समय: Difference between revisions
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<p> <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/4/285 </span> <br /> <span class="PrakritText">परमाणुस्स णियट्ठिदगयणपदेसस्स दिक्कमणमेत्तो। जो कालो अविभागी होदि पुढं समयणामा सो।285।</span> =<span class="HindiText">पुद्गल परमाणु का निकट में स्थित आकाश प्रदेश के अतिक्रमण प्रमाण जो अविभागी काल है वही समय नाम से प्रसिद्ध है। ( <span class="GRef">धवला 4/1,5,1/318/2 </span>); ( <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/140</span> ); ( <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल व | <p> <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/4/285 </span> <br /> <span class="PrakritText">परमाणुस्स णियट्ठिदगयणपदेसस्स दिक्कमणमेत्तो। जो कालो अविभागी होदि पुढं समयणामा सो।285।</span> =<span class="HindiText">पुद्गल परमाणु का निकट में स्थित आकाश प्रदेश के अतिक्रमण प्रमाण जो अविभागी काल है वही समय नाम से प्रसिद्ध है। ( <span class="GRef">धवला 4/1,5,1/318/2 </span>); ( <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/140</span> ); ( <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल व जीव तत्व प्रदीपिका 573/1</span>); (<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति /25</span>); ( <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/52/5</span> )</span></p> | ||
<p><span class="GRef">राजवार्तिक/3/38/7/208/34</span><br /> <span class="SanskritText"> सर्वजघन्यपरिणतस्य परमाणो: स्वावगाढावकाशप्रदेशव्यतिक्रमकाल: परमनिषिद्धो निर्विभाग: समय:। | <p><span class="GRef">राजवार्तिक/3/38/7/208/34</span><br /> <span class="SanskritText"> सर्वजघन्यपरिणतस्य परमाणो: स्वावगाढावकाशप्रदेशव्यतिक्रमकाल: परमनिषिद्धो निर्विभाग: समय:। | ||
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<li><span class="HindiText"><strong id="1.2" name="1.2">आत्मा के अर्थ में</strong><br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong id="1.2" name="1.2">आत्मा के अर्थ में</strong><br /></span> | ||
<p><span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/2 </span> <span class="SanskritText">जीवनाम पदार्थ: स समय:, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्ते:। | <p><span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/2 </span> <span class="SanskritText">जीवनाम पदार्थ: स समय:, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्ते:। | ||
</span>=<span class="HindiText">जीव नामक पदार्थ समय है। जो | </span>=<span class="HindiText">जीव नामक पदार्थ समय है। जो एकत्व रूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ वह समय है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/3 </span> <span class="SanskritText"> समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते। समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्ते:।</span> =<span class="HindiText">समय शब्द से सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार 'समयते' अर्थात् एकीभाव से अपने गुणपर्यायों को प्राप्त होकर जो परिणमन करता है सो समय है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/151/214/13 )</span></p> | <p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/3 </span> <span class="SanskritText"> समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते। समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्ते:।</span> =<span class="HindiText">समय शब्द से सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार 'समयते' अर्थात् एकीभाव से अपने गुणपर्यायों को प्राप्त होकर जो परिणमन करता है सो समय है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/151/214/13 )</span></p> | ||
