (215/3)।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/8/22/6 महासत्तावांतरसत्तारूपेणासत्तावांतरसत्ता च महासत्तारूपेणासत्तेत्यसत्ता सत्ताया:। =महासत्ता अवांतरसत्ता रूप से असत्ता है और अवांतर सत्ता महासत्ता रूप से असत्ता है इसलिए सत्ता असत्ता है। (जो सामान्य विशेषात्मक सत्ता महासत्ता होने से 'सत्ता' है वही अवांतर सत्ता रूप होने से असत्ता भी है)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/ श्लोक संख्याअयमर्थो वस्तु यदा सदिति महासत्तयावधार्येत। स्यात्तदवांतरसत्तारूपेणाभाव एव न तु मूलात् (267) अपि चावांतरसत्तारूपेण यदावधार्यते वस्तु। अपरेण महासत्तारूपेणाभाव एव भवति तदा (268) अथ केवलं प्रदेशात् प्रदेशमात्रं यदेष्यते वस्तु। अस्ति स्वक्षेत्रतया तदंशमात्राविवक्षितत्वान्न।271। अथ केवलं तदंशात्तावन्मात्राद्यदेप्यते वस्तु। अस्त्यंशविवक्षितया नास्ति च देशाविवक्षितत्वाच्च।272। सामान्यं विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च। उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति (275) सामान्यं विधिरेव हि शुद्ध: प्रतिषेधकश्च निरपेक्ष:। प्रतिषेधो हि विशेष: प्रतिषेध्य: सांशकश्च सापेक्ष:।281। तस्मादिदमनवद्यं सर्वं सामान्यतो यदाप्यस्ति। शेषविशेषविवक्षाभावादिह तदैव तन्नास्ति।283। यदि वा सर्वमिदं यद्विवक्षितत्वाविशेषतोऽस्ति यदा। अविवक्षितसामान्यात्तदैव तन्नास्ति नययोगात् (284) अपि चैवं प्रक्रियया नेतव्या: पंचशेषभंगाश्च। वर्णवदुक्तद्वयमिहापटवच्छेषास्तु तद्योगात् (287) नास्ति च तदिह विशेषै: सामान्यस्य विवक्षितायां वा। सामान्यैरितरस्य च गौणत्वे सति भवति नास्ति नय:।757।=1. (द्रव्य) जिस समय वस्तु सत् इत्याकारक महासत्ता के द्वारा अवधारित की जाती है उस समय उस उसकी अवांतर सत्तारूप से उसका अभाव ही है किंतु मूल से नहीं है।267। जिस समय वस्तु अवांतर सत्तारूप से अवधारित की जाती है, उस समय दूसरी महासत्ता रूप से उस वस्तु का अभाव ही विवक्षित होता।268। 2. (क्षेत्र) जिस समय वस्तु केवल प्रदेश से प्रदेशमात्र मानी जाती है, उस समय अपने क्षेत्र से अस्ति रूप है, और उन-उन वस्तुओं के उन-उन अंशों की अविवक्षा होने से नास्तिरूप है।271। और जिस समय वस्तु केवल अमुक द्रव्य के इतने प्रदेश है इत्यादि विशेष क्षेत्र की विवक्षा से मानी जाती है उस समय विशेष अंशों की अपेक्षा से अस्ति रूप है, सामान्य प्रदेश की विवक्षा न होने से नास्ति रूप भी है।272। 3. (काल) विधिरूप वर्तन सामान्य काल है और निषेध स्वरूप विशेष काल है। इन दोनों में से एक की मुख्यता होने से अस्ति-नास्ति रूप विकल्प होते हैं।275। 4. (भाव) सामान्य भाव विधि रूप शुद्ध विकल्पमात्र का प्रतिषेधक है तथा निरपेक्ष ही होता है तथा निश्चय से विशेष रूप भाव निषेध रूप निषेध करने योग्य अंशकल्पना सहित और सापेक्ष होता है।281। 5. (सारांश) इसलिए सब कथन निर्दोष है कि जिस समय भी सामान्य रूप से अस्तिरूप होता है उसी समय यहाँ पर विशेषों की विवक्षा के अभाव से वह सत् नास्तिरूप भी रहता है।283। अथवा जिस समय जो यह सब विशेषरूप से विवक्षित होने अस्ति रूप होता है, उसी समय नय योग से सामान्य अविवक्षित होने से वह नास्तिरूप भी होता है।284। विशेष यह है कि यहाँ पर इसी शैली से पटकी तरह अनुलोम क्रम से तथा पटगत वर्णादि की तरह प्रतिलोम क्रम से दो भंग कहे हैं और शेष पाँच भंग तो इनके मिलाने से लगा लेने चाहिए। (287)
वस्तु सामान्य की विवक्षा में विशेष धर्म की गौणता होने पर विशेष धर्मों के द्वारा नास्तिरूप है अथवा विशेष की विवक्षा में सामान्य धर्मों के द्वारा नहीं है। जो यह कथन है वह नास्तिनय है।757।
6. नयों की अपेक्षा