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<p> <span class="GRef"> समयसार/ पं.जयचंद/2 </span> <br /><span class="HindiText"> 'सम' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एक साथ' है और 'अय गतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है, इसलिए एक साथ ही जानना और परिणमन करना, यह दोनों क्रियाएँ जिसमें हों वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एक ही समय में परिणमन भी करता है और जानता भी है इसलिए वह समय है।</p></li> | <p> <span class="GRef"> समयसार/ पं.जयचंद/2 </span> <br /><span class="HindiText"> 'सम' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एक साथ' है और 'अय गतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है, इसलिए एक साथ ही जानना और परिणमन करना, यह दोनों क्रियाएँ जिसमें हों वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एक ही समय में परिणमन भी करता है और जानता भी है इसलिए वह समय है।</p></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong id="1.3" name="1.3"> | <li><span class="HindiText"><strong id="1.3" name="1.3">पदार्थ समूह के अर्थ में</strong><br /></span> | ||
<p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय/3 </span> <span class="PrakritText"> समवाओ पंचण्ह समउ त्ति जिणुत्तमेहि पण्णत्तं।...।</span> | <p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय/3 </span> <span class="PrakritText"> समवाओ पंचण्ह समउ त्ति जिणुत्तमेहि पण्णत्तं।...।</span> | ||
<span class="HindiText">= पाँच अस्तिकाय का समभावपूर्वक निरूपण अथवा उनका समवाय वह समय है।</span></p> | <span class="HindiText">= पाँच अस्तिकाय का समभावपूर्वक निरूपण अथवा उनका समवाय वह समय है।</span></p> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong id="3" name="3">3.स्व व परसमय</strong><br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong id="3" name="3">3.स्व व परसमय</strong><br /></span> | ||
<p><span class="GRef"> रयणसार/ | <p><span class="GRef"> रयणसार/ मूल/147 </span> <span class="PrakritText"> बहिरंतरप्पभेयं परसमयं भण्णए जिणिंदेहिं। परमप्पो सगसमयं तब्भेयं जाण गुणठाणे।147।</span> =<span class="HindiText">जिनेंद्र देव ने बहिरात्मा, अंतरात्मा को परसमय बतलाया है। तथा परमात्मा को स्वसमय बतलाया है। इनके विशेष भेद गुणस्थान की अपेक्षा समझने चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें - [[ मिथ्यादृष्टि#1.1 | मिथ्यादृष्टि परसमय रत है। ]]</p> | <p class="HindiText">देखें - [[ मिथ्यादृष्टि#1.1 | मिथ्यादृष्टि परसमय रत है। ]]</p> | ||
<p><span class="GRef">समयसार/2 </span> <span class="PrakritText"> जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं।2। | <p><span class="GRef">समयसार/2 </span> <span class="PrakritText"> जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं।2। | ||
</span>=<span class="HindiText">हे भव्य, जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है वह निश्चय से स्वसमय जानो और जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जानो।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">हे भव्य, जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है वह निश्चय से स्वसमय जानो और जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जानो।</span></p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">प्रवचनसार 94 </span><span class="PrakritText"> जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिद्दिट्ठा। आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा।</span> =<span class="HindiText">जो जीव पर्यायों में लीन हैं उन्हें परसमय कहा गया है ( प्रवचनसार/93 ) जो आत्मस्वभाव में लीन हैं वे स्वसमय जानने।</span></p> | ||