धवला 9/4,1,45/215/4 ऋजुसूत्रनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घट:, न शब्दादिनयविषयीकृतपर्यायै:। ...अथवा शब्दनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घट:, न शेषनयविषयीकृतपर्यायै:। ...अथवा समभिरूढनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घट:, न शेषनयविषयै:। =ऋजुसूत्र नय से विषय की गयी पर्यायों से घट है, शब्दाभिनयों से विषय की गयी पर्यायों से वह नहीं है। ...अथवा शब्द नय से विषय की गयी पर्यायों से घट है शेष नयों से विषय की गयी पर्यायों से वह नहीं है।...समभिरूढनय से विषय की गयी पर्यायों से घट है शेष नयों से विषय की गयी पर्यायों से वह नहीं है।...अथवा एवंभूत नय से विषय की गयी पर्यायों से घट है, शेष नयों से विषय की गयी पर्यायों से वह नहीं है।
7. विरोधी धर्मों में
नयचक्र /श्रुतभवन/65-67 द्रव्यरूपेण नित्य...स्यादस्ति अनित्य इति पर्यायरूपेणैव...सामान्यरूपेणैकत्वम् ...स्यादनेक इति विशेषरूपेणैव...सद्भूतव्यवहारेण भेद...स्यादभेद इति द्रव्यार्थिकेनैव ...स्याद्भव्य: ...स्वकीयस्वरूपेण भवनादिति‒स्यादभव्य इति पररूपेणैव...स्यात्चेतन:...चेतनस्वभावप्रधानत्वेनेति... स्यादचेतन इति व्यवहारेणैव...स्यान्मूर्त: असद्भूतव्यवहारेण...स्यादमूर्त इति परमभावेनैव... स्यादेकप्रदेश: भेदकल्पनानिरपेक्षेणेति ...स्यादनेकप्रदेश इति व्यवहारेणैव...स्याच्छुद... केवलस्वभावप्रधानत्वेनेति...स्यादशुद्ध इति मिश्रभावे...स्यादुपचरित:....स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादिति... स्यादनुपचरित इति निश्चयादेव...। =द्रव्यरूप अभिप्राय से नित्य है ...कथंचिद् अनित्य है, यह पर्याय रूप से ही समझना चाहिए।...सामान्यरूप अभिप्राय से एकत्वपना है...कथंचित् अनेकरूप है, यह विशेष रूप से ही जानना चाहिए...सद्भूत व्यवहार से भेद है...द्रव्यार्थिक नय से अभेद है...कथंचित् स्वकीय स्वरूप से हो सकने से भव्य स्वरूप है...पररूप से नहीं होने से अभव्य है...चेतन स्वभाव की प्रधानता से कथंचित् चेतन है...व्यवहारनय से अचेतन है...असद्भूत व्यवहार नय से मूर्त है ...परमभाव अमूर्त है...भेदकल्पनानिरपेक्ष नय से एक प्रदेशी है...व्यवहार नय से अनेक प्रदेशी है...केवल स्वभाव की प्रधानता से कथंचित् शुद्ध है...मिश्रभाव से कथंचित् अशुद्ध है...स्वभाव के भी अन्यत्र उपचार से कथंचित् उपचरित है...निश्चय से अनुपचरित है। ( सप्तभंगीतरंगिणी/75/8;76/10;79/3 )
समयसार / आत्मख्याति/कलश 248-249 बाह्यर्थै: परिपीतमुज्झितनिज-प्रव्यक्तिरिक्तीभवद्-विश्रांतं पररूप एव परितो ज्ञानं पशो: सीदति। यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुन-र्दूरोनमग्नघनस्वभावभरत: पूर्णं समुन्मज्जति।248। विश्वं ज्ञानमिति प्रतर्क्य सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया-भूत्वा विश्वमय: पशु: पशुरिव स्वच्छंदमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन-र्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ।249। =बाह्य पदार्थों के द्वारा संपूर्णतया पिया गया, अपनी भक्ति छोड़ देने से रिक्त हुआ, संपूर्णतया पररूप में ही विश्रांत, ऐसे पशु का ज्ञान नाश को प्राप्त होता है, और स्याद्वादी का ज्ञान तो, जो सत् है वह स्वरूप से तत् है, ऐसी मान्यता के कारण, अत्यंत प्रकट हुए ज्ञानघन रूप स्वभाव के भार से संपूर्ण उदित होता है।249। पशु (सर्वथा एकांतवादी) अज्ञानी 'विश्व ज्ञान है' ऐसा विचार कर सबको निजतत्त्व की आशा से देखकर विश्वमय होकर, पशु की भांति स्वच्छंदतया चेष्टा करता है। और स्याद्वादी तो, यह मानता है कि 'जो तत् है वह पररूप से तत् नहीं है, इसलिए विश्व से भिन्न ऐसे तथा विश्व से रचित होने पर भी विश्व रूप न होने वाले ऐसे अपने तत्त्व का अनुभव करता है।249। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/332 )
न्यायदीपिका/3/82/126/9 द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णं स्यादेकमेव, पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव...। =द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से सोना कथंचित् एकरूप ही है, पर्यायार्थिक नय के अभिप्राय से कथंचित् अनेक स्वरूप ही है। ( न्यायदीपिका/3/85/128/11 )
8. कालादि की अपेक्षा वस्तु में भेदाभेद
श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/452/14
के पुन: कालादय:। काल: आत्मरूपं, अर्थ:, संबंध:, उपकारो, गुणिदेश:, संसर्ग: शब्द इति। तत्र स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव इत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्काला: शेषानंतधर्मा वस्तुन्येकत्रेति, तेषां कालेनाभेदवृत्ति:। यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवांयानंतगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्ति:। य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाभेदवृत्ति:। य एवाविष्वग्भाव: कथंचित्तादात्म्यलक्षण: संबंधोऽस्तित्वस्य स एवाशेषविशेषाणामिति संबंधेनाभेदवृत्ति:। य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तकरणं स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारेणाभेदवृत्ति:। य एव च गुणिदेशोऽस्तित्वस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्ति:। य एव चैकवस्त्वात्मनास्तित्वस्य संसर्ग: स एव शेषधर्माणामिति संसर्गेणाभेदवृत्ति:। य एवास्तीतिशब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचक: स एव शेषानंतधर्मात्मकस्यापीति शब्देनाभेदवृत्ति:। पर्यायार्थे गुणभावे द्रव्यार्थिकत्वप्राधान्यादुपपद्यते।
श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/453/27 द्रव्यार्थिकगुणभावेन पर्यायार्थिकप्राधान्येन तु न गुणानां कालादिभिरभेदवृत्ति:अष्टधा संभवति। प्रतिक्षणमन्यतोपपत्तेर्भिन्नकालत्वात् । सकृदेकत्र नानागुणानामसंभवात् संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसंगात् तेषामात्मरूपस्य च भिन्नत्वात् तदभेदे तद्भेदविरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । संबंधस्य च संबंधिभेदेन भेददर्शनात् नानासंबंधिभिरेकत्रैकसंबंधाघटनात् । तै क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसंगात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गभेदात् । तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् । शब्दस्य च प्रतिविषयं-नानात्वात् गुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्ते: शब्दांतरवैफल्यात् । =वे कालादिक‒काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इस प्रकार आठ हैं। 1. तहाँ जीवादिक वस्तु कथंचित् हैं ही। इस प्रकार इस पहले भंग में ही जो अस्तित्व का काल है, वस्तु में शेष बचे हुए अनंत धर्मों का भी वहीं काल है। इस प्रकार उन अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों की काल की अपेक्षा से अभेद वृत्ति हो रही है। 2. जो ही उस वस्तु के गुण हो जाना अस्तित्व का अपना स्वरूप है, वहीं उस वस्तु के गुण हो जानापना अन्य अनंतगुणों का भी आत्मीय रूप है। इस प्रकार आत्मीय स्वरूप करके अनंतधर्मों की परस्पर में अभेद वृत्ति है। 3. तथा जो ही आधार द्रव्य नामक अर्थ 'अस्तित्व' का है वहीं द्रव्य अन्य पर्यायों का भी आश्रय है, इस प्रकार एक आधाररूप अर्थपने से संपूर्ण धर्मों के आधेयपने की वृत्ति हो रही है। 4. एवं जो ही पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकना रूप कथंचित् तादात्म्य स्वरूप संबंध अस्तित्व का है वही अन्य धर्मों का भी है। इस प्रकार धर्मों का वस्तु के साथ अभेद वर्त्त रहा है।