<p><span class="GRef">पंचास्तिकाय/155 </span> <span class="PrakritText"> जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओघपरसमओ। जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो।</span> =<span class="HindiText">जीव (द्रव्य अपेक्षा से) स्वभाव नियत होने पर भी, यदि अनियत गुणपर्याय वाला हो तो परसमय है। यदि वह (नियत गुणपर्याय से परिणत होकर) स्वसमय को करता है तो कर्मबंध करता है।</span></p> | <p><span class="GRef">पंचास्तिकाय/155 </span> <span class="PrakritText"> जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओघपरसमओ। जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो।</span> =<span class="HindiText">जीव (द्रव्य अपेक्षा से) स्वभाव नियत होने पर भी, यदि अनियत गुणपर्याय वाला हो तो परसमय है। यदि वह (नियत गुणपर्याय से परिणत होकर) स्वसमय को करता है तो कर्मबंध करता है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef">पंचास्तिकाय व | <p><span class="GRef">पंचास्तिकाय व तात्पर्यवृत्ति/165 उत्थानिका </span><span class="SanskritText"> सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत् ।‒अण्णाणदो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो।165। कश्चित्पुरुषो निर्विकारशुद्धात्मभावनालक्षणे परमोपेक्षा संयमे स्थातुमीहते तत्राशक्त: सन् कामक्रोधाद्यशुद्धपरिणामवंचनार्थं संसारस्थितिछेदनार्थं वा यदा पंचपरमेष्ठिषु गुणस्तवनभक्तिं करोति तदा सूक्ष्मपरसमयपरिणत: सन् सरागसम्यग्दृष्टिर्भवतीति, यदि पुन: शुद्धात्मभावनासमर्थोऽपि तां त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकांतेन मन्यते तदा स्थूलपरसमयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्यादृष्टिर्भवति। तत: स्थितं अज्ञानेन जीवो नश्यतीति।</span> =<span class="HindiText">यह सूक्ष्म परसमय के स्वरूप का कथन है। शुद्धसंप्रयोग से दुख मोक्ष होता है ऐसा यदि अज्ञान के कारण ज्ञानी माने तो वह परसमयरत जीव है।165। कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्म भावना है लक्षण जिसका ऐसे परमोपेक्षा संयम में स्थित होने की इच्छा करता है परंतु अशक्त होता हुआ, जब काम-क्रोधादि अशुद्ध परिणामों से बचने के लिए तथा संसार स्थिति के विनाश के लिए पंचपरमेष्ठी के गुणस्तवन आदि रूप भक्ति करता है, तब सूक्ष्म परसमय से परिणत होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है। और यदि शुद्धात्म भावना में समर्थ होने पर भी उसको छोड़कर, शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है ऐसा मानता है, तब वह स्थूल परसमय रूप परिणाम से अज्ञानी व मिथ्यादृष्टि होता है। अत: सिद्ध हुआ कि अज्ञान से जीव का नाश होता है।</span></p> | ||
<p><strong>* परसमय निर्देश</strong></p></li></ol> | <p><strong>* परसमय निर्देश</strong></p></li></ol> | ||
Revision as of 10:26, 17 March 2023
सिद्धांतकोष से
- काल के अर्थ में
तिलोयपण्णत्ति/4/285
परमाणुस्स णियट्ठिदगयणपदेसस्स दिक्कमणमेत्तो। जो कालो अविभागी होदि पुढं समयणामा सो।285। =पुद्गल परमाणु का निकट में स्थित आकाश प्रदेश के अतिक्रमण प्रमाण जो अविभागी काल है वही समय नाम से प्रसिद्ध है। ( धवला 4/1,5,1/318/2 ); ( नयचक्र बृहद्/140 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल व जीव तत्व प्रदीपिका 573/1); (पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति /25); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/52/5 )राजवार्तिक/3/38/7/208/34