5. और जो ही अपने अस्तित्व से वस्तु को अपने अनुरूप रंग युक्त कर देना रूप उपकार अस्तित्व धर्म करके होता है, वे ही उपकार बचे हुए अन्य गुणों करके भी किया जाता है। इस प्रकार उपकार करके संपूर्ण धर्मों का परस्पर में अभेद वर्त्त रहा है। 6. तथा जो ही गुणी द्रव्य का देश अस्तित्व गुण ने घेर लिया है, वही गुणी का देश अन्य गुणों का भी निवास स्थान है। इस प्रकार गुणिदेश करके एक वस्तु के अनेक धर्मों की अभेदवृत्ति है। 7. जो ही एक वस्तु स्वरूप करके अस्तित्व धर्म का संसर्ग है, वही शेष धर्मों का भी संसर्ग है। इस रीति से संसर्ग करके अभेद वृत्ति हो रही है। 8. तथा जो ही अस्ति यह शब्द अस्तित्व धर्म स्वरूप वस्तु का वाचक है वही शब्द बचे हुए अनंत अनंत धर्मों के साथ तादात्म्य रखने वाली वस्तु का भी वाचक है। इस प्रकार शब्द के द्वारा संपूर्ण धर्मों की एक वस्तु में अभेद प्रवृत्ति हो रही है।
यह अभेद व्यवस्था पर्यायस्वरूप अर्थ को गौण करने पर और गुणों के पिंडरूप द्रव्य पदार्थ को प्रधान करने पर प्रमाण द्वारा बन जाती है। 1. किंतु द्रव्यार्थिक के गौण करने पर और पर्यायार्थिक की प्रधानता हो जाने पर तो गुणों की काल आदि करके आठ प्रकार की अभेदवृत्ति नहीं संभवती है क्योंकि प्रत्येक क्षण में गुण भिन्न-भिन्न है। अथवा एक समय एक वस्तु में अनेक गुण नहीं पाये जा सकते हैं। यदि बलात्कार से अनेक गुणों का संभव मानोगे तो उन गुणों के आश्रय वस्तु का उतने प्रकार से भेद हो जाने का प्रसंग होगा। अत: काल की अपेक्षा अभेद वृत्ति न हुई। 2. पर्यायदृष्टि से उन गुणों का आत्मरूप भी भिन्न है अन्यथा उन गुणों के भेद होने का विरोध है। 3. नाना धर्मों का अपना-अपना आश्रय अर्थ भी नाना है अन्यथा एक को नाना गुणों के आश्रयपन का विरोध हो जाता है। 4. एवं संबंधियों के भेद से संबंध का भी भेद देखा जाता है। अनेक संबंधियों करके एक वस्तु में एक संबंध होना नहीं घटता है। 5. उन धर्मों करके किया गया उपकार भी वस्तु में न्यारा-न्यारा नियत होकर अनेक स्वरूप है। 6. प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी भिन्न-भिन्न है। यदि गुण के भेद से गुणवाले देश का भेद न माना जायेगा तो सर्वथा भिन्न दूसरे अर्थ के गुणों का भी गुणी देश अभिन्न हो जायेगा। 7. संसर्ग तो प्रत्येक संसर्गवाले के भेद से भिन्न ही माना जाता है। यदि अभेद माना जायेगा तो संसर्गियों के भेद होने का विरोध है। 8. प्रत्येक विषय की अपेक्षा से वाचक शब्द नाना होते हैं, यदि संपूर्ण गुणों का एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायेगा, तब तो संपूर्ण अर्थों को भी एक शब्द द्वारा निरूपण किया जाने का प्रसंग होगा। ऐसी दशा में भिन्न-भिन्न पदार्थों के लिए न्यारे-न्यारे शब्दों का बोलना व्यर्थ पड़ेगा। ( स्याद्वादमंजरी/23/284/18 ); ( सप्तभंगीतरंगिणी/33/6 )
9. मोक्षमार्ग की अपेक्षा
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/106 मोक्षमार्ग:...सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव नासम्यक्त्वज्ञानयुक्तं चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव न रागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो बंधस्य, मार्ग एव नामार्ग:, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां, क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वे भवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्य:। =मोक्षमार्ग सम्यक्त्व और ज्ञान से ही युक्त है न कि असम्यक्त्व और अज्ञान से युक्त, चारित्र ही है न कि अचारित्र, राग-द्वेष रहित हो ऐसा है‒न कि राग-द्वेष सहित हो ऐसा, भावत: मोक्ष का ही न कि बंध का, मार्ग ही‒न कि अमार्ग, भव्यों को ही‒न कि अभव्यों को, लब्धबुद्धियों को ही न कि अलब्ध बुद्धियों को, क्षीणकषायने में ही होता है‒न कि कषाय सहितपने में होता है इस प्रकार आठ प्रकार से नियम यहाँ देखना।