सर्वजघन्यपरिणतस्य परमाणो: स्वावगाढावकाशप्रदेशव्यतिक्रमकाल: परमनिषिद्धो निर्विभाग: समय:। =जघन्यगति से एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने काल में जाता है उसे समय कहते हैं।देखें काल समय और अद्धा ये एकार्थवाची हैं।
धवला 13/5,5,59/298/11
दोण्णं परमाणूणं तप्पाओग्गवेगेण उड्ढमधो च गच्छंताणं सरीरेहि अण्णोण्णफोसणकालो समओ णाम। =तत्प्रायोग वेग से एक के ऊपर की ओर और दूसरे के नीचे की ओर जाने वाले दो परमाणुओं का उनके शरीर द्वारा स्पर्शन होने में लगने वाला काल समय कहलाता है। ( गोम्मटसार जीवकांड/573 )।गोम्मटसार जीवकांड/573
अवरा पज्जायट्ठिदी खणमेत्तं होदि तं च समओत्ति। =संपूर्ण द्रव्यों की जघन्य पर्याय स्थिति एक समयमात्र होती है, इसी को समय भी कहते हैं। - आत्मा के अर्थ में
समयसार / आत्मख्याति/2 जीवनाम पदार्थ: स समय:, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्ते:। =जीव नामक पदार्थ समय है। जो एकत्व रूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ वह समय है।
समयसार / आत्मख्याति/3 समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते। समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्ते:। =समय शब्द से सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार 'समयते' अर्थात् एकीभाव से अपने गुणपर्यायों को प्राप्त होकर जो परिणमन करता है सो समय है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/151/214/13 )
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/151/214/13 सम्यगय: संशयादिरहितो बोधो ज्ञानं यस्य भवति स समय: अथवा समित्येकत्वेन परमसमयरसीभावेन स्वकीयशुद्धस्वरूपे अयनं गमनं परिणमनं समय:। ='सम्यगय:' अर्थात् संशय आदि रहित ज्ञान जिसका होता है ऐसा जीव समय है। अथवा एकीभावरूप से परमसमरसी भाव स्वरूप अपने शुद्ध स्वरूप में गमन करना, परिणमन करना सो समय है।
समयसार/ पं.जयचंद/2
'सम' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एक साथ' है और 'अय गतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है, इसलिए एक साथ ही जानना और परिणमन करना, यह दोनों क्रियाएँ जिसमें हों वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एक ही समय में परिणमन भी करता है और जानता भी है इसलिए वह समय है। - पदार्थ समूह के अर्थ में
पंचास्तिकाय/3 समवाओ पंचण्ह समउ त्ति जिणुत्तमेहि पण्णत्तं।...। = पाँच अस्तिकाय का समभावपूर्वक निरूपण अथवा उनका समवाय वह समय है।
- सिद्धांत के अर्थ में
स्याद्वादमंजरी 30/335/12 सम्यक् एति गच्छति शब्दोऽर्थमनेन इति पुन्नाम्नि घ: समयसंकेत:। यद्वा सम्यग् अवैपरीत्येन ईयंते ज्ञायंते जीवाजीवादयोऽथवा अनेन इति समय: सिद्धांत:। अथवा सम्यग् अयंते गच्छंति जीवादय: पदार्था: स्वरूपे प्रतिष्ठां प्राप्नुवंति अस्मिन् इति समय आगम:। ...उत्पादव्ययध्रौव्यप्रपंच: समय:। =जिससे शब्द का अर्थ ठीक-ठीक मालूम हो सो समय है अर्थात् संकेत। यहाँ सम-इ धातु से 'पुन्नाम्नि घ:' इस सूत्र से समय शब्द बनता है। अथवा जिससे जीव, अजीव आदि पदार्थों का भले प्रकार से ज्ञान हो ऐसा सिद्धांत समय है। अथवा जिसमें जीव आदिक पदार्थों का ठीक-ठीक वर्णन हो ऐसा आगम समय है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के सिद्धांत को समय कहते हैं।
- सामायिक के अर्थ में