6. अवक्तव्य भंग निर्देश
1. युगपत् अनेक अर्थ कहने की असमर्थता
राजवार्तिक/4/42/15/258/13 अथवा वस्तुनि मुख्यप्रवृत्त्या तुल्यबलयो: परस्पराभिधानप्रतिबंधे सति इष्टविपरीतनिर्गुणत्वापत्ते: विवक्षितोभयगुणत्वेनाऽनभिधानात् अवक्तव्य:। =शब्द में वस्तु के तुल्य बल वाले दो धर्मों का मुख्य रूप से युगपत् कथन करने की शक्यता न होने से या परस्पर शब्द प्रतिबंध होने से निर्गुणत्व का प्रसंग होने से तथा विवक्षित उभय धर्मों का प्रतिपादन न होने से वस्तु अवक्तव्य है। ( श्लोकवार्तिक 2/1/6/56/482/13 )
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/396 ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुन:। तदुल्लेखं समालेख्यज्ञानद्वारा निरूप्यते।396। =निर्विकल्प वस्तु के कथन को अनिर्वचनीय होने के कारण ज्ञान के द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उल्लेख करके उनका निरूपण किया जाता है।
2. वह सर्वथा अवक्तव्य नहीं
आप्तमीमांसा/46-50 अवक्तव्यचतुष्कोटिर्विकल्पोऽपि न कथ्यताम् । असर्वांतमवस्तु स्यादविशेष्यविशेषणम् ।46। अवस्त्वनभिलाप्यं स्यात् सर्वांतै: परिवर्जितम् । वस्त्वेवावस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ।48। सर्वांताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुन:। संवृतिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।49 अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोथत:। आद्यंतोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतांरफुटम् ।50। ='चार प्रकार का विकल्प अवक्तव्य है' ऐसा कहना युक्त नहीं, क्योंकि सर्वथा अवक्तव्य होने से विशेषण-विशेष्य भाव का अभाव होगा। इस प्रकार सर्व वस्तुओं को अवस्तुपने का प्रसंग आवेगा।46। प्रश्न‒यदि सर्व धर्मों से रहित वह अवस्तु अवक्तव्य है तो उसको आप अवस्तु भी कैसे कह सकते हैं ? उत्तर‒हमारे यहाँ अवस्तु सर्वथा धर्मों से रहित नहीं है, बल्कि वस्तु के धर्मों से विपरीत धर्मों का कथन करने पर अवस्तु स्वीकार की जाती है।48। जिनके मत में सर्व धर्म सर्वथा अवक्तव्य हैं उनके यहाँ तो स्वपक्ष साधन और पर पक्ष दूषण का वचन भी नहीं बनता है, तब उन्हें तो मौन ही रहना चाहिए। 'वचन तो व्यवहार प्रवृत्ति मात्र के लिए होता है,' ऐसा कहना भी युक्त नहीं है क्योंकि परमार्थ से विपरीत तथा उपचार मात्र कथन विपरीत होता है।49। हम तुमसे पूछते हैं कि वस्तु इसलिए अवक्तव्य है कि तुममें उसके कहने की सामर्थ्य नहीं है या इसलिए अवक्तव्य है कि उसका अभाव है, या इसलिए अवक्तव्य है कि तुम उसे जानते नहीं। तहाँ आदि और अंत वाले दो पक्ष तो आप बौद्धों के यहाँ संभव नहीं है क्योंकि आप बुद्ध को सर्वज्ञ मानते हैं। मध्य का पक्ष अर्थात् वस्तु का अभाव मानते हो तो छलपूर्वक घुमा-फिराकर क्यों कहते हो स्पष्ट कहिए।
राजवार्तिक/4/42/15/258/17 स च अवक्तव्यशब्देन अन्यैश्च षड्भिर्वचनै: पर्यायांतरविवक्षया च वक्तव्यत्वात् स्यादवक्तव्य:। यदि सर्वथा अवक्तव्य: स्यात् अवक्तव्य इत्यपि चावक्तव्य: स्यात् कुतो बंधमोक्षादिप्रक्रियाप्ररूपणविधि:। =यह (वस्तु) अवक्तव्य शब्द के द्वारा अन्य छह भंगों के द्वारा वक्तव्य होने से 'स्यात्' अवक्तव्य है सर्वथा नहीं। यदि सर्वथा अवक्तव्य हो जाये तो 'अवक्तव्य शब्द के द्वारा भी उसका कथन नहीं हो सकता। ऐसी दशा में बंध मोक्षादि की प्रक्रिया का निरूपण निरर्थक हो जायेगा। ( राजवार्तिक/1/9/10/45/29 )
श्लोकवार्तिक 2/1/6/56 पृष्ठ/पंक्तिसकलवाचकरहितत्वादवक्तव्यं वस्तु युगपत्सदसत्त्वाभ्यां प्रधानभावार्पिताभ्यामाक्रांतं व्यवतिष्ठते, तच्च न सर्वथैवावक्तव्यमेवावक्तव्यशब्देनास्य वक्तव्यत्वादित्येके (480/21) कथमिदानीं अवाच्यैकांतेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते इत्युक्तं घटते। सकृद्धर्मद्वयाक्रांतत्वेनेव सत्त्वाद्येकैकधर्मसमाक्रांतत्वेनाप्यवाच्यत्वे वस्तुनो वाच्यत्वाभावधर्मेणाक्रांतस्यावाच्यपदेनाभिधानं न युज्यते इति व्याख्यानात् (481/26)। =एक ही समय में प्रधानपन से विवक्षित किये गये सत्त्व और असत्त्व धर्मों करके चारों ओर से घिरी हुई वस्तु व्यवस्थित हो रही है। वह संपूर्ण वाचक शब्दों से रहित है। अत: अवक्तव्य है और वह सभी प्रकारों से अवक्तव्य ही हो यह नहीं समझना, क्योंकि अवक्तव्य शब्द करके ही इसका वाचन हो रहा है। श्री समंतभद्र स्वामी का कहना कैसे घटित होगा कि अवाच्यता ही यदि एकांत माना जायेगा तो अवाच्य इस प्रकार का कथन भी युक्त नहीं होता है (आ.मी./55) एक समय में हो रहे धर्मों से आक्रांतपने करके जैसे वस्तु अवाच्य है, उसी प्रकार सत्त्व, असत्त्व आदि में से एक-एक धर्म से आरूढपने करके भी वस्तु को यदि अवाच्य माना जायेगा तो वाच्यत्वाभाव नाम के एक धर्म करके घिरी हुई वस्तु का अवाच्य पद करके कथन करना नहीं युक्त हो सकता है। ( स्याद्वादमंजरी/23/281/3 ); (सप्तभंगीतरंगिणी/69/10)
सप्तभंगीतरंगिणी/73/3 एवमवक्तव्यमेव वस्तुतत्त्वमित्यवक्तव्यत्वैकांतोऽपि स्ववचनपराहत:, सदामौनव्रतिकोऽहमितिवत् । =जो यह कहते हैं कि सर्वथा अवक्तव्य रूप ही वस्तु स्वरूप है, उनका कथन स्ववचन विरोध है जैसे‒मैं सदा मौनव्रत धारण करता हूँ।
3. कालादि की अपेक्षा वस्तु धर्म अवक्तव्य है
राजवार्तिक/4/42/15/257/11 द्वाभ्यां प्रतियोगिभ्यां गुणाभ्यामवधारणाक्ताभ्यां युगपदेकस्मिन् काले ऐकेन शब्देन एकस्यार्थस्य कृत्स्नस्यैवाभेदरूपेणाभिधित्सा तदा अवाच्य: तद्विधार्थस्य वृत्ति: न च तैरभेदोऽत्र संभवति। के पुनस्ते कालादय:। काल आत्मरूपमर्थ: संबंध: उपकारो गुणिदेश: संसर्ग: शब्द इति। तत्र येन कारणेन विरुद्धा भवंति गुणास्तेषामेकस्मिन् काले क्वचिदेकवस्तुनि वृत्तिर्न दृष्टा अतस्तयोर्नास्ति वाचकशब्द: तथावृत्त्यभावात् । अत एकस्मिन्नात्मनि तदसत्त्वे प्रविभक्ते असंसर्गात्मारूपे अनेकांतरूपे न स्त:। एककाले येनात्मा तथोच्येत ताभ्यां विविक्तं च परस्परत आत्मरूपं गुणानां नान्योन्यात्मनि वर्तते, यत उभाभ्यां युगपदभेदेनोच्येत। न च विरुद्धत्वात् सदसत्त्वादीनाम् एकांतपक्षे गुणानामेकद्रव्याधारा वृत्तिरस्ति यत: अभिन्नाधारत्वेनाभेदो युगपद्भाव: स्यात्, येन केनचित् शब्देन वा सदसत्त्व उच्येयाताम् । न च संबंधतोऽभिंनता गुणानां संभवति भिन्नत्वात् संबंधस्य। यथा छत्रदेवदत्तसंबंधोऽंय: दंडदेवदत्तसंबंधात् । ...न च गुणा उपकारेणाभिन्ना:, यतो द्रव्यस्य गुणाधीन उपकारो नीलरक्ताद्युपरंजनम्, ते च स्वरूपतो भिन्ना:। ...न चैकांतपक्षे गुणानां संसृष्टमनेकात्मकं रूपमस्ति अवधृतैकांतरूपत्वात् सत्त्वासत्त्वादेर्गुणस्य। यदा शक्लरूपव्यतिरिक्तौ...शुक्लकृष्णौ गुणौ असंसृष्टौ नैकस्मिन्नर्थे सह वर्तितुं समर्थौ अवधृतरूपत्वात्, अत: ताभ्यां संसर्गाभावात् एकांतपक्षे न युगपदभिधानमस्ति अर्थस्य तथा वर्त्तितुं शक्त्यभावात् ...