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/3 तत्र च पंचानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यनुपहतो वर्णपदवाक्यसंनिवेशविशिष्ट: पाठो वाद: शब्दसमय: शब्दागम इति यावत् । तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यग्वाय: परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानागम इति यावत् । तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवाय: संघातोऽर्थसमय: सर्वपदार्थसार्थ इति यावत् । =सम् अर्थात् मध्यस्थ यानी जो रागद्वेष से विकृत नहीं हुआ, वाद अर्थात् वर्ण पद और वाक्य के समूह वाला पाठ। पाँच अस्तिकाय का 'समवाय' अर्थात् मध्यस्थ पाठ वह शब्दसमय है अर्थात् शब्दागम वह शब्द समय है। मिथ्यादर्शन के उदय का नाश होने पर, उस पंचास्तिकाय का ही सम्यग् अवाय अर्थात् सम्यग्ज्ञान वह ज्ञान समय है अर्थात् ज्ञानागम वह ज्ञान समय है। कथन के निमित्त से ज्ञात हुए उस पंचास्तिकाय का ही वस्तु रूप से समवाय अर्थात् समूह वह अर्थसमय है।
रयणसार/ मूल/147 बहिरंतरप्पभेयं परसमयं भण्णए जिणिंदेहिं। परमप्पो सगसमयं तब्भेयं जाण गुणठाणे।147। =जिनेंद्र देव ने बहिरात्मा, अंतरात्मा को परसमय बतलाया है। तथा परमात्मा को स्वसमय बतलाया है। इनके विशेष भेद गुणस्थान की अपेक्षा समझने चाहिए।
देखें - मिथ्यादृष्टि परसमय रत है।
समयसार/2 जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं।2। =हे भव्य, जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है वह निश्चय से स्वसमय जानो और जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जानो।
प्रवचनसार 94 जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिद्दिट्ठा। आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा। =जो जीव पर्यायों में लीन हैं उन्हें परसमय कहा गया है ( प्रवचनसार/93 ) जो आत्मस्वभाव में लीन हैं वे स्वसमय जानने।
पंचास्तिकाय/155 जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओघपरसमओ। जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो। =जीव (द्रव्य अपेक्षा से) स्वभाव नियत होने पर भी, यदि अनियत गुणपर्याय वाला हो तो परसमय है। यदि वह (नियत गुणपर्याय से परिणत होकर) स्वसमय को करता है तो कर्मबंध करता है।
पंचास्तिकाय व तात्पर्यवृत्ति/165 उत्थानिका सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत् ।‒अण्णाणदो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो।165। कश्चित्पुरुषो निर्विकारशुद्धात्मभावनालक्षणे परमोपेक्षा संयमे स्थातुमीहते तत्राशक्त: सन् कामक्रोधाद्यशुद्धपरिणामवंचनार्थं संसारस्थितिछेदनार्थं वा यदा पंचपरमेष्ठिषु गुणस्तवनभक्तिं करोति तदा सूक्ष्मपरसमयपरिणत: सन् सरागसम्यग्दृष्टिर्भवतीति, यदि पुन: शुद्धात्मभावनासमर्थोऽपि तां त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकांतेन मन्यते तदा स्थूलपरसमयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्यादृष्टिर्भवति। तत: स्थितं अज्ञानेन जीवो नश्यतीति। =यह सूक्ष्म परसमय के स्वरूप का कथन है। शुद्धसंप्रयोग से दुख मोक्ष होता है ऐसा यदि अज्ञान के कारण ज्ञानी माने तो वह परसमयरत जीव है।165। कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्म भावना है लक्षण जिसका ऐसे परमोपेक्षा संयम में स्थित होने की इच्छा करता है परंतु अशक्त होता हुआ, जब काम-क्रोधादि अशुद्ध परिणामों से बचने के लिए तथा संसार स्थिति के विनाश के लिए पंचपरमेष्ठी के गुणस्तवन आदि रूप भक्ति करता है, तब सूक्ष्म परसमय से परिणत होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है। और यदि शुद्धात्म भावना में समर्थ होने पर भी उसको छोड़कर, शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है ऐसा मानता है, तब वह स्थूल परसमय रूप परिणाम से अज्ञानी व मिथ्यादृष्टि होता है। अत: सिद्ध हुआ कि अज्ञान से जीव का नाश होता है।
* परसमय निर्देश
पुराणकोष से
(1) यह कारणभूत कालाणुओं से उत्पन्न होता है । सर्व जघन्य गति से गमन करता हुआ परमाणु जितने समय में अपने पूर्व प्रदेश से उत्तरवर्ती प्रदेश पर पहुंचता है उतने काल को समय कहा है । यह अविभाज्य होता है । महापुराण 3.12, हरिवंशपुराण 7.11, 17-18
(2) श्रावक की दीक्षा । यह शास्त्र के अनुसार गौत्र, जाति आदि के दूसरे नाम धारण करने के लिए दी जाती है । महापुराण 39.56