न चैक: शब्दो द्वयोर्गुणयो: सहवाचकोऽस्ति। यदि स्यात् सच्छब्द: स्वार्थवदसदपि सत्कुर्यात् असच्छब्दोऽपि स्वार्थवत् सदपि असत्कुर्यात्, न च तथा लोके संप्रत्ययोऽस्ति तयोर्विशेषशब्दत्वात् । एवमुक्तात् कालादियुगपद्भावासंभवात् । शब्दस्य च एकस्य उभयार्थवाचिनोऽनुपलब्धे: अवक्तव्य आत्मा। =जब दो प्रतियोगी गुणों के द्वारा अवधारण रूप से युगपत् एक काल में एक शब्द से समस्त वस्तु के कहने की इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है क्योंकि वैसा शब्द और अर्थ नहीं है। गुणों के युगपद्भाव का अर्थ है कालादि की दृष्टि से अभेद वृत्ति। वे कालादि आठ हैं‒काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द। जिस कारण गुण परस्पर विरुद्ध हैं अत: उनकी एक काल में किसी एक वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती अत: सत्त्व और असत्त्व का वाचक एक शब्द नहीं है एक वस्तु में सत्त्व और असत्त्व परस्पर भिन्न (आत्म) रूप में हैं उनका एक स्वरूप नहीं है जिससे वे एक शब्द के द्वारा युगपत् कहे जा सकें। परस्पर विरोधी सत्त्व और असत्त्व की एक अर्थ में वृत्ति भी नहीं हो सकती जिससे अभिन्न आधार मानकर अभेद और युगपद्भाव कहा जाये तथा किसी एक शब्द से उनका प्रतिपादन हो सके। संबंध से भी गुणों में अभिन्नता की संभावना नहीं है, क्योंकि संबंध भिन्न होता है। देवदत्त और दंड का संबंध यज्ञदत्त और छत्र के संबंध से जुदा है ही। ...उपकार दृष्टि से भी गुण अभिन्न नहीं हैं, क्योंकि द्रव्य में अपना प्रत्यय या विशिष्ट व्यवहार कराना रूप उपकार प्रत्येक गुण का जुदा-जुदा है। जब शुक्ल और कृष्ण वर्ग परस्पर भिन्न हैं तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो सकता जिससे एक शब्द से कथन हो सके। कोई एक शब्द या पद दो गुणों को युगपद् नहीं हो सकता। यदि कहे तो 'सत्' शब्द सत्त्व की तरह असत्त्व का भी कथन करेगा। तथा 'असत्' शब्द सत् का। पर ऐसी लोक प्रतीति नहीं है, क्योंकि प्रत्येक के वाचक शब्द जुदा-जुदा है। इस तरह कालादि दृष्टि से युगपत् भाव की संभावना नहीं है तथा उभयवाची कोई एक शब्द है नहीं अत: वस्तु अवक्तव्य है। ( श्लोकवार्तिक 2/1/6/56/477/6 )
सप्तभंगीतरंगिणी/ पृष्ठ/पंक्तिननु कथमवक्तव्यो घट:, इति ब्रूम:। सर्वोऽपि शब्द: प्रधानतया न सत्त्वासत्त्वे युगपत्प्रतिपादयति तथा प्रतिपादने शब्दस्य शक्त्यभावात्, सर्वस्य पदस्यैकपदार्थविषत्वसिद्धे: (60/6) सर्वेषां पदानामेकार्थत्वनियमे नानार्थकपदोच्छेदापत्ति: इति चेन्न...सादृश्योपचारादेव तस्यैकत्वेन व्यवहरणात् ...समभिरूढनयापेक्षया शब्दभेदाद्ध्रुवोऽर्थभेद:। ...अन्यथा वाच्यवाचकनियमव्यवहारविलोपात् (61/1) सेनावनयुद्धपंक्तिमालापालकग्रामनगरादिशब्दानामनेकार्थप्रतिपादकत्वं दृष्टमिति चेन्न। करितुरगरथपदातिसमूहस्यैवैकस्य सेनाशब्देनाभिधानात् (64/1) वृक्षावितिपदं वृक्षद्वयबोधकं वृक्षा इति च बहुवृक्षबोधकम् ...लुप्तावशिष्टशब्दयो: साम्याद् वृक्षरूपार्थस्य समानत्वाच्चैकत्वोपचारात्तंत्रैकशब्दप्रयोगोपपत्ति:। (64/5) वृक्षपदेन वृक्षरूपैकधर्मावच्छिन्नस्यैव बोधो नान्यधर्मावच्छिन्नस्य (66/2) द्वंद्वस्यापि क्रमेणैवार्थद्वयप्रत्यायनसमर्थत्वेन गुणप्रधानभावस्य तत्रापि सत्त्वात् (68/3)। =प्रश्न‒घट अवक्तव्य कैसे है ? उत्तर‒सर्व ही शब्द एक काल में ही प्रधानता से सत्त्व और असत्त्व दोनों का युगपत् प्रतिपादन नहीं कर सकते, क्योंकि उस प्रकार से प्रतिपादन करने की शब्द में शक्ति नहीं है क्योंकि सर्व ही शब्दों में एक ही पदार्थ को विषय करना सिद्ध है। प्रश्न‒सर्व ही शब्दों को एकार्थवाची माना जाये तो अनेकार्थवाची शब्दों का अभाव हो जायेगा। उत्तर‒नहीं, क्योंकि ऐसे शब्द वास्तव में अनेक ही होते हैं परंतु केवल सादृश्य के उपचार से ही उनमें एकपने का व्यवहार होता है। समभिरूढ नय की अपेक्षा शब्द भेद होने पर अवश्य ही अर्थ का भेद हो जाता है अन्यथा वाच्य-वाचकपने के नियम का व्यवहार नहीं हो सकता। प्रश्न‒सेना, वन, युद्ध, पंक्ति, माला, तथा पालक इत्यादि शब्दों की अनेकार्थवाचकता इष्ट है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि हस्ति, अश्व, रथ व पयादों के समूह रूप एक ही पदार्थ सेना शब्द से कहा जाता है। प्रश्न‒'वृक्षौ' कहने से दो वृक्षों का तथा वृक्षा: कहने से बहुत से वृक्षों का ज्ञान कैसे हो सकेगा ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि वहां भी अनेक शब्दों के द्वारा ही अनेक वृक्षों का अभिधान होता है। किसी एक शब्द से अनेकार्थ का बोध नहीं होता। व्याकरण के नियमानुसार शेष शब्दों का लोप करके केवल एक ही शब्द शेष रहता है। लुप्त शब्दों की अवशिष्ट शब्द के साथ समानता होने से उनमें एकत्व का उपचार मानकर एक ही शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है। तथा बहुवचनांत वृक्ष पद से भी वृक्षत्व रूप एक धर्म से अवच्छिन्न एक-एक वृक्ष का ही भाव होता है, किसी, अन्य धर्म से अवच्छिन्न पदार्थ का नहीं। प्रश्न‒बहुवचनांत पद बहुत्व और वृक्षत्व ऐसे अनेक धर्मों से अवच्छिन्न वृक्ष का ज्ञान होने के कारण उपरोक्त भंग हो जाता है ? उत्तर‒यद्यपि आपका कहना ठीक है परंतु यहाँ प्रथम वृक्ष शब्द एक वृक्षत्व रूप धर्म से अवच्छिन्न अर्थ का ज्ञान कराता है और तत् पश्चात् लिंग और संख्या का। इस प्रकार शब्द जन्य ज्ञान क्रम से ही होता है। और इसलिए 'वृक्षा:' इत्यादि पद से वृक्षत्व धर्म से अविच्छन्न पदार्थ का बोध तो प्रधानता से होता है, परंतु लिंग तथा बहुत्व संख्या का गौणता से। और इस प्रकार मुख्यता और गौणता द्वंद्व समास में भी विवक्षित है क्योंकि वह भी क्रम से दो या अधिक पदार्थों का बोध कराने में समर्थ है।
4. सर्वथा अवक्तव्य कहना मिथ्या है
स्वयंभू स्तोत्र/100 ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्तुमनीश्वरा:। त्वद्द्विष: स्वहनो बालास्तत्त्वावक्तव्यतां श्रिता:।=वे एकांतवादी जन उस स्वघाती दोष को दूर करने के लिए असमर्थ हैं, आपसे द्वेष रखते हैं, आत्मघाती हैं और उन्होंने तत्त्व की अवक्तव्यता को आश्रित किया है।100।
5. वक्तव्य व अवक्तव्य का समन्वय
सप्तभंगीतरंगिणी/70/7 अयं खलु तदर्थ: सत्त्वाद्येकैकधर्ममुखेन वाच्यमेव वस्तु युगपत्प्रधानभूतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यम् । =सत्त्वादिधर्मो में से किसी एक धर्म के द्वारा पदार्थ वाच्य है, वही सत्त्व, असत्त्व उभय धर्म से अवाच्य है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/693-695 तदभिज्ञानं हि यथा वक्तुमशक्यात् समं नयस्य यत:। अपि तुर्यो नयगभङ्स्तत्त्वावक्तव्यतां श्रितस्तस्मात् ।693। न पुनर्वक्तुमशक्यं युगपद्धर्मद्वयं प्रमाणस्य क्रमवर्ती। केवलमिह नय: प्रमाणं न तद्वदिह यस्मात् ।694। यत्किल पुन: प्रमाणं वक्तुमलं वस्तुजातमिह यावत् । सदसदनेकैकमथो नित्यानित्यादिकं च युगपदिति।695। =जिस कारण से दो धर्मों को नय कहने में असमर्थ है, तिस कारण तत्त्व की अवक्तव्यता को आश्रित करने वाला चौथा भी नय भंग है।693। किंतु प्रमाण को एक साथ दो धर्मों का प्रतिपादन करना अशक्य नहीं है, क्योंकि यहाँ केवल नय क्रमवर्ती है किंतु प्रमाण नहीं। और निश्चय से प्रमाण सत्-असत्, एक-अनेक और नित्य-अनित्य वगैरह संपूर्ण वस्तु के धर्मों को एक साथ कहने के लिए समर्थ है।694-695।
पंचाध्यायी x`/ मूल./396 ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुन:। तदुल्लेखं समालेख्य ज्ञान द्वारा निरूप्यते।396। =इसलिए निर्विकल्पक वस्तु के कथन को अनिर्वचनीय होने के कारण ज्ञान के द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उल्लेख करके उनका निरूपण किया जाता है।
पुराणकोष से
सात भंगों का समूह । वे सात भंग इस प्रकार हैं― स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिअवक्तव्य, स्यान्नास्ति वक्तव्य और स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्य । इन भंगों के द्वारा पदार्थों के अनैकांतिक स्वरूप का समग्रदृष्टि से विवेचन होता है । महापुराण 33.135-136